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शुक्रवार, 9 मई 2025

समान नागरिक संहिता से कौन डरता है?

 

-प्रो.संजय द्विवेदी



      इन दिनों एक देश-एक कानून का सवाल लोक विमर्श में हैं। राजनीतिक दलों से लेकर समाज में हर जगह इसे लेकर चर्चा है। संविधान निर्माताओं की यह भावना रही है कि देश में समान नागरिक कानून होने चाहिए। अब वह समय आ गया है कि हमें अपने राष्ट्र निर्माताओं की उस भावना का पालन करना चाहिए। इससे देश की आम जनता को शक्ति और संबल मिलेगा।

    हमारी आजादी के नायकों का एक ही स्वप्न था एकत्व। एकात्म भाव से भरे लोग। समता और समानता। इसे हमारे नायकों ने स्वराज कहा। यहां स्व बहुत खास है। स्वतंत्रता आंदोलन सिर्फ अंग्रेजी की विदाई और भारतीयों के राज्यारोहण के लिए नहीं था। अपने कानून, अपने नियम, अपनी भाषा, अपनी भूषा, अपना खानपान यानि इंडिया को भारत बनाना इसका लक्ष्य था। गुलामी के हर प्रतीक से मुक्ति इस आंदोलन का संकल्प था। इसलिए गांधी कह पाए- दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है। यह स्वत्व की राह हम भुला बैठे, बिसरा बैठे। देश एक सूत्र में जुड़ा रहे। समान अवसर और समान भागीदारी का स्वप्न साकार हो यह जरूरी है। लोकतंत्र इन्हीं मूल्यों से साकार होता है। भारत ने पहले दिन से अपने सभी नागरिकों को बिना भेद के मताधिकार का अधिकार दिया और सबके मत का मूल्य समान रखा। अब समय है कि हम इस मुख्य अधिकार की भावना का विस्तार करते हुए देश को एकात्म बनाएं। वह सब कुछ करें जिससे देश एक हो सकता है। एक सूत्र में बांधा जा सकता है। यही एकता और अखंडता की पहली शर्त है। समान नागरिक संहिता एक ऐसा संकल्प है जो भारतीयों को एक तल पर लाकर खड़ा कर देती है। यहां एक ही पहचान सबसे बड़ी है जो है भारतीय होना, और एक ही किताब सबसे खास है जो है हमारा संविधान। समान नागरिक संहिता दरअसल हमारे गणतंत्र को जीवंत बनाने की रूपरेखा है।

    हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के संस्थापकों ने उम्मीद जताई थी कि एक दिन राज्य समान नागरिक संहिता की अपेक्षाओं को पूरा करेंगे और नियमों का एक समान कानून प्रत्येक धर्म के रीति-रिवाजों जैसे- विवाह, तलाक आदि के अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों की जगह लेगा। यह भावना साधारण नहीं है। इस पर विवाद करना कहीं से भी उचित नहीं है। यह आजादी के आंदोलन के सपनों की दिशा में एक कदम है। वर्ष 1956 में हिंदू कानूनों को संहिताबद्ध कर दिया गया था, लेकिन देश के सभी नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने का गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। अब आवश्यक्ता इस बात की है कि हम देश को एक सूत्र में बांधने की दिशा में गंभीर प्रयास करें। यह बहुत सामयिक और उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड की राज्य सरकार ने इस दिशा में कदम उठाया है। हम देखें तो भारतीय संविधान के भाग 4 (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व) के तहत अनुच्छेद 44 के अनुसार कहा गया है कि भारत के समस्त नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता होगी। इसका व्यावहारिक अर्थ है कि, भारत के सभी पंथों के नागरिकों के लिये एक समान पंथनिरपेक्ष कानून बनना चाहिए।

