मंगलवार, 27 जून 2017

मोदी राजनीति का दस्तावेज 'मोदी युग'

लोकेन्द्र सिंह

यह मानने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि हमारे समय में भारतीय राजनीति के केंद्र बिन्दु नरेन्द्र मोदी हैं। राजनीतिक विमर्श उनसे शुरू होकर उन पर ही खत्म हो रहा है। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस से लेकर बाकि राजनीतिक दलों की राजनीतिक रणनीति में नरेन्द्र मोदी प्राथमिक तत्व हैं। विधानसभा के चुनाव हों या फिर नगरीय निकायों के चुनावभाजपा मोदी नाम का दोहन करने की योजना बनाती हैजबकि दूसरी पार्टियां मोदी की काट तलाशती हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समर्थक जहाँ प्रत्येक सफलता को नरेन्द्र मोदी के प्रभाव और योजना से जोड़कर देखते हैंवहीं मोदी आलोचक (विरोधी) प्रत्येक नकारात्मक घटना के पीछे मोदी को प्रमुख कारक मानते हैं। इसलिए जब राजनीतिक विश्लेषक संजय द्विवेदी भारतीय राजनीति के वर्तमान समय को 'मोदी युग' लिख रहे हैंतब वह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। अपनी नई पुस्तक 'मोदी युग : संसदीय लोकतंत्र का नया अध्याय' में उन्होंने वर्तमान समय को उचित ही संज्ञा दी है। ध्यान कीजिएसंयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) और कांग्रेसनीत केंद्र सरकार को कब और कितना 'मनमोहन सरकार' कहा जाता था?उसे तो संप्रग के अंग्रेजी नाम 'यूनाइटेड प्रोगेसिव अलाइंसके संक्षिप्त नाम 'यूपीए सरकारसे ही जाना जाता था। इसलिए जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और भाजपानीत सरकार को 'मोदी सरकार' कहा जा रहा हैतब कहाँ संदेह रह जाता है कि भारतीय राजनीति यह वक्त 'मोदीमय' है। हमें यह भी निसंकोच स्वीकार कर लेना चाहिए कि आने वाला समय नेहरूइंदिरा और अटल युग की तरह मोदी युग को याद करेगा। यह समय भारतीय राजनीति की किताब के पन्नों पर हमेशा के लिए दर्ज हो रहा है। भारतीय राजनीति में इस समय को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। इसलिए 'मोदीयुग'पर आई राजनीतिक चिंतक संजय द्विवेदी की किताब महत्वपूर्ण है और उसका अध्ययन किया जाना चाहिए।
            लेखक संजय द्विवेदी की पुस्तक 'मोदी सरकारके तीन साल के कार्यकाल का मूल्यांकन करती है। श्री द्विवेदी के पास राजनीतिक विश्लेषण का समृद्ध अनुभव है। पत्रकारिता में भी शीर्ष पदों पर रहकर उन्होंने राजनीति को बरसों बहुत करीब से देखा है। मोदी सरकार के सत्ता में आने के पहले से नरेन्द्र मोदी की राजनीति पर लेखक की पैनी नजर रही है। नरेन्द्र मोदी की राजनीति पर केंद्रित उनकी एक पुस्तक वर्ष 2014 में आई थी- 'मोदीलाइव'। यह पुस्तक 2014 के अभूतपूर्व चुनाव का अहम दस्तावेज थी। जबकि 'मोदी युगमोदी सरकार के तीन साल के कार्यकाल और इन तीन साल में मोदी राजनीति का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। मोदीयुग नाम से ऐसा नहीं समझा जाना चाहिए कि यह पुस्तक मोदी सरकार का गुणगान करती है। ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक हैक्योंकि इस समय मोदी की खुशामद में अनेक पुस्तकें आ रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी हमारे समय का ऐसा राजनीतिक व्यक्तित्व हैं कि उन पर अनेक लोग अपने-अपने अंदाज से लिख रहे हैं। मोदीयुग में मोदी की जय-जयकार होगीकुछ लोगों को ऐसा भ्रम इसलिए भी हो सकता है क्योंकि लेखक संजय द्विवेदी की पहचान 'राष्ट्रीय विचारधारा के लेखक' के नाते भी है। किन्तुमोदी राजनीति पर केंद्रित अपने आलेखों में लेखक ने अपने लेखकीय धर्म को बहुत जिम्मेदारी से निभाया है। उन्होंने मोदी सरकार की लोककल्याणकारी नीतियों का समर्थन भी किया हैतो अनेक स्थानों पर सवाल भी खड़े किए हैं। एक अच्छे लेखक की यही पहचान है कि जब वह राजनीति का ईमानदारी से विश्लेषण करता हैतब अपने वैचारिक आग्रह को एक तरफ रखकर चलता है। वैसे भी राष्ट्रवादी विचारकों के लिए अपने वैचारिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए राजनीति साधन नहीं हैजिस प्रकार कम्युनिस्टों के लिए राजनीति ही उनके वैचारिक लक्ष्यपूर्ति का साधन है। यहाँ वैचारिक धरातल पर खड़े रहकर राजनीति का निष्पक्ष मूल्यांकन संभव है। आवरण के बाद दो पृष्ठ पलटने के बाद ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले का चित्र देखकर भी यह भ्रम हो सकता है कि इस पुस्तक में भाजपा और मोदी की आलोचना संभव ही नहीं है। लेखक ने यह पुस्तक अपने मार्गदर्शक श्री होसबाले को समर्पित की है।  क्योंकिकिसी भी सामान्य व्यक्ति के लिए यह समझना मुश्किल है कि 'राष्ट्र सबसे पहलेकी अवधारणा में भरोसा करने वाले व्यक्ति के लिए राजनीति अलग विषय है और विचार अलग।
