Narendra Modi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Narendra Modi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 30 जुलाई 2024

नरेंद्र मोदी से इतनी नफरत क्यों करता है पश्चिमी मीडिया

-  प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपने दोनों कार्यकालों में पश्चिमी नेताओं के साथ अब तक के सबसे अच्छे संबंध रहे हैं। लेकिन पश्चिमी मीडिया के साथ ऐसा नहीं है, जिसने उन्हें 'ताकतवर' से लेकर 'तानाशाह' तक, कई तरह के शब्दों से संबोधित किया है। अब जबकि 2024 के लोकसभा चुनावों के अंतिम परिणाम आ चुके हैं और नरेंद्र मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, तब पश्चिमी मीडिया द्वारा फैलाए गए भारत-विरोधी और मोदी-विरोधी एजेंडे का त्वरित मूल्यांकन करना जरूरी हो जाता है।

भारत ने लोकसभा चुनावों के दौरान विदेशी पर्यवेक्षकों को भारतीय चुनावी प्रक्रिया देखने के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन पश्चिमी मीडिया ने मोदी सरकार पर अल्पसंख्यकों के प्रति “घृणा” से भरे “हिंदुत्व” के एजेंडे को आगे बढ़ाने का अपना सामान्य बयान जारी रखा। दिलचस्प बात यह है कि अधिकांश पश्चिमी मीडिया रिपोर्ट्स में मोदी सरकार की विभिन्न मामलों में कड़ी आलोचना की गई है और विपक्ष को पीड़ित के रूप में पेश किया गया है।

पत्रकारिता का नियम है कि संतुलित रिपोर्टिंग में सभी पक्षों के तथ्य और सभी पक्षों के बयानों को समान रूप से प्रस्तुत किया जाना चाहिए। लेकिन चाहे वह दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी का मुद्दा हो या प्रधानमंत्री मोदी के चुनाव प्रचार भाषण का मुद्दा, जिसमें उन्होंने विपक्षी कांग्रेस पर भारत के नागरिकों के अधिकारों को छीनने का आरोप लगाया था, पश्चिमी मीडिया कवरेज ने पूरे परिदृश्य को विकृत किया और बिना किसी पर्याप्त संदर्भ और दूसरे पक्ष के किसी भी दृष्टिकोण को शामिल किए पक्षपातपूर्ण और एकतरफा बयान जारी किये।

पूर्वाग्रह से ग्रसित पत्रकारिता

इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ब्रिटिश दैनिक समाचार पत्र 'द गार्जियन' की 2024 के लोकसभा चुनाव कवरेज की कुछ सुर्खियां, जिसमें उन्होंने भारतीय चुनावों को कवर करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से रिपोर्ट प्रकाशित की। आइये 'द गार्जियन' में प्रकाशित लेखों के कुछ शीर्षकों पर नजर डालते हैं- “भारत में चुनाव पूरे जोरों पर हैं, नरेंद्र मोदी हताश-और खतरनाक होते जा रहे हैं”, “पीएम नरेंद्र मोदी का दावा है कि उन्हें भगवान ने चुना है”, भारतीय चुनाव पर द गार्जियन का दृष्टिकोण: नरेंद्र मोदी बने नफरत के सौदागर”, “चुनावी कानूनों की धज्जियां उड़ाई गईं, विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया – मोदी की भाजपा के खिलाफ खड़े होने का परिणाम”, “‘मोदी राजमार्ग बनाते हैं लेकिन नौकरियां कहां हैं?’: भारत के चुनाव पर बढ़ती असमानता”।

इनमें से कुछ हेडलाइनें ‘द गार्जियन’ जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन से नहीं, बल्कि एक सस्ते टैब्लॉयड से सीधे निकली हुई लगती हैं। अत्यधिक पूर्वाग्रह से ग्रसित ये हेडलाइनें शायद किसी सनसनीखेज थ्रिलर के कवर पर या किसी मेलोड्रामैटिक सोप ओपेरा के पंचलाइन के रूप में अधिक उपयुक्त लगेंगी। आप पहला लेख देखें, “भारत में चुनाव पूरे जोरों पर हैं, नरेंद्र मोदी हताश-और खतरनाक होते जा रहे हैं”। यह लेख सलिल त्रिपाठी द्वारा लिखा गया है, जिनका गलत सूचना फैलाने और भारत विरोधी प्रचार करने का इतिहास रहा है। वे PEN इंटरनेशनल राइटर्स इन प्रिज़न कमेटी के अध्यक्ष भी हैं। उनका यह लेख 2002 के गोधरा दंगों के लिए भारतीय प्रधानमंत्री को दोषी ठहराने की सामान्य कथा से शुरू होता है और उन्हें अपराधी के रूप में चित्रित करता है। त्रिपाठी अपनी सुविधा के अनुसार इस प्रमुख कथा से चिपके रहते हैं और सफेद झूठ का प्रचार करते हैं। वह यह उल्लेख करने की भी परवाह नहीं करते कि भारतीय प्रधानमंत्री को 2002 के गोधरा नरसंहार के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सभी आरोपों से बहुत पहले ही बरी कर दिया गया है। जाहिर है, लेखक यह सब नहीं बताएगा क्योंकि यह उसकी शातिर कथा के अनुकूल नहीं है। लेख का बाकी हिस्सा हमेशा की तरह मोदी की “हिंदुत्व” वाली राजनीति के बारे में  ही चर्चा करता है। लेखक के अनुसार, मोदी की राजनीति खतरनाक और स्पष्ट रूप से विभाजनकारी है। मोदी के भाषण की तीव्रता से पता चलता है कि सत्ता में 10 साल रहने के बाद, उनकी सरकार के पास कोई तरकीब नहीं बची है और वह यह सुनिश्चित करना चाहती है कि भाजपा के मुख्य मतदाता उनका साथ न छोड़ें।

