शुक्रवार, 28 मई 2021

कोरोना संकट में संबल बनी पत्रकारिता

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष

-प्रो.संजय द्विवेदी

      कोविड-19 के दौर में हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाते हुए हम तमाम प्रश्नों से घिरे हैं। अंग्रेजी पत्रकारिता ने अपने सीमित और विशेष पाठक वर्ग के कारण अपने संकटों से कुछ निजात पाई है। किंतु भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के भी संकट जस के तस खड़े हैं। कोरोना संकट ने प्रिंट मीडिया को जिन गहरे संकटों में डाला है और उसके सामने जो प्रश्न उपस्थित किए हैं,उस पर संवाद जरूरी है। 30 मई,1826 को जब पं.युगुल किशोर शुक्ल ने कोलकाता से हिंदी के पहले पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया तब से लेकर प्रिंट मीडिया ने अनेक दौर देखे हैं। वे दौर तात्कालिक संकटों के थे और टल गए। अंग्रेजों के दौर से लेकर आजाद भारत में आपातकाल के दिनों से भी उसने जूझकर मुक्ति पाई। किंतु नए कोरोना संकट ने अभूतपूर्व दृश्य देखें हैं। आगे क्या होगा इसकी इबारत अभी लिखी जानी है।

     कोरोना ने हमारी जीवन शैली पर निश्चित ही प्रभाव डाला है। कई मामलों में रिश्ते भी दांव पर लगते दिखे। रक्त संबंधियों ने भी संकट के समय मुंह मोड़ लिया, ऐसी खबरें भी मिलीं। सही मायने में यह पूरा समय अनपेक्षित परिर्वतनों का समय है। प्रिंट मीडिया भी इससे गहरे प्रभावित हुआ। तरह-तरह की अफवाहों ने अखबारों के प्रसार पर असर डाला। लोगों ने अखबार मंगाना बंद किया, कई स्थानों पर कालोनियों में प्रतिबंध लगे, कई स्थानों वितरण व्यवस्था भी सामान्य न हो सकी। बाजार की बंदी ने प्रसार संख्या को प्रभावित किया तो वहीं अखबारों का विज्ञापन व्यवसाय भी प्रभावित हुआ। इससे अखबारों की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई। इसका परिणाम अखबारों के पेज कम हुए, स्टाफ की छंटनी और वेतन कम करने का दौर प्रारंभ हुआ। आज भी तमाम पाठकों को वापस अखबारों की ओर लाने के जतन हो रहे हैं। किंतु इस दौर में आनलाईन माध्यमों का अभ्यस्त हुआ समाज वापस लौटेगा यह कहा नहीं जा सकता।

    सवा साल के इस गहरे संकट की व्याख्या करने पर पता चलता है कि प्रिंट मीडिया के लिए आगे की राहें आसान नहीं है। विज्ञापन राजस्व तेजी से टीवी और  डिजीटल माध्यमों पर जा रहा है,क्योंकि लाकडाउन के दिनों में यही प्रमुख मीडिया बन गए हैं। तकनीक में भी परिर्वतन आया है। जिसके लिए शायद अभी हमारे प्रिंट माध्यम उस तरह से तैयार नहीं थे। इस एक सवा साल की कहानियां गजब हैं। मौत से जूझकर भी खबरें लाने वाला मैदानी पत्रकार है, तो घर से ही अखबार चला रहा डेस्क और संपादकों का समूह भी है। किसे भरोसा था कि समूचा न्यूज रूम आपकी मौजूदगी के बिना, घरों से चल सकता है। नामवर एंकर घरों पर बैठे हुए एंकरिंग कर पाएंगें। सारे न्यूज रूम अचानक डिजीटल हो गए। साक्षात्कार ई-माध्यमों पर होने लगे। इसने भाषाई पत्रकारिता के पूरे परिदृश्य को प्रभावित किया है। जो परिवर्तन वर्षों में चार-पांच सालों में घटित होने थे, वे पलों में घटित होते दिखे। तमाम संस्थाएं इसके लिए तैयार नहीं थीं। कुछ का मानस नहीं था। कुछ सिर्फ ईपेपर और ई-मैगजीन निकाल रहे हैं। बावजूद इसके भरोसा टूटा नहीं है। हमारे सामाजिक ढांचे में अखबारों की खास जगह है और छपे हुए शब्दों पर भरोसा भी कायम है। इसके साथ ही अखबार को पढ़ने में होनी वाली सहूलियत और उसकी अभ्यस्त एक पीढ़ी अभी भी मौजूद है। कई बड़े अखबार मानते हैं कि इस दौर में उनके अस्सी प्रतिशत पाठकों  की वापसी हो गयी है, तो ग्रामीण अंचलों और जिलों में प्रसारित होने वाले मझोले अखबार अभी भी अपने पाठकों की वापसी का इंतजार कर रहे हैं। वे मानते हैं कि उनके भी 40 प्रतिशत पाठक तो लौट आए हैं, बाकी का इंतजार है। नई पीढ़ी का ई-माध्यमों पर चले जाना चिंता का बड़ा कारण है। वैसे भी डिजीटल ट्रांसफामेशन की जो गति है, वह चकित करने वाली है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि डिजीटल का सूरज कभी नहीं डूबता और वह 24X7 है।

     ऐसे कठिन समय में भी बहुलांश में पत्रकारिता ने अपने धर्म का निर्वाह बखूबी किया है। स्वास्थ्य, सरोकार और प्रेरित करने वाली कहानियों के माध्यम से पत्रकारिता ने पाठकों को संबल दिया है। निराशा और अवसाद से घिरे समाज को अहसास कराया कि कभी भी सब कुछ खत्म नहीं होता। संवेदना जगाने वाली खबरों और सरोकारों से जुड़े मुद्दों को अहमियत देते हुए आज भी पत्रकारिता अपना धर्म निभा रही है। संकट में समाज का संबल बनकर मीडिया नजर आया। कई बार उसकी भाषा तीखी थी, तेवर कड़े थे, किंतु इसे युगधर्म कहना ठीक होगा। अपने सामाजिक दायित्वबोध की जो भूमिका मीडिया ने इस संकट में निभाई, उसकी बानगी अन्यत्र दुर्लभ है। जागरूकता पैदा करने के साथ, विशेषज्ञों से संवाद करवाते हुए घर में भयभीत बैठे समाज को संबल दिया है। लोगों के लिए आक्सीजन, अस्पताल ,व्यवस्थाओं के बारे में जागरूक किया है। हम जानते हैं मनुष्य की मूल वृत्ति आनंद और सामाजिक ताना-बाना है। कोविड काल ने इसी पर हमला किया। लोगों का मिलना-जुलना, खाना-पीना, पार्टियां, होटल, धार्मिक स्थल, पर्व -त्यौहार, माल-सिनेमाहाल सब सूने हो गए। ऐसे दृश्यों का समाज अभ्यस्त कहां है? ऐसे में मीडिया माध्यमों ने उन्हें तरह-तरह से प्रेरित भी किया और मुस्कुराने के अवसर भी उपलब्ध कराए। इस दौर में मेडिकल सेवाओं, सुरक्षा सेवाओं, सफाई- स्वच्छता के अमले के अलावा बड़ी संख्या में अपना दायित्व निभाते हुए अनेक पत्रकार भी शहीद हुए हैं। अनेक राज्य सरकारों ने उन्हें फ्रंटलाइन वर्कर मानते हुए आर्थिक मदद का ऐलान किया है। केंद्र सरकार ने भी शहीद पत्रकारों के परिजनों को 5 लाख रूपए प्रदान करने की घोषणा की है। ऐसे तमाम उपायों के बाद भी पत्रकारों को अनेक मानसिक संकटों,वेतन कटौती और नौकरी जाने जैसे संकटों से भी गुजरना पड़ा है। बावजूद इसके अपने दायित्वबोध के लिए सजग पत्रकारों के उदाहरण बिखरे पड़े हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संकट टलेगा और जिंदगी फिर से मुस्कुराएगी।


सकारात्‍मक खबरें देकर पाठकों में विश्वास पैदा करे मीडिया

हिंदी पत्रकारिता दिवस के उपलक्ष्‍य में भारतीय जन संचार संस्थान द्वारा ‘कोरोना काल के बाद की पत्रकारिता’ विषय पर चर्चा




नई दिल्ली, 28 मई “तन का कोरोना यदि तन से तन में फैलातो मन का कोरोना भी मीडिया के एक वर्ग ने बड़ी तेजी से फैलाया। मीडिया को लोगों के सरोकारों का ध्‍यान रखना होगा, उनके प्रति संवेदनशीलता रखनी होगी। यदि सत्‍य दिखाना पत्रकारिता का दायित्‍व हैतो ढांढस देनादिलासा देनाआशा देना, उम्‍मीद देना भी उसी का उत्‍तरदायित्‍व है। अमेरिका में 6 लाख मौते हुईंलेकिन वहां हमारे चैनलों जैसे दृश्‍य नहीं दिखाए गए। 11 सितम्‍बर के आतंकवादी हमले के बाद भी पीड़ितों के दृश्‍य नहीं दिखाए गए थे। हमारे यहां कुछ वर्जनाएं हैंजिन पर ध्‍यान देना होगा।  सत्‍य दिखाएं लेकिन कैसे दिखाएंइस पर गौर करना जरूरी है। चाकू चोर की तरह चलाना हैया सर्जन की तरह यह तय करना होगा,” यह कहना है वरिष्ठ पत्रकार श्री उमेश उपाध्याय का।  वे भारतीय जन संचार संस्थान द्वारा हिंदी पत्रकारिता दिवस के उपलक्ष्‍य में आयोजित शुक्रवार संवाद’ में कोरोना काल के बाद की पत्रकारिता’’ विषय पर मीडिया छात्रों को संबोधित कर रहे थे।  इस अवसर पर अमर उजाला डिजिटल के संपादक श्री जयदीप कर्णिक, दैनिक ट्रिब्‍यून चंडीगढ़ के संपादक श्री राजकुमार सिंह और हिंदुस्‍तान की कार्यकारी संपादक सुश्री जयंती रंगनाथन ने भी अपने विचार साझा किए।