            मोदीयुग के पहले ही लेख में लेखक श्री द्विवेदी लिख देते हैं कि कैसे यह वक्त 'भारतीय राजनीति का मोदी समय' है। वह लिखते हैं- 'राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के लिए यह समय वास्तव में स्वर्णयुग हैजबकि पूर्वांचल के असम में सरकार बनाकर उसने कीर्तिमान रच दिया। हरियाणा भी इसकी एक मिसाल हैजहाँ पहली बार भाजपा की अकेले दम पर सरकार बनी है। मणिपुर जैसे राज्य में उसके विधायक चुने गए हैं। ऐसे कठिन राज्यों में जीत रही भाजपा अपने भौगोलिक विस्तार के रोज नए क्षितिज छू रही है। भाजपा और संघ परिवार को ये अवसर यूँ ही नहीं मिले हैं... नरेन्द्र मोदी दरअसल इस विजय के असली नायक और योद्धा हैंउन्होंने मैदान पर उतर कर एक सेनापति की भाँति न सिर्फ नेतृत्व दिया बल्कि अपने बिखरे परिवार को एकजुट कर मैदान में झोंक दिया।लेखक का स्पष्ट कहना है कि भाजपा के विस्तार और लगातार विजयी अभियान के पीछे नरेन्द्र मोदी की नीति और मेहनत का निवेश है।
            जैसा कि ऊपर लिखा गया है कि पुस्तक में मोदी सरकार का प्रशस्ति गान नहीं है। लेखन ने जहाँ जरूरी समझावहाँ नागफनी से चुभते सवाल खड़े किए हैं। नोटबंदी को उन्होंने 'कालेधन के खिलाफ आभासी' लड़ाई लिखा है। नोटबंदी के आगे सरकार के कैशलेस के विचार को खारिज करते हुए लेखक श्री द्विवेदी ने इस व्यवस्था को'भारतीय मन और प्रकृति के खिलाफबताया है। कैशलेस को उन्होंने नोटबंदी से उपजा शिगूफा भी कहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबंध में अकसर यह कहा जाता है कि वह अभी तक चुनावी मोड से बाहर नहीं निकल सके हैं। जहाँ तक मेरी समझ हैइसका एक बड़ा कारण उनकी भाषण शैली है। बाकि यह भी सच है कि वह अब भी विपक्ष पर उसी तरह हमलावर हैंजैसे कि सत्ता में आने से पहले थे। यहाँ लेखक प्रधानमंत्री मोदी से अपेक्षा व्यक्त करते हैं कि उन्हें शक्ति को सृजन में लगाना चाहिए। विपक्ष पर हल्लाबोल की मुद्रा से बाहर आना चाहिए। उनका कहना सही है- 'रची जा रही कृत्रिम लड़ाइयों में उलझकर भाजपा अपने कुछ समर्थकों को तो खुश रखने में कामयाब होगीकिंतु इतिहास बदलने और कुछ नया रचने की अपनी भूमिका से चूक जाएगी।लेखक संजय द्विवेदी ने यह भी लिखा है कि मोदी सरकार को अत्यधिक डिजिटलाइजेशन से बचना चाहिए। बौद्धिक और राष्ट्रप्रेमी समाज बनाने की चुनौती पर काम करना चाहिए। इसके लिए निष्पक्ष और स्वतंत्र बुद्धिजीवियों से सरकार को संपर्क करना चाहिए। अपने एक लेख में उन्होंने 'एफडीआईपर भाजपा सरकार की नीति पर भी चुभते हुए सवाल उठाए हैं।
            मोदीयुग में लेखक संजय द्विवेदी एक ओर मोदी सरकार की नीतियों और व्यवहार की आलोचना करते हैंतो वहीं उसे सचेत भी करते हैं। इसके साथ ही लेखक उन लोगों और संस्थाओं को भी उजागर करते हैंजो दुर्भावनापूर्ण ढंग से मोदी सरकार को बदनाम करने का षड्यंत्र रचती हैं। खासकरमोदी सरकार को एक समुदाय का दुश्मन सिद्ध करने के लिए देश में 'असहिष्णुता' का बनावटी वातावरण बनाने वाली बेईमान बौद्धिकता पर लेखक ने खुलकर चोट की है। इस असहिष्णु समय मेंलिखिए जोर से लिखिए किसने रोका है भाईआभासी सांप्रदायिकता के खतरेकौन हैं जो मोदी को विफल करना चाहते हैं और कुछ ज्यादा हड़बड़ी में हैं मोदी के आलोचक सहित दूसरे अन्य लेखों में भी आप पढ़ पाएंगे कि कैसे कुछ ताकतें भ्रम उत्पन्न करके एक पूर्ण बहुमत की सरकार को बेकार के प्रश्नों में उलझाने की साजिश कर रही हैं। बहरहालपिछले तीन साल में भारत में एक अलग प्रकार की राजनीतिक हलचल देखने को मिली है। एक ओर भारतीय जनता पार्टी 'सबका साथ-सबका विकास' का दावा और वायदा करती हुई अपना विस्तार करती जा रही हैवहीं दूसरी ओर अपनी राजनीतिक जमीन को बचाने के संकट से जूझ रहे कुछेक राजनीतिक दल और विचारधाराएं सुनियोजित तरीके से ऐसे मुद्दों एवं घटनाओं को चर्चा के केंद्र में बनाकर रखे हुए हैंजिनसे आम समाज का कोई भला नहीं होना है। हालाँकि यह भी सच है कि इन प्रयासों से उनका राजनीतिक एजेंडा भी पूरा होता नहीं दिखता है। इस समय की राजनीति को जानना और समझना बेहद जरूरी है। 'मोदीयुगपुस्तक इस काम में हमारी भरपूर मदद कर सकती है। महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की टिप्पणियों को पढ़कर भी इस पुस्तक की गहराई को समझा जा सकता है। प्रख्यात लेखक विजय बहादुर सिंहनवोदय टाइम्स के संपादक अकु श्रीवास्तवलोकसभा टीवी के संपादक आशीष जोशी,ख्यातिनाम कथाकार इंदिरा दांगीलेखिका एवं मीडिया शिक्षक डॉ. वर्तिका नंदाईटीवी उर्दू के वरिष्ठ संपादक तहसीन मुनव्वर और सुविख्यात एंकर सईद अंसारी ने भी पुस्तक के संबंध में अपने विचार व्यक्त किए हैं। छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने लेखक संजय द्विवेदी की लेखनी की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पुस्तक की प्रस्तावना मूल्यानुगत मीडिया के संपादक और वरिष्ठ मीडिया अध्यापक प्रोफेसर कमल दीक्षित ने लिखी है और प्रख्यात लेखक डॉ. सुशील त्रिवेदी ने भूमिका लिखी है। पुस्तक में 63 लेख शामिल किए गए हैं। यह पुस्तक का पहला संस्करण हैजो हिंदी पत्रकारिता दिवस30 मई, 2017 के सुअवसर पर आया है।
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पुस्तक : मोदीयुग : संसदीय लोकतंत्र का नया अध्याय
लेखक : संजय द्विवेदी
मूल्य : 200 रुपये
प्रकाशक : पहले पहल प्रकाशन, 25 प्रेस कॉम्प्लेक्सएमपी नगर,भोपाल (मध्यप्रदेश) - 462011
वितरक : मीडिया विमर्श, 428-रोहित नगरफेज-1, भोपाल (मध्यप्रदेश)- 462039
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शुक्रवार, 23 जून 2017