चुनाव आयोग पर प्रहार

'द गार्जियन' के अलावा जर्मन ब्रॉडकास्टर 'डॉयचे वेले' भी अपने इसी एजेंडे में लगा हुआ है। 'डॉयचे वेले' ने हाल ही में एक लेख प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था, “क्या भारत का चुनाव आयोग मोदी के खिलाफ शक्तिहीन है?” यह लेख भी प्रधानमंत्री मोदी के चुनावी भाषण पर केंद्रित है। लेख में उनके भाषण को सनसनीखेज बनाने की कोशिश की गई है, जिसमें कहा गया है कि उनके शब्द इस्लामोफोबिया में डूबे हुए थे। लेकिन जाने अनजाने में लेखक ने इस लेख में ऐसे तथ्य भी प्रस्तुत कर दिये, जो दिखाते हैं कि मोदी सरकार ने अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए सबसे अधिक योजनाएँ चलाई हैं। लेख में सुविधाजनक रूप से उस संदर्भ को भी छोड़ दिया गया है, जिसमें मोदी ने टिप्पणी की थी कि धर्म के आधार पर आरक्षण प्रदान करना भारतीय संविधान की भावना और प्रावधानों के विरुद्ध है। लेख में इस बात पर बहस की जा सकती थी कि क्या धर्म के आधार पर आरक्षण प्रदान करना वास्तव में भारतीय संविधान की मूल बातों के विरुद्ध है, या इसके लिए कोई जगह है? लेकिन इस तरह के काम के लिए गहन शोध की आवश्यकता होती है और कम से कम यहाँ 'डॉयचे वेले' का इरादा निष्पक्ष समाचार रिपोर्टों के बजाय पक्षपाती और इमोशनल क्लिकबेट कहानियों को जगह देना था। लेख में भारत के चुनाव आयोग को एक “निष्क्रिय दर्शक” भी कहा गया है और किसी तरह यह स्थापित करने के लिए अज्ञात स्रोतों का हवाला दिया गया है कि चुनाव आयोग “एक पार्टी” के प्रति पक्षपाती है। देश के चुनाव आयोग के खिलाफ चुनावों के बीच में बिना किसी सबूत के और अज्ञात स्रोतों द्वारा दिए गए सामान्यीकृत बयानों के आधार पर आकस्मिक आरोप लगाना क्या वाकई में पत्रकारिता है। हालाँकि, ऐसा लगता है कि यह मतदाताओं को प्रभावित करने और भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने का एक बहुत ही सूक्ष्म प्रयास है।

नैरेटिव के अनुकूल खबरें

इसी तरह 'सीएनएन' भी मोदीफोबिया के रथ पर सवार होकर यह लेख लिखता है कि "भारत का चुनाव अभियान नकारात्मक हो गया है क्योंकि मोदी और सत्तारूढ़ पार्टी इस्लामोफोबिया की बयानबाजी को अपना रहे हैं"। लेकिन, इनमें से एक भी मीडिया आउटलेट महिलाओं के खिलाफ भयानक संदेशखली हिंसा, या टीएमसी के लोगों द्वारा भाजपा कार्यकर्ताओं की बेरहमी से हत्या, या भाजपा की नूपुर शर्मा की टिप्पणियों का समर्थन करने के लिए कन्हैया कुमार की बेरहमी से हत्या जैसे मुद्दों पर बात नहीं करता। 'द गार्जियन', 'डॉयचे वेले', 'सीएनएन' आदि जैसे मीडिया आउटलेट इन मुद्दों को कवर नहीं करते, क्योंकि ये उनके नैरेटिव के अनुकूल नहीं हैं, लेकिन कुछ मुद्दों पर पक्षपातपूर्ण कवरेज करके भारत विरोधी प्रचार जरूर करते हैं।

