-प्रोफेसर संजय द्विवेदी
यह
संकट निरंतर है। भारत को न जानने से ही भ्रम की स्थिति निर्मित होती है। जबकि एक
गहरी आध्यात्मिक चेतना से उपजी भारतीयता किसी के विरुद्ध नहीं है। हमारी संस्कृति
विश्व बंधुत्व, विश्व मंगल और लोक-मंगल की वाहक है। आध्यात्मिक भाव इसी जमीन की
देन है जिसने बताया कि सारी दुनिया के मनुष्य एक ही हैं। मनुष्य और उसके दुखों का
समाधान खोजने राम, बुद्ध, महावीर जैसे राजपुत्र वनों में जाते रहे। वसुधा को कुटुम्ब (विस्तृत
परिवार) की संकल्पना भारत की अप्रतिम देन है। धरती के सभी मनुष्य, सभी जीव और सभी अजीव भी इस कुटुम्ब में शामिल हैं। अतः समूची सृष्टि के
योगक्षेम की कामना करते हुए भारत सुख पाता है। यही भाव सबके संरक्षण और सबके
संवर्धन का प्रेरक है। इसी भावना से "पृथिव्या लाभे पालने च.." लिखते
हुए आचार्य चाणक्य अपने 'अर्थशास्त्र' के
प्रथम अधिकरण में ही पृथ्वी के पालन की कामना की है। यूएनओ अर्थ चार्टर 2000 में धरती जीवंत है, ऐसा मान लिया है।
प्रकृति है ईश्वर का विस्तार-
प्रकृति को लेकर भारत की अपनी समझ है। हम संपूर्ण प्रकृति को ईश्वर का ही
विस्तार मानते हैं। हमारी मान्यता है कि देव स्वयं प्रकृति में आया। सृष्टि का
निर्माता सृष्टि के साथ ही है। हमारे जीवन के नियंता भी प्रकृति के सूर्य,जल, वायु, अग्नि,वन जैसे अवयव ही हैं। इससे हममें प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव आता
है। इसलिए हम इन सबको देवता कहकर संबोधित करने लगे। सूर्य देवता, अग्नि देव आदि। यह कृतज्ञता का चरम और प्रकृति से संवाद का अप्रतिम उदाहरण
भी है। हम मानते हैं कि जो देता वह देवता है। इसी से हम देव और असुर में भेद करते
आए हैं।
हमारे
वैदिक मंत्र सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इस तरह हम एक ऐसी संस्कृति के
उत्तराधिकारी बन जाते हैं जो प्रकृति सेवक या पूजक है। 'श्वेताश्वतरोपिषद्'(6.11) कहता है, "एको
देव: सर्वभूतेषू गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा"
इसलिए हममें प्रकृति के मालिक या स्वामी होने का
भाव नहीं आया। प्रकृति के दोहन का विचार हमारा है, शोषण का विचार पराया है।
भारतबोध इन्हीं तत्वों से विकसित होता है। भारत ने ज्ञान भूमि के रूप में
स्वयं को विकसित किया। जहां 'भा' यानी ज्ञान और 'रत' का मतलब
लीन। इस तरह यह ज्ञान की साधना में लीन भूमि है। जिसने मानवता के समक्ष प्रश्नों
के ठोस और वाजिब उत्तर खोजे।
कालिदास भी ‘कुमारसंभवम्’ में भारत की उत्तर दिशा में हिमालय का वर्णन करते हुए कहते हैं -
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा
हिमालयो नाम नगाधिराज:।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्म स्थित
पृथिव्या इव मापदण्ड:।।
हिमालय
से समुद्र तक इस पवित्र भूमि का विस्तार है। व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि से
लेकर आधुनिक समय में बंकिमचंद्र चटोपाध्याय (वंदेमातरम), मैथिलीशरण
गुप्त, जयशंकर प्रसाद जैसे कवि इसी भूमि का मंगलगान करते
हैं। बावजूद इसके किंतु कुछ मूढ़ मति मानते हैं कि अंग्रेजों ने हमें आज का भारत
दिया। जबकि अंग्रेज़ों ने हमारी सांस्कृतिक, सामुदायिक एकता
को तोड़कर हमें विखंडित भारत दिया। बंग भंग में असफल रहे अंग्रेज़ों जो बंटवारे का
जो दंश हमें दिया, उसे हम आज भी भोग रहे हैं। जिन्हें यह
भ्रम है कि हमें 1947 में अंग्रेजों ने भारत बनाकर दिया वे ‘विष्णु
पुराण’ के इस श्लोक का पाठ जरूर करें-
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव
दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र
