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शनिवार, 26 मार्च 2016

इतने गुस्से में क्यों हैं लोग?

-संजय द्विवेदी

    यह कितना निर्मम समय है कि लोग इतने गुस्से से भरे हुए हैं। दिल्ली में डा. पंकज नारंग की जिस तरह पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी,वह बात बताती है कि हम कैसा समाज बना रहे हैं। साधारण से वाद-विवाद का ऐसा रूप धारण कर लेना चिंता में डालता है। लोगों में जैसी अधीरता,गुस्सा और तुरंत प्रतिक्रिया देने का अंदाज बढ़ रहा है वह बताता है कि, हमारे समाज को एक गंभीर इलाज की जरूरत है। सोचना यह भी जरूरी है कि क्या कानून का कोई खौफ लोगों के भीतर बचा है या अब सब कानून को हाथ में लेकर खुद ही अपने फैसले करेगें। एक स्कूटी सवार को रबर गेंद लग जाए और वह नाराजगी में किसी की हत्या कर डाले, यह खबर बताती है कि हम कैसा संवेदनहीन समाज बना रहे हैं। कानून अपने हाथ में लेकर घूमते ये लोग दरअसल भारतीय राज्य और पुलिस के लिए भी एक चुनौती हैं।
    गुस्से से भरे लोग क्या यूं ही गुस्से में हैं या उसके कुछ सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कारण भी हैं। बताया जा रहा है रहा है मारपीट करने वाले लोग बेहद सामान्य परिवारों से हैं और उनमें कुछ बगल की झुग्गी में रहते थे। एक क्षणिक आवेश किस तरह एक बड़ी घटना में बदल जाता है, यह डा. पंकज के साथ हुआ हादसा बताता है। गुस्से और आक्रोश की मिली-जुली यह घटना बताती है लोगों में कानून का खौफ खत्म हो चुका है। लोगों की जाति-धर्म पूछकर व्यवहार करने वाली राजनीति और पुलिस तंत्र से ज्यादातर समाज का भरोसा उठने लगा है। आज यह सवाल पूछना कठिन है, किंतु पूछा जाना चाहिए कि डा. नारंग अगर किसी अल्पसंख्यक वर्ग या दलित वर्ग से होते तो शेष समाज की क्या इतनी सामान्य प्रतिक्रिया होती? इस घटना को मोदी सरकार के विरूद्ध हथियार की तरह पेश किया जाता। इसलिए सामान्य घटनाओं और झड़पों को राजनीतिक रंग देने में जुटी मीडिया और राजनीतिक दलों से यह पूछा जाना जरूरी है कि एक मनुष्य की मौत पर उनमें समान संवेदना क्यों नहीं है? क्यों वे एक इंसान की मौत को धर्म या जाति के चश्मे से देखते हैं?
    डा. नारंग की मौत हमारी इंसानियत के लिए एक चुनौती है और समूची सामाजिक व्यवस्था के लिए एक काला घब्बा है। हम एक ऐसा समाज बना रहे हैं, जहां सामान्य तरीके से जीने के लिए भी, हमें वहशियों से बचकर चलना होगा। भारत जैसे देश में जहां पड़ोसी के लिए हम कितनी भावनाएं रखते हैं और उसके सुख-दुख में उसके साथ होने की कामना करते हैं। लेकिन यह घटना बताती है कि हमारे पड़ोसी भी कितने ह्दयहीन हैं, वे कैसी पशुता से भरे हुए हैं, उनके मन में हमारे लिए कितना जहर है। समाज में फैलती गैरबराबरी-ऊंच-नीच, जाति-धर्म और आर्थिक स्थितियों के विभाजन बहुत साफ-साफ जंग की ओर इशारा कर रहे हैं। ये स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं, क्योंकि परिवारों में हम बच्चों को अच्छी शिक्षा और दूसरे को सहन करने, साथ लेने की आदतें नहीं विकसित कर रहे हैं। एकल परिवारों में बच्चों की हर जिद का पूरा होना जरूरी है और वहीं सामान्य परिवारों के बच्चे तमाम अभावों के चलते एक प्रतिहिंसा के भाव से भर रहे हैं। एक को सब चाहिए दूसरे को कुछ मिल नहीं रहा है-ये दोनों ही अतियां गलत हैं। समाज में संयम का बांध टूटता दिख रहा है। तेजी से बढ़ती आबादी, सिमटते संसाधन, उपभोग की बढ़ती भूख, बाजारीकरण और बिखरते परिवारों ने एक ऐसे युवा का सृजन किया है जो गुस्से में है और संस्कारों से मुक्त है। संस्कारहीनता और गुस्से का संयोग इस संकट को गहरा कर रहा है। जहां माता-पिता अन्यान्य कारणों से अपनी संततियों को सही शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं, वहीं विद्यालय और शिक्षक भी विफल हो रहे हैं। इस संकट से उबरने में सामाजिक संगठनों, परिवारों का एकजुट होना जरूरी है।
  बचपन से ही बच्चों में सहनशीलता, संवाद और साहचर्य को सिखाने की जरूरत है। दिल्ली की ह्दय विदारक घटना में जिस तरह नाबालिग बच्चों ने आगे बढ़कर हिस्सा लिया और एक परिवार को उजाड़ दिया वह बात बहुत चिंता में डालने वाली है। किसी भी घटना को हिंदू और मुसलमान के नजरिए से देखने के बजाए यह देखना जरूरी है कि इसके पीछे मानसिकता क्या है? इसी हिंसक मानस का रूप आप हरियाणा के जाट आंदोलन में देख सकते हैं जहां अपने पड़ोसियों और अपने शहर के साथ हिंसक आंदोलनकारियों ने क्या किया। इस हिंसक वृत्ति का विस्तार हमें रोकना ही होगा। हमारे आसपास और परिवेश में अनेक ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जिसमें समाज का हिंसक चेहरा उभर कर सामने आ रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन प्रवृत्तियों के खिलाफ हमें साथ आना और एकजुट होना भी सीखना होगा। सार्वजनिक स्थलों पर, बसों में, ट्रेनों में स्त्रियों के विरूद्ध हो रहे अपराध हों या हिंसक आचरण- सबको हम देखकर चुप लगा जाते हैं।

   देश में बढ़ रही हिंसा और अराजकता के विरूद्ध सामाजिक शक्ति को एकत्र होना होगा। सबसे बड़ी बात अपने आसपास हो रहे अपराध और अन्याय के प्रति हमारी खामोशी हमारी सबसे बड़ी शत्रु है। अकेले पुलिस और सरकार के भरोसे बैठा हुआ समाज, कभी सुख से नहीं रख सकता। होते हुए अन्याय को चुप होकर देखना और प्रतिक्रिया न देना एक बड़ा संकट है ऐसे में मनोरोगियों और अपराधियों के हौसले बढ़ते हुए दिखते हैं। समाज को भयमुक्त और आतंक से मुक्त करना होगा। जहां हर बच्चा, बच्ची सुरक्षित होकर अपने बचपन का विकास  कर सके,जहां पिता और मां अपनी पीढ़ी को योग्य संस्कार दे सके। बदली हुयी दुनिया में हमें ज्यादा मनुष्य बनने के यत्न करने होगें। इसलिए एक शायर कहते हैं- आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना । हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को इंसानियत के पाठ पढ़ाने होगें। परदुखकातरता सिखानी होगी। दूसरों के दुख में दुखी होना और दूसरों के सुख में प्रसन्न होना यही संस्कृति है। इसका विपरीत आचरण विकृति है। हमें संस्कृति और इंसानियत के साझा पाठ सीखने होगें। डा. नारंग की हत्या हमारे लिए चेतावनी है और एक पाठ भी कि हम आज भी संवेदना से, इंसानियत से चूके तो कल बहुत देर हो जाएगी। एक नया समाज बनाने की आकांक्षा से भरे-पूरे हम भारतवासी किसी भी इंसानी हत्या को इंसानियत की हत्या मानें और दुबारा यह दोहराया न जाए, इसके लिए सचेतन प्रयास करें। अपने धर्मों की ओर देखें वे भी हमें यही बता रहे हैं। इस्लाम बता रहा है कि कैसे पड़ोसी के साथ रहें, ईसाईयत करूणा को प्राथमिकता दे रही है, हिंदुत्व भी वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को ही समूची मनुष्यता में रूपांतरित करने का इच्छुक है। लोककवि तुलसीदास भी इसी बात को कह रहे हैं-परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। यानि दूसरों का हित करना ही सबसे धर्म है और दूसरे को पीड़ा देना सबसे बड़ा अधर्म है। गुस्से में अंधे हो चुके युवाओं और उनके माताओं-पिताओं की एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे एक बार फिर जागृत विवेक की ओर लौटें ताकि मनुष्यता ऐसे कलंकों से बचकर अपना परिष्कार कर सके। डा. नारंग की हत्या का सबक यही है कि हम अपने क्रोध पर नियंत्रण करें और अपनत्व के दायरे को विस्तृत करें।  

