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गुरुवार, 17 जुलाई 2025

संघ, सत्ता और समाज

                                                                 -प्रो. संजय द्विवेदी


         एक जीवंत लोकतंत्र में रहते हुए क्या आप राजनीति से विरत रह सकते हैं? राजनीति जो नीति-निर्माण से लेकर आपके संपूर्ण जीवन के फैसले कर रही है, उससे अलग रहना क्या उचित है? क्या बदलाव सत्ता के बिना संभव है? क्या समाज की अपनी भी कोई शक्ति है या वह राजनीति से ही नियंत्रित होता है ? ऐसे अनेक प्रश्न चिंतनशील व्यक्तियों को मथते रहते हैं। ऐसे में एक संगठन जो सौ साल की आयु पूरी करने जा रहा है, उसके लिए राजनीति और सत्ता के मायने क्या हैं? सत्ता राजनीति उसे कितनी कम या ज्यादा रास आती है। लोकतंत्र में बदलाव की राजनीति और सत्ता की राजनीति के विमर्शों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहां खड़ा है। यह विचार जरूरी हो जाता है। संघ ऐसा संगठन बन चुका है, जिसने समाज जीवन के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उसके स्वयंसेवकों के उजले पदचिन्ह हर क्षेत्र में सफलता के मानक बन गए हैं। स्वयं को सांस्कृतिक संगठन बताने वाले संघ का मूल कार्य और केंद्र दैनिक शाखाहै, किंतु अब वह सत्ता-व्यवस्था में गहराई तक अपनी वैचारिक और सांगठनिक छाप छोड़ चुका है।

     संघ के संस्थापक और प्रथम सरसंघचालक का सपना तो राष्ट्रीय चेतना का जागरण, सांस्कृतिक एकता का बोध और सालों की गुलामी के उपजे आत्मदैन्य को हटाकर हिंदू समाज की शक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करना था। इस दौर में डा. केशवराम बलिराम हेडगेवार ने ऐसे संगठन की परिकल्पना की, जो राष्ट्र को धर्म, भाषा, क्षेत्र से ऊपर उठाकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना से जोड़े। संघ की शाखाएं उसकी कार्यप्रणाली की रीढ़ बनीं। प्रतिदिन कुछ समय एक निश्चित स्थान पर एकत्रित होकर शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक प्रशिक्षण देना ही शाखा की आत्मा है। यह क्रमशः अनुशासित, राष्ट्रनिष्ठ और संस्कारित कार्यकर्ताओं का निर्माण करता है, जिन्हें 'स्वयंसेवक' कहा जाता है। संघ ने व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण" की अवधारणा को अपनाया है। इस प्रक्रिया में उसका जोर 'चरित्र निर्माण' और 'कर्तव्यपरायणता' पर होता है। ऐसे में विविध वर्गों तक पहुंचने के लिए संघ के विविध संगठन सामने आए जो अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय हुए किंतु उनका मूल उद्देश्य राष्ट्र की चिति का जागरण और राष्ट्र निर्माण ही है। आप देखें तो संघ ने राजनीति और सत्ता के शिखरों पर बैठे लोगों से हमेशा संवाद बनाए रखा। राजनीति के महापुरुषों से भी संवाद रखा। आप देखें तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी,बाबा साहब भीमराव आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण, पं. जवाहरलाल नेहरू  से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी तक संघ का संवाद सबसे रहा। अपनी बातों को रखना और उस पर दृढ़ता से डटे रहना संघ का मूल स्वभाव है। संघ सत्ता राजनीति से संवाद रखते हुए भी सत्ता मोह से कभी ग्रस्त नहीं रहा। 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा जनसंघ की स्थापना में संघ का सक्रिय सहयोग था। इस पार्टी का सहयोग संघ द्वारा प्रशिक्षित अनेक प्रचारकों द्वारा किया गया। 1980 में जब भाजपा बनी, तो संघ के कई वरिष्ठ कार्यकर्ता उसमें शामिल हुए। संघ ने अपने अनेक प्रचारक और कार्यकर्ता पार्टी में भेजे और उन्हें स्वतंत्रता दी। सत्ता राजनीति में भी राष्ट्रीय भाव प्रखर हो,यही धारणा रही। एक समय था जब संघ पर गांधी हत्या के झूठे आरोप में प्रतिबंध लगाकर स्वयंसेवकों को प्रताड़ित किया जा रहा था,किंतु संघ की बात रखने वाला कोई राजनीति में नहीं था। सत्ता की प्रताड़ना सहते हुए भी संघ ने अपने संयम को बनाए रखा और झूठे आरोपों के आधार पर लगा प्रतिबंध हटा।

   चीन युद्ध के बाद इसी संवाद और देश भक्ति पूर्ण आचरण के लिए उसी सत्ता ने संघ को 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में आमंत्रित किया। भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता रहे कृष्णलाल पठेला बताते हैं-स्वयंसेवकों की 1962 के युद्ध में उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए ही 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में संघ को अपना जत्था भेजने के लिए आमंत्रित किया गया था। मुझे याद है, मैं भी उस जत्थे में शामिल था और जब संघ का जत्था राजपथ पर निकला था तब वहां मौजूद नागरिकों ने देर तक तालियां बजाई थीं। जहां तक मुझे याद है, उस जत्थे में 600 स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में शामिल हुए थे।

    संघ ने समाज जीवन के हर क्षेत्र में स्वयंसेवकों को जाने के लिए प्रेरित किया। किंतु अपनी भूमिका व्यक्ति निर्माण और मार्गदर्शन तक सीमित रखी। सक्रिय राजनीति के दैनिक उपक्रमों में शामिल न होकर समाज का संवर्धन और उसके एकत्रीकरण पर संघ की दृष्टि रही। इस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक वैचारिक परंपरा है। उसने भारतीय समाज में अनुशासन, संगठन और सांस्कृतिक चेतना का पुनर्जागरण किया है। सत्ता से उसका संवाद हमेशा रहा है और उसके पदाधिकारी राजनीतिक दलों से संपर्क में रहे हैं। इंदिरा गांधी से भी तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस का संवाद रहा है। उनका पत्र इसे बताता है। इस तरह देखें तो संघ किसी को अछूत नहीं मानता, उसकी भले ही व्यापक उपेक्षा हुई हो। संघ के अनेक प्रकल्पों और आयोजनों में विविध राजनीतिक दलों के लोग शामिल होते रहे हैं। इस तरह संघ एक जड़ संगठन नहीं है, बल्कि समाज जीवन के हर प्रवाह से सतत संवाद और उस पर नजर रखते हुए उसके राष्ट्रीय योगदान को संघ स्वीकार करता है। इस तरह सेवा, समर्पण ही संघ का मूल मंत्र है।

  संघ की प्रेरणा से उसके स्वयंसेवकों ने अनेक स्वतंत्र संगठन स्थापित किए हैं। उनमें भाजपा भी है। इन संगठनों में आपसी संवाद और समन्वय की व्यवस्था भी है किंतु नियंत्रित करने का भाव नहीं है। सभी स्वयं में स्वायत्त और अपनी व्यवस्थाओं में आत्मनिर्भर हैं। यह संवाद विचारधारा के आधार पर चलता है। समान मुद्दों पर समान निर्णय और कार्ययोजना भी बनती है। 1951 में जनसंघ की स्थापना के समय ही संघ के कई स्वयंसेवक जैसे पं.दीनदयाल उपाध्याय, अटलबिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख जैसे लोग शामिल थे।1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ, लेकिन आपसी मतभेदों और दोहरी सदस्यता के सवाल पर उपजे विवाद के कारण यह प्रयोग असफल रहा। 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में एक नए राजनीतिक दल का जन्म हुआ, जिसमें संघ प्रेरित वैचारिक नींव और सांगठनिक समर्थन मजबूत रूप से विद्यमान था।

   संघ ने सत्ता या राजनीतिक दलों के सहयोग से बदलाव के बजाए, व्यक्ति को केंद्र में रखा है। संघ का मानना है कि कोई बदलाव तभी सार्थक होता है, जब लोग इसके लिए तैयार हों। इसलिए संघ के स्वयंसेवक गाते हैं-

केवल सत्ता से मत करना परिवर्तन की आस।
जागृत जनता के केन्द्रों से होगा अमर समाज।

सामाजिक शक्ति का जागरण करते हुए उन्हें बदलाव के अभियानों का हिस्सा बनाना संघ का उद्देश्य रहा है। चुनाव के समय मतदान प्रतिशत बढ़ाने और नागरिकों की सक्रिय भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए मतदाता जागरण अभियान इसका उदाहरण है। लोकतंत्र को सशक्त बनाते हुए नागरिकों की सहभागिता सुनिश्चित करना एक बड़ा काम है। राजनीति में प्रसिद्धि एक अनिवार्य विषय है। नेता अपने स्वागत, सम्मान के लिए बहुत से इंतजाम करते हैं। संघ इस प्रवृत्ति को पहले पहचान कर अपने स्वयंसेवकों को प्रसिद्धिपरांगमुखता का पाठ पढ़ाता आया है। ताकि काम की चर्चा हो नाम की न हो। स्वयंसेवक गीत गाते हैं-

वृत्तपत्र में नाम छपेगा, पहनूंगा स्वागत समुहार।

छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना, हिन्दू राष्ट्र के तारणहार।।