इससे पहले भारतीय जन संचार संस्‍थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा कि समाज के अवसादचिंताएं कैसे दूर होंइस पर चिंतन आवश्‍यक है। यह सामाजिक संवेदनाएं जगाने का समय है। सारे काम सरकार पर नहीं छोड़े जा सकते। विद्यार्थियों के लिए इस समय जमीन पर जाकर कर काम करना जरूरी है। वे अपने आसपास के लोगों को संबल दें। हमें ऐसी शिक्षा चाहिएजो इंसान को इंसान बनाए।

श्री जयदीप कर्णिक ने कहा कि तकनीक की दृष्टि से कोरोना ने फास्‍ट फारवर्ड का बटन दबा दिया है। यूं तो पहले से ही डिजिटल इज़ फ्यूचर जुमला बन चुका थालेकिन जो तकनीकी बदलाव 5 साल में होना थावह अब पांच महीने में ही करना होगा। तकनीक के साथ चलना होगातभी कोई मीडिया घराने के रूप में स्‍थापित हो सकेगा। उन्होने कहा कि इस दौर में पत्रकारिता को भी अपने हित पर गौर करना होगा। कोरोना की पहली लहर में डिजिटल पर ट्रैफिक चार गुना बढ़ा थाजो दूसरी लहर में उससे भी कई गुना बढ़ गया। डिजिटल में यह जानने की सुविधा है कि पाठक क्‍या पढ़ना चाहता है और कितनी देर तक पढ़ना चाहता है। पत्रकार शुतुर्मुर्ग की तरह नहीं बन सकताजरूरी है कि  सत्‍य दिखाइए, पर इस तरह दिखाइए कि लोग अवसाद में न जाएं। हमें सलीके से सच दिखाना होगा।

श्री राजकुमार सिंह ने कहा कि कोरोना काल ने केवल पत्रकारिता को ही नहींबल्कि हमारी जीवन शैली और जीवन मूल्‍यों को भी झकझोर कर रख दिया। पत्रकारिता ने कई अनपेक्षित बदलाव देखे। उस पर कई तरफ से प्रहार हुआ। सबसे ज्‍यादा असर तो यह हुआ कि लोगों ने अखबार लेना बंद कर दिया। कोरोना की पहली लहर के बाद 40 से 50 प्रतिशत पाठक ही अखबारों की ओर लौट पाए। कोरोना काल में अपनी जान गँवाने वाले पत्रकारों का जिक्र करते हुए उन्होने कहा कि देश में ऐसा कोई आंकड़ा नहीं कि कितने पत्रकारों की जान गईं। यह आंकड़ा चिकित्‍सा जगत के लोगों की मौतों के आंकड़े से कहीं ज्‍यादा हो सकता है। पत्रकार भी फ्रंटलाइन योद्धा हैं उनकी भी चिंता की जानी चाहिए।

सुश्री जयंती रंगनाथन ने कहा कि मीडिया को सकारात्‍मक खबरें देनी होंगी। उसे लोगों को बताना होगा कि पुराने दिन लौट कर आएंगेलेकिन उसमें थोड़ा वक्‍त लगेगा। हमारा डीएनए पश्चिमी देशों से भिन्‍न हैजैसा वहां हैयहां ऐसा नहीं होगा। हमें भी अपने पाठकों की मदद करनी होगी। हमें लोगों के सरोकारों से जुड़ना होगा। सकारात्‍मक खबरों का दौर लौटेगा और प्रिंट मीडिया मजबूती से जमा रहेगा।

कार्यक्रम का संचालन “अपना रेडियो” और आईटी विभाग की विभागाध्‍यक्ष प्रोफेसर (डॉ.) संगीता प्रणवेंद्र ने किया। डीन (अकादमिक)  प्रो. (डॉ.) गोविन्‍द सिंह  ने धन्‍यवाद ज्ञापन किया।



गुरुवार, 27 मई 2021

वीर सावरकरः स्वातंत्र्य समर का एक उपेक्षित नायक

 जयंती (28 मई) पर विशेष

-प्रो.संजय द्विवेदी

       स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर की पूरी जिंदगी रचना, सृजन और संघर्ष का उदाहरण है। आजादी के आंदोलन के वे अप्रतिम नायक हैं। उनकी प्रतिभा के इतने कोण हैं कि किसी एक पक्ष का भी अभी ठीक से मूल्यांकन होना शेष है। वे क्रांतिकारी, सामाजिक चिंतक, समाज सुधारक,इतिहासकार, उपन्यासकार, कवि, राजनेता एवं संगठनकर्ता हैं। सावरकर भारतीय स्वातंत्र्य समर के प्रथम क्रांतिकारी हैं, जिन्हें दो बार काला पानी सजा सुनाई गई। सावरकर पर अंग्रेज अफसर की हत्या की साजिश रचने और भारत में क्रांति की पुस्तकें भेजने के दो अभियोगों में 25-25 वर्ष मतलब कुल मिलाकर 50 वर्ष की सजा सुनाई गयी थी। 4 जुलाई 1911 को अंडमान-निकोबार की सेल्लुलर जेल में भेज दिया गया। इसी जेल में उनके बड़े भाई गणेश भी थे, किंतु कड़े नियमों के कारण दो साल तक दोनों भाई आपस में मिल भी नहीं सके। 

    उनके व्यक्तित्व का गलत आकलन और उनकी मृत्यु के इतने सालों बाद भी उनका उपहास उड़ाने वालों की एक लंबी सूची है। किंतु काला पानी की भयंकरता का अनुमान उनके आलोचकों को नहीं है। यदि होता तो वे स्वातंत्र्यवीर सावरकर की पूजा करते, आलोचना नहीं। काला पानी की विभीषिका,यातना और त्रासदी  किसी नरक से कम नहीं है। सावरकर ने न सिर्फ इसे भोगा बल्कि उन्होंने इस अनुभव से काला पानी नामक एक उपन्यास भी लिखा। यह उपन्यास अंडमान की जेल में बंद सश्रम कारावास काट रहे बंदियों के ऊपर हो रहे अत्याचारों, क्रूरतापूर्ण व्यवहार के बारे में त्रासद वर्णन करता है।

     वीर सावरकर का जन्म 28, मई,1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले ग्राम भगूर में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई और 1905 में उन्होंने बीए पास किया। वे 9 जून,1906 को इंग्लैंड के चले जाते हैं और इंडिया हाउस, लंदन में रहते हुए क्रांतिकारी गतिविधियो के साथ लेखन कार्य में जुट जाते हैं। इंडिया हाउस उन दिनों राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था, जिसे पंडित श्यामजी चला रहे थे। सावरकर ने फ्री- इंडिया सोसाइटी का निर्माण किया, जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। उनकी एक लेखक के तौर पर यहीं से पहचान बननी प्रारंभ हुई। 1907 में आपने 1857 का स्वातंत्र्य समर नामक पुस्तक लिखनी प्रारंभ की। उनके मन में आजादी की अलख जल रही थी। वे ऐसे पहले भारतीय भी हैं, जिन पर हेग की अंतरराष्ट्रीय अदालत में मुकदमा भी चला। अपने जीवनकाल में संघर्षों के बाद भी उन्होंने विपुल लेखन किया। उनकी प्रमुख किताबों में- कमला, गोमांतक,मोपलों का विद्रोह,मेरा आजीवन कारावास, वरहोच्छवास, हिंदुत्व, हिंदु पदपादशाही, 1857 का स्वातंत्र्य समर, उः श्राप, उत्तरक्रिया, संन्यस्त खड्ग आदि हैं।

      30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे के बाद सावरकर जी को भी गिरफ्तार किया था, क्योंकि गोडसे भी हिन्दू महासभा का कार्यकर्ता था, जिसके सावरकर 1943 तक अध्यक्ष रह चुके थे। हत्या की साजिश में शामिल होने का उन पर भी आरोप लगाया गया। हालांकि नाथूराम गोडसे ने हत्या की योजना के लिए खुद को ही जिम्मेदार बताया। बाद में आरोप मुक्त करते हुए सावरकर को रिहा कर दिया गया। वरिष्ठ पत्रकार श्री राम बहादुर राय ने एक साक्षात्कार में कहा है कि, "दरअसल उन पर आख़िरी दिनों में जो कलंक लगा है, उसने सावरकर की विरासत पर अंधकार का बादल डाल दिया है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा उदाहरण मिले जो क्राँतिकारी कवि भी हो, साहित्यकार भी हो और अच्छा लेखक भी हो। अंडमान की जेल में रहते हुए पत्थर के टुकड़ों को कलम बना कर जिसने 6000 कविताएं दीवार पर लिखीं और उनकी कंठस्थ किया। यही नहीं पाँच मौलिक पुस्तकें वीर सावरकर के खाते में हैं, लेकिन इसके बावजूद जब सावरकर का नाम महात्मा गांधी की हत्या के आरोप से जुड़ जाता है, सावरकर समाप्त हो जाते हैं और उनकी राजनीतिक विचारधारा वहीं सूख भी जाती है।"

