बुधवार, 20 जुलाई 2022

'मीडिया विमर्श' के 'कन्नड मीडिया विशेषांक' का लोकार्पण

कन्नड और हिंदी साहित्य में हैं एकता के सूत्र: मधुसूदन साईं

बेंगलुरु में श्री मधुसूदन साईं ने किया पत्रिका के विशेषांक का लोकार्पण



बेंगलुरु, 15 जुलाई। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित देश की प्रतिष्ठित पत्रिका 'मीडिया विमर्श' के 'कन्नड मीडिया विशेषांक' का लोकार्पण बेंगलुरू में श्री सत्य साईं यूनिवर्सिटी फॉर ह्यूमन एक्सीलेंस के चांसलर श्री मधुसूदन साईं ने किया। इस अवसर पर पत्रिका के सलाहकार संपादक एवं भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी एवं डॉ. राकेश उपाध्याय भी उपस्थित थे।

   पत्रिका का लोकार्पण करते हुए श्री मधुसूदन साईं ने कहा इस विशेषांक में कन्नड मीडिया और संस्कृति के कई आयामों की जानकारी मिलती है। कन्नड और हिंदी भाषा में एकता के कई सूत्र हैं। कन्नड और हिंदी साहित्य में भी एकता के कई सूत्र मिलते हैं। उन्होंने कहा कि हिंदी पत्रिकाओं के ऐसे विशेषांकों से भारतीय संस्कृति में एकात्मकता का बोध होता है। इस विशेषांक के माध्यम से हिंदी पाठकों को कन्नड मीडिया के विभिन्न आयामों के बारे में जानने और सांस्कृतिक एकात्मकता के अंतःसूत्र को समझने का अवसर मिलता है।  

   मीडिया विमर्श' के सलाहकार संपादक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने कहा कि कन्नड पत्रकारिता और मीडिया की व्यापक दुनिया है। इससे अवगत होने का मौका हिंदी पाठकों को इस विशेषांक के माध्यम से मिलेगा। उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाओं में अंतर-संवाद की परंपरा को 'मीडिया विमर्श' ने अपने उर्दू पत्रकारिता विशेषांक, गुजराती पत्रकारिता विशेषांक, तेलुगू मीडिया विशेषांक, मलयालम मीडिया विशेषांक और तमिल मीडिया विशेषांक के माध्यम से लगातार आगे बढ़ाया है। 'मीडिया विमर्श' का कन्नड मीडिया विशेषांक इस दिशा में एक और प्रयास है। कन्नड मीडिया के इतिहास, विकास, पत्रकारिता और सिनेमा के मूल्यांकन एवं विश्लेषण के माध्यम से भारतीय भाषाओं में अंतर-संवाद की यह परंपरा सार्थक होगी। 

    'मीडिया विमर्श' के 'कन्नड मीडिया विशेषांक' में कन्नड पत्रकारिता का इतिहास, कन्नड सिनेमा, टीवी, रेडियो, वेब आदि कन्नड मीडिया के विभिन्न आयामों पर केंद्रित आलेखों का प्रकाशन हुआ है। इस विशेषांक में कुल 27 आलेखों में से 21 हिंदी में और 6 अंग्रेजी में हैं। आलेख कर्नाटक के कई विद्वानों ने लिखे हैं। विशेषांक के अतिथि संपादक डॉ. सी. जय शंकर बाबु हैं।




पत्रकारिता से साहित्य में चली आई ‘न हन्यते’

                                                                              - इंदिरा दांगी



आचार्य संजय द्विवेदी की नई किताब 'न हन्यते' को खोलने से पहले मन पर एक छाप थी कि पत्रकारिता के आचार्य की पुस्तक है और दिवंगत प्रख्यातों के नाम लिखे स्मृति-लेख हैं, जैसे समाचार पत्रों में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ करते ही हैं; लेकिन पुस्तक का पहला ही शब्द-चित्र मेरी इस धारणा को तोड़ता है। ‘सत्ता साकेत का वीतरागी’ में वे पूर्व प्रधानमंत्री और भारत के महान नेता अटल बिहारी वाजपेयी को देश के बड़े बेटे के तौर पर याद करते हैं; राजनीति से ऊपर जिसके लिये देश था। इसीलिये उनके देहवसान पर पूरा देश रोया और ये संस्मरण फिर उनकी स्मृति से हमें नम कर जाता है।

