भाषाएं नहीं होती हैं साम्प्रदायिक
डॉ. सुधीर शर्मा
पं. नंदकिशोर शुक्ल और संजय द्विवेदी के बहाने अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ विश्व की आधार भाषा संस्कृत का गौरव-गान करने का सौभाग्य मिल रहा है। भाषा की महत्ता और उसकी अस्मिता से दूर केवल बोलचाल तक सिमट रहे जनमानस को जगाने के लिए यह बहस सार्थक साबित हो रही है। अनेक विद्वानों ने संस्कृत और छत्तीसगढ़ी की महत्ता विभिन्न संदर्भों और अनुभवों के माध्यम से प्रतिपादित की है। बहस एक-दूसरे को काटने के बजाय एक-दूसरे के विचारों को आगे बढ़ाने में क्रियाशील है।
बहस के केंद्र में छत्तीसगढी क़े लिए मर-मिटने के लिए बुढ़ापे में निकले पं. नंदकिशोर शुक्ल हैं। श्री शुक्ल का यह कथन कि संस्कृत के बजाय छत्तीसगढ़ी को प्राथमिक स्तर से पाठयक्रम में शामिल करना निश्चित ही विवाद का विषय है, और कोई भी भाषावैज्ञानिक इससे पूरी तरह सहमत नहीं हो सकता। हमें बजाय शब्द पर आपत्ति है। श्री शुक्ल ने अपनी भाषा एवं अस्मिता के लिए विभिन्न मोर्चों पर सतत संघर्षरत विद्वानों को एकजुट करने का सराहनीय कार्य किया था। यह भी सच है कि छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाए जाने के निर्णय के आसपास वे पूरी तरह निष्ठा के साथ मौजूद थे। उनके साथ इस आंदोलन में उनके तेवर और सत्ताधीशों के साथ तू-तू, मैं-मैं से हम वाकिफ हैं। दरअसल श्री शुक्ल छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ के अस्मिता को लेकर गुस्सा भी जाते हैं और इसी उतावलापन या अतिउत्साह से वे संस्कृत के बारे में टिप्पणी कर चुके होंगे। बहरहाल इस बहस के बहाने कुछ ठोस बिन्दुओं पर बातचीत जारी रखें।
संस्कृत की विश्वव्यापी महत्ता आज से नहीं हजारों-हजार वर्षों से है। विश्व के अधुनातन देशों ने भी प्रारंभ से संस्कृत की महत्ता को स्वीकार किया है। दरअसल पश्चिमी भाषा वैज्ञानिक संस्कृत के व्याकरणिक ढांचे को लेकर ही अपनी भाषा का अध्ययन कर पाते हैं। पाणिनि, यास्क, कात्यायन, पंतजलि, आनंदवर्धन, भर्तृहरि, भाष्य जैसे अनेक व्याकरणार्च और विभिन्न शास्त्रों के ज्ञाताओं ने सैकड़ों वर्ष पूर्व जिन सिध्दांतों का प्रतिपादन किया था, आज भी उन्हीं सिध्दांतों के सहारे ही भाषावैज्ञानिक अध्ययन कर रहे हैं। ब्लूमफील्ड, सस्यूर, नॉम चॉमस्की जैसे अनेक पश्चिमी विद्वानों का अध्ययन भी संस्कृत के इन महान आचार्यों के सामने बौना दिखाई देता है। वे कहीं न कहीं उनसे प्रेरित या उनकी छाया में गुम दिखाई देते हैं। देरिदा भी नागार्जुन, शंकराचार्य और अरविंद से प्रभावित लगते हैं। संस्कृत दरअसल प्रयोग में न आने के बावजूद समूचे विश्व की भाषा है। संस्कृत भाषा विश्व परिवार एवं सार्वजनीन भ्रातृभाव की जननी है। शंकराचार्य और रामानुजाचार्य ने अपनी पूरी शक्ति इसके उत्थान के लिए लगा दी थी। चीन की बड़ी दीवार पर संस्कृत के धर्मसूत्र अंकित हैं। मध्य एशिया में अनेक स्थलों पर संस्कृत-ग्रंथों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। भाषा विज्ञान ने संस्कृत को मानव जाति की प्राचीनतम भाषा माना है। मैक्समूलर ने आंतरिक शांति के उद्देश्य से रचित साहित्य को संस्कृत भाषा का साहित्य माना है। वास्तव में संस्कृत हमारी संस्कृति का मूलाधार है। इसके साहित्य में देश की आत्मा बसी है। ऐसी कोई विधा नहीं जो संस्कृत साहित्य में पूरी तार्किकता के साथ मौजूद नहीं, ऐसा कोई ज्ञान-क्षेत्र नहीं जो अपने मौलिक सिध्दांत के साथ उपस्थित न हो।
