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मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

आपके लिए कौन रोएगा?

-संजय द्विवेदी
    
  धनबल, बाहुबल, जनबल के इस युग में जहां सामाजिक परिर्वतन को सिरमौर बनने की दृष्टि से देखा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक गिरावट के दौर में एक ऐसा व्यक्तित्व भी देखने को मिलता है, जो लोगों की आस्था का केंद्र बनता है। लोग उनके लिए न सिर्फ आंसू बहाते हैं बल्कि प्राण तक न्यौछावर करने को तत्पर रहते हैं। आखिर इस शख्स में ऐसा क्या था, जो उसके जाने के बाद लोगों को रूला गया।
  हम बात कर रहे हैं समाज में आई नैतिक मूल्यों की गिरावट के उस दौर की जहां कुर्सी पाने के लिए राजनेता, भाई-भाई का कत्ल करने पर आमादा है। चुनाव जीतने में धन का बोलबाला है। राजनीतिक सत्ता हथियाने के लिए किसी भी हद तक जाने को लोग आतुर हैं। ऐसे कठिन और विपरीत समय में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का जाना और उनके लिए समूचे तमिलनाडु की जनता का ह्दय से विलाप, कोई छोटी बात नहीं है। यह वह जनता है जिसने अम्मा का बुरा वक्त भी देखा था और तब भी उनसे नजदीकियां कम नहीं हुयी थीं। आखिर अम्मा में ऐसा क्या था जो लोग उनके दीवाने हो गए। लोग न उनके लिए आंसू बहा रहे थे बल्कि अपना प्राणोत्सर्ग करने में भी उन्हें संकोच नहीं था। जनता का दीवानापन कोई छोटी बात नहीं है। खासतौर से जब व्यक्ति राजनीति में हो। हम जानते हैं कि राजनीति की राहें बहुत रपटीली और कंटकाकीर्ण हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि हमारा लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए बना है। इसमें व्यक्ति मतदाता होता है और उसे अपना प्रतिनिधि चुनने की स्वतंत्रता होती है। बाद में वही प्रतिनिधि उस पर हूकूमत करता है। वही सत्ताधीश होता है। ग्राम पंचायत से लोकसभा तक मतदाता अपने भाग्यविधाता का निर्वाचन करता है। देखने में आता है कि चुनाव के वक्त राजनेता गिरगिट की तरह पैंतरे बदलते हैं और मतदाता रूपी भगवान को खुश करने के अनेक यत्न करते हैं। सीट या कुर्सी प्राप्त होने पर वह अभिमानी हो जाते हैं और उसी मतदाता से उन्हें बू आने लगती है। नौकरशाह उनके शार्गिद हो जाते हैं। तब जनता उन्हें उनकी राह अगले चुनाव में दिखाती है।
  वर्तमान में सामाजिक और नैतिक मूल्यों की गिरावट चहुंओर है। राजनीति भी उससे अछूती कैसे रह सकती है। अनेक राजनेताओं पर समय-समय पर दाग लगते रहे हैं और उन दागों को धोने में कई की पूरी आयु निकल जाती है। ऐसे कुछ दाग अम्मा यानि जयललिता के जीवन पर भी लगे थे। उन्होंने न्यायपालिका में भरोसा रखा, जहां से वे निर्दोष साबित हुयीं। जयललिता के खिलाफ राजनीतिक षडयंत्र भी हुए, जेल भी जाना पडा। मारने की धमकियां भी मिलीं, लेकिन जनता में उनका जलवा कायम रहा। उनके जीवन में लाख बुराइयों के बीच अनेक अच्छाइयां भी मौजूद थीं। वह मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए मिलने वाले वेतन से गरीबों के लिए दो जून की रोटी मुहैया कराने का काम करती थीं। सरकारी अस्पतालों में गरीबों का इलाज उनकी प्राथमिकता में था। गरीबों के बच्चे स्कूलों तक जाएं, यह उनकी प्रतिबद्धता थी। उनके दरवाजे पर आने वाला कोई खाली हाथ न जाए, उसे न्याय मिले, उसकी बात सुनी जाए, प्रशासन उसके घर दस्तक दे, यह जवाबदेही उनके शासन में थी। उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहते हुए जनता जो चाहती थी वह करने का प्रयास किया। इसी कारण वह लोगों के दिलों को जीतने में सफल रहीं। अम्मा की अनुपस्थिति लोगों को आज महसूस हो रही है। परंतु वह यह मानने को तैयार नहीं है कि उनकी प्यारी अम्मा अब इस दुनिया में नहीं हैं। जयललिता को सत्ता में रहते हुए जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में निश्चित रूप से कई कठिनाईयां आई होगीं। एक तो वह क्षेत्रीय दल की नेता थीं और केंद्र में उनके दल का ज्यादा  बहुमत नहीं था। परंतु जयललिता ने लोकतंत्र के उस जनमत हथियार का इस तरह इस्तेमाल किया कि वह केंद्र में भी ताकतवर नेता के रूप में जानी जाती रहीं। केंद्र भी उनकी बात को गंभीरता से सुनने के लिए मजबूर होता था। वह तमिलनाडु की जनता के हकों के लिए ताजिंदगी लड़ती रहीं। क्या भारत में अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री या अन्य जननेता उनके अच्छे कामों से सीख लेगें और जनता का दिल जीतने का प्रयास करेगें। अगर ऐसा नहीं होता है तो उनके लिए रोने वाला कौन होगा।

