शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

भारतीय पत्रकारिता के ‘कर्मवीर’ पं. माखनलाल चतुर्वेदी


-प्रो. संजय द्विवेदी
प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल



   पं.माखनलाल चतुर्वेदी के संपादन में निकला कर्मवीर एक ऐसा पत्र है, जिसकी धमक हम आज भी महसूस करते हैं। हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में कर्मवीर एक ऐसा नाम है, जिसे छोड़कर भारतीय पत्रकारिता का समग्र मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। इसी तरह उसके संपादक पं. माखनलाल चतुर्वेदी और उनकी संपूर्ण जीवनयात्राआत्मसमर्पण के खिलाफ लड़ने वाले संपादक की यात्रा है। रचना और संघर्ष की भावभूमि पर खड़ी हुयी उनकी लेखनी में अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध का जज्बा न चुकान कम हुआ। वस्तुतः वे एक साथ कई मोर्चों पर लड़ रहे थे और कोई मोर्चा ऐसा न थाजहां उन्होंने अपनी छाप न छोड़ी हो। सही मायने में कर्मवीर के संपादक ने अपने पत्र के नाम को सार्थक किया और माखनलाल जी स्वयं कर्मवीर बन गए। 4 अप्रैल, 1889 को होशंगाबाद(मप्र) के बाबई जिले में जन्में माखनलालजी ने जब पत्रकारिता शुरू की तो सारे देश में राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव देखा जा रहा था। राष्ट्रीयता एवं समाज सुधार की चर्चाएं और फिरंगियों को देश बदर करने की भावनाएं बलवती थीं। इसी के साथ महात्मा गांधी जैसी तेजस्वी विभूति के आगमन ने सारे आंदोलन को एक नई ऊर्जा से भर दिया। दादा माखनलाल जी भी उन्हीं गांधी भक्तों की टोली में शामिल हो गए। गांधी के जीवन दर्शन से अनुप्राणित दादा ने रचना और कर्म के स्तर पर जिस तेजी के साथ राष्ट्रीय आंदोलन को ऊर्जा एवं गति दी वह महत्व का विषय है।
पत्रकारिता का गांधी समयः
       इस दौर की पत्रकारिता भी कमोवेश गांधी के विचारों से खासी प्रभावित थी। सच कहें तो हिंदी पत्रकारिता का वह जमाना ही अजीब था। आम कहावत थी – जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो और सच में अखबार की ताकत का अहसास आजादी के दीवानों को हो गया था। इसी के चलते सारे देश में आंदोलन से जुड़े नेताओं ने अपने पत्र निकाले। जिनके माध्यम से ऐसी जनचेतना पैदा की कि भारत आजादी की सांस ले सका। वस्तुतः इस दौर में अखबारों का इस्तेमाल एक अस्त्र के रूप में हो रहा था और माखनलाल जी का कर्मवीर इसमें एक जरूरी नाम बन गया था।
    हालांकि इस दौर में राजनीतिक एवं सामाजिक पत्रकारिता के समानांतर साहित्यिक पत्रकारिता का एक दौर भी चल रहा था। सरस्वती और उसके संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी उसके प्रतिनिधि के रूप में उभरे। माखनलाल जी ने भी 1913 में प्रभा नाम की एक उच्चकोटि की साहित्यिक पत्रिका के माध्यम से इस क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप किया। लोगों को झकझोरने एवं जगानेवाली रचनाओं के प्रकाशन के माध्यम से प्रभा शीध्र ही हिंदी जगत का एक जरूरी नाम बन गयी। दादा की 56 सालों की ओजपूर्ण पत्रकारिता की यात्रा में प्रतापप्रभा  कर्मवीर उनके विभिन्न पड़ाव रहे। साथ ही उनकी राजनीतिक वरीयता भी बहुत उंची थी। वे बड़े कवि थेपत्रकार थे पर उनके इन रूपों पर राजनीति कभी हावी न हो पायी। इतना ही नहीं जब प्राथमिकताओं की बात आयी तो मप्र कांग्रेस का वरिष्टतम नेता होने के बावजूद उन्होंने सत्ता में पद लेने के बजाए मां सरस्वती की साधना को ही प्राथमिकता दी। आजादी के बाद 30 अप्रैल, 1968 तक वे जीवित रहे पर सत्ता का लोभ उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाया। इतना ही नहीं 1967 में भारतीय संसद द्वारा राजभाषा विधेयक पारित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रपति को वह पद्मभूषण का अलंकरण भी लौटा दिया जो उन्हें 1963 में दिया गया था। उनके मन में संघर्ष की ज्वाला हमेशा जलती रही। वे निरंतर समझौतों के खिलाफ लोंगों में चेतना जगाते रहे। उन्होंने स्वयं लिखा है-
अमर राष्ट्रउदंड राष्ट्रउन्मुक्त राष्ट्रयह मेरी बोली
यह सुधार-समझौतों वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली।
     माखनलाल जी सदैव असंतोष एवं मानवीय पीड़ाबोध को अपनी पत्रकारिता के माध्यम से स्वर देते रहे। पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई भी जंजीर उन्हें बांध नहीं पायी। उनकी लेखनी भद्रता एवं मर्यादा की तो कायल थी किंतु वे भयसंत्रास एवं बंधनों के खिलाफ थे।
कर्मवीर और उसके संपादक के तेवरः
 कर्मवीर के संपादक कैसे संपादक थे, इसे बताने के लिए उन्होंने कहा कि – हम फक्कड़ सपनों के स्वर्गों को लुटाने निकले हैं। किसी की फरमाइश पर जूते बनानेवाले चर्मकार नहीं हैं हम” यह निर्भीकता ही उनकी पत्रकारिता की भावभूमि का निर्माण करती थी। स्वाधीनता आंदोलन की आँच को तेज करने में उनका कर्मवीर अग्रणी बना। कर्मवीर की परिधि व्यापक थी। राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय विषयों पर समान अधिकार से चलने वाली संपादक की लेखनी हिंदी को सोच की भाषा देने वाली तथा युगचिंतन को भविष्य के परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करने वाली थी। कर्मवीर जिस भाषा में अंग्रेजी राजसत्ता से संवाद कर रहा थाउसे देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय जनमानस में आजादी पाने की ललक कितनी तेज थी।
   स्वाधीनता आंदोलन में अपने प्रखर हस्तक्षेप के अलावा कर्मवीर ने जीवन के विविध पक्षों को भी पर्याप्त महत्व दिया। आए दिन होने वाली घटनाओं को मापने- जोखने एवं उनसे रास्ता निकालने की दिव्यदृष्टि भी कर्मवीर के संपादक के पास थी। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से राजनीति के अलावा साहित्य कला और संस्कृति को भी उन्होंने महत्व दिया। साहित्यिक पत्रों के संदर्भ में उनकी समझदारी विलक्षण थी वो कहते हैं- हिंदी भाषा का मासिक साहित्य बेढंगें और बीते जमाने की चाल चल रहा है। यहां बरसाती कीड़ों की तरह पत्र पैदा होते हैं। फिर भी यह आश्चर्य नहीं कि वे मर क्यों जाते हैं। यूरोप में हर पत्र अपनी एक निश्चित नीति रखता है। हिंदी वालों को इस मार्ग में रीति की गंध नहीं लगी। यह टिप्पणी आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है।
     अपने लंबे पत्रकारीय जीवन के माध्यम से दादा ने नई पीढ़ी को रचना और संघर्ष का जो पाठ पढ़ाया वह आज भी हतप्रभ कर देने वाला है। कम ही लोग जानते होंगें कि दादा को इसकी कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। उनके संपादकीय कार्यालय यानी घर पर तिरसठ बार छापे पड़ेतलाशियां हुयीं। 12 बार वे जेल गए। कर्मवीर को अर्थाभाव में कई बार बंद होना पड़ा। लेखक से लेकर प्रूफ रीडर तक सबका कार्य वे स्वयं कर लेते थे। इन अर्थों में दादा विलक्षण स्वावलंबी थे।
पत्रकारिता के मूल्य और राष्ट्र प्रथम की नीतिः