सजग पत्रकार की दृष्टि में मोदी-युग

-रमेश नैयर

  पुस्तक मोदी युग का शीर्षक देखकर प्रथम दृष्टया लगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्तुति में धड़ाधड़ प्रकाशित हो रही पुस्तकों में एक कड़ी और जुड़ गई। अल्पजीवी पत्र-पत्रिकाओं के लेखों के साथ ही एक के बाद एक सामने आ रही पुस्तकों में मोदी सरकार की जो अखंड वंदना चल रही है, वो अब उबाऊ लगने लगी है। परंतु पुस्तक को जब ध्यान से पढ़ना शुरू किया तो मेरा भ्रम बिखरता गया कि ये पुस्तक भी मोदी वंदना में एक और पुष्प का अर्पण है। वैसे भी संजय द्विवेदी की पत्रकारिता की तासीर से परिचित होने के कारण मेरे सामने यह तथ्य खुलने में ज्यादा देर नहीं लगी कि पुस्तक में यथार्थ का यथासंभव तटस्थ मूल्यांकन किया गया है। वरिष्ठ पत्रकार संपादक और विचारक प्रोफेसर कमल दीक्षित का आमुख पढ़कर स्थिति और भी स्पष्ट हो गई। वस्तुत: प्रोफेसर कमल दीक्षित द्वारा लिखा गया आमुख पुस्तक की निष्पक्ष, दो टूक और सांगोपांग समीक्षा है। उसके बाद किसी के भी लिए संजय द्विवेदी की इस कृति की सामालोचना की गुंजाइश बचती नहीं है। यह स्वयं में सम्यक नीर-क्षीर विवेचन है।
     भाजपा विरोधी समझे जाते रहे उर्दू के अखबारों और रिसालों को भी यह खुली आंखों से देखना पड़ रहा है कि बीते-तीन सालों की सियासत में दबदबा नरेंद्र मोदी का ही है। जिस तरह से बिखरे हुए प्रतिपक्ष के एकजुट होने की किसी भी कोशिश के पहले श्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा अचानक तुरूप का कोई पत्ता चल देती है, उससे सारी तस्वीर बदल जाती है। ताजा उदाहरण है राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के रूप में प्रतिपक्ष द्वारा किसी नाम पर एकजुटता से विचार करने से पहले ही भाजपा द्वारा दलित वर्ग के प्रबुध्द और बेदाग छवि वाले रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा करके चमत्कृत कर देना। मै मौजूदा सियासी परिदृश्य को जांचने की कोशिश कर ही रहा था कि नजर हैदराबाद से प्रकाशित उर्दू डेली, ’’मुंसिफ’’ की इस आशय की खबर पर पड़ गई कि आज पूरे मुल्क में मोदी और भाजपा का ही दबदबा है। जैसे किसी जमाने मे पं. जवाहर लाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी की कांग्रेस देश की राजनीति की नियंता रहा करती थी, वैसे ही आज श्री मोदी की टक्कर का कोई नेता नजर नहीं आता।
    श्री मोदी के जो आलोचक उन पर अहंकारी होने का आरोप लगाते हैं उनको वर्तमान सरकार के नीतिगत फैसलों की श्रृंखला एक कोने में धकेल देती है। वस्तुतः श्री मोदी की राजनीति की शैली ही ऐसी है कि जिसमें किसी प्रकार के दैन्य-प्रदर्शन की कोई गुंजाईश ही नहीं है। संजय द्विवेदी की पुस्तक में ठीक ही लिखा है कि नई राजनीति ने मान लिया है कि सत्ता का विनीत होना जरूरी नहीं है। अहंकार उसका एक अनिवार्य गुण है। भारत की प्रकृति और उसके परिवेश को समझे बिना किए जा रहे फैसले इसकी बानगी देते हैं। कैशलेश का हौवा ऐसा ही एक कदम है। यह हमारी परम्परा से बनी प्रकृति और अभ्यास को नष्ट कर टेक्नोलाजी के आगे आत्मसमर्पण कर देने की कार्रवाई है। एक जागृत और जीवंत समाज बनने के बजाय हमें उपभोक्ता समाज बनने से अब कोई रोक नहीं सकता।’’ इसी में आगे कहा गया है, “इस फैसले की जो ध्वनि और संदेश है वह खतरनाक है। यह फैसला इस बुनियाद पर लिया गया है कि औसत हिन्दुस्तानी चोर और बेईमान है। क्या नरेन्द्र मोदी ने भारत के विकास महामार्ग को पहचान लिया है या वे उन्हीं राजनीतिक नारों में उलझ रहे हैं, जिनमें भारत की राजनीति अरसे से उलझी हुई है? कर्ज माफी से लेकर अनेक उपाय किए गए किन्तु हालात यह है कि किसानों की आत्महत्याएं एक कड़वे सच की तरह सामने आती रहती है। भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार इन दिनों इस बात के लिए काफी दबाव में हैं कि उनके अच्छे कामों के बावजूद उसकी आलोचना और विरोध ज्यादा हो रहा है। उन्हें लगता है कि मीडिया उनके प्रतिपक्ष की भूमिका में खडे़ हैं। ’’मोदी सरकार’’  मीडिया से कुछ ज्यादा उदारता की उम्मीद कर रही है। यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि आपके राजनीतिक-वैचारिक विरोधी भी देश की बेहतरी के लिए मोदी-मोदी करने लगेंगे।