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

छात्र-युवा ही बनाएगें समर्थ भारत


-संजय द्विवेदी
  भारत इस अर्थ में गौरवशाली है कि वह एक युवा देश है। युवाओं की संख्या के हिसाब से भी, अपने सार्मथ्य और चैतन्य के आधार पर भी। भारत एक ऐसा देश है, जिसके सारे नायक युवा हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण, जगदगुरू शंकराचार्य और आधुनिक युग के नायक विवेकानंद तक। युवा एक चेतना है, जिसमें उर्जा बसती है, भरोसा बसता है, विश्वास बसता है, सपने पलते हैं और आकाक्षाएं धड़कती हैं। इसलिए युवा होना भारत को रास आता है। भारत के सारे भगवान युवा हैं। वे बुजुर्ग नहीं होते। यही चेतना भारत की जीवंतता का आधार है।
  आज जबकि दुनिया के तमाम देशों में युवा शक्ति का अभाव दिखता है। भारत का चेहरा उनमें अलग है। छात्र होना सीखना है, तो युवा होना कर्म को पूजा मानकर जुट जाना है। एक सीख है, दूसरा कर्म है। सीखी गयी चीज को युवा परिणाम देते हैं। ऐसे में भारत की छात्र शक्ति को सीखने के बेहतर अवसर देना, उनकी प्रतिभा को उन्नयन के लिए नए आकाश देना, हमारे समाज और सरकारों की जिम्मेदारी है। छात्र को ठीक से गढ़ा न जाएगा तो वह एक आर्दश नागरिक कैसे बनेगा। देश के प्रति जिम्मेदारियों का निर्वहन वह कैसे करेगा। भारत के शिक्षा परिसर ही नए भारत के निर्माण की आधारशिला हैं अतः उनका जीवंत होना जरूरी है।
अराजनैतिक छात्र शक्ति का निर्माणः
 देश में पूरी तरह से ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें छात्र सिर्फ अपने बारे में सोचे, कैरियर के बारे में सोचे। उसमें सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों, राष्ट्र के प्रति सदभाव पैदा हो, इस ओर प्रयास जरूरी हैं। जरूरी है कि वे देश के बारे में जानें, उसकी विविधताओं और बहुलताओं का सम्मान करें ऐसे नागरिक बनें जो विश्वमंच पर भारत की प्रतिष्ठा बना सकें। तमाम सामाजिक संगठनों से जुड़कर छात्र युवा शक्ति तमाम सामाजिक प्रकल्पों को चलाती भी है। किंतु हमारी शिक्षा में ऐसी व्यवस्था नदारद है। आज ऐसा लगता है कि शिक्षा से तो वे जो कुछ प्राप्त करते हैं उससे वे मनुष्य कम मशीन ज्यादा बनते हैं। वे काम के लोग बनते हैं किंतु नागरिक और राष्ट्रीय चेतना से लैस मनुष्य नहीं बन पाते है। छात्रों-युवाओं में राष्ट्रीय चेतना सामान्य व्यक्ति से ज्यादा होती है। इसलिए देश की शिक्षा व्यवस्था में अगर राष्ट्रीय भाव होते तो आज हालात अलग होते। हालात यह हैं कि जो छात्र युवा सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों से न जुड़े हों तो उनकी राष्ट्रीय विषयों पर कोई सोच नहीं होती है, क्योंकि उन्हें इस दिशा में सोचने और काम करने का अवसर ही नहीं मिलता। इस प्रकार हमने छात्र–युवाओं को पूरी तरह अराजनैतिक और व्यक्तिगत सोच वाला बना दिया है। आज मुख्यधारा का छात्र-युवा, आनंद और उत्सवों में मस्त है। वह पार्टियों और मस्त माहौल को ही अपना सर्वस्व समझ रहा है। ऐसी स्थितियों में यह जरूरी है कि छात्रों का राजनीतिकरण हो, उन्हें वैचारिक आधार से लैस किया जाए, और देश के प्रश्नों पर वे संवाद करें। आज देश के तमाम परिसरों में छात्रसंघ चुनाव भी नहीं कराए जाते। आखिर एक लोकतांत्रिक देश में छात्रों के राजनीतिकरण से किसे डर लगता है। सच तो यह है कि सत्ताएं चाहती हैं कि युवा मस्त-मस्त जीवन जीते रहें, और समाज में खड़े प्रश्नों से न टकराएं। वे पार्टियों में झूमते रहें और मनोरंजन ही उनका आधार बने। मनोरंजन और कैरियर से आगे सोचने वाली युवा शक्ति का अभाव सबसे बड़ी चुनौती है।
शिक्षा परिसरों को जीवंत बनाने की जरूरतः
आवश्यक्ता इस बात की है कि शिक्षा परिसरों को ज्यादा जीवंत और ज्यादा प्रासंगिक बनाया जाए। परिसरों को सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों पर प्रशिक्षण का केंद्र बनाया जाए। अगर परिसर जीवंत होंगे तो नया समाज भी जीवंत बनेगा। भारतीय परंपरा में संवाद और विवाद की अनंत धाराएं रही हैं। यह समाज संवादित समाज है। जिन दिनों संचार के साधन उतने नहीं थे तो भी समाज उतना ही संवादित था। कुंभ से लेकर अनेक मेलों में समाज संवाद करता था। नए समय ने समाज के संवाद के अनेक मार्ग बंद कर दिए हैं। सामयिक प्रश्नों पर संवाद कम होने के कारण नई पीढ़ी को देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक चुनौतियों से रू-ब-रू होने का अवसर ही नहीं मिलता। इसलिए देश के युवा आज अपने समय की चुनौतियों को नहीं पहचान पा रहे हैं। मुख्यधारा के युवाओं को एक ऐसा युवा बनाया जा रहा है जो कैरियर और मनोरंजन से आगे न सोच सके। इस प्रकार सामाजिक सोच का विकास बाधित हो रहा है।
छात्र संगठन निभाएं जिम्मेदारीः
 छात्र संगठनों की यह जिम्मेदारी है कि राजनीतिक दलों के पिछलग्गू बनने के बजाए अपने दायरे से बाहर आएं। शिक्षा और शिक्षक जहां साथ छोड़ रहे हैं, छात्र संगठनों को वहीं छात्रों का साथ पकड़ना होगा। छात्र संघों को छात्रों की सर्वांगीण प्रतिभा के उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करना होगा। छात्र संघ अपनी भूमिका का विस्तार करते हुए सिर्फ छात्र समस्याओं और राजनीतिक कामों के बजाए देश के सवालों पर सोचने का उन पर विमर्श का कार्य भी हो सकता है। छात्र शक्ति की सक्रिय भागीदारी से देश में आमूल चूल परिवर्तन आ सकता है। एक मिशन और ध्येय पैदा होते ही छात्र एक ऐसी युवा शक्ति में परिवर्तित हो जाता है, जिससे देश का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित होता है। देश के सब क्षेत्रों में आंदोलन कमजोर हुए हैं। आंदोलनों के कमजोर होने कारण विविध क्षेत्रों की वास्तविक आवाजें सुनाई देनी बंद हो गयी है। इसके चलते सत्ता का अतिरेक और आत्मविश्वास बढ़ रहा है। जनसंगठन और छात्र संगठन एक सामाजिक दंड शक्ति के रूप में काम करें, इसके लिए उन्हें सचेतन प्रयास करने होंगे। इससे सत्ता और प्रशासन को भी सामाजिक शक्ति का विचार करना पड़ता है। एक लोकतंत्र में नागरिकों की सक्रिय भागीदारी ही उसे सफल और सार्थक बनाती है। अगर नागरिक जागरूक नहीं होते तो उनको उसके परिणाम भोगने पड़ते हैं। एक सोया हुआ समाज कभी भी न्याय प्राप्ति की उम्मीद नहीं कर सकता। एक जागृत समाज ही अपने हितों की रक्षा करता हुआ अपने राष्ट्र की प्रगति में योगदान देता है। अगर छात्रों में छात्र जीवन से ही ये मूल्य स्थापित कर दिए जाएं तो वे आगे चलकर एक सक्रिय नागरिक बनेंगे, इसमें दो राय नहीं है। उन्हें अपनी जड़ों से प्रेम होगा, अपनी संस्कृति से प्रेम होगा, अपने समाज और उसके लोगों से प्यार होगा। वह नफरत नहीं कर पाएगा कभी किसी से। क्योंकि उसके मन में राष्ट्रीय भावना का प्रवेश हो चुका होगा। वह राष्ट्र को सर्वोपरि मानेगा, राष्ट्र के नागरिकों को अपना भाई-बंधु मानेगा। वह जानेगा कि उसके कार्य का क्या परिणाम है। उसे पता होगा कि देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का सामना उसे कैसै करना है। देश के छात्र संगठन अपनी-अपनी विचारधाराओं और राजनीतिक धाराओं को मजबूत करते हुए भी राष्ट्र प्रथम यह भाव अपने संपर्क में आने वाले युवाओं में भर सकते हैं। सही मायने में यही युवा आगे चलकर समर्थ भारत बनाएंगे।

रविवार, 22 जून 2014

स्त्रियों के खिलाफ बुरी खबरों का समय



-संजय द्विवेदी

  यह शायद बेहद खराब समय है, जब औरतों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों की खबरें रोजाना हमें हैरान कर रही हैं। भारत में औरतों के खिलाफ हो रहे ये अत्याचार बताते हैं कि प्रगति और विकास के तमाम मानकों को छू रहे इस देश का मन अभी भी औरत को एक खास नजर से ही देखता है। स्त्री के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता का विस्तार अभी न समाज में हुआ है, न पुलिस में, न ही परिवारों में। सोचने का विषय यह भी है कि नवरात्रि के साल में दो बार आने वाले पर्व में कन्या पूजन करने वाला समाज स्त्री के प्रति इतना असहिष्णु कैसे हो सकता है? इसके साथ ही घरेलू हिंसा का एक अलग संसार है, जहां परिजन और रक्त संबंधी ही स्त्री के खिलाफ अत्याचार करते हुए दिखते हैं।
   स्त्री के खिलाफ हो रही हिंसा में स्त्री की भी उपस्थिति चौंकाने वाली है। यानि स्त्री भी अपने ही वर्ग के खिलाफ हो रही हिंसा में उसी उत्साह से शामिल है जैसे पुरूष। यह देखना और सुनना दुखद है किंतु सच है कि स्त्री के खिलाफ हिंसा की जड़ें समाज में बहुत गहरी जम चुकी हैं। आर्थिक स्वालंबन और प्रतिकार कर रही स्त्री के इस अनाचार के विरूद्ध खड़े होने से ये मामले ज्यादा संख्या में सामने आने लगे हैं। प्रकृति प्रदत्त कोमलता और कमजोरियों के नाते स्त्री के खिलाफ समाज का इस तरह का रवैया ही था, जिसके नाते सरकार को घरेलू हिंसा रोकथाम के लिए 2006 में एक कानून लाना पड़ा। इसके बाद दिल्ली में हुए निर्भया कांड ने सारे देश को झकझोरकर रख दिया। इस बीच बदांयू और उप्र के अनेक स्थानों से बेहद शर्मनाक खबरें आईं। निर्ममता और वहशियत की ये कहानियां बताती है समाज आज भी उसी मानसिकता में जी रहा है जहां औरतें को इस्तेमाल की वस्तु समझा जाता है। हम देखें तो हमारे पूरे परिवेश में ही स्त्री को एक कमोडिटी की तरह स्थापित करने के प्रयास चल रहे हैं। मनोरंजन, फिल्मों और विज्ञापनों की दुनिया में ये सच्चाई और नंगे रूप में सामने आती है। जहां औरतें एक वस्तु की तरह उपस्थित हैं। उन्हें सेक्स आब्जेक्ट की तरह प्रस्तुत करने पर जोर है। वे विज्ञापनों में ऐसी वस्तुएं भी बेचती नजर आ रही हैं जिसका वे स्वयं इस्तेमाल नहीं करतीं। रूपहले स्क्रीन के बाजार में उतरी इस बोल्ड-बिंदास-लगभग निर्वसन स्त्री ने, समाज में रह रही स्त्री का जीना मुहाल कर दिया है।