सही मायनों में सार्वजनिक जीवन में रहते हुए यह बहुत कठिन संकल्प हैं। लेकिन संघ की कार्यपद्धति ऐसी है कि उसने इसे साध लिया है। संचार और संवाद की दुनिया में बेहद आत्मीय, व्यक्तिगत संवाद ही संघ की शैली है। जहां व्यक्ति से व्यक्ति का संपर्क सबसे प्रभावी और स्वीकार्य है। इसमें दो राय नहीं कि इन सौ सालों में संघ के अनेक स्वयंसेवक समाज में प्रभावी स्थिति में पहुंचें तो अनेक सत्ता के शिखरों तक भी पहुंचे। अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवानी और नरेंद्र मोदी इसमें शिखर तक पहुंचे लोग हैं। इसके अलावा एक लंबी श्रृंखला है जिनकी प्रेरणा संघ है। जिनके जीवन में भी संघ है। संघ का प्रशिक्षण न केवल वैचारिक स्पष्टता देता है, बल्कि संगठनात्मक अनुशासन, जनसंपर्क कौशल और सेवा भाव भी समाहित करता है। यही कारण है कि संघ से निकले नेता राजनीतिक दृष्टि से अधिक प्रभावशाली, अनुशासित और संगठन-निष्ठ होते हैं। संघ के स्वयंसेवकों के सक्रिय सहभाग से समाज जीवन के हर क्षेत्र में अब नीतियों के निर्माण और क्रियान्वयन में परिर्वतन दिखने लगा है। इसे बदलाव की राजनीति कहते हैं। जबकि सत्ता राजनीति के मार्ग अलहदा हैं। स्वदेशी, आत्मनिर्भरता, धार्मिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्रवाद जैसे विषय संघ के लंबे समय से पोषित विचार रहे हैं, जिन्हें अब सरकारी नीतियों में प्राथमिकता मिलती दिखती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 हटाना, और समान नागरिक संहिता जैसे निर्णय संघ की वैचारिक दिशा को ही प्रकट करते हैं। इसमें कई कार्य लंबे आंदोलन के बाद संभव हुए। लोकजागरण की यह शैली संघ का लोकसंपर्क भी बताती है। किसी विषय को समाज में ले जाना और उसे स्थापित करना। फिर सरकारों के द्वारा उस पर पहल करना। लोकतंत्र को सशक्त करती यह परंपरा संघ ने अपने विविध संगठनों के साथ मिलकर स्थापित की है। संघ की प्रतिनिधि सभाओं में विविध मुद्दों पर पास प्रस्ताव बताते हैं कि संघ की राष्ट्र की ओर देखने की दृष्टि क्या है। ये प्रस्ताव हमारे समय के संकटों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखते हुए राह भी बताते हैं। अनेक बार संघ पर यह आरोप लगते हैं कि वह राजनीति को नियंत्रित करना चाहता है। किंतु विरोधी इसके प्रमाण नहीं देते। संघ का विषय प्रेरणा और मार्गदर्शन तक सीमित है। संघ की पूरी कार्यशैली में संवाद,संदेश और सुझाव ही हैं, चाहे वह सरकार किसी की भी हो। अपने वैचारिक हस्तक्षेप, प्रतिनिधि सभा के प्रस्तावों और सकारात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से संघ ने समाज की बातों को ही सत्ता प्रतिष्ठानों के सामने रखा है। जिनमें कई बार सकारात्मक उत्तर आते हैं, तो कई बार कुछ मुद्दे उपेक्षित हो जाते हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में संघ के स्वयंसेवकों की संख्या काफी है। जाहिर है भाजपा की सरकारों से स्वयंसेवकों की अपेक्षाएं भी ज्यादा रहती हैं। किंतु सरकारों के दैनिक कार्य में हस्तक्षेप के बजाए संघ सिर्फ वैचारिक और राष्ट्रहित के मुद्दों पर अपनी बात सार्वजनिक रूप से रखता है। कई बार शासकीय स्तर पर, नीतियों के स्तर पर उन्हें सुना भी जाता है। इसे सत्ता पर दबाव के बजाए प्रेरणा और परस्पर सहमति के रूप में देखा जाना चाहिए।

  संघ राजनीति में आदर्शवादी कैडर और संस्कारी नेतृत्व का निर्माण करता हुआ दिखता है। उसकी विचारधारा राष्ट्रवादी,अनुशासित और निःस्वार्थ सेवा पर आधारित है। सत्ता में उसके स्वयंसेवकों के रहते हुए भी संघ का जोर सामाजिक सेवा, पारिवारिक मूल्यों और सांस्कृतिक पुनरुत्थान पर रहता है। अनेक मुद्दों पर जैसे आर्थिक नीति, उदारवादी वैश्वीकरण की दिशा पर संघ ने हमेशा अपनी अलग राय व्यक्त की है। संघ इस तरह सत्ता राजनीति की मजबूरियों को समझते हुए भी उनकी हर बात से सहमत नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय राजनीति में एक वैकल्पिक वैचारिक धारा का निर्माण किया है। उसने हिंदुत्व आधारित राष्ट्रीय भाव को मुख्यधारा में स्थापित किया है और अपनी सांगठनिक शक्ति से भारतीय राजनीति को नई दिशा दी है। समाज की सज्जनशक्ति को एकत्र कर उनसे संवाद बनाते हुए लोकजागरण का काम भी किया है। एक जागृत समाज कैसे निष्क्रियता छोड़कर सजग और सक्रिय हस्तक्षेप करे, यह संघ के निरंतर प्रयास हैं। पंच परिवर्तन का संकल्प इसी को प्रकट करता है।

        संघ भले ही स्वयं राजनीति में न हो, पर राजनीति पर उसके विचारों का गहरा प्रभाव परिलक्षित होने लगा है। राजनीतिक दलों में भी संघ पर टीका करने की होड़ दिखती है। जबकि संघ अपने ऊपर लगने वाले निरंतर मिथ्या आरोपों पर भी प्रायः खामोश रहता है। क्योंकि राजनीति के द्वारा उठाए जा रहे प्रश्नों का उत्तर देकर वह घटिया राजनीति का हिस्सा नहीं बनना चाहता। आज समाज जीवन में भी संघ को जानने की भूख है। लोग संघ से जुड़कर भारत का भविष्य गढ़ना चाहते हैं। इसलिए एक वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं-

भारत को जानो, भारत को मानो

भारत के बने, भारत को बनाओ।

   यह बदला हुआ समय संघ के लिए अवसर भी है और परीक्षा भी। उम्मीद की जानी कि संघ अपने शताब्दी वर्ष में ज्यादा सरोकारी भावों से भरकर सामाजिक समरसता, राष्ट्रबोध जैसे विषयों पर समाज में परिवर्तन की गति को तेज कर पाएगा। संघ के अनेक पदाधिकारी इसे ईश्वरीय कार्य मानते हैं।  जाहिर है उनके संकल्पों से भारत मां एक बार फिर जगद्गुरू के सिंहासन के विराजेगी, ऐसा विश्वास स्वयंसेवकों की संकल्प शक्ति को देखकर सहज ही होता है।

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: रचना ,सृजन और संघर्ष के सौ साल

                                                                       -प्रो.संजय द्विवेदी



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भारतीय समाज के पुनर्गठन की वह प्रयोगशाला है, जो विचार, सेवा और अनुशासन के आधार पर एक सांस्कृतिक राष्ट्र का निर्माण कर रही है। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की अनोखी भारतीय दृष्टि से उपजा यह संगठन आज अपनी शताब्दी के द्वार पर खड़ा है। यह केवल संगठन विस्तार की नहीं, बल्कि भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक पुनरुत्थान की एक अनवरत यात्रा है।

सौ वर्षों की इस साधना में संघ और इसके स्वयंसेवकों ने देश की चेतना को जाग्रत किया है। उन्होंने दिखाया कि न तो किसी सरकारी सहयोग की आवश्यकता होती है और न ही प्रचार के माध्यम से प्रसिद्धि की—यदि लक्ष्य पवित्र हो, मार्ग अनुशासित हो और कार्यकर्ता समर्पित हों।

सेवा: राष्ट्र के हृदय को स्पर्श करती संवेदना-

संघ के स्वयंसेवकों की सेवा-भावना समाज के सबसे वंचित वर्गों तक पहुंचती है। गिरिजनों और वनवासियों से लेकर महानगरों की झुग्गी बस्तियों तक, संघ प्रेरित संगठन—जैसे सेवा भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, एकल विद्यालय, राष्ट्र सेविका समिति और आरोग्य भारती—अखंड सेवा के भाव से कार्यरत हैं।

इन संस्थाओं का उद्देश्य केवल राहत पहुंचाना नहीं, बल्कि लोगों को आत्मनिर्भर, शिक्षित और संस्कारित बनाना है। सेवा, संघ के लिए कर्मकांड नहीं, जीवनधर्म है—जो मानवता को जोड़ता है, पोषित करता है और राष्ट्र के लिए भावनात्मक एकता निर्मित करता है।

शिक्षा: मूल्यबोध से युक्त राष्ट्रनिर्माण

संघ ने प्रारंभ से ही यह अनुभव किया कि एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है, जो केवल ज्ञान नहीं, बल्कि संस्कार दे। इस विचार की परिणति विद्या भारती के रूप में हुई। देश भर में फैले इसके विद्यालयों में लाखों छात्र न केवल आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति, नैतिकता और राष्ट्रबोध की गंगोत्री में स्नान भी कर रहे हैं।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) ने छात्र राजनीति में एक नई संस्कृति का प्रारंभ किया। ‘शिक्षक अध्यक्ष’ की परंपरा, ‘शैक्षिक परिवार’ का विचार और संगठन के कार्यों में राष्ट्र के प्रति समर्पण—ये सब अभाविप को विशिष्ट बनाते हैं।

शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, भारतीय शिक्षण मंडल और अखिल भारतीय शैक्षिक महासंघ जैसे संगठनों ने शिक्षा नीति निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 संघ प्रेरित वैचारिक चेतना का मूर्त रूप मानी जा सकती है।

विविध क्षेत्रों में राष्ट्र की पुनर्रचना

संघ का कार्यक्षेत्र अत्यंत व्यापक है। समाज जीवन के प्रत्येक आयाम में उसकी सृजनात्मक उपस्थिति देखी जा सकती है। उपभोक्ता हितों की रक्षा हेतु अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत, साहित्यिक जगत में हस्तक्षेप करती अखिल भारतीय साहित्य परिषद, और कला-संस्कृति को संवारती संस्कार भारती—संघ की इस बहुआयामी दृष्टि की प्रतीक हैं।

भारत विकास परिषद, लघु उद्योग भारती, भारतीय किसान संघ, सहकार भारती, स्वदेशी जागरण मंच भारत के सशक्तिकरण, स्वदेशी चेतना और किसान कल्याण को समर्पित हैं। ये सभी संगठन संघ की उस मूल भावना को मूर्त करते हैं, जो कहती है कि परिवर्तन केवल सरकार से नहीं, समाज से होता है। राम मंदिर निर्माण के माध्यम से विश्व हिन्दू परिषद ने अभूतपूर्व लोक जागरण किया। इस ऐतिहासिक जनांदोलन ने भविष्य के भारत की आधारशिला रखी। जाति,पंथ, भाषा से ऊपर उठकर चले इस महाभियान ने स्व.अशोक सिंहल जैसा नायक दिया, जिसने समाज और संत शक्ति के समन्वय से समरसता की धारा को तेज गति से प्रवाहित किया। एक तरफ जहां राजनीतिक दल समाज को तोड़ने में जुटे हैं विहिप समाज के एकीकरण और एकात्म भाव को लेकर सक्रिय है।

श्रमिक और छात्र आंदोलनों का नया विमर्श

संघ ने श्रमिक आंदोलन को संघर्ष की नहीं, संवाद और संगठन की दिशा दी। भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) इसकी जीवंत मिसाल है। दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे विचारकों के मार्गदर्शन में बीएमएस देश का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन बना, जिसने मज़दूरों को राष्ट्र निर्माण का सहभागी बनाने का कार्य किया।

अभाविप ने भी छात्र आंदोलनों में अनुशासन, विचार और सकारात्मक हस्तक्षेप की एक नई परंपरा शुरू की। छात्र और शिक्षक का परस्पर सहयोग, शिक्षा में नवाचार और राष्ट्रवादी चिंतन—अभाविप ने इसे एक आंदोलन का रूप दिया।

समावेशी दृष्टिकोण: भारत के विविध समाज का एकीकरण

संघ को प्रायः अल्पसंख्यक विरोधी कहा गया, किंतु इसके विपरीत संघ ने राष्ट्र को धर्म और जाति की संकीर्णताओं से ऊपर रखकर देखा है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के भाव के साथ संघ ने मुस्लिम समाज के साथ संवाद और समरसता को बल दिया।

राष्ट्रीय मुस्लिम मंच इसका मूर्त उदाहरण है, जहां मुस्लिम समुदाय के कई जागरूक सदस्य देश और संस्कृति के साथ जुड़कर रचनात्मक कार्य कर रहे हैं। इसी प्रकार राष्ट्रीय सिख संगत ने सिख और हिंदू समाज के बीच भेद बनाने के लिए खींची गई रेखाओं को मिटाने का कार्य किया है।

संघ की दृष्टि में भारत केवल एक भूखंड नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक जीवित सत्ता है, जिसमें प्रत्येक नागरिक का स्थान है—चाहे उसकी जाति, पंथ या भाषा कोई भी हो।

राजनीति से ऊपर, राष्ट्रनीति की प्रेरणा

संघ का मूल कार्यक्षेत्र राजनीति नहीं है, परंतु उसके स्वयंसेवकों ने राजनीति में प्रवेश कर उसे मूल्यनिष्ठा, सेवा और राष्ट्रधर्म से जोड़ा है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी जैसे नायक संघ की विचारभूमि से निकले तपस्वी हैं, जिन्होंने राजनीति को राष्ट्रसेवा का माध्यम बनाया।

भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से संघ की राष्ट्रवादी विचारधारा को राजनीतिक मंच मिला, जिसने भारत की राजनीतिक संस्कृति को स्थायित्व, उद्देश्य और राष्ट्रबोध प्रदान किया।

शाखा: संगठन का मूल बीज

संघ की सबसे विशिष्ट विशेषता उसकी ‘शाखा’ है। यह केवल दिनचर्या का अनुशासन नहीं, बल्कि व्यक्तित्व निर्माण और समाज संगठन की पाठशाला है। यहां खेल, योग, गीत, व्याख्यान और अभ्यास के माध्यम से राष्ट्रप्रेम, सेवा और अनुशासन के बीज रोपे जाते हैं।

शाखा का वातावरण सामाजिक समरसता का भी प्रतीक है—जहां जाति, वर्ग, भाषा और आयु का भेद नहीं होता। सभी स्वयंसेवक एक समान भाव से भारतमाता की सेवा के लिए कटिबद्ध होते हैं।

भारत की आत्मा का जागरण

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक वैचारिक आंदोलन है। उसने दिखाया है कि संगठन, विचार और समर्पण के बल पर समाज को बदला जा सकता है, और राष्ट्र का नव निर्माण संभव है।

संघ की यात्रा सेवा से समरसता तक, अनुशासन से राष्ट्रधर्म तक और शाखा से संसद तक—हर पड़ाव पर भारत की आत्मा को जागृत करती है। वह भारत को केवल एक राजनीतिक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक चेतना के रूप में स्थापित करना चाहता है।

संघ के कार्य को कोई चाहे जितना विरोध करे, किंतु उसकी राष्ट्रनिष्ठा, सेवा भावना और समर्पण को नकारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि विरोधी भी व्यक्तिगत रूप से संघ के कार्यों की प्रशंसा करते हैं, और कहीं-न-कहीं उससे प्रेरित भी होते हैं।

संघ की शताब्दी यात्रा भारत की उस यात्रा का प्रतीक है, जो हजारों वर्षों की सभ्यता, संस्कृति और साधना का प्रतिफल है। यह यात्रा निरंतर चल रही है—भारत के निर्माण, उत्थान और पुनः विश्वगुरु बनने की दिशा में।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान- आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं।)

शुक्रवार, 9 मई 2025

तानाशाह नहीं हैं मोदी !

 

आलोचकों की परवाह न कर अपनी राह चलते हैं प्रधानमंत्री

-प्रो.संजय द्विवेदी

 


          प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कुछ तो खास है कि वे अपने विरोधियों के निशाने पर ही रहते हैं। इसका खास कारण है कि वे अपनी विचारधारा को लेकर स्पष्ट हैं और लीपापोती, समझौते की राजनीति उन्हें नहीं आती। राष्ट्रहित में वे किसी के साथ भी चल सकते हैं, समन्वय बना सकते हैं, किंतु विचारधारा से समझौता उन्हें स्वीकार नहीं है। उनकी वैचारिकी भारतबोध, हिंदुत्व के समावेशी विचारों और भारत को सबसे शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की अवधारणा से प्रेरित है। यह गजब है कि पार्टी के भीतर अपने आलोचकों पर भी उन्होंने कभी अनुशासन की गाज नहीं गिरने दी,यह अलग बात है कि उनके आलोचक राजनेता ऊबकर पार्टी छोड़ चले जाएं। उन्हें विरोधियों को नजरंदाज करने और आलोचनाओं पर ध्यान न देने में महारत हासिल है। इसके उलट पार्टी से नाराज होकर गए अनेक लोगों को दल में वापस लाकर उन्हें सम्मान देने के अनेक उदाहरणों से मोदी चकित भी करते हैं।

        किसी व्यक्ति की लोकतांत्रिकता उसकी अपने दल के साथियों से किए जा रहे व्यवहार से आंकी जाती है। मोदी यहां चौंकाते हुए नजर आते हैं। वे दल के सर्वोच्च नेता हैं किंतु उनका व्यवहार आलाकमान सरीखा नहीं है। आप उन्हें तानाशाह भले कहें, किंतु तटस्थ विश्लेषण से पता चलता है कि 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद आजतक उनकी आलोचना करने वाले अपने किसी साथी के विरूद्ध उन्होंने कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होने दी। कल्पना करें कि किसी अन्य दल में अपने आलाकमान या सर्वोच्च नेता की आलोचना करने वाला व्यक्ति कितनी देर तक अपनी पार्टी में रह सकता है। नरेंद्र मोदी यहां भी रिकार्ड बनाते हैं। जबकि भाजपा में अनुशासन को लेकर कड़ी कारवाईयां होती रही हैं। भाजपा और जनसंघ के दिग्गज नेताओं में शामिल रहे बलराज मधोक से लेकर कल्याण सिंह, उमा भारती, बाबूलाल मरांडी, बीएस येदुरप्पा जैसे दिग्गजों पर कार्रवाइयां हुई हैं, तो गोविंदाचार्य पर भी एक कथित बयान को लेकर गाज गिरी। उन्हें अध्ययन अवकाश पर भेजा गया, जहां से आजतक उनकी वापसी नहीं हो सकी है। मोदी का ट्रैक अलग है। वे आलोचनाओं से घबराते नहीं और पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की छूट देते हुए अपने आलोचकों को भरपूर अवसर देते हैं।