बात संस्कृत को प्राथमिक स्तर पर पढ़ाए जाने के संबंध में की जा रही है, तब इस बात की भी चिंता करनी चाहिए कि प्राथमिक स्तर पर पढ़ाई किस पध्दति से हो रही है और वर्तमान मानसिकता किस ओर है। समूचा भारत और अब एशिया के अनेक देश भी अंग्रेजी की ओर मुंह ताक रहे हैं। ग्लोबलाइजेशन ने इसे और मजबूत कर दिया है। विश्व बाजार में अपना वर्चस्व बनाने अंग्रेजी के सहारे की जरूरत दिखाई देती है। दूसरी ओर इस बाजार के दादाओं की ओर देखें तो उन्हें लगता है कि बिना देशीय या क्षेत्रीय भाषाओं के उनके उत्पाद और उसके साथ विचार गांवों तक नहीं पहुंच सकते हैं। प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी अब अनिवार्य हो चुकी है। संस्कृत का अध्यापन कराने से एक लाभ जरूर होगा कि हम भाषा की शुध्दता एवं उसके आधार को आत्मसात कर सकेंगे। परंतु संस्कृत का पाठ गंभीरता से न होकर बचकाना और महज औपचारिकता के लिए कराया गया तो और भी अनर्थ होगा। हो यही रहा है। अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में संस्कृत और हिंदी को मजाक की तरह पढ़ाया जा रहा है। हम स्वयं अपनी भाषा के प्रति सचेत नहीं है। अशुध्द अंग्रेजी बोलने से भयभीत रहते हैं और दिनभर अशुध्द हिंदी का प्रयोग कर जी रहे हैं। इसलिए संस्कृत को पूरी गंभीरता और योजनाबध्द ढंग से अध्ययन के लिए लागू करना चाहिए।
संस्कृत से अलग मातृभाषा के अध्यापन की बात करें तो केंद्र सरकार ने पहले ही फरमान जारी किया हुआ है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा का माध्यम मातृभाषाएं हों। अनेक राज्यों में ऐसा हो भी रहा है। छत्तीसगढ़ में भी अनेक बोलियों के लिए पाठयक्रम तैयार किए गए हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ी को बार-बार छोड़ना किस मानसिकता की ओर इशारा करता है। दरअसल छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना से जो भय का वातावरण राज्य बनने से पहले था, लगभग वही वातावरण छत्तीसगढ़ी को लेकर है। यह सत्य ही है कि मातृभाषाएं मनुष्य को दिल से जोड़ती हैं। बिखरा हुआ समाज अपनी मातृभाषा की मिठास पाकर एकजुट हो जाता है। यह एकजुटता क्षेत्रीय अस्मिता की सबसे बड़ी पूंजी है। इसी ताकत का अपने अधिकारों की रक्षा के लिए प्रयोग किया जाता है। छत्तीसगढ़ राज्य की सशक्त वैचारिक आंदोलन के पीछे भी मैं छत्तीसगढ़ी की ताकत को खड़ा पाता हूं। यही ताकत क्षेत्रीय अस्मिता को देश के दूसरे राज्यों की तरह दूसरी ओर न धकेल दे यही चिंता अनेक लोगों की है। दूसरी ओर बिना छत्तीसगढ़ी के छत्तीसगढ़ में न तो सत्ता पाई जा सकती है, न व्यापार किया जा सकता है और तो और छत्तीसगढ़ियों का शोषण भी नहीं किया जा सकता। अंग्रेजों ने संस्कृत, हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने और उस पर वृहद अध्ययन करने का कार्य यूं ही नहीं किया था। भारत में इकलौता वृहद भाषा-सर्वेक्षण का कार्य उन्होंने ही तो अपने निहित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया था। उसी अध्ययन से हीरालाल काव्योपाध्याय का छत्तीसगढ़ी व्याकरण उपजा है, जिस पर आज हम गर्व करते हैं। जिन लोगों ने छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी को आत्मसात किया है वे सुखी हैं। इसके विपरीत जो लोग अपनी भाषा-अपनी अस्मिता के दीप को प्रावलित रखना जरूरी समङाते हैं, वे गैर छत्तीसगढ़िया कहलाने का दुख भी ङोल रहे हैं। यह बहस बहुत लंबी हो सकती है, लेकिन निष्कर्ष यही निकलता है कि भाषाएं साम्प्रदायिक नहीं होती। एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति की रक्षा करना और उसका सम्मान करना हमारी मानवीय आवश्यकता है।
