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शुक्रवार, 9 मई 2025

मीडिया विद्यार्थियों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के तैयार करें- प्रो.संजय द्विवेदी

                                                                            इंटरव्यू

प्रोफेसर संजय द्विवेदी से  वरिष्ठ पत्रकार अहमद लाली की अंतरंग बाचतीत



प्रोफ़ेसर(डा.) संजय द्विवेदी मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में एक जानी-मानी शख्सियत हैं। वे भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC) दिल्ली के महानिदेशक रह चुके हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति और कुलसचिव बतौर भी उन्होंने अपनी सेवाएं दी हैं। मीडिया शिक्षक होने के साथ ही प्रो.संजय द्विवेदी ने सक्रिय पत्रकार और दैनिक अखबारों के संपादक के रूप में भी भूमिकाएं निभाई हैं। वह मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक भी हैं। 35 से ज़्यादा पुस्तकों का लेखन और संपादन भी किया है। सम्प्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में प्रोफेसर हैं। मीडिया शिक्षा, मीडिया की मौजूदा स्थिति, नयी शिक्षा नीति जैसे कई अहम् मुद्दों पर वरिष्ठ पत्रकार रईस अहमद 'लाली' ने उनसे लम्बी बातचीत की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के सम्पादित अंश : 

 

- संजय जी, प्रथम तो आपको बधाई कि वापस आप दिल्ली से अपने पुराने कार्यस्थल राजा भोज की नगरी भोपाल में आ गए हैं। यहाँ आकर कैसा लगता है आपको? मेरा ऐसा पूछने का तात्पर्य इन शहरों से इतर मीडिया शिक्षा के माहौल को लेकर इन दोनों जगहों के मिजाज़ और वातावरण को लेकर भी है। 

अपना शहर हमेशा अपना होता है। अपनी जमीन की खुशबू ही अलग होती है। जिस शहर में आपने पढ़ाई की, पत्रकारिता की, जहां पढ़ाया उससे दूर जाने का दिल नहीं होता। किंतु महत्वाकांक्षाएं आपको खींच ले जाती हैं। सो दिल्ली भी चले गए। वैसे भी मैं जलावतन हूं। मेरा कोई वतन नहीं है। लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की जमीन मुझे बांधती है। मैंने सब कुछ यहीं पाया। कहने को तो यायावर सी जिंदगी जी है। जिसमें दिल्ली भी जुड़ गया। आप को गिनाऊं तो मैंने अपनी जन्मभूमि (अयोध्या) के बाद 11 बार शहर बदले, जिनमें बस्ती, लखनऊ,वाराणसी, भोपाल, रायपुर, बिलासपुर, मुंबई, दिल्ली सब शामिल हैं। जिनमें दो बार रायपुर आया और तीसरी बार भोपाल में हूं। बशीर बद्र साहब का एक शेर है, जब मेरठ दंगों में उनका घर जला दिया गया, तो उन्होंने कहा था-

मेरा घर जला तो

सारा जहां मेरा घर हो गया।

मैं खुद को खानाबदोश तो नहीं कहता, पर यायावर कहता हूं। अभी भी बैग तैयार है। चल दूंगा। जहां तक वातावरण की बात है, दिल्ली और भोपाल की क्या तुलना। एक राष्ट्रीय राजधानी है,दूसरी राज्य की राजधानी। मिजाज की भी क्या तुलना हम भोपाल के लोग चालाकियां सीख रहे हैं, दिल्ली वाले चालाक ही हैं। सारी नियामतें दिल्ली में बरसती हैं। इसलिए सबका मुंह दिल्ली की तरफ है। लेकिन दिल्ली या भोपाल हिंदुस्तान नहीं हैं। राजधानियां आकर्षित करती हैं , क्योंकि यहां राजपुत्र बसते हैं। हिंदुस्तान बहुत बड़ा है। उसे जानना अभी शेष है।

 

- भोपाल और दिल्ली में पत्रकारिता और जन संचार की पढ़ाई के माहौल में क्या फ़र्क़ महसूस किया आपने ?

भारतीय जन संचार संस्थान में जब मैं रहा, वहां डिप्लोमा कोर्स चलते रहे। साल-साल भर के। उनका जोर ट्रेनिंग पर था। देश भर से प्रतिभावान विद्यार्थी वहां आते हैं, सबका पहला चयन यही संस्थान होता है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय इस मायने में खास है उसने पिछले तीस सालों से स्नातक और स्नातकोत्तर के रेगुलर कोर्स चलाए और बड़ी संख्या में मीडिया वृत्तिज्ञ ( प्रोफेसनल्स) और मीडिया शिक्षा निकाले। अब आईआईएमसी भी विश्वविद्यालय भी बन गया है। सो एक नई उड़ान के लिए वे भी तैयार हैं।

 

- आप देश के दोनों प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थानों के अहम् पदों को सुशोभित कर चुके हैं। दोनों के बीच क्या अंतर पाया आपने ? दोनों की विशेषताएं आपकी नज़र में ?

दोनों की विशेषताएं हैं। एक तो किसी संस्था को केंद्र सरकार का समर्थन हो और वो दिल्ली में हो तो उसका दर्जा बहुत ऊंचा हो जाता है। मीडिया का केंद्र भी दिल्ली है। आईआईएमसी को उसका लाभ मिला है। वो काफी पुराना संस्थान है, बहुत शानदार एलुमूनाई है , एक समृध्द परंपरा है उसकी । एचवाई शारदा प्रसाद जैसे योग्य लोगों की कल्पना है वह। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय(एमसीयू) एक राज्य विश्वविद्यालय है, जिसे सरकार की ओर से बहुत पोषण नहीं मिला। अपने संसाधनों पर विकसित होकर उसने जो भी यात्रा की, वह बहुत खास है। कंप्यूटर शिक्षा के लोकव्यापीकरण में एमसीयू की एक खास जगह है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में आप जाएंगें तो मीडिया शिक्षकों में एमसीयू के  ही पूर्व छात्र हैं, क्योंकि स्नातकोत्तर कोर्स यहीं चल रहे थे। पीएचडी यहां हो रही थी। सो दोनों की तुलना नहीं हो सकती। योगदान दोनों का बहुत महत्वपूर्ण है।

 

- आप लम्बे समय से मीडिया शिक्षक रहे हैं और सक्रिय पत्रकारिता भी की है आपने। व्यवहारिकता के धरातल पर मौजूदा मीडिया शिक्षा को कैसे देखते हैं ?

एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। 

   मीडिया शिक्षा में सिद्धांत और व्यवहार का बहुत गहरा द्वंद है। ज्ञान-विज्ञान के एक अनुशासन के रूप में इसे अभी भी स्थापित होना शेष है। कुछ लोग ट्रेनिंग पर आमादा हैं तो कुछ किताबी ज्ञान को ही पिला देना चाहते हैं। जबकि दोनों का समन्वय जरूरी है। सिद्धांत भी जरूरी हैं। क्योंकि जहां हमने ज्ञान को छोड़ा है, वहां से आगे लेकर जाना है। शोध, अनुसंधान के बिना नया विचार कैसे आएगा। वहीं मीडिया का व्यवहारिक ज्ञान भी जरूरी है। मीडिया का क्षेत्र अब संचार शिक्षा के नाते बहुत व्यापक है। सो विशेषज्ञता की ओर जाना होगा। आप एक जीवन में सब कुछ नहीं कर सकते। एक काम अच्छे से कर लें, वह बहुत है। इसलिए भ्रम बहुत है। अच्छे शिक्षकों का अभाव है। एआई की चुनौती अलग है। चमकती हुई चीजों ने बहुत से मिथक बनाए और तोड़े हैं। सो चीजें ठहर सी गयी हैं, ऐसा मुझे लगता है।

 

- नयी शिक्षा निति को केंद्र सरकार नए सपनों के नए भारत के अनुरूप प्रचारित कर रही है, जबकि आलोचना करने वाले इसमें तमाम कमियां गिना रहे हैं। एक शिक्षक बतौर आप इन नीतियों को कैसा पाते हैं ?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति बहुत शानदार है। जड़ों से जोड़कर मूल्यनिष्ठा पैदा करना, पर्यावरण के प्रति प्रेम, व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना यही लक्ष्य है। किंतु क्या हम इसके लिए तैयार हैं। सवाल यही है कि अच्छी नीतियां- संसाधनों, शिक्षकों के समर्पण, प्रशासन के समर्थन की भी मांग करती हैं। हमें इसे जमीन पर उतारने के लिए बहुत तैयारी चाहिए। भारत दिल्ली में न बसता है, न चलता है। इसलिए जमीनी हकीकतों पर ध्यान देने की जरूरत है। शिक्षा हमारे तंत्र की कितनी बड़ा प्राथमिकता है, इस पर भी सोचिए। सच्चाई यही है कि मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग ने भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से हटा लिया है। वे सरकारी संस्थानों से कोई उम्मीद नहीं रखते। इस विश्वास बहाली के लिए सरकारी संस्थानों के शिक्षकों, प्रबंधकों और सरकारी तंत्र को बहुत गंभीर होने की जरूरत है। उत्तर प्रदेश के ताकतवर मुख्यमंत्री प्राथमिक शिक्षकों की विद्यालयों में उपस्थिति को लेकर एक आदेश लाते हैं, शिक्षक उसे वापस करवा कर दम लेते हैं। यही सच्चाई है।

 

- पत्रकारिता में करियर बनाने के लिए क्या आवश्यक शर्त है ?

पत्रकारिता, मीडिया या संचार तीनों क्षेत्रों में बनने वाली नौकरियों की पहली शर्त तो भाषा ही है। हम बोलकर, लिखकर भाषा में ही खुद को व्यक्त करते हैं। इसलिए भाषा पहली जरूरत है। तकनीक बदलती रहती है, सीखी जा सकती है। किंतु भाषा संस्कार से आती है। अभ्यास से आती है। पढ़ना, लिखना, बोलना, सुनना यही भाषा का असल स्कूल और परीक्षा है। भाषा के साथ रहने पर भाषा हममें उतरती है। यही भाषा हमें अटलबिहारी वाजपेयी,अमिताभ बच्चन, नरेंद्र मोदी,आशुतोष राणा या कुमार विश्वास जैसी सफलताएं दिला सकती है। मीडिया में अनेक ऐसे चमकते नाम हैं, जिन्होंने अपनी भाषा से चमत्कृत किया है। अनेक लेखक हैं, जिन्हें हमने रात भर जागकर पढ़ा है। ऐसे विज्ञापन लेखक हैं जिनकी पंक्तियां हमने गुनगुनाई हैं। इसलिए भाषा, तकनीक का ज्ञान और अपने पाठक, दर्शक की समझ हमारी सफलता की गारंटी है। इसके साथ ही पत्रकारिता में समाज की समझ, मिलनसारिता, संवाद की क्षमता बहुत मायने रखती है।

 

- मीडिया शिक्षा में कैसे नवाचारों की आवश्यकता है ?

शिक्षा का काम व्यक्ति को आत्मनिर्भर और मूल्यनिष्ठ मनुष्य बनाना है। जो अपनी विधा को साधकर आगे ले जा सके। मीडिया में भी ऐसे पेशेवरों का इंतजार है जो फार्मूला पत्रकारिता से आगे बढ़ें। जो मीडिया को इस देश की आवाज बना सकें। जो एजेंड़ा के बजाए जन-मन के सपनों, आकांक्षाओं को स्वर दे सकें। इसके लिए देश की समझ बहुत जरूरी है। आज के मीडिया का संकट यह है वह नागरबोध के साथ जी रहा है। वह भारत के पांच प्रतिशत लोगों की छवियों को प्रक्षेपित कर रहा है। जबकि कोई भी समाज अपनी लोकचेतना से खास बनता है। देश की बहुत गहरी समझ पैदा करने वाले, संवेदनशील पत्रकारों का निर्माण जरूरी है। मीडिया शिक्षा को संवेदना, सरोकार, राग, भारतबोध से जोड़ने की जरूरत है। पश्चिमी मानकों पर खड़ी मीडिया शिक्षा को भारत की संचार परंपरा से जोड़ने की जरूरत है। जहां संवाद से संकटों के हल खोजे जाते रहे हैं। जहां संवाद व्यापार और व्यवसाय नहीं, एक सामाजिक जिम्मेदारी है।

 

- देश में मीडिया की मौजूदा स्थिति को लेकर आपकी राय क्या है ?

मीडिया शिक्षा का विस्तार बहुत हुआ है। हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया शिक्षा के विभाग हैं। चार विश्वविद्यालय- भारतीय जन संचार संस्थान(दिल्ली), माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विवि(भोपाल), हरिदेव जोशी पत्रकारिता विवि(जयपुर) और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि(रायपुर) देश में काम कर रहे हैं। इन सबकी उपस्थिति के साथ-साथ निजी विश्वविद्यालय और कालेजों में भी जनसंचार की पढ़ाई हो रही है। यानि विस्तार बहुत हुआ है। अब हमें इसकी गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है। ये जो चार विश्वविद्यालय हैं वे क्या कर रहे हैं। क्या इनका आपस में भी कोई समन्वय है। विविध विभागों में क्या हो रहा है। उनके ज्ञान, शोध और आइडिया एक्सचेंज जैसी व्यवस्थाएं बनानी चाहिए। दुनिया में मीडिया या जनसंचार शिक्षा के जो सार्थक प्रयास चल रहे हैं, उसकी तुलना में हम कहां हैं। बहुत सारी बातें हैं, जिनपर बात होनी चाहिए। अपनी ज्ञान विधा में हमने क्या जोड़ा। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने भी एक समय देश में एक ग्लोबल कम्युनिकेशन यूनिर्वसिटी बनाने की बात की थी। देखिए क्या होता है।

    बावजूद इसके हम एक मीडिया शिक्षक के नाते क्या कर पा रहे हैं। यह सोचना है। वरना तो मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी हमारे लिए ही लिख गए हैं-

हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए।

बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए।।

 

- आज की मीडिया और इससे जुड़े लोगों के अपने मिशन से भटक जाने और पूरी तरह  पूंजीपतियों, सत्ताधीशों के हाथों बिक जाने की बात कही जा रही है। इससे आप कितना इत्तेफ़ाक़ रखते हैं?

