शनिवार, 20 मार्च 2021

बड़े दिल वाले हैं दत्तात्रेय होसबाले

 

आरएसएस के नए सरकार्यवाह के सामने हैं कई चुनौतियां

-प्रो.संजय द्विवेदी



  संघ के सरकार्यवाह के रूप में 12 साल का कार्यकाल पूरा कर जब भैयाजी जोशी विदा हो रहे हैं, तब उनके पास एक सुनहरा अतीत है, सुंदर यादें हैं और असंभव को संभव होता देखने का सुख है। केंद्र में अपने विचारों की सरकार का दो बार सत्ता में आना शायद उनके लिए पहली खुशी न हो किंतु राम मंदिर का निर्माण और धारा 370 दो ऐसे सपने हैं, जिन्हें आजादी के बाद संघ ने सबसे ज्यादा चाहा था और वे सच हुए। ऐसा चमकदार कार्यकाल, संघ का सामाजिक और भौगोलिक विस्तार उनके कार्यकाल की ऐसी घटनाएं हैं, जिस पर कोई भी मुग्ध हो जाएगा। संघ की वैचारिक आस्था को जानने वाले जानते हैं कि संघ में व्यक्ति की जगह विचार और ध्येयनिष्ठा ज्यादा बड़ी चीज है। बावजूद इसके जब उनकी जगह दत्तात्रेय होसबाले ले रहें हैं, तब यह देखना जरूरी है, यहां से अब संघ के सामने क्या लक्ष्य पथ होगा और होसबाले इस महापरिवार को क्या दिशा देते हैं।

  अंग्रेजी में स्नातकोत्तर, आधुनिक विचारों के वाहक, जेपी आंदोलन के बरास्ते अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेता रहे और हिंदी-अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाओं में संवाद कुशल होसबाले ने जब 13 साल की आयु में शाखा जाना प्रारंभ किया होगा, तब उन्हें शायद ही यह पता रहा कि यह विचार परिवार एक दिन राष्ट्र जीवन की दिशा तय करेगा और वे उसके नायकों में वे एक होगें। आपातकाल में 16 महीने जेल में रहे कर्नाटक के शिमोगा जिले के निवासी दत्तात्रेय होसबाले भी यह जानते हैं कि इतिहास की इस घड़ी में उनके संगठन ने उन पर जो भरोसा जताया है, उसकी चुनौतियां विलक्षण हैं। उन्हें पता है कि यहां से उन्हें संगठन को ज्यादा आधुनिक और ज्यादा सक्रिय बनाते हुए उस नए भारत के साथ तालमेल करना है जो एक वैश्विक महाशक्ति बनने के रास्ते पर है। करोना जैसे संकट में हारकर बैठने के बजाए भारतीय मेघा की शक्ति को वैश्विक बनाते हुए उन्हें अपने कार्यकर्ताओं में वह आग फूंकनी है जिससे वे नई सदी की चुनौतियों को जिम्मेदारी से वहन कर सकें। 1992 के कानपुर विद्यार्थी परिषद के अधिवेशन में जब वे संघ के वरिष्ठ प्रचारक मदनदास देवी से परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री का दायित्व ले रहे थे, उसी दिन यह तय हो गया था कि वे एक दिन देश का वैचारिक नेतृत्व करेंगें। उसके बाद संघ के बौद्धिक प्रमुख और अब सरकार्यवाह के रूप में उनकी पदस्थापना इस बात का प्रतीक है कि परंपरा और सातत्य किस तरह किसी विचार आधारित संगठन को गढ़ते हैं। दत्ता जी एक उजली परंपरा के उत्तराधिकारी हैं और गुवाहाटी, पटना, लखनऊ, दिल्ली और बेंगलुरू में रहते हुए भी, देश भर में दौरा करते हुए उन्होंने राष्ट्र के मन को समझा है। राष्ट्र मन की अनुंगूंज, उसके सपनों और आकांक्षाओं की थाह उन्हें बेहतर पता है। इसी के साथ विदेशों में भारतीय समाज के साथ उनका सतत संवाद रहा है, इस तरह वे वैश्विक भारतीय मन के प्रवक्ता भी हैं। जिसे हमारे समय की चुनौतियों से जूझकर इस देश के राष्ट्रनायकों के सपनों को सच करना है। देश की आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में उनका संगठन शीर्ष पर होना कुछ कहता है। इसके मायने वे समझते हैं। सत्ता से मर्यादित दूरी रखते हुए वे उससे संवाद नहीं छोड़ते और अपना लक्ष्य नहीं भूलते। इस मायने में उनकी मौजूदगी एक संवादकुशल, प्रेरक और आत्मीय उपस्थिति भी है। वे लोकजीवन में गहरे घंसे हुए हुए हैं। वे स्वयं दक्षिण भारत से आते हैं, पूर्वोत्तर उनकी कर्मभूमि रहा है, असम की राजधानी गौहाटी में रहते हुए वे वहां के लोकमन की थाह लेते रहे हैं। पटना और लखनऊ में वर्षों रहते हुए उन्होंने हिंदी ह्दय प्रदेश की भी चिंता की है। उनका मन इन भौगोलिक विस्तारों से बड़ा बना है। इन प्रवासों ने उन्हें सही मायने में अखिलभारतीय और वैश्विक चिति का स्वामी बनाया है।  हम वसुधैव कुटुंबकम् कहते हैं वे इस मंत्र को जीने वाले नायक हैं। बहुत अपने से, बहुत स्नेहिल और बेहद आत्मीय।

