कोरोना संकट लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कोरोना संकट लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 28 मई 2021

कोरोना संकट में संबल बनी पत्रकारिता

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष

-प्रो.संजय द्विवेदी

      कोविड-19 के दौर में हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाते हुए हम तमाम प्रश्नों से घिरे हैं। अंग्रेजी पत्रकारिता ने अपने सीमित और विशेष पाठक वर्ग के कारण अपने संकटों से कुछ निजात पाई है। किंतु भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के भी संकट जस के तस खड़े हैं। कोरोना संकट ने प्रिंट मीडिया को जिन गहरे संकटों में डाला है और उसके सामने जो प्रश्न उपस्थित किए हैं,उस पर संवाद जरूरी है। 30 मई,1826 को जब पं.युगुल किशोर शुक्ल ने कोलकाता से हिंदी के पहले पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया तब से लेकर प्रिंट मीडिया ने अनेक दौर देखे हैं। वे दौर तात्कालिक संकटों के थे और टल गए। अंग्रेजों के दौर से लेकर आजाद भारत में आपातकाल के दिनों से भी उसने जूझकर मुक्ति पाई। किंतु नए कोरोना संकट ने अभूतपूर्व दृश्य देखें हैं। आगे क्या होगा इसकी इबारत अभी लिखी जानी है।

     कोरोना ने हमारी जीवन शैली पर निश्चित ही प्रभाव डाला है। कई मामलों में रिश्ते भी दांव पर लगते दिखे। रक्त संबंधियों ने भी संकट के समय मुंह मोड़ लिया, ऐसी खबरें भी मिलीं। सही मायने में यह पूरा समय अनपेक्षित परिर्वतनों का समय है। प्रिंट मीडिया भी इससे गहरे प्रभावित हुआ। तरह-तरह की अफवाहों ने अखबारों के प्रसार पर असर डाला। लोगों ने अखबार मंगाना बंद किया, कई स्थानों पर कालोनियों में प्रतिबंध लगे, कई स्थानों वितरण व्यवस्था भी सामान्य न हो सकी। बाजार की बंदी ने प्रसार संख्या को प्रभावित किया तो वहीं अखबारों का विज्ञापन व्यवसाय भी प्रभावित हुआ। इससे अखबारों की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई। इसका परिणाम अखबारों के पेज कम हुए, स्टाफ की छंटनी और वेतन कम करने का दौर प्रारंभ हुआ। आज भी तमाम पाठकों को वापस अखबारों की ओर लाने के जतन हो रहे हैं। किंतु इस दौर में आनलाईन माध्यमों का अभ्यस्त हुआ समाज वापस लौटेगा यह कहा नहीं जा सकता।

    सवा साल के इस गहरे संकट की व्याख्या करने पर पता चलता है कि प्रिंट मीडिया के लिए आगे की राहें आसान नहीं है। विज्ञापन राजस्व तेजी से टीवी और  डिजीटल माध्यमों पर जा रहा है,क्योंकि लाकडाउन के दिनों में यही प्रमुख मीडिया बन गए हैं। तकनीक में भी परिर्वतन आया है। जिसके लिए शायद अभी हमारे प्रिंट माध्यम उस तरह से तैयार नहीं थे। इस एक सवा साल की कहानियां गजब हैं। मौत से जूझकर भी खबरें लाने वाला मैदानी पत्रकार है, तो घर से ही अखबार चला रहा डेस्क और संपादकों का समूह भी है। किसे भरोसा था कि समूचा न्यूज रूम आपकी मौजूदगी के बिना, घरों से चल सकता है। नामवर एंकर घरों पर बैठे हुए एंकरिंग कर पाएंगें। सारे न्यूज रूम अचानक डिजीटल हो गए। साक्षात्कार ई-माध्यमों पर होने लगे। इसने भाषाई पत्रकारिता के पूरे परिदृश्य को प्रभावित किया है। जो परिवर्तन वर्षों में चार-पांच सालों में घटित होने थे, वे पलों में घटित होते दिखे। तमाम संस्थाएं इसके लिए तैयार नहीं थीं। कुछ का मानस नहीं था। कुछ सिर्फ ईपेपर और ई-मैगजीन निकाल रहे हैं। बावजूद इसके भरोसा टूटा नहीं है। हमारे सामाजिक ढांचे में अखबारों की खास जगह है और छपे हुए शब्दों पर भरोसा भी कायम है। इसके साथ ही अखबार को पढ़ने में होनी वाली सहूलियत और उसकी अभ्यस्त एक पीढ़ी अभी भी मौजूद है। कई बड़े अखबार मानते हैं कि इस दौर में उनके अस्सी प्रतिशत पाठकों  की वापसी हो गयी है, तो ग्रामीण अंचलों और जिलों में प्रसारित होने वाले मझोले अखबार अभी भी अपने पाठकों की वापसी का इंतजार कर रहे हैं। वे मानते हैं कि उनके भी 40 प्रतिशत पाठक तो लौट आए हैं, बाकी का इंतजार है। नई पीढ़ी का ई-माध्यमों पर चले जाना चिंता का बड़ा कारण है। वैसे भी डिजीटल ट्रांसफामेशन की जो गति है, वह चकित करने वाली है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि डिजीटल का सूरज कभी नहीं डूबता और वह 24X7 है।

