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शनिवार, 15 जून 2024

'इंडिया' की आंखों से भारत को मत देखिए!

-भारतीयता को नए संदर्भों  में व्याख्यायित करना जरूरी 

-प्रो. संजय द्विवेदी



    आजकल राष्ट्रीयता,भारतीयता, राष्ट्रत्व और राष्ट्रवाद जैसे शब्द चर्चा और बहस के केंद्र में है। ऐसे में यह जरूरी है कि हम भारतीयता पर एक नई दृष्टि से सोचें और जानें कि आखिर यह क्या है? ‘राष्ट्र’ सामान्य तौर पर सिर्फ भौगोलिक नहीं बल्कि ‘भूगोल-संस्कृति-लोग’ के तीन तत्वों से बनने वाली इकाई है। इन तीन तत्वों से बने राष्ट्र में आखिर सबसे महत्वपूर्ण तत्व कौन सा है? जाहिर तौर पर वह ‘लोग’ ही होगें। इसलिए लोगों की बेहतरी,भलाई, मानवता का स्पंदन ही किसी राष्ट्रीयता का सबसे प्रमुख तत्व होना चाहिए।

        जब हम लोगों की बात करते हैं तो भौगोलिक इकाईयां टूटती हैं। अध्यात्म के नजरिए से पूरी दुनिया के मनुष्य एक हैं। सभी संत, आध्यात्मिक नेता और मनोवैज्ञानिक भी यह मानने हैं कि पूरी दुनिया पर मनुष्यता एक खास भावबोध से बंधी हुयी है। यही वैश्विक अचेतन (कलेक्टिव अनकांशेसनेस) हम-सबके एक होने का कारण है। स्वामी विवेकानंद इसी बात को कहते थे कि इस अर्थ में भारत एक जड़ भौगोलिक इकाई नहीं है। बल्कि वह एक चेतन भौगोलिक इकाई है, जो सीमाओं और सैन्य बलों पर ही केंद्रित नहीं है। भारतीय राष्ट्रवाद मनुष्य के विस्तार व विकास पर केंद्रित है। जिसे भारत ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कहकर संबोधित किया। यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ राजनीतिक सत्ता का उच्चार नहीं है। उपनिषद् का उच्चार है। सारी दुनिया के लोग एक परिवार, एक कुटुम्ब के हैं, इसे समझना ही दरअसल भारतबोध को समझना है। यह भाव ही मनुष्य की सांस्कृतिक एकता के विस्तार का प्रतीक है। हमारे सांस्कृतिक मूल्य, मानवतावादी सांस्कृतिक मूल्यों पर केंद्रित हैं। हमारी भारतीय अवधारणा में राज्य निर्मित भौगोलिक-प्रशासनिक इकाईयां प्रमुख स्थान नहीं रखतीं बल्कि हमारी चेतना, संस्कृति, मूल्य आधारित जीवन और परंपराएं ही यहां हमें राष्ट्र बनाती हैं। हमारे सांस्कृतिक इतिहास की ओर देखें तो आर्यावर्त की सीमाएं कहां से कहां तक विस्तृत हैं, जबकि सच यह है कि इस पूरे भूगोल पर राज्य बहुत से थे, राजा अनेक थे- किंतु हमारा सांस्कृतिक अवचेतन हमें एक राष्ट्र का अनुभव करता था। एक ऐतिहासिक सत्य यह  भी यह है  कि हमारा राष्ट्रीयता दरअसल राज्य संचालित नहीं था, वह समाज और बौद्धिक चेतना से संपन्न संतों, ऋषियों द्वारा संचालित थी। एक विद्वान कहते हैं राजा राज्य बनाते हैं, राष्ट्र ऋषि बनाते हैं। वही भारतबोध इस व्यापक भूगोल की चेतना में समाया हुआ था। यहां का ज्ञान विस्तार जिस तरह चारों दिशाओं में हुआ,वह बात हैरत में डालती है।

