संस्कृत में है इस देश की संस्कृति
सच्चिदानंद उपासने
संस्कृत हमारे पूर्वजों की भाषा रही है। हमारे सभी धर्मग्रंथ यथा-वेद, पुराण, उपनिषद आदि संस्कृत भाषा में ही लिखे गए हैं। इन ग्रंथों में हिंदुस्तान की आत्मा बसती है। इन्हीं की चाओं के बल पर हिन्दुस्तान को अतीत में जगद्गुरु का पद प्राप्त था।
हमारे पूर्वज मानते थे कि देवगण संस्कृत में ही संभाषण करते हैं, अत: संस्कृत को देवभाषा भी कहा जाता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में गहन अध्ययन एवं शोधों के पश्चात सभी मूर्धन्य भाषाविज्ञानी एवं व्याकरणाचार्य इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि संस्कृत ही व्याकरण की दृष्टि से सबसे शुध्द एवं पूर्ण भाषा है। संस्कृत में कोई भी तकनीकी कमी नहीं है। हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में ही (जो संस्कृत में रचित हैं) 'वसुधैव कुटुम्बकम का नारा दिया गया है। संस्कृत में ही रचित हमारे आदि ग्रंथों में, 'सर्वेभवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद् दुख भाग्भवेत् जैसी महान एवं मानवतापूर्ण सीख दी गई है।
ऐसी महान भाषा के विषय में जब मैंने एक अखबार में प्रदेश के वरिष्ठ व संस्कारित पत्रकार नंदकिशोर शुक्ल का लेख 'संस्कृत की बजाय शिक्षा छत्तीसगढ़ी में क्यों नहीं? पढ़ा, तो मन बेचैन हो उठा, मस्तिष्क में एक प्रकार की खलबली मच गई कि आखिर हिन्दुस्तान किस ओर जा रहा है। यहां की राजनीति तो चलिए धर्म, जाति, भाषा, बोली, क्षेत्र ऐसे वादों पर संचालित है, किन्तु जब एक बुध्दिजीवी ऐसे विचार रखे कि संस्कृत को प्राथमिक शालाओं में न पढाया जाए, तो हैरान और दुखी होना स्वाभाविक है। यहां छत्तीसगढ़ी का विरोध कतई नहीं है। निश्चित रूप से बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उसी भाषा में होनी चाहिए जो उसकी मातृभाषा हो, जैसी कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर यशपाल जैसे विद्वानों की भी सोच है।
प्रदेश की प्राथमिक शालाओं में तीन भाषाएं पढ़ाई जाती हैं, इसमें प्राथमिक स्तर पर छत्तीसगढ़ी को शिक्षा का माध्यम बनाकर संस्कृत को भी एक भाषा के रूप में बेरोकटोक एवं सुविधापूर्वक पढ़ाया जा सकता है। इसमें कहीं कोई समस्या, कहीं कोई कठिनाई है ही नहीं। प्राथमिक से माध्यमिक स्तर पर 6 से 14 वर्ष की आयु में बच्चों में सीखने की दर भी अत्यंत तेज होती है, विद्वानों की राय है कि इस आयु-समूह के बच्चो कई भाषाएं एक साथ सीख सकते हैं। ऐसे में श्री शुक्ल का यह विचार कि प्राथमिक स्तर पर संस्कृत न पढ़ाई जाए, बिल्कुल औचित्यहीन है। इस बारे में 'हरिभूमि में संजय द्विवेदी के प्रकाशित विचारों से मैं पूर्णत: सहमत हूं। संस्कृत ने हमारे देश को महान एवं प्रकांड विद्वान दिए हैं तथा संस्कृत साहित्य में हमारी धरोहर विराजित है यदि हमारा भविष्य संस्कृत का अध्ययन ही नहीं करेगा तो वह साहित्य व धरोहर तो काला अक्षर भैंस समान हो जाएगा। संस्कृत में तो हमारी संस्कृति निहित है। मैं तो यही कहना चाहूंगा कि संस्कृत भाषा को भी सभी भारतीय भाषाओं की जननी कहलाती है, संस्कृत को वही स्नेह, वही सम्मान व संरक्षण मिलना चाहिए, जो उसे आदिकाल में प्राप्त था। तभी हम उस भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रख सकेंगे, जिस पर हमें गर्व है एवं जिसके द्वारा ही संपूर्ण विश्व एवं मानवता का विकास एवं कल्याण संभव है। निहित स्वार्थ हेतु संस्कृत जैसी देवभाषा को विवाद का विषय बनाना कतई उचित नहीं कहा जा सकता।