देखिए मीडिया चलाना साधारण आदमी को बस की बात नहीं है। यह एक बड़ा उद्यम है। जिसमें बहुत पूंजी लगती है। इसलिए कारपोरेट,पूंजीपति या राजनेता चाहे जो हों, इसे पोषित करने के लिए पूंजी चाहिए। बस बात यह है कि मीडिया किसके हाथ में है। इसे बाजार के हवाले कर दिया जाए या यह एक सामाजिक उपक्रम बना रहेगा। इसलिए पूंजी से नफरत न करते हुए इसके सामाजिक, संवेदनशील और जनधर्मी बने रहने के लिए निरंतर लगे रहना है। यह भी मानिए कोई भी मीडिया जनसरोकारों के बिना नहीं चल सकता। प्रामणिकता, विश्वसनीयता उसकी पहली शर्त है। पाठक और दर्शक सब समझते हैं।

 

- आपकी नज़र में इस वक़्त देश में मीडिया शिक्षा की कैसी स्थिति है ? क्या यह बेहतर पत्रकार बनाने और मीडिया को सकारात्मक दिशा देने का काम कर पा रही है ?

मैं मीडिया शिक्षा क्षेत्र से 2009 से जुड़ा हूं। मेरे कहने का कोई अर्थ नहीं है। लोग क्या सोचते हैं, यह बड़ी बात है। मुझे दुख है कि मीडिया शिक्षा में अब बहुत अच्छे और कमिटेड विद्यार्थी नहीं आ रहे हैं। अजीब सी हवा है। भाषा और सरोकारों के सवाल भी अब बेमानी लगने लगे हैं। सबको जल्दी ज्यादा पाने और छा जाने की ललक है। ऐसे में स्थितियां बहुत सुखद नहीं हैं। पर भरोसा तो करना होगा। इन्हीं में से कुछ भागीरथ निकलेंगें जो हमारे मीडिया को वर्तमान स्थितियों से निकालेगें। ऐसे लोग तैयार करने होंगें, जो बहुत जल्दी में न हों। जो ठहरकर पढ़ने और सीखने के लिए तैयार हों। वही लोग बदलाव लाएंगें।

 

- देश में आज मीडिया शिक्षा के सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

सबसे बड़ी चुनौती है ऐसे विद्यार्थियों का इंतजार जिनकी प्राथमिकता मीडिया में काम करना हो। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह ग्लैमर या रोजगार दे पाए। बल्कि देश के लोगों को संबल, साहस और आत्मविश्वास दे सके। संचार के माध्यम से क्या नहीं हो सकता। इसकी ताकत को मीडिया शिक्षकों और विद्यार्थियों को पहचानना होगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं,यह एक बड़ा सवाल है। मीडिया शिक्षा के माध्यम से हम ऐसे क्म्युनिकेटर्स तैयार कर सकते हैं जिनके माध्यम से समाज के संकट हल हो सकते हैं। यह साधारण शिक्षा नहीं है। यह असाधारण है। भाषा,संवाद,सरोकार और संवेदनशीलता से मिलकर हम जो भी रचेगें, उससे ही नया भारत बनेगा। इसके साथ ही मीडिया एजूकेशन कौंसिल का गठन भारत सरकार करे ताकि अन्य प्रोफेशनल कोर्सेज की तरह इसका भी नियमन हो सके। गली-गली खुल रहे मीडिया कालेजों पर लगाम लगे। एक हफ्ते में पत्रकार बनाने की दुकानों पर ताला डाला जा सके। मीडिया के घरानों में तेजी से मोटी फीस लेकर मीडिया स्कूल खोलने की ललक बढ़ी है, इस पर नियंत्रण हो सकेगा। गुणवत्ता विहीन किसी शिक्षा का कोई मोल नहीं, अफसोस मीडिया शिक्षा के विस्तार ने इसे बहुत नीचे गिरा दिया है। दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों मेंदूसरेविश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों मेंतीसरेभारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों मेंचौथेपूरी तरह से प्राइवेट संस्थानपांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठेकिसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या हैवो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी हैकि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।

 

- भारत में मीडिया शिक्षा का क्या भविष्य देखते हैं आप ?

मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का हैया फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई हैइसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैंवैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगेजिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो। न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों नौकरियां गई हैं। इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती हैजिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा हैजब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैंजिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल सके।

 

- तेजी से बदलते मीडिया परिदृश्य के सापेक्ष मीडिया शिक्षा संस्थान स्वयं को कैसे ढाल सकते हैं यानी उन्हें उसके अनुकूल बनने के लिए क्या करना चाहिए ?

 मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिएकि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्मके लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करेंयह एक बड़ी जिम्मेदारी है।

 

- वे कौन से कदम हो सकते हैं जो मीडिया उद्योग की अपेक्षाओं और मीडिया शिक्षा संस्थानों द्वारा उन्हें उपलब्ध कराये जाने वाले कौशल के बीच के अंतर को पाट सकते हैं?

 

 भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती हैतो प्रोफेसर केईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिएतभी वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षण संस्थानमीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैंजिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव हो। ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकेंऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकेंजिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं।  पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैंउनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एसहोना जरूरी हैवकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है? बहुत बेहतर हो मीडिया संस्थान अपने अध्यापकों को भी मीडिया संस्थानों में अनुभव के लिए भेजें। इससे मीडिया की जरूरतों और न्यूज रूम के वातावरण का अनुभव साक्षात हो सकेगा। विश्वविद्यालयों को आखिरी सेमेस्टर या किसी एक सेमेस्टर में न्यूज रूम जैसे ही पढ़ाई पर फोकस करना चाहिए। अनेक विश्वविद्यालय ऐसे कर सकने में सक्षम हैं कि वे न्यूज रूम क्रियेट कर सकें।

 

- अपने कार्यकाल के दौरान मीडिया शिक्षा और आईआईएमसी की प्रगति के मद्देनज़र आपने क्या महत्वपूर्ण कदम उठाये, संक्षेप में उनका ज़िक्र करें।

मुझे लगता है कि अपने काम गिनाना आपको छोटा बनाता है। मैंने जो किया उसकी जिक्र करना ठीक नहीं। जो किया उससे संतुष्ठ हूं। मूल्यांकन लोगों पर ही छोड़िए।

 

 

बुधवार, 7 जुलाई 2021

अजस्र ऊर्जा के स्रोत प्रो. कुठियाला

 

- प्रो. संजय द्विवेदी



     वे हैं तो जिंदगी में भरोसा है, आत्मविश्वास है। हमेशा लगता है, कुछ हुआ तो वे संभाल लेंगें। प्रो. बृजकिशोर कुठियाला की मेरी जिंदगी में जगह एक बॉस से ज्यादा है। वे पितातुल्य हैं, अभिभावक हैं। मेरी उंगलियां पकड़कर जमाने के सामने ला खड़े करने वाले स्नेही मार्गदर्शक हैं। उनके सान्निध्य में काम करने का मुझे अवसर मिला, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में वे मेरे कुलपति रहे।

    यह सन् 2010 की बात है, जब वे हमारे कुलपति बनकर आए। उनके साथ काम करना कठिन था। वे ना आराम करते हैं, न करने देते हैं। उनके लिए कई लोगटफ टास्क मास्टरका शब्द इस्तेमाल करते हैं। यह सच भी है। अपने साढ़े आठ साल के कार्यकाल में उन्होंने हमें बहुत सिखाया। चीजों को तराशा और एक तंत्र खड़ा किया। जब वे भोपाल आए तो उन्हें बहुत विरोधों का सामना करना पड़ा। लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। वे जमे और खूब जमे। जमकर काम किया। नए नेतृत्व को विकसित कर उन्हें काम दिया। विश्वविद्यालय को कई दृष्टियों से समृद्ध बनाया। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय को विवि अनुदान आयोग से 12 बी की मान्यता, समस्त कर्मचारियों (दैनिक वेतनभोगी और संविदा) का नियमितीकरण, विश्वविद्यालय की 50 एकड़ भूमि पर परिसर निर्माण उनकी तीन ऐसी उपलब्धियां हैं, जिसे भूलना नहीं चाहिए। भारतीय संचारकों पर पुस्तकों का प्रकाशन, पत्रकारिता और जनसंचार पर केंद्रित पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन, अनेक श्रेष्ठ अकादमिक आयोजन, संगोष्ठियां उनकी उपलब्धि हैं।