इसी कड़ी में फाइनेंशियल टाइम्स ने लिखा, ‘लोकतंत्र की जननी की हालत अच्छी नहीं है।’ न्यूयॉर्क टाइम्स ने तो ‘मोदी का झूठ का मंदिर’ बताया, जबकि फ्रांस के प्रमुख अखबार ले मॉन्द ने लिखा, ‘भारत में केवल नाम का लोकतंत्र है।’ अमेरिकी न्यूज चैनल 'फॉक्स' ने 20 मई को लिखा, ‘अयोध्या में अल्पसंख्यकों को लगातार डराया जा रहा है।‘ 'सीएनबीसी' ने चुनाव को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया है, वहीं 'सीबीएस' टेलीविजन नेटवर्क ने मोदी के चुनाव प्रचार को अल्पसंख्यक विरोधी बताया है।

भारत की छवि धूमिल करने का प्रयास

जब लगभग सभी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन भारत की आलोचना कर रहे थे, तो नई दिल्ली स्थित विदेशी संवाददाता भी उसमें शामिल हो गए। आस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन की दक्षिण एशिया ब्यूरो प्रमुख अवनी डायस ने यह दावा करते हुए भारत छोड़ दिया कि उन्हें वीजा नहीं मिला और चुनाव कवरेज का मौका नहीं दिया गया। हालांकि ऐसा नहीं था, उनकी वीजा अवधि 18 अप्रैल, 2024 को समाप्त हो गई थी। वीजा बढ़ाने के लिए उन्होंने न तो फीस भरी थी और न अन्य औपचारिकताएं ही पूरी की थीं। बावजूद इसके अवनी ने भ्रामक बयान दिया। इसके बाद वह वापस लौटी तो 'द आस्ट्रेलिया टुडे' ने एक रिपोर्ट में लिखा कि अवनी ने अपनी नई नौकरी और शादी के लिए भारत छोड़ा था।

जाहिर है अवनी झूठ बोल रही थी। उनका मकसद रिर्पोटिंग करना नहीं, बल्कि सरकार की छवि को बिगाड़ना था। इस घटना के तत्काल बाद 30 विदेशी पत्रकारों ने संयुक्त बयान जारी किया। इसमें उन्होंने कहा कि, ‘‘भारत में विदेशी पत्रकार, विदेशी नागरिक का दर्जा रखने वाले वीजा और पत्रकारिता परमिट पर बढ़ते प्रतिबंधों से जूझ रहे हैं।’’ दरअसल पश्चिमी मीडिया की ज्यादातर कोशिश यही रहती है कि वह भारत के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप पर फर्जी खबरें तैयार भारत की छवि को धूमिल कर सकें।

पश्चिमी मीडिया का मोदीफोबिया अंतहीन है। वह लगातार भारत के खिलाफ नकारात्मक एजेंडा चलाता रहता है। दरअसल पश्चिम की यह लॉबी अभी भी भारत की आर्थिक प्रगति को स्वीकार नहीं कर पा रही है। इसलिए हर स्तर पर देश को अस्थिर करने के प्रयास किए जाते हैं। इस बार के चुनावों में भी योजनाबद्ध तरीके से ऐसा ही किया गया, लेकिन देश के लोगों ने भाजपा और राजग पर भरोसा दिखाया और इस साजिश को सफल नहीं होने दिया।

