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सोमवार, 30 जून 2025

हिंदी के विरूद्ध बेसुरी आवाजें!

 

भारतीय भाषाओं का आपसी संघर्ष अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जड़ें और मजबूत करेगा

-प्रो.संजय द्विवेदी

  भरोसा नहीं होता कि महाराष्ट्र जैसी महान धरती से हिंदी के विरोध में भी कोई बेसुरी आवाज़ सामने आएगी। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने महाराष्ट्र में पहली से लेकर पाँचवीं कक्षा तक हिंदी पढ़ाए जाने का विरोध किया है। यह एक ऐसा विचार है, जिसकी जितनी निंदा की जाए कम है। मैं पत्रकारिता का विद्यार्थी हूं और जानता हूं कि आज की हिंदी को स्थापित करने के लिए बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, पं. माधवराव सप्रे, रामकृष्ण खाडिलकर, लक्ष्मण नारायण गर्दे जैसे यशस्वी पत्रकारों का खास योगदान है। महाराष्ट्र समन्वय और सद्भाव की घरती है, जहां सभी विचारों, भाषाओं, सामाजिक आंदोलनों को फलने-फूलने का मौका मिला है। छत्रपति शिवाजी जहां सुशासन के राष्ट्रीय प्रतीक बने, तो संत परंपरा ने महाराष्ट्र को आध्यात्मिक ऊंचाई दी, मुंबई जहां कांग्रेस की स्थापना का गवाह बना तो दूसरी नागपुर से बाबा साहब आंबेडकर और डा. केशवराम बलिराम हेडगेवार ने ऐतिहासिक आंदोलनों और संगठनों का सूत्रपात किया। मुंबई, नागपुर जैसे शहर अपनी बहुभाषिकता के कारण पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते रहे।

   भाषा और मूल्यों को लेकर जिस तरह के विमर्श और चर्चाएं इन दिनों हवा में हैं, वह कई बार बहुत आतंकित करती हैं। अँगरेज़ी के बढ़ते साम्राज्यवाद के बीच हमारी बोलियाँ और भाषाएं जिस तरह सहमी व सकुचाई हुई सी दिखती हैं, उसमें ऐसे विचार अँगरेज़ी के प्रभुत्व को ही स्थापित करने का काम करेंगे। कुल मिलाकर संदेश यह है कि आइए हम भारतीय भाषा परिवार के लोग आपस में सिर फुटौव्वल करें, एक-दूसरे के कपड़े फाड़ें और अँगरेज़ी को राजरानी की तरह प्रतिष्ठित कर दें। भारतीय भाषाओं का आपसी संघर्ष किसे ताकत दे रहा है कहने की जरूरत नहीं है। किंतु राजनीति भाषा, जाति, पंथ और क्षेत्र के नाम पर बांटने का व्यापार बन गयी है। कभी दक्षिण भारतीयों, कभी उत्तर भारतीयों के विरूद्ध अभियान चलाने वाली शिवसेना आज भाषा के नाम पर  बंटवारे की राजनीति में लगी है।

विभाजनों का सुख लेती राजनीति-

    भारतीय भाषा परिवार की भाषाएं और बोलियाँ एक-दूसरे से टकरा रही हैं। राजनीतिक आधार पर विभाजन करके अपनी राजनीति चलाने वाली ताकतें भाषा का भी ऐसा ही इस्तेमाल कर रही हैं। देश का विचार और हमारी सामूहिक संस्कृति का विचार लुप्त होता जा रहा है। भाषा, क्षेत्र, जाति, पंथ ऐसे अखाड़े बन गए हैं, जिसने हमारी सामूहिकता को नष्ट कर दिया है। राजनीति इन्हीं विभाजनों का सुख ले रही है। कितना अच्छा होता कि शिवसैनिक अँगरेज़ी को हटाने की बात करते, लेकिन उन्हें हिंदी से ही समस्या नज़र आई। हिंदी भारतीय भाषा परिवार की बहुप्रसारित भाषा है। यह हमारे लोक जीवन में पैठी हुई है। हिंदी के ख़िलाफ़ किसी भी भाषा को खड़ा करना एक ऐसा अपराध है, जिसके लिए हमें पीढ़ियाँ माफ़ नहीं करेंगी। यह अपने पुरखों के यश को बिसरा देने जैसा है, अपने अतीत को अपमानित और लांछित करने जैसा है। स्वयं को राष्ट्रवादी बताने वाले क्षेत्रीयता के आवेश में इस कदर आँखों पर पट्टियाँ बाँध लेंगे, इसकी कल्पना भी डरावनी है। जिस तरह अँगरेज़ी ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को पददलित किया है उसकी मिसाल नहीं मिलेगी। आज जबकि बाज़ारवाद की तेज़ हवा में हमारी तमाम बोलियाँ, तमाम शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, लोकगीत नष्ट होने के कगार पर हैं, क्या इन्हें बचाना और साथ लेकर चलना हमारी जिम्मेदारी नहीं है? हिंदी और मराठी सगी बहनों की तरह विकसित हुई हैं। मराठी का साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, अध्यात्म सब हिंदी भाषियों के प्रेरित करता रहा है। हिंदी इलाके में हो रहे जाणता राजा के मंचन इस बात के गवाह हैं कि महाराष्ट्र की संस्कृति किस तरह हिंदी इलाकों में स्वीकृति पा रही है। हिंदी इलाकों से चुने गए सांसद, विधायक, जनप्रतिनिधि इसकी गवाही हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश के अनेक क्षेत्रों का मराठी भाषी शासकों ने नेतृत्व किया। राजनीति से लेकर साहित्य और समाज सेवा में अपना अग्रणी स्थान बनाया। आप देखें तो रानी अहिल्याबाई होलकर, जो एक हिंदी भाषी इलाके की शासिका थीं, उन्हें पूरे देश में किस तरह याद किया गया। भारत का विचार कृतित्व को सम्मान देने का रहा है। इसलिए अनेक मराठी भाषी राजनेता, लेखक, कलाकार हिंदी भाषी क्षेत्रों में सम्मान पाते रहे। ताजा उदाहरण में इंदौर से सुमित्राताई महाजन आठ बार लोकसभा का चुनाव जीतीं। कृष्ण मुरारी मोघे इंदौर के मेयर और खरगोन से सांसद रहे। ग्वालियर का सिंधिया परिवार भी मूलतः मराठीभाषी है जिसे हिंदी भाषी लोगों ने दिलों में जगह दी। कुशाभाऊ ठाकरे तो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के पितृपुरूष रहे, बाद में राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। मप्र में तुकोजीराव पवार का परिवार, छत्तीसगढ़ में रजनीताई उपासने, पंडरीराव कृदत्त, यशवंत राव मेधावाले, दिनकर डांगे विधायक रहे, उप्र में मधुकर दीघे जैसे अनेक नेता विधानसभा पहुंचे। गंभीर अध्ययन से अनेक ऐसे उदाहरण हर क्षेत्र में पाए जा सकते हैं। इसी तरह महाराष्ट्र ने हिंदी वासियों को दिल में जगह दी। अनेक सांसद, विधायक और मंत्री महाराष्ट्र की सरकार में रहे। इस तरह कभी हिंदी और मराठी विवाद सामने नहीं आया। आजादी के 75 सालों के बाद इस तरह का विवाद चिंतनीय है और सोचनीय भी। हिंदी साहित्य, पत्रकारिता, थियेटर, फिल्म और कलाएं महाराष्ट्र में फली-फूलीं। यह सहज संवाद और आत्मीयता समाज के स्तर पर भी थी, भाषा के स्तर पर भी। हिंदी देश के बड़े क्षेत्र में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। इसका आदर करते हुए ही हिंदी को देश की राजभाषा का दर्जा दिया गया है। किंतु राज्यों में राज्य की भाषाएं आदर पाएं और उच्चाशन भी इससे किसी को आपत्ति  कहां है। क्या सरकारों और राजनेताओं की हिम्मत है कि वे अंग्रेजी को प्राथमिक शिक्षा बाहर कर सकें? उन्हें पता है कि ऐसा करने से अभिभावकों का जो प्रतिरोध सामने आएगा, उसका वे सामना नहीं कर सकेंगें। इसलिए भाषा प्रेम की नौटंकी से बाज आकर ऐसे रास्ते निकालने चाहिए जिससे भारतीय भाषाओं का न्यूनतम सम्मान तो सुरक्षित रह सके। जाहिर है ऐसे विवाद अंग्रेजी की जड़ों को गहरा करने में सहायक बनेगें। इससे भारतीय भाषाएं उपेक्षा और अनादर की शिकार होती रहेंगी।

मातृभाषा में हो प्राथमिक शिक्षा-

   कई देश अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करते हैं, किसी अन्य भाषा में नहीं। मराठी भाषा में प्राथमिक शिक्षा दिए जाने की माँग कतई नाजायज नहीं है और ऐसा होना ही चाहिए। किंतु हिंदी विरोध को किसी नारे की तरह इस्तेमाल करते हुए उसके राजनीतिक इस्तेमाल से बचना सबसे बड़ी ज़रूरत है। मराठी को अध्ययन, अध्यापन की भाषा बनाने के लिए आंदोलन होना चाहिए पर वह हिंदी के तिरस्कार से नहीं होगा। मराठी को महाराष्ट्र में राजभाषा का दर्ज़ा मिला हुआ है, तो राज्य सरकार का यह नैतिक दायित्व है कि उसे राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए सारे जतन करे। राजनीति का यह द्वंद समझा जा सकता है कि वह अपने सारे क्रिया व्यापार एक विदेशी भाषा (अंग्रेजी) में करती है और आम जनता के भावनात्मक शोषण के लिए स्थानीय भाषाओं के विकास की नारेबाजी करती है।  महाराष्ट्र की फ़िजाओं में इस तरह की बातें फैलाना वास्तव में इस क्षेत्र की तासीर के ख़िलाफ़ है। भारतीय भाषाओं के बिना हम कितने बेचारे हो जाएँगे इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। जब हजारों-हजार भाषाएं, हजारों-हजार बोलियाँ, हज़ारों शब्द लुप्त होने के कगार पर हैं और अँगरेज़ी का साम्राज्यवाद उन्हें निगलने के लिए खड़ा है, तो ऐसे समय में क्या हम ऐसी फ़िजूल की बहसों के लिए अपना वक्त खराब करते रहेंगे।

 

शुक्रवार, 9 मई 2025

तानाशाह नहीं हैं मोदी !

