मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया - 5
भाषाओं की हत्या की वैचारिकता सरासर तानाशाही
डॉ. राजेन्द्र सोनी
सीमा में मरने वाला वीर सिपाही जब शहीद होता है तो वह अपनी जन्म-भूमि, माँ को याद करता है और वह भी अपनी मातृभाषा में । कम से कम हमारी अपनी संस्कृति में जन्मदात्री, धरती और भाषा के साथ मनुष्य का संबंध माँ-बेटे का है । यानी इन तीनों को हम माँ कहते हैं । माँ के बाद हम मातृभाषा के माध्यम से हाड़-मांस के लोथड़े से मनुष्य होने का संस्कार पाते हैं । परिवार के बाद हम पड़ोस से भी कोई दूसरी अन्य भाषा सीखते हैं जैसे हिंदी, सिंधी, उड़िया, गुजराती आदि । बहुधा ये भाषायें मित्रता की भाषा सिद्ध होती हैं । उन्हें भी हम मातृभाषा से कमतर नहीं देखते । ये भाषायें एक तरह से घर से बाहर के बीच सेतु का काम करती हैं । स्कूल में हमारा परिचय हिंदी के साथ संस्कृत और अंग्रेजी आदि से होता है । इस आदि वाली सूची में हम ऊर्दू, काश्मीरी, तेलुगु, बंगला, मराठी आदि को देख सकते हैं । हमारे देश में यह सब भूगोल या प्रादेशिकता के आधार पर निर्धारित होता है । भारतीय परिवेश की बात करें तो जब मातृभाषा हमारे लिए कामकाज की भाषा सिद्ध नहीं होती तब हम या तो हिंदी सहित अन्य सांवैधानिक मान्यताप्राप्त भाषा के सहारे रोजगार के अवसर जुटाते हैं या फिर अंग्रेजी की भी शरण में जाकर दो पैसे कमाने का हुनर सीखते हैं । वैसे आज अंग्रेजी ज्ञान के लिए मजबूरी नहीं बल्कि रोजगार के लिए मजबूर बनाने वाली स्थिति में है ।
जब हम अपने राज्य की बात करते हैं तो सबसे पहले हमें अपनी मातृभाषा के रूप मे छत्तीसगढ़ी दिखाई देती है । क्योंकि प्रदेश की सर्वाधिक आबादी अपने घर-परिवार में हिंदी में नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ी में कार्य-व्यवहार संपादित करती है । यही भाषा मूल और आम छत्तीसगढ़िया के पास-पड़ोस और गाँव-शहर में संपर्क की भाषा भी है । एक तरह से यह राज्य के आम जीवन में हिंदी से भी ज़्यादा व्यहृत भाषा है । यहाँ हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जब हम छत्तीसगढ़ी कहते हैं तो उसमें छत्तीसगढ़ी के सभी उपप्रकार यानी सादरी, हल्बी, कुडुख, गोंड़ी आदि बोलियाँ भी स्वभाविक तौर पर समादृत हो जाती हैं। कहने का मतलब यही कि ये भाषायें कुछ व्याकरणिक अंतर से छत्तीसगढ़ी परिवार की सदस्या हैं ।
राज्य की बहुसंख्यक लोगों की मातृभाषा छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिया जाना सकारात्मक क़दम है । छत्तीसगढ़ी के उत्थान के लिए उसका अपना पृथक आयोग बनाना भी । और छत्तीसगढ़ी साहित्य अकादमी भी । छत्तीसगढ़ी के उत्थान के लिए हर संघर्ष वांछित है । क्योंकि यह छत्तीसगढ़ियों की अस्मिता की भाषा है । इसी में वह अपनी संपूर्ण और सर्वोच्च अभिव्यक्ति देता है । ठीक उसी तरह जिस तरह हरियाणा में हरियाणवी, महाराष्ट्र में मराठी, पंजाब में पंजाबी, उडिसा में उडिया, बिहार में बिहारी हिंदी या भोजपुरी आदि । ऐसे में छत्तीसगढियों को भी अपनी भाषा छत्तीसगढ़ी में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार क्यों न हो । कम से कम प्राथमिक स्तर पर । क्योंकि छत्तीसगढ़ी फिलहाल अभी सभी आधुनिक