इंटरव्यू
प्रोफेसर संजय द्विवेदी से वरिष्ठ पत्रकार अहमद
लाली की अंतरंग बाचतीत
प्रोफ़ेसर(डा.) संजय द्विवेदी मीडिया शिक्षा के
क्षेत्र में एक जानी-मानी शख्सियत हैं। वे भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC)
दिल्ली के महानिदेशक रह चुके हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय
पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति और कुलसचिव बतौर भी
उन्होंने अपनी सेवाएं दी हैं। मीडिया शिक्षक होने के साथ ही प्रो.संजय द्विवेदी ने
सक्रिय पत्रकार और दैनिक अखबारों के संपादक के रूप में भी भूमिकाएं निभाई हैं। वह मीडिया
विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक भी हैं। 35 से
ज़्यादा पुस्तकों का लेखन और संपादन भी किया है। सम्प्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी
पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में प्रोफेसर हैं।
मीडिया शिक्षा, मीडिया की मौजूदा स्थिति, नयी शिक्षा नीति जैसे कई अहम् मुद्दों पर वरिष्ठ पत्रकार रईस अहमद 'लाली' ने उनसे लम्बी बातचीत की है। प्रस्तुत हैं
इस बातचीत के सम्पादित अंश :
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संजय जी, प्रथम तो आपको बधाई कि वापस आप
दिल्ली से अपने पुराने कार्यस्थल राजा भोज की नगरी भोपाल में आ गए हैं। यहाँ आकर
कैसा लगता है आपको? मेरा ऐसा पूछने का तात्पर्य इन शहरों से
इतर मीडिया शिक्षा के माहौल को लेकर इन दोनों जगहों के मिजाज़ और वातावरण को लेकर
भी है।
अपना शहर हमेशा अपना होता है। अपनी जमीन की
खुशबू ही अलग होती है। जिस शहर में आपने पढ़ाई की, पत्रकारिता की, जहां पढ़ाया
उससे दूर जाने का दिल नहीं होता। किंतु महत्वाकांक्षाएं आपको खींच ले जाती हैं। सो
दिल्ली भी चले गए। वैसे भी मैं जलावतन हूं। मेरा कोई वतन नहीं है। लेकिन
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की जमीन मुझे बांधती है। मैंने सब कुछ यहीं पाया। कहने को
तो यायावर सी जिंदगी जी है। जिसमें दिल्ली भी जुड़ गया। आप को गिनाऊं तो मैंने
अपनी जन्मभूमि (अयोध्या) के बाद 11 बार शहर बदले, जिनमें बस्ती, लखनऊ,वाराणसी,
भोपाल, रायपुर, बिलासपुर, मुंबई, दिल्ली सब शामिल हैं। जिनमें दो बार रायपुर आया
और तीसरी बार भोपाल में हूं। बशीर बद्र साहब का एक शेर है, जब मेरठ दंगों में उनका
घर जला दिया गया, तो उन्होंने कहा था-
मेरा घर जला तो
सारा जहां मेरा घर हो गया।
मैं खुद को खानाबदोश तो नहीं कहता, पर यायावर
कहता हूं। अभी भी बैग तैयार है। चल दूंगा। जहां तक वातावरण की बात है, दिल्ली और
भोपाल की क्या तुलना। एक राष्ट्रीय राजधानी है,दूसरी राज्य की राजधानी। मिजाज की
भी क्या तुलना हम भोपाल के लोग चालाकियां सीख रहे हैं, दिल्ली वाले चालाक ही हैं।
सारी नियामतें दिल्ली में बरसती हैं। इसलिए सबका मुंह दिल्ली की तरफ है। लेकिन
दिल्ली या भोपाल हिंदुस्तान नहीं हैं। राजधानियां आकर्षित करती हैं , क्योंकि यहां
राजपुत्र बसते हैं। हिंदुस्तान बहुत बड़ा है। उसे जानना अभी शेष है।
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भोपाल और दिल्ली में पत्रकारिता और जन संचार की पढ़ाई के माहौल में
क्या फ़र्क़ महसूस किया आपने ?