         यह कहा जा सकता है कि मोदी आलोचनाओं के केंद्र में रहे हैं, इसलिए इसकी बहुत परवाह नहीं करते हैं। वे कहते भी रहे हैं कि उनके निंदक जो पत्थर उनकी ओर फेंकते हैं, उससे वे अपने लिए सीढ़ियां तैयार कर लेते हैं। 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद पार्टी के भीतर भी उनके आलोचकों और निंदकों की पूरी फौज सामने आती है, जो तमाम मुद्दों पर उन्हें घेरती रही है। आश्चर्यजनक रूप से मोदी उनके विरूद्ध पार्टी के अनुशासन तोड़ने जैसी कार्यवाही भी नहीं होने देते हैं। इसमें पहला नाम गाँधी परिवार से आने वाले वरूण गांधी का है, जिन्हें भाजपा ने सत्ता में आने के बाद संगठन में महासचिव का पद दिया। वे सांसद भी चुने गए। किंतु पार्टी संगठन में उनकी निष्क्रियता से महासचिव का पद चला गया और वे मोदी के मुखर आलोचक हो गए। अपने बयानों और लेखों से मोदी को घेरते रहे। बावजूद इसके न सिर्फ उनको 2019 में भी लोकसभा का टिकट मिला, बल्कि आज भी वे पार्टी के सदस्य हैं। खुलेआम आलोचनाओं और अखबारों में लेखन के बाद भी उन्हें आज तक एक नोटिस तक पार्टी ने नहीं दिया है। हां, इस बार वे टिकट से जरूर वंचित हो गए। उनकी जगह कांग्रेस से आए जितिन प्रसाद को पीलीभीत से लोकसभा का टिकट मिल गया। जतिन जीत भी गए।

        दूसरा उदाहरण फिल्म अभिनेता और अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे शत्रुध्न सिन्हा का है। सिन्हा मोदी के मुखर आलोचक रहे और समय-समय पर सरकार पर टिप्पणी करते रहे। अंततः वे भाजपा छोड़कर पहले कांग्रेस, फिर तृणमूल कांग्रेस में चले गए। अब वे आसनसोल से तृणमूल के सांसद हैं। यही कहानी पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा की है। उन्होंने भी मोदी विरोधी सुर अलापे और अंततः पार्टी छोड़कर चले गए। उनके पार्टी छोड़ने के बाद भी उनके बेटे जयंत सिन्हा को 2019 में भाजपा ने लोकसभा की टिकट दी। जयंत सिन्हा मोदी सरकार में मंत्री भी रहे। इस बार जयंत का टिकट कट गया। ऐसे ही उदाहरणों में क्रिकेटर कीर्ति आजाद भी हैं। मोदी सरकार के विरूद्ध उनके बयान चर्चा में रहे, संप्रति वे तृणमूल कांग्रेस के साथ हैं।

      लेखक और दिग्गज पत्रकार अरूण शौरी, अटल जी की सरकार में मंत्री रहे। उनका बौद्धिक कद बहुत बड़ा है। एक इंटरव्यू में अरुण शौरी ने कहा कि नरेंद्र मोदी के बारे में उनके अधिकारी ही मुझे कहते हैं कि उनके सामने बोल नहीं सकते। मंत्री डरे हुए रहते हैं। कोई कुछ बोल नहीं पाता है उनके सामने। उनके सामने जाने और कुछ भी कहने से पहले लोग डरे रहते हैं और सोच समझकर बोलते हैं। हालांकि अटल जी की पर्सनालिटी ऐसी थी कि लोग उनसे अपनी बात कहना चाहते थे और वह सुनते भी थे। उनकी एक खास बात यह भी थी कि वह भी यह जानना चाहते थे कि लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। वह पूछा करते थे और लोग बिना किसी डर के बताते भी थे। तीखी आलोचनाओं के बाद भी मोदी का उनके प्रति सौजन्य कम नहीं हुआ और वे शौरी की बीमारी में उन्हें देखने अस्पताल जा पहुंचे और उनके परिजनों से भी मुलाकात की। अरुण शौरी और पीएम मोदी के रिश्तों में उस समय सबसे ज्यादा खटास देखी गई, जब अरुण शौरी यशवंत सिन्हा के साथ राफेल मामले को सुप्रीम कोर्ट लेकर पहुंच गए। यहां पर उन्होंने मामले की जांच और सौदे पर सवाल उठाए थे । हालांकि सुप्रीम कोर्ट में सरकार को क्लीन चिट मिल गई। रिश्तों में आई खटास के बावजूद भी पीएम मोदी ने पुणे स्थित अस्पताल में अरूण शौरी से मुलाकात की। इस मुलाकात के फोटो शेयर करते हुए लिखा- आज पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी जी से मुलाकात की और उनका हालचाल जाना। उनके साथ इस दौरान बहुत अच्छी बातचीत हुई। हम उनकी दीर्घायु और स्वस्थ्य जीवन की कामना करते हैं।

       अपने तीखे तेवरों के चर्चित सुब्रमण्यम स्वामी कभी जनसंघ- भाजपा से जुड़े रहे। बाद में वे भाजपा से अलग होकर जनता पार्टी के अध्यक्ष बने। केंद्र में मंत्री भी बने। 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी ने स्वामी को राज्यसभा के लिए भेजा। स्वामी इससे कुछ अधिक चाहते थे। जाहिर है इन दिनों वे मोदी के प्रखर आलोचक बने हुए हैं। किंतु उनकी आलोचनाओं पर मोदी या भाजपा ने कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। एक साक्षात्कार में स्वामी ने कहा कि मैं बीजेपी का हिस्सा हूं...मैं इनके साथ लंबे समय से साथ हूं। मुझे पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी से भी दिक्कत थी लेकिन इतनी समस्या नहीं थी, जितनी कि पीएम नरेंद्र मोदी से है।

 भाजपा छोड़कर जा चुके पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान को वापस लाकर मोदी ने उन्हें केरल के राज्यपाल पद से नवाजा। राज्यपाल के पद पर बैठकर मोदी की आलोचना करते रहे सतपाल मलिक को भी प्रधानमंत्री पद से नहीं हटाते, बल्कि कार्यकाल पूरा करने का अवसर देते हैं। जबकि राज्यपाल एक संवैधानिक पद है और उस पद पर बैठे व्यक्ति को केंद्र सरकार की सार्वजनिक आलोचना से बचना चाहिए। किंतु सतपाल मलिक ऐसा करते रहे और मोदी उनकी सुनते रहे। इसी तरह झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी नाराज होकर पार्टी से बाहर थे और अपनी पार्टी बनाकर सक्रिय थे। भाजपा ने मोदी के कार्यकाल में न सिर्फ उनकी पार्टी में वापसी सुनिश्चित की बल्कि उन्हें झारखंड विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद भी दिया। नाराज होकर भाजपा दो बार छोड़ चुके कल्याण सिंह( अब स्वर्गीय) को राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया। उनके पुत्र राजबीर को लोकसभा की टिकट और पौत्र संदीप सिंह को उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री का पद मिला है। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री रहीं उमा भारती भी भाजपा के अनुशासन चक्र का शिकार रहीं। मोदी ने उन्हें अपनी सरकार में मंत्री बनाया और उनके साथ भाजपा छोड़कर गए प्रह्लाद सिंह पटेल मोदी सरकार में राज्यमंत्री बने। अब पटेल मध्यप्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। ये उदाहरण बताते हैं मोदी अपने लोगों के प्रति खासे उदार हैं। वे अपनी निजी आलोचना की बहुत परवाह नहीं करते और गांठ नहीं बांधते। निजी रिश्तों को राजनीति से ऊपर रखते हैं। वे शरद पवार के अभिनंदन समारोह में शामिल हो सकते हैं, मुलायम सिंह यादव के परिवार में आयोजित विवाह समारोह में भी इटावा भी जा सकते हैं। उनकी ताकत है कि वे कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ भाजपा की सरकार बनाने की अनुमति दे सकते हैं। राजनीतिक समझ-बूझ के साथ अपने वैचारिक आग्रहों पर डटे रहना मोदी की विशेषता है। इसलिए वे भारतीय राजनीति की पिच पर आज भी मजबूती से जमे हुए हैं।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान(आईआईएमसी), नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं।)

समान नागरिक संहिता से कौन डरता है?