 

आलोचकों की परवाह न कर अपनी राह चलते हैं प्रधानमंत्री

-प्रो.संजय द्विवेदी

 


          प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कुछ तो खास है कि वे अपने विरोधियों के निशाने पर ही रहते हैं। इसका खास कारण है कि वे अपनी विचारधारा को लेकर स्पष्ट हैं और लीपापोती, समझौते की राजनीति उन्हें नहीं आती। राष्ट्रहित में वे किसी के साथ भी चल सकते हैं, समन्वय बना सकते हैं, किंतु विचारधारा से समझौता उन्हें स्वीकार नहीं है। उनकी वैचारिकी भारतबोध, हिंदुत्व के समावेशी विचारों और भारत को सबसे शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की अवधारणा से प्रेरित है। यह गजब है कि पार्टी के भीतर अपने आलोचकों पर भी उन्होंने कभी अनुशासन की गाज नहीं गिरने दी,यह अलग बात है कि उनके आलोचक राजनेता ऊबकर पार्टी छोड़ चले जाएं। उन्हें विरोधियों को नजरंदाज करने और आलोचनाओं पर ध्यान न देने में महारत हासिल है। इसके उलट पार्टी से नाराज होकर गए अनेक लोगों को दल में वापस लाकर उन्हें सम्मान देने के अनेक उदाहरणों से मोदी चकित भी करते हैं।

        किसी व्यक्ति की लोकतांत्रिकता उसकी अपने दल के साथियों से किए जा रहे व्यवहार से आंकी जाती है। मोदी यहां चौंकाते हुए नजर आते हैं। वे दल के सर्वोच्च नेता हैं किंतु उनका व्यवहार आलाकमान सरीखा नहीं है। आप उन्हें तानाशाह भले कहें, किंतु तटस्थ विश्लेषण से पता चलता है कि 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद आजतक उनकी आलोचना करने वाले अपने किसी साथी के विरूद्ध उन्होंने कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होने दी। कल्पना करें कि किसी अन्य दल में अपने आलाकमान या सर्वोच्च नेता की आलोचना करने वाला व्यक्ति कितनी देर तक अपनी पार्टी में रह सकता है। नरेंद्र मोदी यहां भी रिकार्ड बनाते हैं। जबकि भाजपा में अनुशासन को लेकर कड़ी कारवाईयां होती रही हैं। भाजपा और जनसंघ के दिग्गज नेताओं में शामिल रहे बलराज मधोक से लेकर कल्याण सिंह, उमा भारती, बाबूलाल मरांडी, बीएस येदुरप्पा जैसे दिग्गजों पर कार्रवाइयां हुई हैं, तो गोविंदाचार्य पर भी एक कथित बयान को लेकर गाज गिरी। उन्हें अध्ययन अवकाश पर भेजा गया, जहां से आजतक उनकी वापसी नहीं हो सकी है। मोदी का ट्रैक अलग है। वे आलोचनाओं से घबराते नहीं और पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की छूट देते हुए अपने आलोचकों को भरपूर अवसर देते हैं।

         यह कहा जा सकता है कि मोदी आलोचनाओं के केंद्र में रहे हैं, इसलिए इसकी बहुत परवाह नहीं करते हैं। वे कहते भी रहे हैं कि उनके निंदक जो पत्थर उनकी ओर फेंकते हैं, उससे वे अपने लिए सीढ़ियां तैयार कर लेते हैं। 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद पार्टी के भीतर भी उनके आलोचकों और निंदकों की पूरी फौज सामने आती है, जो तमाम मुद्दों पर उन्हें घेरती रही है। आश्चर्यजनक रूप से मोदी उनके विरूद्ध पार्टी के अनुशासन तोड़ने जैसी कार्यवाही भी नहीं होने देते हैं। इसमें पहला नाम गाँधी परिवार से आने वाले वरूण गांधी का है, जिन्हें भाजपा ने सत्ता में आने के बाद संगठन में महासचिव का पद दिया। वे सांसद भी चुने गए। किंतु पार्टी संगठन में उनकी निष्क्रियता से महासचिव का पद चला गया और वे मोदी के मुखर आलोचक हो गए। अपने बयानों और लेखों से मोदी को घेरते रहे। बावजूद इसके न सिर्फ उनको 2019 में भी लोकसभा का टिकट मिला, बल्कि आज भी वे पार्टी के सदस्य हैं। खुलेआम आलोचनाओं और अखबारों में लेखन के बाद भी उन्हें आज तक एक नोटिस तक पार्टी ने नहीं दिया है। हां, इस बार वे टिकट से जरूर वंचित हो गए। उनकी जगह कांग्रेस से आए जितिन प्रसाद को पीलीभीत से लोकसभा का टिकट मिल गया। जतिन जीत भी गए।

        दूसरा उदाहरण फिल्म अभिनेता और अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे शत्रुध्न सिन्हा का है। सिन्हा मोदी के मुखर आलोचक रहे और समय-समय पर सरकार पर टिप्पणी करते रहे। अंततः वे भाजपा छोड़कर पहले कांग्रेस, फिर तृणमूल कांग्रेस में चले गए। अब वे आसनसोल से तृणमूल के सांसद हैं। यही कहानी पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा की है। उन्होंने भी मोदी विरोधी सुर अलापे और अंततः पार्टी छोड़कर चले गए। उनके पार्टी छोड़ने के बाद भी उनके बेटे जयंत सिन्हा को 2019 में भाजपा ने लोकसभा की टिकट दी। जयंत सिन्हा मोदी सरकार में मंत्री भी रहे। इस बार जयंत का टिकट कट गया। ऐसे ही उदाहरणों में क्रिकेटर कीर्ति आजाद भी हैं। मोदी सरकार के विरूद्ध उनके बयान चर्चा में रहे, संप्रति वे तृणमूल कांग्रेस के साथ हैं।

      लेखक और दिग्गज पत्रकार अरूण शौरी, अटल जी की सरकार में मंत्री रहे। उनका बौद्धिक कद बहुत बड़ा है। एक इंटरव्यू में अरुण शौरी ने कहा कि नरेंद्र मोदी के बारे में उनके अधिकारी ही मुझे कहते हैं कि उनके सामने बोल नहीं सकते। मंत्री डरे हुए रहते हैं। कोई कुछ बोल नहीं पाता है उनके सामने। उनके सामने जाने और कुछ भी कहने से पहले लोग डरे रहते हैं और सोच समझकर बोलते हैं। हालांकि अटल जी की पर्सनालिटी ऐसी थी कि लोग उनसे अपनी बात कहना चाहते थे और वह सुनते भी थे। उनकी एक खास बात यह भी थी कि वह भी यह जानना चाहते थे कि लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। वह पूछा करते थे और लोग बिना किसी डर के बताते भी थे। तीखी आलोचनाओं के बाद भी मोदी का उनके प्रति सौजन्य कम नहीं हुआ और वे शौरी की बीमारी में उन्हें देखने अस्पताल जा पहुंचे और उनके परिजनों से भी मुलाकात की। अरुण शौरी और पीएम मोदी के रिश्तों में उस समय सबसे ज्यादा खटास देखी गई, जब अरुण शौरी यशवंत सिन्हा के साथ राफेल मामले को सुप्रीम कोर्ट लेकर पहुंच गए। यहां पर उन्होंने मामले की जांच और सौदे पर सवाल उठाए थे । हालांकि सुप्रीम कोर्ट में सरकार को क्लीन चिट मिल गई। रिश्तों में आई खटास के बावजूद भी पीएम मोदी ने पुणे स्थित अस्पताल में अरूण शौरी से मुलाकात की। इस मुलाकात के फोटो शेयर करते हुए लिखा- आज पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी जी से मुलाकात की और उनका हालचाल जाना। उनके साथ इस दौरान बहुत अच्छी बातचीत हुई। हम उनकी दीर्घायु और स्वस्थ्य जीवन की कामना करते हैं।

       अपने तीखे तेवरों के चर्चित सुब्रमण्यम स्वामी कभी जनसंघ- भाजपा से जुड़े रहे। बाद में वे भाजपा से अलग होकर जनता पार्टी के अध्यक्ष बने। केंद्र में मंत्री भी बने। 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी ने स्वामी को राज्यसभा के लिए भेजा। स्वामी इससे कुछ अधिक चाहते थे। जाहिर है इन दिनों वे मोदी के प्रखर आलोचक बने हुए हैं। किंतु उनकी आलोचनाओं पर मोदी या भाजपा ने कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। एक साक्षात्कार में स्वामी ने कहा कि मैं बीजेपी का हिस्सा हूं...मैं इनके साथ लंबे समय से साथ हूं। मुझे पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी से भी दिक्कत थी लेकिन इतनी समस्या नहीं थी, जितनी कि पीएम नरेंद्र मोदी से है।

 भाजपा छोड़कर जा चुके पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान को वापस लाकर मोदी ने उन्हें केरल के राज्यपाल पद से नवाजा। राज्यपाल के पद पर बैठकर मोदी की आलोचना करते रहे सतपाल मलिक को भी प्रधानमंत्री पद से नहीं हटाते, बल्कि कार्यकाल पूरा करने का अवसर देते हैं। जबकि राज्यपाल एक संवैधानिक पद है और उस पद पर बैठे व्यक्ति को केंद्र सरकार की सार्वजनिक आलोचना से बचना चाहिए। किंतु सतपाल मलिक ऐसा करते रहे और मोदी उनकी सुनते रहे। इसी तरह झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी नाराज होकर पार्टी से बाहर थे और अपनी पार्टी बनाकर सक्रिय थे। भाजपा ने मोदी के कार्यकाल में न सिर्फ उनकी पार्टी में वापसी सुनिश्चित की बल्कि उन्हें झारखंड विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद भी दिया। नाराज होकर भाजपा दो बार छोड़ चुके कल्याण सिंह( अब स्वर्गीय) को राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया। उनके पुत्र राजबीर को लोकसभा की टिकट और पौत्र संदीप सिंह को उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री का पद मिला है। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री रहीं उमा भारती भी भाजपा के अनुशासन चक्र का शिकार रहीं। मोदी ने उन्हें अपनी सरकार में मंत्री बनाया और उनके साथ भाजपा छोड़कर गए प्रह्लाद सिंह पटेल मोदी सरकार में राज्यमंत्री बने। अब पटेल मध्यप्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। ये उदाहरण बताते हैं मोदी अपने लोगों के प्रति खासे उदार हैं। वे अपनी निजी आलोचना की बहुत परवाह नहीं करते और गांठ नहीं बांधते। निजी रिश्तों को राजनीति से ऊपर रखते हैं। वे शरद पवार के अभिनंदन समारोह में शामिल हो सकते हैं, मुलायम सिंह यादव के परिवार में आयोजित विवाह समारोह में भी इटावा भी जा सकते हैं। उनकी ताकत है कि वे कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ भाजपा की सरकार बनाने की अनुमति दे सकते हैं। राजनीतिक समझ-बूझ के साथ अपने वैचारिक आग्रहों पर डटे रहना मोदी की विशेषता है। इसलिए वे भारतीय राजनीति की पिच पर आज भी मजबूती से जमे हुए हैं।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान(आईआईएमसी), नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं।)

मीडिया विद्यार्थियों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के तैयार करें- प्रो.संजय द्विवेदी

                                                                            इंटरव्यू

प्रोफेसर संजय द्विवेदी से  वरिष्ठ पत्रकार अहमद लाली की अंतरंग बाचतीत



प्रोफ़ेसर(डा.) संजय द्विवेदी मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में एक जानी-मानी शख्सियत हैं। वे भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC) दिल्ली के महानिदेशक रह चुके हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति और कुलसचिव बतौर भी उन्होंने अपनी सेवाएं दी हैं। मीडिया शिक्षक होने के साथ ही प्रो.संजय द्विवेदी ने सक्रिय पत्रकार और दैनिक अखबारों के संपादक के रूप में भी भूमिकाएं निभाई हैं। वह मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक भी हैं। 35 से ज़्यादा पुस्तकों का लेखन और संपादन भी किया है। सम्प्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में प्रोफेसर हैं। मीडिया शिक्षा, मीडिया की मौजूदा स्थिति, नयी शिक्षा नीति जैसे कई अहम् मुद्दों पर वरिष्ठ पत्रकार रईस अहमद 'लाली' ने उनसे लम्बी बातचीत की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के सम्पादित अंश : 