    हमारे विचार ही हमारे शब्द बनते हैं और फिर ये शब्द ही हमारे कर्म बनते हैं। प्रो. कुठियाला ने क्रिया की इस गूढ़ मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को अपने जीवन में उतार के दिखाया है। विचार, वाणी और कर्म के संतुलन ने उनके संपूर्ण व्यक्तित्व में विश्वसनीयता एवं प्रभाव की वह दीप्ति पैदा की है, जिससे बचना उनके विरोधियों तक के लिए संभव नहीं है। उन्होंने जो सोचा, वही किया और जो नहीं कर सकते थे, उसके लिए कभी कहा नहीं। शब्द ब्रह्म होता है, यह उन्होंने जीकर दिखाया। शब्द जब आचरण से मंडित होता है, तब वह मंत्र की शक्ति प्राप्त कर लेता है। प्रो. कुठियाला के साथ यही बात साबित होती थी। उनका संपूर्ण जीवन एक प्रकार से अपने अंत:करण के पालन का जीवन रहा है।

     वे एक अप्रतिम प्रशासक हैं। कुशल शिक्षाविद् होने के साथ उनकी प्रशासनिक दक्षता हम सबके सामने है। वे परिणामकेंद्रित योजनाकार हैं। खुद काम करते हुए अपनी टीम को प्रेरित करते हुए वे आगे बढ़ते हैं। आज जब संचार और प्रबंधन की विधाएं एक अनुशासन के रूप में हमारे सामने हैं, तब हमें पता चलता है कि कैसे उन्होंने अपने पूरे जीवन में इन दोनों विधाओं को साधने का काम किया। एक संचारक के रूप में यदि उन्हें समझना है, तो हमें     भारतीयता को समझना होगा। यदि हमें उन्हें जानना है, तो भारतीय आत्मा, संस्कृति और संवाद को समझना होगा। ऊपरी तौर पर जब हम उनके जीवन को देखते हैं, तो वह जीवन अन्य की तुलना में थोड़ा ही बेहतर लगता है, लेकिन जब उसकी ऊपरी परतों को हटाकर उसके गहरे तल तक पहुंचते हैं, तो वही जीवन किसी चमत्कार से कम नहीं लगता।

      प्रो. कुठियाला की जिंदगी का पाठ बहुत बड़ा है। वे अपने समय के सवालों पर जिस प्रखरता से टिप्पणियां करते हैं, वो परंपरागत संचारकों से उन्हें अलग खड़ा कर देता है। वे 21 देशों में शिक्षा, मीडिया, संस्कृति और सभ्यता के विषय पर भारत की बात कर चुके हैं। वे विश्वमंच पर सही मायने में भारत, उसके अध्यात्म, पुरुषार्थ और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को स्थापित करने वाले नायक हैं। अपने जीवन, लेखन और व्याख्यानों में वे जिस प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैं, पूर्णता दिखाते हैं, वह सीखने की चीज है। उनमें नेतृत्व क्षमता, कुशल प्रबंधन के गुर, परंपरा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है। वे आधुनिकता से भागते नहीं, बल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को ज्यादा प्रभावकारी बना पाते हैं।

      73 वर्ष की उम्र में भी वे स्वयं को एक तेजस्वी युवा के रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनके विचार भी उसी युवा चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शास्त्रीय प्रसंगों की भी ऐसी सरल व्याख्या करते हैं कि उनकी संचार कला अपने आप स्थापित हो जाती है। अपने कर्म, जीवन, लेखन, भाषण और संपूर्ण प्रस्तुति में उनका एक आदर्श प्रबंधक और कम्युनिकेटर का स्वरूप प्रकट होता है। किस बात को किस समय और कितने जोर से कहना है, यह उन्हें पता है। उनका पूरा जीवन कर्मयोग की मिसाल है। उनका नाम सुनते ही भारतीय शिक्षा पद्धति और भारतीय संस्कृति की गौरवान्वित छवि हमारी आंखों के सामने आ जाती है।

      एक संचारक की दृष्टि से प्रो. कुठियाला का नाम उन लोगों में शामिल है, जो बेहद सरल और सहज शब्दों में अपनी बात रखते हैं। जब हम एक कुशल संचारक को किसी कसौटी पर परखते हैं, तो संवाद और प्रतिसंवाद की बात करते हैं, लेकिन प्रो. कुठियाला की संचार कला में बात संवाद और प्रतिसंवाद की नहीं है, बल्कि बात प्रभाव की है, और उसमें वे लाजवाब हैं। इस संसार में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, जो अपने जीवनकाल में एक उदाहरण बन जाते हैं। उनके जीवन का प्रत्येक क्षण अनुकरणीय और प्रेरणादायी होता है। प्रो. कुठियाला का पूरा जीवन ही राष्ट्रीय विचारों के लिए समर्पित रहा है। आज की पीढ़ी के लिए उनका जीवन दर्शन एक विचार है। अपने जीवन में उन्होंने समाज के अनेक क्षेत्रों में मौन तपस्वी की भांति अनथक कार्य किया है और हर जगह आत्मीय संबंध जोड़े हैं। उनका हर कार्य, यहां तक कि प्रत्येक शब्द एक प्रेरणा है। तन समर्पित, मन समर्पित और ये जीवन समर्पित...की राह को अंगीकार करने वाले प्रो. कुठियाला ने अपने आलेखों के माध्यम से समाज जीवन और लेखकों को जो दिशा प्रदान की, उसका जीवंत उदाहरण आज कई युवा पत्रकारों के लेखन में भी दिखाई दे रहा है। मेरे जैसे लेखक ने उनके लेखों को कई-कई बार पढ़कर दिशा प्राप्त की है। उनका अकाट्य लेखन कोई कागजी लेखन नहीं माना जा सकता, वे हर लेख को जीवंतता के साथ लिखते हैं। जैसे भाग्य का लिखा हुआ कोई मिटा नहीं सकता, वैसे ही उनके लेखन की जीवंतता को कोई मिटा नहीं सकता।

     अगर हम प्रो. कुठियाला को आधुनिक पत्रकारिता को दिशा प्रदान करने वाला साधक कहें, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि उनके लेखन में पूरे भारत का दर्शन होता है। उनकी जीवन कथा में संघर्ष है, राष्ट्रप्रेम है, समाजसेवा का भाव और लोकसंग्रह की कुशलता भी है। उनका जीवन खुला काव्य है, जो त्याग, तपस्या व साधना से भरा है। उन्होंने अपने को समष्टि के साथ जोड़ा और व्यष्टि की चिंता छोड़ दी। देखने में वे साधारण हैं, पर उनका व्यक्तित्व असाधारण है। एक पत्रकार और मीडिया शिक्षक होने के नाते अगर मुझे कहना हो, तो मैं उन्हें पत्रकारीय ज्ञान और आचार संहिता का साक्षात विश्वविद्यालय कहूंगा।

