शनिवार, 7 जून 2008

मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-6

लोकभाषाओं को लेकर बेचैनी क्यों

एच.एस. ठाकुर

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के कोई छह साल बाद छत्तीसगढ़ी को ‘राजभाषा’ बनाने का विधेयक तो पारित हो गया, मगर उसे आज तक कानूनी दर्जा प्राप्त नहीं हो सका है । इस बीच इस मुद्दे को शायद डायवर्ट करने की दृष्टि से ‘छत्तीसगढ़ी भाषा आयोग’ का गठन किया जा रहा था कि किन्तु मीडिया ने एक किसी बुजुर्ग साहित्यकार को आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किये जाने का मुद्दा उछाल दिया । इसके बाद से साहित्यकारों में लोकभाषाओं को लेकर बेचैनी पैदा हो गई ।


भाषा कोई भी हो उसका निकट संबंध प्रकृति से रहता है । भाषा शब्द के मूल में भाख शब्द है जिसका संबंध ‘नाद’ से होता है । शिशु जब हँसने और बोलने की अवस्था में पहुँचता है तब उसकी माँ बच्चे की आवाज या भाख का मतलब समझ जाती है । यह सिर्फ मानव तक ही सीमित नहीं अपितु अन्य प्राणियों में भी इसका असर दिखाई पड़ता है । कह सकते हैं कि लोकभाषाएं प्रकृति की देन हैं । अक्षर को ब्रह्म भी कहा गया है अर्थात् शब्द और भाषायें अपने मूल में प्रकृतिजन्य भी हैं ।


वैदिक काल में लोकवाणी, आकाशवाणी और देववाणी का उल्लेख वेदों में मिलता है । अधिकांश वेद संस्कृत में हैं । इससे प्रमाणित होता है कि संस्कृत भारत की प्राचीनतम् भाषा है । यही नहीं भारत वर्ष की अन्य प्रांतीय भाषाएं जैसे तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, उड़िया आदि के मूल शब्द संस्कृत- निष्ठ ही हैं । भारतीय भाषायें संस्कृत-गंगा से निकली छोटी-बड़ी धारायें हैं । भूगोल और वातावरण के कारण इन धाराओं की शैली भिन्न-भिन्न है, स्थापत्य भिन्न है किन्तु तासीर एक ही है । ऐसी स्थिति में आज जब पूरा देश अंग्रेजी के पीछे दीवाना है तब आदिभाषा संस्कृत की महत्ता को कम करके आंकना उचित नहीं होगा ।


संस्कृत लोकभाषा से बढ़कर वेद, उपनिषद, आरण्यक, संहिता की भाषा भी है । वह हमारे होने की पहचान कराने वाली भाषा है । यदि संस्कृत का पठन-पाठन एकबारगी बंद कर दिया जाता तो युवा पीढ़ी को भारतीय दर्शन, विचार, अस्मिता, इतिहास आदि के मूल तत्वों को पहचानने में कठिनाई होगी । रोजगार की तराजू में तौलकर उसे समूचे खारिज करना कहाँ का न्याय होगा । वह विरासतीय ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म और शाश्वत मूल्यों की भाषा है । उसमें हमारे अतीत का प्रमाणित सत्य है । प्रासंगिक यह होगा कि संस्कृत को न केवल पाठ्यक्रम में अनिवार्य किया जाय बल्कि उसे रोजगार से भी जोड़ा जाय ।


जहां तक छत्तीसगढ़ी का सवाल है वह छत्तीसगढ़ का प्रतीक है । छ.ग. का कोई भी व्यक्ति प्रदेश से बाहर जाकर जब छत्तीसगढ़ी में वार्तालाप करता है तब संपूर्ण छत्तीसगढ़ की परंपरा, विरासत, कला, संस्कृति और अस्मिता का स्वयंमेव बोध हो जाता है । इस तरह छत्तीसगढ़ी अन्य भारतीय भाषाओं की तरह एक समृद्ध भाषा है, कम से कम मौखिक अभिव्यक्ति के स्तर पर । यद्यपि छत्तीसगढ़ी का व्याकरण शब्दकोष, वांछित लिखित और वाचिक साहित्य आदि सारी औपचारिकताएं बहुत पहले से ही लगभग पूरी हो चुकी हैं । उसके बावजूद विलंब होना समझ से परे है । यहाँ यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि बड़े शायद राज्य के बड़े नौकरशाह, उनकी मंशा नहीं है कि छत्तीसगढ़ी को भाषा का दर्जा मिले । वे शायद इसे अपनी स्वेच्छाचारिता के रास्ते में पारदर्शिता का अकुंश भी मानते हैं । हो सकता है कि कांग्रेस-भाजपा व सत्ता में बैठे लोग जिसमें अधिकांश छत्तीसगढ़ी मूल अस्मिता और स्संकृति से लवरेज नहीं है को भी अपने अधिनायकत्व में बाधा की संभावना नजर आती हो और वे इसे टालने की मानसिकता में भी हों


छत्तीसगढ़ अपनी सांस्कृतिक विविधता के लिए भी प्रसिद्ध है । बस्तर से लेकर जशपुर, सरगुजा तक जीवन शैली में एकता होते हुए उनकी स्थानीय बोलियों में विविधता है । चूंकि सभी बोलियां स्थानीय लोगों(जनता) की संस्कृति, कारोबार और व्यवहार की भाषा है, इसलिए इन प्रचलित लोगभाषाओं को शासकीय स्तर पर ज्यादा से ज्यादा संरक्षण दिया जाना चाहिए । इसमें शिक्षा, शब्दकोष निर्माण, लोक साहित्य का संग्रहीकरण, अमिलेखीकरण महत्वपूर्ण क़दम हो सकते हैं । इन लोकभाषाओं को कुछ लोगों द्वारा बंद करने का सोचना भी स्वयं में बेइमानी है । वह उस जनता के साथ गैर प्रजातंत्रिक कार्यवाही भी है जिसकी सम्यक अभिव्यक्ति उसी भाषा में होती है । फलतः वह नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध भी है ।
छत्तीसगढ़ी और उसके साथ सहधर्मी भाषाओं को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से जोगी शासनकाल में छत्तीसगढ़ी भाषा परिषद का गठन किया गया था । जिसका मात्र 3 माह की अल्पायु में ही गला घोंट दिया गया । ऐसे राजकीय पहलों की मिसाल के बाद सरकारी स्तर पर भाषाओं के उन्नयन कार्य को लेकर बुद्धिजीवियों, भाषाविदों को चिंतित न होकर व्यक्तिगत प्रयास जारी रखना ही श्रेयस्कर होगा । फिलहाल बहस में इतना ही पर इत्यलम् नहीं ।
(लेखक जनसंपर्क विशेषज्ञ एवं आरएनएस संपादक के हैं )

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