     ऐसे कठिन समय में भी बहुलांश में पत्रकारिता ने अपने धर्म का निर्वाह बखूबी किया है। स्वास्थ्य, सरोकार और प्रेरित करने वाली कहानियों के माध्यम से पत्रकारिता ने पाठकों को संबल दिया है। निराशा और अवसाद से घिरे समाज को अहसास कराया कि कभी भी सब कुछ खत्म नहीं होता। संवेदना जगाने वाली खबरों और सरोकारों से जुड़े मुद्दों को अहमियत देते हुए आज भी पत्रकारिता अपना धर्म निभा रही है। संकट में समाज का संबल बनकर मीडिया नजर आया। कई बार उसकी भाषा तीखी थी, तेवर कड़े थे, किंतु इसे युगधर्म कहना ठीक होगा। अपने सामाजिक दायित्वबोध की जो भूमिका मीडिया ने इस संकट में निभाई, उसकी बानगी अन्यत्र दुर्लभ है। जागरूकता पैदा करने के साथ, विशेषज्ञों से संवाद करवाते हुए घर में भयभीत बैठे समाज को संबल दिया है। लोगों के लिए आक्सीजन, अस्पताल ,व्यवस्थाओं के बारे में जागरूक किया है। हम जानते हैं मनुष्य की मूल वृत्ति आनंद और सामाजिक ताना-बाना है। कोविड काल ने इसी पर हमला किया। लोगों का मिलना-जुलना, खाना-पीना, पार्टियां, होटल, धार्मिक स्थल, पर्व -त्यौहार, माल-सिनेमाहाल सब सूने हो गए। ऐसे दृश्यों का समाज अभ्यस्त कहां है? ऐसे में मीडिया माध्यमों ने उन्हें तरह-तरह से प्रेरित भी किया और मुस्कुराने के अवसर भी उपलब्ध कराए। इस दौर में मेडिकल सेवाओं, सुरक्षा सेवाओं, सफाई- स्वच्छता के अमले के अलावा बड़ी संख्या में अपना दायित्व निभाते हुए अनेक पत्रकार भी शहीद हुए हैं। अनेक राज्य सरकारों ने उन्हें फ्रंटलाइन वर्कर मानते हुए आर्थिक मदद का ऐलान किया है। केंद्र सरकार ने भी शहीद पत्रकारों के परिजनों को 5 लाख रूपए प्रदान करने की घोषणा की है। ऐसे तमाम उपायों के बाद भी पत्रकारों को अनेक मानसिक संकटों,वेतन कटौती और नौकरी जाने जैसे संकटों से भी गुजरना पड़ा है। बावजूद इसके अपने दायित्वबोध के लिए सजग पत्रकारों के उदाहरण बिखरे पड़े हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संकट टलेगा और जिंदगी फिर से मुस्कुराएगी।


सकारात्‍मक खबरें देकर पाठकों में विश्वास पैदा करे मीडिया

हिंदी पत्रकारिता दिवस के उपलक्ष्‍य में भारतीय जन संचार संस्थान द्वारा ‘कोरोना काल के बाद की पत्रकारिता’ विषय पर चर्चा




नई दिल्ली, 28 मई “तन का कोरोना यदि तन से तन में फैलातो मन का कोरोना भी मीडिया के एक वर्ग ने बड़ी तेजी से फैलाया। मीडिया को लोगों के सरोकारों का ध्‍यान रखना होगा, उनके प्रति संवेदनशीलता रखनी होगी। यदि सत्‍य दिखाना पत्रकारिता का दायित्‍व हैतो ढांढस देनादिलासा देनाआशा देना, उम्‍मीद देना भी उसी का उत्‍तरदायित्‍व है। अमेरिका में 6 लाख मौते हुईंलेकिन वहां हमारे चैनलों जैसे दृश्‍य नहीं दिखाए गए। 11 सितम्‍बर के आतंकवादी हमले के बाद भी पीड़ितों के दृश्‍य नहीं दिखाए गए थे। हमारे यहां कुछ वर्जनाएं हैंजिन पर ध्‍यान देना होगा।  सत्‍य दिखाएं लेकिन कैसे दिखाएंइस पर गौर करना जरूरी है। चाकू चोर की तरह चलाना हैया सर्जन की तरह यह तय करना होगा,” यह कहना है वरिष्ठ पत्रकार श्री उमेश उपाध्याय का।  वे भारतीय जन संचार संस्थान द्वारा हिंदी पत्रकारिता दिवस के उपलक्ष्‍य में आयोजित शुक्रवार संवाद’ में कोरोना काल के बाद की पत्रकारिता’’ विषय पर मीडिया छात्रों को संबोधित कर रहे थे।  इस अवसर पर अमर उजाला डिजिटल के संपादक श्री जयदीप कर्णिक, दैनिक ट्रिब्‍यून चंडीगढ़ के संपादक श्री राजकुमार सिंह और हिंदुस्‍तान की कार्यकारी संपादक सुश्री जयंती रंगनाथन ने भी अपने विचार साझा किए।

इससे पहले भारतीय जन संचार संस्‍थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा कि समाज के अवसादचिंताएं कैसे दूर होंइस पर चिंतन आवश्‍यक है। यह सामाजिक संवेदनाएं जगाने का समय है। सारे काम सरकार पर नहीं छोड़े जा सकते। विद्यार्थियों के लिए इस समय जमीन पर जाकर कर काम करना जरूरी है। वे अपने आसपास के लोगों को संबल दें। हमें ऐसी शिक्षा चाहिएजो इंसान को इंसान बनाए।

श्री जयदीप कर्णिक ने कहा कि तकनीक की दृष्टि से कोरोना ने फास्‍ट फारवर्ड का बटन दबा दिया है। यूं तो पहले से ही डिजिटल इज़ फ्यूचर जुमला बन चुका थालेकिन जो तकनीकी बदलाव 5 साल में होना थावह अब पांच महीने में ही करना होगा। तकनीक के साथ चलना होगातभी कोई मीडिया घराने के रूप में स्‍थापित हो सकेगा। उन्होने कहा कि इस दौर में पत्रकारिता को भी अपने हित पर गौर करना होगा। कोरोना की पहली लहर में डिजिटल पर ट्रैफिक चार गुना बढ़ा थाजो दूसरी लहर में उससे भी कई गुना बढ़ गया। डिजिटल में यह जानने की सुविधा है कि पाठक क्‍या पढ़ना चाहता है और कितनी देर तक पढ़ना चाहता है। पत्रकार शुतुर्मुर्ग की तरह नहीं बन सकताजरूरी है कि  सत्‍य दिखाइए, पर इस तरह दिखाइए कि लोग अवसाद में न जाएं। हमें सलीके से सच दिखाना होगा।

श्री राजकुमार सिंह ने कहा कि कोरोना काल ने केवल पत्रकारिता को ही नहींबल्कि हमारी जीवन शैली और जीवन मूल्‍यों को भी झकझोर कर रख दिया। पत्रकारिता ने कई अनपेक्षित बदलाव देखे। उस पर कई तरफ से प्रहार हुआ। सबसे ज्‍यादा असर तो यह हुआ कि लोगों ने अखबार लेना बंद कर दिया। कोरोना की पहली लहर के बाद 40 से 50 प्रतिशत पाठक ही अखबारों की ओर लौट पाए। कोरोना काल में अपनी जान गँवाने वाले पत्रकारों का जिक्र करते हुए उन्होने कहा कि देश में ऐसा कोई आंकड़ा नहीं कि कितने पत्रकारों की जान गईं। यह आंकड़ा चिकित्‍सा जगत के लोगों की मौतों के आंकड़े से कहीं ज्‍यादा हो सकता है। पत्रकार भी फ्रंटलाइन योद्धा हैं उनकी भी चिंता की जानी चाहिए।