 

- संजय जी, प्रथम तो आपको बधाई कि वापस आप दिल्ली से अपने पुराने कार्यस्थल राजा भोज की नगरी भोपाल में आ गए हैं। यहाँ आकर कैसा लगता है आपको? मेरा ऐसा पूछने का तात्पर्य इन शहरों से इतर मीडिया शिक्षा के माहौल को लेकर इन दोनों जगहों के मिजाज़ और वातावरण को लेकर भी है। 

अपना शहर हमेशा अपना होता है। अपनी जमीन की खुशबू ही अलग होती है। जिस शहर में आपने पढ़ाई की, पत्रकारिता की, जहां पढ़ाया उससे दूर जाने का दिल नहीं होता। किंतु महत्वाकांक्षाएं आपको खींच ले जाती हैं। सो दिल्ली भी चले गए। वैसे भी मैं जलावतन हूं। मेरा कोई वतन नहीं है। लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की जमीन मुझे बांधती है। मैंने सब कुछ यहीं पाया। कहने को तो यायावर सी जिंदगी जी है। जिसमें दिल्ली भी जुड़ गया। आप को गिनाऊं तो मैंने अपनी जन्मभूमि (अयोध्या) के बाद 11 बार शहर बदले, जिनमें बस्ती, लखनऊ,वाराणसी, भोपाल, रायपुर, बिलासपुर, मुंबई, दिल्ली सब शामिल हैं। जिनमें दो बार रायपुर आया और तीसरी बार भोपाल में हूं। बशीर बद्र साहब का एक शेर है, जब मेरठ दंगों में उनका घर जला दिया गया, तो उन्होंने कहा था-

मेरा घर जला तो

सारा जहां मेरा घर हो गया।

मैं खुद को खानाबदोश तो नहीं कहता, पर यायावर कहता हूं। अभी भी बैग तैयार है। चल दूंगा। जहां तक वातावरण की बात है, दिल्ली और भोपाल की क्या तुलना। एक राष्ट्रीय राजधानी है,दूसरी राज्य की राजधानी। मिजाज की भी क्या तुलना हम भोपाल के लोग चालाकियां सीख रहे हैं, दिल्ली वाले चालाक ही हैं। सारी नियामतें दिल्ली में बरसती हैं। इसलिए सबका मुंह दिल्ली की तरफ है। लेकिन दिल्ली या भोपाल हिंदुस्तान नहीं हैं। राजधानियां आकर्षित करती हैं , क्योंकि यहां राजपुत्र बसते हैं। हिंदुस्तान बहुत बड़ा है। उसे जानना अभी शेष है।

 

- भोपाल और दिल्ली में पत्रकारिता और जन संचार की पढ़ाई के माहौल में क्या फ़र्क़ महसूस किया आपने ?

भारतीय जन संचार संस्थान में जब मैं रहा, वहां डिप्लोमा कोर्स चलते रहे। साल-साल भर के। उनका जोर ट्रेनिंग पर था। देश भर से प्रतिभावान विद्यार्थी वहां आते हैं, सबका पहला चयन यही संस्थान होता है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय इस मायने में खास है उसने पिछले तीस सालों से स्नातक और स्नातकोत्तर के रेगुलर कोर्स चलाए और बड़ी संख्या में मीडिया वृत्तिज्ञ ( प्रोफेसनल्स) और मीडिया शिक्षा निकाले। अब आईआईएमसी भी विश्वविद्यालय भी बन गया है। सो एक नई उड़ान के लिए वे भी तैयार हैं।

 

- आप देश के दोनों प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थानों के अहम् पदों को सुशोभित कर चुके हैं। दोनों के बीच क्या अंतर पाया आपने ? दोनों की विशेषताएं आपकी नज़र में ?

दोनों की विशेषताएं हैं। एक तो किसी संस्था को केंद्र सरकार का समर्थन हो और वो दिल्ली में हो तो उसका दर्जा बहुत ऊंचा हो जाता है। मीडिया का केंद्र भी दिल्ली है। आईआईएमसी को उसका लाभ मिला है। वो काफी पुराना संस्थान है, बहुत शानदार एलुमूनाई है , एक समृध्द परंपरा है उसकी । एचवाई शारदा प्रसाद जैसे योग्य लोगों की कल्पना है वह। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय(एमसीयू) एक राज्य विश्वविद्यालय है, जिसे सरकार की ओर से बहुत पोषण नहीं मिला। अपने संसाधनों पर विकसित होकर उसने जो भी यात्रा की, वह बहुत खास है। कंप्यूटर शिक्षा के लोकव्यापीकरण में एमसीयू की एक खास जगह है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में आप जाएंगें तो मीडिया शिक्षकों में एमसीयू के  ही पूर्व छात्र हैं, क्योंकि स्नातकोत्तर कोर्स यहीं चल रहे थे। पीएचडी यहां हो रही थी। सो दोनों की तुलना नहीं हो सकती। योगदान दोनों का बहुत महत्वपूर्ण है।

 

- आप लम्बे समय से मीडिया शिक्षक रहे हैं और सक्रिय पत्रकारिता भी की है आपने। व्यवहारिकता के धरातल पर मौजूदा मीडिया शिक्षा को कैसे देखते हैं ?

एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। 

   मीडिया शिक्षा में सिद्धांत और व्यवहार का बहुत गहरा द्वंद है। ज्ञान-विज्ञान के एक अनुशासन के रूप में इसे अभी भी स्थापित होना शेष है। कुछ लोग ट्रेनिंग पर आमादा हैं तो कुछ किताबी ज्ञान को ही पिला देना चाहते हैं। जबकि दोनों का समन्वय जरूरी है। सिद्धांत भी जरूरी हैं। क्योंकि जहां हमने ज्ञान को छोड़ा है, वहां से आगे लेकर जाना है। शोध, अनुसंधान के बिना नया विचार कैसे आएगा। वहीं मीडिया का व्यवहारिक ज्ञान भी जरूरी है। मीडिया का क्षेत्र अब संचार शिक्षा के नाते बहुत व्यापक है। सो विशेषज्ञता की ओर जाना होगा। आप एक जीवन में सब कुछ नहीं कर सकते। एक काम अच्छे से कर लें, वह बहुत है। इसलिए भ्रम बहुत है। अच्छे शिक्षकों का अभाव है। एआई की चुनौती अलग है। चमकती हुई चीजों ने बहुत से मिथक बनाए और तोड़े हैं। सो चीजें ठहर सी गयी हैं, ऐसा मुझे लगता है।

 

- नयी शिक्षा निति को केंद्र सरकार नए सपनों के नए भारत के अनुरूप प्रचारित कर रही है, जबकि आलोचना करने वाले इसमें तमाम कमियां गिना रहे हैं। एक शिक्षक बतौर आप इन नीतियों को कैसा पाते हैं ?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति बहुत शानदार है। जड़ों से जोड़कर मूल्यनिष्ठा पैदा करना, पर्यावरण के प्रति प्रेम, व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना यही लक्ष्य है। किंतु क्या हम इसके लिए तैयार हैं। सवाल यही है कि अच्छी नीतियां- संसाधनों, शिक्षकों के समर्पण, प्रशासन के समर्थन की भी मांग करती हैं। हमें इसे जमीन पर उतारने के लिए बहुत तैयारी चाहिए। भारत दिल्ली में न बसता है, न चलता है। इसलिए जमीनी हकीकतों पर ध्यान देने की जरूरत है। शिक्षा हमारे तंत्र की कितनी बड़ा प्राथमिकता है, इस पर भी सोचिए। सच्चाई यही है कि मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग ने भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से हटा लिया है। वे सरकारी संस्थानों से कोई उम्मीद नहीं रखते। इस विश्वास बहाली के लिए सरकारी संस्थानों के शिक्षकों, प्रबंधकों और सरकारी तंत्र को बहुत गंभीर होने की जरूरत है। उत्तर प्रदेश के ताकतवर मुख्यमंत्री प्राथमिक शिक्षकों की विद्यालयों में उपस्थिति को लेकर एक आदेश लाते हैं, शिक्षक उसे वापस करवा कर दम लेते हैं। यही सच्चाई है।

 

- पत्रकारिता में करियर बनाने के लिए क्या आवश्यक शर्त है ?

पत्रकारिता, मीडिया या संचार तीनों क्षेत्रों में बनने वाली नौकरियों की पहली शर्त तो भाषा ही है। हम बोलकर, लिखकर भाषा में ही खुद को व्यक्त करते हैं। इसलिए भाषा पहली जरूरत है। तकनीक बदलती रहती है, सीखी जा सकती है। किंतु भाषा संस्कार से आती है। अभ्यास से आती है। पढ़ना, लिखना, बोलना, सुनना यही भाषा का असल स्कूल और परीक्षा है। भाषा के साथ रहने पर भाषा हममें उतरती है। यही भाषा हमें अटलबिहारी वाजपेयी,अमिताभ बच्चन, नरेंद्र मोदी,आशुतोष राणा या कुमार विश्वास जैसी सफलताएं दिला सकती है। मीडिया में अनेक ऐसे चमकते नाम हैं, जिन्होंने अपनी भाषा से चमत्कृत किया है। अनेक लेखक हैं, जिन्हें हमने रात भर जागकर पढ़ा है। ऐसे विज्ञापन लेखक हैं जिनकी पंक्तियां हमने गुनगुनाई हैं। इसलिए भाषा, तकनीक का ज्ञान और अपने पाठक, दर्शक की समझ हमारी सफलता की गारंटी है। इसके साथ ही पत्रकारिता में समाज की समझ, मिलनसारिता, संवाद की क्षमता बहुत मायने रखती है।

 

- मीडिया शिक्षा में कैसे नवाचारों की आवश्यकता है ?

शिक्षा का काम व्यक्ति को आत्मनिर्भर और मूल्यनिष्ठ मनुष्य बनाना है। जो अपनी विधा को साधकर आगे ले जा सके। मीडिया में भी ऐसे पेशेवरों का इंतजार है जो फार्मूला पत्रकारिता से आगे बढ़ें। जो मीडिया को इस देश की आवाज बना सकें। जो एजेंड़ा के बजाए जन-मन के सपनों, आकांक्षाओं को स्वर दे सकें। इसके लिए देश की समझ बहुत जरूरी है। आज के मीडिया का संकट यह है वह नागरबोध के साथ जी रहा है। वह भारत के पांच प्रतिशत लोगों की छवियों को प्रक्षेपित कर रहा है। जबकि कोई भी समाज अपनी लोकचेतना से खास बनता है। देश की बहुत गहरी समझ पैदा करने वाले, संवेदनशील पत्रकारों का निर्माण जरूरी है। मीडिया शिक्षा को संवेदना, सरोकार, राग, भारतबोध से जोड़ने की जरूरत है। पश्चिमी मानकों पर खड़ी मीडिया शिक्षा को भारत की संचार परंपरा से जोड़ने की जरूरत है। जहां संवाद से संकटों के हल खोजे जाते रहे हैं। जहां संवाद व्यापार और व्यवसाय नहीं, एक सामाजिक जिम्मेदारी है।

 

- देश में मीडिया की मौजूदा स्थिति को लेकर आपकी राय क्या है ?