 

-प्रो.संजय द्विवेदी



      इन दिनों एक देश-एक कानून का सवाल लोक विमर्श में हैं। राजनीतिक दलों से लेकर समाज में हर जगह इसे लेकर चर्चा है। संविधान निर्माताओं की यह भावना रही है कि देश में समान नागरिक कानून होने चाहिए। अब वह समय आ गया है कि हमें अपने राष्ट्र निर्माताओं की उस भावना का पालन करना चाहिए। इससे देश की आम जनता को शक्ति और संबल मिलेगा।

    हमारी आजादी के नायकों का एक ही स्वप्न था एकत्व। एकात्म भाव से भरे लोग। समता और समानता। इसे हमारे नायकों ने स्वराज कहा। यहां स्व बहुत खास है। स्वतंत्रता आंदोलन सिर्फ अंग्रेजी की विदाई और भारतीयों के राज्यारोहण के लिए नहीं था। अपने कानून, अपने नियम, अपनी भाषा, अपनी भूषा, अपना खानपान यानि इंडिया को भारत बनाना इसका लक्ष्य था। गुलामी के हर प्रतीक से मुक्ति इस आंदोलन का संकल्प था। इसलिए गांधी कह पाए- दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है। यह स्वत्व की राह हम भुला बैठे, बिसरा बैठे। देश एक सूत्र में जुड़ा रहे। समान अवसर और समान भागीदारी का स्वप्न साकार हो यह जरूरी है। लोकतंत्र इन्हीं मूल्यों से साकार होता है। भारत ने पहले दिन से अपने सभी नागरिकों को बिना भेद के मताधिकार का अधिकार दिया और सबके मत का मूल्य समान रखा। अब समय है कि हम इस मुख्य अधिकार की भावना का विस्तार करते हुए देश को एकात्म बनाएं। वह सब कुछ करें जिससे देश एक हो सकता है। एक सूत्र में बांधा जा सकता है। यही एकता और अखंडता की पहली शर्त है। समान नागरिक संहिता एक ऐसा संकल्प है जो भारतीयों को एक तल पर लाकर खड़ा कर देती है। यहां एक ही पहचान सबसे बड़ी है जो है भारतीय होना, और एक ही किताब सबसे खास है जो है हमारा संविधान। समान नागरिक संहिता दरअसल हमारे गणतंत्र को जीवंत बनाने की रूपरेखा है।

    हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के संस्थापकों ने उम्मीद जताई थी कि एक दिन राज्य समान नागरिक संहिता की अपेक्षाओं को पूरा करेंगे और नियमों का एक समान कानून प्रत्येक धर्म के रीति-रिवाजों जैसे- विवाह, तलाक आदि के अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों की जगह लेगा। यह भावना साधारण नहीं है। इस पर विवाद करना कहीं से भी उचित नहीं है। यह आजादी के आंदोलन के सपनों की दिशा में एक कदम है। वर्ष 1956 में हिंदू कानूनों को संहिताबद्ध कर दिया गया था, लेकिन देश के सभी नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने का गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। अब आवश्यक्ता इस बात की है कि हम देश को एक सूत्र में बांधने की दिशा में गंभीर प्रयास करें। यह बहुत सामयिक और उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड की राज्य सरकार ने इस दिशा में कदम उठाया है। हम देखें तो भारतीय संविधान के भाग 4 (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व) के तहत अनुच्छेद 44 के अनुसार कहा गया है कि भारत के समस्त नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता होगी। इसका व्यावहारिक अर्थ है कि, भारत के सभी पंथों के नागरिकों के लिये एक समान पंथनिरपेक्ष कानून बनना चाहिए।

     संविधान के संस्थापकों ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के माध्यम से इसको लागू करने की ज़िम्मेदारी बाद की सरकारों को हस्तांतरित कर दी थी। अब यह सरकारों की जिम्मेदारी थी कि वे इस ओर देश को ले जाते । राजनीतिक कारणों से हमारी सरकारों ने इस संकल्प की पूर्ति के लिए जिम्मेदारी नहीं दिखाई। आज आजादी के अमृतकाल में हम प्रवेश कर चुके हैं। आने वाले दो दशकों में हमें भारत को शिखर पर ले जाना है। अपने सब संकटों के उपाय खोजने हैं। हमें वो सूत्र भी खोजने हैं जिससे भारत एक हो सके। सब भारतीय अपने आपको समान मानें और कोई अपने आप को उपेक्षित महसूस न करे। लोकतंत्र इसी प्रकार की सहभागिता और सामंजस्य की मांग करता है।

     पंथ के आधार पर मिलने वाले विशेषाधिकार किसी भी समाज की एकता को प्रभावित करते हैं। इसके साथ ही समानता के संवैधानिक अधिकार की भी अपनी आकांक्षाएं हैं। हमें विचार करें तो पाते हैं कि मूल अधिकारों में विधि के शासन की अवधारणा साफ दिखती है लेकिन इन्हीं अवधारणाओं के बीच लैंगिक असमानता जैसी कुरीतियाँ भी व्याप्त हैं। विधि के शासन के अनुसार, सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये लेकिन स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी आबादी का बड़ा हिस्सा अपने मूलभूत अधिकारों के लिये संघर्ष कर रहा है। इस प्रकार समान नागरिक संहिता का लागू न होना एक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है। भारतीय जनता पार्टी ने आरंभ से ही समान नागरिक संहिता का वकालत की है। उसके प्रथम अध्यक्ष डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी( तब जनसंघ) ने एक देश में दो प्रधान, दो विधान और दो निशान के नाम पर अपना बलिदान दिया। ऐसे समय में एक बार देश ने भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को अवसर दिया है कि वे एक देश एक कानून की भावना के साथ आगे बढ़ें।

   हम देखें तो पाते हैं कि विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से संबंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु विधि आयोग का गठन किया गया। इसमें विधि आयोग ने कहा कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूलाधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है। हमें इन बातों से सबक लेते हुए महिलाओं के हक में यह फैसला लेना होगा ताकि पंथ के नाम पर जारी कानूनों से उन्हें बचाया जा सके। कोई भी कानून अगर भेदभावपूर्ण समाज बनाता है तो उसके औचित्य पर सवाल उठते हैं। कानून का एक ही सूत्र है समानता और भेदभाव विहीन समाज बनाना। जिसे प्रधानमंत्री नारे की शक्ल में सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास कहते हैं। यह तभी संभव हो जब कानून सबके साथ समान व्यवहार करे। किसी को विशेषाधिकार न दे। लोकतंत्र को मजबूती दे। देश को एकात्म भाव से एकजुट करे। उम्मीद की जानी चाहिए गोवा और उत्तराखंड जैसे राज्यों को बाद अब देश में भी यह कानून लागू होगा और हमारे सपनों में रंग भरने का काम करेगा। आज समान नागरिक संहिता का मुद्दा एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है, इसलिये जहाँ एक ओर कुछ राजनीतिक दल इस मामले के माध्यम से तुष्टिकरण का अभियान चला रहे हैं। जबकि दूसरी ओर कुछ राजनीतिक दल इस मुद्दे के माध्यम से पंथिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रहे हैं। इससे देश कमजोर होता है। समाज में विघटन होता है। हमारा संकल्प होना चाहिए कि हम जब विकसित भारत की ओर बढ़ रहे हैं, तब असमानता, गैरबराबरी सिर्फ आर्थिक स्तर पर नहीं कानूनी स्तर पर भी हटानी होगी। इसका एक मात्र विकल्प समान नागरिक संहिता है, इसमें दो राय नहीं है।

ब्रांड मोदी से चलती है विरोधियों की भी रोजी-रोटीः प्रो.संजय द्विवेदी

 

भारतीय जन संचार संस्थान(आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक प्रो.संजय द्विवेदी से वरिष्ठ पत्रकार आनंद सिंह की बातचीत-

 

प्रो.संजय द्विवेदी, भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नयी दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार, भोपाल के प्रभारी कुलपति और कुलसचिव भी रहे हैं। सक्रिय लेखक हैं और अब तक 35 पुस्तकें प्रकाशित। 14 साल की सक्रिय पत्रकारिता के दौरान कई प्रमुख समाचार पत्रों के संपादक रहे। संप्रति माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आचार्य और अध्यक्ष हैं। उनसे बातचीत की वरिष्ठ पत्रकार आनंद सिंह ने। प्रस्तुत है इस चर्चा के मुख्य अंश।




 

टीवी चैनलों और डिबेट्स में इन दिनों पाकिस्तान को लेकर जो कुछ भी चल रहा है, उसे आप कैसे देखते हैं?

कोई भी दृश्य माध्यम बहुत प्रभावशाली होता ही है। टीवी का भी असर है। उसके साथ आवाज और दृश्य का संयोग है। दृश्य माध्यमों की यही शक्ति और सीमा दोनों है। टीवी पर ड्रामा क्रियेट करना पड़ता है। स्पर्धा और आगे निकलने की होड़ में कई बार सीमाएं पार हो जाती हैं। यह सिर्फ भारत-पाक मामले पर नहीं है। यह अनेक बार होता है। जब मुद्दे नहीं होते तब मुद्दे खड़े भी किए जाते हैं। मैं मानता हूं कि इस मुद्दे पर चर्चा बहुत हो रही है, किंतु इसका बहुत लाभ नहीं है। हर माध्यम की अपनी जरूरतें और बाजार है, वे उसके अनुसार ही खुद को ढालते हैं। बहुत गंभीर विमर्श के और जानकारियों से भरे चैनल भी हैं। किंतु जब मामला लोकप्रियता बनाम गंभीरता का हो तो चुने तो लोकप्रिय ही जाते हैं। शोर में बहुत सी आवाजें दब जाती हैं, जो कुछ खास कह रही हैं। हमारे पास ऐसी आवाजें को सुनने का धैर्य और अवकाश कहां हैं?

क्या आप यह मानते हैं कि इस देश में ट्रेंड जर्नलिस्टों की घोर कमी है?