भारतीय जन संचार संस्थान में जब मैं रहा, वहां
डिप्लोमा कोर्स चलते रहे। साल-साल भर के। उनका जोर ट्रेनिंग पर था। देश भर से
प्रतिभावान विद्यार्थी वहां आते हैं, सबका पहला चयन यही संस्थान होता है। माखनलाल
चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय इस मायने में खास है उसने पिछले तीस
सालों से स्नातक और स्नातकोत्तर के रेगुलर कोर्स चलाए और बड़ी संख्या में मीडिया
वृत्तिज्ञ ( प्रोफेसनल्स) और मीडिया शिक्षा निकाले। अब आईआईएमसी भी विश्वविद्यालय
भी बन गया है। सो एक नई उड़ान के लिए वे भी तैयार हैं।
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आप देश के दोनों प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थानों के अहम् पदों को
सुशोभित कर चुके हैं। दोनों के बीच क्या अंतर पाया आपने ? दोनों
की विशेषताएं आपकी नज़र में ?
दोनों की विशेषताएं हैं। एक तो किसी संस्था को
केंद्र सरकार का समर्थन हो और वो दिल्ली में हो तो उसका दर्जा बहुत ऊंचा हो जाता
है। मीडिया का केंद्र भी दिल्ली है। आईआईएमसी को उसका लाभ मिला है। वो काफी पुराना
संस्थान है, बहुत शानदार एलुमूनाई है , एक समृध्द परंपरा है उसकी । एचवाई शारदा
प्रसाद जैसे योग्य लोगों की कल्पना है वह। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता
विश्वविद्यालय(एमसीयू) एक राज्य विश्वविद्यालय है, जिसे सरकार की ओर से बहुत पोषण
नहीं मिला। अपने संसाधनों पर विकसित होकर उसने जो भी यात्रा की, वह बहुत खास है। कंप्यूटर
शिक्षा के लोकव्यापीकरण में एमसीयू की एक खास जगह है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों
में आप जाएंगें तो मीडिया शिक्षकों में एमसीयू के
ही पूर्व छात्र हैं, क्योंकि स्नातकोत्तर कोर्स यहीं चल रहे थे। पीएचडी
यहां हो रही थी। सो दोनों की तुलना नहीं हो सकती। योगदान दोनों का बहुत महत्वपूर्ण
है।
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आप लम्बे समय से मीडिया शिक्षक रहे हैं और सक्रिय पत्रकारिता भी की
है आपने। व्यवहारिकता के धरातल पर मौजूदा मीडिया शिक्षा को कैसे देखते हैं ?
एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते
हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का
क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।
मीडिया
शिक्षा में सिद्धांत और व्यवहार का बहुत गहरा द्वंद है। ज्ञान-विज्ञान के एक
अनुशासन के रूप में इसे अभी भी स्थापित होना शेष है। कुछ लोग ट्रेनिंग पर आमादा
हैं तो कुछ किताबी ज्ञान को ही पिला देना चाहते हैं। जबकि दोनों का समन्वय जरूरी
है। सिद्धांत भी जरूरी हैं। क्योंकि जहां हमने ज्ञान को छोड़ा है, वहां से आगे
लेकर जाना है। शोध, अनुसंधान के बिना नया विचार कैसे आएगा। वहीं मीडिया का
व्यवहारिक ज्ञान भी जरूरी है। मीडिया का क्षेत्र अब संचार शिक्षा के नाते बहुत
व्यापक है। सो विशेषज्ञता की ओर जाना होगा। आप एक जीवन में सब कुछ नहीं कर सकते।
एक काम अच्छे से कर लें, वह बहुत है। इसलिए भ्रम बहुत है। अच्छे शिक्षकों का अभाव
है। एआई की चुनौती अलग है। चमकती हुई चीजों ने बहुत से मिथक बनाए और तोड़े हैं। सो
चीजें ठहर सी गयी हैं, ऐसा मुझे लगता है।
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नयी शिक्षा निति को केंद्र सरकार नए सपनों के नए भारत के अनुरूप
प्रचारित कर रही है, जबकि आलोचना करने वाले इसमें तमाम
कमियां गिना रहे हैं। एक शिक्षक बतौर आप इन नीतियों को कैसा पाते हैं ?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति बहुत शानदार है। जड़ों से
जोड़कर मूल्यनिष्ठा पैदा करना, पर्यावरण के प्रति प्रेम, व्यक्ति को आत्मनिर्भर
बनाना यही लक्ष्य है। किंतु क्या हम इसके लिए तैयार हैं। सवाल यही है कि अच्छी
नीतियां- संसाधनों, शिक्षकों के समर्पण, प्रशासन के समर्थन की भी मांग करती हैं।
हमें इसे जमीन पर उतारने के लिए बहुत तैयारी चाहिए। भारत दिल्ली में न बसता है, न
चलता है। इसलिए जमीनी हकीकतों पर ध्यान देने की जरूरत है। शिक्षा हमारे ‘तंत्र’ की कितनी बड़ा प्राथमिकता है, इस पर भी
सोचिए। सच्चाई यही है कि मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग ने भी अपने बच्चों को सरकारी
स्कूलों से हटा लिया है। वे सरकारी संस्थानों से कोई उम्मीद नहीं रखते। इस विश्वास
बहाली के लिए सरकारी संस्थानों के शिक्षकों, प्रबंधकों और सरकारी तंत्र को बहुत
गंभीर होने की जरूरत है। उत्तर प्रदेश के ताकतवर मुख्यमंत्री प्राथमिक शिक्षकों की
विद्यालयों में उपस्थिति को लेकर एक आदेश लाते हैं, शिक्षक उसे वापस करवा कर दम
लेते हैं। यही सच्चाई है।
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पत्रकारिता में करियर बनाने के लिए क्या आवश्यक शर्त है ?