मीडिया शिक्षा का विस्तार बहुत हुआ है। हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया शिक्षा के विभाग हैं। चार विश्वविद्यालय- भारतीय जन संचार संस्थान(दिल्ली), माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विवि(भोपाल), हरिदेव जोशी पत्रकारिता विवि(जयपुर) और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि(रायपुर) देश में काम कर रहे हैं। इन सबकी उपस्थिति के साथ-साथ निजी विश्वविद्यालय और कालेजों में भी जनसंचार की पढ़ाई हो रही है। यानि विस्तार बहुत हुआ है। अब हमें इसकी गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है। ये जो चार विश्वविद्यालय हैं वे क्या कर रहे हैं। क्या इनका आपस में भी कोई समन्वय है। विविध विभागों में क्या हो रहा है। उनके ज्ञान, शोध और आइडिया एक्सचेंज जैसी व्यवस्थाएं बनानी चाहिए। दुनिया में मीडिया या जनसंचार शिक्षा के जो सार्थक प्रयास चल रहे हैं, उसकी तुलना में हम कहां हैं। बहुत सारी बातें हैं, जिनपर बात होनी चाहिए। अपनी ज्ञान विधा में हमने क्या जोड़ा। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने भी एक समय देश में एक ग्लोबल कम्युनिकेशन यूनिर्वसिटी बनाने की बात की थी। देखिए क्या होता है।

    बावजूद इसके हम एक मीडिया शिक्षक के नाते क्या कर पा रहे हैं। यह सोचना है। वरना तो मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी हमारे लिए ही लिख गए हैं-

हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए।

बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए।।

 

- आज की मीडिया और इससे जुड़े लोगों के अपने मिशन से भटक जाने और पूरी तरह  पूंजीपतियों, सत्ताधीशों के हाथों बिक जाने की बात कही जा रही है। इससे आप कितना इत्तेफ़ाक़ रखते हैं?

देखिए मीडिया चलाना साधारण आदमी को बस की बात नहीं है। यह एक बड़ा उद्यम है। जिसमें बहुत पूंजी लगती है। इसलिए कारपोरेट,पूंजीपति या राजनेता चाहे जो हों, इसे पोषित करने के लिए पूंजी चाहिए। बस बात यह है कि मीडिया किसके हाथ में है। इसे बाजार के हवाले कर दिया जाए या यह एक सामाजिक उपक्रम बना रहेगा। इसलिए पूंजी से नफरत न करते हुए इसके सामाजिक, संवेदनशील और जनधर्मी बने रहने के लिए निरंतर लगे रहना है। यह भी मानिए कोई भी मीडिया जनसरोकारों के बिना नहीं चल सकता। प्रामणिकता, विश्वसनीयता उसकी पहली शर्त है। पाठक और दर्शक सब समझते हैं।

 

- आपकी नज़र में इस वक़्त देश में मीडिया शिक्षा की कैसी स्थिति है ? क्या यह बेहतर पत्रकार बनाने और मीडिया को सकारात्मक दिशा देने का काम कर पा रही है ?

मैं मीडिया शिक्षा क्षेत्र से 2009 से जुड़ा हूं। मेरे कहने का कोई अर्थ नहीं है। लोग क्या सोचते हैं, यह बड़ी बात है। मुझे दुख है कि मीडिया शिक्षा में अब बहुत अच्छे और कमिटेड विद्यार्थी नहीं आ रहे हैं। अजीब सी हवा है। भाषा और सरोकारों के सवाल भी अब बेमानी लगने लगे हैं। सबको जल्दी ज्यादा पाने और छा जाने की ललक है। ऐसे में स्थितियां बहुत सुखद नहीं हैं। पर भरोसा तो करना होगा। इन्हीं में से कुछ भागीरथ निकलेंगें जो हमारे मीडिया को वर्तमान स्थितियों से निकालेगें। ऐसे लोग तैयार करने होंगें, जो बहुत जल्दी में न हों। जो ठहरकर पढ़ने और सीखने के लिए तैयार हों। वही लोग बदलाव लाएंगें।

 

- देश में आज मीडिया शिक्षा के सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

सबसे बड़ी चुनौती है ऐसे विद्यार्थियों का इंतजार जिनकी प्राथमिकता मीडिया में काम करना हो। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह ग्लैमर या रोजगार दे पाए। बल्कि देश के लोगों को संबल, साहस और आत्मविश्वास दे सके। संचार के माध्यम से क्या नहीं हो सकता। इसकी ताकत को मीडिया शिक्षकों और विद्यार्थियों को पहचानना होगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं,यह एक बड़ा सवाल है। मीडिया शिक्षा के माध्यम से हम ऐसे क्म्युनिकेटर्स तैयार कर सकते हैं जिनके माध्यम से समाज के संकट हल हो सकते हैं। यह साधारण शिक्षा नहीं है। यह असाधारण है। भाषा,संवाद,सरोकार और संवेदनशीलता से मिलकर हम जो भी रचेगें, उससे ही नया भारत बनेगा। इसके साथ ही मीडिया एजूकेशन कौंसिल का गठन भारत सरकार करे ताकि अन्य प्रोफेशनल कोर्सेज की तरह इसका भी नियमन हो सके। गली-गली खुल रहे मीडिया कालेजों पर लगाम लगे। एक हफ्ते में पत्रकार बनाने की दुकानों पर ताला डाला जा सके। मीडिया के घरानों में तेजी से मोटी फीस लेकर मीडिया स्कूल खोलने की ललक बढ़ी है, इस पर नियंत्रण हो सकेगा। गुणवत्ता विहीन किसी शिक्षा का कोई मोल नहीं, अफसोस मीडिया शिक्षा के विस्तार ने इसे बहुत नीचे गिरा दिया है। दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों मेंदूसरेविश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों मेंतीसरेभारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों मेंचौथेपूरी तरह से प्राइवेट संस्थानपांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठेकिसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या हैवो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी हैकि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।

 

- भारत में मीडिया शिक्षा का क्या भविष्य देखते हैं आप ?

मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का हैया फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई हैइसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैंवैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगेजिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो। न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों नौकरियां गई हैं। इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती हैजिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा हैजब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैंजिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल सके।

 

- तेजी से बदलते मीडिया परिदृश्य के सापेक्ष मीडिया शिक्षा संस्थान स्वयं को कैसे ढाल सकते हैं यानी उन्हें उसके अनुकूल बनने के लिए क्या करना चाहिए ?

 मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिएकि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्मके लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करेंयह एक बड़ी जिम्मेदारी है।

 

- वे कौन से कदम हो सकते हैं जो मीडिया उद्योग की अपेक्षाओं और मीडिया शिक्षा संस्थानों द्वारा उन्हें उपलब्ध कराये जाने वाले कौशल के बीच के अंतर को पाट सकते हैं?

 

 भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती हैतो प्रोफेसर केईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिएतभी वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षण संस्थानमीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैंजिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव हो। ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकेंऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकेंजिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं।  पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैंउनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एसहोना जरूरी हैवकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है? बहुत बेहतर हो मीडिया संस्थान अपने अध्यापकों को भी मीडिया संस्थानों में अनुभव के लिए भेजें। इससे मीडिया की जरूरतों और न्यूज रूम के वातावरण का अनुभव साक्षात हो सकेगा। विश्वविद्यालयों को आखिरी सेमेस्टर या किसी एक सेमेस्टर में न्यूज रूम जैसे ही पढ़ाई पर फोकस करना चाहिए। अनेक विश्वविद्यालय ऐसे कर सकने में सक्षम हैं कि वे न्यूज रूम क्रियेट कर सकें।

 

- अपने कार्यकाल के दौरान मीडिया शिक्षा और आईआईएमसी की प्रगति के मद्देनज़र आपने क्या महत्वपूर्ण कदम उठाये, संक्षेप में उनका ज़िक्र करें।

मुझे लगता है कि अपने काम गिनाना आपको छोटा बनाता है। मैंने जो किया उसकी जिक्र करना ठीक नहीं। जो किया उससे संतुष्ठ हूं। मूल्यांकन लोगों पर ही छोड़िए।

 

 

समान नागरिक संहिता से कौन डरता है?

 

-प्रो.संजय द्विवेदी



      इन दिनों एक देश-एक कानून का सवाल लोक विमर्श में हैं। राजनीतिक दलों से लेकर समाज में हर जगह इसे लेकर चर्चा है। संविधान निर्माताओं की यह भावना रही है कि देश में समान नागरिक कानून होने चाहिए। अब वह समय आ गया है कि हमें अपने राष्ट्र निर्माताओं की उस भावना का पालन करना चाहिए। इससे देश की आम जनता को शक्ति और संबल मिलेगा।

    हमारी आजादी के नायकों का एक ही स्वप्न था एकत्व। एकात्म भाव से भरे लोग। समता और समानता। इसे हमारे नायकों ने स्वराज कहा। यहां स्व बहुत खास है। स्वतंत्रता आंदोलन सिर्फ अंग्रेजी की विदाई और भारतीयों के राज्यारोहण के लिए नहीं था। अपने कानून, अपने नियम, अपनी भाषा, अपनी भूषा, अपना खानपान यानि इंडिया को भारत बनाना इसका लक्ष्य था। गुलामी के हर प्रतीक से मुक्ति इस आंदोलन का संकल्प था। इसलिए गांधी कह पाए- दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है। यह स्वत्व की राह हम भुला बैठे, बिसरा बैठे। देश एक सूत्र में जुड़ा रहे। समान अवसर और समान भागीदारी का स्वप्न साकार हो यह जरूरी है। लोकतंत्र इन्हीं मूल्यों से साकार होता है। भारत ने पहले दिन से अपने सभी नागरिकों को बिना भेद के मताधिकार का अधिकार दिया और सबके मत का मूल्य समान रखा। अब समय है कि हम इस मुख्य अधिकार की भावना का विस्तार करते हुए देश को एकात्म बनाएं। वह सब कुछ करें जिससे देश एक हो सकता है। एक सूत्र में बांधा जा सकता है। यही एकता और अखंडता की पहली शर्त है। समान नागरिक संहिता एक ऐसा संकल्प है जो भारतीयों को एक तल पर लाकर खड़ा कर देती है। यहां एक ही पहचान सबसे बड़ी है जो है भारतीय होना, और एक ही किताब सबसे खास है जो है हमारा संविधान। समान नागरिक संहिता दरअसल हमारे गणतंत्र को जीवंत बनाने की रूपरेखा है।

    हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के संस्थापकों ने उम्मीद जताई थी कि एक दिन राज्य समान नागरिक संहिता की अपेक्षाओं को पूरा करेंगे और नियमों का एक समान कानून प्रत्येक धर्म के रीति-रिवाजों जैसे- विवाह, तलाक आदि के अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों की जगह लेगा। यह भावना साधारण नहीं है। इस पर विवाद करना कहीं से भी उचित नहीं है। यह आजादी के आंदोलन के सपनों की दिशा में एक कदम है। वर्ष 1956 में हिंदू कानूनों को संहिताबद्ध कर दिया गया था, लेकिन देश के सभी नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने का गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। अब आवश्यक्ता इस बात की है कि हम देश को एक सूत्र में बांधने की दिशा में गंभीर प्रयास करें। यह बहुत सामयिक और उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड की राज्य सरकार ने इस दिशा में कदम उठाया है। हम देखें तो भारतीय संविधान के भाग 4 (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व) के तहत अनुच्छेद 44 के अनुसार कहा गया है कि भारत के समस्त नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता होगी। इसका व्यावहारिक अर्थ है कि, भारत के सभी पंथों के नागरिकों के लिये एक समान पंथनिरपेक्ष कानून बनना चाहिए।

     संविधान के संस्थापकों ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के माध्यम से इसको लागू करने की ज़िम्मेदारी बाद की सरकारों को हस्तांतरित कर दी थी। अब यह सरकारों की जिम्मेदारी थी कि वे इस ओर देश को ले जाते । राजनीतिक कारणों से हमारी सरकारों ने इस संकल्प की पूर्ति के लिए जिम्मेदारी नहीं दिखाई। आज आजादी के अमृतकाल में हम प्रवेश कर चुके हैं। आने वाले दो दशकों में हमें भारत को शिखर पर ले जाना है। अपने सब संकटों के उपाय खोजने हैं। हमें वो सूत्र भी खोजने हैं जिससे भारत एक हो सके। सब भारतीय अपने आपको समान मानें और कोई अपने आप को उपेक्षित महसूस न करे। लोकतंत्र इसी प्रकार की सहभागिता और सामंजस्य की मांग करता है।

     पंथ के आधार पर मिलने वाले विशेषाधिकार किसी भी समाज की एकता को प्रभावित करते हैं। इसके साथ ही समानता के संवैधानिक अधिकार की भी अपनी आकांक्षाएं हैं। हमें विचार करें तो पाते हैं कि मूल अधिकारों में विधि के शासन की अवधारणा साफ दिखती है लेकिन इन्हीं अवधारणाओं के बीच लैंगिक असमानता जैसी कुरीतियाँ भी व्याप्त हैं। विधि के शासन के अनुसार, सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये लेकिन स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी आबादी का बड़ा हिस्सा अपने मूलभूत अधिकारों के लिये संघर्ष कर रहा है। इस प्रकार समान नागरिक संहिता का लागू न होना एक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है। भारतीय जनता पार्टी ने आरंभ से ही समान नागरिक संहिता का वकालत की है। उसके प्रथम अध्यक्ष डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी( तब जनसंघ) ने एक देश में दो प्रधान, दो विधान और दो निशान के नाम पर अपना बलिदान दिया। ऐसे समय में एक बार देश ने भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को अवसर दिया है कि वे एक देश एक कानून की भावना के साथ आगे बढ़ें।

   हम देखें तो पाते हैं कि विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से संबंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु विधि आयोग का गठन किया गया। इसमें विधि आयोग ने कहा कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूलाधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है। हमें इन बातों से सबक लेते हुए महिलाओं के हक में यह फैसला लेना होगा ताकि पंथ के नाम पर जारी कानूनों से उन्हें बचाया जा सके। कोई भी कानून अगर भेदभावपूर्ण समाज बनाता है तो उसके औचित्य पर सवाल उठते हैं। कानून का एक ही सूत्र है समानता और भेदभाव विहीन समाज बनाना। जिसे प्रधानमंत्री नारे की शक्ल में सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास कहते हैं। यह तभी संभव हो जब कानून सबके साथ समान व्यवहार करे। किसी को विशेषाधिकार न दे। लोकतंत्र को मजबूती दे। देश को एकात्म भाव से एकजुट करे। उम्मीद की जानी चाहिए गोवा और उत्तराखंड जैसे राज्यों को बाद अब देश में भी यह कानून लागू होगा और हमारे सपनों में रंग भरने का काम करेगा। आज समान नागरिक संहिता का मुद्दा एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है, इसलिये जहाँ एक ओर कुछ राजनीतिक दल इस मामले के माध्यम से तुष्टिकरण का अभियान चला रहे हैं। जबकि दूसरी ओर कुछ राजनीतिक दल इस मुद्दे के माध्यम से पंथिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रहे हैं। इससे देश कमजोर होता है। समाज में विघटन होता है। हमारा संकल्प होना चाहिए कि हम जब विकसित भारत की ओर बढ़ रहे हैं, तब असमानता, गैरबराबरी सिर्फ आर्थिक स्तर पर नहीं कानूनी स्तर पर भी हटानी होगी। इसका एक मात्र विकल्प समान नागरिक संहिता है, इसमें दो राय नहीं है।

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

वर्ष 2025 : मीडिया इंडस्ट्री के लिए अनंत संभावनाओं का दौर

 - प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी


वर्तमान युग में मीडिया इंडस्ट्री तीव्र गति से परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। तकनीकी प्रगति और उपभोक्ता व्यवहार में बदलाव के चलते, मीडिया और मनोरंजन के पारंपरिक स्वरूप में काफी परिवर्तन हुआ है। वर्ष 2024 ने इस बदलाव को और गति दी है, खासकर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) के बढ़ते प्रभाव के कारण। वर्ष 2025 की ओर देखते हुए, यह स्पष्ट है कि एआई, डिजिटल मीडिया और नई तकनीकों का प्रभाव मीडिया इंडस्ट्री की दिशा को और अधिक प्रभावित करेगा।

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के योगदान से मीडिया में क्रांति

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) ने मीडिया इंडस्ट्री में न केवल कार्यप्रणाली को सरल बनाया है, बल्कि नई संभावनाओं के द्वार भी खोले हैं। एआई के माध्यम से सामग्री निर्माण, उपभोक्ता डेटा का विश्लेषण और दर्शकों की पसंद का सटीक अनुमान लगाना अब आसान हो गया है। उदाहरणस्वरूप:

· सामग्री निर्माण और संपादन: एआई-संचालित उपकरण जैसे GPT मॉडल्स, डीपफेक टेक्नोलॉजी और इमेज जनरेशन प्लेटफॉर्म कंटेंट क्रिएटर्स के लिए समय और लागत बचाते हैं। न्यूज़ चैनल्स अब रियल-टाइम न्यूज़ अपडेट्स और अनुकूलित समाचार प्रस्तुति के लिए एआई-सक्षम वर्चुअल एंकर का उपयोग कर रहे हैं।

· डिजिटल विज्ञापन: एआई एल्गोरिदम उपभोक्ताओं की सर्च और ब्राउज़िंग आदतों का विश्लेषण करके व्यक्तिगत विज्ञापन तैयार करते हैं। इससे न केवल विज्ञापनदाता, बल्कि उपभोक्ता भी लाभान्वित होते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी पसंद का ही कंटेंट देखने को मिलता है।

· ऑडियंस इंगेजमेंट: चैटबॉट्स और वर्चुअल असिस्टेंट दर्शकों के सवालों का जवाब देकर और उनकी पसंद के कंटेंट का सुझाव देकर मीडिया कंपनियों की पहुंच और प्रभाव को बढ़ा रहे हैं।

एआई से जुड़ी चुनौतियाँ

हालांकि एआई ने मीडिया इंडस्ट्री में असंख्य अवसर प्रदान किए हैं, लेकिन यह नई चुनौतियाँ भी लेकर आया है।

· नैतिकता और पारदर्शिता: एआई आधारित फेक न्यूज़ और डीपफेक टेक्नोलॉजी की वजह से गलत सूचनाओं का प्रसार बढ़ सकता है।

· मानव संसाधन का विस्थापन: पारंपरिक कार्यबल को एआई द्वारा रिप्लेस किए जाने का खतरा बना हुआ है।

· डेटा गोपनीयता: एआई को प्रशिक्षित करने के लिए आवश्यक डेटा की गोपनीयता और सुरक्षा एक गंभीर मुद्दा है।

भारत और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का बाजार

भारत, विश्व में एआई के विकास और उपयोग के मामले में अग्रणी देशों में शामिल हो रहा है। वर्ष 2024 में भारत का एआई बाजार लगभग $7 बिलियन तक पहुँच चुका है। अनुमान है कि 2025 तक यह $12 बिलियन तक बढ़ जाएगा। भारतीय एआई क्षेत्र में वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) 20-25% के आसपास है।

वर्ष 2024 में, भारत में एआई के क्षेत्र में लगभग 4 लाख पेशेवर काम कर रहे हैं। सरकार और निजी कंपनियाँ मिलकर एआई स्टार्टअप्स और अनुसंधान में भारी निवेश कर रही हैं। 2025 तक, एआई आधारित नौकरियों की संख्या में 30% तक वृद्धि की उम्मीद है।

भारतीय मीडिया कंपनियाँ एआई-संचालित ट्रेंड एनालिसिस, कंटेंट पर्सनलाइजेशन और विज्ञापन ऑप्टिमाइज़ेशन पर भारी ध्यान केंद्रित कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर रिलायंस जियो और टाटा जैसे बड़े कॉर्पोरेट्स मीडिया और एआई के समागम के लिए बड़े स्तर पर निवेश कर रहे हैं।

भारत में डिजिटल मीडिया का बढ़ता प्रभाव

भारत में डिजिटल मीडिया का प्रभाव पारंपरिक मीडिया की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है। वर्ष 2024 में, भारत में लगभग 700 मिलियन इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं, जिनमें से अधिकांश स्मार्टफोन के माध्यम से डिजिटल सामग्री का उपभोग कर रहे हैं।

नेटफ्लिक्स, अमेज़ॅन प्राइम, डिज़्नी+ हॉटस्टार जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म्स भारत में मनोरंजन का नया केंद्र बन गए हैं। फेसबुक, इंस्टाग्राम, और यूट्यूब पर स्थानीय और क्षेत्रीय भाषाओं में सामग्री का उपभोग बढ़ रहा है। डिजिटल न्यूज़ पोर्टल्स जैसे इनशॉर्ट्स और स्क्रॉल ने पारंपरिक न्यूज़ चैनल्स की जगह लेनी शुरू कर दी है।

वर्ष 2024 में, भारत में डिजिटल विज्ञापन का आकार लगभग $4.5 बिलियन था। 2025 तक, यह $6.8 बिलियन तक पहुँचने की संभावना है। डिजिटल मीडिया में पर्सनलाइज्ड विज्ञापन और इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग एक नया ट्रेंड बन चुका है। भारत में 70% इंटरनेट उपयोगकर्ता ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं। सरकार की डिजिटल इंडिया पहल और सस्ती डेटा सेवाओं के कारण ग्रामीण भारत में डिजिटल कंटेंट का उपभोग तेजी से बढ़ रहा है।

2025 की उम्मीदें: मीडिया इंडस्ट्री का भविष्य

·  तकनीकी प्रगति का तेज़ी से उपयोग: वर्ष 2025 में एआई और मशीन लर्निंग के उपयोग से मीडिया इंडस्ट्री में और अधिक नवाचार की उम्मीद है। दर्शक लाइव पोल्स, क्विज़ और अन्य इंटरैक्टिव माध्यमों के ज़रिए कंटेंट के साथ जुड़ेंगे। वर्चुअल रियलिटी और ऑग्मेंटेड रियलिटी  आधारित कंटेंट मीडिया इंडस्ट्री का महत्वपूर्ण हिस्सा बनेगा।