 देश की युवा और छात्र शक्ति के बीच काम करते हुए उन्होंने उनके मन की थाह ली है। वे नई पीढ़ी से संवाद करना जानते हैं। उनके सपनों, उनकी आकांक्षाओं को जानते हैं। वे छात्र राजनीति के रास्ते समाज नीति में आए हैं इसलिए वे बहुत व्यापक और उदार हैं। उनकी रेंज और कवरेज एरिया बहुत बड़ा है। संघ के शिखर पदों पर रहते हुए वे देश के शिखर बुद्धिजीवियों, कलावंतों,विचारवंतों, साहित्य, संगीत,पत्रकारिता और सिनेमा की दुनिया के लोगों से संवाद रखते रहे हैं। इन बौद्धिक संवादों ने उन्हें समृद्ध किया है और उनकी चेतना को ज्यादा सरोकारी और ज्यादा समावेशी बनाया है। इस मायने में वे भारतीय मेघा का आदर करने वाले और उसे राष्ट्रीय सरोकारों से जोड़ने वाले कार्यकर्ता भी हैं। सामान्य स्वयंसेवक से लेकर देश की शिखर प्रतिभाओं से उनका आत्मीय संवाद है और सबके प्रति उनके मन में आदर है।

  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक खास परिपाटी है। संगठन की दृष्टि से संघ अप्रतिम है। इसलिए संगठन स्तर पर वहां कोई चुनौती नहीं है। वह अपने तरीके से चलता है और आगे बढ़ता जाता है। किंतु दत्ताजी का नेतृत्व उसे ज्यादा समावेशी, ज्यादा सरोकारी और ज्यादा संवेदनशील बनाएगा और वे अपने स्वयंसेवकों में वही आग फूंक सकेंगें जिसे लेकर वे शिमोगा के एक गांव से विचारयात्रा के शिखर तक पहुंचे हैं। उनका यहां पहुंचना इस भरोसे का भी प्रमाण है कि ध्येयनिष्ठा से क्या हो सकता है। उनकी शिखर पर मौजूदगी हमें आश्वस्त करती है कि भैया जी सरीखे प्रचारकों ने जिस परंपरा का उत्तराधिकार उन्हें सौंपा है, वे उस चादर को और उजला कर भारत मां के यश में वृद्धि ही करेंगें। साथ ही इस देश की तमाम शोषित, पीड़ित मानवता की जिंदगी में उजाला लाने के लिए अपने संगठन के सामाजिक प्रकल्पों को और बल देगें।