      पहचान और प्रतिष्ठा केवल प्रोफेशन, सेंसेशन और इंटेंशन से ही अर्जित नहीं की जाती है, बल्कि ईमानदारी, सादगी और ध्येयनिष्ठा ही किसी जीवन को टिकाऊ और अनुकरणीय बनाते हैं। प्रो. कुठियाला पत्रकारिता शिक्षा के इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो स्वार्थ नहीं, बल्कि सरोकारों और सत्यनिष्ठा के प्रतिमानों पर खड़ा है। उनके व्यक्तित्व का फलक इतना व्यापक है, जिसमें आप एक पत्रकार, शिक्षक, प्रबंधक, समाजकर्मी और गृहस्थ का अक्स पूरी प्रखरता से चिन्हित कर सकते हैं। उनके व्यक्तित्व का एक अहम पक्ष उनकी राष्ट्र आराधना में समर्पण का भी है। उन्होंने जो लिखा या कहा, उसे खुद के जीवन में उतारकर दिखाया।

    प्रो. कुठियाला एक व्यक्ति नहीं, विचार हैं, केवल पत्रकारिता के लिए नहीं, बल्कि जीवन मूल्यों के लिए भी, भारतबोध के लिए भी, हमारी सामाजिक प्रतिबद्धताओं के लिए भी, जिनसे होकर समकालीन पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षा गुजरती है। जो व्यक्ति उच्च आयामों के साथ दूसरों की चिंता करते हुए जीवन का संचालन करता है, उसका जीवन समाज को प्रेरणा तो देता ही है, साथ ही समाज के लिए वंदनीय बन जाता है। प्रो. कुठियाला का ध्येयमयी जीवन हम सबके लिए एक ऐसा पथ है, जो जीवन को अनंत ऊंचाइयों की ओर ले जाने में समर्थ है।






सोमवार, 10 मई 2021

नए समय में मीडिया शिक्षा की चुनौतियां

 

डिजीटल ट्रांसफार्मेशन के लिए तैयार हों नए पत्रकार

- प्रो. संजय द्विवेदी


     एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। वर्ष 2020 को लोग चाहे कोरोना महामारी की वजह से याद करेंगे, लेकिन एक मीडिया शिक्षक होने के नाते मेरे लिए ये बेहद महत्वपूर्ण है कि पिछले वर्ष भारत में मीडिया शिक्षा के 100 वर्ष पूरे हुए थे। वर्ष 1920 में थियोसोफिकल सोसायटी के तत्वावधान में मद्रास राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में डॉक्टर एनी बेसेंट ने पत्रकारिता का पहला पाठ्यक्रम शुरू किया था। लगभग एक दशक बाद वर्ष 1938 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को एक सर्टिफिकेट कोर्स के रूप में शुरू किया गया। इस क्रम में पंजाब विश्वविद्यालय, जो उस वक्त के लाहौर में हुआ करता था, पहला विश्वविद्यालय था, जिसने अपने यहां पत्रकारिता विभाग की स्थापना की। भारत में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थापक  कहे जाने वाले प्रोफेसर पीपी सिंह ने वर्ष 1941 में इस विभाग की स्थापना की थी। अगर हम स्वतंत्र भारत की बात करें, तो सबसे पहले मद्रास विश्वविद्यालय ने वर्ष 1947 में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की स्थापना की। 

   इसके पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय, मैसूर के महाराजा कॉलेज, उस्मानिया यूनिवर्सिटी एवं नागपुर यूनिवर्सिटी ने मीडिया शिक्षा से जुड़े कई कोर्स शुरू किए। 17 अगस्त, 1965 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने भारतीय जन संचार संस्थान की स्थापना की, जो आज मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में पूरे एशिया में सबसे अग्रणी संस्थान है।  आज भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय एवं जयपुर में हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय पूर्ण रूप से मीडिया शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य कर रहे हैं। भारत में मीडिया शिक्षा का इतिहास 100 वर्ष जरूर पूर्ण कर चुका है, परंतु यह अभी तक इस उलझन से मुक्त नहीं हो पाया है कि यह तकनीकी है या वैचारिक। तकनीकी एवं वैचारिकी का द्वंद्व मीडिया शिक्षा की उपेक्षा के लिए जहां उत्तरदायी है, वहां सरकारी उपेक्षा और मीडिया संस्थानों का सक्रिय सहयोग न होना भी मीडिया शिक्षा के इतिहास की तस्वीर को धुंधली प्रस्तुत करने को विवश करता है।

    भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती है, तो प्रोफेसर के. . ईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिए, तभी वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षण संस्थान, मीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव हो। ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकें, ऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकें, जिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं।  पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है?

    दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों में, तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या है, वो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है, कि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।

    मीडिया शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए आज मीडिया एजुकेशन काउंसिल की आवश्यकता है। इसकी मदद से न सिर्फ पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षा के पाठ्यक्रम में सुधार होगा, बल्कि मीडिया इंडस्ट्री की जरुरतों के अनुसार पत्रकार भी तैयार किये जा सकेंगे। आज मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई है, इसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैं, वैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगे, जिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो।

    न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों नौकरियां गई हैं। इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती है, जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा है, जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैं, जिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल सके।

    एक वक्त था जब पत्रकारिता का मतलब प्रिंट मीडिया होता था। अस्सी के दशक में रिलीज हुई अमेरिकी फिल्म Ghostbusters (घोस्टबस्टर्स) में सेक्रेटरी जब वैज्ञानिक से पूछती है किक्या वे पढ़ना पसंद करते हैं? तो वैज्ञानिक कहता हैप्रिंट इज डेड। इस पात्र का यह कहना उस समय हास्य का विषय था, परंतु वर्तमान परिदृश्य में प्रिंट मीडिया के भविष्य पर जिस तरह के सवाल खड़े किये जा रहे हैं, उसे देखकर ये लगता है कि ये सवाल आज की स्थिति पर बिल्कुल सटीक बैठता है। आज दुनिया के तमाम प्रगतिशील देशों से हमें ये सूचनाएं मिल रही हैं कि प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल हैं। ये भी कहा जा रहा है कि बहुत जल्द अखबार खत्म हो जाएंगे। वर्ष 2008 में अमेरिकी लेखक जेफ गोमेज ने प्रिंट इज डेड पुस्तक लिखकर प्रिंट मीडिया के खत्म होने की अवधारणा को जन्म दिया था। उस वक्त इस किताब का रिव्यू करते हुए एंटोनी चिथम ने लिखा था कि, यह किताब उन सब लोगों के लिएवेकअप कॉलकी तरह है, जो प्रिंट मीडिया में हैं, किंतु उन्हें यह पता ही नहीं कि इंटरनेट के द्वारा डिजिटल दुनिया किस तरह की बन रही है। वहीं एक अन्य लेखक रोस डावसन ने तो समाचारपत्रों के विलुप्त होने का, समय के अनुसार एक चार्ट ही बना डाला। इस चार्ट में जो बात मुख्य रूप से कही गई थी, उसके अनुसार वर्ष 2040 तक विश्व से अखबारों के प्रिंट संस्करण खत्म हो जाएंगे।         मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए, कि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करें, यह एक बड़ी जिम्मेदारी है।