    आप देखें तो भगवान बुद्ध पूरी दुनिया में अपने संदेश को यूं ही नहीं फैला पाए, बल्कि उस ज्ञान में एक ऐसा नवाचार,नवचेतन था, जिसे दुनिया ने स्वतः आगे बढ़कर ग्रहण किया। भारत कई मायनों में अध्यात्म और चेतना की भूमि है। सच कहें तो दुनिया की तमाम स्थितियों से भारत एक अलग स्थिति इसलिए पाता है, क्योंकि यह भूमि संतों के लिए, ज्ञानियों के लिए उर्वर भूमि है। दुनिया के तमाम विचारों की सांस्कृतिक चेतना जड़वादी है, जबकि भारत की चेतना जैविक है। इसलिए भारत मरता नहीं है, क्योंकि वह जड़वादी और हठवादी नहीं है। यहां का मनुष्य सांस्कृतिक एकता के लिए तो खड़ा होता है पर विचारों में जड़ता आते ही उससे अलग हो जाता है। हमारा ईश्वर आंतरिक उन्नयन और पाप क्षय के लिए काम करता है। हमारे संत भी आध्यात्मिक उन्नयन और पापों के क्षय के लिए काम करते हैं। मनुष्य की चेतना का आत्मिक विस्तार ही हमारी राष्ट्रीयता का लक्ष्य है। इसलिए यह सिर्फ एक खास भूगोल, एक खास विचारधारा और पूजा पध्दति में बंधे लोगों के उद्धार के लिए नहीं, बल्कि समूची मानवता की मुक्ति के काम करने वाला विचार है। यहां मानव की मुक्ति ही उसका लक्ष्य है। यह राष्ट्रीयता सैन्यबल और व्यापार बल से चालित नहीं है, बल्कि यह चेतना के विस्तार, उसके व्यापक भावबोध और मनुष्य मात्र की मुक्ति के विचार से अनुप्राणित है।

   भारतीय संदर्भ में भारतबोध को समझना वास्तव में मानवतावाद के व्यापक परिप्रेक्ष्य को समझना है। यह विचार कहता है- “ संतों को सीकरी से क्या काम” और फिर कहता है ‘’कोई नृप होय हमें क्या हानि”। इस मायने में हम राज या राज्य पर निर्भर रहने वाले समाज नहीं थे। राजा या राज्य एक व्यवस्था थी, किंतु जीवन मुक्त था-मूल्यों पर आधारित था। पूरी सांस्कृतिक परंपरा में समाज ज्यादा ताकतवर था और स्वाभिमान के साथ उदार मानवतावाद और एकात्म मानवदर्शन पर आधारित जीवन जीता था। वह चीजों को खंड-खंड करके देखने का अभ्यासी नहीं था। इसलिए इस राष्ट्रीयता में जो समाज बना, वह राजा केंद्रित नहीं, संस्कृति केंद्रित समाज था। जिसे अपने होने-जीने की शर्तें पता थीं, उसे उसके कर्तव्य ज्ञात थे। उसे राज्य की सीमाएं भी पता थीं और अपनी मुक्ति के मार्ग भी पता थे। इस समाज में गुणता की स्पर्धा थी- इसलिए वह एक सुखी और संपन्न समाज था। इस समाज में भी बाजार था, किंतु समाज- बाजार के मूल्यों पर आधारित नहीं था। आनंद की सरिता पूरे समाज में बहती थी और आध्यात्मिकता के मूल्य जीवन में रसपगे थे। भारतीय समाज जीवन अपनी सहिष्णुता के नाते समरसता के मूल्यों का पोषक है। इसीलिए तमाम धाराएं,विचार,वाद और पंथ इस देश की हवा-मिट्टी में आए और अपना पुर्नअविष्कार किया, नया रूप लिया और एकमेक हो गए। भारतीयता हमारे राष्ट्र का अनिवार्य तत्व है। भारतीयता के माने ही है स्वीकार। दूसरों को स्वीकार करना और उन्हें अपनों सा प्यार देना। यह राष्ट्रवाद विविधता को साधने वाला, बहुलता को आदर देने वाला और समाज को सुख देने वाला है। इसी नाते भारत का विचार आक्रामकता का, आक्रमण का, हिंसा या अधिनायकवाद का विचार नहीं है। यह श्रेष्ठता को आदर देने वाली,विद्वानों और त्यागी जनों को पूजने वाली संस्कृति है। अपने लोक तत्वों को आदर देना ही यहां भारतबोध है। इसलिए यहां भूगोल का विस्तार नहीं, मनों और दिलों को जीतने की संस्कृति जगह पाती है।