     देखा जाए तो सावरकर अकेले ऐसे नहीं हैं, जिन्हें इतिहास में उपेक्षा मिली। ऐसे अनेक क्रांतिवीर हैं जो अंग्रेजों के विरूद्ध लड़े,किंतु स्वतंत्र भारत की बदली राजनीति ने उन्हें अप्रासंगिक कर दिया। खासकर ऐसे क्रांतिकारी जो गरम दल से जुड़े थे। बावजूद इसके इससे सावरकर का संघर्ष और त्याग कहीं से कम नहीं होता। कई बार उनकी भगत सिंह से तुलना की जाती है कि आखिर भगत सिंह ने माफी क्यों नहीं मांगी। सच तो यह है कि भगत सिंह अपने इरादों का ऐलान कर चुके थे और उन्हें बम धमाके के बाद फांसी के फंदे पर जाना स्वीकार था। सावरकर यहां अपने माफीनामे को रणनीति की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे शायद यह मानते रहे होगें कि यहां से निकलकर वे देश के लिए कुछ कर पाएं। श्री रामबहादुर राय उन्हें अपने इसी इंटरव्यू में सावरकर को एक चतुर क्रांतिकारी की संज्ञा देते हैं। राय कहते हैं- "उनकी कोशिश रहती थी कि भूमिगत रह करके उन्हें काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है। सावरकर इस पचड़े में नहीं पड़े की उनके माफ़ी मांगने पर लोग क्या कहेंगे। उनकी सोच ये थी कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे।"

     विवादों के बाद भी अपनी पूरी जिंदगी देश के लिए होम करने वाले नायक को राजनीति के निशाने पर क्यों रखा गया, इसका बड़ा कारण हिंदुत्व के प्रति उनकी सोच और व्याख्याएं हैं। हिंदुत्व की विचारधारा के विरोधी जनों ने उनके स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को भी लांछित करना प्रारंभ किया ताकि उन्हें अंग्रेजों का पिठ्ठू बताकर हिंदुत्व को भी लांछित किया जा सके। निशाने पर दरअसल सावरकर नहीं, हिंदुत्व का विचार है। सावरकर की सारी तपस्या पर पानी फेरने के यह जतन तब किए जा रहे हैं, जबकि महात्मा गांधी भी उन्हें वीर कहकर संबोधित करते थे। सरदार भगत सिंह भी सावरकर को आदर्श के रूप में देखते थे। मतवाला के 15 और 22 नवंबर,1924 के अंक में भगत सिंह का लेख बलवंत सिंह के छद्म नाम से छपा है। विश्वप्रेम शीर्षक से छपे इस लेख में भगत सिंह लिखते हैं- विश्व प्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते- वही वीर सावरकर। विश्व प्रेम की तरंग में आकर घास पर चलते-चलते रुक जाते कि कोमल घास पैरों तले मसली जायेगी।  हालांकि 1966 में इंदिरा गांधी ने सावरकर के बलिदान, देशभक्ति और साहस को प्रणाम करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी। 1970 में इंदिरा सरकार ने सावरकर जी के सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था। इतिहास में वह पत्र भी दर्ज है जो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सावरकर राष्ट्रीय स्मारक को लिखा था। 20 मई, 1980 को श्रीमती गांधी ने स्मारक के सचिव श्री बाखले को लिखे पता में कहा था कि- मुझे आपका 8 मई 1980 को भेजा पत्र मिला। वीर सावरकर का अंग्रेजी हुक्मरानों का खुलेआम विरोध करना भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक अलग और अहम स्थान रखता है। मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें और भारत माता के इस महान सपूत की 100 वीं जयंती के उत्सव को योजनानुसार पूरी भव्यता के साथ मनाएं।

     इतना ही नहीं राष्ट्रध्वज के बीच में चक्र लगाने का सुझाव वीर सावरकर ने सर्वप्रथम दिया था, जिसे राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने स्वीकार किया। सावरकर जी सामाजिक कुप्रथाओं के विरूद्ध थे। उन्होंने छुआछूत के विरोध में आंदोलन चलाया और जाति प्रथा का विरोध किया। इसके साथ ही हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए भी उन्होंने मांग की। उन्होंने अपनी पुस्तक हिंदुत्व में लिखा है- हमारे राष्ट्र के लोगों की जीवंत मातृभाषा बनने का बहुमान संस्कृत की ज्येष्ठ कन्या हिंदी को प्राप्त हुआ है। ...रामेश्वरम् से निकलकर हरिद्वार की यात्रा पर जानेवाला कोई साधु, सन्यासी अथवा कोई व्यापारी संपूर्ण यात्रा के समय संपूर्ण हिंदुस्थान में इसी भाषा का प्रयोग करता गया। आजादी के आंदोलन में अपना सर्वस्व झोंक देने वाले इस क्रांतिकारी ने 1 फरवरी,1966 से अन्न-जल त्याग दिया और 26 फरवरी,1966 को उनका देहावसान हो गया। एक लेख में उन्होंने अपने इस संकल्प को आत्महत्या नहीं आत्मार्पण नाम दिया। उनका कहना था कि उनके जीवन का उद्देश्य अब पूरा हो चुका है, ऐसे में मृत्यु की प्रतीक्षा करने के बजाए अपना जीवन त्याग देना ही श्रेयस्कर है। ऐसे प्रखर राष्ट्रचिंतक एवं ध्येयनिष्ठ क्रांतिधर्मा वीर सावरकर की स्मृतियां लंबे समय से हमारे राष्ट्रजीवन को उनके त्यागपूर्ण जीवन की याद दिलाती रहेंगीं।

बुधवार, 26 मई 2021

लोकमंगल के संचारकर्ता हैं नारद

                                                                    -प्रो. संजय द्विवेदी


   ब्रम्हर्षि नारद लोकमंगल के लिए संचार करने वाले देवता के रूप में हमारे सभी पौराणिक ग्रंथों में एक अनिवार्य उपस्थिति हैं। वे तीनों लोकों में भ्रमण करते हुए जो कुछ करते और कहते हैं, वह इतिहास में दर्ज है। इसी के साथ उनकी गंभीर प्रस्तुति नारद भक्ति सूक्ति में प्रकट होती है, जिसकी व्याख्या अनेक आधुनिक विद्वानों ने भी की है। नारद जी की लोकछवि जैसी बनी और बनाई गई है, वे उससे सर्वथा अलग हैं। उनकी लोकछवि झगड़ा लगाने या कलह पैदा करने वाले व्यक्ति कि है, जबकि हम ध्यान से देखें तो उनके प्रत्येक संवाद में लोकमंगल की भावना ही है। भगवान के दूत के रूप में उनकी आवाजाही और उनके कार्य हमें बताते हैं कि वे निरर्थक संवाद नहीं करते। वे निरर्थक प्रवास भी नहीं करते। उनके समस्त प्रवास और संवाद सायास हैं। सकारण हैं। उद्देश्य की स्पष्टता और लक्ष्यनिष्ठा के वे सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। हम देखते हैं कि वे देवताओं के साथ राक्षसों और समाज के सब वर्गों से संवाद रखते हैं। सब उन पर विश्वास भी करते हैं। देवताओं, मनुष्यों और राक्षसों के बीच ऐसा समान आदर तो देवाधिदेव इंद्र को भी दुर्लभ है। वे सबके सलाहकार, मित्र, आचार्य और मार्गदर्शक हैं। वे कालातीत हैं। सभी युगों और सभी लोकों में समान भाव से भ्रमण करने वाले। ईश्वर के विषय में जब वे हमें बताते हैं, तो उनका दार्शनिक व्यक्तित्व भी हमारे सामने प्रकट हो जाता है।

      पुराणों में नारद जी को भागवत संवाददाता की तरह देखा गया है। हम यह भी जानते हैं कि वाल्मीकि जी ने रामायण और महर्षि व्यास ने श्रीमद्भागवत गीता का सृजन नारद जी प्रेरणा से ही किया था। नारद अप्रतिम संगीतकार हैं। उन्होंने गंधर्वों से संगीत सीखकर खुद को सिद्ध किया, नारद संहिता ग्रंथ की रचना की। नारद ने कठोर तपस्या कर भगवान विष्णु से संगीत का वरदान लिया। सबसे खास बात यह है कि वे महान ऋषि परंपरा से आते हैं, किंतु कोई आश्रम नहीं बनाते, कोई मठ नहीं बनाते। वे सतत प्रवास पर रहते हैं ,उनकी हर यात्रा उदेश्यपरक है। एक सबसे बड़ा उद्देश्य तो निरंतर संपर्क और संवाद है,साथ ही वे जो कुछ वहां कहते हैं, उससे लोकमंगल की एक यात्रा प्रारंभ होती है। उनसे सतत संवाद,सतत प्रवास, सतत संपर्क, लोकमंगल के लिए संचार करने की सीख ग्रहण की जा सकती है।

