बुधवार, 25 मार्च 2020

कुशाभाऊ ठाकरे का नाम हटाना चंदूलाल जी का सम्मान नहीं

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नाम संजय द्विवेदी का खुला पत्र



सेवा में,
श्री भूपेश बघेल जी
मुख्यमंत्रीः छत्तीसगढ़ शासन, रायपुर

 आदरणीय भूपेश जी,
 सादर नमस्कार,
    आशा है आप स्वस्थ एवं सानंद हैं। यह पत्र विशेष प्रयोजन से लिख रहा हूं। मुझे समाचार पत्रों से पता चला कि आपके मंत्रिमंडल ने रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय का नाम बदलकर अब चंदूलाल चंद्राकर पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय करने का निर्णय लिया है। राज्य के मुख्यमंत्री होने के नाते और लोकतंत्र में जनादेश प्राप्त राजनेता होने के नाते आपका निर्णय सिर माथे। लेकिन आपके इस फैसले पर मेरे मन में कई प्रश्न उठे हैं, जिन्हें आपसे साझा करना जागरूक नागरिक होने के नाते अपना कर्तव्य समझता हूं।
    मैंने 1994 से लेकर 2009 तक अपनी युवा अवस्था का एक लंबा समय पत्रकार होने के नाते छत्तीसगढ़ की सेवा में व्यतीत किया है। रायपुर और बिलासपुर में अनेक अखबारों के माध्यम से मैंने छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा और उसके भूमिपुत्रों को न्याय दिलाने के लिए सतत लेखन किया है। मेरी पुस्तकों के विमोचन कार्यक्रमों में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, अजीत जोगी, डा. रमन सिंह, सत्यनारायण शर्मा, बृजमोहन अग्रवाल, चरणदास महंत, धर्मजीत सिंह,स्व. नंदकुमार पटेल, स्व.बी.आर. यादव जैसे नेता आते रहे हैं। आपसे भी विधायक और मंत्री के नाते मेरा व्यक्तिगत संवाद रहा है। आपके गांव भी आपके साथ एक आयोजन में जाने का अवसर मिला और क्षेत्र में आपकी लोकप्रियता, संघर्षशीलता का गवाह  रहा हूं।
योद्धा हैं आप-
   आपसे हुए अनेक संवादों में आपके व्यक्तित्व, उदारता और लोगों को साथ लेकर चलने की आपकी क्षमता तथा छत्तीसगढ़ राज्य के लिए आपके मन में पल रहे सुंदर सपनों को जानने-समझने का अवसर मिला। मैं आपकी संघर्षशीलता, अंतिम व्यक्ति के प्रति आपके अनुराग को प्रणाम करता हूं। आप सही मायने में योद्धा हैं, जिन्होंने स्व. नंदकुमार पटेल के छोड़े हुए काम को पूरा किया। सत्ता में आने के बाद आपका रवैया आपको एक अलग छवि दे रहा है, जिसके बारे में शायद आपके सलाहकार आपको नहीं बताते हैं। आप राज्य के मुख्यमंत्री हो चुके हैं और मैं अदना सा लेखक हूं, सो आपसे मित्रता का दावा तो नहीं कर सकता। किंतु आपका शुभचिंतक होने के नाते मैं आपसे यह निवेदन करना चाहता हूं कि आप कटुता, बदले की भावना और निपटाने की राजनीति से बचें। यह कांग्रेस का रास्ता नहीं है, देश का रास्ता नहीं है और छत्तीसगढ़ का रास्ता तो बिल्कुल नहीं।
नाम में क्या रखा है-
   विश्वविद्यालय का नाम आदरणीय चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर रखकर आप उनका सम्मान नहीं कर रहे, बल्कि एक महानायक को विवादों में ही डाल रहे हैं। चंदूलाल जी छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्नदृष्टा हैं। वे पांच बार दुर्ग क्षेत्र से लोकसभा के सांसद, दो बार केंद्रीय मंत्री, कांग्रेस के प्रवक्ता और राष्ट्रीय महासचिव जैसे पदों पर रहे हैं। वे छत्तीसगढ़ के पहले पत्रकार हैं जिन्हें दैनिक हिंदुस्तान जैसे राष्ट्रीय अखबार का संपादक होने का अवसर मिला। ऐसे महत्त्वपूर्ण पत्रकार, राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता के नाम पर आप कुछ बड़ा कर सकते थे। एक बड़ी लकीर खींच सकते थे किंतु आपको चंदूलाल जी का सम्मान नहीं, एक अन्य सामाजिक कार्यकर्ता कुशाभाऊ ठाकरे का नाम हटाना ज्यादा प्रिय है। मुझे लगता है इससे आपने अपना कद छोटा ही किया है।