सुश्री जयंती रंगनाथन ने कहा कि मीडिया को सकारात्‍मक खबरें देनी होंगी। उसे लोगों को बताना होगा कि पुराने दिन लौट कर आएंगेलेकिन उसमें थोड़ा वक्‍त लगेगा। हमारा डीएनए पश्चिमी देशों से भिन्‍न हैजैसा वहां हैयहां ऐसा नहीं होगा। हमें भी अपने पाठकों की मदद करनी होगी। हमें लोगों के सरोकारों से जुड़ना होगा। सकारात्‍मक खबरों का दौर लौटेगा और प्रिंट मीडिया मजबूती से जमा रहेगा।

कार्यक्रम का संचालन “अपना रेडियो” और आईटी विभाग की विभागाध्‍यक्ष प्रोफेसर (डॉ.) संगीता प्रणवेंद्र ने किया। डीन (अकादमिक)  प्रो. (डॉ.) गोविन्‍द सिंह  ने धन्‍यवाद ज्ञापन किया।



रविवार, 23 मई 2021

लोकमत समाचार, नागपुर में प्रकाशित लेख-4 मई,2021


 

मंगलवार, 18 मई 2021

कोरोना कालः मानसिक स्वास्थ्य का रखें खास ख्याल

   वक्त का काम है बदलना, यह भी बदल जाएगा

-       प्रो. संजय द्विवेदी

कोविड-19 के इस दौर ने हर किसी को किसी न किसी रूप में गंभीर रूप से प्रभावित किया है । किसी ने अपना हमसफर खोया है तो किसी ने अपने घर-परिवार के सदस्य,दोस्त या रिश्तेदार को खोया ह । इन अपूरणीय क्षति का किसी न किसी रूप में दिलोदिमाग पर असर पड़ना स्वाभविक है, लेकिन मनोचिकित्सकों का कहना है कि ऐसी स्थिति का लम्बे समय तक बने रहना आपको मानसिक तौर पर बीमार बना सकता है । इसलिए जितनी जल्दी हो सके उस दौर से उबरकर आगे के रास्ते को सुगम व सरल बनाने के बारे में विचार करें । इसके लिए परिजनों के साथ-साथ मनोचिकित्सक या काउंसलर की भी मदद ली जा सकती है। जो सदमे से उबारने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं ।

            किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के मनोचिकित्सा विभाग के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. आदर्श त्रिपाठी  का कहना है कि जिस तरीके से शरीर के हर अंग का इलाज संभव है, उसी तरह से मानसिक स्वास्थ्य का भी इलाज मौजूद है । बहुत सारी समस्याएँ काउंसलर से बात करके और उनके द्वारा सुझाये गए उपाय अपनाकर ही दूर हो जाती हैं तो कुछ दवाओं के सेवन से दूर हो जाती हैं । इसलिए सरकार का भी पूरा जोर है कि जो लोग कोरोना को मात दे चुके हैं लेकिन दिलोदिमाग से उसे भुला नहीं पाए हैं, उनको मानसिक तौर पर संबल देने के साथ ही उन लोगों की भी काउंसिलिंग व इलाज पर ध्यान दिया जाए जो अपने किसी करीबी को खोने के गम से उबरने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं ।

करीबियों से करते रहिए बातः मानसिक तनाव की स्थिति में भी कोई गलत कदम न उठाएं, जिसको अपने सबसे करीब समझते हैं उससे बात कीजिये, यकीन मानिये बात-बात में कोई न कोई रास्ता जरूर निकलेगा । ऐसे में अगर परिवार के साथ हैं तो आपस में बातचीत करते रहें। एक-दूसरे की बात को ध्यान से सुनें। बेवजह टोकाटाकी से बचें । यदि अकेले रह रहे हैं तो कोई फिल्म या सीरियल देखें और किताबें पढ़ें। ध्यान, योग और प्राणायाम का भी सहारा ले सकते हैं। अपने करीबी से वीडियो कॉल या फोन करके भी बातचीत कर सकते हैं, इससे भी मन हल्का होगा और हर समय दिमाग में आ रहे नकारात्मक विचार दूर होंगे । यह मानकर चलें कि यह वक्त किसी के लिए भी बुरा हो सकता है, किन्तु ऐसी स्थिति हमेशा तो नहीं बनी रहने वाली। यह वक्त भी गुजर जाएगा । जो वक्त गुजर गया, उसमें से ही कुछ सकारात्मक सोचें । अपने अन्दर साहस लायें ।

दिनचर्या में शारीरिक गतिविधि को शामिल करें: शुरू में भले ही मन न करे फिर भी हर दिन की कुछ ऐसी कार्ययोजना बनाएं जो सार्थकता और उत्पादकता से भरपूर हो । कुछ दिन तक ऐसा करने से निश्चित रूप से उसमें मन लगने लगेगा और कोरोना काल के उस बुरे दौर की छाप भी दिलोदिमाग से हटने लगेगी । दिनचर्या में 45 मिनट का समय शारीरिक गतिविधियों के लिए जरूर तय करें, क्योंकि शारीरिक गतिविधियाँ किसी भी तनाव के प्रभाव को कम करने में प्रभावी साबित होती हैं । नकारात्मक समाचारों से दूरी बनाने में ही ऐसे दौर में भलाई है। खासकर सोशल मीडिया पर आने वाली गैर प्रामाणिक ख़बरों से । तनाव या अवसाद से उबरने के लिए नशीले पदार्थों का सहारा भूलकर भी न लें। क्योंकि ऐसा करना गहरी खाई में धकेलने के समान साबित होगा ।

दूसरों की भलाई सोचें, मिलेगी बड़ी राहत  : तनाव व अवसाद से मुक्ति पाने का सबसे उपयोगी तरीका यही है कि दूसरों के लिए कुछ अच्छा सोचें और उनकी भलाई के लिए कदम बढायें। भले ही वह बहुत ही छोटी सी मदद क्यों न हो । यह भलाई किसी भी रूप में हो सकती है, जैसे- भावनात्मक रूप से या आर्थिक रूप से या किसी अन्य मदद के रूप में । जब आप दूसरों की भलाई या अच्छाई के बारे में सोचते हैं या मदद पहुंचाते हैं तो वह निश्चित रूप से आपको एक आंतरिक शांति और सुकून प्रदान करती है ।