प्रो. कमल दीक्षित जी के ही शब्दों में मोदी युग ग्रंथ में संकलित लेखों में जहां श्री द्विवेदी, श्री मोदी की संगठन क्षमता, संकल्प निष्ठता और प्रशासनिक उत्कृष्टता को रेखांकित करते हैं, सत्ता को जनधर्मी बचाने के प्रयासों को उभारते हैं और संसदीय लोकतंत्र को सफल बनाने के उपायों को स्वर देते हैं, वहीं आत्मदैन्य से मुक्त हो रहे भारत की उजली छवि प्रस्तुत करते हैं, और राष्ट्रवाद की नई परिभाषा को रूपायित करते हैं। देश में क्षेत्रीय दलों के घटते जनाधार, लगातार सत्ता में बने रहने से आई नीति, निष्क्रियता, संसदीय लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की मर्यादा का उल्लंघन, राजनीतिक अवसरवाद जैसे सामरिक विषयों पर श्री द्विवेदी की टिप्पणियां विषयपरक तो हैं ही, वे प्रकारान्तर से हमारे लोकतंत्र की कमजोरियां को उभारने वाली हैं।’’
   भारतीय मन और प्रकृति के खिलाफ है कैशलेस शीर्षक लेख में संजय द्विवेदी ने एक निष्पक्ष पत्रकार की छवि को सुरक्षित रखते हुए कड़वे-मीठे सच को दो टूक लिख दिया है कि इस मामले में सरकार के प्रबंधकों की तारीफ करनी पडे़गी कि  वे हार को भी जीत में बदलने की क्षमता रखते हैं और विफलताओं का रूख मोड़कर तुरंत नया मुद्दा सामने ला सकते हैं। हमारा मीडिया, सरकार पर बलिहारी है ही। दूसरा तथ्य यह, हमारी जनता और हम जैसे तमाम आम लोग अर्थशास्त्री नहीं हैं। मीडिया और विज्ञापनों द्वारा लगातार हमें यह बताया जा रहा है कि नोटबंदी से कालेधन और आतंकवाद से लड़ाईमें जीत मिलेगी, तो हम सब यही मानने के लिए विवश हैं। नोटबंदी के प्रभाव के आंकलन करने की क्षमता और अधिकार दोनों हमारे पास नहीं हैं।’’ सवाल पूछा जा सकता है, नोटबंदी से क्या हासिल हुआ?
    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अनेक क्षेत्रों में गतिशील हुआ है। भारत-पाकिस्तान संबंधों में नीतिगत स्पष्टता का आभास हुआ है। विदेश नीति के माध्यम से आतंकवाद के विरूध्द वैश्विक एकजुटता विकसित करने में भारत ने तीन वर्षों में जो बहुआयामी प्रयास किए उनके सकारात्मक परिणाम मिलेंगे। इस कारण भी देश के आम लोगों की उम्मीदें अभी टूटी नहीं है और वे मोदी को परिणाम देने वाला राष्ट्र नायक मानते हैं। उससे साफ है कि सरकार ने उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने और कोयले, स्पेक्ट्रम जैसे संसाधनों की पारदर्शी नीलामी से जैसे साहसी फैसलों से भरोसा कायम किया है। देश की समस्याओं को पहचानने और अपनी दृष्टि को लोगों के सामने रखने का काम भी बखूबी इस सरकार ने किया है।
    मन के तंतुओं में प्रतिबद्धता की सीमा तक रची वैचारिक आसक्ति को संजय द्विवेदी छुपाते भी नहीं है और आजकलके दुनियादार लोगों की तरह सत्ता से काम निकालने के लिए उसका ढिंढ़ोरा भी नहीं पीटते। संजय की लोकप्रियता और सभी वर्गों में स्वीकृति का एक बड़ा कारण उनकी व्यवहार कुशलता भी है। अपनी बात पर दृढ़ रहते हुए भी वे दूसरों की सुनने का धैर्य रखते हैं और कभी-कभी इस अंदाज से असहमति भी व्यक्त करते हैं कि सामने वाला कहीं उलझ जाता है और उस उलझन के बावजूद उसका मर्म अमूर्त ही रह जाता है। संजय द्विवेदी की इस अदा पर मुझे उर्दू का एक शेर याद आता है न है इकरार का पहलू, न इनकार का पहलू, तेरा अंदाज मुझे नेहरू का बयां मालूम होता है।’’
    परंतु यह संजय द्विवेदी की प्रकृति का मात्र संचारी भाव है। स्थायी भाव है व्यक्ति संस्था और शासन-प्रशासन तंत्र की गहरी पड़ताल करना। अपनी बात को दृढ़ता से कहना। हां, इतना अवश्य है कि इनका सौंदर्यबोध कई कुरूपताओं और अभद्रताओं पर झीनी-बीनी रेशमी चदरिया डाल देता है। सामने वाले को रेशमी चदरिया के स्पर्श की पुलक और लिखने वाले को यह प्रतीति की अप्रिय छवि से आंखें नहीं मूंदी। अपने अनुराग को किस हद तक छलकाना है और क्षोम को किस सीमा तक व्यक्त कर देना है, इस लेखन कला में संजय ने कुछ दशकों की साधना से सिद्धि प्राप्त कर ली है।