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

आशा-निराशा के झूलों में झूलता रहा पूरा साल



जा रहे साल-2019 के नाम



-प्रो. संजय द्विवेदी
     किसी भी जाते हुए साल, बीते हुए समय को लोग याद कहां करते हैं। कई बार बीते दिन सुखद ही लगते हैं। फिर भी यह दिन नहीं है, साल है। वह भी 2019 जैसा। जिसने भारत की राजनीति, समाज, संस्कृति और उसके बौद्धिक विमर्शों को पूरा का पूरा बदल दिया है। जाते हुए साल ने नागरिकता संशोधन कानून(सीएए) के नाम पर सड़कों पर जो आक्रोश देखा है,यह संकेत है कि आने वाले दिन भी बहुत आसान नहीं हैं। कड़वाहटों, नफरतों और संवादहीनता से हमारी राजनीतिक जमातों ने जैसा भारत बनाया है, वह आश्वस्त नहीं करता। डराता है। राष्ट्र की समूची राजनीति के सामने आज यह प्रश्न है वह इस देश को कैसा बनाना चाहती है। यह देश एक साथ रहेगा, एकात्म विचार करेगा या खंड-खंड चिंतन करता हुआ,वर्षों से चली आ रही सुविधाजनक राजनीति का अनुगामी बनेगा। वह सवालों से टकराकर उनके ठोस और वाजिब हल तलाशेगा या शुतुरर्मुग की तरह बालू में सिर डालकर अपने सुरक्षित होने की आभासी प्रसन्नता में मस्त रहेगा।
पुलवामा हमले से हिला देशः
     साल के आरंभिक दिनों में हुए पुलवामा हमले ने जहां हमारी आंतरिक सुरक्षा पर गहरे सवाल खड़े किए, वहीं साल के आखिरी दिनों में मची हिंसा बताती है कि हमारा सभ्य होना अभी शेष है। लोकतांत्रिक प्रतिरोध का माद्दा अर्जित करने और गांधीवादी शैली को जीवन में उतारने के लिए अभी और जतन करने होगें। हम आजाद तो हुए हैं पर देशवासियों में अभी नागरिक चेतना विकसित करने में विफल रहे हैं। यह साधारण नहीं है कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और अपने ही लोगों को ही प्रताड़ित करने में हमारे हाथ नहीं कांप रहे हैं। पुलवामा में 40 सैनिकों की शहादत देने के बाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर हमारी नागरिक चेतना में कोई चैतन्य नहीं है।राजनीतिक लाभ के लिए भारतीय संसद में बनाए गए कानूनों को रोकने की हमारी कोशिशें बताती हैं कि विवेकसम्मत और विचारवान नागरिक अभी हमारे समाज में अल्पमत में हैं। यह ठीक है कि सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे अपने नागरिकों में विश्वास की बहाली करें और उनसे संवाद करें। किंतु यहां यह भी देखना होगा कि विरोध के लिए उतरे लोग क्या इतने मासूम हैं और संवाद के लिए तैयार हैं? अथवा वे ललकारों और हुंकारों के बीच ही अपने राजनीतिक पुर्नजीवन की आस लगाए बैठे हैं। ऐसे समय में हमारे राजनीतिक नेतृत्व से जिस नैतिकता और समझदारी की उम्मीद की जाती है, क्या वह उसके लिए तैयार भी हैं?
मोदी हैं सबसे बड़ी खबरः
      इस साल की सबसे बड़ी खबर तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही हिस्से रही। लगातार दूसरी बार एक गैरकांग्रेसी सरकार का सत्ता में पूर्ण बहुमत के साथ आना भारतीय राजनीतिक इतिहास की एक बड़ी घटना है। मोदी का जादू फिर सिर चढ़कर बोला और भाजपा 303 सीटें जीतकर सत्ता में वापस आई। 2014 में भाजपा को 282 सीटें मिली थीं।  इसी के साथ मोदी ऐसे प्रधानमंत्री भी बन गए जिन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद तीसरे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने, दूसरी बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस साल अपना पद छोड़ दिया और काफी मान-मनौव्वल के बाद भी नहीं माने। अंततः श्रीमती सोनिया गांधी को यह पद स्वीकार करना पड़ा।
       साल के आखिरी महीने की कड़वाहटों को छोड़ दें तो जाता हुआ साल 2019 कई मामलों में बहुत उम्मीदें जगाने वाला साल भी है। कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति और राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला दो ऐसी बातें हैं जो इस साल के नाम लिखी जा चुकी हैं। इस मायने में यह साल हमेशा के लिए इतिहास के खास लम्हों में दर्ज हो गया है। भारतीय राजनीति में चीजों को टालने का एक लंबा अभ्यास रहा है। समस्याओं से टकराने और दो-दो हाथ करने और हल निकालने के बजाए, हमारा सोच संकटों से मुंह फेरने का रहा है। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद अरसे से एक ऐसे नायक का इंतजार होता रहा, जो निर्णायक पहल कर सके और फैसले ले सके। धारा 370 सही मायने में केंद्र सरकार का एक अप्रतिम दुस्साहस ही कहा जाएगा। किंतु हमने देखा कि इसे देश ने स्वीकारा और कांग्रेस पार्टी सहित अनेक राजनीतिक दलों के नेताओं ने इस फैसले की सराहना की।
मंदिर पर सुप्रीम फैसलाः
    राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का सुप्रीम फैसला भी इसी कड़ी में एक बहुत महत्वपूर्ण तारीख है। जिसने सदियों से चले आ रहे भूमि विवाद का निपटारा करके भारतीय इतिहास के सबसे खास मुकदमे का पटाक्षेप किया। तीन तलाक का मुद्दा एक ऐसा ही विषय था जिसने भारतीय मुस्लिम स्त्रियों की जिंदगी में छाए अंधेरों को काटकर एक नई शुरुआत की। यह एक ऐसा विषय था जिसे आस्था और संविधान की बहस में उलझाया गया। लेकिन मानवीय और संवैधानिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा मुद्दा था। हालांकि स्त्री सुरक्षा के लिए यह साल भी बहुत उम्मीदें जगाकर नहीं गया। साल के प्रारंभ में उन्नाव दुष्कर्म कांड से लेकर साल के अंत में हैदराबाद की वेटनरी डाक्टर की निर्मम हत्या और दुराचार की घटनाओं ने बताया कि हमारे समाज में अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। हैदराबाद दुष्कर्म मामले के आरोपियों को पुलिस ने तत्काल मार गिराया किंतु निर्भया मामले के अपराधियों को आज तक फांसी के फंदों पर नहीं लटकाया जा सका। कानून की बेचारगी इस सबके बीच चर्चा का विषय बनी।
सामान्य वर्ग को आरक्षण की राहतः     
    जनवरी महीने में सामान्य वर्ग को दस प्रतिशत आरक्षण देने का बिल संसद ने पास किया। गुजरात इसे लागू करने वाला देश का पहला राज्य बना। इस कानून ने आरक्षण पर मचे बवाल पर सामान्य वर्गों को राहत देने की भावभूमि बनाई। इस साल के एक महत्वपूर्ण उत्सव के रूप में प्रयागराज में कुंभ को भी याद किया जाएगा। इस कुंभ में 15 करोड़ लोगों ने स्नान किया और दुनिया के 190 देशों को आमंत्रण भेजे गए। कुंभ की व्यवस्थाओं को लेकर उप्र सरकार की काफी सराहना भी हुयी।
        इस साल ने हमें आशा, निराशा, उम्मीदों और सपनों के साथ चलने के सूत्र भी दिए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार युवाओं पर भारी उम्मीदें जता रहे थे। हम देखें तो भारत का स्टार्टअप तंत्र  जिस तरह से युवा शक्ति के नाते प्रभावी हुआ है, वह हमारी एक बड़ी उम्मीद है। सन 2019 में ही कुल 1300 स्टार्टअप प्रारंभ हुए। कुल 27 कंपनियों के साथ भारत में पहले ही चीन और अमरीका के बाद तीसरे सबसे ज्यादा यूनिकार्न (एक अरब से ज्यादा के स्टार्टअप) मौजूद हैं। भारत की यह प्रतिभा सर्वथा नई और स्वागतयोग्य है। वहीं दूसरी ओर मंदी की खबरों से इस साल बाजार थर्राते रहे। निजी क्षेत्रों में काफी लोगों की नौकरियां  गईं और नए रोजगार सृजन की उम्मीदें भी दम तोड़ती दिखीं। बहुत कम ऐसा होता है महंगाई और मंदी दोनों साथ-साथ कदमताल करें। पर ऐसा हो रहा है और भारतीय इसे झेलने के लिए मजबूर हैं। नीतियों का असंतुलन, सरकारों का अनावश्यक हस्तक्षेप बाजार की स्वाभाविक गति में बाधक हैं। भारत जैसे महादेश में इस साल की दूसरी तिमाही में विकास दर 4.5 फीसद रह गयी थी, अगले छह माह में यह क्या रूप लेगी कहा नहीं जा सकता। इस साल पांच फीसदी की विकास दर भी नामुमकिन लग रही है। सच तो यह है कि मोदी सरकार ने अपने प्रारंभिक दो सालों में जो भी बेहतर प्रदर्शन किया, नोटबंदी और जीएसटी ने बाद के दिनों में उसके कसबल ढीले कर दिए। बिजनेस टुडे के पूर्व संपादक प्रोसेनजीत दत्ता मानते हैं कि-यदि सहस्त्राब्दी का पहला दशक मुक्त बाजार सिद्धांत की अपार संभावनाओं वाला था तो यह दशक बेतरतीब सरकारी हस्तक्षेप वाला रहा। ऐसे में आने वाला साल किस तरह की करवट लेगा इसके सूत्रों को जानने के लिए मार्च,2020 तक नए बजट के बाद की संभावनाओं का इंतजार करना होगा। इसमें दो राय नहीं कि वैश्विक स्तर पर भारत की विदेश नीति में प्रधानमंत्री ने अपनी सक्रियता से एक नर्ई ऊर्जा भरी, किंतु भारत की स्थानीय समस्याओं, लालफीताशाही, शहरों में बढ़ता प्रदूषण, कानून-व्यवस्था के हालात ऐसे ही रहे तो उन संभावनाओं का दोहन मुश्किल होगा।
नवसंकल्पों और नवाचारों का समयः
    उदारीकरण की इस व्यवस्था के बीज इस अकेले साल के माथे नहीं डाले जा सकते। 1991 से लागू इस भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने हमारे गांवों, किसानों और सामान्य जनों को बेहद अकेला छोड़ दिया है। किसानों की आत्महत्याएं, उनकी फसल का सही मूल्य, जनजातियों के जीवन और सुरक्षा जैसे सवाल आज नक्कारखाने में तूती की तरह ही हैं। मुख्यधारा की राजनीति के मुद्दे बहुत अलग हैं। उन्हें देश के वास्तविक प्रश्नों पर लाना कठिन ही नहीं असंभव ही है। जाता हुआ साल भी हमारे सामने विकराल जनसंख्या, शरणार्थी समस्या, घुसपैठ, कृषि संकट, महंगाई, बेरोजगारी जैसे तमाम प्रश्न छोड़कर जा रहा है। सन 2020 में इन मुद्दों की समाप्ति हो जाएगी, सोचना बेमानी है। बावजूद इसके हमारे बौद्धिक विमर्श में असंभव प्रश्नों पर भी बातचीत होने लगी है, यह बड़ी बात है। हमें अपने देश के सवालों पर, संकटों पर, बात करनी होगी। भले वे सवाल कितने भी असुविधाजनक क्यों न हों। 2019 का साल जाते-जाते कुछ बड़े मुद्दों का हल देकर जा रहा है। नए साल-2020 का स्वागत करते हुए हमें कुछ नवसंकल्प लेने होंगें, नवाचार करने होंगे और अपने समय के संकटों के हल भी तलाशने होगें। अलविदा- 2019!