   यहां शांति है, सुख है, आनंद है और वैभव है। यह देकर, छोड़कर और त्याग कर मुक्त होती है। समेटना यहां ज्ञान को है। संपत्ति, जमीन और वैभव को नहीं। इसलिए फकीरी यहां आदर पाती है और सत्ताएं लांछन पाती हैं। इसलिए यहां लोकसत्ता का भी मानवतावादी होना जरूरी है। यहां सत्ता विचारों से, कार्यों से और आचरण से लोकमानस का विचार करती है तो ही सम्मानित होती है। वैसे भी भारतीय समाज एक सत्ता निरपेक्ष समाज है। वह सत्ताओं की परवाह न करने वाला स्वाभिमानी समाज है। इसलिए उसने जीवन की एक अलग शैली विकसित की है, जो उसके भारतबोध ने उसे दी है। यही स्वाभिमान एक नागरिक का भी है और राष्ट्र का भी। इसलिए वह अपने अध्यात्म के पास जाता है, अपने लोक के पास जाता है और सत्ता या राज्य के चमकीले स्वप्न उसे रास नहीं आते। इसी राष्ट्र तत्व को खोजते हुए राजपुत्र सत्ता को छोड़कर वनों, जंगलों में जाते रहे हैं, ज्ञान की खोज में,सत्य की खोज में, लोक के साथ सातत्य और संवाद के लिए। राम हों, कृष्ण हों, शिव हों, बुद्ध हों, महावीर हों- सब राजपुत्र हैं, संप्रुभ हैं और सब राज के साथ समाज को भी साधते हैं और अपनी सार्थकता साबित करते हैं। इसलिए हमारी राष्ट्रीयता की अलग कथा है, उसे पश्चिमी पैमानों से नापना गलत होगा। आज इस वक्त जब भारतीयता की अनाप-शनाप व्याख्या हो रही है, हमें ठहरकर सोचना होगा कि क्या सच में हममें अपने राष्ट्र की थोड़ी भी समझ बची है? 'भारत' को 'इंडिया' की आंखों से देखने से हमें वही दिखाई देगा ,जो सत्य से बहुत दूर होगा। आइए हम भारत की आंखों से ही भारत को देखने का अभ्यास करें।  

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान,(IIMC) नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं)

गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

विश्व शांति के लिए जरूरी है हिन्दुत्व : सुनील आंबेकर

डॉ. इन्दु‍शेखर तत्पुरुष की पुस्तक 'हिन्दुत्व: एक विमर्श' का विमोचन


नई दिल्ली, 26 दिसंबर। प्रख्यात कवि, आलोचक एवं संपादक डॉ. इन्दु‍शेखर तत्पुरुष की पुस्तक 'हिन्दुत्व: एक विमर्श' का विमोचन करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख श्री सुनील आंबेकर ने कहा कि विश्व शांति के लिए हिन्दुत्व बेहद जरूरी है। आधुनिक समय में हिन्दुत्व के नियमों को भूलने का परिणाम हम जीवन के हर क्षेत्र में महसूस करते हैं। इस अवसर पर भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी एवं पांचजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद डॉ. महेश चंद्र शर्मा ने की। संचालन दिल्ली विश्वविद्यालय में वरिष्ठ आचार्या प्रो. कुमुद शर्मा ने किया।

श्री आंबेकर ने कहा कि हिन्दुत्व का मूल तत्व एकत्व की अनुभूति है। वेदों में जिस एकत्व की बात कही गई है, उसे समाज जीवन में महसूस किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि इसी एकत्व भाव के कारण हम एक रहे और आगे बढ़ते रहे। अब हमें अपने लिए नए मार्ग तलाशने हैं और हिन्दुत्व के नियम इस दिशा में हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं।

श्री आंबेकर के अनुसार हिन्दुत्व के नियमों के अनुसार एक दूसरे की चिंता करना जरूरी है। हमारे बीच प्रतिस्पर्धा हो, लेकिन एक दूसरे को प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिस्पर्धा हो। उन्होंने कहा कि देश के सामान्यजनों तक हिन्दुत्व की समझ को पहुंचाना राष्ट्रीय कार्य है और हम सभी को मिलकर यह कार्य करना होगा।