   पल-पल सजे बाजार में उपस्थित स्त्री के सपने और उसकी दुनिया को इस समय ने बेहद सीमित कर दिया है। उसके लिए अवसर बढ़े हैं, किंतु सुरक्षा घट रही है। वह चमकते परदे पर बेहद शक्तिशाली दिखती है, किंतु उसके घर पहुंचने तक चिंतांएं उतनी ही गहरी हैं, जितनी पहले हुए करती थीं। द सेंकेंड सेक्स की लेखिका सिमोन लिखती हैं कि स्त्री बनती नहीं है, उसे बनाया जाता है। जाहिर है सिमोन के समय के अनुभव आज भी बदले नहीं हैं। बदलते समय ने स्त्री को अवसरों के तमाम द्वार खोले हैं, किंतु उसकी तरफ देखने का नजरिया अभी बदलना शेष है। आवश्यक्ता इस बात की है कि हम परिवार से ही इसकी शुरूआत करें। पितृसत्ता की निर्मम छवियों से मुक्त हमें एक ऐसा समाज बनाने की ओर बढ़ना है जहां स्त्री को समान अवसर और समान सम्मान हासिल हैं। तमाम परिवारों में नारकीय जीवन जी रही स्त्रियां हैं, वैसा ही सीखते युवा हैं। बदलती दुनिया में औरतें हर क्षेत्र में अपनी क्षमताएं साबित कर चुकी हैं। वे कठिन कामों को अंजाम दे रही हैं और कहीं भी पुरूषों से कमतर नहीं हैं। शैक्षणिक परिणामों से लेकर मैदानी कामों में उनका हस्तक्षेप कहीं भी अप्रभावी नहीं है। वे जिम्मेदार,कुशल, ज्यादा संवेदनाओं से युक्त और ज्यादा मानवीय हैं। परिवारों में आज स्थितियां बदल रही हैं। स्त्री की क्षमता और उसकी संवेदना को आदर मिल रहा है, वे अवसर पाकर आकाश नाप रही हैं। तमाम परिवारों में अकेली लड़की पैदा करके पुत्र न करने के फैसले भी लिए हैं। यह बदलती दुनिया का एक चेहरा है। किंतु हमें देखना होगा कि एक बहुत बड़ा समाज आज भी अंधेरे में हैं। वह अपनी बनी-बनी धारणाओं को तोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। जहां आज भी पुत्री के जन्म पर दुख के बादल छा जाते हैं। स्त्री को सम्मान नहीं हैं और उसे ही पहला शिकार बनाया जाता है। मध्ययुगीन बर्बरता के निशान आज भी हमारे मनो में हैं। इसलिए हम स्त्री को सबसे पहले और आसान निशाना बनाते हैं, क्योंकि वह कमजोर तो है ही, घर की इज्जत भी है। प्रतिष्ठा से जुड़े होने के नाते तमाम क्षेत्रों में आपसी रंजिशों में भी पहला शिकार औरत को बनाया जाता है। इसलिए लगता है कि एक मानवीय समाज बनाने और औरतों के प्रति संवेदना भरने में हम विफल ही रहे हैं। यहां अंतर गांव और शहर का नहीं समझ और मान्यताओं का भी है। गांवों में भी आपको ऐसे परिवार मिल जाएंगें जहां स्त्रियों को बेहद सम्मान से देखा जाता है और फैसलों में वे ही निर्णायक होती हैं। शहरों में भी ऐसे परिवार मिलेंगें जहां औरतें कोई मायने नहीं रखतीं हैं। हमें यह भी समझना होगा कि स्त्री का सशक्तिकरण पुरूष के विरूद्ध नहीं है। पुरूषों के सम्मान के विरूद्ध नहीं है, वरन वह समाज के पक्ष में है। परिवार और समाज को चलाने की एक धुरी स्त्री है तो दूसरा पुरुष है। दोनों के समन्वित सहभाग से ही एक सुंदर समाज की रचना हो सकती है। स्त्रियों ने इस समय में अपनी शक्ति को पहचान लिया है। वे बेहतर कर रही हैं और आगे आसमां छूने की कोशिशों में हैं। यहां भी पुरूष सत्ता चोटिल होती हुयी लगती है। उसके प्रति सम्मान और संवेदनशीलता के बजाए, किस्से बनाने और उसे कमतर साबित करने की कोशिशें हर स्तर हो रही हैं। तेज होते सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के इस दौर में सिर्फ कानून ही स्त्री के साथ खड़े हैं। कई जगह तो स्त्रियां भी, स्त्रियों के खिलाफ खड़ी हैं। यह एक संक्रमण काल है, स्त्री को अपने वजूद को साबित करते हुए निरंतर आगे बढ़ने का समय है। वह जीत रही है और आगे बढ़ रही है। अपने सपनों में रंग भर रही है। आसान शिकार होने के नाते कुछ शिकारी उसकी घात में हैं किंतु आज की औरत इससे डरती नहीं, घबराती नहीं, वह बने-बनाए कठघरों को तोड़कर आगे आ रही है। मीडिया, महिला आयोग, पुलिस और सरकार सहित तमाम स्वयंसेवी संगठन रात दिन इस काम में लगे हैं कि कैसे औरतें ज्यादा सुरक्षित और ज्यादा अधिकार सम्पन्न हों। यह काम अगर इनके बस का होता तो हो गया होता, सबसे जरूरी है परिवारों में बच्चों को सही संस्कार। वे घर से औरतों का सम्मान करना सीखें। वे अपनी बहन-मां का आदर करना सीखें। वे यह देख पाएं कि उनके पिता और मां दोनों बराबरी के हैं, कोई किसी से कम नहीं हैं। वे परिवार की धुरी हैं। वे यह भी सीखें की कि हमारी संस्कृति में कन्या पूजन जैसे विधान क्यों रखे गए हैं? क्योंकि हमारी सभी विद्याओं की मालिका देवियां हैं? क्यों हम दुर्गा से शक्ति, सरस्वती से बुद्धि और लक्ष्मी से वैभव की मांग करते हैं? क्यों हमें यह पढ़ाया और बताया गया कि जहां स्त्रियां की पूजा होती है देवता वहीं निवास करते हैं। जाहिर तौर पर संस्कृति का हर पाठ स्त्री के सम्मान और उसकी शुचिता के पक्ष में है, किंतु जाने किन प्रभावों में हम अपनी ही सांस्कृतिक मान्यताओं और संदेशों के खिलाफ खड़े हैं। स्त्री को आदर देता समाज ही एक संवेदनशील और मानवीय समाज कहा जाएगा।अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो हमें अपनी महान संस्कृति पर गर्व करने का अभिनय और ढोंग बंद कर देना चाहिए।

बुधवार, 12 मार्च 2014

इस लहूलुहान लोकतंत्र में!

माओवादी आतंक के सामने सरकारों के घुटनाटेक रवैये से बढ़ा खतरा
-संजय द्विवेदी


वो काली तारीख भूली नही हैं अभी, 25 मई,2013 की शाम जब जीरम घाटी खून से नहा उठी थी। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं सहित 30 लोगों की निर्मम हत्या के जख्म अभी भरे नहीं थे कि जीरम घाटी एक बार फिर खून से लथपथ है। 11 मार्च,2014 की तारीख फिर एक काली तारीख के रूप में दर्ज हो गयी, जहां 16 जवानों की निर्मम हत्या कर नक्सली नरभक्षी अपनी जनक्रांति का उत्सव मनाने जंगलों में लौट गए। आखिर ये सिलसिला कब रूकेगा।
    माओवादी आतंकवाद के सामने हमारी बेबसी की हकीकत क्या है? साथ ही एक सवाल यह भी क्या भारतीय राज्य माओवादियों से लड़ना चाहता है? वह इस समस्या का समाधान चाहता है? खून बहाती जमातों से शांति प्रवचन की भाषा, संवाद की कोशिशें तो ठीक हैं किंतु खून का बहना कैसे रूकेगा? किसके भरोसे आपने एक बड़े इलाके की जनता और वहां तैनात सुरक्षा बलों को छोड़ रखा है। माओवाद से लड़ने की जब हमारी कोई नीति ही नहीं है तो कम वेतन पर काम करने वाले सुरक्षाकर्मियों और पुलिसकर्मियों को हमने इन इलाकों में मरने के लिए क्यों छोड़ रखा है? उनकी गिरती लाशों से सरकारों को फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वे किन्हीं और कामों में लगी हैं। राजनीति और नेताओं  के पास पांच साल की ठेकेदारी के सपनों के अलावा सोचने के लिए वक्त कहां हैं? वे चुनाव से आगे की नहीं सोचते। चुनाव नक्सली जिता दें या बंग्लादेशी घुसपैठिए उन्हें फर्क नहीं पड़ता। ऐसे खतरनाक समय में भारतीय लोकतंत्र के खिलाफ घोषित युद्ध लड़ रहे माओवादी विचारकों के प्रति सद्भावना रखने वाले विचारकों की भी कमी नहीं है। उन्हें बहता हुआ खून नहीं दिखता क्योंकि वे विचारधारा के बंधुआ हैं। उन्हें लाल होती जमीन के पक्ष में कुतर्क की आदत है। इसलिए वे नरसंहारों के जस्टीफाई करने से भी नहीं चूकते। जबकि यह बात गले से उतरने वाली नहीं है कि माओवादी जनता के साथ हैं। ताजा मामले में भी हुयी घटना विकास के कामों को रोकने के लिए अंजाम दी गयी है।
   माओवादी नहीं चाहते कि भारतीय राज्य, राजनीति, राजनीतिक दलों की उपस्थिति उनके इलाकों में हो। वे किसी भी तरह की सामाजिक-राजनीतिक और विकास की गतिविधि से डरते हैं। वे अंधेरा बनाने और अंधेरा बांटने में ही यकीन रखते हैं और सही मायने में भय के व्यापारी हैं। इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने जंगलों में अपनी सक्रियता से एक बड़े समाज को भारतीय राज्य के विरूद्ध कर दिया है। जो बंदूकें लेकर हमारे सामने खड़े हैं। किंतु उनकी इस साजिश के खिलाफ हमारी विफलताओं का पाप कहीं बड़ा है। यह भारतीय लोकतंत्र की विफलता ही है कि माओवादी हमारे बीच इतने शक्तिवान होते जा रहे हैं। हम न तो उनके सामाजिक आधार को कम कर पा रहे हैं न ही भौगोलिक आधार को। यह बात चिंता में डालने वाली है कि जो माओवादी निरंतर भारतीय राज्य को चुनौती देते हुए हमले कर रहे हैं उसके प्रतिकार के लिए हम क्या कर रहे हैं? अकेले छत्तीसगढ़ को लें तो वे 6 अप्रैल,2010 को दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 75 जवानों सहित 76 लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं। 25 मई,2013 को उनका दुस्साहस देखिए वे कांग्रेस के दिग्गज नेताओं विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल, उदय मुद्लियार सहित 30 लोगों की घेरकर निर्मम हत्या कर देते हैं और उसके बाद भी हम चेतते नहीं हैं। देश के 9 राज्य और 88 जिले आज माओवादी हिंसा से प्रभावित हैं। वर्ष 2013 में 1136 माओवादी आतंक की घटनाएं हो चुकी हैं। जाहिर तौर पर हमारी सरकारों का रवैया घुटनाटेक ही रहा है। इससे माओवादियों के मनोबल में वृद्धि हुयी है और वे ज्यादा आक्रामक तरीके से सामने आ रहे हैं। यह भी गजब है राजनीति ऐसे तत्वों और अभियानों से लड़ने के बजाए उनको पाल रही है। माओवादियों को सूचना, हथियार और मदद देने वालों में राजनीतिक दलों के लोग शामिल रहे हैं। कई ने तो चुनावों में उनका इस्तेमाल भी किया है। किंतु सवाल यह उठता है जो काम हम पंजाब में कर चुके हैं। आंध्र में कर चुके हैं, पश्चिम बंगाल में ममता कर चुकी हैं, उसे करने में छत्तीसगढ़ में परेशानी क्या है। क्या कारण है सशस्त्र बलों की क्षमता बढ़ाने पर हमारा जोर नहीं है। अब तक सैनिक मरते थे तो सरकारें लापरवाह दिखती थीं। अब जब हमारे बड़े राजनेताओं तक भी माओवादी आतंक पहुंच रहा है, तब राजनीति की निष्क्रियता आशंकित करती है। भारतीय राज्य की दिशाहीनता और कायरता ने ये दृश्य रचे हैं। इसे कहने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि जब कोई राज्य अपने लोगों की रक्षा न कर सके तो उसके होने के मायने क्या हैं।