प्रो. संजय द्विवेदी, संप्रति भारतीय जनसंचार संस्थान(आईआईएमसी),नई दिल्ली के महानिदेशक हैं।
 

 

 

रविवार, 18 अक्टूबर 2020

IIMC के DG प्रो.संजय द्विवेदी बोले- दो आधारों पर खड़ी है आज की पत्रकारिता

 

मेरे जीवन में किस्से बहुत नहीं हैं, संघर्ष तो बिल्कुल नहीं। मेरे पास यात्राएं हैं, कर्म हैं और उससे उपजी सफलताएं हैं। बहुत संघर्ष की कहानियां नहीं हैं, जिन्हें सुना सकूं।

 


   प्रो.संजय द्विवेदी देश के जाने-माने पत्रकारसंपादकलेखकसंस्कृतिकर्मी और मीडिया प्राध्यापक हैं। अनेक मीडिया संगठनों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभालने के बाद वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालयभोपाल में 10 वर्ष मास कम्युनिकेशन विभाग के अध्यक्ष, विश्वविद्यालय के कुलपति और कुलसचिव भी रहे। राजनीतिकसामाजिक और मीडिया के मुद्दों पर निरंतर लेखन से उन्होंने खास पहचान बनाई है। अब तक 25 पुस्तकों का लेखन और संपादन करने वाले प्रो.  द्विवेदी को अनेक संगठनों ने मीडिया क्षेत्र में योगदान के लिए सम्मानित किया है। हाल ही में उन्हें देश के प्रतिष्ठित मीडिया प्रशिक्षण संस्थान- भारतीय जनसंचार संस्थान का महानिदेशक नियुक्त किया गया है। भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) के 56वें स्थापना दिवस पर समाचार4मीडिया ने उनसे खास बातचीत की - 

आपने अब तक तमाम मीडिया संस्थानों और शैक्षणिक संस्थानों में अपनी सेवाएं दी हैंअपने अब तक के सफर के बारे में कुछ बताएं?

मैं खुद को आज भी मीडिया का विद्यार्थी ही मानता हूं।  पत्रकारिता में मेरा सफर 1994 में दैनिक भास्कर, भोपाल से प्रारंभ हुआ। उसके बाद स्वदेश-रायपुर, नवभारत- मुंबई, दैनिक भास्कर-बिलासपुर, दैनिक हरिभूमि-रायपुर, इंफो इंडिया डॉटकॉम-मुंबई, जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ जो छत्तीसगढ़ का पहला सैटेलाइट चैनल था के साथ रहा। पत्रकारिता में संपादक, स्थानीय संपादक, समाचार संपादक, इनपुट एडिटर, एंकर जैसी जिम्मेदारियां मिलीं, उनका निर्वाह किया। मीडिया शिक्षा में आया तो कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय, रायपुर में पत्रकारिता विभाग का संस्थापक विभागाध्यक्ष रहा। बाद में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कुलपति, कुलसचिव जैसे पदों के साथ जनसंचार विभाग के अध्यक्ष के रूप में भी दस साल दायित्व रहा। बचपन के दिनों के में दोस्तों के मिलकरबालसुमन’ नाम की पत्रिका निकाली। यह लिखने-पढ़ने का शौक ही बाद में जीविका बन गया  तो सौभाग्य ही था।

 इस दौरान का कोई ऐसा खास वाक्या जो आपको अभी तक याद हो?

मेरे जीवन में किस्से बहुत नहीं हैं, संघर्ष तो बिल्कुल नहीं। मेरे पास यात्राएं हैं, कर्म हैं और उससे उपजी सफलताएं हैं। बहुत संघर्ष की कहानियां नहीं हैं, जिन्हें सुना सकूं। अपने काम को पूरी प्रामणिकता, ईमानदारी से करते रहे। अपने अधिकारी के प्रति ईमानदार रहे, यात्रा चलती रही। मौके मिलते गए। मुंबई, भोपाल, रायपुर, बिलासपुर और अब दिल्ली में काम करते हुए कभी चीजों के पीछे नहीं भागा। नकारात्मकता और नकारात्मक लोगों से दूरी से बनाकर रखी। साधारण तरीके से चलते चले गए। यह सहज जीवन ही मुझे पसंद है। सफलता से बड़ा मैंने हमेशा सहजता को माना। कुछ दौड़कर, छीनकर नहीं चाहिए। स्पर्धा और संघर्ष मेरे स्वभाव में नहीं है। मैं अपना आकलन इस तरह करता हूं कि मैं कोई विशेष प्रतिभा नहीं हूं। सकारात्मक हूं और सबको साथ लेकर चलना मेरा सबसे खास गुण है। मैं जो कुछ भी हूं अपने माता-पिता, मार्गदर्शकों, शिक्षकों और दोस्तों की बदौलत हूं।   

 'कोविड-19 के दौरान पढ़ाई-लिखाई की पुरानी व्यवस्था पर काफी फर्क पड़ा है। नए दौर में ऑनलाइन पढ़ाई पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। आईआईएमसी में इसके लिए किस तरह की तैयारी पर जोर है?

ऑनलाइन कक्षाएं हमारी मजबूरी हैं। कोरोना  जैसे संकट से डील करने का न हमारे तंत्र का अभ्यास, न हमारा है। लोंगों की जिंदगी अहम है। खासकर हमारे विद्यार्थी किसी संकट का शिकार न हों यही चिंता है। पहला सेमेस्टर ऑनलाइन ही चलेगा। तैयारी पूरी है। हमारा प्रशासनिक तंत्र और अध्यापकगण इसके लिए तैयार हैं। विद्यार्थी तो वैसे भी नए माध्यमों और  प्रयोगों का स्वागत ही करते हैं। ई-माध्यमों के साथ हमारी पीढ़ी भले सहज न हो, किंतु हमारे विद्यार्थी बहुत सहज हैं। 

पिछले दिनों आईआईएमसी में फीस बढ़ोतरी का मुद्दा काफी गरमाया रहा हैहालांकि फिलहाल यह मामला शांत हैइस बारे में आपका क्या कहना है और इस तरह के मुद्दों से किस तरह निपटेंगे?

किसी भी मामले में अपना अभ्यास निपटने-निपटाने का नहीं है। सहज संवाद का है, बातचीत का है। बातचीत से चीजें हल नहीं होतीं, तो लोग अन्य मार्ग भी अपनाते हैं। एक शासकीय संगठन होने के नाते हमारी सीमाएं हैं, हम हर चीज को मान नहीं सकते। किंतु छात्र हित सर्वोपरि है।  संवाद से रास्ते निकालेंगे। अन्यथा अन्य फोरम भी जहां लोग जाते रहे हैं, जाएंगे, जाना भी चाहिए।

पत्रकारिता में व्यावहारिक रूप में काफी बदलाव आए हैं। कोरोना काल में पत्रकारों ने अपनी जान जोखिम में डालकर ड्यूटी को अंजाम दिया हैयह बिल्कुल नई तरह की आपदा है। पत्रकारों की नई पौध को इस तरह की किसी भी स्थिति के लिए किस तरह व्यावहारिक रूप से तैयार करेंगे?