  ‘उन्हें भूलना है मुश्किल’ वैचारिकता के शिल्प-स्तर पर एक नये प्रयोग का संस्मरण था, जबकि लेखक ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम प्रवक्ता श्री माधव गोविंद वैध के जीवन की अनगिनत उपलब्धियों के बजाय उनको घर के ऐसे बड़े-बुज़ुर्ग के तौर पर याद किया है, जिनका जीवन आगे आने वाली पीढ़ियों के लिये रोशनी का एक स्तंभ रहेगा। ‘बौद्धिक तेज से दमकता व्यक्तित्व’ संस्मरण-रेखाचित्र अनिल माधव दवे को पाठक के ज़हन में राजनेता और प्रचारक के अलावा धरती के हितैषी की छवि और छाप भी देता है। जब लेखक उनकी वसीयत बयान करते हैं कि “...मेरी स्मृति में कोई स्मारक, पुरस्कार, प्रतिमा स्थापन न हो। मेरी स्मृति में यदि कोई कुछ करना चाहते हैं तो वृक्ष लगाएं।” जिस राजनेता का सर्वस्व जल, जंगल, जमीन के नाम रहा हो और जिसके कार्यालय का नाम ही ‘नदी का घर’ हो, उसकी वसीयत वृक्षों के सिवाय और क्या होती। 

   ‘उन्होने सिखाया ज़िंदगी का पाठ’ में लेखक ने अपने पत्रकारिता-गुरु प्रोफेसर कमल दीक्षित को याद किया है; ऐसे ही गुरुजनों के परिश्रम, अनुशासन और मेधा ने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलवाई। ‘रचना, सृजन और संघर्ष से बनी शख्सियत’ में शिव अनुराग पटैरया को याद करते हुए संजय जी शब्द-रेखाओं से कैसा अविस्मरणीय चित्र खींचते हैं, “वे ही थे जो खिलखिलाकर मुक्त हंसी हंस सकते थे, खुद पर भी, दूसरों पर भी।” ऐसे पात्र दुर्लभ हैं आज–समय में भी, साहित्य में भी। ‘सरोकारों के लिये जूझने वाली योद्धा’ संस्मरण पाठक को एक ऐसी शिक्षिका दविंदर कौर उप्पल से मिलवाता है, जो सख्त, अनुशासन प्रिय, नर्म और ममतामयी थीं। लेखक ने अपनी शिक्षिका के समग्र व्यक्तित्व को अपनी एक पंक्ति से जैसे अमिट बना दिया है, “पूरी जिंदगी में उन्होंने किसी की मदद नहीं ली।”

     ‘बहुत कठिन है उन–सा होना’ शिल्प के स्तर पर पुस्तक का सबसे लाजवाब संस्मरण है, जिसमें लेखक ने छतीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी को याद करते हुए लिखा है, “वे दरअसल पढ़ने-लिखने वाले इंसान थे। बहुपठित और बहुविग्य। किंतु वे ‘शक्ति’ चाहते थे, जो साहित्य और संस्कृति की दुनिया उन्हें नहीं दे सकती थी। इसलिये शक्ति जिन-जिन रास्तों से आती थी, वह उन सब पर चले। वे आईपीएस बने, आईएएस बने, राजनीति में गये और सीएम बने।...वे कलेक्टर थे तो जननेता की तरह व्यवहार करते थे, जब मुख्यमंत्री बने तो कलेक्टर सरीखे दिखे।” व्यक्तित्वों का ऐसा मूल्यांकन सिर्फ साहित्य में ही संभव है।

     संजय जी की लेखनी की एक विशिष्टता है कि वे अपनी रचना में ऐसा वातावरण, ऐसी भाषा रचते हैं कि किसी अपरिचित पात्र के वर्णन में भी पाठक को आत्मीय की स्मृति-सा आस्वादन मिलता है। ‘ध्येयनिष्ठ संपादक और प्रतिबद्ध पत्रकार’ संस्मरण में अपने पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति राधेश्याम शर्मा को वे किस तरह याद करते हैं देखिये, “वे आते तो सबसे मिलते और परिवारों में जाते। अपने साथियों और अधीनस्थों के परिजनों, बच्चों की स्थिति, प्रगति, पढ़ाई और विवाह सब पर उनकी नजर रहती थी।”