     भारत के प्रथम हिंदी समाचार-पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन के लिए संपादक पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने देवर्षि नारद जयंती (30 मई, 1826 / ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया) की तिथि का ही चुनाव किया था। हिंदी पत्रकारिता की आधारशिला रखने वाले पंडित जुगलकिशोर शुक्ल ने उदन्त मार्तण्ड के प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर आनंद व्यक्त करते हुए लिखा कि आद्य पत्रकार देवर्षि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रारंभ होने जा रही है। इससे पता चलता है परंपरा में नारद जी की जगह क्या है। इसी तरह एक अन्य उदाहरण है। नारद जी को संकटों का समाधान संवाद और संचार से करने में महारत हासिल है। आज के दौर में उनकी यह शैली विश्व स्वीकृत है। समूचा विश्व मानने लगा है कि युद्ध अंतिम विकल्प है। किंतु संवाद शास्वत विकल्प है। कोई भी ऐसा विवाद नहीं है, जो बातचीत से हल न किया जा सके। इन अर्थों में नारद सर्वश्रेष्ठ लोक संचारक हैं। सबसे बड़ी बात है नारद का स्वयं का कोई हित नहीं था। इसलिए उनका समूचा संचार लोकहित के लिए है। नारद भक्ति सूत्र में 84 सूत्र हैं। ये भक्ति सूत्र जीवन को एक नई दिशा देने की सार्मथ्य रखते हैं। इन सूत्रों को प्रकट ध्येय तो ईश्वर की प्राप्ति ही है, किंतु अगर हम इनका विश्लेषण करें तो पता चलता है इसमें आज की मीडिया और मीडिया साथियों के लिए भी उचित दिशाबोध कराया गया है। नारद भक्ति सूत्रों पर ओशो रजनीश, भक्ति वेदांत,स्वामी प्रभुपाद, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि,गुरूदेव श्रीश्री रविशंकर,श्री भूपेंद्र भाई पंड्या, श्री रामावतार विद्याभास्कर,स्वामी अनुभवानंद, हनुमान प्रसाद पोद्दार, स्वामी चिन्मयानंद जैसे अनेक विद्वानों ने टीकाएं की हैं। जिससे उनके दर्शन के बारे में विस्तृत समझ पैदा होती है। पत्रकारिता की दृष्टि से कई विद्वानों ने नारद जी के व्यक्तित्व और कृतित्व का आकलन करते हुए लेखन किया है। हालांकि उनके संचारक व्यक्तित्व का समग्र मूल्यांकन होना शेष है। क्योंकि उनपर लिखी गयी ज्यादातर पुस्तकें उनके आध्यात्मिक और दार्शनिक पक्ष पर केंद्रित हैं। काशी विद्यापीठ के पत्रकारिता के आचार्य प्रो. ओमप्रकाश सिंह ने आदि पत्रकार नारद का संचार दर्शन शीर्षक से एक पुस्तक लिखी है। संचार के विद्वान और हरियाणा उच्च शिक्षा आयोग के अध्यक्ष प्रो. बृजकिशोर कुठियाला मानते हैं, नारदजी सिर्फ संचार के ही नहीं, सुशासन के मंत्रदाता भी हैं। वे कहते हैं-व्यास ने नारद के मुख से युधिष्ठिर से जो प्रश्न करवाये उनमें से हर एक अपने आप में सुशासन का एक व्यावहारिक सिद्धांत है। 123 से अधिक प्रश्नों को व्यास ने बिना किसी विराम के पूछवाया। कौतुहल का विषय यह भी है कि युधिष्ठिर ने इन प्रश्नों का उत्तर एक-एक करके नहीं दिया परंतु कुल मिलाकर यह कहा कि वे ऋषि नारद के उपदेशों के अनुसार ही कार्य करते आ रहे हैं और यह आश्वासन भी दिया कि वह इसी मार्गदर्शन के अनुसार भविष्य में भी कार्य करेंगे। एक सुंदर दुनिया बनाने के लिए सार्वजनिक संवाद में शुचिता और मूल्यबोध की चेतना आवश्यक है। इससे ही हमारा संवाद लोकहित केंद्रित बनेगा। नारद जयंती के अवसर नारद जी के भक्ति सूत्रों के आधार पर आध्यात्मिकता के घरातल पर पत्रकारिता खड़ी हो और समाज के संकटों के हल खोजे, इसी में उसकी सार्थकता है।

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं) 

सोमवार, 24 मई 2021

बनिए कर्मयोगी, जिंदगी मुस्कुराएगी

 जीवन महान संभावनाओं से भरा है इसे यूं न गवाएं

-प्रो. संजय द्विवेदी

      कर्म की महत्ता अनंत है। हमारी परंपरा इसे कर्मयोग कहकर संबोधित करती है। हताश, निराश, अवसाद से घिरे वीरवर अर्जुन को महाभारत के युद्ध में योगेश्वर कृष्ण इसी कर्मयोग का उपदेश देते हैं। इसके बाद अर्जुन में जो सकारात्मक परिर्वतन आते हैं, उसे हम सब जानते हैं। हमारे देश में कर्मयोग की साधना करने वाले अनेक महापुरूष हुए हैं। कम आयु पाकर भी सिद्ध हो जाने वाले जगद्गुरू शंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद का कृतित्व भी हमें पता है। संकल्प के धनी, परिस्थितियों को धता बताकर अपने जीवन लक्ष्यों को पाने वाले भी अनेक हैं। गुलाम भारत में भी ऐसी प्रतिभाओं ने अपने सपनों को मरने नहीं दिया और आगे आए। जिंदगी में असंभव स्वप्न देखे और पूरे किए। देश की आजादी का सपना देखने वालों में ऐसे तमाम योद्धा थे, जिन्हें पता नहीं था कि ये जंग कब तक चलेगी, पर वे जीते। भारत से अंग्रेजी राज का सूर्यास्त हो गया।

वे जूझते हैं ताकि हम रहें खुशहालः

       मनुष्य का सारा जीवन इसी कर्मयोग का उदाहरण है। कर्तव्यबोध से भरे हुए लोग ही समाज का नेतृत्व करते हैं। उनकी कर्मठता,समर्पण से ही यह पृथ्वी सुखों का सागर बन जाती है। स्वयं को झोंककर नए-नए अविष्कार करने वाले वैज्ञानिक, सीमा पर डटे जवान, विपरीत स्थितियों में खेतों में जुटे किसान,आर्थिक गतिविधियों में लगे व्यापार उद्योग के लोग, मीडियाकर्मी, मेडिकल और स्वास्थ्य सेवाओं में लगे लोग ऐसे न जाने कितने क्षेत्र हैं, जहां लोगों ने खुद को झोंक रखा है ताकि हमारी जिंदगी खुशहाल रहे। कोई भी व्यक्ति कर्म से अलग होकर नहीं रह सकता। सोते-जागते, उठते बैठते, यहां तक कि सांस लेते हुए वह कर्म करता है। कर्मशील व्यक्ति वर्तमान को पहचानता है। उसका उपयोग करता है। श्रद्धा, आस्था और लगन से किया गया हर कार्य पूजा बन जाता है। जैसे हम कहते हैं कि उन डाक्टर साहब के हाथ में यश है। जादू है। वह कोई जादू नहीं है। उन्होंने लगन और निष्ठा से अपने काम में सिद्धि प्राप्त कर ली है।

सिद्ध कारीगरों से भरे थे हमारे गांवः

    एक समय में हमारे गांव भी ऐसे सिद्धों से भरे हुए थे। गहरी कलात्मकता, आंतरिक गुणों के आधार हमारे गांव कलाकारों, कारीगरों से भरे थे। जो समाज के उपयोग की चीजें बनाते थे, समाज उनका संरक्षण करता था। श्री धर्मपाल ने अपने लेखन में ऐसे समृद्ध गांवों का वर्णन किया है। जो समृध्दि से भरे थे, आत्मनिर्भर भी। इसके पीछे था ग्रामीण भारत में छिपा कर्मयोग। उनके मन में रची-बसी गीता। इन्हीं जागरूक भारतीय कारीगरों, कर्मठता से भरे कलाकारों ने भारत को विश्वगुरू बनाया था। कबीर अपने समय के लोकप्रिय कवि, समाजसुधारक हैं, पर वे भी कर्मयोगी हैं। वे अपना मूल काम नहीं छोड़ते। झीनी-झीनी चादर भी बीनते रहे। संत रैदास भी सिद्धि प्राप्त कर अपना काम करते रहे। यहां ज्ञान के साथ कर्म संयुक्त था। इसलिए गुरूकुल परंपरा में वहां की सारी व्यवस्थाएं छात्र खुद संभालते हैं। कर्मयोग और ज्ञानयोग की शिक्षा उन्हें साथ मिलती है। उनकी ज्ञान पिपासा उन्हें कर्म से विरत नहीं करती। वहां राजपुत्र भी सन्यासी वेश में रहते हैं और गुरू आज्ञानुसार लकड़ी काटने से लेकर भिक्षा मांगने, खेती-बागवानी का काम करते हुए जीवन युद्ध के लिए तैयार होते हैं। जमीन हकीकतें उन्हें योग्य बनाती हैं,गढ़ती हैं। वहां राजपुत्रों के फाइव स्टार स्कूल नहीं हैं। आश्रम ही हैं। समान व्यवस्था है। गीता में इसीलिए कृष्ण कहते हैं-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

       महात्मा गांधी इसी कर्मयोग को बुनियादी शिक्षा के माध्यम से जोड़ना चाहते थे। लंबे समय के बाद आई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में एक बार फिर कौशल आधारित शिक्षा की बात कही जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कर्मयोग की बात कर रहे हैं और केंद्र सरकार ने मिशन कर्मयोगी के माध्यम से अपने अधिकारियों को और भी अधिक रचनात्मक, सृजनात्मक, विचारशील, नवाचारी, अधिक क्रियाशील, प्रगतिशील, ऊर्जावान, सक्षम, पारदर्शी और प्रौद्योगिकी समर्थ बनाते हुए भविष्य के लिये तैयार करने का लक्ष्य तय किया है। यह लक्ष्य तभी पूरा होगा जब हर भारतवासी अपने कर्मपथ पर आगे बढ़े। सही मायनों में व्यक्ति को कर्मभोगी नहीं, कर्मयोगी बनना चाहिए। इसके मायने हैं कि कोई भी छोटा से छोटा काम भी इतनी गुणवत्ता से किया जाए कि वह उदाहरण बन जाए। खास बन जाए। आपका हर कार्य कर्ता की ईमानदारी का साक्षी बन जाए।