    जहां बात सांस्कृतिक संस्कारों और सरोकारों की आती है, वहां संजय द्विवेदी शब्द जाल में पाठक को उलझाने और मूल मुददे से कतराने की बजाय स्पष्ट तथा सीधी धारणा व्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पक्ष में वह लिखते हैं, आरएसएस को उसके आलोचक कुछ भी कहें पर उसका सबसे बड़ा जोर सामाजिक और सामुदायिक एकता पर है। आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों को जोड़ने और वृहत्तर हिंदू समाज की एकता और शक्ति के उसके प्रयास किसी से छिपे नहीं है। वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती जैसे संगठन संघ की प्रेरणा से ही सेवा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इसलिए ईसाई मिशनरियों के साथ उसका संघर्ष देखने को मिलता है। आरएसएस के कार्यकर्ताओं के लिए सेवा का क्षेत्र बेहद महत्व का है।
   संजय द्विवेदी के जन्म से पूर्व के एक तथ्य को मैं अपनी तरफ से जोड़ना चाहता हूं, जब भारत विभाजन के पश्चात पश्चिमी पंजाब से लाखों की संख्या में हिंदू पूर्वी पंजाब पहुंचे तो संघ के स्वयंसेवकों ने बड़ी संख्या में उनके आतिथ्य, त्वरित पुर्नवास और उनके संबंधियों तक उन्हें पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय बड़ी तादाद में अनेक व्यक्ति घायल और अंग-भंग के शिकार होकर विभाजित भारत में पहुंचे थे। उन्हें यथा संभव उपचार उपलब्ध कराने में संघ के स्वयंसेवकों ने शासन-प्रशासन तंत्र को मुक्त सहयोग दिया था। उसके साथ ही स्वतंत्र भारत ने अनेक प्राकृतिक आपदाओं के दौरान भी संघ के अनुषांगिक संगठनों से जुडे़ समाज सेवियों को स्वतःस्फूर्त सक्रिय पाया जाता रहा। 
संजय लिखते हैं 1950 में संघ के तत्कालीन संघ चालक श्रीगुरू जी ने पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों की मदद के लिए आह्वान किया। 1965 में पाक आक्रमण के पीड़ितों की सहायता का काम किया। 1967 में अकाल पीड़ितों की मदद के लिए संघ आगे आया। 1978 के नवंबर माह में दक्षिण के प्रांतों में आए चक्रवाती तूफान में संघ आगे आया। इसी तरह 1983 में बाढ़ पीड़ितों की सहायता, 1997 में काश्मीरी विस्थापितों की मदद के अलावा तमाम ऐसे उदाहरण है जहां पीड़ित मानवता की मदद के लिए संघ खड़ा दिखा। इस तरह आरएसएस का चेहरा वही नहीं है जो दिखाया जाता है। संकट यह है कि आरएसएस का मार्ग ऐसा है कि आज की राजनीतिक शैली और राजनीतिक दलों को वह नहीं सुहाता। वह देशप्रेम, व्यक्ति निर्माण के फलसफे पर काम काम करता है। वह सार्वजनिक जीवन में शुचिता का पक्षधर है। वह देश में सभी नागरिकों के समान अधिकारों और कर्तव्यों की बात करता है। उसे पीड़ा है अपने ही देश में कोई शरणार्थी क्यों है। आज की राजनीति चुभते हुए सवालों से मुंह चुराती है। संघ उससे टकराता है और उनके समाधान के रास्ते भी बताता है। संकट यह भी है कि आज की राजनीति के पास न तो देश की चुनौतियों से लडने का माद्दा है न ही समाधान निकालने की इच्छाशक्ति। आरएसएस से इसलिए इस देश की राजनीति डरती है। वे लोग डरते हैं जिनकी निष्ठाएं और सोच कहीं और गिरवी पड़ी हैं। संघ अपने साधनों से, स्वदेशी संकल्पों से, स्वदेशी सपनों से खड़ा होता स्वालंबी देश चाहता है, जबकि हमारी राजनीति विदेशी पैसे और विदेशी राष्ट्रों की गुलामी में ही अपनी मुक्ति खोज रही है।ऐसे मिजाज से आरएसएस को समझा नहीं जा सकता। आरएसएस को समझने के लिए दिमाग से ज्यादा दिल की जरूरत है। क्या वो आपके पास है? ’’
   पुस्तक के आवरण के मुखडे़ से उसकी पीठ सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति असहमति में हाथ उठाने वाले प्रखर लेखक-समालोचक विजय बहादुर सिंह, कुछ ख्यातिनाम पत्रकारों के साथ ही छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की टिप्पणियां संजय द्विवेदी की लोकप्रियता के जीवंत साक्ष्य उपस्थित करती हैं। तीन दशकों से अधिक समय के मेरे आत्मीय परिचय संजय द्विवेदी को मैंने एक आत्मीय ओजस्वी पत्रकार, प्रबुध्द अध्यापक और मनमोहिनी शक्ति से संपन्न मित्र के रूप में पाया है। अभी तो इन्होंने यशयात्रा का एक ही पड़ाव पार किया है। मंजिलें अभी और भी हैं। अनेक सुनहरी संभावनाओं का अनंत आकाश उड़ान भरने के लिए उनके सामने खुला पड़ा है।
पुस्तक: मोदी युग, लेखक: संजय द्विवेदी
प्रकाशकः पहले पहल प्रकाशन , 25, प्रेस काम्पलेक्स, एम.पी. नगर,
भोपाल (म.प्र.) 462011मूल्य: 200 रूपए, पृष्ठ-250