जांच में न करें देरीः कोरोना के लक्षण आने के बाद भी उसे सामान्य सर्दी, खांसी व जुकाम-बुखार मानकर नजरंदाज करने की भूल हुई हो तो न घबराए। जांच में देरी करने की चूक हुई हो, रिपोर्ट के इन्तजार में जरूरी दवाएं न शुरू करने के चलते स्थिति गंभीर बनने से अपनों को खोने जैसे सवाल बार-बार दिमाग में कौंधते ही हैं। संयम बनाए रखें। घबराने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है । हाँ ! इतना जरूर हो सकता है कि दूसरे लोग वह भूल या चूक न करें उनके लिए आप बहुत बड़े मददगार जरूर साबित हो सकते हैं । उनको बताएं कि जैसे ही कोरोना से मिलते-जुलते लक्षण नजर आएं तो अपने को आइसोलेट करने के साथ ही जांच कराएँ। स्वास्थ्य विभाग द्वारा तय दवाओं का सेवन शुरू कर दें। ऐसा करने से कोरोना गंभीर रूप नहीं ले पायेगा। बहुत कुछ संभव है कि बगैर अस्पताल गए कोरोना को कम समय में घर पर रहकर ही मात दे सकते हैं ।

भरपूर नींद है जरूरी :  किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के मेडिसिन विभाग के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. हरीश गुप्ता का कहना है कि नींद को भी एक तरह की थेरेपी माना जाता है । चिंता के चलते पूरी नींद न लेना अवसाद की ओर ले जाता है । मधुमेह, उच्च रक्तचाप, सिर और शरीर में दर्द , थकान, याददाश्त में कमी आना, चिड़चिड़ापन, क्रोध की अधिकता, हार्मोन का असंतुलन, मोटापा, मानसिक तनाव जैसी समस्याएं अनिद्रा के कारण जन्म लेती हैं ।कई बार चिकित्सक पर्याप्त नींद की सलाह देकर रोगों से छुटकारा दिलाने का काम करते हैं । हर व्यक्ति को 7-8 घंटे की नींद अवश्य लेनी चाहिए । टीवी, लैपटॉप व मोबाइल पर ज्यादा समय न देकर सेहत के लिए अनमोल नींद को जरूर पूरी करें जो कि ताजगी और फुर्ती देने का काम करेगी ।  

योग एवं ध्यान करें : योग प्रशिक्षक बृजेश कुमार का कहना है कि ध्यान, योग और प्राणायाम के जरिये एकाग्रता ला सकते हैं, नकारात्मक विचारों से मुक्ति दिलाने में भी यह बहुत ही कारगर हैं । कोरोना काल में बहुत से लोगों ने इसे जीवन में अपनाया है और फायदे को भी महसूस कर रहे हैं । इम्यून सिस्टम को भी इससे बढ़ाया जा सकता है ।

संतुलित आहार लें : आयुर्वेदाचार्य डॉ. रूपल शुक्ला का कहना है कि हमारे खानपान का असर शरीर ही नहीं बल्कि मन पर भी पड़ता है, इसलिए संतुलित आहार के जरिये भी मन को प्रसन्न रख सकते हैं भारतीय थाली (दाल, चावल, रोटी, सब्जी, सलाद, दही) संतुलित आहार का सबसे अच्छा नमूना है । संतुलित भोजन हमारे शरीर के साथ ही मानसिक स्थितियों को स्वस्थ बनाता है

परेशान हैं तो संपर्क करें हेल्पलाइन पर : विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर सरकार तक को इस बात का एहसास है कि कोरोना के चलते मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं बढ़ सकती हैं । इसीलिए सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी किसी भी समस्या के समाधान के लिए टोल फ्री नंबर 1800-180-5145 पर संपर्क करने को कहा है । किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के मानसिक रोग विभाग ने भी इस तरह की समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए हेल्पलाइन (नं. 8887019140) शुरू की है,जिस पर काउंसिलिंग की सुविधा प्रदान करने के साथ लोगों को मुश्किल वक्त से उबारकर एक खुशहाल जिन्दगी जीने की टिप्स भी मिलती है ।अनेक राज्य सरकारों के स्वास्थ्य विभागों, सामाजिक संस्थाएं और चिकित्सा संस्थाएं आनलाईन लोगों की मदद कर रही हैं। जरूरत है धैर्य से इस संकट से निपटने की। भरोसा कीजिए हमारे संकट कम होंगें और जिंदगी मुस्कुराएगी।          

बुधवार, 5 मई 2021

कोरोना संकट से जूझने एकजुटता की जरूरत

                           दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय संकट में समाज को दीजिए संबल

-प्रो. संजय द्विवेदी

   कोरोना संकट ने देश के दिल को जिस तरह से छलनी किया है, वे जख्म आसानी से नहीं भरेंगें। मन में कई बार भय, अवसाद, आसपास होती दुखद घटनाओं से, समाचारों से, नकारात्मक विचार आते हैं। अपनों को खो चुके लोगों को कोई आश्वासन काम नहीं आता। उनके दुखों की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। ऐसे में चिंता होती है, लगता है सब खत्म हो जाएगा। कुछ नहीं हो सकता। डाक्टर और मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं भय, नकारात्मक विचारों से इम्यूनिटी कमजोर होती है। यही सब कारण हैं कि अब पाजीटिव हीलिंग की बात प्रारंभ हुई है। जो हो रहा है दर्दनाक, भयानक है, किंतु हमारी मेडिकल सेवाओं के लोग, सुरक्षा के लोग, सेना, सफाई कर्मचारी, मीडिया के लोग, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता इन्हीं संकटों में सब करते ही हैं। हमें भी फोन, सोशल मीडिया आदि माध्यमों से भय का विस्तार कम करना चाहिए। कठिन समय में सबको संभालने और संबल देने की जरूरत है। आपदाओं में सामाजिक सहकार बहुत जरूरी है। इसी से यह बुरा वक्त जाएगा।

   कोरोना के बहाने जहां एक ओर हिंदुस्तान के कुछ लोगों की लुटेरी मानसिकता सामने आई है, जो आपदा को अवसर मानकर जीवन उपयोगी चीजों से लेकर, दवाओं, आक्सीजन और हर चीज की कालाबाजारी में लग गए हैं। तो दूसरी ओर ऐसे भी उदाहरण हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सेवा भारती, सिख समाज, मुस्लिम समाज के अलावा अनेक सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक संगठनों ने खुद को सेवा के काम में झोंक दिया है। विश्वविद्यालयों के छात्रों, मेडिकल छात्रों की पहलकदमियों के अनेक समाचार सामने हैं। मुंबई के एक नौजवान अपनी दो महंगी कारें बेच देते हैं तो नागपुर के एक वयोवृध्द नागरिक एक नौजवान के लिए अपना अस्पताल बेड छोड़ देते हैं और तीन दिन बाद उनकी मृत्यु हो जाती है। इन्हीं कर्मवीरों में सोनू सूद जैसे अभिनेता हैं जो लगातार लोगों की मदद में लगे हैं। लोग अपने निजी कमाई से सिलेंडर बांट रहे हैं, खाना और दवाईयां पहुंचा रहे हैं। सेवा कर रहे हैं। यही असली भारत है। इसे पहचानने की जरूरत है। सही मायने में कोरोना संकट ने भारतीयों के दर्द सहने और उससे उबरने की शक्ति का भी परिचय कराया है। यह संकट जितना गहरा है, उससे जूझने का माद्दा उतना ही बढ़ता जा रहा है।