      मृत्यु के बाद कोई भी सामाजिक कार्यकर्ता पूरे समाज का होता है। राजनीतिक आस्थाओं के नाम पर उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। समाज के प्रति उसका प्रदेय सब स्वीकारते और मानते हैं। स्वयं चंदूलाल जी यह पसंद नहीं करते कि उनकी स्मृति में ऐसा काम हो, जिसके लिए किसी का नाम मिटाना पड़े।
     कुशाभाऊ जी एक सात्विक वृत्ति के राजनीतिक नायक थे, जिन्होंने छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की अहर्निश सेवा की। उनका नाम एक विश्वविद्यालय से हटाकर आप उसी अतिवाद को पोषित करेगें, जिसके तहत कुछ लोग जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का नाम बदलने की बात करते हैं। नाम बदलने की प्रतियोगिता हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। यह देश की संस्कृति नहीं है। हमें यह भी सोचना चाहिए कि सत्ता आजन्म के लिए नहीं होती। काल के प्रवाह में पांच साल कुछ नहीं होते। कल अगर कोई अन्य दल सत्ता में आकर चंदूलाल जी का नाम इस विश्वविद्यालय से फिर हटाए तो क्या होगा ? हम अपने नायकों का सम्मान चाहते हैं या उनके नाम पर राजनीति यह आपको सोचना है। इस बहाने शिक्षा परिसरों को हम अखाड़ा बना ही रहे हैं, जो वस्तुतः अपराध ही है।
      मैं आपको सिर्फ स्मरण दिलाना चाहता हूं कि डा. रमन सिंह की सरकार ने तीन विश्वविद्यालय साथ में खोले थे स्वामी विवेकानंद टेक्नीकल विश्वविद्यालय, पं. सुंदरलाल शर्मा खुला विश्वविद्यालय और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय। इनमें सुंदरलाल शर्मा आजन्म कांग्रेसी रहे, जिनसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी प्रभावित थे। इससे क्या डा. रमन सिंह का कद घट गया। चंदूलाल चंद्राकर जी के नाम पर जनसंपर्क विभाग के पुरस्कार दिए जाते रहे, पंद्रह साल राज्य में भाजपा की सरकार रही तो क्या भाजपा ने उनके नाम पर दिए जा रहे पुरस्कारों को बदल दिया। नायक मृत्यु के बाद राजनीति का नहीं, समाज का होता है। तत्कालीन रमन सरकार ने इसी भावना को पोषित किया। इसके साथ ही महाकवि गजानन माधव मुक्तिबोध की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए राजनांदगांव में डा. रमन सिंह ने जो कुछ किया, उसकी देश के अनेक साहित्यकारों ने सराहना की। क्या हम अपने नायकों को भी दलगत राजनीतिक का शिकार बन जाने देगें। मुझे लगता है यह उचित नहीं है। कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय में ठाकरे जी की प्रतिमा भी स्थापित है। अनेक वर्षों में सैकड़ों विद्यार्थी यहां से अपनी डिग्री लेकर जा चुके हैं। उनकी डिग्रियों पर उनके विश्वविद्यालय का नाम है। इस नाम से एक भावनात्मक लगाव है। मुझे लगता है कि इतिहास को इस तरह बदलना जरूरी नहीं है। एक नए विश्वविद्यालय के साथ जो अभी ठीक से अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं है, इस तरह के प्रयोग उसे कई नए संकटों में डाल सकते हैं। यह कहा जा रहा है कि कुछ पत्रकारों की मांग पर ऐसा किया गया, आप आदेश करें तो मैं देश भर के तमाम संपादकों के पत्र आपको भिजवा देता हूं जो इस नाम को बदलने का विरोध करेंगे। राजनीति में इस तरह के प्रपंचों को आप बेहतर समझते हैं, इस प्रायोजिकता का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य है उन विचारों का जिससे आगे का रास्ता सुंदर और विवादहीन बनाया जा सकता है।
गांधी परिवार पर हमले के लिए अवसर-