पुस्तक के समीक्षक श्री रमेश नैयर देश के जाने-माने पत्रकार और दैनिक भास्कर, रायपुर के संपादक रहे हैं।
                                         




सोमवार, 19 जून 2017

योग से जुड़ रही है दुनिया

-संजय द्विवेदी

  भारतीय ज्ञान परंपरा में योग एक अद्भुत अनुभव है। योग भारतीय ज्ञान का एक ऐसा वरदान है, जिससे मनुष्य की चेतना को वैश्विक चेतना से जुड़ने का अवसर मिलता है। वह स्वयं को जानता है और अपने परिवेश के साथ एकाकार होता है। विश्व योग दिवस, 21 जून के बहाने भारत को विश्व से जुड़ने और अपनी एक पहचान का मौका मिला है। दुनिया के तमाम देश जब योग के बहाने भारत के साथ जुड़ते हैं तो उन्हें भारतबोध होता है, वे एक ऐसी संस्कृति के प्रति आकर्षित होते हैं जो वैश्विक शांति और सद्भाव की प्रचारक है।
   योग दरअसल भारत की शान है, योग करते हुए  हम सिर्फ स्वास्थ्य का विचार नहीं करते बल्कि मन का भी विचार करते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व योग दिवस को मान्यता देकर भारत के एक अद्भुत ज्ञान का लोकव्यापीकरण और अंतराष्ट्रीयकरण करने में बड़ी भूमिका निभाई है। इसके लिए 21 जून का चयन इसलिए किया गया क्योंकि इस दिन सबसे बड़ा दिन होता है। योग  कोई धार्मिक कर्मकाण्ड नहीं है यह मन और जीवन को स्वस्थ रखने का विज्ञान है। यह पूर्णतः वैज्ञानिक पद्धति है जिससे व्यक्ति की जीवंतता बनी रहती है। भारत सरकार के प्रयासों के चलते योग अब एक जनांदोलन बन गया है। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री और आयुष मंत्रालय को इसका श्रेय देना चाहिए कि उन्होंने निजी प्रयासों से आगे आकर इसे शासकीय तौर पर स्वीकृति दिलाने का काम किया। यह बहुत सुंदर बात है कि देश में योग ने एक चेतना पैदा की है और वैश्विक स्तर पर भारत को स्थापित करने का काम किया है।
भारत बना योगगुरूः योग को अंतराष्ट्रीय मान्यता मिलने के बाद पूरी दुनिया भारत की ओर देख रही है। भारत के योगशिक्षकों की पूरी दुनिया में मान्यता बढ़ी है। भारतीय मूल के योगशिक्षकों या भारत में प्रशिक्षित योग शिक्षकों को लोग अधिक भरोसे से देखते हैं। इस बहाने भारत के योगाचार्यों को एक विस्तृत आकाश मिला है और वे अपनी प्रतिभा से वैश्विक स्तर पर अपना स्थान बना रहे हैं। प्रधानमंत्री की रूचि के नाते भारत के दूतावास और विदेश मंत्रालय भी अपने स्तर पर इस गतिविधि को प्रोत्साहित कर रहे हैं। पाठ्यक्रमों में स्थान मिलने के बाद योग की अकादमिक उपस्थिति भी बन रही है। योगिक स्वास्थ्य प्रबंधन जैसे विषय आज हमारे समाज में सम्मान से देखे जा रहे हैं। दुनिया को अच्छे-योग्य-चरित्रवान योग शिक्षक उपलब्ध कराना हमारी जिम्मेदारी है। यह दायित्वबोध हमें काम के अवसर तो देगा ही भारतीय ज्ञान परंपरा को वैश्विक पटल पर स्थापित करेगा। गत वर्ष वैश्विक योग दिवस पर दुनिया भर के देशों में योग के आयोजन हुए। जिनमें तमाम मुस्लिम देश भी शामिल थे। दुबई के बुर्ज खलीफा में स्वयं योगगुरू बाबा रामदेव ने 10 हजार महिलाओं को योग करवाया। इस अवसर उन्होंने अपने संबोधन में कहा था कि योग का कोई पंथ नहीं है यह 100 प्रतिशत पंथनिरपेक्ष अभ्यास है। उनका कहना था कि यह जीवन पद्धति है।