    अकेले स्वास्थ्य सेवाओं और पुलिस के त्याग की कल्पना कीजिए तो कितनी कहानियां मिलेंगी। दिनों और घंटों की परवाह किया बिना अहर्निश सेवा और कर्तव्य करते हुए कोविड पाजीटिव होकर अनेक की मृत्यु। ये घटनाएं बताती हैं कि लूटपाट गिरोह के अलावा ऐसे हिंदुस्तानी भी हैं जो सेवा करते हुए प्राण भी दे रहे हैं। अब सिर्फ सीमा पर बलिदान नहीं हो रहे हैं। पुलिस, चिकित्सा सेवाओं, सफाई सेवाओं, मीडिया के लोग भी अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं। राजनीति की तरफ देखने की हमारी दृष्टि थोड़ी अनुदार है, किंतु यह काम ऐसा है कि आप लोगों से दूर नहीं रह सकते। उप्र में अभी तीन विधायकों की मृत्यु हुई। उसके पूर्व कोरोना दौर में दो मंत्रियों की मृत्यु हुई, जिसमें प्रख्यात क्रिकेटर चेतन चौहान जी का नाम भी शामिल था। अनेक मुख्यमंत्री कोरोना पाजिटिव हुए। अनेक केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक इस संकट से जूझ रहे हैं। मानव संसाधन मंत्री श्री रमेश पोखरियाल निशंक और सूचना प्रसारण मंत्री श्री प्रकाश जावडेकर अभी भी कोरोना से संघर्ष कर रहे हैं। कुल मिलाकर यह एक ऐसी जंग है, जो सबको साथ मिलकर लड़नी है। सही मायने में यह महामारी है। यह अमीर-गरीब, बड़े-छोटे में भेद नहीं करती। इसे जागरूकता, संयम, सावधानी, धैर्य और सामाजिक सहयोग से ही हराया जा सकता है।

    ऐसे कठिन समय में आरोप-प्रत्यारोप,सरकारों के कोसने के अलावा हमें कुछ नागरिक धर्म भी निभाने होंगें। मदद का हाथ बढ़ाना होगा। इस असामान्य परिस्थिति के शिकार लोगों के साथ खड़े होना होगा। न्यूनतम अनुशासन का पालन करना होगा। सही मायने में यह युद्ध जैसी स्थिति है, अंतर यह है कि यह युद्ध सिर्फ सेना के भरोसे नहीं जीता जाएगा। हम सबको मिलकर यह मोर्चा जीतना है। केंद्र और राज्य की सरकारें अपने संसाधनों के साथ मैदान में हैं। हम उनकी कार्यशैली पर सवाल उठा सकते हैं। किंतु हमें यह भी देखना होगा कि छोटे शहरों को छोड़ दें, जहां स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं। हमारे दो सबसे बड़े शहर दिल्ली और मुंबई भी इस आपदा में घुटने टेक चुके हैं। जबकि हम चाहकर भी दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों जितनी सुविधाएं भोपाल, नागपुर, रांची, लखनऊ,हैदराबाद, चेन्नई, गुवाहाटी, चंड़ीगड़ और पटना में  नहीं जुटा सकते। हम समस्या पर गर्जन-तर्जन तो बहुत करते हैं, किंतु उसके मूल कारणों पर ध्यान नहीं देते। हमारे संकटों का मूल कारण है हमारी विशाल जनसंख्या, गरीबी, अशिक्षा और देश का आकार। कुछ विद्वान इजराइल और इंग्लैंड माडल अपनाने की सलाह दे रहे हैं। 

   इजराइल की 90 लाख की आबादी, इंग्लैंड 5 करोड़,60 लाख की आबादी में वैक्सीनेशन कर वे अपनी पीठ ठोंक सकते हैं किंतु हिंदुस्तान में 13 करोड़ वैक्सीनेशन के बाद भी हम अपने को कोसते हैं। जबकि वैक्सीनिशेन को लेकर समाज में भी प्रारंभ में उत्साह नहीं था। तो कुछ राजनीतिक दलों के नेता जो खुद तो वैक्सीन ले चुके थे, लेकिन जनता को भ्रम में डाल रहे थे। 139 करोड़ के देश में कुछ भी आसान नहीं है। किंतु जनसंख्या के सवाल पर बात करना इस देश में खतरनाक है,जबकि वह इस देश का सबसे बड़ा संकट है। हम कितनी भी व्यवस्थाएं  खड़ी कर  लें। वह इस देश में नाकाफी ही होंगीं। सरकार कोरोना संकट में 80 करोड़ लोगों के मुफ्त राशन दे रही है। जो किसी भी लोककल्याणकारी राज्य का कर्तव्य है।  लेकिन 80 करोड़ की संख्या क्या आपको डराती नहीं? मुफ्तखोरी, बेईमानी और नीचे तक फैले भ्रष्टाचार ने हमारे राष्ट्रीय चरित्र को नष्ट कर दिया है। आदर्श बचे नहीं हैं। ऐसे में जल्दी और ज्यादा पाने, सरकारी धन को निजी धन में बदलने की होड़ ने सारा कुछ बिखरा दिया है। देश के किसी भी संकट पर न तो देश के राजनीतिक दल, ना ही बुद्धिजीवी एक मत हैं। एक व्यक्ति से लड़ते हुए वे कब देश और उसकी आवश्यक्ताओं के विरूद्ध हो जाते हैं कि कहा नहीं जा सकता।

   कोरोना महामारी ने एक बार हमें अवसर दिया है कि हम अपने वास्ताविक संकटों को पहचानें और उसके स्थाई हल खोजें। राष्ट्रीय सवालों पर एकजुट हों। दलीय राजनीति से परे राष्ट्रीय राजनीति को प्रश्रय दें। कोरोना के विरूद्ध जंग प्रारंभ हो गयी है। समूचा समाज एकजुट होकर इस संकट से जूझ रहा। समाज के दानवीरता और दिनायतदारी की कहानियां लोकचर्चा में हैं। ये बात बताती है भारत तमाम समस्याओं के बाद भी अपने संकटों से दो-दो हाथ करना जानता है। किंतु सवाल यह है कि उसके मूल संकटों पर बात कौन करेगा?