छोटी शुरूआत के बड़े मायनेः

        हर काम जिंदगी में महान संभावनाएं लेकर आता है। छोटे से बीज से ही विशाल वृक्ष बनते हैं और देते हैं हमें ढेर सी आक्सीजन, छाया और फल। कर्मवीर इसीलिए अपने काम को ही जीवन का आधार मानते हैं। एक संत कहा करते थे-हे कार्य! तुम्हीं मेरी कामना हो, तुम्हीं मेरी प्रसन्नता हो, तुम्हीं मेरा आनंद हो। हमारी जिंदगी में कई बार ऐसा लगता है कि यह काम छोटा है, मेरे व्यक्तित्व के अनुकूल नहीं है। हमें सोचना चाहिए कि जब कोई नदी अपने उद्गम से निकलती है तो वह बहुत छोटी होती है। एक पेड़ जो अपनी विशालता से आकर्षित करता है, अनेक पक्षियों का बसेरा होता है, वह भी आरंभ में एक बीज ही रहता है। एक बहुमूल्य मोती अपने प्रारंभ में बालू का कण ही होता है। हमने अनेक महापुरूषों के बारे में सुना है कि उन्होंने जीवन का आरंभ किस काम से किया। छोटी शुरूआत के मायने ठहरना नहीं है,यात्रा का आरंभ है। थामस अल्वा एडीशन वैज्ञानिक बनना चाहते थे, किंतु उनके अध्यापक ने उन्हें घर में झाड़ू लगाने का काम दिया। किंतु जब उन्होंने देखा कि इस बालक में गहरी प्रतिभा है तो उन्होंने उसे विज्ञान की शिक्षा देनी आरंभ की। बाद में थामस एक महान वैज्ञानिक बने। इस बात को याद रखिए सफलतम लोगों का जीवन प्रायः उन कामों से प्रारंभ होता है, जिन्हें हम मामूली समझकर छोड़ देते हैं। कोई भी व्यक्ति जब खुद को कर्म, परिश्रम और पुरूषार्थ की आग में तपाता है तो वह कुंदन(सोने) की तरह चमकने लगता है। उसके आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।बाधाएं उसे सफलता के रहस्य और मार्ग बताती हैं। सूरज, चांद, तारे, नदियां, पेड़-पौधे सब अपना काम नियमित करते हैं। हम एक सचेतन मनुष्य होकर किसकी प्रतीक्षा में हैं। इसी भाव से गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा था-

करम प्रधान विश्व रचि राखा,

जो जस करहि सो तस फल चाखा।

सकल पदारथ है जग मांही

करमहीन नर पावत नाहीं।

    कठिन से कठिन परिस्थितियों में हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। अमरीका के टेनेसी में रहने वाली चार साल की लड़की के पैरों को लकवा मार जाता है। वो हिम्मत से जूझती है। चलने की जगह दौड़ने का अभ्यास करने लगी। ऐसा समय भी आया जब वह ओलंपिक में शामिल होकर तीन पदक जीते।वह लड़की थी गोल्डीन रूलाफ, जो आज भी प्रेरणा देती है।

आत्मविश्वास, आत्मबल और आत्मनिर्भरता हैं मंत्रः

         कर्मयोगी बनना है तो आत्मविश्वास, आत्मबल और आत्मनिर्भरता को साधना होगा। इन तीन मंत्रों को साधकर ही हम जिंदगी की हर जंग जीत सकते हैं। निडर होकर सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए, समाजहितों में लगे रहनेवाली दृढ़ता आत्मबल से आती है। सफलता के सबसे जरूरी है आत्मविश्वास। स्वामी विवेकानंद कहते थे- आत्मविश्वास जैसा कोई मित्र नहीं है। आत्मविश्वास के कारण बाधाएं भी मंजिल पर पहुंचाने वाली सीढ़ियां बन जाती हैं। हमने राजस्थान के राणा सांगा का नाम जरूर सुना होगा। वे 80 धाव होने पर भी युद्ध में जूझते रहे। ऐसी ही कहानी है इंग्लैंड के वेल्स की । वो बहुत दुबला पर सेना में शामिल हुआ। एक युद्ध में दाहिना हाथ कट गया, दूसरे युद्ध में आंख चली गई। सरकार ने उसे दिव्यांगों की पेंशन देनी चाही किंतु उसने  मना कर दिया। उसके बाद भी उसने कई युध्दों में भाग लिया। हर स्थिति में न झुकने वालों में वेल्स का नाम लिया जाता है। वेल्स कहते थेः कायर एक बार जीता और बार-बार मरता है, लेकिन जिसके पास आत्मविश्वास है, वो एक बार ही जन्म लेता है और एक बार ही मरता है। तीसरी खास चीज है आत्मनिर्भरता। मनोविज्ञान हमें बताता है, जब तक आप दूसरों पर निर्भर हैं, आप धोखे में हैं। सच तो यह है कि हर संकट से जूझने की चाबी आपके पास है।जीवन में सफलता पाने के लिए हमें अपने सपनों, आकांक्षाओं के साथ अपनी योग्यताओं में वृध्दि करना प्रारंभ कर देना चाहिए। इससे न सिर्फ हमें सफलता मिलेगी, तनावों से मुक्ति मिलेगी बल्कि शांति, संतोष और सुखद जीवन भी प्राप्त होगा। आइए आज से ही निष्काम कर्मयोग की यात्रा पर निकलते हैं। तय मानिए एक सुंदर दुनिया बनेगी और जिंदगी मुस्कराएगी।



रविवार, 23 मई 2021

हर पत्रकार ‘हरिश्चंद्र’ नहीं होताः प्रो.संजय द्विवेदी

 साक्षात्कार

भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक प्रोफेसर संजय द्विवेदी से मीडिया प्राध्यापक डा.ऋतेश चौधरी की अंतरंग बातचीत


 
प्रो. संजय द्विवेदी देश के प्रख्यात पत्रकार, संपादक, लेखक, अकादमिक प्रबंधक और मीडिया प्राध्यापक हैं।  दैनिक भास्कर, नवभारत, हरिभूमि, स्वदेश, इंफो इंडिया डाटकाम और छत्तीसगढ़ के पहले सेटलाइट चैनल जी चौबीस घंटे छत्तीसगढ़ जैसे मीडिया संगठनों में संपादक,समाचार सम्पादक, कार्यकारी संपादक, इनपुट हेड और एंकर जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभालीं। रायपुर, बिलासपुर, मुंबई और भोपाल में सक्रिय पत्रकारिता के बाद आप अकादमिक क्षेत्र से जुड़े। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में 10 वर्ष जनसंचार विभाग के अध्यक्ष रहने के अलावा विश्वविद्यालय के कुलसचिव और प्रभारी कुलपति  रहे। मूल्यआधारित पत्रकारिता को समर्पित संगठन- ‘मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति’ के अध्यक्ष हैं। मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर अब तक 25 पुस्तकों का लेखन एवं संपादन। राजनीतिक, सामाजिक और मीडिया मुद्दों पर नियमित लेखन से खास पहचान। अनेक  संगठनों द्वारा मीडिया क्षेत्र योगदान के सम्मानित। संप्रति भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC), नई दिल्ली के महानिदेशक हैं। मीडिया के समसामयिक सवालों पर उनसे लंबी बातचीत की डा.ऋतेश चौधरी ने। इसी संवाद के अंश-


आपको पत्रकारिता का लंबा अनुभव है। आपने नब्बे के दशक में पत्रकारिता की शुरुआत की। आज लगभग तीन दशक बाद आप इस व्यवसाय में किस तरह का परिवर्तन देख रहे हैं। क्या आपको लगता है कि मीडिया बदल रहा है? क्या मीडिया के काम करने के तरीके में बदलाव आया है?

 -देखिए वक्त का काम है बदलना,वह बदलेगा। समय आगे ही जाएगा,यही उसकी नैसर्गिक वृत्ति है। ऐसे में पत्रकारिता भी अब बहुत बदली है। वह एक सक्षम उद्योग है, जिस पर निर्भर तमाम जिंदगियां बहुत अच्छा जीवन जी रही हैं। परिवर्तन कई तरह के हैं। तकनीक के हैं, भाषा के हैं, प्रस्तुति के भी हैं, छाप-छपाई के हैं,काम करने की शैली के हैं । हर क्षेत्र में हमने प्रगति की है। आज दुनिया के बेहतर अखबारों के समानांतर समाचार पत्र हमारे यहां छप रहे हैं। वे अपनी गुणवत्ता, प्रस्तुति, छाप-छपाई में कहीं कमजोर नहीं हैं। टीवी और इंटरनेट आधारित मीडिया में हमने बहुत प्रगति की है। यह प्रगति विस्मय में डालती है। काम के तरीके में परिवर्तन आया है, तकनीक के सहारे ज्यादा काम हो रहा है। किंतु विचार और गुणवत्ता की जगह तकनीक नहीं ले सकती। यह मानना ही चाहिए।

 

पत्रकारिता के सफर में आपका भारत के विभिन्न रंगों से परिचय हुआ होगा। भारत के उन रंगों को जो आज मीडिया पर प्रतिबिम्बित नहीं हैं, उनके विषय में कुछ साझा कीजिये।