     ऐसा नहीं है कि जयललिता ने तमिलनाडु की सारी समस्याएं हल कर दी हों और वहां की जनता अमन चैन की सांस ले रही हो। राज्य में अभी भी समस्याएं हैं जिनका हल निकाला जाना है। तमिलनाडु की तरह भारत के विभिन्न राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में भी समस्याएं हैं। आजादी के 70 वर्षों में कुछ प्रयास हुए हैं परंतु जनता की बुनियादी समस्याएं अभी भी कायम हैं।  सरकारें जनादेश प्राप्त करने से पूर्व घोषणा पत्र जारी करती हैं और उसके क्रियान्वयन में अपना कार्यकाल पूरा करती हैं। देखने में आया है कि ज्यादातर सरकारें घोषणा पत्र के बिंदुओं को अक्षरशः क्रियान्वित करने में असफल रहती हैं जिसके कारण जनाक्रोश बनना प्रारंभ हो जाता है। इसके साथ ही अगले चुनाव में कई बार जनमत वर्तमान सत्ता के विरूद्ध जाता है। तमिलनाडु में जयललिता के साथ ऐसा कुछ हो चुका है, लेकिन वह गिरकर फिर खड़ी हुयीं और सरकारी योजनाओं के जरिए एवं अपने जनहितैषी फैसलों से जनता का दिल जीतने में कामयाब रहीं। यही वजह है कि आज समूचा तमिलनाडु उनके लिए रो रहा है और यह अप्रत्याशित घटना समूचे देश के लिए एक उदाहरण भी है। जनता का राजनेता के प्रति दीवानापन उनकी लोकप्रियता को दर्शाता है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारत के विभिन्न प्रांतों के राजनेता इस घटना से कुछ सीख लेगें और जनता की समस्याओं को हल करते हुए जनता का दिल जीतने में कामयाब हो सकेगें।