     श्यामलाल चतुर्वेदी पर लिखा संस्मरण ‘समृद्ध लोकजीवन के स्वप्नद्रष्टा’ जहां आपको छत्तीसगढ़ के लोकसेवक पत्रकार से मिलवायेगा, तो ‘पत्रकरिता के आर्चाय’ रेखाचित्र में आप एक पुरोधा डॉ. नंदकिशोर त्रिखा से मिलेंगे, जिन्होंने मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता की। ‘भारतबोध के अप्रतिम व्याख्याता’ एक मार्मिक रेखाचित्र बन पड़ा है, जिसमें मुज़फ्फर हुसैन से हम मिलते हैं, जिन्होंने सिर्फ लेखन के बूते न सिर्फ जीवन जिया, सत्ता के गलियारों से लेकर आम सभाओं तक में सम्मान पाया, अपने समुदाय की चिंता की और कट्टरपंथियों से कभी नहीं डरे। ‘संवेदना से बुनी राजनीति का चेहरा’ में जे. जयललिता की अपार लोकप्रियता और जनसेवक की छवि का पता और पड़ताल है तो ‘छत्तीसगढ़ का गांधी’ में संत पवन दीवान का भोला संत-व्यक्तित्व। ‘एक ज़िंदादिल और बेबाक इंसान’ में लेखक ने अपने पुराने युवा संवाददाता साथी देवेंद्र कर को याद किया है, वहीं ‘स्वाभिमानी जीवन की पाठशाला’ संस्मरण में बसंत कुमार तिवारी के जुझारू व्यक्तित्व और किरदार को शब्द दिये हैं। 

    ‘माओवादियों के विरुद्ध सबसे प्रखर आवाज़’ महेंद्र कर्मा जैसे जनसेवक, जननायक से हमें रूबरू करता शब्द-चित्र है। ‘माटी की महक’ प्रख्यात राजनेता नंदकुमार पटेल और उनके पुत्र दिनेश पटेल के साथ अपने निजी समय और सम्पर्क को याद करते हुए संजय जी नक्सली हिंसा में शहीद अपने इन प्रिय व्यक्तित्वों के बहाने पाठकों से झकझोर देने वाले सवाल करते हैं कि इनका कुसूर क्या था? ‘ध्येयनिष्ठ जीवन’ शब्द-चित्र में लखीराम अग्रवाल को ऐसे मार्मिक ढंग और शैली में याद किया है कि जो इस राजनेता को जानते भी नहीं रहे होंगे, वे भी अब उन्हें सम्मान से याद करेंगे। बलिराम कश्यप पर लिखा शब्द-चित्र ‘जनजातियों की सबसे प्रखर आवाज’ का कथ्य तो पाठक को हिला कर रख देता है। जब हम एक ऐसे राजनेता को जानते हैं जिसके पुत्र को माओवादियों ने मार डाला, फिर भी जो बस्तर के दूर-दराज इलाकों में जाकर जन-जन से मिलता रहा, क्योंकि वंचित आदिवासी ही उनकी संतान थी।

    ‘न तो थके और न ही हारे’ में एक ईमानदार पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री को लेखक ने याद किया है। पुस्तक का अंतिम संस्मरण कानू सान्याल पर ‘विकल्प के अभाव की पीड़ा’ है। नक्सलवाद को हम उसके रक्तरंजित परिचय से याद करते हैं, लेकिन लेखक नक्सलबाड़ी आंदोलन के इस नायक को कानू दा कहते हुए जिन शब्दों में याद करते हैं, वे शब्द न सिर्फ इस अभिशप्त नायक को सम्मान देते हैं; बल्कि लेखक को पत्रकारिता से परे साहित्य की दुनिया का हिस्सा बना जाते हैं। लेखक के ही शब्दों में इस (अ)नायक को नमन, “वे भटके हुए आंदोलन का आख़िरी प्रतीक थे, किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही।”

पुस्तक : न हन्यते

लेखक : प्रो. संजय द्विवेदी

मूल्य : 250 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

(लेखिका देश की प्रख्यात कहानीकार एवं उपन्यासकार हैं। इन दिनों भोपाल में रहती हैं।)