शुक्रवार, 11 मार्च 2016

शक्ति को सृजन में लगाएं मोदी

हाथ में आए ऐतिहासिक अवसर का करें राष्ट्रोत्थान के लिए इस्तेमाल

-संजय द्विवेदी


पिछले कुछ दिनों से सार्वजनिक जीवन में जैसी कड़वाहटें, चीख-चिल्लाहटें, शोर-शराबा और आरोप-प्रत्यारोप अपनी जगह बना रहे हैं, उससे हम देश की ऊर्जा को नष्ट होता हुआ ही देख रहे हैं। भाषा की अभद्रता ने जिस तरह मुख्य धारा की राजनीति में अपनी जगह बनाई है, वह चौंकाने वाली है। सवाल यह उठता है कि नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने से दुखीजन अगर आर्तनाद और विलाप कर रहे हैं तो उनकी रूदाली टीम में मोदी समर्थक और भाजपा के संगठन क्यों शामिल हो रहे हैं? वैसे भी जिनको बहुमत मिला है, उन्हें शक्ति पाकर और शालीन व उदार हो जाना चाहिए, पर वे भी अपने विपक्षियों की तरह ही हल्लाबोल की मुद्रा में हैं। ताकत का रचनात्मक इस्तेमाल इस देश के वंचितों को ताकत देने, देश को शक्ति देने और एकजुट करने के लिए होना चाहिए किंतु लगता है कि भाजपा और उसके समर्थक मार्ग से भटक गए हैं और अपने विरोधियों द्वारा नित्य रचे जा रहे नाहक मुद्दों पर प्रतिक्रिया देने में वक्त खराब कर रहे हैं।
उनसे सिर टकराकर क्या हासिलः  ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से हाशिए पर जा चुके वामपंथियों से सिर टकराने और उन्हें महत्वपूर्ण बनाने के बजाए भाजपा को लंबे समय और संघर्ष के बाद मिले इस अवसर का सही इस्तेमाल करना चाहिए। गर्जन-तर्जन और टीवी पर बाहें चढ़ाने के बजाए देश को जोड़ने, सामाजिक समरसता पैदा करने, मुसलमानों, ईसाईयों और वंचित वर्गों को इस अहसास से जोड़ना चाहिए कि वे उन्हें अपना शत्रु न समझें। रची जा रही कृत्रिम लड़ाईयों में उलझकर भाजपा अपने कुछ समर्थकों को तो खुश रखने में कामयाब होगी, किंतु इतिहास को बदलने और कुछ नया रचने की अपनी भूमिका से चूक जाएगी। इन नकली लड़ाईयों की उपेक्षा ही सबसे बड़ा दंड है। वरन रोज कोई कन्हैया हीरो बनेगा और देश की राजसत्ता को चुनौती देता दिखाई देगा। नान इश्यू पर बहस करना सबसे बड़ा अपराध है, किंतु अफसोस कि बीजेपी उसी ट्रैक में फंस रही है, जिसमें वामपंथियों का रिकार्ड है। वे सिर्फ बहस कर सकते हैं, नए नारे गढ़ सकते हैं, भ्रम पैदा कर सकते हैं। उन्हें दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के जीवन स्तर को उठाने, भारत के विकास और उद्धार से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए देश की समग्र तस्वीर बदलने के ऐतिहासिक संकल्प से आई सरकार को इन सवालों में नहीं उलझना चाहिए।
तोड़िए पूंजीवादी होने का मिथकः केन्द्र की भाजपा सरकार को इस मिथक को तोड़ने के लिए तेजी के साथ काम करना होगा कि वह नारे और मुखौटे तो आम- आदमी व देश के विकास के लगा रही है, पर उसका छिपा हुआ एजेंडा नंगा पूंजीवाद है। इस मिथक को तोड़कर ही भाजपा अपना जनसमर्थन बचाए और बनाए रख सकती है। यह काम भाषणों से नहीं हो सकता, इसके लिए जमीन पर काम करना होगा। प्रतिपक्ष की राजनीतिक शक्तियों से टकराकर सत्ता उन्हें शक्ति ही देती है, इसलिए उनकी उपेक्षा और बहस में उनसे न उलझकर विकास की गति को तेज करना, कम प्रतिक्रिया देना ही विकल्प है। सबसे पहले देश की भावना का विस्तार करते हुए हमें एक ऐसा जन समाज बनाना होगा जो राष्ट्र प्रथम की ऊर्जा से लबरेज हो।