सोमवार, 29 सितंबर 2014

सार्वजनिक जीवन से शुचिता के निर्वासन का समय

-संजय द्विवेदी


    तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का जेल जाना एक ऐसी सूचना है जो कानून के प्रति आदर बढ़ाती है। यह बात बताती है कि आप कितने भी शक्तिमान हों, कानून की नजर में आ जाने पर आपका बचना मुश्किल है। एक सक्षम प्रशासक, जनप्रिय राजनेता और प्रभावी हस्ती होने के बावजूद जयललिता को जेल जाना पड़ा। उन पर सौ करोड़ रूपए का जुर्माना भी लगाया गया है। कानून की यह ताकत ही किसी भी लोकतंत्र का प्राणतत्व है। झारखंड के मुख्यमंत्री रहे मधु कौडा, शिबू सोरेन, बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव,कांग्रेस नेता रशीद मसूद, सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत राय, संत आशाराम बापू जैसे तमाम उदाहरण हमारे आसपास दिखते हैं, जिसमें कानून ने अपनी शक्ति और निष्पक्षता का अहसास कराया है। ताकतवर लोग आज भले जेल के सीकचों के पीछे दिखते हैं किंतु इससे यह कहा नहीं जा सकता कि ये सिलसिला रूक जाएगा। हमारे राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन की मजबूरियां और वातावरण भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भ्रष्ट आचरण के लिए विवश कर रहा है। ऐसे में हमें उन विचारों की तरफ बढ़ना चाहिए जिससे राजनीति में धन का महत्व कम हो और सेवा के मूल्य स्थापित हों। वर्तमान व्यवस्था में तो राजनेताओं से शुचिता, सादगी की अपेक्षा करना संभव नहीं है।

मदांध आचरण का फलितार्थः
   यह घटना सार्वजनिक जीवन में काम करने वाली हस्तियों के लिए एक संदेश भी है कि सत्ता और प्रभाव के नशे में चूर होकर मदांध आचरण कभी भी आपको आपकी सही जगह पहुंचा सकता है। देर के बावजूद कानून के राज में अंधेर नहीं है। चीजें पुख्ता होकर आपके खिलाफ खड़ी हो ही जाती हैं। कहा भी जाता है कि सत्ता पाए केहि मद नहीं।सत्ता और प्रशासन में बड़े पदों पर बैठे लोग जिस तरह मदांध होकर आचरण करते हैं,कानूनों को अपने हिसाब से बनाते और इस्तेमाल करते हैं उससे बड़ा खतरा खड़ा होता है। जयललिता मुख्यमंत्री के रूप में सरकारी खजाने से मात्र एक रूपए वेतन लेती थीं, किंतु उनका निजी खजाना बढ़ता ही रहा । ऐसी सूचनाएं विस्मित भी करती हैं और ऐसी ईमानदारी को प्रश्नांकित भी करती हैं। एक प्रशासक और लोकप्रिय नेता के रूप में आज भी अपने समर्थकों के लिए वे पूज्य हैं। किंतु निजी ईमानदारी का सवाल आज सबसे बड़ा है। जनता के बीच उनकी छवि उन्हें एक लोकनेता से ईश्वर का अवतार तक बनाती हुयी दिखती है। यह उनके समर्थकों का अधिकार भी है। किंतु यहां यह देखना होगा कि सत्ता का दुरूपयोग करते हुए हमारे राजनेता किस तरह सार्वजनिक धन को निजी संपत्ति में बदलने की प्रतियोगिता में लगे हैं। इस मामले में शशिकला और मुख्यमंत्री के परित्यक्त दत्तक पुत्र को चार साल की कैद और दस-दस करोड़ का जुर्माना लगाया गया है।यह बात बताती है किस तरह मुख्यमंत्री के आसपास रहे लोगों ने भी जमकर पैसे की बंदरबांट की है या जयललिता के पद पर होने का लाभ उठाया है। राजनीतिक क्षेत्र की यह आम कथा है कि लोग पहले नेता पर पैसे लगाते हैं फिर उसके सफल होने पर उसके  प्रभाव का जमकर लाभ उठाते हुए जायज-नाजायज तरीकों से धन का अर्जन करते हैं। देश भर से सार्वजनिक धन, जमीनों, खदानों, दूकानों, मकानों और उद्योगों के लूट की कहानियां आ रही हैं। किंतु सिलसिला रूकने के बजाए तेज हो रहा है।