-मीडिया की मजबूरी है कि वह समाज निरपेक्ष नहीं हो सकता। उसे प्रथमतः और अंततःजनता के दुख-दर्द के साथ होना होगा। कोरोना संकट-एक और दो दोनों समय पर जिस तरह मीडिया ने आम जनता के दुख-दर्द उनकी तकलीफों को बताया। समाज को संबल दिया वह बात बताती है कि मीडिया की मुक्ति कहां है। वह विचारधारा के आधार पर पक्ष लेता है। कुछ के प्रति ज्यादा कड़ा या नरम हो सकता है। पर यह बात बहुलांश पर लागू नहीं होती। ज्यादातर मीडिया अपेक्षित तटस्थता और ईमानदारी के साथ काम करता है। दूसरी बात मीडिया के पाठक वर्ग की है जो उनका पाठक है, उनकी बात ज्यादा रहेगी। मीडिया मूलतः महानगर केंद्रित है। शहर केंद्रित है। पर अब छोटे स्थानों को भी जगह मिल रही है। गांवों तक अखबार जा रहे हैं। उनकी भी खबरें आने लगी हैं। हर अखबार के स्थानीय संस्करण अपने स्थानीयताबोध और माटी की महक के नाते ही स्वीकारे जा रहे हैं।

 

एक जमाना था जब अखबार की सुर्खियाँ महीनों चर्चा का विषय होती थीं और अब अखबार बेचने के लिये स्कीम देनी पड़ती है। ऐसे में अखबारों से क्या उम्मीद की जानी चाहिए?

-आज मीडिया का आकार-प्रकार बहुत बढ़ गया है। अखबारों के पेज बढ़े हैं, संस्करण बढ़े हैं। जिले-जिले के पेज बनते हैं। टीवी न्यूज  चैनल चौबीस घंटे समाचार देते हैं, न्यू मीडिया पल-प्रतिपल अपडेट होता है। ऐसे में खबरों की उमर ज्यादा नहीं रहती। एक जाती है तो तुरंत दूसरी आती है। ऐसे में किसी खबर पर महीनों चर्चा हो यह संभव नहीं है। दोपहर की खबर पर शाम को चैनल चर्चा करते हैं। सुबह अखबारों में संपादकीय, विश्लेषण और लेख आ जाते हैं। इससे ज्यादा क्या चाहिए? गति बढ़ी है तो इससे सारा कुछ बदल गया है। जहां तक अखबार बेचने की बात है, स्कीम दी जाती है, सच है। यह स्पर्धा के नाते है। आज अखबारों में लाखों में छपते और बिकते हैं। चीन, जापान और भारत आज भी प्रिंट के बड़े बाजार हैं। यहां ग्रोथ निरंतर है। ऐसे में अपना प्रसार बढ़ाने की स्पर्धा में स्कीम आदि के कार्य होते हैं। इसमें गलत क्या है? आप सीमित संख्या में छपना और बिकना चाहते हैं, तो स्कीम नहीं चाहिए। आपको ज्यादा प्रसार चाहिए तो कुछ आकर्षण देना पड़ेगा। वे इवेंट हों, इनाम हों, स्कीम हो कुछ भी हो। जहां तक उम्मीद की बात है, तो भरोसा तो रखना पड़ेगा। आप मीडिया पर भरोसा नहीं करेगें तो किस पर करेगें? कहां जाएंगें?

न्यूज़ चैनल का एक एंकर देश को बचाने के लिए स्टूडियो में नकली बुलेट प्रूफ़ जैकेट पहने दहाड़ता रहता है, पता नहीं कब दुष्ट पाकिस्तान गोली चला दे। आपके हिसाब से क्या ये तमाशा पत्रकारिता के लिए खतरे कि घंटी नहीं है?

-टीवी से आप बहुत ज्यादा उम्मीद रख रहे हैं। टीवी ड्रामे का माध्यम है, वहां दृश्य रचने होते हैं। इसलिए यह सब चलता है। कल तक नाग-नागिन की शादी, काल-कपाल-महाकाल,स्वर्ग की सीढ़ी, राजू श्रीवास्तव-राखी सावंत-रामदेव से निकलकर ये  टीवी चैनल बहस पर आए हैं। कल खबरों पर भी आएंगें। थोड़ा धीरज रखिए। गंभीर चैनल भी हैं पर उन्हें देखा नहीं जाता। दर्शकों और पाठकों को भी मीडिया साक्षर बनाने की सोचिए। सारा ठीकरा मीडिया पर मत फोड़िए। डीजी न्यूज खबरें दिखाता है, देखिए। हमें पाठक और दर्शक की सुरूचि का विकास भी करना होगा। वह गंभीर मुद्दों पर स्वस्थ संवाद के लिए तैयार किया जाना चाहिए। अभी इसमें समय लगेगा। नहीं होगा, ऐसा नहीं है। समझ का विकास समय लेता है। लोकतंत्र के लिए वैसे भी कहते हैं कि वह सौ साल में साकार होता है। हमें इंतजार करना होगा।

 नए मीडिया के आगमन के साथ विभिन्न पुराने मीडिया के अपने औडिएंस कम होने लगते हैं। कल तक ये कहा जाता था कि समाचार पत्रों के पाठकों की संख्या में लगातार कमी हो रही है। बल्कि यूं कहे सकते हैं कि पढ़ने का रुझान ही लोगों का कम हो रहा है। आज नेट्फ़्लिक्स, अमेज़न, हॉटस्टार के आगमन से टेलीविज़न के दर्शक कम हो रहे हैं। इन सबको देख कर लगता है कि आने वाला समय पूरी तरह डिजिटल युग होगा। डिजिटल युग पूरी तरह जल्दबाज़ी की कार्यप्रणाली को अपनाना है। एक पुरानी कहावत है की 'जल्दी का काम, शैतान का', तो ऐसे में क्या भविष्य की पत्रकारिता क्या सामाजिक सरोकार से जुड़ी रह पाएगी।

मैं फिर कह रहा हूं सामाजिक सरोकार छोड़कर कोई पत्रकारिता नहीं हो सकती। न्यूज मीडिया अलग है और मनोरंजन का मीडिया अलग है। दोनों को मिलाइए मत। दोनों चलेंगें। एक आपको आनंद देता है, दूसरा खबरें और विचार देता है। दोनों अपना-अपना काम कर रहे हैं। इसमें गलत क्या है? मनोरंजन का मीडिया भी जरूरी है। खबर मीडिया भी जरूरी है। कुछ खुद को इंफोटेनमेंट चैनल कहते हैं, यानि दोनों काम करते हैं। इसलिए बाजार है, तो बाजार में हर तरह के उत्पाद हैं। यहां पोर्न और सेमीपोर्न भी है। किंतु हमें न्यूज मीडिया की जिम्मेदारियों और उसकी बेहतरी की बात करनी चाहिए। यही हमारी दुनिया है। शेष से हमारी स्पर्धा नहीं है। यह तय मानिए मनोरंजन, ओटीटी और फिल्म की दुनिया से न्यूज के दर्शक कम ही रहेंगे, इस पर विलाप करने की जरूरत नहीं है। हम खास हैं, यह मानिए। इसलिए हमारे पास खास दर्शक या पाठक समूह हैं, हमें भीड़ आवश्यक्ता नहीं है।

 

'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' ने 180 देशों की सूची जारी की है, जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता के हिसाब से भारत का स्थान 142 वां  है। ऐसे में विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस दुनिया का सबसे बड़ा छलावा नहीं माना जाना चाहिए? क्या इसे जनता के साथ एक क्रूर मज़ाक के रूप में देखना गलत होगा?

मैं विदेशी संस्थाओं के जारी किए गए तथ्यों और आंकड़ों पर भरोसा नहीं करता। भारत में लोकतंत्र है और जीवंत लोकतंत्र है। मीडिया में सर्वाधिक आलोचना हमारे सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री की ही होती है और आप कह रहे हैं कि प्रेस की आजादी नहीं है। मई महीने में ही कोविड को लेकर कोलकाता के टेलीग्राफ अखबार ने कैसे शीर्षक लगाए हैं, उसे देखिए। देश की दो प्रमुख पत्रिकाओं इंडिया टुडे(नाकाम सरकार-19 मई,2021) और आउटलुक( लापता-भारत सरकार-31मई,2021) की कवर स्टोरी देखिए, पढ़िए और बताइए कि प्रेस की आजादी कहां चली गई है? यदि आपातकाल है तो आप सत्ता के विरुद्ध ऐसे तेवर लेकर कहां रह पाते? हम एक लोकतंत्र में रहते हैं। यहां पंथ आधारित देशों, साम्यवादी देशों जैसी व्यवस्था नहीं हैं। यहां हमें लिखने, पढ़ने, बोलने की आजादी को संवैधानिक संरक्षण है। यह अलग बात है कि इसी का लाभ लेकर देशतोड़क गतिविधियों भी की जा रही हैं। विरोध करते-करते कब हम देश के विरोध में खड़े हो जाते हैं, हमें पता नहीं चलता। इसलिए आजादी है तो उसके साथ कुछ संवैधानिक सीमाएं भी हैं। स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के अंतर को समझे बिना हम इसे नहीं समझ पाएंगें। इसलिए विदेशी एजेंसियों के मूल्यांकन का आधार क्या है, वे ही जानें। पत्रकार के रूप में एक्टीविस्ट बनकर आप देश विरोधी हिंसक अभियानों के शहरी-बौद्धिक मददगार बनेंगे और आपके विरूद्ध कुछ न हो यह कहां संभव है?