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं।)  

मंगलवार, 4 मई 2021

सांसों को साधिए मिलेगी वायरस से लड़ने की शक्ति

 

मेरे अनुभवःकोरोना से यूं जीती जंग

-प्रो. संजय द्विवेदी



   ये सच में बहुत कठिन दिन हैं। डरावने, भय और आशंकाओं से भरे हुए। मीडिया में आती खबरें दहशत जगा रही थीं। कई मित्रों,शुभचिंतकों और जानने वालों की मौत की खबरें सुनकर आंखें भर आती थीं। लगता था यह सिलसिला कब रूकेगा? बुखार आया तो लगा कि हमारे भी बुरे दिन आ गए हैं। रात में सोना कठिन था। फिल्में देखने और पढ़ने-लिखने में भी मन नहीं लग रहा था। बुखार तो था ही, तेज खांसी ने बेहाल कर रखा था। एक रोटी भी खा पाना कठिन था। मुंह बेस्वाद था। कोरोना का नाम ही आतंकित कर रहा था। मन कहता था मौसमी बुखार ही है, ठीक हो जाएगा। बुद्धि कहती थी अरे भाई कोरोना है, मौसमी बुखार नहीं है। अजीब से हालात थे। कुछ अच्छा सोचना भी कठिन था।

   मुझे और मेरी पत्नी श्रीमती भूमिका को एक ही दिन बुखार आया। बुखार के साथ खांसी भी तेज थी। जो समय के साथ तेज होती गई। टेस्ट पाजिटिव आने के बाद मैंने तत्काल गंगाराम अस्पताल, दिल्ली के डाक्टर अतुल गोगिया से आनलाईन परामर्श लिया। उनकी सुझाई दवाएं प्रारंभ कीं। इसके साथ ही होम्योपैथ और आर्युवेद ही भी दवाएं लीं। हम लगभग 20 दिन बहुत कष्ट में रहे। साढ़े छः साल की बेटी शुभ्रा की ओर देखते तो आंखें पनीली हो जातीं। कुछ आशंकाएं और उसका अकेलापन रूला देता। करते क्या, उसे अलग ही रहना था। मैं और मेरी पत्नी भूमिका एक कक्ष में आइसोलेट हो गए। वह बहुत समझाने पर रोते हुए उसी कमरे के सामने एक खाट पर सोने के लिए राजी हो गयी। किंतु रात में बहुत रोती, मुश्किल से सोती। दिन में तो कुछ सहयोगी उसे देखते, रात का अकेलापन उसके और हमारे लिए कठिन था। एक बच्चा जो कभी मां-पिता के बिना नहीं सोया, उसके यह कठिन था। धीरे-धीरे उसे चीजें समझ में आ रही थीं। हमने भी मन को समझाया और उससे दूरी बनाकर रखी।

लीजिए लिक्विड डाइटः

   दिन के प्रारंभ में गरम पानी के साथ नींबू और शहद, फिर ग्रीन टी, गिलोय का काढ़ा और हल्दी गरम पानी। हमेशा गर्म पानी पीकर रहे। दिन में नारियल पानी, संतरा या मौसमी का जूस आदि लेते रहे। आरंभ के तीन दिन लिक्विड डाइट पर ही रहे। इससे हालात कुछ संभले। शरीर खुद बताता है, अपनी कहानी। लगा कुछ ठीक हो रहा है। फिर खानपान पर ध्यान देना प्रारंभ किया। सुबह तरल पदार्थ लेने के बाद फलों का नाश्ता जिसमें संतरा,पपीता, अंगूर,किवी आदि शामिल करते थे। हालात सुधरे तो किताबें उठाईं और पढ़ना प्रारंभ किया। सबसे पहले शरद पवार की जीवनी पढ़ी अपनी शर्तों पर, फिर देवराहा बाबा की जीवनी पढ़ी जिसे श्री ललन प्रसाद सिन्हा ने बहुत श्रध्दाभाव से लिखा है। इसके साथ ही यशस्वी भारत( परमपूज्य मोहन भागवत), राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ( श्री सुनील आंबेकर) की किताबें पढ़ गया। इस बीच राजनीतिक फिल्में देखने का मन भी बना। व्यस्त दिनचर्चा के कारण बहुत सारी फिल्में देख नहीं सका उन्हें देखा। जिनमें रामगोपाल वर्मा की रक्तचरित्र -1 और 2, ताशकंद फाइल्स(विवेक अग्रिहोत्री), जेड प्लस( चंद्रप्रकाश द्विवेदी) के अलावा धर्म, एक्सिटेंडेंल प्राइम मिनिस्टर, इंदु सरकार भी देखी। इससे बाहर की बुरी खबरों से बचने में मदद मिली।

 खुद न करें इलाजः

   खान-पान, संयम और धीरज दरअसल एक पूंजी है। किंतु यह तब काम आती हैं, जब आपका खुद पर नियंत्रण हो। मेरी पहली सलाह यही है कि बीमारी को छिपाना एक आत्मछल है। खुद के साथ धोखा है। अतिरिक्त आत्मविश्वास हमें  कहीं का नहीं छोड़ता। इसलिए तुरंत डाक्टर की शरण में जाना आवश्यक है। होम आइसोलेशन का मतलब सेल्फ ट्रीटमेंट नहीं है। यह समझन है। प्रकृति के साथ, आध्यात्मिक विचारों के साथ, सकारात्मकता के साथ जीना जरूरी है। योग- प्राणायाम की शरण हमें लड़ने लायक बनाती है। हम अपनी सांसों को साधकर ही अच्छा, लंबा निरोगी जीवन जी सकते हैं।

    इन कठिन दिनों के संदेश बहुत खास हैं। हमें अपनी भारतीय जीवन पद्धति, योग, प्राणायाम, प्रकृति से संवाद को अपनाने की जरूरत है। संयम और अनुशासन से हम हर जंग जीत सकते हैं। भारतीय अध्यात्म से प्रभावित जीवन शैली ही सुखद भविष्य दे सकती है। अपनी जड़ों से उखड़ने के परिणाम अच्छे नहीं होते। हम अगर अपनी जमीन पर खड़े रहेंगें तो कोई भी वायरस हमें प्रभावित तो कर सकता है, पराजित नहीं। यह चौतरफा पसरा हुआ दुख जाएगा जरूर, किंतु वह जो बताकर जा रहा है, उसके संकेत को समझेंगें तो जिंदगी फिर से मुस्कराएगी।