कर्मवीर एक ऐसा पत्र था जिसके संपादक आजादी के आंदोलन के अग्रणी नेता थे। इसलिए राष्ट्र प्रथम उसकी वैचारिक नीति भी रही। आजादी के समय देश के बंटवारे का दंश पूरे देशवासियों के मनों को मथ रहा था। इस भावना को व्यक्त करते हुए कर्मवीर के 15 अगस्त,1947 को माखनलाल जी लिखते हैं- यह 15 अगस्त है, भारत दो टुकड़े हैं, किंतु आजाद है, क्या पूर्ण आजाद है...? यह जवाहर और जयप्रकाश जानें कि भारत पूर्ण स्वतंत्र होगा या उपनिवेश बनकर रह जाएगा। नोआखली को जानेवाले यात्री गांधी से गांधी से देश स्वागत नहीं कह सकता, क्योंकि देश खंडित है। बिदा भी नहीं कह सकते क्योंकि अखंड भारत और पूर्ण स्वातंयि का स्वप्न अभी अपनी मुठ्ठी में लिए वह चला जा रहा है। यह 15 अगस्त है। इसी तरह पत्रकारिता उनके लिए राष्ट्रसेवा और समाज के जागरण का ही एक माध्यम थी। कर्मवीर के माध्यम से वे यही कर रहे थे। भरतपुर के संपादक सम्मेलन में वे पत्रकारिता जगत का आह्वान करते हुए कहते हैं-यदि समाचार पत्र संसार की एक बड़ी ताकत है तो उसके सिर जोखिम भी कम नहीं है। पर्वत की जो शिखरें हिम से चमकती हैं और राष्ट्रीय रक्षा की महान दीवार बनती हैं, उन्हें ऊंची होना पड़ता है। जगत में समाचार पत्र यदि बड़प्पन पाए हुए हैं, तो उनकी जिम्मेदारी भी भारी है।बिना जिम्मेदारी के बड़प्पन का मूल्य ही क्या है?
     कर्मवीर अपने समय का एक ऐसा पत्र बना जिसने समकालीन रचनाशीलता को बहुत प्रोत्साहित किया। तमाम उदीयमान लेखक इसके माध्यम से लेखन की दुनिया में आए। इसके साथ ही अनेक बड़े लेखक जैसे बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्रा कुमारी चौहान, रमाशंकर शुक्ल, भवानी प्रसाद तिवारी, भवानी प्रसाद मिश्र, प्रभाकर माचवे, गजानन माधव मुक्तिबोध, वीरेंद्र जैन, शिवमंगल सिंह सुमन, धर्मवीर भारती ही नहीं दिनकर, रामबृक्ष बेनीपुरी, सोहनलाल द्विवेदी तक इसमें छपते रहे।
कर्मवीर की संपादकीय नीतिः
      माखनलाल जी आम लोगों के बीच से उपजे पत्रकार थे। उनका कहना था कि पत्र संपादक की दृष्टि परिणाम पर सतत लगी रहनी चाहिए। क्योंकि वह समस्त देश के समक्ष उत्तरदायी है। वे समाचार पत्रों में उत्तरदायित्तव की भावना भरना चाहते थे। वहीं उनके मन में समाचार पत्र की पूर्णता को लेकर भी विचार थे। उनकी सोच थी कि हमें अपने पत्रों को ऐसा बनाना चाहिए कि हम पर ज्ञान की कमी का लांछन न लगे। वे पत्रकारिता जगत में फैल सकने वाले प्रदूषण के प्रति भी आशंकित थे। इसी के चलते उन्होंने अपने लिए आचार संहिता भी बनाई। आज जब पत्रकारिता और पत्रकारों के चरित्र पर सवालिया निशान लग रहे हैं तो यह सहज ही पता लग जाता है कि दादा वस्तुतः कितनी अग्रगामी सोच के वाहक थे। हिंदी पत्र साहित्य को उनकी एक बड़ी देन यह है कि उन्होंने कई तरह से हिंदी को मोड़ा और लचीला बनाया। भाषा को समृद्ध एवं जनप्रिय बनाने में उनका योगदान सदा स्मरणीय रहेगा। 4 अप्रैल,1925 को खंडवा से कर्मवीर का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। कर्मवीर’ के संपादक के रूप में पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने संपादन-सिद्धांत बनाए और उन्हें घोषित किया जो इस प्रकार थे-
1.    कर्मवीर’ संपादन और ‘कर्मवीर परिवार’ की कठिनाइयों का उल्लेख न करना।
2.    कभी धन के लिए अपील न निकालना।
3.    ग्राहक संख्या बढ़ाने के लिए ‘कर्मवीर’ के कालमों में न लिखना।
4.    क्रांतिकारी पार्टी के खिलाफ वक्तव्य नहीं छापना। (गांधीजी का वक्तव्य भी कर्मवीर में नहीं छपा था।)
5.    सनसनीखेज खबरें नहीं छापना।
6.    विज्ञापन जुटाने के लिए किसी आदमी की नियुक्ति न करना।
     ये संपादकीय सिद्धांत कर्मवीर के तेवर को बताते हैं। आज के समय में इन सिद्धांतों पर चलकर पत्र प्रकाशन मुश्किल है। लेकिन माखनलाल जी ने ऐसा किया और गरिमा के साथ किया। आजादी के आंदोलन में वे महात्मा गांधी के अनुयायी थे किंतु गरम दल के नेताओं और क्रांतिकारियों के प्रति उनकी सहानुभूति साफ दिखती थी। उनका मानना था कि अलग-अलग मार्ग से हम सभी भारत माता की मुक्ति के यज्ञ में योगदान दे रहे हैं, इसलिए क्रांतिकारियों के विरुद्ध कुछ भी कर्मवीर नहीं छापेगा। महात्मा गांधी स्वयं उनके इस संकल्प को जानते थे। राष्ट्रपिता ने इस महान पत्रकार के बारे में कहा-हम सब लोग तो बात करते हैं, बोलना (भाषण) तो माखनलाल जी ही जानते हैं। इतना ही नहीं राष्ट्रपिता ने कहा- मैं बाबई जैसे छोटे स्थान पर इसलिए जा रहा हूं क्योंकि वह माखनलालजी का जन्मस्थान है। जिस भूमि ने माखनलालजी को जन्म दिया, उसी भूमि को मैं सम्मान देना चाहता हूं।
चर्चित शायर श्री फिराक गोरखपुरी भी माखनलाल जी कलम के प्रशंसक थे। उनका कहना था कि-उनके लेखों को पढ़ने से ऐसा मालूम होता था कि आदि-शक्ति शब्दों के रूप में अवतरित हो रही है या गंगा स्वर्ग से उतर रही है। यह शैली हिंदी में ही नहीं, भारत की दूसरी भाषाओं में भी विरले ही लोगों को नसीब हुई है। मुझ जैसे हजारों लोंगो ने अपनी भाषा और लिखने की कला माखनलाल जी  से ही सीखी।
पत्रकारिता विद्यापीठ के स्वप्नदृष्टाः
    माखनलाल जी ने ही देश में एक पत्रकारिता विद्यापीठ स्थापित करने का स्वप्न देखा था। उन्होंने भरतपुर(राजस्थान) में 1927 में आयोजित संपादक सम्मेलन में कहा था-हिंदी समाचार पत्रों में कार्यालय में योग्य व्यक्तियों के प्रवेश कराने के लिए, एक पाठशाला आजकल के नए नामों की बाढ़ में से कोई शब्द चुनिए तो कहिए कि एक संपादन कला के विद्यापीठ की आवश्यक्ता है। ऐसी विद्यापीठ किसी योग्य स्थान पर बुद्धिमान, परिश्रमी, अनुभवी, संपादक-शिक्षकों द्वारा संचालित होना चाहिए। उक्त पीठ में अन्यान्य विषयों का एक प्रकांड ग्रंथ संग्रहालय होना चाहिए।” यह संयोग ही है कि उनके इस स्वप्न को 1990 में मध्यप्रदेश सरकार ने साकार करते हुए उनके नाम पर ही भोपाल में पत्रकारिता विश्वविद्यालय की स्थापना की। 30 जनवरी,1968 को उनका निधन हो गया। यह संयोग ही है कि उनकी और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जो उनके आदर्श थे की पुण्यतिथि एक ही दिन मनायी जाती है।
     आज जब पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर संकट के बादल हैंपाठक एवं अखबार के बीच एक नया रिश्ता जन्म ले रहा है ऐसे संक्रमण में कर्मवीर जैसे पत्रों और उसके यशस्वी संपादक की याद आना बहुत स्वाभाविक है। 16-17 जनवरी,1965 को खंडवा में मध्यप्रदेश शासन द्वारा आयोजित कार्यक्रम एक भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी के सम्मान समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने कहा- सत्ता साहित्य के चरणों में नत है।  सही मायनों में कर्मवीर और उसके संपादक का अवदान हमेशा भारतीय पत्रकारिता को उसके उजले अतीत और कर्तव्यबोध की याद दिलाता रहेगा। हमारी कई पीढियां उनके इस अवदान के लिए सदैव नतमस्तक रहेंगी।