    आपके विद्वान सलाहकार आपको नहीं बताएंगे क्योंकि उनकी प्रेरणाभूमि भारत नहीं है, नेहरू और गांधी नहीं हैं। प्रतिहिंसा और विवाद पैदा करना उनकी राजनीति है। आज वे कांग्रेस के मंच पर आकर यही सब करना चाहते हैं, जिसके चलते उनकी समूची विचारधारा पुरातात्विक महत्त्व की चीज बन गयी है। वे आपको यह नहीं बताएंगें कि ऐसे कृत्यों से आप गांधी- नेहरू परिवार के अपमान के लिए नई जमीन तैयार कर रहे हैं। देश में अनेक संस्थाएं पं. जवाहरलाल नेहरू,श्रीमती इंदिरा गांधी, श्री फिरोज गांधी, श्री राजीव गांधी, श्री संजय गांधी के नाम पर हैं। इस बहाने गांधी परिवार के राजनीतिक विरोधियों को इनकी गिनती करने और मृत्यु के बाद इन नायकों पर हमले करने का अवसर मिलता है। मेरा मानना है यह एक ऐसी गली में प्रवेश है, जहां से वापसी नहीं है। अपने राजनीतिक चिंतन का विस्तार करें, इन छोटे सवालों में आप जैसे व्यक्ति का उलझना ठीक नहीं है। छत्तीसगढ़ के अनेक नायकों के लिए आपको कुछ करना चाहिए पं. माधवराव सप्रे,कवि-पत्रकार-राजनेता श्रीकांत वर्मा,सरस्वती के संपादक रहे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, रंगकर्मी सत्यदेव दुबे जैसे अनेक नायक हैं जिनकी स्मृति का संरक्षण जरूरी है। लेकिन यह काम किसी का नाम पोंछकर न हो।
सेवा के अवसर को यूं न गवाएं-
    महिमामय प्रभु ने बहुत भाग्य से आपको छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा का अवसर दिया है। छत्तीसगढ़ को देश का अग्रणी राज्य बनाना और उसके सपनों में रंग भरने की जिम्मेदारी इतिहास ने आपको दी है। इस समूचे भूगोल की सेवा और इसके नागरिकों को न्याय दिलाना आपका कर्तव्य है। इन विवादित कदमों से बड़े लक्ष्यों को हासिल करने में कोई मदद नहीं मिलेगी। छत्तीसगढ़ के स्वभाव को आप मुझसे ज्यादा जानते हैं। यहां अतिवाद की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री श्री अजीत जोगी अपनी तमाम योग्यताओं के बावजूद भी राज्य की जनता वह स्नेह नहीं पा सके, जिसके वे अधिकारी थे। आप सोचिए कि ऐसा क्यों हुआ ? राज्य की जनता ने डा. रमन सिंह को सेवा के लिए तीन कार्यकाल दिए। यह छत्तीसगढ़ है जहां लोग अपने जैसे लोगों को,सरल और सहज स्वभाव को स्वीकारते हैं। यहां नफरतें और कड़वाहटें लंबी नहीं चल सकतीं।
      इस माटी के प्रति मेरा सहज अनुराग मुझे यह कहने के लिए बाध्य कर रहा है कि आप राज्य के स्वभाव के विपरीत न चलें। प्रतिहिंसा, विवाद और वितंडावाद यहां के स्वभाव का हिस्सा नहीं है। अभी तीन दिन पहले बस्तर में सुरक्षाबलों के 17 जवान शहीद हुए हैं। करोना से सारा देश जूझ रहा है। ऐसे समय में बस्तर की शांति, छत्तीसगढ़ के नागरिकों का स्वास्थ्य आपकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। मुझे आपको कर्तव्यबोध कराने का साहस नहीं करना चाहिए किंतु आपके प्रति सद्भाव और मेरे प्रति आपका स्नेह मुझे यह हिम्मत दे रहा है। छत्तीसगढ़ महतारी की मुझ पर अपार कृपा रही है। बिलासपुर में बैठी मां महामाया, बस्तर की मां दंतेश्वरी, डोंगरगढ़ की मां बमलेश्वरी से मैं नवरात्रि के दिनों में यह प्रार्थना करता हूं वे आपको शक्ति, साहस दें कि आप अपना मार्ग प्रशस्त कर सकें। बेहतर होगा कि आप अपने मंत्रिमंडल द्वारा लिए इस फैसले को वापस लेकर सद्भाव की राजनीतिक परंपरा को अक्षुण्ण रखेंगें। भारतीय नववर्ष पर आपको सुखी और सार्थक जीवन के लिए मंगलकामनाएं।
जय जोहार!
सादर आपका शुभचिंतक
-        संजय द्विवेदी,
                                                                                कार्यकारी संपादकः मीडिया विमर्श, भोपाल