भारतबोध का पर्याय है 'हिन्दुत्व: एक विमर्श' : प्रो. द्विवेदी

कार्यक्रम में अपने विचार व्यक्त करते हुए भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने कहा कि डॉ. इन्दु‍शेखर तत्पुरुष की पुस्तक 'हिन्दुत्व: एक विमर्श' भारतबोध का पर्याय है। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक के माध्यम से हिन्दुत्व को उजाला मिलेगा। डॉ. तत्पुरुष पुस्तक के माध्यम से एक सार्थक विमर्श हमारे सामने लेकर आए हैं, जिस पर चर्चा करना बेहद जरूरी है।

हिन्दुत्व के बिना दार्शनिक व्याख्या संभव नहीं : हितेश शंकर

पांचजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर ने कहा कि संसार की दार्शनिक व्याख्या हिन्दुत्व के बिना संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में पहले हिन्दुत्व, फिर भारत, भारतबोध और अंत में संस्कृति और स्वाधीनता की बात की गई है, जो आजादी के अमृतकाल में हम सभी के लिए मार्गदर्शक होगी। श्री शंकर ने पुस्तक को साहित्य से अकादमिक जगत की तरफ ले जाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया। 

एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद डॉ. महेश चंद्र शर्मा ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में  डॉ. इन्दु‍शेखर तत्पुरुष को पुस्तक के प्रकाशन के लिए बधाई दी। 

पुस्तक के बारे में जानकारी देते हुए डॉ. तत्पुरुष ने कहा कि पराधीन मानसिकता के कारण लोगों द्वारा हिन्दु‍त्व की मनमानी व्याख्या कर जो भ्रामक निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं, इस पुस्तक के माध्यम से उस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया गया है। उन्होंने कहा कि इसे लेकर दो मत हो सकते हैं कि हिन्दुत्व भारतीयता का पर्याय है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिन्दुत्व इसी देश और इसी मिट्टी की उपज है।

कार्यक्रम में बड़ी संख्या में पत्रकारों, लेखकों एवं साहित्यकारों ने हिस्सा लिया।




विचारों की घर वापसी है भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति : प्रो. संजय द्विवेदी

 

'राष्ट्र का एकत्व है अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का लक्ष्य'

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, ब्रज प्रांत के 63वें प्रांत अधिवेशन का आयोजन


कासगंज, 28 दिसंबर। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, ब्रज प्रांत के 63वें प्रांत अधिवेशन को संबोधित करते हुए भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने कहा कि भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति विचारों की घर वापसी है। बीते 24 महीनों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के हिसाब से कई परिवर्तनों की आधारशिला रखी गई है। उन्होंने कहा कि राष्ट्र निर्माण के महायज्ञ में शिक्षा नीति सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। इस अवसर पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रो. भूपेंद्र सिंह, प्रांत अध्यक्ष डॉ. अमित अग्रवाल, प्रांत मंत्री सुश्री गौरी दुबे, क्षेत्रीय संगठन मंत्री श्री मनोज नीखरा एवं प्रांत संगठन मंत्री श्री मनीष राय सहित बड़ी संख्या में विद्यार्थियों ने हिस्सा लिया।

अधिवेशन के मुख्य अतिथि के रूप में अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रो. द्विवेदी ने कहा कि शिक्षा परिसर से लेकर देश की सीमाओं तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कार्य कर रहा है। एबीवीपी अकेला ऐसा संगठन है, जो समाज के संकटों और राष्ट्र की चुनौतियों को अपना मानता है और उसका डटकर मुकाबला करता है। उन्होंने कहा कि राष्ट्र का एकत्व ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का लक्ष्य है। विद्यार्थियों को शिक्षा, संस्कार और स्वावलंबन प्रदान करने में एबीवीपी की महत्वपूर्ण भूमिका है।