सन्ततिः ।।
यानी समुद्र के उत्तर और हिमालय के
दक्षिण में जो देश है उसे भारत, तथा
उनकी संतानों (नागरिकों) को भारती कहते हैं।
अपने देश के व्यापक भूगोल की समझ होनी ही चाहिए। देश को जोड़ने वाले तत्व
क्या हैं, हमें खोजने और बताने चाहिए। क्योंकि कुछ लोग तोड़ने वाले तत्वों (फाल्ट
लाइंस) की ही चर्चा करते हैं। जबकि सच यह है कि हर देश में कुछ अच्छी और बुरी
बातें होती हैं। कोई भी राष्ट्र जीवन समस्या मुक्त नहीं है। किंतु सिर्फ देश तोड़क
बातें करना और उसके लिए संदर्भ गढ़ना उचित नहीं कहा जा सकता। हालांकि सच सामने आ
जाता है। बावजूद इसके नरेटिव की एक गहरी जंग देश झेल रहा है। यह कितना गजब है कि
अकादमिक विमर्श जैसे भी चलते रहे हों, नरेटिव जैसे भी गढ़े जाते रहे हों। किंतु
देश पिछले आठ दशकों में निरंतर आगे बढ़ा है। लोगों की अपने मान बिंदुओं के प्रति
आस्था बढ़ी है। अपनी माटी के प्रति प्रेम बढ़ा है, भारत प्रेम बढ़ा है। एकत्व और
एकात्म भारत हमारी आज हमारी शक्ति है। पूरी दुनिया भी इसे स्वीकार करती है।
सांस्कृतिक एकता के प्रतीक-
भारत की
इस पवित्र भूमि पर ही राम, कृष्ण, शिव, गौतम बुद्ध, महावीर,नानक, गुरु गोविंद सिंह, ऋषि वाल्मिकि, गुरु
घासीदास, संत रैदास, आचार्य शंकर, गुरु गोरखनाथ, स्वामी दयानंद जन्में और सैकड़ों
तीर्थों-मठों की स्थापना हुई। चारधाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग,
बावन शक्तिपीठ के साथ अनेक सिद्धपीठ और मंदिर इसके उदाहरण हैं। जो
समाज में सेवा,संवाद और आध्यात्म के वाहक बने हुए हैं। हमारी सप्त पुरियां अयोध्या,
मथुरा,माया, काशी,
कांची, अवंतिका, द्वारिका
हैं। जैन, बौद्ध, सिक्ख गुरुओं के
पवित्र स्थान हैं। जो समूचे देश को जोड़ते हैं। नदियों के तट, सरोवर, पर्वतों
इसे लोक स्वीकृति प्राप्त है। असल भारत यही है।
ऐसा भाव दुनिया में कहीं विकसित नहीं हुआ। स्थान-स्थान की परिक्रमाएं काशी,
ब्रज-गोवर्धन, अयोध्या, चित्रकूट,
चारधाम, उत्तराखंड के पृथक चार धाम, नर्मदा, कृष्णा परिक्रमा भारत को जोड़ने वाली
कड़ियां हैं। इन यात्राओं से भारत धीरे-धीरे मन में उतरता है। कन्याकुमारी से
कश्मीर तक, हिंगलाज से परशुराम कुण्ड तक पुण्य भूमि स्थापित
है। अमरनाथ और ननकाना साहिब की कठिन यात्राएं भी इसी भाव बोध का सृजन करती हैं। इस
भारत को जीते हुए ही हमारे पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी का कवि मन
बोल पड़ा- भारत जमीन का टुकड़ा नहीं/
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है/ इसका कंकर कंकर शंकर है/ इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है।
सर्वश्री वासुदेवशरण अग्रवाल,
राधाकुमुद मुखर्जी को पढ़ते हुए पुण्यभूमि भारत के दृश्य साक्षात हो
जाते हैं। अनादिकाल से हो रही ये तीर्थ यात्राएं भारत को समझने की ही खिड़कियां
रहीं हैं। इनसे गुजरता भारत खुद का आत्मसाक्षात्कार करता रहा है। वह प्रक्रिया
धीमी हो सकती है, पर रुकी नहीं है। इसे तेज करने से न सिर्फ
राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी बल्कि दुनिया में भी सुख, शांति
और समृद्धि का विचार प्रसारित होगा। एक सशक्त भारत ही विश्व शांति और विश्व मंगल
की गारंटी है। अरसे बाद भारत में विचारों की घर वापसी हो रही है। वह अपने
आत्मदैन्य से मुक्त हो रहा है। आइए, हम भी इस महान देश को जानने की खिड़कियां
खोलें और भारत मां को जगद्गुरु के सिंहासन पर विराजता हुआ देखें।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
भोपाल में जनसंचार विभाग के आचार्य और अध्यक्ष हैं।)