                                                       

गुरुवार, 5 मार्च 2020

दिवाकर मुक्तिबोधः छत्तीसगढ़ की हिंदी पत्रकारिता का चमकदार चेहरा


-प्रो. संजय द्विवेदी


    छत्तीसगढ़ यानी वह प्रदेश जहां हिंदी पत्रकारिता की उजली परंपरा का प्रारंभ पं. माधवराव सप्रे ने सन् 1900 में छत्तीसगढ़ मित्र के माध्यम से किया। उसके बाद की पीढ़ी में तमाम नायक सामने आते गए और अपनी यशस्वी भूमिका का निर्वहन करते रहे। हमारे समय के नायकों में एक नाम है श्री दिवाकर मुक्तिबोध का। आधुनिक हिंदी पत्रकारिता में उनकी मौजूदगी ऐसे संपादक की तरह है, जिसने बिना शोरगुल मचाए पत्रकारिता का धर्म निभाया। बड़े अखबारों के संपादक रहे इस व्यक्ति ने खुद को हमेशा आम आदमी बनाए रखा। रायपुर, बिलासपुर में उनकी सौम्य उपस्थिति हमने देखी और महसूस की है। दिवाकर मुक्तिबोध हमारे समय के उन संपादकों में हैं, जिन्होंने रिपोर्टिंग से अपनी शुरुआत की और बाद के दिनों में कुशल संपादक, राजनीतिक विश्लेषक के रूप में अपनी पहचान बनाई।  
यशस्वी पारिवारिक परंपरा के संवाहक-
     हिंदी के यशस्वी कवि-लेखक श्री गजानन माधव मुक्तिबोध का पुत्र होना ही आत्मगौरव का विषय है। दिवाकर जी का पिता के प्रति आदर है, किंतु वे उनके नाम का इस्तेमाल नहीं करते। उनका नाम लेने से वे संकोच से भर जाते हैं। पिता की यादें, उनका संघर्ष उनकी आंखों को पनीला कर जाते हैं। मां और पिता के प्रति उनका यह स्वाभाविक अनुराग और सम्मान उन्हें आज भी संबल देता है। हिंदी सेवा के भाव उन्हें अपने परिवार से विरासत में ही मिले हैं। अपने पिता की लंबी छाया के बीच पहचान बनाना कठिन होता है। किंतु दिवाकर जी ने साहित्य के बजाए पत्रकारिता का मार्ग पकड़ा और अपनी खास जगह बनाई। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के दिग्गज संपादकों का स्मरण करें तो उनमें सर्वश्री चंदूलाल चंद्राकर, गोविंदलाल वोरा, बबन प्रसाद मिश्र, रमेश नैयर, गुरूदेव काश्यप, तुषारकांति बोस, श्रीकांत वर्मा, जगदीश उपासने, सुधीर सक्सेना, ललित सुरजन, विष्णु सिन्हा, रम्मू श्रीवास्तव, बसंत कुमार तिवारी, राजनारायण मिश्र, डा. हिमांशु द्विवेदी,सुनील कुमार, गिरिजाशंकर, रूचिर गर्ग जैसे अनेक नाम ध्यान में आते हैं। इन सबके बीच दिवाकर मुक्तिबोध का नाम भी बहुत सम्मान से लिया जाता है। मराठीभाषी होते हुए भी वे हिंदी सेवा में पं. माधवराव सप्रे जी के मार्ग के अनुयायी हैं।
विविध भूमिकाओं में बनी शानदार पहचान-
     मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में 5 अगस्त,1948 को जन्में दिवाकर जी ने समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की।