सिर्फ पीढ़ीगत परिवर्तन नहीं है दत्तात्रेय होसबाले का आगमन

 

परंपरा को बनाए रखते हुए नए भारत की चुनौतियों से कैसे जूझेंगें नए सरकार्यवाह

-प्रो.संजय द्विवेदी

                                                            


    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जो लोग जानते हैं, उन्हें पता है कि यहां किसी व्यक्ति की जगह विचार की महत्ता है। यह एक विचार केंद्रित संगठन है, जहां व्यक्ति निष्ठा से बड़ी विचार और ध्येयनिष्ठा है। अपने ध्येय के लिए सतत् चलते हुए काम करना यही संघ का हेतु है और इसी में उसकी मुक्ति है। इसीलिए संघ संस्थापक डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने भगवा ध्वज को स्वयंसेवकों की प्रेरणा बताया और गुरु स्थान पर स्थापित किया। बावजूद इसके श्री दत्तात्रेय होसबाले का सहकार्यवाह चुना जाना, अपेक्षा से अधिक चर्चा में है। शायद इसलिए भी कि इस समय संघ एक पीढ़ीगत परिवर्तन से गुजर रहा है और उससे अपेक्षाएं बहुत बढ़ गयी हैं। भैयाजी जोशी जैसे योग्य संगठनकर्ता, समन्वयकारी विचारों के धनी और गहरे सामाजिक सरोकारों के वाहक स्वयंसेवक के स्थान पर श्री दत्तात्रेय होसबाले का आना दरअसल उसी परंपरा का विस्तार है जिसे भैया जी और उनके पूर्ववर्तियों ने स्थापित किया है। बावजूद इसके अंग्रेजी में स्नातकोत्तर, एक दक्षिण भारतीय छात्रनेता, अप्रतिम संगठनकर्ता जिसने जेपी आंदोलन से अपनी यात्रा प्रारंभ की का इस तरह संघ के केंद्र में आना साधारण नहीं है। यह संघ में नए विचार का आगमन भी है, जिसे न्यू इंडिया के संकटों का समाधान भी खोजना है। श्री एचवी शेषाद्रि के बाद वे दूसरे ऐसे कर्नाटकवासी हैं, जिन्हें यह बहुत अहम पद मिला है।