विषयों के पाठ्यक्रम की भाषा नहीं बन सकी है । हाँ उसमें हम विपुल साहित्य ज़रूर रच चुके हैं । किन्तु अन्य साहित्येत्तर विषयों की किताबें रचना अभी शेष है जो किसी भी भाषा मे उच्चतर पाठ्यक्रम के लिए अनिवार्य शर्त है । कदाचित भाषा अकादमी और साहित्य अकादमी के गठन के पीछे यही राज्य सरकार का उद्देश्य है और जनता का भी कि हम अपनी भाषा को भविष्य में इतना सक्षम बनायें कि वह उच्चतर कक्षाओं मे भी शिक्षा का माध्यम बन सके । राजकाज की भाषा बन सके । इस तरह वह कामकाज की भाषा भी बन सके ।
राज्य में जब हम राजकीय दृष्टि से छत्तीसगढ़ी की स्थिति का आंकलन करते हैं तो कह सकते हैं कि सरकारें अभी शिक्षाकर्मी, पटवारी, जैसी तृतीय श्रेणी और भृत्य और फर्राश जैसी चतुर्थ श्रेणी की नौकरी में छत्तीसगढ़ी भाषा की जानकारी की शर्त लागू की है । शिक्षा का माध्यम नहीं । वर्तमान में राज्य की सभी बड़ी नौकरियों जिसमें शासकीय और कंपनियों की नौकरियाँ सम्मिलित हैं में चयन की शर्त छत्तीसगढ़ी नहीं बन सकी है । इन नौकरियों में कभी भी छत्तीसगढ़ी भाषा के जानकारों को प्राथमिकता के स्पष्ट दर्शन नहीं हुए हैं । इसके पीछे का सच जो भी हो एक महत्वपूर्ण सच यह भी है कि ये कार्य छत्तीसगढ़ी में नहीं बल्कि हिंदी और अंग्रेजी में होते हैं चाहे वह केंद्र शासन का कार्यालय हो या राज्य सरकार का या फिर किसी कंपनी-फैक्टरी का । यदि कोई छत्तीसगढ़िया बच्चा किसी विदेशी कंपनी में रोजगार चाहता है तो उसकी अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी वहाँ रोजगार नहीं दिला सकती । तब आप या हम उसे कैसे रोक सकते हैं कि वह उस भाषा मे अध्ययन-शिक्षण न करे जो उसके भविष्य की या विकास की भाषा होगी । क्योंकि हम इतने सक्षम तो हैं नहीं कि राज्य के सभी प्रतिभाओं को राज्य की भाषा में शिक्षित करके राज्य के भीतर ही रोजगार दिला सकें । और ऐसी मंशा भी हमारे नेताओं में फिलहाल नहीं दिखाई देती । ऐसी स्थिति में छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने के लक्ष्य पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए । ताकि वह ज्यादा से ज्यादा युवाओं के लिए आत्मसम्मान के साथ रोजगार की भाषा भी बन सके । उसकी संस्कृति की भी रक्षा होती रहे ।
हम सभी जानते हैं कि हिंदी के साथ छत्तीसगढ़ी का कोई विरोध नहीं है । उसका संस्कृत से विरोध का तो प्रश्न ही नहीं उठता । वर्तमान में संस्कृत शिक्षा को अनिवार्य करने से छत्तीसगढ़ी के पिछड़ जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। संस्कृत का अनादर करना भाषाओं की जननी का भी अनादर जैसा है । ठीक इसी तरह राज्य के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों की लुप्त प्रायः भाषाओं को संरक्षण देने में भी कोई बुराई नहीं है । क्योंकि वे छत्तीसगढ़ी को ही पुष्ट करती हैं । सारांश यही कि हमारे लिए छत्तीसगढ़ी-प्रेम सर्वोचित है किन्तु अन्य भाषाओं की हत्या की वैचारिकता सरासर तानाशाही । और इस रूप में किसी को भी ऐसी छूट राज्य में मिलनी नहीं चाहिए, चाहे वह कितना बड़ा शक्तिशाली क्यों ना हो ।
(लेखक, छत्तीसगढ़ी के वरिष्ठ साहित्यकार हैं )
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