   आवश्यकता इस बात की है कि हम कैसे भी हिंसक गतिविधियों को रोकें और अपने लोगों को मौत के मुंह में जाने से बचाएं। जनजातीय समाज इस पूरे युद्ध का सबसे बड़ा शिकार है। वे दोनों ओर से शोषण के शिकार हो रहे हैं। सही मायने में यह भारतीय लोकतंत्र की विफलता है कि हमने प्रकृति से आच्छादित सुंदर क्षेत्रों को रणक्षेत्र बना रखा है। ये इलाके जहां नीरव शांति, प्रेम, सहजता और सरल संस्कृति के प्रतीक थे आज अविश्वास,छल और मरने-मारने के खेल का हिस्सा बन गए हैं। सच तो यह है कि हमारी सरकारें माओवादी आतंकवाद के प्रति गंभीर नहीं है वे घटना होने के बयानबाजी के बाद फिर अपने नित्यकर्मों में लग जाती हैं। सही मायने में वे आतंकवाद से लड़ना नहीं चाहती हैं। उनमें इतना आत्मविश्वास नहीं बचा है कि वे देश के सामने उपस्थित ज्वलंत सवालों पर बात कर सकें। सरकारों का खुफिया तंत्र ध्वस्त है और पुलिस बल हताश। ऐसे में बस्तर जैसे इलाके एक खामोश मौत मर रहे हैं। यहां दिन-प्रतिदिन कठिन होती जिंदगी बताती है, ये युद्ध रूकने के आसार नहीं हैं। हिंसा और आतंक के खिलाफ खड़े हुए सलवा जूडुम जैसे आंदोलन भी अब खामोश हैं। माओवादी आतंक के खिलाफ एक प्रखर आवाज महेंद्र कर्मा अब जीवित नहीं हैं। माओवाद के खिलाफ इस इलाके में बोलना गुनाह है। कहीं कोई भी दादा लोगों (माओवादियों) का आदमी हो सकता है। पुलिस के काम करने के अपने अजीब तरीके हैं जिसमें निर्दोष ही गिरफ्त में आता है। न जाने कितने निर्दोष माओवादियों के नाम पर जेलों में हैं लेकिन माओवादी आंदोलन बढ़ रहा है क्योंकि सरकारें मान चुकी हैं यह युद्ध जीता नहीं जा सकता है। किंतु इस न जीते जाने युद्ध के चलने तक सरकार कितनी लाशों, कितनी मौतों, कितने जन-धन और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान के बाद मैदान में उतरेगी, कहना कठिन है।

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

"आप" की आंखों में कुछ बहके हुए से ख़्वाब हैं!

                           -संजय द्विवेदी


 अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ने जिस तरह की उम्मीदें जगाई हैं वह बताती है राजनीति इस तरह से भी की जा सकती है। लालबत्तियों से मुक्ति, सुरक्षा न लेना और छोटे मकानों में रहना जैसै प्रतीकात्मक कदम भी आज के राजनीतिक परिवेश में कम नहीं हैं। इन पर चलना कठिन नहीं है, किंतु इनके लोभ से बचकर रह पाना बहुत कठिन है। निश्चय ही ऐसी कोशिशों का स्वागत होना चाहिए।
 यह भी नहीं है कि ऐसा करने वाले अरविंद केजरीवाल अकेले हैं। वर्तमान में मनोहर पारीकर(गोवा), ममता बनर्जी(प.बंगाल), माणिक सरकार(त्रिपुरा), एन. रंगास्वामी(पांडिचेरी) जैसे मुख्यमंत्री और एके एंटोनी, बुद्धदेव भट्टाचार्य, वी. अच्युतानंदन जैसे तमाम नेता इसी कोटि में आते हैं। गाँधीवादी, समाजवादी, वामपंथी, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की धाराओं में भी ऐसे तमाम राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता मिलेंगें, जिनकी त्याग की भावना असंदिग्ध है। बावजूद इसके ऐसा क्या है जो अरविंद केजरीवाल को अधिक चर्चा और ज्यादा टीवी फुटेज दिलवा रहा है। इसे समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि अरविंद ने निजी जीवन में शुचिता के सवाल को जिस तरह अपनी राजनीति का केंद्रीय विषय बनाया है, वह उन्हें सबके बीच अलग खड़ा करता है। वे राजनीति की एक नई धारा के प्रतिनिधि हैं। वे उन लोगों की तरह से नहीं है जिनके लिए ईमानदारी एक व्यक्तिगत संकल्प है। वे इसे अपने दल की पहचान बनाना चाहते हैं। वे पारीकर और ममता से इस मामले में अलग हैं कि दोनों की ईमानदारी एक व्यक्तिगत विषय है। ममता के साथ रहकर आप बेईमान रह सकते हैं। साधनों का उपयोग कर सकते हैं। पारीकर भी निजी ईमानदारी का विज्ञापन नहीं करते और तंत्र या अपने दल को ईमानदार रहने के लिए मजबूर भी नहीं करते। वे अपने संकल्प पर अडिग हैं किंतु उनका आग्रह बेहद निजी है। केजरीवाल इस अर्थ में अलग हैं वे न सिर्फ इस ईमानदारी,सादगी का विज्ञापन कर रहे हैं बल्कि अपने दल के नेताओं को ये शर्तें मानने के लिए राजी कर रहे हैं। ऐसे में यह ईमानदारी एक अभियान में बदल जाती है। यह अपने दल को भी उसी रास्ते पर डालने जैसा मामला है। यह मामला ऐसा नहीं है कि ममता तो निजी जीवन को बेहद ईमानदारी से जिएं और बाकी सारी पार्टी और तंत्र आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा रहे। याद करें कि जब आप पार्टी के एक विधायक बिन्नी मंत्रिमंडल में जगह न मिलने से नाराज होते हैं तो उन्हें मनाने के बजाए अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि यह दल पद चाहने वालों के लिए नहीं है, क्रांतिकारियों के लिए है। हम देखते हैं कि बिन्नी मान जाते हैं और आप के मंत्रियों की शपथ में कोई व्यवधान नहीं होता। अरविंद की जिदें साधारण नहीं हैं। वे बंगला नहीं लेते, एक बड़ा फ्लैट लेने पर शोर मचता है तो उसे भी वापस कर देते हैं। लोक की इतनी चिंता साधारण नहीं है। आलोचना को सुनना और उस पर अमल करना साधारण नहीं है किंतु अरविंद ऐसा कर रहे हैं और करते हुए दिख भी रहे हैं।
  अरविंद में एक सात्विक क्रोध दिखता है, आप उसे सात्विक अहंकार भी कह सकते हैं। किंतु उनमें, उनकी देहभाषा में, उनकी आंखों में जो तड़प है वह बताती है वे अभी भी इस व्यवस्था में एक अलग रोशनी बिखेरने की ताकत रखते हैं। सही मायने में दिल्ली में होना अरविंद के लिए एक ज्यादा लाभ, ज्यादा चर्चा, ज्यादा मीडिया अटेंशन दिलाने वाला साबित हुआ है। किंतु इससे भी इनकार नहीं करना चाहिए कि अरविंद ने एक आम हिंदुस्तानी के मन, उसके आत्मविश्वास को बढ़ाने का काम किया है। निराशा और अवसाद से घिरा आम हिंदुस्तानी आज एक नई रौशनी की ओर देख रहा है। भारत जैसे महादेश में जहां क्रांतियां प्रतीक्षारत ही रह जाती हैं, अरविंद ने उसे संभव बनाया है। यह साधारण नहीं है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के लिए अरविंद ने ठंड में पसीने ला दिए हैं। आप अरविंद के प्रशांत भूषण जैसे साथियों की कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की मांग की आलोचना कर सकते हैं किंतु अरविंद के नेतृत्व में जब नौजवान भारत मां की जय बोलते हैं, वंदेमातरम् का जयघोष करते हैं तो किस हिंदुस्तानी का मन नहीं प्रसन्न होता। लंबे समय के बाद भारतीय मध्यवर्ग को जो अपनी रोजी-रोटी और दैन्दिन संर्घषों से आगे की नहीं सोचता था, परिवर्तन और बदलाव की किसी प्रेरणा से खाली था, उम्मीदें नजर आने लगी हैं। जिस समय में छात्र, मजदूर और तमाम आंदोलन अपनी खामोश मौत मर रहे थे और कारपोरेट का शिकंजा आम आदमी के गले तक आ चुका है। ऐसे में केजरीवाल का उदय हमें हिम्मत देता है,ताकत देता है। केजरीवाल जैसे लोगों की सफलता-असफलता मायने नहीं रखती है। मायने इस बात के हैं कि वे किस तरह सत्ता के प्रतिस्पर्धी दलों का दंभ तोड़ते हैं और उन्हें जनमुद्दों के करीब लाते हैं। भारतीय राजनीति के इस समय में केजरीवाल 28 विधायकों की छोटी सी पार्टी के नेता और दिल्ली जैसे आधे-अधूरे राज्य के मुख्यमंत्री भले हों, वे उस हिंदुस्तानी जनता की उम्मीदों का चेहरा है, जिसने अपने सपने देखने बंद कर दिए थे। उदारीकरण की चकाचौंध में चकराई सरकारों और सत्ता प्रतिष्ठानों के सामने वे भारतीय जन के आत्मविश्वास और लोकचतना के सबसे बड़े प्रतीक बन चुके हैं। उनका मुकाबला आज किसी से नहीं है क्योंकि कोई भी सत्ता प्रतिष्ठान आम आदमी के साथ नहीं है। वे सत्ता और राजनीति को उसकी भटकी राहें याद दिला रहे हैं। गांधी टोपी की वापसी के बहाने वे एक ऐसी राजनीति को जन्म दे चुके हैं जहां जाति, पंथ के सवाल हवा हो चुके हैं। भगवान उन्हें इतना ही निष्पाप, जिद्दी और हठी बने रहने की शक्ति दे।