पैसे की प्रकट पिपासाः
कभी सार्वजनिक जीवन में आने वाले लोग मस्तमौला, बिंदास और साधारण जीवन जीने वाले लोग होते थे। उनके जीवन की सादगी से कार्यकर्ता प्रेरित होते थे और उनसा बनने-दिखने का प्रयास करते थे। महात्मा गांधी ने सादगी को भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में स्थापित किया तो कांग्रेस के विरोधी विचारों के नेता राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय जैसे तमाम लोग भी इसे स्वीकारते दिखे। कांग्रेसी, समाजवादी, साम्यवादी, जनसंध की हर धारा के नायक सादगी और सज्जनता की प्रतिमूर्ति थे। उनके सार्वजनिक और निजी जीवन में सादगी का प्रगटीकरण दिखता है। बहुत बड़े और धनी परिवारों से आए राजनेता भी सादगी में लिपटे होते थे। खद्दर के साधारण कपड़े उनकी पहचान बन जाते थे, सेवा ही उनका काम। राजनीति से यह सादगी आज लुप्त होती दिखती है। नेताओं का वैभव बढ़ने लगा और उनकी संपत्ति भी। सार्वजनिक धन को निजी धन में तब्दील करने की यह स्पर्धा आज चरम पर है। खासकर उदारीकरण के बाद के दौर में राजनीतिक क्षेत्र में विकृति के किस्से आम होने लगे। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और विचारक राजनेता पं.द्वारिका प्रसाद मिश्र कहा करते थे कि जिस व्यक्ति को राजनीति करनी हो उसे व्यापार नहीं करना चाहिए और जिसे व्यापार करना हो उसे राजनीति नहीं करनी चाहिए।किंतु में एक ऐसी पीढ़ी आयी जिसके लिए राजनीति ही एक व्यापार बन गयी। आज सौ-हजार करोड़ जमा करने की प्रतियोगिता में ज्यादातर राजनेता शामिल हैं। उनकी नामी-बेनामी सपत्तियां बढ़ती जा रही हैं, शर्म घटती जा रही है। पैसे बांटकर चुनाव जीतने की स्पर्धा चरम पर है। वोटबैंक इसमें उनका मददगार बनता है।

महंगी होती राजनीतिः

 सार्वजनिक जीवन से यह सादगी और शुचिता के निर्वासन का समय है। महंगी होती राजनीति, महंगे होते चुनाव आज की एक बड़ी चुनौती हैं। किसी पद पर न रहने वाले राजनेता के लिए रोजाना की राजनीति का खर्च भी निकालना कठिन है। बड़ी गाड़ियां, रोजाना के खर्च, खुद को बाजार में बनाए रखने के लिए चमकते फ्लैक्स और अखबारी विज्ञापन की राजनीति कष्टसाध्य है। आज की राजनीति में पैसे का बढ़ता महत्व चिंता में डालता है। राजनीति के शिखरपुरूषों का आज बेदाग रहना कठिन है।पार्टियों के संचालन में लगने वाला खर्च बताता है कि चीजें साधारण नहीं रह गयी हैं।लोकतंत्र की मंडी में राजनीति अब साधारण नहीं है। आप देखें तो राज्यों का नेतृत्व तमाम आरोपों से घिरा है। स्थानीय और छोटी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं पर ऐसे आरोप ज्यादा दिखते हैं। क्या कारण है टिकट से लेकर वोट भी खरीदे और बेचे जाते हैं। राजनीति की यह अवस्था चिंता में डालती है। जब हमारे नायक ही ऐसे होंगें तो वे समाज को क्या प्रेरणा देंगें। वे देश में शुचिता की राजनीति को कैसे स्थापित करेंगें? मधु कौड़ा से लेकर लालू यादव और जयललिता तक एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। सवाल यह भी है कि क्या बिना पैसे के राजनीति की जा सकती है। सवाल यह भी है कि काले पैसे से बनता और सृजित होता लोकतंत्र कैसे वास्तविक जनाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कर सकता है?