पत्रकारीय रुचि के चलते पत्रकारिता में स्नातक की डिग्री भी ली। छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता के पिछले साढ़े चार दशक, दिवाकर मुक्तिबोध की पत्रकारीय यात्रा के गवाह हैं। मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के वे अप्रतिम उदाहरण हैं। राजनीतिक रिपोर्टिंग, खेल रिपोर्टिंग, उपसंपादक, समाचार संपादक, स्थानीय संपादक, संपादक जैसे अनेक भूमिकाओं में उन्होंने खुद को साबित किया। उनकी खास पहचान राजनीतिक विश्लेषक के रूप में बनी। दैनिक भास्कर एवं नवभारत में उनके स्तंभ हस्तक्षेप, हफ्तावार, देख भाई देख, बिंब-प्रतिबिंब बहुत सराहे गए। इन स्तंभों के अलावा भी उन्होंने विपुल लेखन किया है। अपने लेखों के माध्यम से वे हमारे समय की समस्याओं, संकटों, राजनीतिक संदर्भों पर पैनी टिप्पणियां करते रहे। जिनसे छत्तीसगढ़ का पाठक वर्ग जुड़ाव महसूस करता रहा। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि उनके लेखन में नीर-क्षीर-विवेक के दर्शन होते हैं। राजनीतिक विचारों से वे आक्रांत नहीं होते और सच के साथ निर्भीकता से खड़े होकर उन्होंने वही कहा जो उचित था। उनके समूचे लेखन में सच का स्पंदन है, उसका ताप है। वे कहते हैं तो सुनना अच्छा लगता है, क्योंकि वे हमारी बात कह रहे होते हैं। अपने जीवन में वे जितने सरल और संयत दिखते हैं, उनकी पत्रकारिता में उतना ही तेज और ताप है। आपसे निजी तौर पर वे बहुत सहजता, सरलता और धीमी आवाज में बात करेंगे, किंतु उनके मन में खबरों को लेकर जो तड़प है वह उनके पास बैठकर ही महसूस की जा सकती है। देशबंधु, नवभारत, अमृतसंदेश, दैनिक भास्कर, न्यूज चैनल वाच न्यूज,आज की जनधारा, अमन पथ, पायनियर जैसे मीडिया संस्थानों में काम करते हुए उनके साथ कई पीढ़ियों को पत्रकारिता का ककहरा सीखने का अवसर मिला। छत्तीसगढ़ के पत्रकार मित्रों से मिलते हुए दिवाकर जी बात हो तो ज्यादातर उनके मुरीद मिलेंगे। क्योंकि जब भी जिस भूमिका में रहे हों, दिवाकर जी ने सबके साथ न्याय किया है।
कुशल संपादक, योग्य नेतृत्वकर्ता-
   दैनिक भास्कर- रायपुर और बिलासपुर और नवभारत-बिलासपुर के संपादक के रुप में दिवाकर जी जब कार्यरत थे, उनके काम को, कार्यशैली को निकट से देखने और महसूस करने का अवसर मिला। दैनिक भास्कर, बिलासपुर में तो वे मेरे संपादक ही रहे। उनके साथ काम करना वात्सल्य की छांव में काम करना है। वे अपने अपने अधीनस्थों की जिस तरह रक्षा करते हैं, वह विरल है। जिम्मेदारी देना और भरोसा करना उनसे सीखा जा सकता है। कम बोलकर भी वे कमांड पूरा रखते हैं। भाषा के साथ उनका बहुत सावधानी का रिश्ता है। उनमें एक ऐसा कापी एडीटर है जो शुद्धता का  आग्रही है। वे पत्रकारिता की भाषा के साथ कोई मजाक नहीं चाहते। इसलिए साफ-सुथरी कापी उनकी पसंद है। वे मूलतः रिर्पोटर हैं किंतु भाषा की उनमें विलक्षण समझ उन्हें सफल संपादक भी बनाती है। उनके साथ काम करते हुए मैंने उनसे अनेक पाठ सीखे। उनकी ऊंचाई के सामने आपका सारा अहंकार विलीन हो जाता है, मंद मुस्कान के साथ जब वे आपका, आपके परिवार का हाल पूछते हैं तो लगता है कि आपने सब कुछ पा लिया। दिवाकर जी सही मायनों में खालिस पारिवारिक व्यक्ति हैं, उनका लेखन भले ही सार्वजनिक हो। उनकी दुआएँ और उनका साथ हमें मिला, इससे हमारी और हम जैसों की दुनिया खूबसूरत ही बनी। हमें खुशी है कि उनकी जिंदगी में हमारे लिए जगह है। सारगर्भित लेखन और संपादन के लिए उन्हें 2008 में वसुंधरा सम्मान से भी अलंकृत किया गया।