आईआईएमसी के महानिदेशक के अनुसार आजादी के अमृतकाल में हमें अगले 25 वर्षों को स्वर्णिम काल में बदलना है। हमें एक ऐसा भारत बनाना है, जो अपनी जड़ों पर खड़ा हो और जिसकी सोच और अप्रोच नई हो। इस कार्य में विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। उन्होंने कहा कि ये सपने देखने का नहीं, बल्कि संकल्प पूरे करने का अमृतकाल है। इस महत्वपूर्ण समय में हमें भारत का भारत से परिचय कराने की जरुरत है।

प्रो. द्विवेदी के अनुसार आज ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, और सबका प्रयास’ देश का मूल मंत्र बन रहा है। आज हम एक ऐसी व्यवस्था बना रहे हैं, जिसमें भेदभाव की कोई जगह न हो, एक ऐसा समाज बना रहे हैं, जो समानता और सामाजिक न्याय की बुनियाद पर मजबूती से खड़ा हो और हम एक ऐसे भारत को उभरते देख रहे हैं, जिसके निर्णय प्रगतिशील हैं। उन्होंने कहा कि 26 हजार नए स्टार्टअप का खुलना दुनिया के किसी भी देश का सपना हो सकता है। ये सपना आज भारत में सच हुआ है, जिसके पीछे भारत के नौजवानों की शक्ति और उनके सपने हैं।

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि एवं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रो. भूपेंद्र सिंह ने कहा आजादी के 75 वर्षों के साथ विद्यार्थी परिषद के भी 75 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पास भारत माता की सेवा करने का सबसे पुराना अनुभव है। विश्व में कोई ऐसा संगठन नहीं है, जिसके पास युवाओं की इतनी बड़ी टीम हो। हमें अपनी इस शक्ति को नए भारत के निर्माण में लगाना है।   

प्रांत अध्यक्ष डॉ. अमित अग्रवाल ने कहा भारतीय संस्कृति, सभ्यता और मर्यादा की रक्षा करने की जिम्मेदारी युवाओं पर है। उन्होंने कहा कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद टुकड़े-टुकड़े गैंग को भारतवर्ष से बाहर करके रहेगा। इसके लिए संगठन को मजबूत करना और सदस्यता को बढ़ाना होगा, तभी ये कार्य संभव हो सकता है।

कार्यक्रम में स्वागत भाषण डॉ. सुरेंद्र गुप्ता ने एवं धन्यवाद ज्ञापन श्री सुनील वार्ष्णेय ने दिया।



रविवार, 20 दिसंबर 2020

मा.गो.वैद्यः उन्हें भूलना है मुश्किल

 

-प्रो.संजय द्विवेदी




मुझे पता है एक दिन सबको जाना होता है। किंतु बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिनके जाने से निजी और सार्वजनिक जीवन में जो शून्य बनता है, उसे भर पाना मुश्किल होता है। श्री मा.गो.वैद्य चिंतक, विचारक, पत्रकार, प्राध्यापक, विधान परिषद के पूर्व सदस्य और मां भारती के ऐसे साधक थे, जिनकी उपस्थिति मात्र यह बताने के लिए काफी थी कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। वे हैं तो सुनेंगें और जरूरत होने पर सुना भी देंगें। उनकी वाणी, कलम और कृति सब एकमेक थे। कहीं कोई द्वंद्व नहीं, कोई भ्रम नहीं।  

वे स्वभाव से शिक्षक थे, जीवन से स्वयंसेवक और वृत्ति(प्रोफेशन) से पत्रकार थे। लेकिन हर भूमिका में संपूर्ण। कहीं कोई अधूरापन और कच्चापन नहीं। सच कहने का साहस और सलीका दोनों उनके पास था। वे एक ऐसे संगठन के प्रथम प्रवक्ता बने जिसे बहुत मीडिया फ्रेंडली नहीं माना जाता। वे ही ऐसे थे जिन्होंने प्रथम सरसंघचालक से लेकर वर्तमान सरसंघचालक की कार्यविधि के अवलोकन का अवसर मिला। उनकी रगों में, उनकी सांसों में संघ था। उनके दो पुत्र भी प्रचारक हैं। जिनमें से एक श्री मनमोहन वैद्य संघ के सहसरकार्यवाह हैं। यानि वे एक परंपरा भी बनाते हैं, सातत्य भी और सोच भी। 11 मार्च,1923 को जन्मे श्री वैद्य ने 97 साल की आयु में नागपुर में आखिरी सांसें लीं। वे बहुत मेधावी छात्र थे,बाद के दिनों  में वे ईसाई मिशनरी की संस्था हिस्लाप कालेज, नागपुर में ही प्राध्यापक रहे।