(लेखक छत्तीसगढ़ ब्रेवरेज कारपोरेशन के अध्यक्ष हैं)
हमारे पूर्वज मानते थे कि देवगण संस्कृत में ही संभाषण करते हैं, अत: संस्कृत को देवभाषा भी कहा जाता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में गहन अध्ययन एवं शोधों के पश्चात सभी मूर्धन्य भाषाविज्ञानी एवं व्याकरणाचार्य इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि संस्कृत ही व्याकरण की दृष्टि से सबसे शुध्द एवं पूर्ण भाषा है। संस्कृत में कोई भी तकनीकी कमी नहीं है। हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में ही (जो संस्कृत में रचित हैं) 'वसुधैव कुटुम्बकम का नारा दिया गया है। संस्कृत में ही रचित हमारे आदि ग्रंथों में, 'सर्वेभवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद् दुख भाग्भवेत् जैसी महान एवं मानवतापूर्ण सीख दी गई है।
ऐसी महान भाषा के विषय में जब मैंने एक अखबार में प्रदेश के वरिष्ठ व संस्कारित पत्रकार नंदकिशोर शुक्ल का लेख 'संस्कृत की बजाय शिक्षा छत्तीसगढ़ी में क्यों नहीं? पढ़ा, तो मन बेचैन हो उठा, मस्तिष्क में एक प्रकार की खलबली मच गई कि आखिर हिन्दुस्तान किस ओर जा रहा है। यहां की राजनीति तो चलिए धर्म, जाति, भाषा, बोली, क्षेत्र ऐसे वादों पर संचालित है, किन्तु जब एक बुध्दिजीवी ऐसे विचार रखे कि संस्कृत को प्राथमिक शालाओं में न पढाया जाए, तो हैरान और दुखी होना स्वाभाविक है। यहां छत्तीसगढ़ी का विरोध कतई नहीं है। निश्चित रूप से बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उसी भाषा में होनी चाहिए जो उसकी मातृभाषा हो, जैसी कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर यशपाल जैसे विद्वानों की भी सोच है।
प्रदेश की प्राथमिक शालाओं में तीन भाषाएं पढ़ाई जाती हैं, इसमें प्राथमिक स्तर पर छत्तीसगढ़ी को शिक्षा का माध्यम बनाकर संस्कृत को भी एक भाषा के रूप में बेरोकटोक एवं सुविधापूर्वक पढ़ाया जा सकता है। इसमें कहीं कोई समस्या, कहीं कोई कठिनाई है ही नहीं। प्राथमिक से माध्यमिक स्तर पर 6 से 14 वर्ष की आयु में बच्चों में सीखने की दर भी अत्यंत तेज होती है, विद्वानों की राय है कि इस आयु-समूह के बच्चो कई भाषाएं एक साथ सीख सकते हैं। ऐसे में श्री शुक्ल का यह विचार कि प्राथमिक स्तर पर संस्कृत न पढ़ाई जाए, बिल्कुल औचित्यहीन है। इस बारे में 'हरिभूमि में संजय द्विवेदी के प्रकाशित विचारों से मैं पूर्णत: सहमत हूं। संस्कृत ने हमारे देश को महान एवं प्रकांड विद्वान दिए हैं तथा संस्कृत साहित्य में हमारी धरोहर विराजित है यदि हमारा भविष्य संस्कृत का अध्ययन ही नहीं करेगा तो वह साहित्य व धरोहर तो काला अक्षर भैंस समान हो जाएगा। संस्कृत में तो हमारी संस्कृति निहित है। मैं तो यही कहना चाहूंगा कि संस्कृत भाषा को भी सभी भारतीय भाषाओं की जननी कहलाती है, संस्कृत को वही स्नेह, वही सम्मान व संरक्षण मिलना चाहिए, जो उसे आदिकाल में प्राप्त था। तभी हम उस भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रख सकेंगे, जिस पर हमें गर्व है एवं जिसके द्वारा ही संपूर्ण विश्व एवं मानवता का विकास एवं कल्याण संभव है। निहित स्वार्थ हेतु संस्कृत जैसी देवभाषा को विवाद का विषय बनाना कतई उचित नहीं कहा जा सकता।
(लेखक छत्तीसगढ़ ब्रेवरेज कारपोरेशन के अध्यक्ष हैं)
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