बौद्धिक और राष्ट्रप्रेमी समाज बनाने की चुनौतीः हमारे देश का सबसे बड़ा संकट यह है कि हमने आजादी के इन सालों में बौद्धिक चेतना संपन्न राष्ट्रप्रेमी, भारतीयता के भावों से भरा समाज बनाने के बजाए, बौद्धिक रूप से विपन्न समाज को सृजित किया है। जन समाज में बौद्धिक विपन्नता बढ़े इस पर हमारी राजनीति, शिक्षा और मीडिया का सामूहिक योगदान रहा है। यह खतरा 1991 में उदारीकरण के बाद और बढ़ गया। ऐसे में समाज के बजाए हम भीड़ बना रहे हैं। एक अरब के देश में हर सही-गलत मुद्दे पर हजार-दस हजार जोड़ लेना और अपनी बात कहने लगना बहुत आसान हो गया है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण की इस आंधी में टूटते परिवार, बिखरते गांव, कमजोर होते संस्कार, शिक्षा में बढ़ती असमानता के चलते कई स्तरों वाला समाज निर्मित हो रहा है। जिसकी सपने और आकांक्षाएं इस राष्ट्र की आकांक्षाओं से कई बार अलग-अलग दिखती हैं। जन समाज की बौद्धिक विपन्नता, घर में घुस आए बाजार, मीडिया के हर क्षेत्र में एफडीआई के माध्यम से आयातित विचारों की घुसपैठ और नागरिकों को ग्राहक बनाने में जुटा पूरा तंत्र हमें आतंकित करता हुआ दिखता है। यहां स्लोगन की शक्ल में कुछ चीजें हैं, पर संकल्प नदारद हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार और उनके विचार परिवार की यह जिम्मेदारी है कि वह देश में ऐसी बौद्धिक चेतना के निर्माण का वातावरण बनाए, जो सत्ता को भी आईना दिखा सके। आलोचना के प्रति औदार्य और राष्ट्रप्रेम की स्वीकार्यता से यह संभव है। मोदी समर्थकों को यह स्वीकरना चाहिए कि मोदी पर हमला, देश पर हमला नहीं है। सरकार की आलोचना, भारतद्रोह नहीं है। जेएनयू जैसे प्रसंगों को ज्यादा हवा देकर हम विदेशियों को यह बता रहे हैं कि हम कितने बँटे हुए हैं। जबकि सच यह है कि यह कुछ मुट्टी भर बीमार-मनोरोगी-बुद्धिजीवियों का षडयंत्र है, जिसमें पूरा देश उलझ गया है।  हमें समाज जीवन में ऐसी बौद्धिक चेतना का विकास करना है, जिसमें हम शासन-सत्ता से लेकर राज-काज की शैलियों पर सवाल उठा सकें। अपने समय में रचनात्मक हस्तक्षेप कर सकें। नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी को यह ऐतिहासिक विजय सत्ता परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं बल्कि सत्ता संस्कृति में भी परिर्वतन के लिए भी मिली है। एक ऐसी विचारधारा के अवलंबन के लिए मिली है जिसके लिए देश प्रथम है। लोगों को यह अहसास होना चाहिए कि यह कुछ अलग लोग हैं, कुछ अलग सरकार है। दिल्ली में जाकर दिल्लीवाला न होना ही नरेंद्र मोदी की शक्ति है। अगर वे दिल्ली वाले हो गए, तो उनमें क्या बचेगा? उनके विरोधियों की बिलबिलाहट यही है कि नरेंद्र मोदी लुटियंस के मिजाज में फिट नहीं बैठते। विरोधियों की नजर में वे वहां एक अवैध उपस्थिति हैं। लेकिन यह उपस्थिति अपार जनसमर्थन से संयुक्त है। ऐसे में सरकार के बढ़िया-अच्छे कामों को प्रचारित करने में शक्ति लगाने की जरूरत है, न कि वामपंथियों के रोज रचे षडयंत्रों में फंसकर उस पर प्रतिक्रिया देने की। यह बहुत अच्छा है कि प्रधानमंत्री इस बात को समझते हैं, और वे हर बात पर प्रतिक्रिया देने के लिए उपलब्ध नहीं होते, किंतु उनके उत्साही समर्थक जिन्हें भक्त कहकर संबोधित किया जा रहा है, वे मोदी विरोधियों के षडयंत्र में फंसते रहे हैं।