· स्थानीय और क्षेत्रीय कंटेंट का विस्तार: स्थानीय भाषाओं में कंटेंट की माँग बढ़ेगी, जिससे क्षेत्रीय मीडिया कंपनियों को नए अवसर मिलेंगे। 2025 तक, 60% से अधिक डिजिटल कंटेंट स्थानीय भाषाओं में होगा।

· नियामक और नैतिकता पर ज़ोर: एआई और डिजिटल मीडिया के बढ़ते उपयोग को ध्यान में रखते हुए सरकार डेटा सुरक्षा और फेक न्यूज़ की रोकथाम के लिए सख्त नियम लागू कर सकती है। "मीडिया ट्रांसपेरेंसी" के लिए नए मानक स्थापित होंगे।

· उपभोक्ता-केंद्रित दृष्टिकोण: मीडिया इंडस्ट्री उपभोक्ताओं के अनुभव को बेहतर बनाने के लिए व्यक्तिगत और अनुकूलित सेवाओं पर ध्यान केंद्रित करेगी। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर फ्री-टू-व्यू और पे-पर-व्यू जैसे मॉडल और प्रचलित होंगे।

कुल मिलाकर वर्ष 2024 का वर्ष भारतीय मीडिया इंडस्ट्री के लिए नवाचार और चुनौतियों का संगम रहा है। एआई और डिजिटल मीडिया ने पारंपरिक मीडिया के स्वरूप को बदलते हुए उपभोक्ताओं की नई पीढ़ी की जरूरतों को पूरा किया है। वर्ष 2025 में, तकनीकी प्रगति और क्षेत्रीय कंटेंट के विस्तार के साथ, भारतीय मीडिया इंडस्ट्री विश्व स्तर पर अपनी पहचान और मजबूत करेगी। हालांकि, नैतिकता, डेटा सुरक्षा, और फेक न्यूज़ जैसे मुद्दों से निपटना महत्वपूर्ण होगा। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि आने वाले वर्ष मीडिया इंडस्ट्री के लिए अनंत संभावनाओं का दौर होगा।

सोमवार, 25 नवंबर 2024

सजग इतिहासबोध की बानगी

 

-प्रो.संजय द्विवेदी



  अच्युतानंद मिश्र हिंदी के यशस्वी संपादक और पत्रकार हैं। आजादी के बाद की हिंदी पत्रकारिता के इतिहास को सहेजने, संरक्षित करने और उसके नायकों के योगदान को रेखांकित करने का उनका पुरूषार्थ विरल है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति रहते हुए उन्होंने स्वतंत्र भारत की हिंदी पत्रकारिता पर शोधकार्य का बीड़ा उठाया, जिसके चलते अनेक चीजें प्रकाश में आ सकीं। स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता पर शोध परियोजना के माध्यम से उन्होंने देश भर के पत्रकारों,संपादकों और शोधकर्ताओं को विश्वविद्यालय से जोड़ा। उनकी शोध परक दृष्टि और कुशल संपादन क्षमता से शोध परियोजना को बहुत लाभ हुआ। इस दौरान अनेक विशिष्ठ आयोजनों के माध्यम से देश की श्रेष्ठतम बौद्धिक विभूतियों का विश्वविद्यालय में आगमन हुआ। शोध परियोजना के तहत देश भर में बौद्धिक आयोजन भी हुए। इन गतिविधियों से विश्वविद्यालय अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने में सफल रहा। यह हमारे तत्कालीन कुलपति अच्युतानंद जी के निजी संपर्कों और औदार्य के चलते हो पाया। यह साधारण नहीं है कि इस परियोजना में 80 से अधिक पुस्तकों और मोनोग्राफ का प्रकाशन हुआ। अपने इस कार्य को मिश्र जी इतिहास संरक्षण का विनम्र प्रयास कहते हैं।

     शोध परियोजना के तहत ही चार खंडों में प्रकाशित पुस्तक हिंदी के प्रमुख समाचारपत्र और पत्रिकाएंभी अच्युतानंद जी के संपादन में प्रकाशित हुई। चार खंडों में छपी इस किताब में अच्युतानंद जी की विलक्षण संपादकीय दृष्टि का परिचय मिलता है। इस किताब के बहाने हम हिंदी पत्रकारिता के उजले इतिहास से परिचित होते हैं। अच्युतानंद मिश्र विलक्षण संपादक हैं। चीजों को देखने और मूल्यांकन करने की उनकी दृष्टि विरल है। अपनी संपादन कला में माहिर संपादक जब आजाद भारत की हिंदी पत्रकारिता के योगदान को रेखांकित करने के लिए आगे आता है तो उसके द्वारा चयनित प्रतिनिधि पत्रों, पत्रिकाओं का चयन बहुत खास हो जाता है। इसके साथ ही वे ऐसे लेखकों का चुनाव करते हैं जो विषय के साथ न्याय कर सकें।

प्रथम खंड-

   पहले खंड में वे साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, दिनमान और रविवार का चयन करते हैं। जाहिर तौर पर ये चार प्रतिनिधि पत्रिकाएं हमारे तत्कालीन समय का न सिर्फ इतिहास लिखती हैं, बल्कि हिंदी समाज के बौद्धिक विकास में, चेतना के स्तर पर उन्हें समृद्ध करने में इनका बहुत बड़ा योगदान है। हिंदी समाज की निर्मिति में इन पत्रिकाओं का योगदान रेखांकित किया जाना शेष है। आजादी के बाद की पत्रकारिता की ये चार पत्रिकाएं न सिर्फ मानक बनीं, वरन अपनी संपादकीय दृष्टि, प्रस्तुति, कलेवर और भाषा के लिए भी याद की जाती हैं। व्यापक प्रसार और हिंदी समाज के मन और चेतना की समझ से निकली ये पत्रिकाएं पत्रकारिता का उजला इतिहास हैं।  ये बताती हैं कि कैसे हिंदी पत्रकारिता ने अपने बौद्धिक तेज और तेवरों से अंग्रेजी पत्रकारिता के समतुल्य आदर प्राप्त किया। इन पत्रिकाओं के यशस्वी संपादकों ने जो योगदान किया, उससे हिंदी पत्रकारिता आज भी प्रेरणा ले रही है।

    हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार, कभी कादम्बिनी के संपादक मंडल में रहे संत समीर ने अपने विस्तृत लेख में साप्ताहिक हिंदुस्तान के महत्वपूर्ण अवदान को रेखांकित किया है। गांधी जयंती, 2 अक्टूबर, 1950 को गांधी अंक के साथ साप्ताहिक हिंदुस्तान की यात्रा का शुभारंभ होता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पुत्र देवदास गांधी इस पत्रिका के प्रकाशन के मूल में थे। उस समय वे हिंदुस्तान समूह के प्रबंध निदेशक थे। वे चाहते थे कि हिंदी में एक ऐसी पत्रिका प्रकाशित हो जो स्पष्ट गांधीवादी नीति, उच्च पारिवारिक आदर्श, मानवीय मूल्यों की स्थापना के साथ शुद्ध,सरल सारगर्भित भाषा में छपे। आजादी के आंदोलन से निकले तपस्वी राजनेताओं की छाया में पत्रकारिता का भी विकास हो रहा था। पत्रकारिता उस समय तक प्रायः राष्ट्र के नवनिर्माण में अपनी भूमिका भी देख रही थी। साप्ताहिक हिंदुस्तान के राष्ट्रीय नवनिर्माण विशेषांकों को इसी दृष्टि से देखा जा सकता है। संत समीर ने बड़ी कुशलता उस मनोविज्ञान का वर्णन किया है। जो आजादी के बाद की पत्रकारिता का भावभूमि बना।  समीर लिखते हैं यह दौर संपादकों की हस्ती का था। प्रकाशन संपादकों के नाम से पहचाने जाते थे। पत्रकारिता बाजार के दबावों से मुक्त थी और विचार पर केंद्रित थी। साहित्य और पत्रकारिता  प्रायः एक मंच पर थे, जाहिर है लेखक संपादकों का यह समय हिंदी पत्रकारिता का साहित्य से भी सेतु बनाए रखता था। जो सिर्फ पत्रकारिता में थे वे साहित्यिक संस्कारों से संयुक्त थे। निश्चय ही भाषा उसमें बहुत खास थी। उसका सही प्रयोग और विकास सबके ध्यान में था। पत्रिका के प्रथम संपादक मुकुट बिहारी वर्मा रहे, जो संस्थान के हिंदी अखबार दैनिक हिंदुस्तान के भी संपादक थे। बाद में बांकें बिहारी भटनागर को संपादन का दायित्व मिला। वे 1953 से 1666 तक संपादक रहे। फिर कुछ समय गोविंद केजरीवाल ने अस्थाई तौर पर काम देखा और फिर रामांनद दोषी लगभग एक साल संपादक रहे। साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक के रूप में सबसे लंबा कार्यकाल मनोहर श्याम जोशी का था। उन्होंने इसे विविध प्रयोगों से एक शानदार पत्रिका में बदल दिया। फिर शीला झुनझुनवाला, राजेंद्र अवस्थी और मृणाल पाण्डेय को भी संपादक बनने का अवसर मिला। पत्रिका के बंद होने पर मृणाल जी इसकी संपादक थीं। साप्ताहिक हिंदुस्तान की समूची यात्रा गांधीवादी विचारों के संवाहक की रही। मनोहर श्याम जोशी का कार्यकाल इसका उत्कर्ष काल रहा जिसमें उसे बहुत लोकप्रियता मिली। अपने अनेक विशेषांकों से भी पत्रिका खासा चर्चा में रहीं जिनमें टालस्टाय अंक, अंतराष्ट्रीय कहानी विशेषांक, फिल्म विशेषांक, विश्व सिनेमा अंक की खासी चर्चा रहे। माना जाता है कि 60 से 70का दशक इस पत्रिका का सर्वश्रेष्ठ समय रहा है और बाद में बाजारवाद और अन्य कारणों से पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया। बताया जाता है कि जोशी जी के संपादन काल में पत्रिका के अंक डेढ़ पौने दो लाख तक छपे और विशेषांक तीन लाख तक। किंतु ऐसी लोकप्रिय पत्रिका का बंद होना हिंदी जगत की बहुत बड़ी बौद्धिक हानि थी इसमें दो राय नहीं।