किताबें बताती हैं समय का सच-
    दिवाकर जी की दो किताबें इस राह से गुजरते हुए और 36 का चौसर उनके लेखन की बानगी देती हैं, इतिहास को समेटे हुए, अपने समय का आख्यान करते हुए। ये किताबें बिलासपुर के श्री प्रकाशन से छपी हैं। दिवाकर जी की पहली किताब उनके विश्लेषणों की किताब है जिसमें वे विविध सामाजिक, राजनीतिक संदर्भों पर बात करते हैं। दूसरी किताब छत्तीसगढ़ केंद्रित है। इसमें छत्तीसगढ़ की राजनीति का जायजा है। उनके लेखों के गुजरते हुए इतिहास साथ चलता है। एक जिंदादिल पत्रकार किस तरह अपने समय को देखता और विश्लेषित करता है, यह भी पता चलता है। बावजूद इसके इन किताबों से दिवाकर जी पूरे पता नहीं चलते। इसके लिए उनके जानने वालों के पास जाना होगा। वे रिर्पोटर, संपादक, प्रबंधक, परिवार के मुखिया, पिता और दोस्त हर भूमिका में फिट और हिट हैं। उनके साथ होना एक ऐसे पुराने पेड़ की छांव में होना है, जो निरंतर अपने लोगों को छांव दे रहा है और आक्सीजन भी। वे महसूस नहीं कराते, आपके लिए कर देते हैं। वे वाचाल नहीं हैं, इसलिए बोलकर करना उनकी आदत नहीं है। वे कहते कम हैं, करते ज्यादा हैं। इस दुनिया में उन्होंने सिर्फ दोस्त बनाए हैं, दुश्मन नहीं। अपने सच और अपने विचारों के साथ खड़े इस व्यक्ति ने कभी दुराग्रह नहीं रखे, लाभ और लोभ में नहीं फंसे। इसलिए हर कोई उनका अपना है और वे सबके हैं। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के दिग्गज नेताओं, सामाजिक क्षेत्र और विविध विधाओं के नायकों से उनके जीवंत रिश्ते रहे हैं। इन रिश्तों को उन्होंने जिया किंतु अपने लाभ के लिए कभी उनका इस्तेमाल नहीं किया। शुचिता और परंपरा की विरासत और उसकी ठोस जमीन पर वे हमेशा खड़े नजर आए। राजनीति पर लिखना, राजनेताओं से रिश्ते रखना किंतु अपने लेखन और जीवन को उससे बचाकर रखना वे ही कर सकते थे, उन्होंने किया भी। उनके जैसे व्यक्ति के बारे में ही यह उक्ति कही गयी होगी- ज्योंकि त्यों धर दीनी चदरिया।  हिंदी की पत्रकारिता की सेवाओं के लिए उन्हें याद करना तो विशेष है ही, अच्छे मनुष्य के रूप में भी उनको याद किया जाना ज्यादा जरूरी है। क्योंकि इस कठिन समय में संपादक तो अनेक हैं किंतु मनुष्य कितने हैं। शायद इसलिए एक शायर लिखते हैं, आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना। दिवाकर मुक्तिबोध को मैं बेहतर संपादक, आला इंसान ,शानदार बास और बड़े भाई के रूप में याद करता हूं। इस तरह उनका हमारी जिंदगी में होना हमें भी गौरव देता है।
 संपर्कः प्रो. संजय द्विवेदी,
जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय,
बी-38, विकास भवन, प्रेस कांप्लेक्स, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल-462011 (मप्र)
मोबाइलः 9893598888, ई-मेलः 123dwivedi@gmail.com