ट्रेनिंग से आपका आशय क्या है मैं समझ नहीं पाया। बहुत पढ़-लिखकर भी आपको एक व्यवस्था के साथ खड़ा होना पड़ता है। हम लोग जब टीवी में नौकरी के लिए गए तो कहा गया कि ये लेख लिखने वाले खालिस प्रिंट के लोग हैं टीवी में क्या करेंगें। किंतु हमने टीवी और उसकी भाषा को सीखा। हम गिरे या उन्नत हुए ऐसा नहीं कह सकते। हर माध्यम अपने लायक लोग खोजता और तैयार करता है। मैंने प्रिंट, डिजीटल और टीवी तीनों में काम किया। तीनों माध्यमों की जरूरतें अलग हैं। इसके साथ ही संस्थानों के चरित्र और उनकी जरूरतें भी अलग-अलग हैं। आप आकाशवाणी में जिस भाषा में काम करते हैं, वे बाजार में चल रहे एफएम रेडियो के लिए बेमतलब है। कोई ऐसी ट्रेनिंग नहीं जो आपको हर माध्यम के लायक बना दे। आप किसी एक काम को सीखिए उसी को अच्छे से करिए। जहां तक ट्रेंड जर्नलिस्ट की बात है, देश में बहुत अच्छे मीडिया के लोग हैं। बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। इतने बड़े देश, उसकी आकांक्षाओं, आर्तनाद, दर्द और सपनों को दर्ज करना बड़ी बात है, मीडिया के लोग इसे कर रहे हैं। अपने-अपने माध्यमों के अनुसार वे अपना कटेंट गढ़ रहे हैं। इसलिए मैं यह मानने को तैयार नहीं कि हमारे लोग ट्रेंड नहीं हैं।

क्या आप मानते हैं कि मीडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्र बिंदु मान कर पत्रकारिता कर रहा है? प्रो- मोदी, एंटी मोदी को क्या आप मानते हैं?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके समर्थकों के साथ उनके विरोधियों ने भी बनाया है। मोदी का नाम इतना बड़ा हो गया है कि उनके समर्थन या विरोध दोनों से आपको फायदा मिलता है। अनेक ऐसे हैं जो मोदी को गालियां देकर अपनी दुकान चला रहे हैं, तो अनेक उनकी स्तुति से बाजार में बने हुए हैं। इसलिए मोदी समर्थक और मोदी विरोधी दो खेमे बन गए हैं। यह हो गया है। समाज जीवन के हर क्षेत्र में यह बंटवारा दिखने लगा है। राजनीति, पत्रकारिता, शिक्षा, समाज सब जगह ये दिखेगा। इसमें अंधविरोध भी है और अंधसमर्थन भी । दोनों गलत है। किसी समाज में अतिवाद अच्छा नहीं। मैं यह मानता हूं कोई भी व्यक्ति जो देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा है वह सिर्फ गलत कर रहा है या उससे कोई भूल नहीं हो सकती, मैं इसे नहीं मानता। गुण और दोष के आधार पर समग्रता से विचार होना चाहिए। किंतु मोदी जी को लेकर एक अतिवादी दृष्टिकोण विकसित हो गया है। यहां तक कि मोदी विरोध करते-करते उनके विरोधी भारत विरोध और समाज विरोध तक उतर आते हैं। यह ठीक नहीं है।

 

कई यूट्यूब चैनल्स मोदी के नाम पर, चाहे विरोध हो अथवा प्रशंसा, लाखों रुपये कमाने का दावा करते हैं। क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि यूट्यूब हो या मीडिया का कोई और प्रकल्प, वहां मोदी ही हावी रहते हैं? यह स्वस्थ पत्रकारिता के लिए किस रुप में देखा जाएगा?

मैंने पहले भी कहा कि श्री नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व ऐसा है कि उन्होंने अपने विरोधियों और समर्थकों दोनों को रोजगार दे रखा है। उनका नाम लेकर और उन्हें गालियां देकर भी अच्छा व्यवसाय हो सकता है, यही ब्रांड मोदी की ताकत है। आपने कहा कि मोदी हावी रहते हैं, क्या मोदी ऐसा चाहते हैं? आखिर कौन व्यक्ति होगा कि जो गालियां सुनना चाहता है। किसी का अंधविरोध अच्छी पत्रकारिता नहीं है। यह सुपारी पत्रकारिता है। एक व्यक्ति जिसने अपनी जिंदगी के पचास वर्ष सार्वजनिक जीवन में झोंक दिए। जिसके ऊपर भ्रष्टाचार, परिवारवाद का कोई कलंक नहीं है। उसके जीवन में कुछ लोगों को कुछ भी सकारात्मक नजर नहीं आता तो यह उनकी समस्या है। नरेंद्र मोदी को इससे क्या फर्क पड़ता है। वे गोधरा दंगों के बाद वैश्विक मीडिया के निशाने पर रहे , खूब षड़यंत्र रचे गए पर आज उनके विरोधी कहां हैं और वे कहां हैं आप स्वयं देखिए।

 

अनेक चैनलों पर आपने अब संघ की विचारधारा के लोगों को प्राइम टाइम में डिस्कस करते देखा होगा। क्या आप मानते हैं कि देश का मिजाज बनाने के क्रम में संघ मीडिया में घुसपैठ करने में कामयाब हुआ है?

आमतौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रचार से दूर रहता है। उनके लोगों में छपने और टीवी पर दिखने की वासना मैंने तो नहीं देखी। जो लोग संघ की ओर से चैनलों पर बैठते हैं, वे संघ के अधिकृत पदाधिकारी नहीं हैं। संघ के विचार के समर्थक हो सकते हैं। इसे घुसपैठ कहना ठीक नहीं। संघ दुनिया के सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन है। उसके विचारों पर चलने वाले दो दर्जन से अधिक संगठनों की आज समाज में बड़ी भूमिका है। यह भी सच है कि प्रधानमंत्री सहित उसके अनेक स्वयंसेवक आज मंत्री, सांसद,विधायक और मुख्यमंत्री हैं। ऐसे में समाज और मीडिया दोनों की रुचि यह जानने में है कि संघ की सोच क्या है। लोग इस बारे में जानना चाहते हैं। संघ की रुचि मीडिया में छा जाने की नहीं है। समाज की रुचि संघ को जानने की है। इसलिए कुछ संघ को समझने वाले लोग चैनलों पर अपनी बात कहते हैं। मुझे जहां तक पता है कि संघ इस प्रकार की चर्चाओं, विवादों और वितंडावाद में रुचि नहीं रखता। उसका भरोसा कार्य करने में है, उसका विज्ञापन करने में नहीं।

 

हाल ही में आपने एक खबर पढ़ी होगी कि संघ प्रमुख मोहन भागवत पहली बार पीएमओ बुलाए गये और प्रधानमंत्री से उनकी लंबी बातचीत हुई। युद्ध की आशंका से घिरे इस देश में भागवत का मोदी से मिलना क्या संकेत देता है?

देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन के मुखिया का प्रधानमंत्री से मिलना जरूर ऐसी बात है जिसकी चर्चा होगी ही। पिछले महीने भी नागपुर संघ मुख्यालय में जाकर प्रधानमंत्री ने सरसंघचालक से मुलाकात की थी। यह बहुत सहज है। उनकी क्या बात हुई, इसे वे दोनों ही बता सकते हैं। पर मुलाकात में गलत क्या है। संवाद तो होना ही चाहिए।

 

सक्रिय पत्रकारिता में एक तथ्यात्मक फर्क ये देखने को मिल रहा है कि फील्ड के संवाददाता बहुधा अब फील्ड में कम ही जाते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मेरे पास हैं। यह पत्रकारिता, खास कर हिंदी पत्रकारिता को कितना डैमेज कर रहे हैं?

यह सही है कि मैदान में लोग कम दिखते हैं। मौके पर जाकर रिपोर्ट करने का अभ्यास कम दिखता है। इसके दो कारण हैं। पहला है सोशल मीडिया जिसके माध्यम से कम्युनिकेशन तुरंत हो जाता है। घटना के खबर, फोटो, इंटरव्यू आपके पहुंचने से पहले आ जाते हैं। सूचनाओं को भेजने की प्रक्रिया सरल और सहज हो गयी है। बातचीत करना आसान है। आप कहीं से भी किसी से भी बात कर सकते हैं। दूसरा यह है कि मीडिया बहुत बढ़ गया है। हर कस्बे तक मीडिया के लोग हैं। हो सकता है वे वेतनभोगी न हों, पर पत्रकार तो हैं। खबरें, वीडियो सब भेजते हैं। सो चीजें कवर हो रही हैं। ग्रामीण, जिला स्तर पर कवरेज का दायरा बहुत बढ़ा है। जिलों-जिलों के संस्करण और टीवी चैनलों के राज्य संस्करण आखिर खबरें ही दिखा रहे हैं। यह सही बात है कि पहले की तरह राजधानियों के संवाददाता, बड़े शहरों मे विराजे पत्रकार अब हर बात के लिए दौड़ नहीं लगाते, तब जबकि बात बहुत न हो। अभी जैसे पहलगाम हमला हुआ तो देश के सारे चैनलों के स्टार एंकर मैदान में दिखे ही। इसलिए इसे बहुत सरलीकृत करके नहीं देखना चाहिए। मीडिया की व्यापकता को देखिए। उसके विस्तार को देखिए। उसके लिए काम कर रहे अंशकालिक पत्रकारों की सर्वत्र उपस्थिति को भी देखिए।

 

हिंदी अथवा अंग्रेजी या उर्दू, किसी भी अखबार को उठाएं, सत्ता वर्ग की चिरौरीनुमा खबरों से आपके दिन की शुरुआत होती है। क्या आप इस तथ्य में यकीन करते हैं कि हर रोज का अखबार सरकार के लिए चेतावनी भरे स्वर में शीर्षकयुक्त होने चाहिए, ना कि चिरौरी में?