मन की बात में पहल की सराहनाः  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 जून,2015 को आकाशवाणी पर 'मन की बात' कार्यक्रम के तहत देशवासियों को संबोधित करते हुए अंतरराष्‍ट्रीय योग दिवस की चर्चा की थी। तब उन्‍होंने कहा कि लाखों लोगों ने यादगार चित्र भेजे और उसे मैंने रीट्वीट भी किए। योग दिवस मेरे मन को आंदोलित कर गया। प्रधानमंत्री मोदी का कहना था कि पूरी दुनिया ने योग को अपनाया। यह भारत के लिए गर्व की बात है। उन्‍होंने कहा कि योगाभ्‍यास का सूरज दुनिया में कहीं नहीं ढलता। योग ने पूरी दुनिया को जोड़ा। फ्रांस व अमेरिका से लेकर अफ्रीकी व मध्‍यपूर्व के देशों में योग करते लोगों को देखना अविस्‍मरणीय क्षण था। उन्‍होंने टाइम्‍स स्‍क्‍वायर से लेकर सियाचिन और दक्षिण चीन सागर में सैनिकों द्वारा योगाभ्‍यास कार्यक्रम में शामिल होने की सराहना की। पीएम मोदी ने कहा कि कहा कि आइटी प्रोफेशनल्‍स योग शिक्षकों का एक डाटाबेस तैयार करें। हम इनका उपयोग दुनिया भर में कर सकते हैं।
विश्वशांति और योग की उपयोगिताः
दुनिया में मनुष्य आज बहुत अशांत है। उसके मन में शांति नहीं है। इसलिए सर्वत्र हिंसा, आतंकवाद और अशांति का वातावरण है। ऐसे कठिन समय में योग का अनुगमन और अभ्यास विश्वशांति का कारण बन सकता है। मनुष्य का अगर अपने मन पर नियंत्रण हो। उसे चेतना के तल पर शांति अनुभव हो दुनिया में हो रहे तमाम टकराव टाले जा सकते हैं। वैसे भी कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन- मस्तिष्क निवास करता है। योग जहां आपके तन को शक्ति देता है वहीं जब आप प्राणायाम की ओर बढ़ते हैं तो वह आपके मन का भी समाधान करता है। मन की शांति के लिए आपको जंगलों में जाने की जरूरत नहीं है। योग आपको आपके आवास पर ही अद्भुत शांति का अनुभव देता है।
   एकाग्र मन और संतुलित सांसें दरअसल बहुत कुछ साध लेती हैं। योग दिवस के बहाने यह अवसर एक उत्सव में बदल गया है। योग दिवस के मौके पर हर साल कुछ रिकार्ड बन रहे हैं। गत वर्ष  1 लाख से ज्यादा लोगों ने योग कर तोड़ा रिकॉर्ड। फरीदाबाद में बाबा रामदेव के कार्यक्रम में 1 लाख से ज्यादा लोगों ने एक साथ योग करके गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज करवाया है। इसकी घोषणा कार्यक्रम में मंच से डॉ. मनीष बिश्नोई ने की। वहीं पतंजलि के 408 लोगों ने एक साथ 5 सेकेंड शीर्षासन कर पुराने रिकॉर्ड को तोड़ा है। इससे पहले यह रिकॉर्ड सिटीजन लैंड के नाम था जहां 265 लोगों ने एक साथ 5 सेकेंड तक शीर्षासन किया था। इस प्रकार की घटनाएं बताती हैं  कि योग को लेकर देश में उत्साह का वातावरण है। हर आयु वर्ग के लोग अब इस गतिविधि में हिस्सा ले रहे हैं। देश के संत समाज और योगियों ने इस अद्भुत ज्ञान को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए सार्थक प्रयत्न किए हैं। इसके लोकव्यापीकरण में बाबा रामदेव सबसे चमकदार नाम हैं किंतु उनके अलावा भी विधिध धाराओं से जुड़े संत और धर्मगुरू भी इस विद्या को प्रचारित और प्रोत्साहित करने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इसी तरह देश भर के सामाजिक संगठन,विद्यालय और राज्य सरकारें भी इस गतिविधि को प्रोत्साहित कर रही हैं। समाज की समवेत अभिरूचि से यह अभियान एक आंदोलन में बदल गया है इसमें दो राय नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि तन-मन और आत्मा को साधने वाला, बदलने वाला, स्वस्थ रखने वाला यह अभियान जनअभियान बने। गांव-गांव तक फैलै और स्वस्थ-सुंदर भारत वैश्विक नेतृत्वकारी भूमिका में दिखे।