मेरे सबकः

1.    होम आईसोलेशन में रहें किंतु सेल्फ ट्रीटमेंट न लें। लक्षण दिखते ही तुरंत डाक्टर से परामर्श लें।

2.    पौष्टिक आहार, खासकर खट्टे फलों का सेवन करें। संतरा, अंगूर, मौसम्मी, नारियल पानी, किन्नू आदि।

3.    नींबू,आंवला, अदरक,हल्दी, दालचीनी, सोंठ को अपने नियमित आहार में शामिल करें।

4.    नकारात्मकता और भय से दूर रहें। जिस काम में मन लगे वह काम करें। जैसे बागवानी, फिल्में देखना, अच्छी पुस्तकें पढ़ना।

5.    यह भरोसा जगाएं कि आप ठीक हो रहे हैं। सांसों से जुड़े अभ्यास, प्राणायाम, कपाल भाति, भस्त्रिका, अनुलोम विलोम 15 से 30 मिनट तक अवश्य करें।

6.    दो समय पांच मिनट भाप अवश्य लें। हल्दी-गुनगुने पानी से दो बार गरारा भी करें।

7.    दवा के साथ अन्य सावधानियां भी जरूरी हैं। उनका पालन अवश्य करें। शरीर को अधिकतम आराम दें। ज्यादा से ज्यादा नींद लें। क्योंकि इसमें कमजोरी बहुत आती है और शरीर को आराम की जरूरत होती है।

8.    अगर सुविधा है तो बालकनी या लान में सुबह की गुनगुनी धूप जरूर लें। साथ ही सप्ताह में एक बार डाक्टर की सलाह से विटामिन डी की गोलियां भी लें। साथ ही विटामिन सी और जिंक की टेबलेट भी ले सकते हैं।

 