 

आपको नहीं लगता कि दुनिया भर में मीडिया कार्पोरेट के हाथ में है, जिसका एकमात्र उद्देश्य अधिक से अधिक फ़ायदा कमाना है। मीडिया राजनीतिक तंत्र का जीता जगता हथियार भी बन गया है। आज राजनीतिक तंत्र जब चाहे, जहां चाहे मीडिया का उपयोग करता है और बदले में ये राजनीतिक तंत्र मीडिया घरानों, प्रबंधकों व संपादकों की आवश्‍यकताओं की पूर्ति प्रमुखता से करता है। क्या ये हालात लोकताँत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक नहीं है।

इतने भारी-भरकम और खर्चीले मीडिया को कारपोरेट के अलावा कौन चला सकता है? सरकार चलाएगी तो उस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। समाज या पाठक को मुफ्त का अखबार चाहिए। आप अगर सस्ता अखबार और पत्रिकाएं चाहते हैं तो उसकी निर्भरता तो विज्ञापनों पर रहेगी। विज्ञापन देने वाला कुछ तो अपनी भी बात रखेगा। यानि अगर मीडिया को आजाद होना है, तो उसकी विज्ञापनों पर निर्भरता कम होनी चाहिए। ऐसे में पाठक और दर्शक उसका खर्च उठाएं। अगर आप अच्छी, सच्ची, शोधपरक खबरें पढ़ना चाहते हैं तो खर्च कीजिए। आज भी हमारे पास बहुत अच्छे अखबार, वेबसाइट, न्यूज चैनल हैं, जो दबाव से मुक्त होकर बातें कहते हैं। लेकिन उन्हें जनसहयोग नहीं होगा, आर्थिक संबल नहीं होगा तो कब तक यह भूमिका निभाएंगें कहा नहीं जा सकता। बावजूद इसके निराशाजनक हालात नहीं हैं। सारी व्यवस्था विरोधी खबरें भी यही कारपोरेट मीडिया लेकर आ रहा है। मीडिया के वजूद को बचाना है तो जनपक्ष अनिवार्य है। थोड़ा बहुत एजेंडा सेंटिंग सब करते हैं। जो सत्ता में हैं,मंत्री हैं उनकी बात ज्यादा आएगी। लेकिन प्रतिपक्ष को जगह नहीं मिलती, यह कहना गलत है। संतुलन बनाने की दृष्टि से भी मीडिया को यह करना होता है। कई बार पत्रकार खुद एक पक्ष हो जाता है, यह बात जरूर चिंता में डालती है। अगर पार्टियों के प्रवक्ताओं का काम एंकर या पत्रकार ही करने लगेंगें तो हमारे इतने सारे प्रतिभाशाली प्रवक्तागण बेरोजगार हो जाएंगें। कुछ लोगों को अपेक्षित संयम रखने की जरूरत है। यह नहीं होना चाहिए कि मैं मुंह खोलूंगा तो क्या बोलूंगा, यह दर्शक को पहले से पता हो। मैं कोई लेख लिखता हूं तो वह इस उम्मीद से पढ़ा जाए कि आज संजय द्विवेदी ने क्या लिखा होगा। यह नहीं कि मेरी फोटो और नाम देखकर ही पाठक लेख का कथ्य ही समझ जाए कि मैंने क्या लिखा है। यह किसी पत्रकार की विफलता है,किंतु सब ऐसे नहीं हैं। बहुलांश में लोग अपना काम अपेक्षित तटस्थता से ही करते हैं। प्रभाष जोशी जी कहते थे- पत्रकार की पोलिटिकल लाइन होना गलत नहीं है, गलत है पार्टी लाइन होना।

 

यह वह दौर है जब मीडिया का तकनीकी विकास अपने चरम पर है। आज उसकी पहुँच देश के कोने-कोने तक है। देश में हजारों अखबार और सैकड़ों संचार चैनल अपने तरीके से इस समय जनतंत्र के बीच हैं। लेकिन क्या आपको नहीं लगता की इस सब के बावजूद यही जनतंत्र मीडिया से गायब है?

    -ऐसा साधारणीकरण करना ठीक नहीं है। यह सबको एक कलर से पेंट कर देना है। लाखों पत्रकारों और मीडिया के लोंगों के त्यागपूर्ण जीवन पर सवाल खड़ा करना है। समाज जीवन के हर क्षेत्र में गिरावट है। कार्यपालिका,न्यायपालिका, विधायिका से जुड़े लोग क्या शत प्रतिशत ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं? जाहिर है पर उत्तर नकारात्मक आएगा। ऐसे ही मीडिया में भी सब हरिश्चंद्र नहीं हैं। यह भी हमारे समाज का ही हिस्सा है। समाज में डाक्टर, वकील, इंजीनियर, अध्यापक, व्यापारी, सरकारी कर्मचारी जितने प्रतिशत ईमानदार हैं, उससे कुछ ज्यादा पत्रकार और मीडिया के लोग ईमानदार हैं। यह इसलिए क्योंकि मीडिया में आनेवाले ज्यादातर युवा कुछ आदर्शों, बेचैनियों और बदलाव की उम्मीद से आते हैं। वरना मीडिया में आरंभिक दिनों की जो तनख्वाह होती है , वो बहुत उत्साहवर्धक नहीं होती। पर वे आते हैं संघर्ष करते हैं और सपनों को सच करते हैं और वह सब कुछ हासिल करते है जो अन्य व्यवसाय हमें दे सकते हैं। लेकिन उनका आरंभिक संघर्ष हर कोई नहीं देखता। उनकी यात्रा का आरंभ आपने नहीं देखा। आपने कुछ चेहरों की चमक देखकर पूरे मीडिया का आकलन किया है, जो न्यायपूर्ण नहीं है। हमें अपने समाज में व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया को तेज करना होगा। ताकि देश प्रथम का भाव रखने वाले नागरिक तैयार हों। सिर्फ मीडिया क्यों समाज के हर क्षेत्र में ईमानदार, समर्पित, देशभक्त और संवेदनशील लोग चाहिए। किंतु हमारे परिवार, स्कूल, समाज, धर्म और पूरी व्यवस्था अब हमें नागरिक नहीं बना रही है। बाजार हमें जैसा बना रहा है, हम बन रहे हैं। संस्थाओं को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। इसमें सबसे पहली संस्था है परिवार और दूसरे हैं हमारे स्कूल। वे ही हमें अच्छा मनुष्य बनाएगें। यह गजब है कि कोरोना के संकट में भी पूरे समाज, मरीजों और उनके परिजनों को लूट रहे लोगों को अच्छा और ईमानदार मीडिया चाहिए। यह हिम्मत आपमें कहां से आती है? तभी आती है जब आप मनुष्यता के तल से बहुत नीचे गिर चुके होते हैं।

 

संविधान की धारा 19 (1) सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देती है। देश की मीडिया भी इसी अधिकार से लैस है। इसी औजार के बल पर बिना किसी कानूनी मान्यता के भी मीडिया को लोकतंत्र के चौथे खम्भे का दर्जा हासिल है। आज सवाल मीडिया द्वारा अपने अधिकारों के सही इस्तेमाल को लेकर ही है।

मीडिया को कोई संवैधानिक शक्ति हासिल नहीं है। कोई संरक्षण हासिल नहीं है। अमरीका की बात अलग है। इसलिए यह चौथा और पांचवां खंभा तो ठीक है, किंतु नागरिकों को मिले अधिकार का ही हम उपयोग करते हैं। इसलिए उसकी सीमाएं भी हैं। मीडिया आज जिस स्थिति में हैं, उसमें स्पर्धा के चलते हड़बड़ी में काम करना होता है। खबरों की गति बढ़ गयी है। इसलिए कई बार पुष्टि, प्रतिपुष्टि जैसे मुद्दे हाशिए लग जाते हैं। इस हड़बड़ी ने काफी कुछ बिगाड़ा है।

 

क्या आपको नहीं लगता कि जिस देश में पत्रकार (कुछ पत्रकार) ही दलाली, लाबिंग और तमाम दूसरे प्रवृतियों में संलग्न हो गए, वहाँ किस तरह के सामाजिक सरोकार की स्थापना होगी। क्योंकि  बहुत दिन नहीं हुए जब टूजी घोटाले में फंसे ए. राजा को मंत्री पद दिलाने के लिये लाबिस्ट नीरा राडिया का नाम आया था। जिसमें उसके साथ बड़े मीडिया समूह के कुछ पत्रकारों के भी लाबिंग में शामिल होने के सबूत मिले।  कुछ पत्रकारों को उनके मालिकों ने हटा कर अपने पाप तो धोए लेकिन कुछ लाबिंग जर्नलिस्ट आज भी चौथे स्तम्भ का हिसा बने हुए हैं।

लाबिंग तो होती है। अमरीका जैसे देशों में भी होती है। मैंने कहा कि पत्रकार भी एक मनुष्य भी है। उसके बिगड़ने के अवसर भी ज्यादा हैं। उसकी मुलाकातें, संपर्क अलीट क्लास और ताकतवर लोगों से होते हैं। सो फिसलन भरी राह है। कई लोग फिसल जाते हैं, उनका क्या। पर ज्यादातर उस काजल की कोठरी में जाना नहीं चाहते, यह बड़ा और गहरा सच है। मैं उन्हीं को उम्मीदों से देखता हूं। यह हर क्षेत्र में है, कुछ अच्छे और बुरे लोग हर प्रोफेशन में हैं। वो रहेंगें भी। त्रेता में भी रावण था, द्वापर में कंस था। कलयुग में यह संख्या बढ़ना आश्चर्यजनक नहीं है। हमें उम्मीद रखनी चाहिए कि देश के लोग पढ़ लिखकर,संवेदना के साथ आगे आएंगें और सतयुग आएगा। एक बेहतर और सुंदर दुनिया की उम्मीद तो जिंदा रखनी ही चाहिए। वह बनेगी,भरोसा रखिए।