'पॉजिटिव' होने के लिए 'पॉजिटिव लाइफ' जीना जरूरी: प्रो. द्विवेदी

'मेंटल हेल्थ ऑफ यंग मीडिया प्रोफेशनल्स' विषय पर नागपुर में सेमिनार का आयोजन

आईआईएमसी, अमरावती एवं यूनीसेफ के संयुक्त तत्वावधान में हुआ कार्यक्रम का आयोजन



नागपुर, 18 जुलाई। ''पत्रकारों को जीवन और जीविका के बीच संतुलन बनाए रखने की जरुरत है। सकारात्मक होने के लिए सकारात्मक जीवन जीना आवश्यक है। मीडियाकर्मियों को लोकमंगल के साथ-साथ आत्ममंगल पर भी विचार करना चाहिए। ध्यान, प्राणायाम और नेचुरोपैथी को अपना कर पत्रकार मानसिक तनाव को दूर कर सकते हैं और अपने पत्रकारिता कर्म को श्रेष्ठ बना सकते हैं।'' यह विचार भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने 'मेंटल हेल्थ ऑफ यंग मीडिया प्रोफेशनल्स' विषय पर आईआईएमसी, अमरावती एवं यूनीसेफ के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सेमिनार को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। 

    नागपुर में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता दैनिक भास्कर, नागपुर के समूह संपादक प्रकाश दूबे ने की। आयोजन में वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. कृपाशंकर चौबे विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद रहे।

    कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा कि यदि मन स्वस्थ रहेगा, तो विचार भी स्वस्थ रहेंगे। मन और शरीर पर ध्यान देने की जरुरत है, लेकिन स्वास्थ्य की अतिरिक्त चिंता भी तनाव का बड़ा कारण है। अपने कार्य को बड़ा मानने से अहंकार पैदा होता है, जो तनाव का प्रमुख कारक है। पत्रकार अगर पत्रकारिता को सेवा मानकर काम करेंगे, तो तनाव दूर रहेगा। 

     सेमिनार के प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए दैनिक भास्कर, नागपुर के समूह संपादक प्रकाश दूबे ने कहा कि जीवन में गिरावट तनाव का प्रमुख कारण है। पत्रकारों को हताशा से बचना चाहिए। मीडियाकर्मियों को भाषाओं को सीखने की जरुरत है, भाषा न जानने से हताशा होती है। उन्होंने पत्रकारों एवं उनके परिवार के सदस्यों की शारीरिक एवं मानसिक जांच कराने की पुरजोर मांग की। 

   इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय ने कहा कि दुनिया चलाने की सोच से पत्रकारों में तनाव पैदा होता है। अन्य व्यवसायों की तुलना में पत्रकारिता में तनाव, अनिद्रा और हताशा ज्यादा है। अगर पत्रकार जीवन और जीविका में अंतर करना सीखेंगे, तो यह तनाव कम हो सकता है।

     महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. कृपाशंकर चौबे ने कहा कि पत्रकारों को कई काम एक साथ करने होते हैं, इसलिए वे तनावग्रस्त ज्यादा होते हैं। तनाव से रचनात्मकता कम होती है। इससे मुक्ति के लिए पत्रकारों को आवश्यक कदम उठाने चाहिए।

    सेमिनार के द्वितीय सत्र की अध्यक्षता आईआईएमसी के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने की। इस सत्र में प्रख्यात मनोचिकित्सक एवं साइकिएट्रिक सोसायटी, नागपुर के अध्यक्ष डॉ. सागर चिद्दलवार ने मानसिक स्वास्थ्य के महत्व एवं आवश्यकता पर विस्तार से चर्चा की। पत्र सूचना कार्यालय के शशिन राय, 'तरुण भारत' के डिजिटल हेड शैलेश पांडे और 'द हितवाद' के चीफ रिपोर्टर कार्तिक लोखंडे ने भी द्वितीय सत्र में अपने विचार व्यक्त किए।

     सेमिनार में विषय प्रवर्तन आईआईएमसी के डीन (छात्र कल्याण) प्रो. (डॉ.) प्रमोद कुमार ने किया एवं धन्यवाद ज्ञापन भारतीय जन संचार संस्थान, पश्चिमी क्षेत्रीय केंद्र, अमरावती के क्षेत्रीय निदेशक प्रो. (डॉ.) वी.के. भारती ने दिया। कार्यक्रम में एनबीबीएस एलयूपी (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) के निदेशक डॉ. बी.एस. द्विवेदी, यूनीसेफ की संचार विशेषज्ञ स्वाति महापात्र, मीडियाकर्मियों, शिक्षकों एवं विद्यार्थियों की भी उल्लेखनीय उपस्थिति रही।