राष्ट्रपति चुनाव के बहाने एक बड़ी छलांग

उप्र के दलित नेता को उम्मीदवार बनाकर मोदी ने सबको चौंकाया
-संजय द्विवेदी


     शायद यही राजनीति की नरेंद्र मोदी शैली है। राष्ट्रपति पद के लिए अनुसूचित जाति समुदाय से आने वाले श्री रामनाथ कोविंद का चयन कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर बता दिया है कि जहां के कयास लगाने भी मुश्किल हों, वे वहां से भी उम्मीदवार खोज लाते हैं। बिहार के राज्यपाल और अरसे से भाजपा-संघ की राजनीति में सक्रिय रामनाथ कोविंद पार्टी के उन कार्यकर्ताओं में हैं, जिन्होंने खामोशी से काम किया है। यानि जड़ों से जुड़ा एक ऐसा नेता जिसके आसपास चमक-दमक नहीं है, पर पार्टी के अंतरंग में वे सम्मानित व्यक्ति हैं। यहीं नरेंद्र मोदी एक कार्यकर्ता का सम्मान सुरक्षित करते हुए दिखते हैं।
     बिहार के राज्यपाल कोविंद का नाम वैसे तो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बीच बहुत चर्चा में नहीं था। किंतु उनके चयन ने सबको चौंका दिया है। एक अक्टूबर,1945 को उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात में जन्मे कोविंद मूलतः वकील रहे और केंद्र सरकार की स्टैंडिंग कौसिल में भी काम कर चुके हैं। आप 12 साल तक राज्यसभा के सदस्य रहे। भाजपा नेतृत्व में दलित समुदाय की वैसे भी कम रही है। सूरजभान, बंगारू लक्ष्मण, संघ प्रिय गौतम, संजय पासवान, थावरचंद गेहलोत जैसे कुछ नेता ही अखिलभारतीय पहचान बना पाए। रामनाथ कोविंद ने पार्टी के आंतरिक प्रबंधन, वैचारिक प्रबंधन से जुड़े तमाम काम किए, जिन्हें बहुत लोग नहीं जानते। अपनी शालीनता, सातत्य, लगन और वैचारिक निष्ठा के चलते वे पार्टी के लिए अनिवार्य नाम बन गए। इसलिए जब उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाया गया तो लोगों को ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ। अब जबकि वे राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार घोषित किए जा चुके हैं तो उनपर उनके दल और संघ परिवार का कितना भरोसा है , कहने की जरूरत नहीं है। रामनाथ कोविंद की उपस्थिति दरअसल एक ऐसा राजनेता की मौजूदगी है जो अपनी सरलता, सहजता, उपलब्धता और सृजनात्मकता के लिए जाने जाते हैं। उनके हिस्से बड़ी राजनीतिक सफलताएं न होने के बाद भी उनमें दलीय निष्ठा, परंपरा का सार्थक संयोग है।
कायम है यूपी का रूतबा
उत्तर प्रदेश के लोग इस बात से जरूर खुश हो सकते हैं कि जबकि कोविंद जी का चुना जाना लगभग तय है,तब प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों पदों पर इस राज्य के प्रतिनिधि ही होगें। उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी जिस तरह सिमट रही है और विधानसभा चुनाव में उसे लगभग भाजपा ने हाशिए लगा दिया है, ऐसे में राष्ट्रपति पद पर उत्तर प्रदेश से एक दलित नेता को नामित किए जाने के अपने राजनीतिक अर्थ हैं। जबकि दलित नेताओं में केंद्रीय मंत्री थावर चंद गहलोत भी एक अहम नाम थे, किंतु मध्यप्रदेश से आने के नाते उनके चयन के सीमित लाभ थे। इस फैसले से पता चलता है कि आज भी पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री की नजर में उत्तर प्रदेश का बहुत महत्व है। उत्तर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक विजय ने उनके संबल को बनाने का काम किया है। यह विजययात्रा जारी रहे, इसके लिए कोविंद के नाम का चयन एक शुभंकर हो सकता है। दूसरी ओर बिहार का राज्यपाल होने के नाते कोविंद से एक भावनात्मक लगाव बिहार के लोग भी महसूस कर रहे हैं कि उनके राज्यपाल को इस योग्य पाया गया। जाहिर तौर पर दो हिंदी ह्दय प्रदेश भारतीय राजनीति में एक खास महत्व रखते ही हैं।

विचारधारा से समझौता नहीं
रामनाथ कोविंद के बहाने भाजपा ने एक ऐसा नायक का चयन किया है जिसकी वैचारिक आस्था पर कोई सवाल नहीं है। वे सही मायने में राजनीति के मैदान में एक ऐसे खिलाड़ी रहे हैं जिसने मैदानी राजनीतिक कम और दल के वैचारिक प्रबंधन में ज्यादा समय दिया है। वे दलितों को पार्टी से जोड़ने के काम में लंबे समय से लगे हैं। मैदानी सफलताएं भले उन्हें न मिली हों, किंतु विचारयात्रा के वे सजग सिपाही हैं। संघ परिवार सामाजिक समरसता के लिए काम करने वाला संगठन है। कोविंद के बहाने उसकी विचारयात्रा को  सामाजिक स्वीकृति भी मिलती हुयी दिखती है। बाबा साहेब अंबेडकर को लेकर भाजपा और संघ परिवार में जिस तरह के विमर्श हो रहे हैं, उससे पता चलता है कि पार्टी किस तरह अपने सामाजिक आधार को बढ़ाने के लिए बेचैन है। राष्ट्रपति के चुनाव के बहाने भाजपा का लक्ष्यसंधान दरअसल यही है कि वह व्यापक हिंदू समाज की एकता के लिए नए सूत्र तलाश सके। वनवासी-दलित और अंत्यज जातियां उसके लक्ष्यपथ का बड़ा आधार हैं। जिसका सामाजिक प्रयोग अमित शाह ने उप्र और असम जैसे राज्यों में किया है। निश्चित रूप से राष्ट्रपति चुनाव भाजपा के हाथ में एक ऐसा अवसर था जिसके वह बड़े संदेश देना चाहती थी। विपक्ष को भी उसने एक ऐसा नेता उतारकर धर्मसंकट में ला खड़ा किया है, एक पढ़ा-लिखा दलित चेहरा है। जिन पर कोई आरोप नहीं हैं और उसने समूची जिंदगी शुचिता के साथ गुजारी है।
राष्ट्रपति चुनाव की रस्साकसी
  राष्ट्रपति चुनाव के बहाने एकत्रित हो रहे विपक्ष की एकता में भी एनडीए ने इस दलित नेता के बहाने फूट डाल दी है। अब विपक्ष के सामने विचार का संकट है। एक सामान्य दलित परिवार से आने वाले इस राजनेता के विरूद्ध कहने के लिए बातें कहां हैं। ऐसे में वे एक ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं जिसे उसके साधारण होने ने ही खास बना दिया है। मोदी ने इस चयन के बहाने राजनीति को एक नई दिशा में मोड़ दिया है। अब विपक्ष को तय करना है कि वह मोदी के इस चयन के विरूद्घ क्या रणनीति अपनाता है।