 

क्या पेड न्यूज़, फेक न्यूज़, नो न्यूज़ जैसे चीजें मीडिया के मजबूत खम्भे को दरका रही है।

इसमें क्या दो राय है। जो गलत है, वो गलत है। इसका समर्थन कोई नहीं करता। जो इन कामों में लिप्त हैं, वह भी नहीं करते। मीडिया में खुद इन चीजों को लेकर बहुत बेचैनी है।

 

हर समाज में पत्रकारिता की ताकत में अंतर होता है। वॉशिंगटन पोस्ट’, ‘न्यूयोर्क टाइम्सने संयुक्त राष्ट्र अमरीका में, जो दुनिया का सबसे पुराना और सबसे ताक़तवर लोकतंत्र है, से टकराने की जुर्रत दिखाई। लेकिन कितने अखबारों ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में पत्रकारों और उनके काम का पक्ष लेते हुए, शक्तिशाली लोगों से टकराने की हिम्मत दिखाई है? क्या समाज के लिए दुनिया से टक्कर लेने वाले पत्रकार के पक्ष में खड़े होने वाले लोगो की कमी है? अगर हाँ तो इसकी वजह आपके हिसाब से क्या है?

हमारे तमाम अखबार, टीवी चैनल और पत्रिकाएं साहस के साथ अपनी बात कहती हैं। कल यही इतिहास बनेगा। आपातकाल के दिनों में भी वह आग थी। अंग्रेजों के दमनकारी दिनों में भी थी। आगे भी रहेगी। आप इस आग को बुझा नहीं सकते। आप ध्यान देंगें तो पाएंगें कि आपके आसपास समूची पत्रकारिता साहसी लोगों से भरी हुई है। लोग लिख  रहे हैं, बोल रहे हैं और उन्हें ऐसा करना भी चाहिए। पत्रकारिता के लिए कोई आलोचना से परे नहीं है। उसका काम ही है सत्यान्वेषण और प्रश्नाकुलता। इसी में पत्रकारिता की मुक्ति है, यही उसका धर्म है।

 

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने एक बार कहा था कि, कुछ देशों में, अन्य देशों के मुकाबले राजनेता-मीडिया और पत्रकारों को वश में रखने में ज्यादा कामयाब रहे हैं। लेकिन सत्ता पर काबिज एक शक्तिशाली व्यक्ति किसी पत्रकार को किस हद तक वश में कर सकता है, यह बात बहुत हद तक उस पत्रकार विशेष पर भी निर्भर करती है। आज के परिप्रेक्ष्य में आप इसे किस तरह से देखते हैं?

सत्ता या दलों के निकट होना गलत नहीं है। मूल बात है खबरों के लिए ईमानदार होना। अपने पेशे के लिए ईमानदार होना। मैं ऐसे अनेक पत्रकारों को जानता हूं कि वे अनेक नेताओं, अधिकारियों के हमप्याला- हमनिवाला रहे। किंतु जब खबरें मिलीं तो उन्होंने उनके साथ कोई रियायत नहीं बरती। यही मीडिया का चरित्र है। कई बार लोग मजाक में कहते हैं प्रेस वालों से दोस्ती और दुश्मनी दोनों अच्छी नहीं। प्रेस की अपनी जगह है। पत्रकार में यह सहज गुण होता है। जैसे घोड़ा घास से दोस्ती नहीं कर सकता, वैसे ही पत्रकार खबरों से दोस्ती नहीं कर सकता। कब कौन सी एक खबर उसके जीवन में आए और वह अमर हो जाए। वह नहीं जानता। उसी एक खबर के इंतजार में पत्रकार रोज निकलता है। क्योंकि आपकी जिंदगी में ज्यादातर रूटीन होता है। एक खबर ही आपको मीडिया के आकाश का सितारा बना देती है। अगर कोई भी राजनेता या अधिकारी इस धोखे में हैं, उसने मीडिया को या किसी पत्रकार को जेब में रखा हुआ है ,तो उसका यह धोखा बना रहने दीजिए। समय पर उसको इसका पछतावा जरूर होगा।

 

पत्रकारिता के बारे में यह मान्यता थी, विशेषकर आम लोगों में कि जब कहीं सुनवाई न हो, तब पीड़ित व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह अगर पत्रकार के पास पहुंच जाए और पत्रकार उनकी समस्या सुनकर इसका संज्ञान ले ले तो विश्वास था कि उनकी समस्याएं समाधान की तरफ बढ़ जाएंगी। क्या यह विश्वास आज भी लोंगों के मन मे बना हुआ है या ये विश्वास आज गलत साबित हो रहा है?

-तीनों पालिकाओं से निराश लोग खबरपालिका के पास जाते हैं, यह सच है। किंतु संकट तब आता है जब आप चाहते हैं आपकी लड़ाई पत्रकार या उसका प्रेस लड़े, किंतु आप सामने नहीं आएंगें। सच के लिए सबको सामने आना पड़ता है। प्रेस को, पत्रकार को समाज का भी साथ चाहिए होता है। वह कई बार नहीं मिलता।


आप सक्रिय पत्रकारिता से अलग आज लंबे अरसे से पत्रकारिता शिक्षण से जुड़े हैं। क्या आपको नहीं लगता कि देश में पत्रकारिता शिक्षा को लेकर संजीदगी की आवश्यकता है।

-पूरी शिक्षा व्यवस्था पर ही सवाल हैं। अकेली मीडिया शिक्षा को क्यों कह रहे हैं। शिक्षा पहले तो मनुष्य बनाए, वह कौशल से जुड़े और श्रम का सम्मान करना सिखाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इन विषयों को संबोधित कर रही है। हम सब भी एकात्मक और समग्र दृष्टिकोण के साथ काम करें, यह जरूरी है। इससे ही रास्ते निकलेगें।


एक पत्रकार के रूप में आपने पहचान बनाई। आज आपको लोग एक शिक्षाविद् और लेखक के रूप में जानते हैं। आप समाज में किस तरह का परिवर्तन देखना चाहते हैं। किस आदर्श समाज की परिकल्पना करते हैं।

मैं भारत की ज्ञान परंपरा और शाश्वत मूल्यों पर विश्वास रखने वाला व्यक्ति हूं। जिससे समरसता, समभाव और आत्मीयता का विस्तार होता है। हम सब भारत मां के पुत्र-पुत्रियां हैं, तो हम सबके साझे दुख और सुख हैं। साझी उपलब्धियां और चुनौतियां हैं। रामराज्य हमारा आदर्श समाज है- दैहिक,दैविक,भौतिक तापा,रामराज काहुंहिं नहिं व्यापावसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र हमें बताता है कि हमारा पहला और अंतिम उद्देश्य ही एक बेहतर,सुंदर और सुखमय दुनिया बनाना है। हम ही हैं जो आनो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः कहकर चारों दिशाओं(पूरी दुनिया) से आ रहे कल्याणाकारी विचारों को स्वीकारना चाहते हैं। जहां किसी प्रकार का द्वेष, विरोध, द्वंद न हो। आत्मीय भाव चारो तरफ हों। इसलिए हमारे ऋषि की प्रार्थना है- सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः। ऐसा सुंदर विचार रखने वाली संस्कृति एक दिन समूचे विश्व में स्वीकारी जाएगी। इससे विश्व भी अपने संकटों से निजात पा सकेगा।


आपने विविध आयामी लेखन किया है। कोई ऐसा विषय जो अभी भी आपको लगता है की उस पर लिखना बाकी है। आपका एक जुमला जो आप अक्सर बातचीत के समय प्रयोग में लाते हैं 'देश हित में सब मंज़ूर'। सवाल आपसे ये है की भविष्य में खुद को कहाँ देखते हैं। ऐसी परिकल्पना जो देश हित में हो।

मैं ही क्यों हर व्यक्ति जो किसी भी क्षेत्र में अपना काम ईमानदारी से कर रहा है वह देशहित में ही कर रहा है। इसमें मेरे जैसे अध्यापक, लेखक, पत्रकार हैं तो किसान, मजदूर, जवान और तमाम श्रमदेव और श्रमदेवियां शामिल हैं। उनके पसीने से ही भारत मां का ललाट चमक रहा है, उसका आत्मविश्वास कायम है। मैंने अपनी बाल्यावस्था में ही खुद को लेखन के लिए समर्पित करने का सपना देखा था। समय के साथ उसमें पत्रकारिता और अध्यापन कार्य भी जुड़ गए। हम आयु से बड़े होते जाते हैं, सपने पूरे होते और बदलते जाते हैं। यह एक यात्रा है जो निरंतर है। अभी तो यही योजना है कि भारतीय जन संचार संस्थान को उसकी पारंपरिक गरिमा के साथ ऊंचाई दे सकूं। एक महान संस्था की सेवा का यह अवसर मेरे लिए बहुत खास है। मैं चाहता हूं कि संस्थान के विद्यार्थियों के लिए वह सब कुछ कर सकूं, जिससे उनमें भरोसा और आत्मविश्वास पैदा है। मैं चाहता हूं कि देश के हर क्षेत्र की नामवर हस्तियों से हमारे विद्यार्थी बात कर पाएं,उनसे सीख पाएं। बहुत सी योजनाएं हैं, सपने हैं। कोरोना ने थोड़ा ब्रेक लगाया है, पर सपने जिंदा हैं।