मैंने आपसे पहले भी कहा इस तरह के संकटों से निपटने का अभ्यास हमारे पास नहीं है। हम सब सीख रहे हैं। बचाव के उपाय भी अब धीरे-धीरे आदत में आ चुके हैं। पत्रकारिता हमेशा जोखिम भरा काम था। खासकर जिनके पास मैदानी या रिपोर्टिंग  दायित्व हैं। जान जोखिम में डालकर पत्रकार अपने कामों को अंजाम देते रहे हैं। कोरोना संकट में भी पत्रकारों के सामने सिर्फ संक्रमण के खतरे ही नहीं थे, कम होते वेतन, जाती नौकरियों के भी संकट थे। सबसे जूझकर उन्हें निकलना  होता है। फिर भी वे काम कर रहे हैं, समाज को संबल देने का काम कर रहे हैं। हमें भी ऐसी पीढ़ी का निर्माण करना है, जो जरा से संकटों से घबराए नहीं, संबल और साहस बनाए रखे। एक संचारक के नाते हम सबकी कोशिश होनी चाहिए कि समाज में गलत खबरें न फैलें, नकारात्मकता न फैले, लोग निराशा और अवसाद के शिकार न हों। उन्हें उम्मीदें जगाने वाली खबरें और सूचनाएं देनी चाहिए। हमारे विद्यार्थी बहुत प्रतिभावान हैं। वे अपने सामने उपस्थित सवालों और उनके ठोस तथा वाजिब हल निकालने की क्षमताओं से भरे हैं। मैं उन्हें बहुत आशा और उम्मीदों से देखता हूं। 

इस प्रतिष्ठित मीडिया शिक्षण संस्थान से पढ़कर निकले तमाम विद्यार्थी विभिन्न संस्थानों में ऊंचे पदों पर काम कर रहे हैं। IIMC को और अधिक ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए क्या आपने किसी तरह की खास स्ट्रैटेजी बनाई है?

हमारे संस्थान की स्थापना की आज हम 56वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। 17 अगस्त,1965 को तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसका शुभारंभ किया था। मेरा सौभाग्य है कि एक खास  समय में मुझे इस महान संस्थान की सेवा करने का अवसर मिला है। मेरी कोशिश होगी इस महान संस्था की गौरवशाली परंपराओं में कुछ और सार्थक जोड़ सकूं। इसे भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता का केंद्र बनाने, उन पर शोध अनुसंधान का काम हो, इसकी कोशिश होगी। अपने बहुत प्रतिभावान पूर्व विद्यार्थियों, पूर्व प्राध्यापकों, पूर्व महानिदेशकों से संवाद करते हुए, उनकी सलाह लेते हुए इसे जीवंत व ऊर्जावान परिसर बनाने की कोशिश होगी। जहां बिना छूआछूत के सभी विचारों और प्रतिभाओं का स्वागत होगा। एक समर्थ भारत बनाने में कम्युनिकेशन और कम्युनिकेटर्स बहुत खास भूमिका है, हम इस ओर जोर देंगे। 

नई शिक्षा नीति कितनी सहीकितनी गलत, इस बारे में क्या है आपका मानना?

नई शिक्षा बहुत सुविचारित और सुचिंतित तरीके से प्रकाश में आई है। इसको बनाने के पहले जो मंथन हुआ है, जिस तरह पूरे देश  के लोगों की राय ली गयी है, वह प्रक्रिया बहुत खास  है। इसमें भारतीयता, भारत बोध, नैतिक शिक्षा, पर्यावरण और भारतीय भाषाओं को सम्मान देने के विषय जिस तरह से संबोधित किए गए हैं, उसके कारण यह विशिष्ट बन गयी  है। उच्च शिक्षा को स्ट्रीम से मुक्त करना एक तरह का क्रांतिकारी फैसला है। 0 से  8 साल के बच्चों का विचार। जन्म से लेकर पीएचडी तक बच्चे की परवाह यह शिक्षा नीति करती है। मुझे लगता है कि नीति के तौर इसमें कोई समस्या  नहीं है। इसे जमीन पर उतारना एक कठिन काम है। इसलिए शिक्षाविदों, शिक्षा से जुड़े अधिकारियों और संचारकों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ गयी है। इस शिक्षा नीति को हम उसके वास्तविक संकल्पों के साथ जमीन पर उतार पाए तो एक ऐसा भारत बनेगा जिसकी कल्पना हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के नायकों ने की थी। मुझे लगता है कि हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार की मंशाएं बहुत स्पष्ट हैं, अब समय हमारे द्वारा किए जाने वाले क्रियान्वयन और डिलेवरी का है। निश्चय ही इस कठिन दायित्वबोध ने हम सबमें ऊर्जा का संचार भी किया है। 

एक आखिरी सवालपत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले नए विद्यार्थियों के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?

आज की पत्रकारिता दो आधारों पर खड़ी है, एक भाषा, दूसरा तकनीकी ज्ञान। तकनीक दिन-प्रतिदिन और माध्यमों के अनुसार बदलती रहती है। तकनीक ज्यादातर अभ्यास का मामला भी है। हम करते और सीखते जाते हैं। भाषा एक कठिन स्वाध्याय से अर्जित की जाती है। किंतु हमें हर तरह से भाषा में ही व्यक्त होना है। इसलिए हमारे युवा पत्रकारों को भाषा के साथ रोजाना का रिश्ता बनाना होगा। एक अच्छी भाषा में सही तरीके कही गयी बात का कोई विकल्प नहीं है। दूसरा हमें सिर्फ सवाल खड़े करने वाला नहीं बनना है, इस देश के संकटों के ठोस  और वाजिब हल तलाशने वाला पत्रकार बनना है। मीडिया का उद्देश्य अंततः लोकमंगल ही है। यही साहित्य का भी उद्देश्य है, हमारी सारी प्रदर्शन कलाओं का भी यही ध्येय है। इसके साथ ही देश की समझ। देश के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, परंपरा, आर्थिक-सामाजिक चिंताओंसंविधान की मूलभूत चिंताओं की गहरी समझ हमारी पत्रकारिता को प्रामणिक बनाती है। तभी हम समाज के दुखः-दर्द, उसकी चिंताओं को समझकर तथ्य और सत्य पर आधारित पत्रकारिता करने में समर्थ होते हैं। सामाजिक-आर्थिक न्याय से  युक्त, न्यायपूर्ण-समरस समाज हम सबका साझा स्वप्न है। पत्रकारिता अपने इस कठिन दायित्वबोध से अलग नहीं हो सकती।

-विकास जैन द्वारा 17 अगस्त,2020 को  प्रकाशित

लिंक-   https://www.samachar4media.com/interviews-news/interview-of-iimc-dg-sanjay-dwivedi-54094.html

