शनिवार, 14 जून 2008

मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-13
छत्तीसगढ़ी मातृभाषा में शिक्षा ज्यादा जरूरी

रामेश्वर वैष्णव

नंदकिशोर शुक्ल का यह विचार कतई आपत्तिजनक नहीं है कि कक्षा प्रथम से संस्कृत पढ़ाने का प्रावधान न केवल अनुपयोगी है, अपितु छात्रों के लिए अति श्रमसाध्य भी। चूंकि यहां के छात्रों की मातृभाषा छत्तीसगढ़ी है अत: छत्तीसगढ़ी पढ़ाना ज्यादा लाभदायक है। साथ ही छात्रों की दृष्टि से सुगम भी। विश्व के तमाम भाषा विज्ञानियों तथा शिक्षा शास्त्रियों ने मातृभाषा में शिक्षण की व्यवस्था को न केवल अत्यधिक लाभकारी माना है, अपितु छात्रों के बौध्दिक विकास का सुगम रास्ता निरूपित किया है। नंदकिशोर शुक्ल ने किसी भी पंक्ति में संस्कृत का विरोध नहीं किया है, यह तो संपादक का अधिकार है कि वे जैसा चाहे शीर्षक दें। बस उसी आधार पर उन्हें संस्कृत विरोधी घोषित करने की मानसिकता क्या सिध्द करती है? जबसे छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिलाने वाला प्रस्ताव पास हुआ है, तब से कुछ स्थापित विद्वानों के मन में अपनी उपेक्षा होने का संदेह बैठ गया है। छत्तीसगढ़ में बोली जाने वाली तमाम लोकभाषाएं छत्तीसगढ़ी की ही उपभाषाएं हैं। इनमें आपसी विरोध होने का सवाल ही नहीं उठता। भारतीय भाषाओं के बीच कहीं कोई अंर्तद्वंद नहीं है, अगर है तो केवल अंग्रेजी से। छत्तीसगढ़ी की उपेक्षा कर किसी भी भाषा को प्राथमिकता देना महावीर प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में 'अपनी माता को असहाय छोड़कर पराई माता की सेवा करने जैसा उपक्रम है। अपनी माता को महत्व देना क्या संकीर्णता है, क्षेत्रीयता है या सीमित दृष्टि है। संस्कृत के देववाणी होने, समस्त भाषाओं की जननी होने या भारतीयता के भीतर ङाांकने की खिड़की होने में किसको संदेह हो सकता है? इसे पूर्ववत कक्षा छठवीं से पढ़ाए जाने पर ही इसकी गरिमा व दिव्यता से परिचित होने में कोई छात्र समर्थ होगा। कक्षा प्रथम से पढ़ाने का न तो कोई तुक है और न ही प्रयोजन। दरअसल जिस तरह अंग्रेजी को विश्व को देखने की खिड़की माना जाता है, उसी तरह संस्कृत भी भारत की आत्मा को देखने की खिड़की है और अपने घर से अपने इर्द-गिर्द देखने की खिड़की का श्रोय मातृभाषा को ही दिया जा सकता है जो कि छत्तीसगढ़ी का हक है।
(लेखक छत्तीसगढ़ी के कवि एवं साहित्यकार हैं)

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