रविवार, 4 सितंबर 2011

गुरू-शिष्य संबंधः नए रास्तों की तलाश


शिक्षक दिवस ( 5 सितंबर) पर विशेषः

अध्यापकों का विवेक और रचनाशीलता भी है कसौटी पर

-संजय द्विवेदी

शिक्षक मनुष्य का निर्माता है। एक शिक्षक की भूमिका बच्चों को साक्षर करने से ही खत्म नहीं हो जाती बल्कि वह अपने छात्रों में आत्मबल, आदर्श, नैतिक बल, सच्चाई, ईमानदारी, लगन और मेहनत की वह मशाल भी जलाता है जो उसे पूर्ण मनुष्य बनाते हैं। - सर जान एडम्स

जब हर रिश्ते को बाजार की नजर लग गयी है, तब गुरू-शिष्य के रिश्तों पर इसका असर न हो ऐसा कैसे हो सकता है ? नए जमाने के, नए मूल्यों ने हर रिश्ते पर बनावट, नकलीपन और स्वार्थों की एक ऐसी चादर डाल दी है, जिसमें असली सूरत नजर ही नहीं आती। अब शिक्षा बाजार का हिस्सा है, जबकि भारतीय परंपरा में वह गुरू के अधीन थी, समाज के अधीन थी।

बाजार में उतरे शातिर खिलाड़ीः

पूंजी के शातिर खिलाड़ियों ने जब से शिक्षा के बाजार में अपनी बोलियां लगानी शुरू की हैं तबसे हालात बदलने शुरू हो गए थे। शिक्षा के हर स्तर के बाजार भारत में सजने लगे थे। इसमें कम से कम चार तरह का भारत तैयार हो रहा था। आम छात्र के लिए बेहद साधारण सरकारी स्कूल थे जिनमें पढ़कर वह चौथे दर्जे के काम की योग्यताएं गढ़ सकता था। फिर उससे ऊपर के कुछ निजी स्कूल थे जिनमें वह बाबू बनने की क्षमताएं पा सकता था। फिर अंग्रेजी माध्यमों के मिशनों, शिशु मंदिरों और मझोले व्यापारियों की शिक्षा थी जो आपको उच्च मध्य वर्ग के करीब ले जा सकती थी। और सबसे ऊपर एक ऐसी शिक्षा थी जिनमें पढ़ने वालों को शासक वर्ग में होने का गुमान, पढ़ते समय ही हो जाता है। इस कुलीन तंत्र की तूती ही आज समाज के सभी क्षेत्रों में बोल रही है। इस पूरे चक्र में कुछ गुदड़ी के लाल भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, इसमें दो राय नहीं किंतु हमारी व्यवस्था ने वर्ण व्यवस्था के हिसाब से ही शिक्षा को भी चार खानों में बांट दिया है और चार तरह के भारत बनाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। जाहिर तौर पर यह हमारी एकता- अखंडता और सामाजिक समरसता के लिए बहुत घातक है।

उच्चशिक्षा के क्षेत्र में बदहालीः

हालात यह हैं कि कुल 54 करोड़ का हमारा युवा वर्ग उच्च शिक्षा के लिए तड़प रहा है। उसकी जरूरतों को हम पूरा नहीं कर पा रहे हैं। सरकारी क्षेत्रों की उदासीनता के चलते आज हमारे सरकारी विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय लगभग स्लम में बदल रहे हैं। एक लोककल्याणकारी सरकार जब सारा कुछ बाजार को सौंपने को आतुर हो तो किया भी क्या जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा का बाजार अब उन व्यापारियों के हवाले है, जिनको इससे मोटी कमाई की आस है। जाहिर तौर पर शिक्षा अब सबके लिए सुलभ नहीं रह जाएगी। कम वेतन और सुविधाओं में काम करने वाले शिक्षक आज भी गांवों और सूदूर क्षेत्रों में शिक्षा की अलख जगाए हुए हैं। किंतु यह संख्या निरंतर कम हो रही है। सरकारी प्रोत्साहन के अभाव और भ्रष्टाचार ने हालात बदतर कर दिए हैं। इससे लगता है कि शिक्षा अब हमारी सरकारों की प्राथमिकता का हिस्सा नहीं रही।

बढ़ गयी है जिम्मेदारीः

ऐसे कठिन समय में शिक्षक समुदाय की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। क्योंकि वह ही अपने विद्यार्थियों में मूल्य व संस्कृति प्रवाहित करता है। आज नई पीढ़ी में जो भ्रमित जानकारी या कच्चापन दिखता है, उसका कारण शिक्षक ही हैं। क्योंकि अपने सीमित ज्ञान, कमजोर समझ और पक्षपातपूर्ण विचारों के कारण वे बच्चों में सही समझ विकसित नहीं कर पाते। इसके कारण गुरू के प्रति सम्मान भी घट रहा है। रिश्तों में भी बाजार की छाया इतनी गहरी है कि वह अब डराने लगी हैं। आज आम आदमी जिस तरह शिक्षा के प्रति जागरूक हो रहा है और अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के आगे आ रहा है, वे आकांक्षांए विराट हैं। उनको नजरंदाज करके हम देश का भविष्य नहीं गढ़ सकते। सबसे बड़ा संकट आज यह है कि गुरू-शिष्य के संबंध आज बाजार के मानकों पर तौले जा रहे हैं। युवाओं का भविष्य जिन हाथों में है, उनका बाजार तंत्र किस तरह शोषण कर रहा है इसे समझना जरूरी है। सरकारें उन्हें प्राथमिक शिक्षा में नए-नए नामों से किस तरह कम वेतन पर रखकर उनका शोषण कर रही हैं, यह एक गंभीर चिंता का विषय है। इसके चलते योग्य लोग शिक्षा क्षेत्र से पलायन कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि जीवन को ठीक से जीने के लिए यह व्यवसाय उचित नहीं है।

नई पीढ़ी की व्यापक आकांक्षांएः

शहरों में पढ़ रही नई पीढ़ी की समझ और सूचना का संसार बहुत व्यापक है। उसके पास ज्ञान और सूचना के अनेक साधन हैं जिसने परंपरागत शिक्षकों और उनके शिक्षण के सामने चुनौती खड़ी कर दी है। नई पीढ़ी बहुत जल्दी और ज्यादा पाने की होड़ में है। उसके सामने एक अध्यापक की भूमिका बहुत सीमित हो गयी है। नए जमाने ने श्रद्धाभाव भी कम किया है। उसके अनेक नकारात्मक प्रसंग हमें दिखाई और सुनाई देते हैं। गुरू-शिष्य रिश्तों में मर्यादाएं टूट रही हैं, वर्जनाएं टूट रही हैं, अनुशासन भी भंग होता दिखता है। नए जमाने के शिक्षक भी विद्यार्थियों में अपनी लोकप्रियता के लिए कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जो उन्हें लांछित ही करते हैं। सीखने की प्रक्रिया का मर्यादित होना भी जरूरी है। परिसरों में संवाद, बहसें और विषयों पर विमर्श की धारा लगभग सूख रही है। परीक्षा को पास करना और एक नौकरी पाना इस दौर की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गयी है। ऐसे में शिक्षकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस पीढ़ी की आकांक्षाओं की पूर्ति करने की है। साथ ही उनमें विषयों की गंभीर समझ पैदा करना भी जरूरी है। शिक्षा के साथ कौशल और मूल्यबोध का समावेश न हो तो वह व्यर्थ हो जाती है। इसलिए स्किल के साथ मूल्यों की शिक्षा बहुत जरूरी है। कारपोरेट के लिए पुरजे और रोबोट तैयार करने के बजाए अगर हम उन्हें मनुष्यता,ईमानदारी और प्रामणिकता की शिक्षा दे पाएं और स्वयं भी खुद को एक रोलमाडल के प्रस्तुत कर पाएं तो यह बड़ी बात होगी। शिक्षक अपने विद्यार्थियों के लिए एक दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक के रूप में सामने आते है। वह उसका रोल माडल भी हो सकते हैं।

सही तस्वीर गढ़ने की जरूरतः

गुरू-शिष्य परंपरा को समारोहों में याद की जाने वाली वस्तु के बजाए अगर हम उसकी सही तस्वीरें गढ़ सकें तो यह बड़ी बात होगी। किंतु देखा यह जा रहा है गुरू तो गुरूघंटाल बन रहे हैं और छात्र तोममोल करने वाले माहिर चालबाज। काम निकालने के लिए रिश्तों का इस्तेमाल करने से लेकर रिश्तों को कलंकित करने की कथाएं भी हमारे सामने हैं, जो शर्मसार भी करती हैं और चेतावनी भी देती है। नए समय में गुरू का मान- स्थान बचाए और बनाए रखा जा सकता है, बशर्ते हम विद्यार्थियों के प्रति एक ईमानदार सोच रखें, मानवीय व संवेदनशील व्यवहार रखें, उन्हें पढ़ने के बजाए समझने की दिशा में प्रेरित करें, उनके मानवीय गुणों को ज्यादा प्रोत्साहित करें। भारत निश्चय ही एक नई करवट ले रहा है, जहां हमारे नौजवान बहुत आशावादी होकर अपने शिक्षकों की तरफ निहार रहे हैं, उन्हें सही दिशा मिले तो आसमान में रंग भर सकते हैं। हमारे युवा भारत में इस समय दरअसल शिक्षकों का विवेक, रचनाशीलता और कल्पनाशीलता भी कसौटी पर है। क्योंकि देश को बनाने की इस परीक्षा में हमारे छात्र अगर फेल हो रहे हैं तो शिक्षक पास कैसे हो सकते हैं ?