शनिवार, 11 जनवरी 2020

युवा शक्ति के प्रेरक और आदर्शः स्वामी विवेकानंद


-प्रो. संजय द्विवेदी
 
  स्वामी विवेकानंद भारतीय आध्यात्मिकता और भारतीय जीवन दर्शन को विश्वपटल पर स्थापित करने वाले नायक हैं। भारत की संस्कृति, भारतीय जीवन मूल्यों और उसके दर्शन को उन्होंने विश्व बंधुत्व और मानवता को स्थापित करने वाले विचार के रूप में प्रचारित किया। अपने निरंतर प्रवासों, लेखन और मानवता को सुख देने वाले प्रकल्पों के माध्यम से उन्होंने यह स्थापित किया कि भारतीयता और वेदांत का विचार क्यों श्रेष्ठ है। कोलकाता महानगर के एक संभ्रांत परिवार में 12 जनवरी,1863 को जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त या नरेन का विवेकानंद हो जाना साधारण घटना नहीं है। बताते हैं कि बाल्यावस्था से ही नरेन एक चंचल प्रकृति के विनोदप्रिय बालक थे। सन्यासी जीवन के प्रति उनका सहज आकर्षण था। बचपन में वे अपने मित्रों से कहा करते थे- मैं तो अवश्य ही सन्यासी बनूंगा। एक हस्तरेखा विशारद ने ऐसी भविष्य वाणी की है। स्वामी रामकृष्ण परंमहंस ने उनकी जिंदगी को पूरा का पूरा बदल डाला। नवंबर,1881 के आसपास हुई गुरु-शिष्य की इस मुलाकात ने एक ऐसे व्यक्तित्व को संभव किया, जिसे रास्तों की तलाश थी।
छोटी जिंदगी का बड़ा पाठ-
    स्वामी विवेकानंद ज्यादा बड़े संन्यासी थे या उससे बड़े संचारक (कम्युनिकेटर) या फिर उससे बड़े प्रबंधक ? यह सवाल हैरत में जरूर डालेगा पर उत्तर हैरत में डालनेवाला नहीं है क्योंकि वे एक नहीं,तीनों ही क्षेत्रों में शिखर पर हैं। वे एक अच्छे कम्युनिकेटर हैंप्रबंधक हैं और संन्यासी तो वे हैं ही। भगवा कपड़ों में लिपटा एक संन्यासी अगर युवाओं का रोल माडल बन जाए तो यह साधारण घटना नहीं हैकिंतु विवेकानंद के माध्यम से भारत और विश्व ने यह होते हुए देखा। उनके विचार अगर आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं तो समय के पार देखने की उनकी क्षमता को महसूस कीजिए। एक बहुत छोटी सी जिंदगी पाकर भी उन्होंने जो कर दिखाया वह इस धरती पर तो चमत्कार सरीखा ही था।
   स्वामी विवेकानंद की बहुत छोटी जिंदगी का पाठ बहुत बड़ा है। वे अपने समय के सवालों पर जिस प्रखरता से टिप्पणियां करते हैं वे परंपरागत धार्मिक नेताओं से उन्हें अलग खड़ा कर देती हैं। वे समाज से भागे हुए सन्यासी नहीं हैं। वे समाज में रच बस कर उसके सामने खड़े प्रश्नों से मुठभेड़ का साहस दिखाते हैं। वे विश्वमंच पर सही मायने में भारतउसके अध्यात्मपुरूषार्थ और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को स्थापित करने वाले नायक हैं। वे एक गुलाम देश के नागरिक हैं पर उनकी आत्मा,वाणी और कृति स्वतंत्र है। वे सोते हुए देश और उसके नौजवानों को झकझोर कर जगाते हैं और नवजागरण का सूत्रपात करते हैं। धर्म को वे जीवन से पलायन का रास्ता बनाने के बजाए राष्ट्रप्रेमराष्ट्र के लोगों से प्रेम और पूरी मानवता से प्रेम में बदल देते हैं।शायद इसीलिए वे कह पाए-“ व्यावहारिक देशभक्ति सिर्फ एक भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। देशभक्ति का अर्थ है अपने साथी देशवासियों की सेवा करने का जज्बा।
अप्रतिम संवाद कला और नेतृत्व क्षमता-
   अपने जीवन,लेखनव्याख्यानों में वे जिस प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैंपूर्णता दिखाते हैं वह सीखने की चीज है। उनमें अप्रतिम नेतृत्व क्षमताकुशल प्रबंधन के गुर,परंपरा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है। उनमें परंपरा का सौंदर्य है और बदलते समय का स्वीकार भी है। वे आधुनिकता से भागते नहींबल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को ज्यादा प्रभावकारी बना पाते हैं। स्वामी जी का लेखन और संवादकला उन्हें अपने समय में ही नहींसमय के पार भी एक नायक का दर्जा दिला देती है।
    आज के समय में जब संचार और प्रबंधन की विधाएं एक अनुशासन के रूप में हमारे सामने हैं तब हमें पता चलता है कि स्वामी जी ने कैसे अपने पूरे जीवन में इन दोनों विधाओं को साधने का काम किया। यह वह समय था जब मीडिया का इतना कोलाहल न था फिर भी छोटी आयु पाकर भी वे न सिर्फ भारत वरन दुनिया में भी जाने गए। अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया और उनकी स्वीकृति पाई। क्या कम्युनिकेशन की ताकत और प्रबंधन को समझे बिना उस दौर में यह संभव था। स्वामी जी के व्यक्तित्व और उनकी पूरी देहभाषा को समझने पर उनमें प्रगतिशीलता के गुण नजर आते हैं। उनका अध्यात्म उन्हें कमजोर नहीं बनाताबल्कि शक्ति देता है कि वे अपने समय के प्रश्नों पर बात कर सकें। उनका एक ही वाक्य –“उठो!जागो ! और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। उनकी संचार और संवादकला के प्रभाव को स्थापित करने के लिए पर्याप्त है। यह वाक्य हर निराश व्यक्ति के लिए एक प्रभावकारी स्लोगन बन गया। इसे पढ़कर जाने कितने सोएनिराशहताश युवाओं में जीवन के प्रति एक उत्साह पैदा हो जाता है। जोश और उर्जा का संचार होने लगता है। स्वामी जी ने अपने जीवन से भी हमें सिखाया। उनकी व्यवस्थित प्रस्तुतिसाफा बांधने की शैली जिसमें कुछ बाल बाहर झांकते हैं बताती है कि उनमें एक सौंदर्यबोध भी है।
      वे स्वयं को भी एक तेजस्वी युवा के रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनके विचार भी उसी युवा चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शास्त्रीय प्रसंगों की भी ऐसी सरस व्याख्या करते हैं कि उनकी संचारकला स्वतः स्थापित हो जाती है। अपने कर्मजीवनलेखनभाषण और संपूर्ण प्रस्तुति में उनका एक आदर्श प्रबंधक और कम्युनिकेटर का स्वरूप प्रकट होता है। किस बात को किस समय और कितने जोर से कहना यह उन्हें पता है। 1893 में शिकागो में आयोजित धर्म सम्मेलन में उनकी उपस्थति सही मायने में भारत के आत्मविश्वास और युवा चेतना की मौजूदगी थी। जिसने समूचे विश्व के समक्ष भारत के मानवतावादी पक्ष को रखा। श्री अरविंद ने अमरीका में स्वामी विवेकानंद के प्रवास की सफलता से प्रभावित होकर कहा-विवेकानंद का विदेश गमन, उनके गुरु की यह उक्ति कि इस वीर पुरुष का जन्म ही इस संसार को अपने दोनों हाथों को बीच लेकर बदल देने के लिए हुआ है। इस बात का प्रथम दृश्य प्रमाण था कि भारत जाग उठा है, केवल जीवित रहने के लिए नहीं बल्कि विश्वविजयी होने के लिए।
सामाजिक न्याय के प्रखर प्रवक्ता-