पत्रकारिता, मीडिया या संचार तीनों क्षेत्रों
में बनने वाली नौकरियों की पहली शर्त तो भाषा ही है। हम बोलकर, लिखकर भाषा में ही
खुद को व्यक्त करते हैं। इसलिए भाषा पहली जरूरत है। तकनीक बदलती रहती है, सीखी जा
सकती है। किंतु भाषा संस्कार से आती है। अभ्यास से आती है। पढ़ना, लिखना, बोलना, सुनना
यही भाषा का असल स्कूल और परीक्षा है। भाषा के साथ रहने पर भाषा हममें उतरती है।
यही भाषा हमें अटलबिहारी वाजपेयी,अमिताभ बच्चन, नरेंद्र मोदी,आशुतोष राणा या कुमार
विश्वास जैसी सफलताएं दिला सकती है। मीडिया में अनेक ऐसे चमकते नाम हैं, जिन्होंने
अपनी भाषा से चमत्कृत किया है। अनेक लेखक हैं, जिन्हें हमने रात भर जागकर पढ़ा है।
ऐसे विज्ञापन लेखक हैं जिनकी पंक्तियां हमने गुनगुनाई हैं। इसलिए भाषा, तकनीक का
ज्ञान और अपने पाठक, दर्शक की समझ हमारी सफलता की गारंटी है। इसके साथ ही
पत्रकारिता में समाज की समझ, मिलनसारिता, संवाद की क्षमता बहुत मायने रखती है।
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मीडिया शिक्षा में कैसे नवाचारों की आवश्यकता है ?
शिक्षा का काम व्यक्ति को आत्मनिर्भर और
मूल्यनिष्ठ मनुष्य बनाना है। जो अपनी विधा को साधकर आगे ले जा सके। मीडिया में भी
ऐसे पेशेवरों का इंतजार है जो ‘फार्मूला
पत्रकारिता’ से आगे बढ़ें। जो मीडिया को इस देश की आवाज बना
सकें। जो एजेंड़ा के बजाए जन-मन के सपनों, आकांक्षाओं को स्वर दे सकें। इसके लिए
देश की समझ बहुत जरूरी है। आज के मीडिया का संकट यह है वह नागरबोध के साथ जी रहा
है। वह भारत के पांच प्रतिशत लोगों की छवियों को प्रक्षेपित कर रहा है। जबकि कोई
भी समाज अपनी लोकचेतना से खास बनता है। देश की बहुत गहरी समझ पैदा करने वाले,
संवेदनशील पत्रकारों का निर्माण जरूरी है। मीडिया शिक्षा को संवेदना, सरोकार, राग,
भारतबोध से जोड़ने की जरूरत है। पश्चिमी मानकों पर खड़ी मीडिया शिक्षा को भारत की
संचार परंपरा से जोड़ने की जरूरत है। जहां संवाद से संकटों के हल खोजे जाते रहे
हैं। जहां संवाद व्यापार और व्यवसाय नहीं, एक सामाजिक जिम्मेदारी है।
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देश में मीडिया की मौजूदा स्थिति को लेकर आपकी राय क्या है ?