प्रतिबद्धता थी पहचान

 उनके अनेक छात्र उन्हें आज भी याद करते हैं। वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रकाश दुबे ने अपने एक लेख में लिखा है-मेरी जानकारी के अनुसार श्री माधव गोविंद वैद्य यानी बाबूराव वैद्य से पहले संघ में प्रवक्ता का पद नहीं हुआ करता था। संघ की आत्मकेन्द्रित गतिविधियों को लेकर तरह तरह के कयास लगाया जाना अस्वाभाविक नहीं था। सरसंघचालक प्रवास के दौरान संवाद माध्यमों से यदा कदा बात करते। उनके कथन में शामिल वाक्यों और कई बार तो वाक्यांश के आधार पर विश्लेषण किया जाता। कपोल-कल्पित धारणाएं तैयार होतीं। श्री वैद्य मेरे गुरु रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नहीं। श्री वैद्य वर्षों तक संघ से जुड़े मराठी दैनिक तरुण भारत के संपादक थे। नागपुर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में फंडामेंटल्स आफ गुड राइटिंग अंगरेजी पढ़ाते थे। कक्षा में श्री वैद्य से जमकर विवाद होता। तीखा परंतु, शास्त्रार्थ की परिपाटी का। कहीं व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप नहीं। अपनी धारणा पर श्री वैद्य अटल रहते।  यह साधारण  नहीं था उनके निधन पर देश के प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति से लेकर सरसंघचालक ने गहरा दुख जताया। श्री भागवत और सरकार्यवाह भैयाजी जोशी ने अपने संयुक्त वक्तव्य में कहा कि उनके शरीर छोड़ने से हम सब संघ कार्यकर्ताओं ने अपना छायाछत्र खो दिया है।” 

विनोदी स्वभाव और विलक्षण वक्ता

  श्री वैद्य को मप्र सरकार ने अपने एक पुरस्कार से सम्मानित  किया। उस दिन सुबह भोपाल के एक लोकप्रिय दैनिक ने यह प्रकाशित  किया कि श्री वैद्य संघ के प्रचारक हैं और उन्हें पत्रकारिता का पुरस्कार दिया जा रहा है। वैद्य जी  ने  इस  समाचार पर अपनी प्रतिक्रिया बड़ी सहजता और विनोद भाव से कार्यक्रम  में प्रकट की, आयोजन में  मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान भी मंच पर थे। वैद्य जी  ने अपने संबोधन में  कहा कि भोपाल के एक प्रमुख दैनिक ने  लिखा है कि मैं प्रचारक  हूं, जबकि मैं प्रचारक नहीं हूं, बल्कि दो प्रचारकों का बाप हूं। उनके इस विनोदी टिप्पणी पर पूरा हाल खिलखिला  उठा। बाद में उन्होंने जोड़ा कि मेरे दो पुत्र प्रचारक हैं।  

मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनका सानिध्य अनेक बार मिला। उन्हें सुनना एक विरल अनुभव होता था। इस आयु में भी वे बिना किसी कागज या नोट्स के बहुत व्यवस्थित बातें  करते थे। उनके व्याख्यानों के विषय बेहद सधे हुए और एक -एक शब्द संतुलित होते थे। 19 नवंबर, 2015 को वर्धा के महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हबीब तनवीर सभागृह में उन्होंने पं. दीनदयाल उपाध्याय पर केंद्रित मेरे द्वारा संपादित पुस्तक भारतीयता का संचारक –दीनदयाल  उपाध्याय का लोकार्पण भी किया। यहां उन्होंने राष्ट्रवाद पर बेहद मौलिक व्याख्यान दिया और भारतीय राष्ट्रवाद और पश्चिमी राष्ट्रवाद को बिलकुल नए संदर्भों में व्याख्यायित किया।