    अमरीका के विश्व धर्म सम्मेलन में वे अपने संबोधन से ही लोगों को सम्मोहित कर लेते हैं। भारत राष्ट्र और उसके लोगों से उनका प्रेम उनके इस वाक्य से प्रकट होता है-“ आपको सिखाया गया है अतिथि देवो भवपितृ देवो भवमातृदेवो भव। पर मैं आपसे कहता हूं दरिद्र देवो भवअज्ञानी देवो भवमूर्ख देवो भव। यह बात बताती है कि कैसे वे अपनी संचार कला से लोगों के बीच गरीबअसहाय और कमजोर लोगों के प्रति संवेदना का प्रसार करते नजर आते हैं। समाज के कमजोर लोगों को भगवान समझकर उनकी सेवा का भाव विवेकानंद जी ने लोगों के बीच भरना चाहा। वे साफ कहते हैं- यदि तुम्हें भगवान की सेवा करनी हो तोमनुष्य की सेवा करो। भगवान ही रोगी मनुष्यदरिद्र पुरूष के रूप में हमारे सामने खड़ा है।वह नर वेश में नारायण है। संचार की यह शक्ति कैसे धर्म को एक व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ देती है यह स्वामी जी बताते हैं। सही मायने में विवेकानंद जी एक ऐसे युगपुरूष के रूप में सामने आते हैं जिनकी बातें आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक हो गयी दिखती हैं। धर्म के सच्चे स्वरूप को स्थापित कर उन्होंने जड़ता को तोड़ने और नए भारत के निर्माण पर जोर दिया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास भरकर उन्हें हिंदुत्व के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान दिया जिसमें सबका स्वीकार है और सभी विचारों का आदर करने का भाव है। इसलिए वे कहते थे भारत का उदय अमराईयों से होगा। अमराइयां का मायने था छोटी झोपड़ियां। वे कहते हैं- जनसाधारण को शिक्षा दो। उनको जगाओ-तभी राष्ट्र का निर्माण होगा।सारा दोष इसी में है कि सच्चा राष्ट्र जो झोपड़ियों में रहता है अपना मनुष्यत्व भूल चुका है, अपना व्यक्तित्व खो चुका है। उनके मस्तिष्क में उच्च विचारों को पहुंचाओ, शेष सब वे स्वयं कर लेंगे।
       स्वामी विवेकानंद भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय के सबसे प्रखर प्रवक्ता हैं। वे दिखावटी संवेदना के खिलाफ थे और इसलिए स्वामी जी को जीवन में उतारना एक कठिन संकल्प है। आज जबकि कुपोषण,पर्यावरण के सवालों पर बात हो रही है। स्वामी जी इन मुद्दों पर बहुत सधी भाषा में अपनी बात कर चुके हैं। वे बेहतर स्वास्थ्य को एक नियामत मानते हैं। इसीलिए वे कह पाए कि गीता पढ़ने से अच्छा हैफुटबाल खेलो। एक स्वस्थ शरीर के बिना भारत सबल न होगा यह उनकी मान्यता थी। वे समूची विश्व मानवता को संदेश देते हैं- जो ईश्वर तुम्हारे भीतर है ,वही ईश्वर सभी के भीतर विराजमान है। यदि तुमने यह नहीं जाना है तो तुमने कुछ भी नहीं जाना है। भेद भला कैसे संभव है? सब एक ही हैं। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा का मंदिर है। यदि तुम देख सको तो अच्छा है। यदि नहीं, तो तुम्हारे जीवन में आध्यात्मिकता आई ही नहीं है।
सोते हुए भारत को जगाने वाला सन्यासी-
     मात्र 39 साल की आयु में 4 जुलाई,1902 वे दुनिया से विदा हो गए, किंतु वे कितने मोर्चों पर कितनी बातें कह और कर गए हैं कि वे हमें आश्चर्य में डालती हैं। एक साधारण इंसान कैसे अपने आपको विवेकानंद के रूप में बदलता है। इसमें एक प्रेरणा भी है और प्रोत्साहन भी। आज की युवा शक्ति उनसे प्रेरणा ले सकती है। स्वामी विवेकानंद ने सही मायने में भारतीय समाज को एक आत्मविश्वास दियाशक्ति दी और उसके महत्व का उसे पुर्नस्मरण कराया। सोते हुए भारत को उन्होंने झकझोरकर जगाया और अपने समूचे जीवन से सिखाया कि किस तरह भारतीयता को पूरे विश्वमंच पर स्थापित किया जा सकता है। वे अपने देश भारत और उसकी आध्यात्मिक शक्ति को पहचानते थे, इसीलिए उन्होंने सितंबर,1894 को मद्रास के हिंदुओं को लिखे पत्र में कहा-क्या भारत मर जाएगा? तब तो संपूर्ण विश्व से आध्यात्मिकता लुप्त हो जाएगी, सभी नैतिकता पूर्णतः समाप्त हो जाएगी, आर्दशवाद समाप्त हो जाएगा तथा उसके स्थान पर काम और विलासिता रुपी पुरुष और स्त्री राज्य करेंगे। जिसमें धन पुरोहित होगा, छल,बल और प्रतियोगिता पूजा-विधि होगी तथा मानव आत्मा बलि होगी। ऐसा कभी नहीं हो सकता । एक बेहतर कम्युनिकेटरएक प्रबंधन गुरूएक आध्यात्मिक गुरूवेदांतों का भाष्य करने वाला सन्यासीधार्मिकता और आधुनिकता को साधने वाला साधकअंतिम व्यक्ति की पीड़ा और उसके संघर्षों में उसके साथ खड़ा सेवकदेशप्रेमीकुशल संगठनकर्तालेखक एवं संपादकएक आदर्श शिष्य जैसी न कितनी छवियां स्वामी विवेकानंद से जुड़ी हैं। किंतु हर छवि में वे अव्वल नजर आते हैं।
राष्ट्रीय युवा दिवस क्यों-
   भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने 1984 में स्वामी विवेकानंद की जयंती 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस मनाने की घोषणा की। इसके बाद 1985 से यह दिन युवा दिवस के रुप में निरंतर मनाया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1985 को अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया था,इसी बात को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने घोषणा की थी कि सन 1985 से हर वर्ष 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस को देश भर में राष्ट्रीय युवा दिन के रूप में मनाया जाए। इस संदर्भ में भारत सरकार का विचार था कि स्वामी जी का दर्शन, उनका जीवन तथा कार्य एवं उनके आदर्श भारतीय युवकों के लिए प्रेरणास्रोत साबित हो सकते हैं। इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं, रैलियां निकाली जाती हैं, योगासन की स्पर्धा आयोजित की जाती है, व्याख्यान होते हैं और विवेकानन्द साहित्य की प्रदर्शनी लगती है। भारत सरकार के संगठन नेहरू युवा केंद्र के द्वारा देश भर में स्वामी विवेकानंद जयंती पर अनेक आयोजन किए जाते हैं।
     स्वामी विवेकानंद को याद किया जाना सही मायनों में भारत की युवा तेजस्विता, भारतबोध और भारत के बहाने विश्व को सुखी बनाने के विचार को प्रेरित करना है। उनकी याद एक ऐसे नायक की याद है जिसने विश्व मानवता के सुख के सूत्र खोजे। जिसने स्वीकार्यता को, आत्मीयता को, विश्व बंधुत्व को वास्तविक धर्म से जोड़ा। जिसने सेवा के संस्कार को धर्म के मुख्य विचार के रूप में स्थापित किया। जिसने किताबों में पड़े कठिन अधात्म को जनता के सरोकारों से जोड़ा। प्रख्यात लेखक रोमां रोलां इसलिए कहते हैं-उनके शब्द महान् संगीत हैं, बेथोवन-शैली के टुकड़े हैं, हैडेल के समवेत गान के छन्द-प्रवाह की भांति उद्दीपक लय हैं। शरीर में विद्युत स्पर्श के –से आघात की सिहरन का अनुभव किए बिना मैं उनके इन वचनों का स्पर्श नहीं कर सकता जो तीस वर्ष की दूरी पर पुस्तकों के पृष्ठों में बिखरे पड़े हैं। और जब वे नायक के मुख से ज्वलंत शब्दों में निकले होगें तब तो न जाने कैसे आघात एवं आवेग पैदा हुए होंगे।