मीडिया शिक्षा का विस्तार बहुत हुआ है। हर
केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया शिक्षा के विभाग हैं। चार विश्वविद्यालय-
भारतीय जन संचार संस्थान(दिल्ली), माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं
संचार विवि(भोपाल), हरिदेव जोशी पत्रकारिता विवि(जयपुर) और कुशाभाऊ ठाकरे
पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि(रायपुर) देश में काम कर रहे हैं। इन सबकी उपस्थिति के
साथ-साथ निजी विश्वविद्यालय और कालेजों में भी जनसंचार की पढ़ाई हो रही है। यानि
विस्तार बहुत हुआ है। अब हमें इसकी गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है। ये जो चार
विश्वविद्यालय हैं वे क्या कर रहे हैं। क्या इनका आपस में भी कोई समन्वय है। विविध
विभागों में क्या हो रहा है। उनके ज्ञान, शोध और आइडिया एक्सचेंज जैसी व्यवस्थाएं
बनानी चाहिए। दुनिया में मीडिया या जनसंचार शिक्षा के जो सार्थक प्रयास चल रहे
हैं, उसकी तुलना में हम कहां हैं। बहुत सारी बातें हैं, जिनपर बात होनी चाहिए।
अपनी ज्ञान विधा में हमने क्या जोड़ा। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने भी एक समय
देश में एक ग्लोबल कम्युनिकेशन यूनिर्वसिटी बनाने की बात की थी। देखिए क्या होता
है।
बावजूद इसके हम एक मीडिया शिक्षक के नाते क्या कर पा रहे हैं। यह सोचना है।
वरना तो मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी हमारे लिए ही लिख गए हैं-
हम क्या कहें अहबाब क्या
कार-ए-नुमायाँ कर गए।
बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली
फिर मर गए।।
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आज की मीडिया और इससे जुड़े लोगों के अपने मिशन से भटक जाने और पूरी
तरह पूंजीपतियों, सत्ताधीशों
के हाथों बिक जाने की बात कही जा रही है। इससे आप कितना इत्तेफ़ाक़ रखते हैं?
देखिए मीडिया चलाना साधारण आदमी को बस की बात
नहीं है। यह एक बड़ा उद्यम है। जिसमें बहुत पूंजी लगती है। इसलिए
कारपोरेट,पूंजीपति या राजनेता चाहे जो हों, इसे पोषित करने के लिए पूंजी चाहिए। बस
बात यह है कि मीडिया किसके हाथ में है। इसे बाजार के हवाले कर दिया जाए या यह एक
सामाजिक उपक्रम बना रहेगा। इसलिए पूंजी से नफरत न करते हुए इसके सामाजिक,
संवेदनशील और जनधर्मी बने रहने के लिए निरंतर लगे रहना है। यह भी मानिए कोई भी
मीडिया जनसरोकारों के बिना नहीं चल सकता। प्रामणिकता, विश्वसनीयता उसकी पहली शर्त
है। पाठक और दर्शक सब समझते हैं।
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आपकी नज़र में इस वक़्त देश में मीडिया शिक्षा की कैसी स्थिति है ?
क्या यह बेहतर पत्रकार बनाने और मीडिया को सकारात्मक दिशा देने का
काम कर पा रही है ?
मैं मीडिया शिक्षा क्षेत्र से 2009 से जुड़ा
हूं। मेरे कहने का कोई अर्थ नहीं है। लोग क्या सोचते हैं, यह बड़ी बात है। मुझे
दुख है कि मीडिया शिक्षा में अब बहुत अच्छे और कमिटेड विद्यार्थी नहीं आ रहे हैं।
अजीब सी हवा है। भाषा और सरोकारों के सवाल भी अब बेमानी लगने लगे हैं। सबको जल्दी
ज्यादा पाने और छा जाने की ललक है। ऐसे में स्थितियां बहुत सुखद नहीं हैं। पर
भरोसा तो करना होगा। इन्हीं में से कुछ भागीरथ निकलेंगें जो हमारे मीडिया को
वर्तमान स्थितियों से निकालेगें। ऐसे लोग तैयार करने होंगें, जो बहुत जल्दी में न
हों। जो ठहरकर पढ़ने और सीखने के लिए तैयार हों। वही लोग बदलाव लाएंगें।
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देश में आज मीडिया शिक्षा के सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
सबसे बड़ी चुनौती है ऐसे विद्यार्थियों का
इंतजार जिनकी प्राथमिकता मीडिया में काम करना हो। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह ग्लैमर
या रोजगार दे पाए। बल्कि देश के लोगों को संबल, साहस और आत्मविश्वास दे सके। संचार
के माध्यम से क्या नहीं हो सकता। इसकी ताकत को मीडिया शिक्षकों और विद्यार्थियों
को पहचानना होगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं,यह एक बड़ा सवाल है। मीडिया शिक्षा
के माध्यम से हम ऐसे क्म्युनिकेटर्स तैयार कर सकते हैं जिनके माध्यम से समाज के
संकट हल हो सकते हैं। यह साधारण शिक्षा नहीं है। यह असाधारण है। भाषा,संवाद,सरोकार
और संवेदनशीलता से मिलकर हम जो भी रचेगें, उससे ही नया भारत बनेगा। इसके साथ ही
मीडिया एजूकेशन कौंसिल का गठन भारत सरकार करे ताकि अन्य प्रोफेशनल कोर्सेज की तरह
इसका भी नियमन हो सके। गली-गली खुल रहे मीडिया कालेजों पर लगाम लगे। एक हफ्ते में
पत्रकार बनाने की दुकानों पर ताला डाला जा सके। मीडिया के घरानों में तेजी से मोटी
फीस लेकर मीडिया स्कूल खोलने की ललक बढ़ी है, इस पर नियंत्रण हो सकेगा। गुणवत्ता
विहीन किसी शिक्षा का कोई मोल नहीं, अफसोस मीडिया शिक्षा के विस्तार ने इसे बहुत
नीचे गिरा दिया है। दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती
है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों
में, तीसरे, भारत सरकार के
स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड
विश्वविद्यालय और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र