   संघ जैसा समावेशी, उदार और लचीला संगठन ढूंढने से नहीं मिलेगा। अपने में परिवर्तन करने, आत्मसमीक्षा करने और अपना दायरा बढ़ाते जाने के लिए संघ ख्यात रहा है। जिस तरह संघ ने समाज जीवन के सब क्षेत्रों, सब वर्गों में, सभी विचारवंतो में, सभी सामाजिक और भौगोलिक क्षेत्रों में अपनी सेवा भावना से जगह बनाई है, वह उसकी सोच को प्रकट करता है। इस अर्थ में संघ कहीं से जड़वादी संगठन नहीं है, जिसके कारण सांप्रदायिक और दायराबंद सोच पनपती है। राष्ट्रीय मुस्लिम मंच, राष्ट्रीय सिख संगत, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, एकल विद्यालय जैसे संगठनों के माध्यम से संघ ने यह स्थापित किया कि समाज को जोड़ना और सेवा के माध्यम से भारत को बदलना ही उसका लक्ष्य है। सभी सरसंघचालकों ने स्वयंसेवकों में यह भाव भरने का प्रयास किया और यह सूक्ति ही उनका ध्येय वाक्य बन गयी- नर सेवा नारायण सेवा। ऐसे समय में श्री दत्तात्रेय होसबाले का सरकार्यवाह पद पर आना पीढ़ीगत परिवर्तन के साथ-साथ वर्तमान समय की चुनौतियों को भी रेखांकित करता है। यह वह समय है, जब संघ विचार से प्रभावित स्वयंसेवक समाज जीवन के हर क्षेत्र में स्थापित हैं तथा बदलते हुए भारत की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए प्राणपण से जुटे हैं। संघ की व्यवस्था में सरसंघचालक एक पूज्य मार्गदर्शक स्थान है और सरकार्यवाह ही दैनिक कार्यों का नेतृत्व करता है। ऐसे में भैयाजी का पिछले 12 वर्षों का नेतृत्व, चमत्कारी कार्यकाल ही कहा जाएगा। भैया जी ने स्वयं को बहुत लो-प्रोफाइल रखते हुए, विवादों से बचते हुए संघ और उससे जुड़े संगठनों को व्यापक विस्तार दिया। साथ ही संघ के समर्थक विचारों का राजनीतिक दल, केंद्रीय राजसत्ता में दो चुनावी जीत हासिल कर सका काबिज हो सका। संघ के संकल्पों में धारा 370 का हटना, गौ-हत्या के लिए कई राज्यों में कानून का बनना, राममंदिर का निर्माण होना ऐसी सूचनाएं है जो हर भारतीय को आह्लादित करती हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल संघ की हमेशा चिंता में रहे हैं। इन अर्थों में संघ दलगत राजनीति से दूर भले है किंतु वह राष्ट्रीय प्रश्नों पर सार्थक हस्तक्षेप करता है। उसमें घुसपैठ से लेकर हमारी सुरक्षा चिंताएं, भाषा और संस्कृति की रक्षा के सवाल संयुक्त हैं। संघ की प्रतिनिधि सभा में पारित प्रस्तावों के विषय और उनकी भाषा देखें तो संघ का पवित्र मन हमारे ध्यान में आता है। इसलिए संघ के शीर्ष अधिकारी कहते हैं संघ को जानना है तो संघ के पास आना होगा। संघ पर उसके वैचारिक विरोधियों द्वारा लिखी गई किताबें आपको कभी सच के करीब नहीं जाने देंगीं। 

   ऐसे में नवनिर्वाचित सरकार्यवाह की चुनौतियां बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि संघ की संगठन के तौर अपनी कोई चुनौती नहीं है। संघ तो समूचे राष्ट्रजीवन और उसके भविष्य का विचार करता है इसलिए इस देश के प्रश्न, उसके संकट ही उसके मुद्दे हैं, चुनौतियां हैं। संघ उन संगठनों में भी नहीं है जो सवाल उठाकर और आंदोलन खड़े कर अपनी भूमिका का अंत मान लेते हैं। संघ सवाल भी उठाता है और उनके समाधान भी सुझाता है। इस मायने में यह उसकी विलक्षणता है। उसके स्वयंसेवक इसलिए समाज जीवन के हर क्षेत्र में सामाजिक व्याधियों का अंत और इलाज करते हुए दिखेंगें। वे आंदोलन करते, सवाल उठाते और सरकारों की घेराबंदी भर करते हुए नहीं दिखते। दत्तात्रेय होसबाले को संघ की इसी भावना का विस्तार करना है। समाजतोड़क गतिविधियों, देशविरोधी प्रयत्नों के विरूद्ध सज्जन शक्ति को ताकतवर बनाना उनका लक्ष्य होगा। जब आपके विचारों से मेल खाती हुई सरकार सत्ता में हो तो चुनौती और बढ़ जाती है।