सन्यासी का संचार शास्त्र


स्वामी विवेकानंद जयंती(12 जनवरी पर विशेष)
-प्रो. संजय द्विवेदी

  स्वामी विवेकानंद ज्यादा बड़े संन्यासी थे या उससे बड़े संचारक (कम्युनिकेटर) या फिर उससे बड़े प्रबंधक ? ये सवाल हैरत में जरूर डालेगा पर उत्तर हैरत में डालनेवाला नहीं है क्योंकि वे एक नहीं,तीनों ही क्षेत्रों में शिखर पर हैं। वे एक अच्छे कम्युनिकेटर हैंप्रबंधक हैं और संन्यासी तो वे हैं ही। भगवा कपड़ों में लिपटा एक संन्यासी अगर युवाओं का रोल माडल बन जाए तो यह साधारण घटना नहीं हैकिंतु विवेकानंद के माध्यम से भारत और विश्व ने यह होते हुए देखा। कोलकाता में जन्मे विवेकानंद और उनके विचार अगर आज डेढ़ सौ साल बाद भी प्रासंगिक बने हुए हैं तो समय के पार देखने की उनकी क्षमता को महसूस कीजिए। एक बहुत छोटी सी जिंदगी पाकर भी उन्होंने जो कर दिखाया वह इस घरती पर तो चमत्कार सरीखा ही था।
   स्वामी विवेकानंद की बहुत छोटी जिंदगी का पाठ बहुत बड़ा है। वे अपने समय के सवालों पर जिस प्रखरता से टिप्पणियां करते हैं वे परंपरागत धार्मिक नेताओं से उन्हें अलग खड़ा कर देती हैं। वे समाज से भागे हुए सन्यासी नहीं हैं। वे समाज में रच बस कर उसके सामने खड़े प्रश्नों से मुठभेड़ का साहस दिखाते हैं। वे विश्वमंच पर सही मायने में भारतउसके अध्यात्मपुरूषार्थ और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को स्थापित करने वाले नायक हैं। वे एक गुलाम देश के नागरिक हैं पर उनकी आत्मा,वाणी और कृति स्वतंत्र है। वे सोते हुए देश और उसके नौजवानों को झकझोर कर जगाते हैं और नवजागरण का सूत्रपात करते हैं। धर्म को वे जीवन से पलायन का रास्ता बनाने के बजाए राष्ट्रप्रेमराष्ट्र के लोगों से प्रेम और पूरी मानवता से प्रेम में बदल देते हैं।शायद इसीलिए वे कह पाए-“ व्यावहारिक देशभक्ति सिर्फ एक भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। देशभक्ति का अर्थ है अपने साथी देशवासियों की सेवा करने का जज्बा।
   अपने जीवन,लेखनव्याख्यानों में वे जिस प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैंपूर्णता दिखाते हैं वह सीखने की चीज है। उनमें अप्रतिम नेतृत्व क्षमताकुशल प्रबंधन के गुर,परंपरा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है। उनमें परंपरा का सौंदर्य है और बदलते समय का स्वीकार भी है। वे आधुनिकता से भागते नहींबल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को ज्यादा प्रभावकारी बना पाते हैं। स्वामी जी का लेखन और संवादकला उन्हें अपने समय में ही नहींसमय के पार भी एक नायक का दर्जा दिला देती है। आज के समय में जब संचार और प्रबंधन की विधाएं एक अनुशासन के रूप में हमारे सामने हैं तब हमें पता चलता है कि स्वामी जी ने कैसे अपने पूरे जीवन में इन दोनों विधाओं को साधने का काम किया। यह वह समय था जब मीडिया का इतना कोलाहल न था फिर भी छोटी आयु पाकर भी वे न सिर्फ भारत वरन दुनिया में भी जाने गए। अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया और उनकी स्वीकृति पाई। क्या कम्युनिकेशन की ताकत और प्रबंधन को समझे बिना उस दौर में यह संभव था। स्वामी जी के व्यक्तित्व और उनकी पूरी देहभाषा को समझने पर उनमें प्रगतिशीलता के गुण नजर आते हैं। उनका अध्यात्म उन्हें कमजोर नहीं बनाताबल्कि शक्ति देता है कि वे अपने समय के प्रश्नों पर बात कर सकें। उनका एक ही वाक्य –“उठो!जागो ! और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। उनकी संचार और संवादकला के प्रभाव को स्थापित करने के लिए पर्याप्त है। यह वाक्य हर निराश व्यक्ति के लिए एक प्रभावकारी स्लोगन बन गया। इसे पढ़कर जाने कितने सोएनिराशहताश युवाओं में जीवन के प्रति एक उत्साह पैदा हो जाता है। जोश और उर्जा का संचार होने लगता है। स्वामी जी ने अपने जीवन से भी हमें सिखाया। उनकी व्यवस्थित प्रस्तुतिसाफा बांधने की शैली जिसमें कुछ बाल बाहर झांकते हैं बताती है कि उनमें एक सौंदर्यबोध भी है। वे स्वयं को भी एक तेजस्वी युवा के रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनके विचार भी उसी युवा चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शास्त्रीय प्रसंगों की भी ऐसी सरस व्याख्या करते हैं कि उनकी संचारकला स्वतः स्थापित हो जाती है। अपने कर्मजीवनलेखनभाषण और संपूर्ण प्रस्तुति में उनका एक आदर्श प्रबंधक और कम्युनिकेटर का स्वरूप प्रकट होता है। किस बात को किस समय और कितने जोर से कहना यह उन्हें पता है। अमरीका के विश्व धर्म सम्मेलन में वे अपने संबोधन से ही लोगों को सम्मोहित कर लेते हैं। भारत राष्ट्र और उसके लोगों से उनका प्रेम उनके इस वाक्य से प्रकट होता है-“ आपको सिखाया गया है अतिथि देवो भवपितृ देवो भवमातृदेवो भव। पर मैं आपसे कहता हूं दरिद्र देवो भवअज्ञानी देवो भवमूर्ख देवो भव। यह बात बताती है कि कैसे वे अपनी संचार कला से लोगों के बीच गरीबअसहाय और कमजोर लोगों के प्रति संवेदना का प्रसार करते नजर आते हैं। समाज के कमजोर लोगों को भगवान समझकर उनकी सेवा का भाव विवेकानंद जी ने लोगों के बीच भरना चाहा। वे साफ कहते हैं- यदि तुम्हें भगवान की सेवा करनी हो तोमनुष्य की सेवा करो। भगवान ही रोगी मनुष्यदरिद्र पुरूष के रूप में हमारे सामने खड़ा है।वह नर वेश में नारायण है। संचार की यह शक्ति कैसे धर्म को एक व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ देती है यह स्वामी जी बताते हैं। सही मायने में विवेकानंद जी एक ऐसे युगपुरूष के रूप में सामने आते हैं जिनकी बातें आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक हो गयी दिखती हैं। धर्म के सच्चे स्वरूप को स्थापित कर उन्होंने जड़ता को तोड़ने और नए भारत के निर्माण पर जोर दिया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास भरकर उन्हें हिंदुत्व के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान दिया जिसमें सबका स्वीकार है और सभी विचारों का आदर करने का भाव है। इसलिए वे कहते थे भारत का उदय अमराईयों से होगा। अमराइयां का मायने था छोटी झोपड़ियां। वे भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय के सबसे प्रखर प्रवक्ता हैं। वे दिखावटी संवेदना के खिलाफ थे और इसलिए स्वामी जी को जीवन में उतारना एक कठिन संकल्प है। आज जबकि कुपोषण,पर्यावरण के सवालों पर बात हो रही है। स्वामी जी इन मुद्दों पर बहुत सधी भाषा में अपनी बात कर चुके हैं। वे बेहतर स्वास्थ्य को एक नियामत मानते हैं। इसीलिए वे कह पाए कि गीता पढ़ने से अच्छा हैफुटबाल खेलो। एक स्वस्थ शरीर के बिना भारत सबल न होगा यह उनकी मान्यता थी।
     मात्र 39 साल की आयु में वे हमसे विदा हो गए किंतु वे कितने मोर्चों पर कितनी बातें कह और कर गए हैं कि वे हमें आश्चर्य में डालती हैं। एक साधारण इंसान कैसे अपने आपको विवेकानंद के रूप में बदलता है। इसमें एक प्रेरणा भी है और प्रोत्साहन भी। आज की युवा शक्ति उनसे प्रेरणा ले सकती है। स्वामी विवेकानंद ने सही मायने में भारतीय समाज को एक आत्मविश्वास दियाशक्ति दी और उसके महत्व का उसे पुर्नस्मरण कराया। सोते हुए भारत को उन्होंने झकझोरकर जगाया और अपने समूचे जीवन से सिखाया कि किस तरह भारतीयता को पूरे विश्वमंच पर स्थापित किया जा सकता है। एक बेहतर कम्युनिकेटरएक प्रबंधन गुरूएक आध्यात्मिक गुरूवेदांतों का भाष्य करने वाला सन्यासीधार्मिकता और आधुनिकता को साधने वाला साधकअंतिम व्यक्ति की पीड़ा और उसके संघर्षों में उसके साथ खड़ा सेवकदेशप्रेमीकुशल संगठनकर्तालेखक एवं संपादकएक आदर्श शिष्य जैसी न कितनी छवियां स्वामी विवेकानंद से जुड़ी हैं। किंतु हर छवि में वे अव्वल नजर आते हैं। उनकी जयंती मनाते हुए देश में विवेकानंद के विचारों के साथ-साथ जीवन में भी उनकी उपस्थिति बने तो यही भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।

शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

बदलेंगे,बचेंगे और बढ़ेंगे भारत के अखबार


-प्रो. संजय द्विवेदी

   डिजीटल मीडिया की बढ़ती ताकत, मोबाइल क्रांति और सोशल मीडिया की उपलब्धता ने पढ़ने की दुनिया को काफी प्रभावित किया है। पढ़े जाने वाले अखबार, अब पलटे भी कम जा रहे हैं। केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने एक बार रायपुर में मीडिया विमर्श पत्रिका के आयोजन में कहा था कि पहले एक अखबार पढ़ने में मुझे 40 मिनट लगते थे अब उतनी देर में दर्जन भर अखबार पलट लेता हूं। वे ठीक कह रहे हैं, किंतु पढ़ने का समय घटने के लिए अखबार अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। अखबारों को देखें तो वे पुराने अखबारों से बहुत सुदर्शन हुए हैं। आज वे बेहतर प्रस्तुति के साथ, अच्छे कागज पर, उन्नत टेक्नालाजी की मशीनों पर छप रहे हैं। वे मोटे भी हुए हैं। उनकी प्रस्तुति टीवी से होड़ करती दिखती है। उनके शीर्षक बोलने लगे हैं, कई बार टीवी की भाषा ही उनकी भाषा है। उनका कलेवर बहुत आकर्षक हो चुका है। बावजूद इसके पठनीयता के संकट को देखते हुए यह जरूरी है कि अखबार नए तरीके से प्रस्तुत हों और ज्यादा लाइव प्रस्तुति के साथ आगे आएं। तमाम समाचार पत्र ऐसे प्रयोग कर भी रहे हैं। अखबारों को चाहिए कि वे तटस्थता से हटकर एकात्मता की ओर बढ़ें। पूरे अखबार में एक लय और एक स्वर या संगीत की तरह एक सुर हो। ताकि उस भावभूमि का पाठ सीधा उस अखबार से अपना भावनात्मक रिश्ता जोड़ सके।
विशिष्टता की ओर बढ़ें-
  एक समय में अखबार का सर्वग्राही होना उसकी सफलता की गारंटी होता था। वह सब कुछ साथ लेकर चलता था। किंतु अब समय है कि अखबार अपने आप में विशिष्टता पैदा करें कि आखिर वे किस पाठक वर्ग के साथ जाना चाहते हैं। इसका आशय यह भी है कि अखबार को अब अपना व्यक्तित्व विकसित करना होगा। उन्हें खास दिखना होगा। उसको किसे संबोधित करना है, इसका विचार करना होगा। उन्हें झुंड से अलग दिखना होगा। एक समर्पित संस्था की तरह काम करना होगा।अब वे सिर्फ खबर देकर मुक्त नहीं हो सकते, उन्हें अपने सरोकारों को स्थापित करने के लिए आगे आना होगा। सोशल मीडिया और डिजीटल मीडिया की हर हाथ में उपलब्धता के बाद खबर देने का काम अब अकेला अखबार नहीं करता। अखबार जब तक  छपकर आता है, तब तक खबरें वायरल हो चुकी होती हैं। टीवी, डिजीटल माध्यम और सोशल मीडिया खबरें ब्रेक कर चुके होते हैं। यानि अब अखबार का मुख्य उत्पाद खबर नहीं है। उसका सरोकार, उसकी विश्लेषण शक्ति, उसकी खबरों के पीछे छिपे अर्थों को बताने की क्षमता, व्याख्या की शैली यहां महत्वपूर्ण हैं। अखबार को स्थानीय जनों से एक रिश्ता बनाना पड़ेगा जिसके मूल में खबर नहीं स्थानीय सामाजिक सरोकार होंगे। सामाजिक सरोकारों से गहरी संलग्नता ही किसी अखबार की स्वीकार्यता में सहायक होगी। शायद इसीलिए अब अखबार इवेंट्स और अभियानों का सहारा लेकर लोगों के बीच अपनी पैठ बना रहे हैं। इससे ब्रांड वैल्यू के साथ स्थानीय सरोकार भी स्थापित होते हैं।
डेस्क नहीं सीधे मैदान से-
   अखबारों को अगर अपनी उपयोगिता बनाए रखनी है, तो उन्हें मैदानी रिर्पोटिंग पर ध्यान देना होगा। टीवी,डिजिटल सोशल मीडिया और हर जगह ज्ञान देने वाले की फौज है पर मैदान में उतरकर वास्तविक चीजें और खबरें करने वाले लोग कम हैं। एक ही ज्ञान इतने स्थानों से कापी होकर निरंतर प्रक्षेपित हो रहा है कि अब लोग नए विचारों की प्रतीक्षा में हैं। नई खबरों की प्रतीक्षा में हैं। ये खबरें डेस्क पर लिखी और रची हुई नहीं होंगी। इसमें माटी की महक और जमीन हो रहे संघर्षों की धमक होगी। इन खबरों में आम लोगों की जिंदगी होगी जो अपने पसीने की खुशबू से इस दुनिया बेहतर बनाने में लगे हैं। यहां सपने होंगे, उम्मीदें होंगी और असंभव के संभव बनाते भागीरथ होंगे। इसके लिए हमें बोलने के बजाए सुनने का अभ्यास करना होगा। इसे ही इंटरेक्टिव होना कहते हैं। यह मंच एकतरफा बात के बजाए संवाद का मंच होगा। अपने पाठकों और उनकी भावनाओं का विचार यहां प्रमुख होगा। उन पर चीजें थोपी नहीं जाएंगी, उन्हें बतायी जाएंगी, समझायी जाएंगी और उस पर उनकी राय का भी आदर किया जाएगा। लोकतांत्रिक विमर्शों के मंच बनकर ही अखबार अपनी साख बना और बचा पाएंगे। अखबार विचारों को थोपने के बजाए, विमर्श के मंच की तरह काम करेगें। सब पक्षों और सभी राय को जगह देते हुए एक सुंदर दुनिया के सपने को सच बनाते हुए दिखेंगे। समाचार और विचार पक्ष अलग-अलग हैं और उन्हें अलग ही रखा जाएगा। खबरों में विचारों की मिलावट से बचने के सचेतन प्रयास भी करने होंगे। विचार के पन्नों पर पूरी आजादी के साथ विमर्श हों, हर तरह की राय का वहां स्वागत हो। विचारों की विविधता भी हो और बहुलता भी हो। पत्रकार अपनी पोलिटिकल लाइन तो रखें तो लेकिन पार्टी लाइन से बचें यह भी ध्यान रखना होगा। क्योंकि अखबार की विश्वसनीयता और प्रामणिकता इससे ही स्थापित होती है।
समस्या नहीं समाधान बनें-
  हमारे समाज की एक प्रवृत्ति है कि हम समस्याओं की ओर बहुत आकर्षित होते हैं और समाधानों की ओर कम सोचते हैं। अखबारों ने भी अरसे से मान लिया है कि उनका काम सिर्फ संकटों की तरफ इंगित करना है,उंगली उठाना है।हमारा समाज भी ऐसा मानता है कि हमसे क्या मतलब ? जबकि यह हमारा ही समाज है, हमारा ही शहर है और हमारा ही देश है। इसके संकट, हमारे संकट हैं। इसके दर्दों का समाधान ढूंढना और अपने लोगों को न्याय दिलाना हमारी भी जिम्मेदारी है। एक संस्था के रूप में अखबार बहुत ताकतवर हैं। इसलिए उन्हें सामान्यजनों की आवाज बनकर उनके संकटों के समाधान के प्रकल्प के रूप में सामने आना चाहिए। वे सहयोग के लिए हाथ बढ़ाएं और एक ऐसा वातावरण बनाएं जहां अखबार सामाजिक उत्तरदायित्वों का वाहक नजर आए। मजलूमों के साथ खड़ा नजर आए। ऐसे में पत्रकार सिर्फ घटना पर्यवेक्षक नहीं, कार्यकर्ता भी है। जिसे हम जर्नलिस्टिक एडवोकेसी कह सकते हैं। ऐसे अभियान अखबार की जड़ें समाज में इतनी गहरी कर देते हैं कि वे भरोसे का नाम बन जाते हैं।
मीडिया कन्वर्जेंस एक अवसर-
   आज के समय में एक मीडिया में काम करते हुए आप दूसरे मीडिया का सहयोग लेते ही हैं। एक अखबार चलाने वाला संस्थान आज निश्चित ही सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सक्रिय है तो वहीं वह डिजीटल प्लेटफार्म पर भी उसी सक्रियता के साथ उपस्थित है। इस तरह हम अपने संदेश की शक्ति को ज्यादा प्रभावी और व्यापक बना सकते हैं। हमें यह ध्यान रखना होगा कि प्रिंट पर लोग कम आ रहे हैं, या उनका ज्यादातर समय अन्य डिजीटल माध्यमों और मोबाइल पर गुजर रहा है। ऐसे में इस शक्ति को नकारने के बजाए उसे स्वीकार करने में ही भलाई है। आपके अखबार की ब्रांड वैल्यू है, सालों से आप खबरों के व्यवसाय में हैं, इसकी आपको दक्षता है, इसलिए आपने लोगों का भरोसा और विश्वास अर्जित किया है। इस भीड़ में अनेक लोग डिजिटल मीडिया प्लेटफार्म पर खबरों का व्यवसाय कर रहे हैं। किंतु आपकी यात्रा उनसे खास है। आपका अखबार पुराना है, आपके अखबार को लोग जानते हैं, भरोसा करते हैं। इसलिए आपके डिजीटल प्लेटफार्म को पहले दिन ही वह स्वीकार्यता प्राप्त है, जिसे पाने के लिए आपके डिजीटल प्रतिद्वंदियों को वर्षों लग जाएंगें। यह एक सुविधा है, इसका लाभ अखबार को मिलता ही है। अब कटेंट सिर्फ प्रिंट पर नहीं होगा। वह तमाम माध्यमों से प्रसारित होकर आपकी सामूहिक शक्ति को बहुत बढ़ा देगा। आज वे संस्थान ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं, जो एक साथ आफलाइन ( प्रिंट), आनलाइन( पोर्टल,वेब, सोशल मीडिया), आन एयर(रेडियो), मोबाइल(एप) आनग्राउंट( इवेंट) पर सक्रिय हैं। इन पांच माध्यमों को साधकर कोई भी अखबार अपनी मौजूदगी सर्वत्र बनाए रख सकता है। ऐसे में बहुविधाओं में दक्ष पेशेवरों की आवश्यकता होगी, तमाम पत्रकार इन विधाओं में पारंगत होंगे। उनके विकास का महामार्ग खुलेगा। मल्टी स्किल्ड पेशेवरों के साथ एकीकृत विपणन और ब्रांडिग सेल्युशन की बात भी होगी। कन्वरर्जेंस से मानव संसाधन का अधिकतम उपयोग संभव होगा और लागत भी कम होगी। अचल संपत्ति की लागत और समाचार को एकत्र करने की लागत भी इस सामूहिकता से कम होगी।
प्रिंट मीडिया ही है लीडर-
 सारे तकनीकी विकास और डिजीटिलाइजेशन के बावजूद भी भारत जैसे बाजार में प्रिंट ही कमा रहा है। एशिया और लैटिन अमरीका में प्रिंट के संस्करण विकसित हो रहे हैं। भारत, चीन और जापान में आज भी प्रिंट मीडिया की तूती बोल रही है। भारत में तो डिजीटल ही संकट में दिखता है क्योंकि उसने मुफ्त की आदत लगा दी है। जबकि प्रिंट मीडिया ने इसका खासा फायदा उठाया। सारी प्रमुख न्यूज वेबसाइट्स अपने प्रिंट माध्यमों की प्रतिष्ठा का लाभ लेकर अग्रणी बनी हुई हैं। भारत जैसे देश में क्षेत्रीय व भाषाई पत्रकारिता में विकास के अपार अवसर हैं। राबिन जेफ्री ने प्रिंट मीडिया के विकास के तीन चरण बताए थे- रेयर, एलीट और मास। अभी भारत ने तो मास में प्रवेश ही लिया है।