के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे
बड़ी समस्या है, वो है किताबें। हमारे देश में मीडिया
के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत
और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है।
इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है, कि वे
भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।
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भारत में मीडिया शिक्षा का क्या भविष्य देखते हैं आप ?
मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए
मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में
पत्रकारिता बहुत बदल गई है, इसलिए पत्रकारिता शिक्षा
में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैं, वैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण
में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगे, जिनमें विषयवस्तु
के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो। न्यू मीडिया आज
न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों
नौकरियां गई हैं। इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा
और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय
भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस
पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है
क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती है, जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत
अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा है, जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय
भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी
हिंदी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को
एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी
इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैं, जिससे मीडिया शिक्षण
को एक नई दिशा मिल सके।
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तेजी से बदलते मीडिया परिदृश्य के सापेक्ष मीडिया शिक्षा संस्थान
स्वयं को कैसे ढाल सकते हैं यानी उन्हें उसके अनुकूल बनने के लिए क्या करना चाहिए ?
मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने
चाहिए, कि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर
सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के
प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है
डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज
ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में
परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के लिए पहले से तैयार
करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़
रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ
मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में
करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर
तैयार करें, यह एक बड़ी जिम्मेदारी है।
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वे कौन से कदम हो सकते हैं जो मीडिया उद्योग की अपेक्षाओं और मीडिया
शिक्षा संस्थानों द्वारा उन्हें उपलब्ध कराये जाने वाले कौशल के बीच के अंतर को
पाट सकते हैं?
भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती है, तो प्रोफेसर के. ई. ईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा
के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि
मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में
काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिए, तभी वे
प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार
शिक्षण संस्थान, मीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को
प्राथमिकता दे रहे हैं, जिन्हें अकादमिक के साथ साथ
पत्रकारिता का भी अनुभव हो। ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकें, ऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकें, जिसका
उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं। पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही
वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला
कैसे छोड़ा जा सकता है? बहुत बेहतर हो मीडिया संस्थान अपने
अध्यापकों को भी मीडिया संस्थानों में अनुभव के लिए भेजें। इससे मीडिया की जरूरतों
और न्यूज रूम के वातावरण का अनुभव साक्षात हो सकेगा। विश्वविद्यालयों को आखिरी
सेमेस्टर या किसी एक सेमेस्टर में न्यूज रूम जैसे ही पढ़ाई पर फोकस करना चाहिए।
अनेक विश्वविद्यालय ऐसे कर सकने में सक्षम हैं कि वे न्यूज रूम क्रियेट कर सकें।
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अपने कार्यकाल के दौरान मीडिया शिक्षा और आईआईएमसी की प्रगति के
मद्देनज़र आपने क्या महत्वपूर्ण कदम उठाये, संक्षेप में उनका
ज़िक्र करें।
मुझे लगता है कि अपने काम गिनाना आपको छोटा
बनाता है। मैंने जो किया उसकी जिक्र करना ठीक नहीं। जो किया उससे संतुष्ठ हूं।
मूल्यांकन लोगों पर ही छोड़िए।