बुधवार, 27 जुलाई 2011

औरत खड़ी बाजार में

- संजय द्विवेदी

हिंदुस्तानी औरत इस समय बाजार के निशाने पर है। एक वह बाजार है जो परंपरा से सजा हुआ है और दूसरा वह बाजार है जिसने औरतों के लिए एक नया बाजार पैदा किया है। औरत की देह इस समय मीडिया के चौबीसों घंटे चलने वाले माध्यमों का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। लेकिन परंपरा से चला आ रहा देह बाजार भी नए तरीके से अपने रास्ते बना रहा है। देह की बाधाएं हटा रहा है, गोपन को ओपन कर रहा है।

बहस हुई तेजः

समय-समय पर देहव्यापार को कानूनी अधिकार देने की बातें इस देश में भी उठती रहती हैं। हर मामले में दुनिया की नकल करने पर आमादा हमारे लोग वैसे ही बनने पर उतारू हैं। जाहिर तौर पर यह संकट बहुत बड़ा है। ऐसा अधिकार देकर हम देह के बाजार को न सिर्फ कानूनी बना रहे होंगें वरन मानवता के विरूद्ध एक अपराध भी कर रहे होगें। हम देखें तो सुप्रीम कोर्ट की पहल के बाद एक बार फिर वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने की बातचीत तेज हो गयी है। यह बहस हाल में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में वकीलों के पैनल व विशेषज्ञों से राय उस राय के मांगने के बाद छिड़ी है जिसमें कोर्ट ने पूछा है कि क्या ऐसे लोगों को सम्मान से अपना पेशा चलाने का अधिकार दिया जा सकता है? उनके संरक्षण के लिए क्या शर्तें होनी चाहिए ? कुछ समय पहले कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी थी, तब उन्होंने कहा था कि मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं।

चौंकानेवाले आंकड़ेः

दुनिया भर की नजर इस समय औरत की देह को अनावृत करने में है। ये आंकड़े हमें चौंकाने वाले ही लगेगें कि 100 बिलियन डालर के आसपास का बाजार आज देह व्यापार उद्योग ने खड़ा कर रखा है। हमारे अपने देश में भी 1 करोड़ से ज्यादा लोग देहव्यापार से जुड़े हैं। जिनमें पांच लाख बच्चे भी शामिल हैं। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए प्लेबायया डेबोनियरतक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा।

बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्रीः

बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। जाहिर तौर पर स्थितियां हतप्रभ कर देने वाली हैं। इनमें मजबूरियों से उपजी कहानियां हैं तो मौज- मजे के लिए इस दुनिया में उतरे किस्से भी हैं। भारत जैसे देश में लड़कियों को किस तरह इस व्यापार में उतारा जा रहा है ये किस्से आम हैं। आदिवासी इलाकों से निरंतर गायब हो रही लड़कियां और उनके शोषण के अंतहीन किस्से इस व्यथा को बयान करते हैं। खतरा यह है कि शोषण रोकने के नाम पर देहव्यापार को कानूनी मान्यता देने के बाद सेक्स रैकेट को एक कारोबार का दर्जा मिल जाएगा। इससे दबे छुपे चलने वाला काम एक बड़े बाजार में बदल जाएगा। इसमें फिर कंपनियां भी उतरेंगी जो लड़कियों का शोषण ही करेगीं। लड़कियों के उत्पीड़न, अपहरण की घटनाएं बढ़ जाएंगी। समाज का पूरी तरह से नैतिक पतन हो जाएगा।

पैदा होंगें कई सामाजिक संकटः

सबसे बड़ा खतरा हमारी सामाजिक व्यवस्था को पैदा होगा जहां देहव्यापार भी एक प्रोफेशन के रूप में मान्य हो जाएगा। आज चल रहे गुपचुप सेक्स रैकेट कानूनी दर्जा पाकर अंधेरगर्दी पर उतर आएंगें। परिवार नाम की संस्था को भी इससे गहरी चोट पहुंचेगी। हमें देखना कि क्या हमारा समाज इस तरह के बदलावों को स्वीकार करने की स्थिति में है। यह भी बड़ा सवाल है कि क्या औरत की देह को उसकी इच्छा के विरूद्ध बाजार में उतारना और उसकी बोली लगाना उचित है? क्या औरतें एक मनुष्य न होकर एक वस्तु में बदल जाएगीं? जिनकी बोली लगेगी और वे नीलाम की जाएंगीं। स्त्री की देह का मामला सिर्फ श्रम को बेचने का मामला नहीं है। देह और मन से मिलकर होने वाली क्रिया को हम क्यों बाजार के हवाले कर देने पर आमादा हैं, यह एक बड़ा मुद्दा है। औरत की देह पर सिर्फ और सिर्फ उसका हक है। उसे यह तय करने का हक है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करना चाहती है। इस तरह के कानून औरत की निजता को एक सामूहिक प्रोडक्ट में बदलने का वातावरण बनाते हैं। अपने मन और इच्छा के विरूद्ध औरत के जीने की स्थितियां बनाते हैं। यह अपराध कम से कम भारत की जमीन पर नहीं होना चाहिए। जहां नारी को एक उंचा स्थान प्राप्त है। वह परिवार को चलाने वाली धुरी है।

स्त्री के सामर्थ्य का आदर कीजिएः

स्त्री आज के समय में वह घर और बाहर दोनों स्थानों अपेक्षित आदर प्राप्त कर रही है। वह समाज को नए नजरिये से देख रही है। उसका आकलन कर रही है और अपने लिए निरंतर नए क्षितिज खोल रही है।ऐसी सार्मथ्यशाली स्त्री को शिखर छूने के अवसर देने के बजाए हम उसे बाजार के जाल में फंसा रहे हैं। वह अपनी निजता और सौंदर्यबोध के साथ जीने की स्थितियां और आदर समाज जीवन में प्राप्त कर सके हमें इसका प्रयास करना चाहिए। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति धारणा निरंतर बदल रही है। वह नए-नए सोपानों का स्पर्श कर रही है। माता-पिता की सोच भी बदल रही है वे अपनी बच्चियों के बेहतर विकास के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। स्त्री सही मायने में इस दौर में ज्यादा शक्तिशाली होकर उभरी है। किंतु बाजार हर जगह शिकार तलाश ही लेता है। वह औरत की शक्ति का बाजारीकरण करना चाहता है। हमें देखना होगा कि भारतीय स्त्री पर मुग्ध बाजार उसकी शक्ति तो बने किंतु उसका शोषण न कर सके। आज में मीडियामय और विज्ञापनी बाजार में औरत के लिए हर कदम पर खतरे हैं। पल-पल पर उसके लिए बाजार सजे हैं। देह के भी, रूप के भी, प्रतिभा के भी, कलंक के भी। हद तो यह कि कलंक भी पब्लिसिटी के काम आ रहे हैं। क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से हमें रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। हमें इस समय से बचते हुए इसके बेहतर प्रभावों को ग्रहण करना है। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह ऐसे लोगों की मंशा को समझे जो औरत को बाजार की वस्तु बना देना चाहते है।

शनिवार, 26 मार्च 2011

क्या बेमानी हैं राजनीति में नैतिकता के प्रश्न ?

-संजय द्विवेदी

यह विडंबना ही है कि देश में एक महान अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री पद पर बैठे हैं और महंगाई अपने चरण पर है। संभवतः वे ईमानदार भी हैं और इसलिए भ्रष्टाचार भी अपने सारे पुराने रिकार्ड तोड़ चुका है। किंतु क्या इन संर्दभों के बावजूद भी देश के मन में कोई हलचल है। कोई राजनीतिक प्रतिरोध दिख रहा है। शायद नहीं, क्योंकि जनता के सवालों के प्रति कोई राजनीतिक दल आश्वस्त नहीं करता। भ्रष्टाचार के सवाल पर तो बिल्कुल नहीं।

आप देखें तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता तो संदिग्ध हो ही चुकी है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं और जनभावनाओं के आधार पर सक्रिय क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का रिकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं हैं। लालूप्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, जयललिता और करूणानिधि जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिनके पास कोई जनधर्मी अतीत या वर्तमान नहीं हैं। ऐसे में जनता आखिर प्रतिरोध की शक्ति कहां से अर्जित करे। कौन से विकल्पों की ओर बढ़े। क्योंकि अंततः सत्ता में जाते ही सारे नारे भोथरे हो जाते हैं। सत्ता की चाल किसी भी रंग के झंडे और विचारों के बावजूद एक ही रहती है। सत्ता जनता से जाने वाले नेता को अपने हिसाब से अनूकूलित कर लेती है। अगर ऐसा न होता तो मजदूरों और मेहनतकशों की सरकार होते हुए प.बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम न घटते। उप्र में दलितों की प्रतिनिधि सरकार आने के बाद दलितों और उनकी स्त्रियों पर अत्याचार रूक जाते। पर ऐसा कहां हुआ। यह अनूकूलन सब दिशाओं में दिखता है। ऐसे में विकल्प क्या हैं ? भ्रष्टाचार के खिलाफ सारी जंग आज हमारी राजनीति के बजाए अदालत ही लड़ रही है। अदालत केंद्रित यह संघर्ष क्या जनता के बीच फैल रही बेचैनियों का जवाब है। यह एक गंभीर प्रश्न है।

हमारे राजनीति के शीर्ष पर बैठे नेता जिस तरह देश के मानस को तोड़ रहे हैं उससे लोकतंत्र के प्रति गहरी निराशा पैदा हो रही है। यह खतरनाक है और इसे रोकना जरूरी है। वोट के बदले नोट को लेकर संसद में हुयी बहसों को देखें तो उसका निकष क्या है. यही है कि अगर आपको जनता ने सत्ता दे दी है तो आप कुछ भी करेंगें। जनता के विश्वास के साथ इससे बड़ा छल क्या हो सकता है। पर ये हो रहा है और हम भारत के लोग इसे देखने के लिए मजबूर हैं। पूरी दुनिया के अंदर भारत को एक नई नजर से देखा जा रहा है और उससे बहुत उम्मीदें लगाई जा रही हैं। किंतु हमारी राजनीति हमें बहुत निराश कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आज हमारे पास विकल्प नदारद हैं। कोई भी दल इस विषय में आश्वस्त नहीं करता कि वह भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण लगाएगा। राजनीति की यह दिशाहीनता देश को भारी पड़ रही है। देश की जनता अपने संघर्षों से इस महान राष्ट्र को निरंतर विकास करते देखना चाहती है, उसके लिए अपेक्षित श्रम भी कर रही है। किंतु सारा कुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। हमारी प्रगति को राजनीतिकों के ग्रहण लगे हुए हैं। सारी राजनीति का चेहरा अत्यंत कुरूप होता जा रहा है। आशा की किरणें नदारद हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी सरकारें भी जनता से मिले विश्वास के आधार पर ऐसा आत्मविश्वास दिखा रही हैं जैसे जनादेश यही करने के लिए मिला हो। सही मायने में राजनीति में नैतिकता के प्रश्न बेमानी हो चुके हैं। पूरे समाज में एक गहरी बेचैनी है और लोग बदलाव की आंच को तेज करना चाहते हैं। सामाजिक और सांगठनिक स्तर पर अनेक संगठन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम भी चला रहे हैं। इसे तेज करने की जरूरत है। बाबा रामदेव, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अन्ना हजारे, किरण बेदी आदि अनेक जन इस मुहिम में लगे हैं। हमें देखना होगा कि इस संघर्ष के कुछ शुभ फलित पाए जा सकें। महात्मा गांधी कहते थे साधन और साध्य दोनों पवित्र होने चाहिए। हमें इसका ध्यान देते हुए इस संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।