रविवार, 17 मई 2020

देश के दुखों की नदी में तैरते सवाल


कोरोना के बहाने आइए अपने असल संकटों पर विचार करें
-प्रो. संजय द्विवेदी


  कोरोना संकट के बहाने भारत के दुख-दर्द,उसकी जिजीविषा, उसकी शक्ति, संबल, लाचारी, बेबसी, आर्तनाद और संकट सब कुछ खुलकर सामने आ गए हैं। इन सात दशकों में जैसा देश बना या बनाया गया है, उसके कारण उपजे संकट भी सामने हैं। दिनों दिन बढ़ती आबादी हमारे देश का कितना बड़ा संकट है यह भी खुलकर सामने है, किंतु इस प्रश्न पर संवाद का साहस न राजनीति में है न विचारकों में । संकटों में भी राजनीति तलाशने का अभ्यास भी सामने आ रहा है। मीडिया से लेकर विचारकों के समूह कैसे विचारधारा या दलीय आस्था के आधार पर चीजों को विश्लेषित और व्याख्यायित कर रहे हैं कि सच कहीं सहम कर छिप गया है। देश के दुख, देश के लोगों के दुख और संघर्ष भी राजनीतिक चश्मों से देखे और समझाए जा रहे हैं।
   ऐसे कठिन समय में सच को व्यक्त करना कठिन है, बहुत कठिन। क्योंकि सभी विचारवंतों के अपने अपने सच हैं। जो राजनीतिक आस्थाओं के आधार देखे और परखे जा रहे हैं। भारतीय बौद्धिकता और मीडिया के शिखर पुरुषों ने इतना निराश कभी नहीं किया था। साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बताने वाले देश ने राजनीतिक आस्थाओं को ही सच का पर्याय मान लिया है। संकटों के समाधान खोजने, उनके हल तलाशने और देश को राहत देने के बजाए जख्म को कुरेद-कुरेद कर हरा करने में मजा आ रहा है। यह सडांध तब और गहरी होती दिखती है, जब कुछ लोग पलायन की पीड़ा भोग रहे हिंदुस्तान के दुख में भी आनंद की अनुभूति सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि देश के नेता के सिर उसका ठीकरा फोड़ा जा सके। केंद्र की मजबूत सरकार और उसके मजबूत नेता को विफल होते देखने की हसरत इतनी प्रबल है कि वह लोगों की पीड़ा और आर्तनाद में भी आनंद का भाव खोज ले रही है। हमारी केंद्र और राज्य की सरकारों की विफलता दरअसल एक नेता की विफलता नहीं है। यह समूचे लोकतंत्र और इतने सालों में विकसित तंत्र की भी विफलता है। सामान्य संकटों में भी हमारा पूरा तंत्र जिस तरह धराशाही हो जाता है वह अद्भुत है। बाढ़, सूखा, भूकंप और अन्य दैवी आपदाओं के समय हमारे आपदा प्रबंधन के सारे इंतजाम धरे रह जाते हैं। सामान्यजन इसकी पीड़ा भोगता है। यह घुटनाटेक रवैया निरंतर है और इस पर लगाम कब लगेगी कहा नहीं जा सकता। व्यंग्य कवि स्व. प्रदीप चौबे ने लिखा –बाढ़ आए या सूखा मैं खाऊं तू खा। यानि जहां बाढ़ आ रही है, वहां सालों से हर साल आ रही। फिर उसी इलाके में सूखा भी हर साल आ रहा है। यानि इस संकट ने उस इलाके में एक इको सिस्टम बना लिया है और उसके साथ लोग जीना सीख गए हैं। हमारा महान प्रशासनिक तंत्र इन संकटों से निजात पाने के उपाय नहीं खोजता, उसके लिए हर संकट में एक अवसर है।
     हम अपने संकटों को चिन्हिंत करें तो वे ज्यादा नहीं हैं, वे आमतौर पर विपुल जनसंख्या और उससे उपजे हुए संकट ही हैं। उत्तर भारत के राज्यों के सामने यह कुछ ज्यादा विकराल हैं क्योंकि यहां की राजनीति ने राजनेता और राजनीतिक योद्धा तो खूब दिए किंतु जमीन पर उतरकर संकटों के समाधान तलाशने की राजनीति यहां आज भी विफल है। ये इलाके आज भी जातीय दंभ, अहंकार, माफियाराज, लूटपाट, गुंडागर्दी के अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इसलिए उत्तर भारत के राज्य इस संकट में सबसे ज्यादा परेशानहाल दिखते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, बंगाल जिस तरह पलायन की पीड़ा से बेहाल हैं, उसे देखकर आंखें भर आती हैं। एक बार दक्षिण और पश्चिम के राज्यों महाराष्ट्र,गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल की ओर हमें देखना चाहिए। आखिर क्या कारण हैं हमारे हिंदी प्रदेश हर तरह के संकट का कारण बने हुए हैं।पलायन, जातिवाद, सांप्रदायिकता, माफिया,भ्रष्टाचार, ध्वस्त स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था सब इनके हिस्से हैं। यह संभव है कि समुद्र के किनारे बसे राज्यों की व्यवस्थाएं, अवसर और संभावनाएँ बलवती हैं। किंतु उत्तर भारत के हरियाणा, पंजाब जैसे राज्य भी उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी संभावनाओं को जमीन पर उतारा है। प्रधानमंत्रियों का राज्य रहा उत्तर प्रदेश आज भी देश और दुनिया के सामने सबसे बड़ा सवाल बनकर खड़ा है। अपनी विशाल आबादी और विशाल संकटों के साथ। जमाने से कभी गिरिमिटिया मजदूरों के रूप में विदेशों में ले जाए जाने की पीड़ा तो आजादी के बाद मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, रंगून जैसे महानगरों में संघर्ष करते, पसीना बहाते लोग एक सवाल की तरह सामने हैं। यही हाल बिहार का है। एक जमाने में गांवों में गाए जाने वाले लोकगीत भी इसी पलायन के दर्द का बयान करते हैं-
रेलिया बैरन पिया को लिए जाए हो, रेलिया बैरन।
(रेल मेरी दुश्मन है जो मेरे पति को लेकर जा रही है)
मेरे पिया गए रंगून किया है वहां से टेलीफून,
तुम्हारी याद सताती है जिया में आग लगाती है।
  आजादी के बाद भी ये दर्द कम कहां हुए हैं? स्वदेशी, स्वावलंबन का गांधी पथ छोड़कर सत्ताधीश नए मार्ग पर दौड़ पड़े जो गांवों को खाली करा रहे थे और शहरों को बेरोजगार युवाओं की भीड़ से भर रहे थे। एक समय में आत्मनिर्भर रहे हमारे गांव अचानक मनीआर्डर एकोनामी पर पलने लगे। गांवों में स्वरोजगार के काम ठप पड़ गए। कुटीर उद्योग ध्वस्त हो गए। भारतीय समाज को लांछित करने के लिए उस पर सबसे बड़ा आरोप वर्ण व्यवस्था का है। जबकि वर्ण व्यवस्था एक वृत्ति थी, टेंपरामेंट थी। आपके स्वभाव, मन और इच्छा के अनुसार आप उसमें स्थापित होते थे। व्यावसायिक वृत्ति का व्यक्ति वहां क्षत्रिय बना रहने के मजबूर नहीं था, न ही किसी को अंतिम वर्ण में रहने की मजबूरी थी। अब ये चीजें काल बाह्य हैं। वर्ण व्यवस्था समाप्त है। जाति भी आज रूढ़ि बन गयी किंतु एक समय तक यह हमारे व्यवसाय से संबंधित थी। हमारे परिवार से हमें जातिगत संस्कार मिलते थे-जिनसे हम विशेषज्ञता प्राप्त कर जाब गारंटी भी पाते थे। इसमें सामाजिक सुरक्षा थी और इसका सपोर्ट सिस्टम भी था। बढ़ई, लुहार, सोनार, निषाद, माली, धोबी, कहार ये जातियां भर नहीं है। इनमें एक व्यावसायिक हुनर और दक्षता जुड़ी थी। गांवों की अर्थव्यवस्था इनके आधार पर चली और मजबूत रही। आज यह सारा कुछ उजड़ चुका है। हुनरमंद जातियां आज रोजगार कार्यालय में रोजगार के लिए पंजीयन करा रही हैं या महानगरों में नौकरी के लिए धक्के खा रही हैं। जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था दोनों ही अब अपने मूल स्वरूप में काल बाह्य हो चुके हैं। अप्रासंगिक हो चुके हैं। ऐसे में जाति के गुण के बजाएजाति की पहचान खास हो गयी है। इसमें भी कुछ गलत नहीं है। हर जाति का अपना इतिहास है, गौरव है और महापुरुष हैं। ऐसे में जाति भी ठीक है, जाति की पहचान भी ठीक हैपर जातिभेद ठीक नहीं है। जाति के आधार भेदभाव यह हमारी संस्कृति नहीं। यह मानवीय भी नहीं और सभ्य समाज के लिए जातिभेद कलंक ही है।
      हमें हमारे गांवों की ओर देखना होगा। मनीषी धर्मपाल की ओर देखना होगा, उन्हें पढ़ना होगा, जो बताते हैं कि किस तरह हमारे गांव स्वावलंबी थे। जबकि आज नई अर्थव्यवस्था में किसान आत्महत्या करने लगे और कर्ज को बोझ से दबते चले गए। 1991 के लागू हुयी नई आर्थिक व्यवस्था ने पूरी तरह से हमारे चिंतन को बदलकर रख दिया। संयम के साथ जीने वाले समाज को उपभोक्ता समाज में बदलने की सचेतन कोशिशें प्रारंभ हुयीं। 1991 के खड़ा हुआ यह अर्थतंत्र इतना निर्मम है कि वह दो महीने भी आपको संकटों में संभाल नहीं सकता। आप देखें तो छोटे उद्यमियों की छोड़ें,बड़ी कंपनियों ने भी अपने कर्मियों के वेतन में तत्काल कटौती करने में कोई कमी नहीं की। यहां से जो गाड़ी पटरी से उतरी है,संभलने को नहीं है। ईएमआई के चक्र ने जो जाल बुना है, समूचा मध्यवर्ग उससे जूझ रहा है। निम्न वर्ग उससे स्पर्धा कर रहा है। इससे समाज में बढ़ती गैरबराबरी और स्पर्धा की भावना एक बड़े समाज को निराशा और अवसाद से भर रही है। जाहिर है संकट हमारे हैं, इसके हल हम ही निकालेगें। शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, कृषकों के संकट, बढ़ती जनसंख्या के सवाल हमारे सामने हैं। इनके ठोस और वाजिब हल निकालना हमारी जिम्मेदारी है। कोरोना संकट ने हमें साफ बताया है कि हम आज भी नहीं संभले तो कल बहुत देर हो जाएगी। अंधे पूंजीवाद और निर्मम कारपोरेट की नीतियों से अलग एक मानवीय,संवेदनशील समाज बनाने की जरूरत है जो भले महानगरों में बसता हो उसकी जड़ों में संवेदना और आत्मीयता हो। सिर्फ हासिल करने और हड़पने की चालाकी न हो। देने का भाव भी हो। भरोसा कीजिए हम इस दुखों की नदी को पार कर जाएंगें।