मंगलवार, 3 मार्च 2020

बलदेव भाई शर्मा होने का मतलब


कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के नए कुलपति का चयन क्यों है महत्त्वपूर्ण
-प्रो.संजय द्विवेदी



       हिंदी पत्रकारिता के विनम्र सेवकों की सूची जब भी बनेगी उसमें प्रो. बलदेव भाई शर्मा का नाम अनिवार्य रूप से शामिल होगा। ऐसा इसलिए नहीं कि उन्हें रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया है। बल्कि इसलिए कि उन्होंने छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और दिल्ली की पत्रकारिता में अपने उजले पदचिन्ह छोड़े हैं। उनकी पत्रकारिता की पूरी पारी ध्येयनिष्ठा और भारतबोध से भरी है। वे अपने आसपास इतना सृजनात्मक और सकारात्मक वातावरण बना देते हैं कि नकारात्मकता वहां से बहुत दूर चली जाती है।
      बड़े अखबारों के संपादक,प्रोफेसर, नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष रहते हुए उनकी सेवाओं को सारे देश ने देखा और उसके स्पंदन को महसूस किया है। इस पूरी यात्रा में बलदेव भाई के निजी जीवन के द्वंद्व, निजी दुख, पारिवारिक कष्ट कहीं से उन्हें विचलित  नहीं करते। अपने युवा पुत्र और पुत्री के निधन के समाचार उन्हें आघात तो देते हैं पर इन पारिवारिक दुखों के बीच भी वे अविचल और अडिग खड़े रहते हैं। अपने जीवन की ध्येयनिष्ठा उन्हें शक्ति देती है । लोगों का साहचर्य उन्हें सामान्य बनाए रखता है। उनका साथ और सानिध्य मुझ जैसे अनेक युवाओं को मिला है, जो उनसे प्रेरणा लेकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आए। उनसे सीखा और उनकी बनाई राह पर चलने की कोशिश की।
     मुख्यधारा की पत्रकारिता में जिस तरह उनके विरोधी विचारों का आधिपत्य था, उसके बीच उन्होंने राह बनाई। दैनिक भास्कर, हरियाणा के राज्य संपादक के रूप में उनकी सेवाएं और एक नए संस्थान को जमाने में उनकी मेहनत हमारे सामने है। इसी तरह वाराणसी में अमर उजाला के संस्थापक संपादक के रूप में संस्थान को आकार देकर उन्होंने साबित किया कि वे किसी भी तरह के कामों को अंजाम देने में दक्ष हैं। दिल्ली के नेशनल दुनिया के संपादक, नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष रहते हुए उनके द्वारा किए गए काम सराहे गए। उनके कार्यकाल में राष्ट्रीय पुस्तक मेले को एक नया और व्यापक स्वरूप मिला। किताबों की बिक्री कई गुना बढ़ गयी। उनके स्वभाव और सौजन्य से लोग जुड़ते चले गए।  
     स्वदेश, ग्वालियर और रायपुर के संपादक के रूप में मध्यप्रदेश- छत्तीसगढ़ की जमीन पर उन्होंने अपने रिश्तों का संसार खड़ा किया जो आज भी उन्हें अपना मानता है। रिश्तों को बनाना और उन्हें जीना उनसे सीखा जा सकता है। बलदेव भाई की कहानी ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जिसने अपनी किशोरावस्था में एक स्वप्न देखा और उसे पूरा करने के लिए पूरी जिंदगी लगा दी। उनकी आरंभिक पत्रकारिता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वैचारिक छाया में चलने वाले प्रकाशनों स्वदेश और पांचजन्य के साथ चली। इस यात्रा ने उन्हें वैचारिक तौर पर प्रखरता और तेजस्विता दी। अपने लेखन और विचारों में वे दृढ़ बने। किंतु इसी संगठनात्मक-वैचारिक दीक्षा ने उन्हें समावेशी और लोकसंग्रही बनाया। अपनी इसी धार को लेकर वे मुख्यधारा के अखबारों में भी सफलता के झंडे गाड़ते रहे। मथुरा जिले के पटलौनी(बल्देव) गांव में 6 अक्टूबर,1955 में जन्में बलदेव भाई अपने लेखन कौशल के लिए जाने जाते हैं। उनकी कई पुस्तकें अब प्रकाशित होकर लोक विमर्श का हिस्सा हैं। जिनमें मेरे समय का भारत’, ‘आध्यात्मिक चेतना और सुगंधित जीवन’, 'संपादकीय विमर्श', 'अखबार और विचार' 'हमारे सुदर्शन जी' और सहजता की भव्यता शामिल हैं। उन्हें म.प्र. शासन के पं. माणिकचंद वाजपेयी राष्ट्रीय पत्रकारिता सम्मान’, स्वामी अखंडानंद मेमोरियल ट्रस्ट, मुंबई का रचनात्मक पत्रकारिता राष्ट्रीय सम्मान व केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा द्वारा पंडित माधवराव सप्रे साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान दिया जा चुका है। मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता की लंबी और सार्थक पारी के बाद अब जब उन्हें देश के दूसरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में नियुक्त किया गया है तब उम्मीद की जानी कि वे अपने अनुभव, दक्षता और उदारता से इस शिक्षण संस्थान की राष्ट्रीय पहचान बनाने में अवश्य सफल होंगे। फिलहाल तो इस यशस्वी पत्रकार को शुभकामनाओं के सिवा दिया ही क्या जा सकता है।