(लेखक छत्तीसगढ़ी राजभाषा आंदोलन से जुड़े साहित्यकार हैं)
बहस के केंद्र में छत्तीसगढी क़े लिए मर-मिटने के लिए बुढ़ापे में निकले पं. नंदकिशोर शुक्ल हैं। श्री शुक्ल का यह कथन कि संस्कृत के बजाय छत्तीसगढ़ी को प्राथमिक स्तर से पाठयक्रम में शामिल करना निश्चित ही विवाद का विषय है, और कोई भी भाषावैज्ञानिक इससे पूरी तरह सहमत नहीं हो सकता। हमें बजाय शब्द पर आपत्ति है। श्री शुक्ल ने अपनी भाषा एवं अस्मिता के लिए विभिन्न मोर्चों पर सतत संघर्षरत विद्वानों को एकजुट करने का सराहनीय कार्य किया था। यह भी सच है कि छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाए जाने के निर्णय के आसपास वे पूरी तरह निष्ठा के साथ मौजूद थे। उनके साथ इस आंदोलन में उनके तेवर और सत्ताधीशों के साथ तू-तू, मैं-मैं से हम वाकिफ हैं। दरअसल श्री शुक्ल छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ के अस्मिता को लेकर गुस्सा भी जाते हैं और इसी उतावलापन या अतिउत्साह से वे संस्कृत के बारे में टिप्पणी कर चुके होंगे। बहरहाल इस बहस के बहाने कुछ ठोस बिन्दुओं पर बातचीत जारी रखें।
संस्कृत की विश्वव्यापी महत्ता आज से नहीं हजारों-हजार वर्षों से है। विश्व के अधुनातन देशों ने भी प्रारंभ से संस्कृत की महत्ता को स्वीकार किया है। दरअसल पश्चिमी भाषा वैज्ञानिक संस्कृत के व्याकरणिक ढांचे को लेकर ही अपनी भाषा का अध्ययन कर पाते हैं। पाणिनि, यास्क, कात्यायन, पंतजलि, आनंदवर्धन, भर्तृहरि, भाष्य जैसे अनेक व्याकरणार्च और विभिन्न शास्त्रों के ज्ञाताओं ने सैकड़ों वर्ष पूर्व जिन सिध्दांतों का प्रतिपादन किया था, आज भी उन्हीं सिध्दांतों के सहारे ही भाषावैज्ञानिक अध्ययन कर रहे हैं। ब्लूमफील्ड, सस्यूर, नॉम चॉमस्की जैसे अनेक पश्चिमी विद्वानों का अध्ययन भी संस्कृत के इन महान आचार्यों के सामने बौना दिखाई देता है। वे कहीं न कहीं उनसे प्रेरित या उनकी छाया में गुम दिखाई देते हैं। देरिदा भी नागार्जुन, शंकराचार्य और अरविंद से प्रभावित लगते हैं। संस्कृत दरअसल प्रयोग में न आने के बावजूद समूचे विश्व की भाषा है। संस्कृत भाषा विश्व परिवार एवं सार्वजनीन भ्रातृभाव की जननी है। शंकराचार्य और रामानुजाचार्य ने अपनी पूरी शक्ति इसके उत्थान के लिए लगा दी थी। चीन की बड़ी दीवार पर संस्कृत के धर्मसूत्र अंकित हैं। मध्य एशिया में अनेक स्थलों पर संस्कृत-ग्रंथों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। भाषा विज्ञान ने संस्कृत को मानव जाति की प्राचीनतम भाषा माना है। मैक्समूलर ने आंतरिक शांति के उद्देश्य से रचित साहित्य को संस्कृत भाषा का साहित्य माना है। वास्तव में संस्कृत हमारी संस्कृति का मूलाधार है। इसके साहित्य में देश की आत्मा बसी है। ऐसी कोई विधा नहीं जो संस्कृत साहित्य में पूरी तार्किकता के साथ मौजूद नहीं, ऐसा कोई ज्ञान-क्षेत्र नहीं जो अपने मौलिक सिध्दांत के साथ उपस्थित न हो।