भारतीय लोकतंत्र के एक महान नेता डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे लोकराज लोकलाज से चलता है। पर क्या हममें लोकलाज बची है, यह एक बड़ा सवाल है। देश में अनेक स्तरों पर प्रतिरोध खड़े हो रहे हैं। कई स्थानों पर ये प्रतिरोध हिंसक आदोंलन के रूप में भी दिखते हैं। किंतु जनता का राजनीति से निराश होना चिंताजनक है। क्योंकि यह निराशा अंततः लोकतंत्र के खिलाफ जाती है। लोकतंत्र बहुत संघर्षों से अर्जित व्यवस्था है। जिसे हमने काफी कुर्बानियों के बाद पाया है। हमें यह देखना होगा कि हम इस व्यवस्था को आगे कैसे ले जा सकते हैं। इसके दोषों का परिष्कार करते हुए, लोकमत का जागरण करते हुए अपने लोकतंत्र को प्राणवान और सार्थक बनाने की जरूरत है। क्योंकि इसमें जनता के सवालों का हल है। जनता आज भी इस देश को समर्थ बनाने के प्रयासों में लगी है किंतु समाज से आर्दश गायब हो गए लगते हैं। समय है कि हम अपने आदर्शों की पुर्स्थापना करें और एक नई दिशा की ओर आगे बढ़ें। राजनीति से निराश होने की नहीं उसे संशोधित करने और योग्य नेतृत्व को आगे लाने की जरूरत है। लोकतंत्र अपने प्रश्नों का हल निकाल लेगा और हमें एक रास्ता दिखाएगा ऐसी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। घने अंधकार से कोई रोशनी जरूर निकलेगी जो सारे तिमिर को चीर कर एक नए संसार की रचना करेगी। शायद वह दिन भारत के परमवैभव का दिन होगा। जिसका इंतजार हम भारत के लोग लंबे समय से कर रहे हैं।

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता के खतरे

स्त्री को बाजार में उतारने की नहीं उसकी गरिमा बचाने की जरूरत

-संजय द्विवेदी

कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है, जाहिर तौर पर उनका विचार बहुत ही संवेदना से उपजा हुआ है। उन्होंने अपने बयान में कहा है कि "मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।" प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं। सांसद दत्त ने भी अपने बयान में कहा है कि - "वे समाज का हिस्सा हैं, हम उनके अधिकारों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। मैंने उन पर एक शोध किया है और पाया है कि वे समाज के सभी वर्गो द्वारा प्रताड़ित होती हैं। वे पुलिस और कभी -कभी मीडिया का भी शिकार बनती हैं।"

सही मायने में स्त्री को आज भी भारतीय समाज में उचित सम्मान प्राप्त नहीं हैं। अनेक मजबूरियों से उपजी पीड़ा भरी कथाएं वेश्याओं के इलाकों में मिलती हैं। हमारे समाज के इसी पाखंड ने इस समस्या को बढ़ावा दिया है। हम इन इलाकों में हो रही घटनाओं से परेशान हैं। एक पूरा का पूरा शोषण का चक्र और तंत्र यहां सक्रिय दिखता है। वेश्यावृत्ति के कई रूप हैं जहां कई तरीके से स्त्रियों को इस अँधकार में धकेला जाता है। आदिवासी इलाकों से लड़कियों को लाकर मंडी में उतारने की घटनाएं हों, या बंगाल और पूर्वोत्तर की स्त्रियों की दारूण कथाएं ,सब कंपा देने वाली हैं। किंतु सारा कुछ हो रहा है और हमारी सरकारें और समाज सब कुछ देख रहा है। समाज जीवन में जिस तरह की स्थितियां है उसमें औरतों का व्यापार बहुत जधन्य और निकृष्ट कर्म होने के बावजूद रोका नहीं जा सकता। गरीबी इसका एक कारण है, दूसरा कारण है पुरूष मानसिकता। जिसके चलते स्त्री को बाजार में उतरना या उतारना एक मजबूरी और फैशन दोनों बन रहा है। क्या ही अच्छा होता कि स्त्री को हम एक मनुष्य की तरह अपनी शर्तों पर जीने का अधिकार दे पाते। समाज में ऐसी स्थितियां बना पाते कि एक औरत को अपनी अस्मत का सौदा न करना पड़े। किंतु हुआ इसका उलटा। इन सालों में बाजार की हवा ने औरत को एक माल में तब्दील कर दिया है। मीडिया माध्यम इस हवा को तूफान में बदलने का काम कर रहे हैं। औरत की देह को अनावृत्त करना एक फैशन में बदल रहा है। औरत की देह इस समय मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए प्लेबायया डेबोनियरतक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा ।बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। विषय बहुत संवेदनशील है, हमें सोचना होगा कि हम वेश्यावृत्ति के समापन के लिए काम करें या इसे एक कानूनी संस्था में बदल दें। हमें समाज में बदलाव की शक्तियों का साथ देना चाहिए ताकि एक औरत के मनुष्य के रूप में जिंदा रहने की स्थितियां बहाल हो सकें। हमें स्त्री के देह की गरिमा का ख्याल रखना चाहिए, उसकी किसी भी तरह की खरीद-बिक्री को प्रोत्साहित करने के बजाए, उसे रोकने का काम करना चाहिए। प्रिया दत्त ने भले ही बहुत संवेदना से यह बात कही हो, पर यह मामले का अतिसरलीकृत समाधान है। वे इसके पीछे छिपी भयावहता को पहचान नहीं पा रही हैं। हमें स्त्री की गरिमा की बात करनी चाहिए- उसे बाजार में उतारने की नहीं। एक सांसद होने के नाते उन्हें ज्यादा जवाबदेह और जिम्मेदार होना चाहिए।

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

फिर भी क्यों भूखा है भारत ?

-संजय द्विवेदी
अनाज गोदामों में भरा हो और भुखमरी देश के गांव, जंगलों और शहरों को डस रही हो तो ऐसे लोककल्याणकारी राज्य का हम क्या करें ? वैश्विक भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) पर भारत जैसे देश का 67 वें स्थान पर रहना हमें चिंता में डालता है। इतना ही नहीं इस सूची में पाकिस्तान 52 वें स्थान पर है, यानि हमसे काफी आगे। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों में तीसरे नंबर पर गिने जा रहे देश भारत का एक चेहरा यह भी है जो खासा निराशाजनक है। यह बताता है कि हमारे आधुनिक तंत्र की चमकीली प्रगति के बावजूद एक भारत ऐसा भी है जिसे अभी रोटियों के भी लाले हैं। भुखमरी में लड़ने में हम चीन और पाकिस्तान से भी पीछे हैं। ऐसे में हमारी चकाचौंध के मायने क्या हैं? एक गणतंत्र में लोककल्याणकारी राज्य की संकल्पना पर ये चीजें एक कलंक की तरह ही हैं। हमें देखना होगा कि आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं, जहां लोंगों को दो वक्त की रोटी भी उपलब्ध नहीं है।

अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ( आईएफपीआरआई) द्वारा जारी वैश्विक भुखमरी सूचकांक,2010 में 84 देशों की सूची में भारत का 67 वां स्थान चिंता में डालने वाला है। भारत को कुपोषण और भरण पोषण के मामले में महिलाओं की खराब स्थिति के कारण काफी नीचे स्थान मिला है। रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व में 42 प्रतिशत कमजोर पैदायशी भारत में हैं। इस मामले में पाकिस्तान हमसे पांच प्रतिशत की बेहतर स्थिति में है। जाहिर तौर पर ये चिंताएं समूची दुनिया को मथ रही हैं। शायद इसीलिए भुखमरी के खिलाफ पूरी दुनिया में एक चिंतन चल रहा है। भारत में भी भोजन का अधिकार दिलाने के लिए कई जनसंगठन काम कर रहे हैं और इसे कानूनी जामा पहनाने की बातें भी हो रही हैं। दुनिया के नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी सम्मेलन में तय विकास लक्ष्य के जरिए 1990 और 2015 के बीच भुखमरी की शिकार जनसंख्या का अनुपात आधा करने का लक्ष्य रखा था। हालांकि दुनिया भर में चल प्रयासों से भुखमरी में कमी आई है और लोगों को राहत मिली है। किंतु अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है क्योंकि समस्या वास्तव में गंभीर है। आम तौर पर यह माना जाता है कि जब किसी देश की अर्थव्यवस्था सुधरती है तो वहां भुखमरी के हालात कम होते हैं। किंतु भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के सामने ये आंकड़े मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं। देश में तेजी से बढ़ी महंगाई और बढ़ती खाद्यान्न की कीमतें भी इसका कारण हो सकती हैं। खासतौर पर गांवों, वनवासी क्षेत्रों में रहने वाले लोग इन हालात से ज्यादा प्रभावित होते हैं क्योंकि सरकारी सुविधा देने का तंत्र कई बार नीचे तक नहीं पहुंच पाता। ग्लोबल हंगर इंडेक्स को सामने रखते हुए हमें अपनी नीतियों, कार्यक्रमों और जनवितरण प्रणाली को ज्यादा प्रभावी बनाने की जरूरत है। शायद सरकार की इन्हीं नीतियों से नाराज सुप्रीम कोर्ट ने 27 जुलाई,2010 को कहा था कि “जिस देश में हजारों लोग भूखे मर रहे हों वहां अन्न के एक दाने की बर्बादी भी अपराध है। यहां 6000 टन से ज्यादा अनाज सड़ चुका है। ” इसी तरह 12 अगस्त,2010 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा कि –“ अनाज सड़ने के बजाए केंद्र सरकार गरीब और भूखे लोगों तक इसकी आपूर्ति सुनिश्चित करे। इसके लिए केंद्र हर प्रदेश में एक बड़ा गोदाम बनाने की व्यवस्था करे।” जाहिर तौर पर देश की जमीनी स्थिति को अदालत समझ रही थी किंतु हमारी सरकार इस सवाल पर गंभीर नहीं दिख रही थी। यहां तक कि हमारे कृषि मंत्री अदालत के आदेश को सुझाव समझने की भूल कर बैठे जिसके चलते अदालत को फिर कहना पड़ा कि यह आदेश है, सलाह नहीं है। जबकि हमारी सरकार तब तक 6.86 करोड़ का अनाज सड़ा चुकी थी। आज कुपोषण के हालात हमारी आंखें खोलने के लिए काफी हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार देश में 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और तीन साल से कम के 47 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं। अनाज के कुप्रबंधन में सरकार की विफलताएं सामने हैं और इसके चलते ही इस तरह के आंकड़े सामने आ रहे हैं। जिस देश में भारी मात्रा में अनाज सड़ रहा हो वहां लोग भुखमरी या कुपोषण के शिकार हों यह कतई अच्छी बात नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों को अपने-अपने स्तर पर इस समस्या के कारगर निदान के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि देश का नाम इस तरह की सूचनाओं से खराब होता है। हम कितनी भी प्रगति कर लें, हमारी अर्थव्यवस्था कितनी भी कुलांचे भर ले किंतु अगर हम अपने लोगों के लिए ईमानदार नहीं हैं,तो इसके मायने क्या हैं। हमारे लोग भूखे हैं तो इस जनतंत्र के भी मायने क्या हैं। जाहिर तौर पर हमें ईमानदार कोशिशें करनी होंगीं। वरना एक जनतंत्र के तौर पर हम दुनिया के सामने मानवीय और सामाजिक सवालों पर यूं ही लांछित होते रहेगें। गांधी के इस देश में आम आदमी अगर व्यवस्था के केंद्र में नहीं है तो विकल्प क्या हैं। जगह-जगह पैदा हो रहे असंतोष और लोकतंत्र के प्रति जनता में एक तरह का निराशाभाव इन्हीं कारणों से प्रबल हो रहा है। क्या हम अपने लोकतंत्र को वास्तविक जनतंत्र में बदलने के लिए आगे बढेंगें या इसी चौंधियाती हुयी चमकीली प्रगति में अपने मूल सवालों को गंवा बैठेगें? यह एक यक्ष प्रश्न है इसके ठोस और वाजिब हल तलाशने की अगर हमने कोशिश न की तो कल बहुत देर हो जाएगी।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