    दत्ता जी को यह लक्ष्य संधान भी करना होगा कि राजनीति ही उनके कार्यकर्ताओं की मुख्य प्रेरणा न बन जाए। समाज जीवन में संघ के स्वयंसेवक अपनी सेवा भावना से स्वीकृति पाए हुए हैं, उनका परिमाण बढ़े और वे देश के संकटों को कम करने में सहायक बनें। हर संगठन के अपने राजनीतिक विचार होते हैं किंतु संघ ने राजनीति के बजाए बदलाव और सेवा पर जोर दिया है । कर्नाटक में जन्में दत्तात्रेय होसबाले उन लोगों में हैं, जो 13 साल की अल्पायु में संघ की शाखा में गए और पूरी जिंदगी इसी विचार के लिए लगा दी। आपातकाल में 16 माह जेल में रहे होसबाले संघ के छात्र संगठन अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद के 15 साल राष्ट्रीय संगठन मंत्री रहे। गौहाटी, पटना और लखनऊ जैसे स्थानों पर आपने लंबा समय गुजारा और देश भर में प्रवास किया। इस मायने में देश के युवाओं और विद्यार्थियों के बीच उनकी खास पहचान है। वे संघ का उदार और समावेशी चेहरा भी हैं। कई मायनों में ज्यादा आधुनिक भी। वे बहुभाषी हैं और बहुत अधिकार के साथ अनेक भारतीय और विदेशी भाषाएं बोलते हैं। विदेशों के व्यापक प्रवास ने आपको एक वैश्विक दृष्टि भी प्रदान की है और वे नए भारत की वैश्विक भूमिका को बहुत जिम्मेदारी से रेखांकित करते हैं। ऐसे नेतृत्व का शीर्ष पर आना संघ का एक नए युग में प्रवेश है। देखना है कि परंपरा के साथ सातत्य बनाए रखते हुए कैसे वे न्यू इंडिया में अपने संगठन की भूमिका को रेखांकित करते हैं।

बुधवार, 10 मार्च 2021

प्रो.कमल दीक्षितः उन्होंने हमें सिखाया जिंदगी का पाठ

 

-प्रो. संजय द्विवेदी

(महानिदेशक, भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली)



  मेरे गुरू, मेरे अध्यापक प्रो. कमल दीक्षित के बिना मेरी और मेरे जैसे तमाम विद्यार्थियों और सहकर्मियों की दुनिया कितनी सूनी हो जाएगी यह सोचकर भी आंखें भर आती हैं। वे ही ऐसे थे जो एक साथ पत्रकारिता,संपादन, अध्यापन,लेखन और अध्यात्म को साध सकते थे। उन्होंने मनचाही जिंदगी जी और मनचाहा किया। घूमना-फिरना,मिलना- जुलना और पत्रकारिता में नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना के लिए अहर्निश प्रयास को उन्होंने अपना मिशन बना लिया था।