     संविधान के संस्थापकों ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के माध्यम से इसको लागू करने की ज़िम्मेदारी बाद की सरकारों को हस्तांतरित कर दी थी। अब यह सरकारों की जिम्मेदारी थी कि वे इस ओर देश को ले जाते । राजनीतिक कारणों से हमारी सरकारों ने इस संकल्प की पूर्ति के लिए जिम्मेदारी नहीं दिखाई। आज आजादी के अमृतकाल में हम प्रवेश कर चुके हैं। आने वाले दो दशकों में हमें भारत को शिखर पर ले जाना है। अपने सब संकटों के उपाय खोजने हैं। हमें वो सूत्र भी खोजने हैं जिससे भारत एक हो सके। सब भारतीय अपने आपको समान मानें और कोई अपने आप को उपेक्षित महसूस न करे। लोकतंत्र इसी प्रकार की सहभागिता और सामंजस्य की मांग करता है।

     पंथ के आधार पर मिलने वाले विशेषाधिकार किसी भी समाज की एकता को प्रभावित करते हैं। इसके साथ ही समानता के संवैधानिक अधिकार की भी अपनी आकांक्षाएं हैं। हमें विचार करें तो पाते हैं कि मूल अधिकारों में विधि के शासन की अवधारणा साफ दिखती है लेकिन इन्हीं अवधारणाओं के बीच लैंगिक असमानता जैसी कुरीतियाँ भी व्याप्त हैं। विधि के शासन के अनुसार, सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये लेकिन स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी आबादी का बड़ा हिस्सा अपने मूलभूत अधिकारों के लिये संघर्ष कर रहा है। इस प्रकार समान नागरिक संहिता का लागू न होना एक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है। भारतीय जनता पार्टी ने आरंभ से ही समान नागरिक संहिता का वकालत की है। उसके प्रथम अध्यक्ष डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी( तब जनसंघ) ने एक देश में दो प्रधान, दो विधान और दो निशान के नाम पर अपना बलिदान दिया। ऐसे समय में एक बार देश ने भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को अवसर दिया है कि वे एक देश एक कानून की भावना के साथ आगे बढ़ें।

   हम देखें तो पाते हैं कि विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से संबंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु विधि आयोग का गठन किया गया। इसमें विधि आयोग ने कहा कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूलाधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है। हमें इन बातों से सबक लेते हुए महिलाओं के हक में यह फैसला लेना होगा ताकि पंथ के नाम पर जारी कानूनों से उन्हें बचाया जा सके। कोई भी कानून अगर भेदभावपूर्ण समाज बनाता है तो उसके औचित्य पर सवाल उठते हैं। कानून का एक ही सूत्र है समानता और भेदभाव विहीन समाज बनाना। जिसे प्रधानमंत्री नारे की शक्ल में सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास कहते हैं। यह तभी संभव हो जब कानून सबके साथ समान व्यवहार करे। किसी को विशेषाधिकार न दे। लोकतंत्र को मजबूती दे। देश को एकात्म भाव से एकजुट करे। उम्मीद की जानी चाहिए गोवा और उत्तराखंड जैसे राज्यों को बाद अब देश में भी यह कानून लागू होगा और हमारे सपनों में रंग भरने का काम करेगा। आज समान नागरिक संहिता का मुद्दा एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है, इसलिये जहाँ एक ओर कुछ राजनीतिक दल इस मामले के माध्यम से तुष्टिकरण का अभियान चला रहे हैं। जबकि दूसरी ओर कुछ राजनीतिक दल इस मुद्दे के माध्यम से पंथिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रहे हैं। इससे देश कमजोर होता है। समाज में विघटन होता है। हमारा संकल्प होना चाहिए कि हम जब विकसित भारत की ओर बढ़ रहे हैं, तब असमानता, गैरबराबरी सिर्फ आर्थिक स्तर पर नहीं कानूनी स्तर पर भी हटानी होगी। इसका एक मात्र विकल्प समान नागरिक संहिता है, इसमें दो राय नहीं है।