गुरुवार, 2 जनवरी 2020

राधेश्याम शर्मा होने का मतलब


एक ध्येयनिष्ठ पत्रकार, संवेदनशील मनुष्य के रूप में याद किया जाएगा उन्हें
-प्रो. संजय द्विवेदी


     इस साल का दिसंबर महीना जाते-जाते एक ऐसा आघात दे गया है जिसे हमारे जैसे तमाम लोग अरसे तक भूल नहीं पाएंगे। यह 28 दिसंबर,2019 का दिन था, शनिवार का दिन, इसी दिन शाम को हमारे प्रिय पत्रकार-संपादक और अभिभावक श्री राधेश्याम शर्मा ने पंचकूला में आखिरी सांसें लीं। साल के आखिरी दिन 31 दिसंबर को भोपाल के माधवराव सप्रे संग्रहालय में नगर के बुद्धिजीवी पत्रकार और संपादक जुटे, उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि देने। इस शोकसभा की खासियत यह थी कि यहां सभी धाराओं के बुद्धिजीवियों ने राधेश्याम शर्मा को जिस रूप में याद किया वह दुर्लभ है। इस महती सभा में रघु ठाकुर से लेकर विजयदत्त श्रीधर, कैलाशचंद्र पंत, महेश श्रीवास्तव, लज्जाशंकर हरदेनिया, राजेंद्र शर्मा, राकेश दीक्षित, दविंदर कौर उप्पल, गिरीश उपाध्याय, विजयमनोहर तिवारी और लाजपत आहूजा तक की मौजूदगी बताती है कि राधेश्याम जी का संपर्कों का संसार कितना व्यापक था। एक पत्रकार जिसकी अपनी वैचारिक आस्थाएं बहुत प्रकट हों। जिसने अपने विचाराधारात्मक आग्रहों को कभी छिपाया नहीं, किंतु उसकी राजनीति के सभी धाराओं के नायकों से भरोसे वाली दोस्ती हो यह संभव कहां है? आज की पत्रकारिता में वैचारिक आस्थाएं जिस तरह कट्टरता में बदली हैं और अखाड़ों में पहलवानों की तरह खम ठोंके जा रहे हों वहां राधेश्याम जी जैसे पत्रकार की मौजूदगी एक दीपस्तंभ की तरह थी। जहां विचारों के साथ मनुष्यता और संवेदना जगह पाती थी। उन्होंने अपनी वैचारिक और व्यावसायिक प्रतिबद्धता को हमेशा अलग रखा।
      अपने विद्यार्थी जीवन में काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में पढ़ते हुए ही वे पत्रकारिता से जुड़ गए थे। 1956 में उन्होंने पूरी तरह अपने आपको पत्रकारीय कर्म में समर्पित कर दिया। तब से लेकर आजतक मध्यप्रदेश से लेकर पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली की पत्रकारिता में उन्होंने अपने उजले पदचिन्ह छोड़े। एक नगर प्रतिनिधि से काम प्रारंभ कर वे विशेष संवाददाता और फिर दैनिक ट्रिब्यून, चंडीगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण अखबार के संपादक बने। इतने बड़े अखबार के संपादक पद पर रहते हुए ही उन्होंने उसे छोड़कर मीडिया शिक्षा के लिए खुद को समर्पित कर दिया और 1990 में भोपाल में स्थापित हुए माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पहले महानिदेशक (अब पदनाम कुलपति है)बने। इसके बाद वे हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक भी बने। अपनी पूरी जीवन यात्रा में उन्होंने कभी मूल्यों से समझौता नहीं किया।
सक्रिय पत्रकार, योग्य संपादकः
      भोपाल के तमाम लोग उनकी पत्रकारिता के गवाह हैं, जिन्होंने एक रिर्पोटर के रुप में उनकी सक्रियता भरे दिन देखे हैं। राजनेताओं से उनकी निकटता जगजाहिर थी। दैनिक युगधर्म के संवाददाता के रूप में वे भोपाल में पदस्थ थे। उनका अखबार जबलपुर से निकलता था, कुछ प्रतियां ही भोपाल आती थीं। किंतु उनका संपर्क और व्यवहार ऐसा था कि लोग उनपर भरोसा करते थे। कांग्रेस, भाजपा, सोशलिस्ट,कम्युनिस्ट सब उनके दोस्त थे। दोस्ती भी ऐसी कि राज की बातें उन्हें बताते, जिसकी गवाही सुबह उनका अखबार देता था। राजनीतिक गलियारों में उन दिनों भोपाल के वीटी जोशी, लज्जाशंकर हरदेनिया, सत्यनारायण श्रीवास्तव, दाऊलाल साखी, तरूण कुमार भादुड़ी जैसे पत्रकारों की तूती बोलती थी। किंतु राधेश्याम जी इन सबमें अपनी संपर्कशीलता, सरल स्वभाव और पारिवारिक रिश्तों के चलते एक अलग स्थान रखते थे। आज भी भोपाल के लोग उन्हें याद कर भावुक हो उठते हैं।
     बाद के दिनों में वे युगधर्म के संपादक होकर जबलपुर चले गए और उसके बाद वे चंडीगढ़ चले गए। इन सारे प्रवासों के बीच भी भोपाल उनका एक घर बना रहा। वे आते तो सबकी हाल लेते, सबसे मिलते और परिवारों में जाते। अपने साथियों और अधीनस्थों के परिजनों, बच्चों की स्थिति, प्रगति,पढ़ाई और विवाह सब पर उनकी नजर रहती थी। अपने लंबे पत्रकारीय जीवन में उन्होंने अनेक सर्वोच्च नेताओं, प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों और समकालीन विविध क्षेत्रों के लोगों से लंबे इंटरव्यू किए। मुलाकातें कीं। किंतु उन्हें दादा माखनलाल चतुर्वेदी के साथ उनकी भेंटवार्ता सबसे प्रेरक लगती थी। वे उसे बार-बार याद करते थे। इस भेंट में माखनलाल जी ने उनसे कहा था – पत्रकार की कलम न अटकनी चाहिए, न भटकनी चाहिए, न रुकनी चाहिए, न झुकनी चाहिए। राधेश्याम जी ने इसे अपना जीवन मंत्र बना लिया। अपने संवादों में वे अक्सर इस बात को रेखांकित करते थे। यह संयोग ही था कि वे बाद में दादा के नाम पर बने विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति भी बने। उनके मीडिया चिंतन पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल ने मीडियाः क्रांति या भ्रांति शीर्षक से पुस्तक का प्रकाशन भी 2015 में किया, जिसमें मीडिया को लेकर उनके विमर्शों से हम परिचित हो सकते हैं। सही मायनों में संपादकों की विलुप्त हो रही पीढ़ी में वे एक ऐसे नायक हैं, जिन-सा होना बहुत कठिन है। अपने पद के वैभव और प्रभाव के परे वे बेहद संवेदनशील इंसान थे, जिसने सबका भला चाहा और किया।