बात संस्कृत को प्राथमिक स्तर पर पढ़ाए जाने के संबंध में की जा रही है, तब इस बात की भी चिंता करनी चाहिए कि प्राथमिक स्तर पर पढ़ाई किस पध्दति से हो रही है और वर्तमान मानसिकता किस ओर है। समूचा भारत और अब एशिया के अनेक देश भी अंग्रेजी की ओर मुंह ताक रहे हैं। ग्लोबलाइजेशन ने इसे और मजबूत कर दिया है। विश्व बाजार में अपना वर्चस्व बनाने अंग्रेजी के सहारे की जरूरत दिखाई देती है। दूसरी ओर इस बाजार के दादाओं की ओर देखें तो उन्हें लगता है कि बिना देशीय या क्षेत्रीय भाषाओं के उनके उत्पाद और उसके साथ विचार गांवों तक नहीं पहुंच सकते हैं। प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी अब अनिवार्य हो चुकी है। संस्कृत का अध्यापन कराने से एक लाभ जरूर होगा कि हम भाषा की शुध्दता एवं उसके आधार को आत्मसात कर सकेंगे। परंतु संस्कृत का पाठ गंभीरता से न होकर बचकाना और महज औपचारिकता के लिए कराया गया तो और भी अनर्थ होगा। हो यही रहा है। अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में संस्कृत और हिंदी को मजाक की तरह पढ़ाया जा रहा है। हम स्वयं अपनी भाषा के प्रति सचेत नहीं है। अशुध्द अंग्रेजी बोलने से भयभीत रहते हैं और दिनभर अशुध्द हिंदी का प्रयोग कर जी रहे हैं। इसलिए संस्कृत को पूरी गंभीरता और योजनाबध्द ढंग से अध्ययन के लिए लागू करना चाहिए।
संस्कृत से अलग मातृभाषा के अध्यापन की बात करें तो केंद्र सरकार ने पहले ही फरमान जारी किया हुआ है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा का माध्यम मातृभाषाएं हों। अनेक राज्यों में ऐसा हो भी रहा है। छत्तीसगढ़ में भी अनेक बोलियों के लिए पाठयक्रम तैयार किए गए हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ी को बार-बार छोड़ना किस मानसिकता की ओर इशारा करता है। दरअसल छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना से जो भय का वातावरण राज्य बनने से पहले था, लगभग वही वातावरण छत्तीसगढ़ी को लेकर है। यह सत्य ही है कि मातृभाषाएं मनुष्य को दिल से जोड़ती हैं। बिखरा हुआ समाज अपनी मातृभाषा की मिठास पाकर एकजुट हो जाता है। यह एकजुटता क्षेत्रीय अस्मिता की सबसे बड़ी पूंजी है। इसी ताकत का अपने अधिकारों की रक्षा के लिए प्रयोग किया जाता है। छत्तीसगढ़ राज्य की सशक्त वैचारिक आंदोलन के पीछे भी मैं छत्तीसगढ़ी की ताकत को खड़ा पाता हूं। यही ताकत क्षेत्रीय अस्मिता को देश के दूसरे राज्यों की तरह दूसरी ओर न धकेल दे यही चिंता अनेक लोगों की है। दूसरी ओर बिना छत्तीसगढ़ी के छत्तीसगढ़ में न तो सत्ता पाई जा सकती है, न व्यापार किया जा सकता है और तो और छत्तीसगढ़ियों का शोषण भी नहीं किया जा सकता। अंग्रेजों ने संस्कृत, हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने और उस पर वृहद अध्ययन करने का कार्य यूं ही नहीं किया था। भारत में इकलौता वृहद भाषा-सर्वेक्षण का कार्य उन्होंने ही तो अपने निहित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया था। उसी अध्ययन से हीरालाल काव्योपाध्याय का छत्तीसगढ़ी व्याकरण उपजा है, जिस पर आज हम गर्व करते हैं। जिन लोगों ने छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी को आत्मसात किया है वे सुखी हैं। इसके विपरीत जो लोग अपनी भाषा-अपनी अस्मिता के दीप को प्रावलित रखना जरूरी समङाते हैं, वे गैर छत्तीसगढ़िया कहलाने का दुख भी ङोल रहे हैं। यह बहस बहुत लंबी हो सकती है, लेकिन निष्कर्ष यही निकलता है कि भाषाएं साम्प्रदायिक नहीं होती। एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति की रक्षा करना और उसका सम्मान करना हमारी मानवीय आवश्यकता है।
(लेखक छत्तीसगढ़ी राजभाषा आंदोलन से जुड़े साहित्यकार हैं)
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