रविवार, 31 अगस्त 2014

उच्चशिक्षा का व्यापारीकरण रोकने की जरूरत


-संजय द्विवेदी
  भारतीय समाज में शिक्षा समाज द्वारा पोषित और गुरूजनों द्वारा संचालित रही है। सरकार या राज्य का हस्तक्षेप शिक्षा में कभी नहीं रहा। बदले समय के अनुसार सरकार और राज्य इसे चलाने और पोषित करने लगे। किंतु भावना यही रही कि इसकी स्वायत्ता बनी रहे। शिक्षा का यह बदलता दौर एक नई तरह की समस्याएं लेकर आया है, आज की शिक्षा सरकार से आगे बाजार तक जा पहुंची है। यह शिक्षा समाज के सामाजिक नियंत्रण से मुक्त है और सरकारें भी यहां अपने आपको बेबस पा रही हैं।
   निजी स्कूलों से शुरू ये क्रम अब निजी विश्वविद्यालयों तक फैल गया है। निजी क्षेत्र में शिक्षा का होना बुरा नहीं है किंतु अगर वह समाज में दूरियां बढ़ाने लगे, पैसे का महत्व स्थापित करने लगे और कदाचार को बढ़ाए तो वह बुरी ही है। आजादी के पूर्व और बहुत बाद तक निजी क्षेत्र के तमाम सम्मानित नागरिक, राजनेता और व्यापारी शिक्षा के क्षेत्र के लिए अपना योगदान देते थे। बड़ी-बड़ी संस्थाएं खड़ी करते थे, किंतु सोच में व्यापार नहीं सेवा का भाव होता था। आज जो भी लोग शिक्षा के क्षेत्र में आ रहे हैं वे व्यापार की नियति से आ रहे हैं। उन्हें लगता है कि शिक्षा का क्षेत्र एक बडा लाभ देने वाला क्षेत्र है। व्यापारिक मानसिकता के लोगों की घुसपैठ ने इस पूरे क्षेत्र को गंदा कर दिया है। आज भारत में एक दो नहीं कितने स्तर की शिक्षा है कहा नहीं जा सकता। सरकारी क्षेत्र को व्यापार की और बाजार की ताकतें ध्वस्त करने पर आमादा हैं। राजनीति और प्रशासन इस काम में उनका सहयोगी बना है। नीतियों निजी क्षेत्रों के अनूकूल बनायी जा रही हैं और सरकारी शिक्षा केंद्रों को स्लम में बदल देने की रणनीति अपनायी जा रही है। यह दुखद है कि हमारी सरकारी प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह नष्ट हो चुकी है। माध्यमिक शिक्षा और तकनीकी शिक्षा में भी बाजार के बाजीगर हावी हो चुके हैं और अब नजर उच्च शिक्षा पर है। उच्चशिक्षा में हमारे सरकारी विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम आज भी एक स्तर रखते हैं। उनके बौद्धिक क्षेत्र में योगदान को नकारा नहीं जा सकता। कई विश्वविद्यालय आज भी वैश्विक मानकों पर खरे हैं और बेहतर काम कर रहे हैं। देश की बौद्धिक चेतना और शोधकार्यों को बढ़ाने में उनका एक खास योगदान है। किंतु जाने क्या हुआ है कि सरकारों का अचानक उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत अपने इस विश्वविद्यालयों से मन भर गया। आज वे निजी क्षेत्र को बहुत आशा से निहार रहे हैं। निजी क्षेत्र किस मानसिकता से उच्चशिक्षा के क्षेत्र में आ रहा है, उसके इरादे बहुत साफ हैं। सरकारी विश्वविद्यालयों में अरसे से शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हो रही है। सरकारी कालेज संसाधनों के अभाव में पस्तहाल हैं। दूसरी तरफ नीतियां अपने सरकारी विश्वविद्यालों और कालेजों को ताकतवर बनाने के बजाए निजी क्षेत्र को ताकतवर बनाने की हैं। क्या हम सरकारी उच्चशिक्षा के क्षेत्र को भी सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की तरह जल्दी ही स्लम में नहीं बदल देगें,यह एक बड़ा सवाल है। राजनीतिक घुसपैठ, सब तरह आर्थिक कदाचार, नैतिक पतन के संकट से हमारे विश्वविद्यालय जूझ रहे हैं। उन्हें ताकतवर बनाने के बजाए और बीमार करने वाला इलाज चल रहा है।
शिक्षक लें जिम्मेदारीः
ऐसे कठिन समय में शिक्षकों को आगे आना होगा। अपने कतर्व्य की श्रेष्ठ भूमिका से उन्हें अपने विश्वविद्यालयों और कालेजों को बचाना होगा। अपने प्रयासों से शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ानी होगी ताकि अप्रासंगिक हो रही क्लास रूम टीचिंग के मायने बचे रहें। उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षकों की यह बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपने परिसरों को जीवंत बनाएं और छात्र-अध्यापकों की पुर्नव्याख्या करें। सिर्फ वेतन गिनने और काम के घंटों का हिसाब करने के बजाए वे अपने आपको नई पीढ़ी के निर्माण में झोंक दें। यही एक रास्ता है जो हमें निजी क्षेत्र के चमकीले आकर्षण से बचा सकता है। आज भी व्यक्तिगत योग्यताओं के सवाल पर हमारे विश्वविद्यालय श्रेष्ठतम मानवसंसाधन के केंद्र हैं। किंतु अपने कर्तव्यबोध को जागृत करने और अपना श्रेष्ठ देने की मानसिकता में कमी जरूर आ रही है। ऐसे में हमें देखना होगा कि हम किस अपने लोगों को न्याय दे सकते हैं। संकट यह है कि आज का शिक्षक कक्षा में बैठे छात्र तक भी नहीं पहुंच पा रहा है। उसके उसकी बढ़ती दूरी कई तरह के संकट पैदा कर रही है।
विद्यार्थियों की जीवंत पीढ़ी खड़ी करें शिक्षकः
विश्वविद्यालय परिसरों में राजनीतिक ताकतों का बढ़ता हस्तक्षेप नए तरह के संकट लाता है। शिक्षा की गुणवत्ता इससे प्रभावित हो रही है। इसे बचाना शिक्षकों की ही जिम्मेदारी है। वही अपने छात्रों को न्याय दे सकता है, जीवन के मार्ग दिखा सकता है। आज के समय में युवा और छात्र समुदाय एक गहरे संघर्ष में है। उसके जीवन की चुनौतियों काफी कठिन है। बढ़ती स्पर्धा, निजी क्षेत्रों की कार्यस्थितियां, सामाजिक तनाव और कठिन होती पढ़ाई युवाओं के लिए एक नहीं कई चुनौतियां है। कई तरह की प्राथमिक शिक्षा से गुजर कर आया युवा उच्चशिक्षा में भी भेदभाव का शिकार होता है। भाषा के चलते दूरियां और उपेक्षा है तो स्थानों का भेद भी है। अंग्रेजी के चलते हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों की हीनभावना तो चुनौती है ही। आज के युवा के पास तमाम चमकती हुयी चीजें भी हैं, जो जाहिर है सबकी सब सोना नहीं हैं। उसके संकट हमारे-आपसे बड़े और गहरे हैं। उसके पास ठहरकर सोचने का अवकाश और एकांत भी अनुपस्थित है। मोबाइल और मीडिया के हाहाकारी समय ने उसके स्वतंत्र चिंतन की दुनिया भी छीन ली है। वह सूचनाओं से आक्रांत तो है पर काम की सूचनाएं उससे कोसों दूर हैं। ऐसे कठिन समय में वह एक बेरहम समय से मुकाबला कर रहा है। बताइए उसे इन सवालों के हल कौन बताएगा? जाहिर तौर पर शिक्षा के क्षेत्र को बचाने की जिम्मेदारी आज शिक्षक समुदाय पर है। शिक्षक ही राष्ट्रनिर्माता हैं और इसलिए आज की चुनौतियों से लड़ने तथा अपने विद्यार्थियों को तैयार करने की जिम्मेदारी हमारी ही है। शिक्षक दिवस पर यह संकल्प अध्यापकों व विद्यार्थियों को ही लेना होगा तभी शिक्षा का क्षेत्र नाहक तनावों से बच सकेगा। उम्मीद की जानी कि शिक्षा के व्यापारीकरण के खिलाफ समाज और सरकार भी सर्तक दृष्टि रखेंगी।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)