  मेरी जिंदगी में उनका होना एक आत्मिक और आध्यात्मिक छांव थी। वे सच में तो मेरे अध्यापक थे, किंतु बाद के दिनों में वे सचमुच मेरे गुरु बन गए। उनके सान्निध्य में बैठना, चर्चा करना और हमेशा कुछ नवनीत लेकर लौटना मेरी भोपाल की दिनचर्या का आवश्यक अंग था। वे मुझे बहुत कुछ करते हुए देखना चाहते थे,प्रेरित करते थे और नए विचार देते थे। मैं जीवन में जैसा और जितना कर पाया, उसमें उनकी बड़ी भूमिका है। उनका मेरी तरफ बहुत उम्मीदों से देखना मुझे डरा देता था, लगता था कि सर की महान अपेक्षाओं की पूर्ति पर खरा कैसे उतरूंगा। लेकिन वे थे कि थकते नहीं थे। एक के बाद दूसरे लक्ष्य की ओर झोंक देते। मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में हूं जिन लोगों से सर से पत्रकारिता का पहला पाठ बढ़ा। मेरी बीजे और एमजे की पढ़ाई उनके सान्निध्य में हुई। मैं लखनऊ से बीए करके भोपाल में नए खुले पत्रकारिता विश्वविद्यालय में दाखिल हुआ था, बहुत सी उम्मीदों के साथ, बहुत सारे सपनों के साथ। यहां प्रो. दीक्षित हमारे विभागाध्यक्ष थे। हमने उप्र के विश्वविद्यालय देखे थे, जहां सौ एकड़ से कम विश्वविद्यालय की कल्पना ही नहीं होती। बीएचयू जैसे विश्वविद्यालयों को देखा हो तो और भी जोरदार मनोवैज्ञानिक झटके लगते थे, जब हम पहली बार त्रिलंगा की एक छोटी सी कोठी में चल रहे पत्रकारिता विश्वविद्यालय को देखते थे। जब हम अंदर प्रवेश करते थे, कुछ कक्षाएं करते थे, हमारा यह भ्रम जाता रहता था कि विश्वविद्यालय बड़े परिसरों से बड़े होते हैं। श्री राधेश्याम शर्मा हमारे कुलपति थे, डा. सच्चिदानंद जोशी हमारे कुलसचिव, दीक्षित सर एचओडी, डा. श्रीकांत सिंह हमारे हास्टल वार्डन और अध्यापक । लोगों को भले भरोसा न हो, हमने कुलपति से लेकर अपने अध्यापकों के घरों न सिर्फ प्रवेश पाया, भोजन-जलपान किया और ढेर सा प्यार पाया। ऐसा स्नेह और संरक्षण बड़े आकार के संस्थान चाहकर भी नहीं दे सकते, जहां एचओडी के दर्शन भी देव दर्शन होते हों। इन प्यार भरी थपकियों से पले-बढ़े हम और हमारे साथी आज भी एमसीयू की यादों को भुला नहीं पाते।

     प्रो. दीक्षित का हमेशा हंसता हुआ चेहरा, उनकी सरलता और हमारी शैतानियों को नजरंदाज करने की उनकी अभूतपूर्व क्षमता आज भी हमारी आंखें पनीली कर जाती हैं। वे गजब के अध्यापक थे। उनके पास कोई नोट्स नहीं होते थे, उनकी कक्षाएं एक घंटे के निर्धारित समय से अक्सर तीन घंटे पार कर जातीं। पर वे हमें कभी बोर नहीं करती थीं। ऐसा लगता था सर सारी पत्रकारिता आज ही पढ़ा देंगें और हम अभी यहां से निकले नहीं कि संपादक हो जाएंगें। ज्यादातर के साथ ऐसा हुआ भी, जिनमें मैं भी एक था। पिछले कुछ दिनों से सर मूल्यआधारित पत्रकारिता के लिए बेहद सक्रिय थे। उन्होंने एक संगठन बनाया मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति, उसकी पत्रिका भी निकाली मूल्यानुगत मीडिया। सर पिछले 2009 से यह कहते आ रहे थे कि मुझे इस संगठन से जुड़ना चाहिए। मुझे लगता था मैं अपने विश्वविद्यालयीन दायित्वों से इतना घिरा हूं , संगठन में समय नहीं दे पाऊंगा। उन्हें मना करता रहा। पिछले साल कुछ ऐसा हुआ कि सर को कैंसर की बीमारी हुई। हम उनके साथ बैठते थे। एक दिन बहुत कातर स्वर में उन्होंने कहा कि संजय तुम संगठन का काम देखो। सर की आवाज में जाने क्या असर था, मैंने उन्हें सदस्यता का चेक बनाकर तुरंत दिया। कुछ ही महीनों में इंदौर में मूल्यानुगत मीडिया का अधिवेशन था, सर बहुत बीमार थे। फिर भी आए और उस सम्मेलन में मुझे संगठन का अध्यक्ष बना दिया गया। मैं अवाक् था किंतु गुरू आज्ञा की अवहेलना का साहस नहीं था। इस घटना को अभी साल भर भी नहीं हुए हैं। सर बहुत कठिन उत्तराधिकार मेरे कंधों पर सौंपकर जा चुके हैं।