आलोचना से क्या डरनाः लोकतंत्र में आलोचना तो शक्ति देती है। ऐसे में आलोचना से क्या डरना। आलोचना स्वस्थ हो या अस्वस्थ इससे क्या फर्क पड़ता है। आलोचनाओं से घबराकर, खुद हमलावर हो जाना, बिखरे और पस्त पड़े विपक्ष को जीवनदान देना ही है। मोदी और उनकी पार्टी यहीं चूक रही है और उसने अपने एनडीए के कुनबे को विस्तार को रोककर, अपनों की तो नाराजगी ली है, पर विपक्ष को एक कर दिया है। दिल्ली से बिहार तक इसके परिणाम बिखरे पड़े हैं। ऐसे समय में जब भाजपा और उसके परिवार को मुसलमानों और ईसाईयों के साथ संवाद को निरंतर और तीव्र करते हुए, उनमें भारत प्रेमी नेतृत्व का विकास करते हुए अपनी भौगोलिक और सामाजिक सीमाओं का अतिक्रमण करना चाहिए। वह खुद को छुद्र मुद्दों पर घेरने की विपक्षियों की रणनीति में स्वयं शामिल होने को आतुर दिखती है। हाशिए के समाज के अपनी संलग्नता को स्थाई करने के प्रयासों के बजाए, वह जेएनयू जैसे विवादों पर अपनी शक्ति जाया कर रही है।
ज्यादा डिजीटिलाईजेशन से बचिएः  मोदी सरकार को यह साबित करना होगा कि वह अंतिम आदमी के साथ है। हाशिए के लोगों के साथ उसकी संलग्नता और संवाद ही मोदी और उनकी पार्टी की शक्ति बन सकती है। अधिक डिजीटलाईजेशन के बजाए, हाशिए के समाज के शक्तिवान बनाने और फैसले लेने की शक्ति देने के प्रयास होने चाहिए। इससे डिजीटल डिवाइट का खतरा बढ़ेगा और एक नया दलाल वर्ग यहां भी विकसित हो जाएगा, जो इस डिजीटलाईजेशन के फायदे खुद खा जाएगा। इससे असमर्थ को क्या हासिल होगा, इस पर सोचना चाहिए। गुणवत्तापूर्ण श्रेष्ठ शिक्षा गांवों तक पहुंचाए बिना हम समर्थ भारत की कल्पना भी नहीं कर सकते। निजी क्षेत्र को ताकतवर बनाने की नीतियों से आगे हमें अपने सरकारी शिक्षण संस्थाओं की गुणवत्ता पर बहुत काम करने की जरूरत है। यह बहुत जरूरी है कि हम ऐसे दिन देख पाएं कि कृष्ण और सुदामा दोनों एक स्कूल में साथ पढ़ सकें। इससे समाज में असंतोष और गैरबराबरी कम होगी। गरीबों को चोर या भ्रष्टाचारी बनाने वाला तंत्र अपना इलाज पहले खुद करे। इस तंत्र को यह भी सोचना होगा कि देश के आम गरीब लोग कामचोर, काहिल या बेईमान नहीं हैं- उन्हें अवसर देकर, सुविधाएं और अच्छी शिक्षा देकर ही कोई भी लोकतंत्र सार्थक हो सकता है। भारतीयों की तरफ अंग्रेजों की सोच और नजरिए से ही हमारा तंत्र और प्रशासन देखता आया है, उस सोच में बदलाव की जरूरत है, जो हमें नागरिक के बजाए प्रजा समझती है। इसलिए विकल्प यही है कि सरकारें वो राज्य की हों या केंद्र की, वे जवाबदेह बनें और डिलेवरी पर मुख्य फोकस करें। वोट की परवाह क्या और क्यों करना?
    याद कीजिए 1967 में डा. राममनोहर लोहिया के संविद सरकारों के प्रयोग को जिसने पहली बार देश को यह भरोसा दिलाया कि कांग्रेस भी सत्ता से बाहर हो सकती है। राज्यों में ऐसी सरकारें बनीं जिसमें कम्युनिस्ट और जनसंघ के लोग साथ बैठे। ऐसे में एनडीए का कुनबा बिखरा और भाजपा की अहंकारजन्य प्रस्तुति रही तो सत्ता तो हाथ से फिसलनी ही है। नरेन्द्र मोदी और उनके भक्तों को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अवसर उन्हें किसलिए मिला है? उन्हें यह भी याद होगा कि वे क्या करने सत्ता में आए हैं, और यह तो जरूर पता होगा कि वे क्या कर रहे हैं? इतिहास की घड़ी में पांच साल का वक्त कुछ नहीं होता, दो साल गुजर गए हैं। कुछ करिए भाई।