     धर्मयुग का नाम लेते ही परंपरा और आधुनिकता से जुड़े एक ऐसे प्रकाशन की स्मृति कौंध जाती है, जिसने समय की शिला पर जो लिखा वह अमिट है। अपने यशस्वी संपादक धर्मवीर भारती और उनकी टीम ने जो रचा और जो प्रस्तुत किया, वह अप्रतिम है। आलोच्य पुस्तक में श्री सुधांशु मिश्र ने बहुत गंभीरता के साथ धर्मयुग की यात्रा और भावभूमि का अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस यात्रा से गुजरते हुए अद्भुत अनुभूति होती है कि किस तरह एक पत्रिका समाज की आवाज और जरूरत बन जाती है। इस खंड में पत्रिका के इतिहास विकास से लेकर उसके प्रदेय पर बहुत सार्थक चर्चा की गयी है। देश की आजादी के साथ ही हुए इस पत्रिका के प्रकाशन ने हिंदी समाज में क्रांति ला दी। हिंदी के विकास और उसे नए विषयों के साथ संवाद की क्षमता दी। पत्रिका के दिग्गज संपादकों ने हिंदी को सरोकारी पत्रकारिता का अहसास कराया। समाज जीवन के हर पक्ष पर सामग्री का प्रकाशन करते हुए यह एक संपूर्ण पत्रिका की तरह सामने आई। साहित्य और संस्कृति पत्रिका का मूल स्वर रहा।1960 से 1987तक इसके संपादक रहे धर्मवीर भारती की साहित्यिक प्रतिभा से सभी परिचित हैं। किंतु एक पत्रकार और संपादक के नाते उन्होंने जो किया वह स्वर्णिम इतिहास है। वे और धर्मयुग पर्याय ही हो गए। बाद में गणेश मंत्री पत्रिका के संपादक बने। हालांकि संपादक के रूप में प्रारंभ में प्रतीश नंदी का नाम जाता था। मंत्री जी का नाम कार्यवाहक संपादक के नाते जाता रहा। 1987 के अंत में वे इसके संपादक बने। किंतु बदली हुई परिस्थियों,बाजारवाद और नए समय में बहुत बेहतर करने के बाद भी धर्मयुग साप्ताहिक से पाक्षिक हुआ और उसका आकार भी घटा। धर्मयुग ने पाठकों के साथ-साथ लेखकों का भी एक नया संसार खड़ा किया। अनेक लेखकों को मंच और ख्याति यहां से मिली। चार दशकों तक हिंदी समाज पर इस पत्रिका की उपस्थिति बनी रही।

    संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र ने दिनमान के खंड के अध्ययन का काम दिल्ली के चर्चित पत्रकार श्री उमेश चतुर्वेदी और मप्र के पत्रकार श्री सुधांशु मिश्र को सौंपा। जाहिर है हिंदी में वैचारिक पत्रकारिता का ध्वज ऊंचा करने का काम दिनमान ने किया। यशस्वी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की परिकल्पना से बनी यह पत्रिका अपनी खास प्रवृत्तियों के लिए भी पहचानी गयी। अज्ञेय जी ने जो टीम दिनमान के लिए चुनी वह हिंदी पत्रकारिता की आदर्श टीम कही जा सकती है। विविध धाराओं और विशेषताओं के पत्रकार, साहित्यकार, कवि इस टीम का हिस्सा बने। जिनमें रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा,त्रिलोक दीप, जवाहरलाल कौल जैसे हिंदी पत्रकारिता के नायक शामिल थे। दिनमान का ध्येय वाक्य था राष्ट्र की भाषा में राष्ट्र का आह्वान  टाइम्स समूह की मालकिन रमा जैन की कल्पना टाइम जैसी विचार प्रधान पत्रिका निकालने का था। उसी संकल्पना से दिनमान की शुरूआत हुई। हालांकि पत्रिका के 28 फरवरी,1965 के अंक में छपी संपादक की टिप्पणी कहती है- ...दिनमान के लिए टाइम नमूना नहीं है। हां, समाचार संग्रह के लिए जितना बड़ा संगठन दिनमान कर सकेगा, करेगा।दिनमान जिंदगी के हर रूप को छूनेवाला बने अज्ञेय जी ने इसकी कोशिश की। बाद में रघुवीर सहाय इसके संपादक बने। वे 13 साल इसके संपादक रहे। बाद में कन्हैयालाल नंदन,सतीश झा, घनश्याम पंकज  भी इसके संपादक रहे। बाद में यह पत्र दिनमान टाइम्स के नाम से निकला और बाद में बंद हो गया। दिनमान की आरंभिक टीम में साहित्यकार ज्यादा थे। इसका असर उसके कथ्य और भाषा पर भी दिखता है। वैचारिकता के साथ उदारवादी और मानवीय चेहरा इसकी पहचान बना। पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी के निर्माण का श्रेय इस पत्रिका को जाता है। यह भी कहा जाता है कि दिनमान एक ऐसी पत्रिका बन पाई जो अंग्रेजी पत्रकारिता के बरक्स शान से खड़ी हो पाई।

      संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र ने अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका रविवार के अध्ययन का काम सुधांशु मिश्र को सौंपा। पुस्तक के अंतिम अध्याय में रविवार के इतिहास विकास और योगदान की गंभीर चर्चा की गयी है। पत्रिका के उद्भव और विकास के खंड में बताया गया है कि इसके प्रथम संपादक एमजे अकबर बने और पत्रिका का प्रकाशन 28 अगस्त, 1977 को प्रारंभ हुआ। आनंद बाजार समूह की इस पत्रिका ने बहुत कम समय में हिंदी जगत में अपनी खास जगह बना ली। प्रकाशन के आठ माह बाद सुरेंद्र प्रताप सिंह इसके संपादक बने। वे सात साल संपादक रहे। फिर उदयन शर्मा और विजित कुमार बसु इसके क्रमशः संपादक और कार्यवाहक संपादक बने और अंततः 22 अक्टूबर,1989 को इसका प्रकाशन बंद कर दिया गया। पत्रिका देश में हो रहे राजनीतिक परिर्वतनों की साक्षी बनी और इसका मूल स्वर राजनैतिक ही रहा। तेवरों भरी राजनीतिक रिपोर्ताज इसकी पहचान बने। इसके साथ ही प्रादेशिक राजनीति, नक्सल संकट,दस्यु समस्या और सांप्रदायिक मुद्दों पर भी इसकी रिपोर्ट सराही गयी। अंतराष्ट्रीय विषयों के साथ-साथ, राजनीति में योगियों और तांत्रिकों की छाया के बारे में भी काफी कुछ छपा। आपातकाल के बाद की राजनीति और समाज को इस पत्रिका ने बहुत गंभीरता से रेखांकित किया।

पुस्तक का द्वितीय खंड –

पुस्तक के द्वितीय खंड में आज, हिंदुस्तान, दैनिक नवज्योति और नवभारत जैसे चार दैनिक अखबारों की चर्चा की गयी है। यह चार अखबार हिंदी पट्टी के न सिर्फ नामवर अखबार हैं बल्कि इनमें आजादी के पहले और बाद का भी इतिहास दर्ज है। इस खंड में आज के बारे में डा. धीरेंद्रनाथ सिंह(अब स्वर्गीय), हिंदुस्तान के बारे में संत समीर, दैनिक नवज्योति के बारे में सत्यनारायण जोशी और नवभारत के बारे में मनोज कुमार ने बहुत बेहतर तरीके से शोधपरक सामग्री प्रस्तुत की है। आज के उद्भव और विकास के अध्याय में बताया गया है कि राष्ट्ररत्न श्री शिवप्रसाद गुप्त ने अपनी ब्रिटेन यात्रा के दौरान लंदन टाइम्स का कार्यालय देखा और वैसा ही अखबार भारत से निकालने का संकल्प लिया। यह भारत का एक ऐसा अखबार था जिसके विदेशों में भी प्रतिनिधि थे। आज राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ा हुआ था। इसके यशस्वी संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर हिंदी के उन्नायकों में हैं। उनके संपादकीय नेतृत्व से भाषा का बहुत विकास हुआ, हिंदी आत्मनिर्भर बनी। पराड़कर जी के बाद इसके यशस्वी संपादकों में संपूर्णानंद जी, कमलापति शास्त्री, विद्याभास्कर, कालिका प्रसाद,श्रीकांत ठाकुर विद्यालंकार, रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर जैसे लोग रहे। जिन पर सारा हिंदी समाज गर्व करता है। यह एक संपूर्ण अखबार था जिसने स्थानीयता विकास और राष्ट्रीयता का विमर्श साथ में चलाया।

   दूसरे चयनित पत्र हिंदुस्तान के बारे में संत समीर ने विस्तार से वर्णन किया है। 12 अप्रैल,1936 को इस अखबार का प्रकाशन हुआ और जल्दी ही जनभावनाओं का आईना बन गया। यह पत्र भी राष्ट्रीय विचारों का संवाहक बना और आजादी की लड़ाई में सहयोगी रहा। कांग्रेस की विचारधारा से जुड़ा रहा यह पत्र विचारों की अलख जगाता रहा। इसे अनेक बार प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। इसके आद्य संपादक सत्यदेव विद्यालंकार रहे। आज यह पत्र काफी विस्तार कर उत्तर भारत के बहुत प्रसारित दैनिकों में शामिल हो चुका है। इसके यशस्वी संपादकों में मुकुट विहारी वर्मा, हरिकृष्ण त्रिवेदी, रतनलाल जोशी, चंद्रूलाल चंद्राकर, विनोद कुमार मिश्र, हरिनारायण निगम, मृणाल पाण्डेय, आलोक मेहता, अजय उपाध्याय के नाम उल्लेखनीय हैं। इन दिनों श्री शशि शेखर इसके संपादक हैं।

  राजस्थान के प्रमुख हिंदी दैनिक दैनिक नवज्योति पर सत्यनारायण जोशी ने अध्ययन प्रस्तुत किया है। 2 अक्टूबर,1936 को अजमेर से प्रकाशित  यह अखबार आज भी राजस्थान में एक प्रमुख उपस्थिति बनाए हुए है। अखबार ने अपने प्रकाशन के साथ ही सामंती शासन और अंग्रेजी सरकार दोनों को चुनौती दी। इस दौरान सरकार ने अपना दमन चक्र भी चलाया। इस तरह जनचेतना फैलाने और सामाजिक सरोकारों के प्रति सजगता के लिए यह पत्र ख्यात रहा है। कांग्रेस समर्थक पत्र होने के कारण इसका स्वतंत्रता आंदोलन से सीधी रिश्ता रहा। आदर्श, नीति और सिद्धांतों पर चलने वाले पत्रों में इसका हमेशा उल्लेख होगा।

  इसी क्रम में नवभारत समाचार पत्र का विशेष अध्ययन मनोज कुमार ने प्रस्तुत किया है। रामगोपाल माहेश्वरी इसके संस्थापक संपादक थे। 1938 में नागपुर से प्रारंभ हुआ यह पत्र आज भी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश का प्रमुख अखबार है। अपने समय में इसकी ख्याति एक गांधीवादी विचारों के समाचार पत्र की रही है। कांग्रेस से भी इसका जुड़ाव स्पष्ट ही है। स्वतंत्रता संग्राम में भी इस समाचार पत्र की सकारात्मक भूमिका रही है। पुस्तक में बताया गया है कि पत्र की रीति न काहू से दोस्ती न काहू से बैर वाली रही है। आजादी के बाद इसका काफी विस्तार हुआ यह पत्र मध्यभारत की आवाज बन गया। नवभारत से अनेक प्रमुख संपादक और पत्रकार जुड़े रहे जिनके योगदान से यह अखबार शिखर पर पहुंचा। जिनमें कुंजबिहारी पाठक, मायाराम सुरजन, कालिका प्रसाद दीक्षित कुसुमाकर, गंगा पाठक, मधुप पाण्डेय, विष्णु, दाऊलाल साखी, ध्यानसिंह राजा तोमर, विजयदत्त श्रीधर, राजेंद्र नूतन, जगत पाठक, गिरीश मिश्र, श्याम वेताल, गोविंदलाल वोरा,बबनप्रसाद मिश्र, कमल दीक्षित,राकेश पाठक आदि प्रमुख हैं।  