जब वीआईपी आते हैं


अमन के कत्ल का इल्जाम व्यवस्था के सिर पर
-संजय द्विवेदी
क्या हिंदुस्तान में वीआईपी मौत का सबब बन गए हैं। चंढीगढ़ से लेकर कानपुर तक फैली ये कहानियां बताती हैं कि किसी वीआईपी का शहर में आना आम आदमी के लिए कितना भारी पड़ता है। एक खास आदमी की सुरक्षा किस तरह आम आदमी की मौत बन जाती है इसका ताजा किस्सा कानपुर से आया है जहां पिछले दिनों प्रधानमंत्री के दौरे के नाते एक घायल बच्चा समय पर अस्पताल नहीं पहुंच सका और उसकी मौत हो गयी। अब उसकी मां के पास अपने इकलौते बेटे को खोने के बाद क्या बचा है। इसी तरह गत वर्ष नवंबर माह में प्रधानमंत्री का चंड़ीगढ़ दौरा एक मरीज का मौत का कारण बन गया था। गम्भीर रूप से बीमार व्यक्ति को पुलिस वाले इसलिए नहीं जाने दिया क्योंकि मनमोहन सिंह का काफिला उधर से गुजरने वाला था। जब पीजीआई के पास यह मरीज पहुंचा तो प्रधानमंत्री के काफिले के गुजरने को लेकर आम ट्रैफिक के लिए रास्ता बंद कर दिया गया। सुमित गुर्दे का मरीज होने की वजह से हर महीने पीजीआई खून बदलवाने के लिए जाया करता था। पर जब उसके परिजन उसे लेकर आये तो वी. आई.पी. काफिले के गुजरने को लेकर चंडीगढ़ पीजीआई के पास इस मरीज की गाड़ी रोक दी गयी। परिजनों ने वहां खड़े पुलिस वालों से स्थिति से अवगत कराया लेकिन पुलिस वालों ने एक न सुनी और कहा कि जबतक प्रधानमंत्री का काफिला नहीं गुजर जाता तबतक किसी कीमत से नहीं जाने दिया जाएगा।
ये दो हादसे हमारे सुरक्षा तंत्र की लाचारगी और संवेदनहीनता दोनों का बयान करते हैं। जाहिर तौर पर हमारे देश में जिस तरह की दुखद घटनाएं हुई हैं और उसमें देश के दो प्रधानमंत्रियों को अपनी जान गंवानी पड़ी उसके बाद वीआईपी सुरक्षा का दबाव बढ़ना ही था। आज भी वीआईपी तमाम कारणों से अपने आपको असुरक्षित ही पाते हैं। सुरक्षा तंत्र के सामने वीआईपी दौरा एक बड़ा तनाव होता है। वे इसे लेकर खासे परेशान रहते हैं कि किसी तरह से वीआईपी जल्दी-जल्दी शहर छोड़कर चला जाए। प्रधानमंत्री की सुरक्षा पद विशेष के नाते संकट का एक बड़ा कारण बन गयी है। एसपीजी कवर प्राप्त जो राजनेता हैं उनकी सुरक्षा के इंतजाम इतने कड़े हैं कि पूरा शहर, उनके शहर में होने का दंड भोगता है। आधे-अधूरे और अचानक के दौरे तो और तबाह करते हैं। लेकिन घटनाओं के बाद सोचने का विषय यह है कि क्या वीआईपी की जान के सामने एक आम शहरी की जान की कोई कीमत नहीं है। ये हादसे सवाल कर रहे हैं कि आखिर इस देश में जनतंत्र के मायने क्या हैं कि एक लोकसेवक की रक्षा की कीमत पर आम लोगों की जान पर बन आए। ये तो कुछ ऐसे हादसे हैं जो प्रकाश में आ गए हैं, लेकिन तमाम ऐसे दर्द है जो मीडिया और लोगों की नजरों से बच जाते हैं। ऐसे समय में हमें सोचना होगा कि हम अपने सुरक्षा तंत्र को इतना संवेदनशील तो बनाएं ही कि वह आम आदमी की जान से न खेल सके। वीआईपी जिन शहरों में जाते हैं उनके लिए इस तरह के इंतजाम हों कि उन्हें खास रास्तों से ही गुजारा जाए और आम शहरी तंग न हो। इसके साथ ही वैकल्पिक मार्गों की व्यव्स्था भी की जाए जिन पर उस समय नाहक पुलिस या सुरक्षा कर्मियों का आतंक न हो। सामान्य पूछताछ और गाड़ियों की पड़ताल एक विषय है किंतु किसी अस्पताल जा रहे मरीज को रोका जाना कहां का न्याय है। वैसे भी हमारे देश के राजनेता और वीआईपी जनता के नजरों में अपनी कदर खो चुके हैं। राजनेताओं को लेकर हमारे देश की जनता में एक खास तरह का अवसाद विकसित हुआ है। लोग अपने नेताओं से कोई उम्मीद नहीं रखते और जनतंत्र को एक मजाक मानने लगे हैं। क्योंकि हमारे जनतंत्र ने बहुत जल्दी ही राजतंत्र की सारी खूबियों को आत्मसात कर लिया है। इससे राजनेताओं की जनता से बहुत दूरी भी बन चुकी है। इसे चाहकर भी अब हमारे राजनेता पाट नहीं सकते। वे उन्हीं बने-बनाए मानकों में कैद हो जाते हैं जैसा व्यवस्था चाहती है। वीआईपी सुरक्षा का विषय निश्चय ही देश के वर्तमान हालात में बहुत बड़ा है। कब कौन सी घटना हो जाए कहा नहीं जा सकता। देश की सरकारें जिस तरह आतंकवाद और अतिवादी ताकतों के सामने घुटनाटेक आचरण का परिचय दे रही हैं उससे किसी की जान तभी तक सुरक्षित है जब तक आतंकी चाहें। आज हालात यह हैं कि हमारी ट्रेनों को नक्सली सात घंटे तक रोक कर रख सकते हैं और हमारा राज्य इसे देखकर खामोश है। पिछले पांच सालों में नक्सली 11 हजार लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं। मणिपुर महीनों अराजकता का शिकार बना रहता है और वहां नाकेबंदी चलती रहती है। कश्मीर के तमाम शहरों में हिंसक प्रदर्शन जारी हैं। कहने का मतलब यह है कि भारतीय राज्य को सुरक्षा के प्रसंगों पर जहां राज्य की दंड शक्ति का परिचय देना चाहिए वहां वह बेचारा साबित हो रहा है। उसके हाथ अतिवादियों पर कार्रवाई करते हुए कांपते हैं। किंतु आम जनता पर अपनी बहादुरी दिखाने से वह बाज नहीं आता। क्या सिर्फ इसलिए कि आम शहरी कानून को मानता और उस पर भरोसा करता है। इसलिए उसके जान की कोई कीमत नहीं है। एक वीआईपी के किसी शहर में आने से शहर को राहत मिलनी चाहिए या सजा यह एक बड़ा सवाल है। इसी तरह वीआईपी सुरक्षा के दुरूपयोग के भी किस्से आम हैं। आज हर नेता अपने को वीआईपी बनाने के लिए आमादा है। सबको अपनी सुरक्षा के ग्रेड बढ़वाने हैं क्योंकि इससे रूतबा बढ़ता है और यह एक स्टेट्स सिंबल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। हमें देखना होगा कि इस तरह की सुरक्षा हमारे जनतंत्र पर कितनी भारी पड़ रही है। ऐसे सुरक्षा घेरों में वीआईपी को आते-जाते समय जनता क्या प्रतिक्रिया करती है कभी उसे भी सुनिए तो पता चलेगा कि लोग इस पूरे तंत्र को किस नजर से देखते हैं। जनता के बीच काम करने वाला आम नेता जैसे ही पदधारी होता है उसे वीआईपी बनने का मनोरोग लग जाता है।यह एक ऐसी बीमारी है जो हमारे जनतंत्र को कमजोर और अविश्वासी बना रही है। किंतु चिंता का विषय ये छोटी बीमारियां नहीं हैं। हमें देखना होगा कि प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठे व्यक्ति की सुरक्षा के नाते यदि आम जनता आहत हो रही है तो उसका संदेश क्या जाता है। जाहिर तौर पर हमें अपने नेताओं के पद की गरिमा के अनुकूल ही सुरक्षा के इंतजाम करने चाहिए ताकि वे महफूज रहें और देश के प्रति अपना श्रेष्ठ योगदान सुनिश्चित कर सकें। किंतु हमें यह भी ध्यान देना होगा कि एक भी आम हिंदुस्तानी अगर उनकी सुरक्षा के चलते अपनी जान गंवा बैठता है तो यह अच्छी बात नहीं हैं। कानपुर की मां ऊषा शर्मा ने की पीड़ा को समझने की जरूरत है जिसने अपना इकलौता बेटा खो दिया है। जरूरत है हमारे तंत्र को मानवीय बनाने की ताकि फिर कोई मां अपना बेटा न खो दे। आठ साल के अमन की मौत ने हमारे सामने कई सवाल खड़े किए हैं और वे सवाल तब तक हल नहीं होंगें जबतक हमारी व्यवस्था में मानवीय पहलू शामिल नहीं किए जाते। जाहिर तौर पर हमारी सुरक्षा एजेंसियों को भी यह सबक सीखने की जरूरत है कि कई बार मानवीय दृष्टि से भी कई फैसले किए जाते हैं और अगर वह दृष्टि हमारे सुरक्षा अमले के पास होती तो आज अमन के कत्ल का इल्जाम इस तंत्र के सिर पर न होता।