    इसी तरह गत साल माउंटआबू में आयोजित मीडिया सम्मेलन के लिए उन्होंने कहा और मैं चला गया। जबकि इसके पहले वे कई बार कहते रहे मैं नहीं जा सका। माउंटआबू में उन्होंने सप्ताह भर मेरी बहुत चिंता की। हमें बातचीत का बहुत समय मिला। छात्र जीवन के बाद साथ रहने का, दोनों समय साथ भोजन करने का। मैंने उन्हें निकट से देखा वे पूरी तरह अध्यात्म को समर्पित हो चुके थे। सिर्फ मूल्य आधारित समाज और मीडिया का सपना उनकी आंखों में तैरता था। मुझे उनकी कई बातें अव्यवहारिक भी लगती थीं, हमारे प्रतिवाद भी होते, किंतु वे अडिग और अविचल। कहते थे रास्ता यही है। एक सुंदर दुनिया इन्हीं मूल्यों से बनेगी। नहीं तो असंभव है। वहां अपनी गहरी आस्था के चलते उन्होंने कहा संजय यह बाबा का दरबार है। यहां से लौटकर तुम्हें बहुत बड़ा पद मिलेगा। उनकी कृपा तुम पर है पर तुम यहां लेट आए। लौटकर देखना। मुझे इन बातों पर इस तरह का विश्वास नहीं है। पर सर के सामने खामोशी ही ठीक थी। पर मैंने अनुभव किया माउंट आबू से लौटने के बाद मेरे भी अच्छे दिन आए। सर की नजर में यह बाबा का आशीर्वाद है। मैं इसे गुरू कृपा के रूप में भी देखता हूं। मैंने अपने शिक्षक और गुरु की जबसे सुननी प्रारंभ की, मुझे भी आध्यात्मिक शक्तियों को आशीष मिल रहा है। प्रकृति मेरे साथ न्याय करती नजर आती है।

  ऐसे गुरुवर न जाने कितनी कहानियां हैं। एक याद जाती है तो तुरंत दूसरी आती है। उनका न होना मेरी जिंदगी में ऐसा शून्य है, जिसे भरना संभव नहीं है। पिछले साल मेरे दादा जी की पुण्य स्मृति में गांधी भवन, भोपाल में आयोजित कार्यक्रम में वे खराब स्वास्थ्य के बाद भी आए और कहा मैं बीमार नहीं हूं, मेरा शरीर बीमार है। उनका आत्मविश्वास विलक्षण था। इस आयु में भी लेखन, प्रवास, संपादन और मिलने-जुलने से उन्होंने परहेज नहीं किया। हाल में भी भारतीय जनसंचार संस्थान की आनलाइन गोष्ठी में भी वे हमारे साथ जुड़े और सुंदर संबोधन दिया। उनकी अनुपस्थिति को स्वीकारना कठिन है। लगता है वे आएंगें और     कहेंगें पंडत कुछ करो। ऐसे ही जिंदगी गुजर जाएगी। मुझे उनके पुत्र और मेरे भाई गीत दीक्षित, बहूरानी और बच्चों का चेहरा याद आ रहा है। उन सबने सर को बहुत दिल से संभाला और चाहा कि वे मनचाही जिंदगी जिएं। गीत ने सबको जोड़कर सर की पुस्तक विमोचन पर हम सबको जोड़ा और भव्य आयोजन में उनके तमाम दोस्त और साथी जुड़े। हम सब और गीत भाई की इच्छा थी सर मुस्कराएं और खुश रहें। मेरी फेसबुक पोस्ट पर अपनी श्रध्दांजलि व्यक्त करते हुए पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर ने ठीक ही लिखा है- मध्यप्रदेश ने दो पीढ़ियों को संस्कारित करने वाला एक मूल्यनिष्ठ पत्रकार, संपादक और मीडिया प्राध्यापक खो दिया है। सच में सर एक संस्कारशाला थे, पाठशाला और एक पूरी जिंदगी। उनके साथ बिताए समय ने हमें समृद्ध किया है, अब उनकी यादें ही हमारा संबल हैं।