 पुस्तक का तृतीय खंड-

 पुस्तक के तीसरे खंड में संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र ने नवभारत टाइम्स, नईदुनिया, स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण और अमर उजाला चयन किया है। निश्चित तौर पर ये समाचार पत्र हिंदी पट्टी के ऐसे पत्र हैं जिनके बिना हिंदी पत्रकारिता का इतिहास अधूरा रहेगा। इन पांचों समाचार पत्रों के व्यापक प्रसार, विषय सामग्री और श्रेष्ठ संपादकों के नेतृत्व ने इन्हें खास बनाया है।

   बेनेट कोलमैन कंपनी के अखबार नवभारत टाइम्स की विकास यात्रा और उसके प्रदेय पर अमरेंद्रकुमार राय ने अध्ययन किया है। पहले यह अखबार नवभारत नाम से निकला और बाद में यह नवभारत टाइम्स बना। इसके प्रथम संपादक सत्यदेव विद्यालंकार थे। बाद के दिनों में सुरेंद्र बालूपुरी, राणा जंगबहादुर सिंह,अक्षय कुमार जैन,सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय,आनंद जैन, राजेंद्र माथुर,एसपी सिंह,विद्यानिवास मिश्र, सूर्यकांत बाली,रमेश चंद्र जैन, मधुसूदन आनंद जैसे दिग्गज संपादकों ने इसी दिशा दी और लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचा दिया। विश्लेषण में कहा गया है कि अपने आरंभिक दिनों की तरह यह पत्र अब साहित्य संस्कृति का वाहक नहीं रहा। बल्कि बाजार की हवाओं ने इसके रूख में बहुत परिवर्तन किया है। अब यह तमाम उत्पादों की तरह एक उत्पाद है।

     इंदौर से छपकर राष्ट्रीय ख्याति पाने वाले नईदुनिया के बारे में श्री शिवअनुराग पटैरया ने अपना अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस पत्र ने जो प्रतिष्ठा पाई वह आज भी इतिहास है। अपने दिग्गज संपादकों, श्रेष्ठ छाप-छपाई और प्रस्तुति, विषय वस्तु ने इसे राष्ट्रीय अखबारों के समतुल्य खड़ा कर दिया। 5 जून,1947 को सांध्य अखबार के तौर पर निकले इस अखबार के प्रधान संपादक थे कृष्णकांत व्यास और प्रकाशक थे कृष्णचंद्र मुद्गल। मुद्गल के हटने के बाद बाबू लाभचंद छजलानी के हाथ में इसकी कमान आई, साथ में नरेंद्र तिवारी और बसंतीलाल सेठिया भी जुड़ गए। इसके बाद से अखबार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। राहुल बारपुते, विष्णु चिंचालकर और रणवीर सक्सेना की त्रिमूर्ति ने अखबार का चेहरा बदलकर रख दिया। आधुनिक तकनीक, पाठकों से जीवंत रिश्ता, संपादकीय सामग्री की उत्कृष्ठता तीन कारणों ने अखबार को शिखर पहुंचा दिया। इस अखबार के संपादकों में राहुल बारपुते,अभय छजलानी, राजेंद्र माथुर ने इसे विविध प्रयोगों से राष्ट्रीय ख्याति दिलाई।

     कभी उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय दैनिक रहे स्वतंत्र भारत के बारे में रजनीकांत वशिष्ठ ने अध्ययन प्रस्तुत किया है। इसमें अखबार के उत्कर्ष से अवसान  तक की गाथा को उन्होंने बहुत अच्छे से पिरोया है। अशोक जी जैसे दिग्गज संपादकों ने इस अखबार को संवारा और इसने लंबी यात्रा तय की। जयपुरिया से थापर और बाद में अनेक मालिकों के हाथों से गुजरते हुए यह अखबार अब बहुत दुर्बल अवस्था में है। राजनाथ सिंह, घनश्याम पंकज, ज्ञानेंद्र शर्मा जैसे दिग्गज इसके संपादक रहे।

  उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर से 21 सितंबर,1947 को प्रकाशित हुए दैनिक जागरण की प्रगति यात्रा विस्मयकारी और निरंतर है। पुस्तक में इसका अध्ययन बच्चन सिंह ने प्रस्तुत किया है। यह समूह अपनी निर्भीकता, जनपक्षधरता और स्थानीय खबरों को महत्व देकर आगे बढ़ा। विस्तारवादी सोच ने इसे हिंदी का सबसे प्रसारित अखबार भी बना दिया है। यह सही मायने में एक संपूर्ण अखबार है जिसने अपने पाठकों को हमेशा केंद्र में रखा है। रंगीन साप्ताहिक परिशिष्ठों और तकनीकी के नए प्रयोगों से एक सुदर्शन अखबार की प्रस्तुति कैसी होनी चाहिए, प्रबंधन का ध्यान सदैव इस ओर रहा है। राष्ट्रीय विचारों और भारतीयता के प्रति समर्पित यह समाचार उत्तरभारत के पाठकों में बहुत लोकप्रिय है। अपने वैचारिक पृष्ठों और आग्रहों के लिए भी यह चर्चित रहा है।

   अमर उजाला, अपनी खास तरह की पत्रकारिता और संपादकीय परंपरा को उन्नत करने वाले समाचार पत्रों में एक है। इसका अध्ययन अभय प्रताप ने किया है। अमर उजाला ने अपने प्रकाशन के साथ ही अपनी आचार संहिता प्रस्तुत की और अपने मानक तय किए। यह किसी भी प्रकाशन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अमर उजाला ने अपना व्यापक विस्तार किया  है और हिंदी के अग्रणी प्रकाशनों में शामिल है। एक व्यावसायिक पत्र होते भी अमर उजाला कुछ मूल्यों के साथ जुड़ा हुआ है। क्षेत्रीय पत्रकारिता का अग्रणी होने के साथ अमर उजाला को क्षेत्रीय पत्रकारिता के मूल्य विकसित करने चाहिए ऐसा सुझाव भी अध्ययनकर्ता ने दिया है।

   पुस्तक का चौथा खंड-

 पुस्तक के चौथे खंड में राजस्थान पत्रिका पर अचला मिश्र, युगधर्म पर अंजनी कुमार झा, दैनिक भास्कर पर सोमदत्त शास्त्री, देशबंधु पर डा. देवेशदत्त मिश्र, स्वदेश पर रामभुवन सिंह कुशवाह, और प्रभात खबर पर जेब अख्तर की टिप्पणी है। इस खंड में शामिल अखबारों का प्रभाव प्रमुख क्षेत्र मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़,राजस्थान और झारखंड रहा है। इन अखबारों ने पत्रकारिता की जो उजली परंपराएं स्थापित की उसने इन्हें राष्ट्रीय ख्याति दिलाई है। स्वदेश और युगधर्म तो राष्ट्रीय भावधारा के पोषक पत्र रहे। बहुत प्रसार न होने के बाद भी इनकी बात गंभीरता से सुनी जाती थी। इन समाचार पत्रों को असहमति के पक्ष की तरह भी देखा जाना चाहिए। तो वहीं दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका और प्रभात खबर ने अपने व्यापक प्रसार क्षेत्र से हिंदी पत्रकारिता का गौरव बढ़ाया। इस खंड में चयनित अखबार संपादक के व्यापक दृष्टिकोण के परिचायक हैं किस तरह हिंदी क्षेत्र के सामान्य अखबारों ने भी निरंतर चलते हुए अपना न सिर्फ सामाजिक आधार बढ़ाया बल्कि देश के एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र को भी संबोधित कर रहे हैं। पुस्तक के चारों खंड आजादी के बाद हिंदी पट्टी में चली पत्रकारिता का विहंगावलोकन प्रस्तुत करते हैं। इन्हें पढ़ते हुए हमें न सिर्फ एक पूरी यात्रा समझ में आती है बल्कि हिंदी पत्रकारिता का आत्मसंघर्ष, संपादकों और प्रकाशकों की जिजीविषा भी दिखती है। इनमें ज्यादातर प्रकाशन बहुत सामान्य स्थितियों से प्रारंभ होकर बहुत बड़े प्रकाशन बने। टाइम्स और हिंदुस्तान टाइम्स समूहों के अखबारों और पत्रिकाओं की बात छोड़ दें तो ज्यादातर प्रकाशन सामान्य मध्यवर्गीय पत्रकारों या परिवारों द्वारा प्रारंभ किये गए, जिनके पास बहुत पूंजी लगाने को नहीं थी। वावजूद इसके उनका विस्तार हमें प्रेरित करता है। राजस्थान पत्रिका के संपादक- प्रकाशक कुलिश जी तो एक पत्रकार हैं और आज यह समूह देश का गौरव है  और अहिंदीभाषी इलाकों से भी अपने संस्करण प्रकाशित कर हिंदी सेवा में लगा है।

   हिंदी के प्रमुख समाचारपत्र और पत्रिकाएं का संपादन कर श्री अच्युतानंद मिश्र ने इतिहास के संरक्षण का काम तो किया ही है, वे इस बहाने हिंदी भाषी समाज में गौरवबोध भी भरते नजर आते हैं। अखबारों और पत्रिकाओं का चयन भी उन्होंने इस तरह से किया है जिससे समूची हिंदी पट्टी का पत्रकारीय स्वर और व्यक्तित्व सामने आता है। चारों खंडों का पाठ हमें हमारी जातीय स्मृति का बोध तो कराता ही है, भाषा के विकास में पत्रकारिता के योगदान को भी रेखांकित करता है। एक ओर जहां ऐसे पत्र हैं जिन्होंने विचार को आगे रखकर अपनी यात्रा की तो वहीं ऐसे पत्र भी हैं जिन्होंने आक्रामण विपणन और मार्केटिंग रणनीतियों से हिंदी का बाजार व्यापक किया। हिंदी की संभावनाओं को बहुज्ञात कराया।  हिंदी सिर्फ विचार, साहित्य, सूचना के बजाए बाजार में भी इसके चलते स्थापित होती नजर आई। पाठकीय रूचियों और पाठकों के मन का अखबार बनाने के तौर तरीके भी इस अध्ययन से सामने आते हैं। इनमें दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान,पत्रिका ऐसे पत्र हैं जो आज  देश के प्रथम दस अखबारों की सूची में जगह बनाते हैं। जाहिर तौर पर यह अध्ययन हिंदी के आत्मविश्वास, हिंदी के आत्मसंघर्ष और उससे उपजी सफलताओं का दस्तावेज है। इसके लिए संपादक की विलक्षण दृष्टि, संतुलित चयन और अध्ययनकर्ता लेखकों का श्रम स्तुत्य है।

पुस्तक- हिंदी के प्रमुख समाचारपत्र और पत्रिकाएं(चार खंड)

संपादक- अच्युतानंद मिश्र

प्रकाशक-सामयिक प्रकाशन,दिल्ली-110002

मूल्यः 2000 रूपए(चार खंड)