पत्रकारिता विश्वविद्यालय की बगिया के मालीः
   उनके हिस्से एक ऐतिहासिक उपलब्धि है- भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की स्थापना और उसका पहला महानिदेशक नियुक्त होना। एक-एक व्यक्ति को जोड़कर उन्होंने इस विश्वविद्यालय को खड़ा किया और उसकी प्रगति की हर सूचना पर हर्षित होते थे। वे जब भी मिलते तब कहते मैं तो इस बगिया का माली रहा। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे हर छोटे से छोटे व्यक्ति को यह अहसास कराते कि वह कितना महत्त्वपूर्ण है। उनकी इसी विशेषता को रेखांकित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र शर्मा ने लिखा-वे केवल राजनेताओं के ही नहीं, अपितु भोपाल के श्रेष्ठ पत्रकारों को एक माला में पिरोने वाले व्यक्ति भी थे।पारिवारिकता उनका वैशिष्ठ्य थी।  पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पुराने छात्र जो आज मीडिया में शिखर पदों पर हैं, उन्हें एक पिता के रूप में याद करते हैं। उनका अभिभावकत्व इतना प्रखर था कि वे इसके अलावा किसी और संज्ञा से नवाजे भी नहीं जा सकते थे। आज जबकि यह विश्वविद्यालय देश में मीडिया शिक्षा का सबसे बड़ा और स्थापित केंद्र बन चुका है, राधेश्याम जी की स्मृति बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। उनके महानिदेशक रहते हुए ही मैंने भी स्नातक के छात्र रूप में विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया था। मैं लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक करके आया था और कुलपति के पद की गरिमा को जानता था। किंतु राधेश्याम जी ने एक स्नातक के छात्र से न सिर्फ परिचय प्राप्त किया बल्कि अपने घर पर बुलाकर चाय-नाश्ता कराया और बेहद वात्सल्यमयी अपनी धर्मपत्नी से मिलाया। उनके उस दुलार को  सोचकर आज हैरत होती है कि पत्रकारिता के शिखरों पर रहे शर्मा सर इतनी आत्मीयता कहां से लाते हैं? वे बहुत बड़े थे, जीवन से, मन से और कृति से भी। इसका अहसास उनकी स्नेहछाया में बैठकर होता था।
      बाद के दिनों में वे चंड़ीगढ़ चले गए और मैं अखबारों में काम करते हुए रायपुर, बिलासपुर, मुंबई की परिक्रमा कर भोपाल वापस आ गया। इन दिनों में कोई ऐसा समय नहीं था, जब उन्होंने हमें याद न किया हो। मैं बिलासपुर गया तो बोले मेरे भाई वहां डाक्टर हैं, उनसे मिलो। रायपुर में भी उनके दोस्तों की एक पूरी दुनिया थी। वे बोलते मिलते-जुलते क्यों नहीं ? हमेशा कहते थे रोज अपने तीन पूर्व परिचितों से मिलो और एक नया संपर्क रोज बनाओ। पत्रकारिता में आ रहे लोगों के लिए एक पाठ है यह। हम अमल नहीं कर पाए पर मानते हैं कि कर पाते तो दुनिया ज्यादा बड़ी और बेहतर होती। मेरी शादी से लेकर जीवन के हर प्रसंग उन्होंने चिठ्ठियां भेजीं, फोन किए। आज भी जब तक वे बहुत अस्वस्थ नहीं हो गए, फोन करते हालचाल पूछते। हालचाल मेरा, विश्वविद्यालय का, परिवार का, अपने दोस्तों का। कई बार यह लगता है कि वे इतनी आत्मीयता क्यों देते थे, ऐसा क्या था जो उन्हें हम जैसों से जोड़ता था। वे क्यों हमारी यह खुशफहमियां बनाए रखना चाहते थे कि हम बहुत खास हैं। देश में ऐसे न जाने कितने लोग ऐसे थे जो मानते थे कि वे शर्मा जी के बहुत करीबी हैं। एक महापरिवार उन्होंने खुद बनाया था जिसके वे मुखिया थे। वे प्यार से बड़ी से बड़ी और कड़ी से कड़ी बात कहते जो हमेशा हमारे भले के लिए होती। मीडिया विमर्शपत्रिका का प्रकाशन जब 13 साल पहले रायपुर से प्रारंभ किया तब उन्होंने इसके स्तंभ मेरा समय के लिए अपनी पत्रकारीय यात्रा की पूरी कहानी लिखी। पत्रिका के बारे में बराबर पूछताछ करते और अच्छे सुझाव भी देते। उनके लिए हर व्यक्ति बहुत खास था या वे उसे इसका अहसास कराकर छोड़ते। बहुत गहरी आत्मीयता, वात्सल्य और संवेदना से उन्होंने जो दुनिया रची थी, हमें संतोष है कि हम भी उसके नागरिक थे और उनके साथ उंगलियां पकड़कर उस रास्ते पर थोड़ा चल सके, जिस पर वे पूरी जिंदगी चलते रहे। उस विचार पर भी, उस व्यवहार पर भी जो उन्होंने जिया और हमें जीने के लिए प्रेरित किया। उनका जाना एक सच्चाई है किंतु वे बने रहेंगे हमारी यादों में यह उससे बड़ी सच्चाई है। क्योंकि उन्हें भूलना खुद को भूलना होगा, अपनी जड़ों को भूलना होगा, आत्मीयता और औदार्य को भूलना होगा। रिश्तों की गरमाहट को भूलना होगा।