मैं नहीं जानता आप कौन से अखबार की बात कर रहे हैं। मुझे इतना पता है कि 2014 से कोलकाता का टेलीग्राफ क्या लिख रहा है। हिंदू क्या लिख रहा है। मुख्यधारा के अन्य अखबार क्या लिख रहे हैं। देश का मीडिया बहुत बदला हुआ है। यह वह समय नहीं कि महीने के तीस दिनों में प्रधानमंत्री की हेडलाइंस बने। राजनीतिक खबरें भी सिकुड़ गयी हैं। पहले पन्ने पर क्या जा रहा है, ठीक से देखिए। पूरे अखबार में राजनीतिक खबरें कितनी हैं, इसे भी देखिए। मुझे लगता है कि हम पुरानी आंखों से ही आज की पत्रकारिता का आकलन कर रहे हैं। आज के अखबार बहुत बदल गए हैं। वे जिंदगी को और आम आदमी की जरूरत को कवर कर रहे हैं। देश के बड़े अखबारों का विश्लेषण कीजिए तो सच्चाई सामने आ जाएगी।

 

एक नया ट्रेंड यह चला है कि आपने सत्तापक्ष को नाराज करने वाली खबरें लिखीं नहीं कि आपका विज्ञापन बंद। फिर बड़े-बड़े संपादक-प्रबंधक-दलाल सरकार के मुखिया से दो वक्त का टाइम लेने के लिए मुर्गा तक बन जाते हैं। आखिर ऐसे अखबारों पर लोग यकीन करें तो कैसे और क्या जनता को ऐसे अखबारों को आउटरेट रिजेक्ट नहीं कर देना चाहिए?

सत्ता को मीडिया के साथ उदार होना चाहिए। अगर सरकारें ऐसा करती हैं तो गलत है। मीडिया को सत्ता के आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता रखना ही चाहिए। यही हमारी भूमिका है। मैंने देश भर की पत्र-पत्रिकाओं का देखता हूं। मैंने ऐसी पत्र-पत्रिकाओं में उत्तर-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश सरकार के विज्ञापन लगातार देखे हैं जिन्होंने मोदी और योगी की सुपारी ले रखी है। मीडिया अपना काम कर रहा है, उसे करने दीजिए। मीडिया को सताने के मामले में स्वयं को बहुत लोकतांत्रिक कहलाने वाली राज्य सरकारों का चरित्र और व्यवहार क्या रहा है, मुझसे मत कहलवाइए।

इन दिनों आपको म्यूजिक सुनने का मौका मिल पाता है? पसंदीदा गायक कौन हैं?

संगीत तो जीवन है। मेरे सुनने में बहुत द्वंद्व है या तो गजल सुनता हूं या फिर भजन। जगजीत सिंह की आवाज दिल के बहुत करीब है। फिर मोहम्मद ऱफी मुकेश भी कम नहीं। लता जी के तो क्या कहने। सब रूह को छू लेने वाली आवाजें हैं। शनिवार और मंगलवार सुंदरकांड भी सुनता हूं।  

 

आखिरी मर्तबा आपने कौन सी पुस्तक पूरी पढ़ी? क्या हासिल हुआ आपको?

देश के प्रख्यात पत्रकार, समाज चिंतक और विचारक श्री रामबहादुर राय की किताब भारतीय संविधानएक अनकही कहानी मैंने पढ़ी है। जिसने संविधान से जुड़े तमाम सवालों को फिर से चर्चा में ला दिया है।  पद्मश्री से अलंकृत और जनांदोलनों से जुड़े रहे श्री रामबहादुर राय की यह किताब कोरोना काल के विषैले और कड़वे समय के वैचारिक मंथन से निकला अमृत है। आजादी का अमृतकाल हमारे राष्ट्र जीवन के लिए कितना खास समय है, इसे कहने की जरूरत नहीं है। किसी भी राष्ट्र के जीवन में 75 साल वैसे तो कुछ नहीं होते, किंतु एक यात्रा के मूल्यांकन के लिए बहुत काफी हैं। वह यात्रा लोकतंत्र की भी है, संविधान की भी है और आजाद व बदलते हिंदुस्तान की भी है। आजादी और विभाजन दो ऐसे सच हैं जो 1947 के वर्ष को एक साथ खुशी और विषाद से भर देते हैं। दो देश, दो झंडे, विभाजन के लंबे सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक असर से आज भी हम मुक्त कहां हो पाए हैं। आजादी हमें मिली किंतु हमारे मनों में अंधेरा बना रहा। विभाजन ने सारी खुशियों पर ग्रहण लगा दिए। इन कहानियों के बीच एक और कहानी चल रही थी, संविधान सभा की कहानी। देश के लिए एक संविधान रचने की तैयारियां। कांग्रेस- मुस्लिम लीग के मतभेदों को बीच भी आजाद होकर साथ-साथ जीने वाले भारत का सपना तैर रहा था। वह सच नहीं हो सका, किंतु संविधान ने आकार लिया। अपनी तरह से और हिंदुस्तान के मन के मुताबिक। संविधान सभा की बहसों और संविधान के मर्म को समझने के लिए सही मायने में यह किताब अप्रतिम है। यह किताब एक बड़ी कहानी की तरह धीरे-धीरे खुलती है और मन में उतरती चली जाती है। किताब एक बैठक में उपन्यास का आस्वाद देती हैतो पाठ-दर पाठ पढ़ने पर कहानी का सुख देती है। यह एक पत्रकार की ही शैली हो सकती है कि इतने गूढ़ विषय पर इतनी सरलता से, सहजता से संचार कर सके। संचार की सहजता ही इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है।

     इस क्रम में मैंने इतिहासकार सुधीरचंद्र की किताब गांधी एक असंभव संभावना को पढ़ा। इस किताब के शीर्षक ने सर्वाधिक प्रभावित किया। यह शीर्षक कई अर्थ लिए हुए हैजिसे इस किताब को पढ़कर ही समझा जा सकता है। 184 पृष्ठों की यह किताब गांधी के बेहद लाचार, बेचारे, विवश हो जाने और उस विवशता में भी अपने सत्य के लिए जूझते रहने की कहानी है। जाहिर तौर पर यह किताब गांधी की जिंदगी के आखिरी दिनों की कहानी बयां करती है। इसमें असंभव संभावना शब्द कई तरह के अर्थ खोलता है। गांधी तो उनमें प्रथम हैं ही, तो भारत-पाकिस्तान के रिश्ते भी उसके साथ संयुक्त हैं। ऐसे में यह मान लेने का मन करता है कि भारत-पाक रिश्ते भी एक असंभव संभावना हैंसामान्य मनुष्य इसे मान भी ले किंतु अगर गांधी भी मान लेते तो वे गांधी क्यों होते? मुझे लगा कि प्रत्येक विपरीत स्थिति और झंझावातों में भी अपने सच के साथ रहने और खड़े होने का नाम ही तो गांधी है।

 

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

वर्ष 2025 : मीडिया इंडस्ट्री के लिए अनंत संभावनाओं का दौर

 - प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी


वर्तमान युग में मीडिया इंडस्ट्री तीव्र गति से परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। तकनीकी प्रगति और उपभोक्ता व्यवहार में बदलाव के चलते, मीडिया और मनोरंजन के पारंपरिक स्वरूप में काफी परिवर्तन हुआ है। वर्ष 2024 ने इस बदलाव को और गति दी है, खासकर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) के बढ़ते प्रभाव के कारण। वर्ष 2025 की ओर देखते हुए, यह स्पष्ट है कि एआई, डिजिटल मीडिया और नई तकनीकों का प्रभाव मीडिया इंडस्ट्री की दिशा को और अधिक प्रभावित करेगा।

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के योगदान से मीडिया में क्रांति

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) ने मीडिया इंडस्ट्री में न केवल कार्यप्रणाली को सरल बनाया है, बल्कि नई संभावनाओं के द्वार भी खोले हैं। एआई के माध्यम से सामग्री निर्माण, उपभोक्ता डेटा का विश्लेषण और दर्शकों की पसंद का सटीक अनुमान लगाना अब आसान हो गया है। उदाहरणस्वरूप:

· सामग्री निर्माण और संपादन: एआई-संचालित उपकरण जैसे GPT मॉडल्स, डीपफेक टेक्नोलॉजी और इमेज जनरेशन प्लेटफॉर्म कंटेंट क्रिएटर्स के लिए समय और लागत बचाते हैं। न्यूज़ चैनल्स अब रियल-टाइम न्यूज़ अपडेट्स और अनुकूलित समाचार प्रस्तुति के लिए एआई-सक्षम वर्चुअल एंकर का उपयोग कर रहे हैं।

· डिजिटल विज्ञापन: एआई एल्गोरिदम उपभोक्ताओं की सर्च और ब्राउज़िंग आदतों का विश्लेषण करके व्यक्तिगत विज्ञापन तैयार करते हैं। इससे न केवल विज्ञापनदाता, बल्कि उपभोक्ता भी लाभान्वित होते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी पसंद का ही कंटेंट देखने को मिलता है।

· ऑडियंस इंगेजमेंट: चैटबॉट्स और वर्चुअल असिस्टेंट दर्शकों के सवालों का जवाब देकर और उनकी पसंद के कंटेंट का सुझाव देकर मीडिया कंपनियों की पहुंच और प्रभाव को बढ़ा रहे हैं।

एआई से जुड़ी चुनौतियाँ

हालांकि एआई ने मीडिया इंडस्ट्री में असंख्य अवसर प्रदान किए हैं, लेकिन यह नई चुनौतियाँ भी लेकर आया है।

· नैतिकता और पारदर्शिता: एआई आधारित फेक न्यूज़ और डीपफेक टेक्नोलॉजी की वजह से गलत सूचनाओं का प्रसार बढ़ सकता है।

· मानव संसाधन का विस्थापन: पारंपरिक कार्यबल को एआई द्वारा रिप्लेस किए जाने का खतरा बना हुआ है।

· डेटा गोपनीयता: एआई को प्रशिक्षित करने के लिए आवश्यक डेटा की गोपनीयता और सुरक्षा एक गंभीर मुद्दा है।

भारत और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का बाजार

भारत, विश्व में एआई के विकास और उपयोग के मामले में अग्रणी देशों में शामिल हो रहा है। वर्ष 2024 में भारत का एआई बाजार लगभग $7 बिलियन तक पहुँच चुका है। अनुमान है कि 2025 तक यह $12 बिलियन तक बढ़ जाएगा। भारतीय एआई क्षेत्र में वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) 20-25% के आसपास है।

वर्ष 2024 में, भारत में एआई के क्षेत्र में लगभग 4 लाख पेशेवर काम कर रहे हैं। सरकार और निजी कंपनियाँ मिलकर एआई स्टार्टअप्स और अनुसंधान में भारी निवेश कर रही हैं। 2025 तक, एआई आधारित नौकरियों की संख्या में 30% तक वृद्धि की उम्मीद है।

भारतीय मीडिया कंपनियाँ एआई-संचालित ट्रेंड एनालिसिस, कंटेंट पर्सनलाइजेशन और विज्ञापन ऑप्टिमाइज़ेशन पर भारी ध्यान केंद्रित कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर रिलायंस जियो और टाटा जैसे बड़े कॉर्पोरेट्स मीडिया और एआई के समागम के लिए बड़े स्तर पर निवेश कर रहे हैं।

भारत में डिजिटल मीडिया का बढ़ता प्रभाव

भारत में डिजिटल मीडिया का प्रभाव पारंपरिक मीडिया की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है। वर्ष 2024 में, भारत में लगभग 700 मिलियन इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं, जिनमें से अधिकांश स्मार्टफोन के माध्यम से डिजिटल सामग्री का उपभोग कर रहे हैं।

नेटफ्लिक्स, अमेज़ॅन प्राइम, डिज़्नी+ हॉटस्टार जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म्स भारत में मनोरंजन का नया केंद्र बन गए हैं। फेसबुक, इंस्टाग्राम, और यूट्यूब पर स्थानीय और क्षेत्रीय भाषाओं में सामग्री का उपभोग बढ़ रहा है। डिजिटल न्यूज़ पोर्टल्स जैसे इनशॉर्ट्स और स्क्रॉल ने पारंपरिक न्यूज़ चैनल्स की जगह लेनी शुरू कर दी है।

वर्ष 2024 में, भारत में डिजिटल विज्ञापन का आकार लगभग $4.5 बिलियन था। 2025 तक, यह $6.8 बिलियन तक पहुँचने की संभावना है। डिजिटल मीडिया में पर्सनलाइज्ड विज्ञापन और इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग एक नया ट्रेंड बन चुका है। भारत में 70% इंटरनेट उपयोगकर्ता ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं। सरकार की डिजिटल इंडिया पहल और सस्ती डेटा सेवाओं के कारण ग्रामीण भारत में डिजिटल कंटेंट का उपभोग तेजी से बढ़ रहा है।

2025 की उम्मीदें: मीडिया इंडस्ट्री का भविष्य

·  तकनीकी प्रगति का तेज़ी से उपयोग: वर्ष 2025 में एआई और मशीन लर्निंग के उपयोग से मीडिया इंडस्ट्री में और अधिक नवाचार की उम्मीद है। दर्शक लाइव पोल्स, क्विज़ और अन्य इंटरैक्टिव माध्यमों के ज़रिए कंटेंट के साथ जुड़ेंगे। वर्चुअल रियलिटी और ऑग्मेंटेड रियलिटी  आधारित कंटेंट मीडिया इंडस्ट्री का महत्वपूर्ण हिस्सा बनेगा।

· स्थानीय और क्षेत्रीय कंटेंट का विस्तार: स्थानीय भाषाओं में कंटेंट की माँग बढ़ेगी, जिससे क्षेत्रीय मीडिया कंपनियों को नए अवसर मिलेंगे। 2025 तक, 60% से अधिक डिजिटल कंटेंट स्थानीय भाषाओं में होगा।

· नियामक और नैतिकता पर ज़ोर: एआई और डिजिटल मीडिया के बढ़ते उपयोग को ध्यान में रखते हुए सरकार डेटा सुरक्षा और फेक न्यूज़ की रोकथाम के लिए सख्त नियम लागू कर सकती है। "मीडिया ट्रांसपेरेंसी" के लिए नए मानक स्थापित होंगे।

· उपभोक्ता-केंद्रित दृष्टिकोण: मीडिया इंडस्ट्री उपभोक्ताओं के अनुभव को बेहतर बनाने के लिए व्यक्तिगत और अनुकूलित सेवाओं पर ध्यान केंद्रित करेगी। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर फ्री-टू-व्यू और पे-पर-व्यू जैसे मॉडल और प्रचलित होंगे।

कुल मिलाकर वर्ष 2024 का वर्ष भारतीय मीडिया इंडस्ट्री के लिए नवाचार और चुनौतियों का संगम रहा है। एआई और डिजिटल मीडिया ने पारंपरिक मीडिया के स्वरूप को बदलते हुए उपभोक्ताओं की नई पीढ़ी की जरूरतों को पूरा किया है। वर्ष 2025 में, तकनीकी प्रगति और क्षेत्रीय कंटेंट के विस्तार के साथ, भारतीय मीडिया इंडस्ट्री विश्व स्तर पर अपनी पहचान और मजबूत करेगी। हालांकि, नैतिकता, डेटा सुरक्षा, और फेक न्यूज़ जैसे मुद्दों से निपटना महत्वपूर्ण होगा। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि आने वाले वर्ष मीडिया इंडस्ट्री के लिए अनंत संभावनाओं का दौर होगा।

शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

                        'एक एशिया' के विचार को साकार करना हम सबकी जिम्‍मेदारी : प्रो. द्विवेदी

'सार्क जर्नलिस्‍ट फोरमके प्रतिनिधिमंडल ने किया आईआईएमसी का दौरा



नई दिल्‍ली12 जनवरी। सार्क देशों के पत्रकार संगठन सार्क जर्नलिस्‍ट फोरम (एसजेएफ) के प्रति‍निधिमंडल ने गुरुवार को भारतीय जन संचार संस्‍थान का दौरा किया। आईआईएमसी के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने नेपालभूटानश्रीलंका और बांग्‍लादेश से आए तीस से अधिक प्रति‍निधियों का अंगवस्‍त्र और स्‍मृति चिन्‍ह देकर अभिनंदन किया। इस अवसर पर संस्थान के डीन (अकादमिक) प्रो. गोविंद सिंहडीन छात्र (कल्याण) प्रो. प्रमोद कुमारडॉ. मीता उज्‍जैनडॉ. पवन कौंडल, डॉ. प्रतिभा शर्मा एवं सहायक कुलसचिव ऋतेश पाठक भी उपस्थित रहे।

आईआईएमसी के महानिदेशक ने स्‍वामी विवेकानंद की जयंती पर उनका स्‍मरण करते हुए कहा कि वे पहले ऐसे विचारक थेजिन्‍होंने एक एशिया की अवधारणा प्रस्‍तुत की। प्रो. द्विवेदी ने कहा कि जब एक एशिया’ बनेगातभी इस क्षेत्र की शांतिअखंडताविकास और समृद्धि को बढ़ावा मिलेगा। उन्‍होंने कहा कि हम सबका एक ही इतिहास है और आज भी हम सब एक जैसी संस्‍कृतिखानपानरहन-सहन साझा करते हैं। यही हमारी ताकत है। सांस्‍कृतिक रूप से एक होकर ही हम पाश्‍चात्‍य संस्‍कृति के अतिक्रमण को रोक सकते हैं।

प्रो. द्विवेदी के अनुसार स्‍वामी विवेकानंद ने एक सदी  पहले ही पश्चिमी देशों को कह दिया था कि 20वीं सदी आपकी होगीलेकिन 21वीं सदी भारत की होगी। अब 21वीं सदी में हैं और उनकी बातें सच होती नजर आ रही हैं। उन्होंने 'सार्क जर्नलिस्‍ट फोरमका आह्वान करते हुए कहा कि पत्रकार होने के नाते 'एक एशियाके विचार को साकार करना हम सबकी जिम्‍मेदारी है।

इस अवसर पर एसजेएफ के अध्‍यक्ष राजू लामा ने कहा कि आईआईएमसी में आकर वे बेहद गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। उन्‍होंने कहा कि मुझे भारत के बहुत सारे राजनेताओं और स्‍वतंत्रता सेनानियों के बारे में जानकारी थीलेकिन यह पहली बार हैजब उन्‍हें भारत के पहले हिंदी समाचार पत्र उदंत मार्तंड’ के संस्‍थापक संपादक पंडित युगल किशोर शुक्‍ल के योगदान के बारे में पता चला। लामा ने कहा कि एसजेएफशुक्‍ल जी के पत्रकारिता में अविस्‍मरणीय योगदान के लिए उन्‍हें अपनी आदरांजलि अर्पित करता है।

अपनी यात्रा के दौरान प्रतिनिधिमंडल ने आईआईएमसी के विभिन्‍न विभागोंपुस्तकालय और संस्थान द्वारा संचालित सामुदायिक रेडियो 'अपना रेडियो 96.9 एफएमका भी दौरा किया।