  श्री वैद्य एक संपादक के रुप में बहुत प्रखर थे। उनकी लेखनी और संपादन प्रखरता का आलम यह था कि तरूण भारत मराठी भाषा का एक लोकप्रिय दैनिक बना। उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व  में अनेक पत्रकारों का निर्माण किया और पत्रकारों की एक पूरी मलिका खड़ी की। जीवन के अंतिम दिनों तक वे लिखते-पढ़ते रहे, उनकी स्मृति विलक्षण थी।

कुशल संपादक और पारखी नजर

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल ने उन्हें 2018 डी.लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित करने का निर्णय लिया। इस वर्ष श्री अमृतलाल वेगड़, श्री महेश श्रीवास्तव और श्री वैद्य को डी.लिट् की उपाधि मिलनी थी। माननीय उपराष्ट्रपति श्री वैकेंया नायडू दीक्षांत समारोह के लिए 16 मई,2018 को भोपाल पधारे। विश्वविद्यालय के कुलाध्यक्ष के नाते उन्होंने इन नामों की घोषणा की। अपने स्वास्थ्य के चलते श्री वैद्य आयोजन में नहीं आ सके। तत्कालीन कुलपति श्री जगदीश उपासने ने निर्णय लिया कि 23 मई,2018 को उनके उनके गृहनगर नागपुर में एक सारस्वत आयोजन कर श्री वैद्य को  यह उपाधि दी  जाए। उस अवसर पर कुलसचिव होने के नाते समारोह का संचालन मैंने किया। समारोह के बाद व्यक्तिगत भेंट में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 90 वर्ष पूरे होने पर मेरे द्वारा संपादित पुस्तक ध्येय पथकी प्रति उन्हें भेंट की। मुझे उनके स्वास्थ्य के नाते लग रहा था कि शायद  ही वे पुस्तक को देखें। किंतु 22 जुलाई,2018 को  उनका एक मेल  मुझे प्राप्त हुआ, जिसमें पुस्तक के बारे में उन्होंने लिखा कि कुछ त्रुटियां यत्र-तत्र हैं। उन्होंने लिखा-  

प्रिय प्रोसंजयजी द्विवेदी

सादर सस्नेह नमस्कार।

 मुझे मानद डिलिट्पदवी देने के अवसर पर आपने सम्पादित की ‘ध्येयपथ’ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नौ दशकयह पुस्तक भेंट की थी। उसको मैंने अथ से इति तक पूरा पढ़ा। किताब अच्छी है। कुछ त्रुटियाँ यत्र तत्र दिखी हैं। किन्तु सम्पूर्ण पुस्तक संघ के कार्य की विशेषताओं को प्रकट करती है।

जब त्रुटियाँ ध्यान में आयीतब मैंने उनको अंकित नहीं किया था। अतउनकी चर्चा मैं यहाँ नहीं करूंगा। केवल ‘संघ की प्रार्थना’ इस प्रकरण के सम्बन्ध में मुझे यह कहना है कि संघ की आज की प्रार्थना प्रथम बार 1940 में पुणे संघ शिक्षा वर्ग में गायी गयी थी। बाद में नागपुर में। क्योंकि पुणे का संघ शिक्षा वर्ग प्रथम शुरू हुआ और बाद में नागपुरका।

प्रार्थना का प्रथम गायनदोनों स्थानोंपर श्री यादवराव जोशी ने ही किया था। प्रार्थना का मराठी प्रारूप 1939 में सिन्दी में (नागपुरसे करीब 50 कि.मी.) बनाया गया था।

 उस बैठक में पपूडॉक्टरजीपूश्री गुरुजीमाननीय आप्पाजी जोशी (वर्धा जिला संघचालक), माननीय बालासाहब देवरस आदि ज्येष्ठ-श्रेष्ठ कार्यकर्ता उपस्थित थे। उसका संस्कृत श्रीनरहरि नारायण भिडेजी ने किया। वे प्राध्यापक नहीं थे। एक विद्यालय में शिक्षक थे।

 

अस्तु। शेष सब शुभ।

स्नेहांकित

मागोवैद्य

ऐसे साधक पत्रकार-संपादक की स्मृतियां अनंत हैं। एक याद जाती है तुरंत दूसरी आती  है। उन्हें याद करना एक ऐसे नायक को याद करना है, जिसके बिना हम पूरे नहीं  हो सकते। वे सही मायने में हमारे समय के साधक महापुरुष थे, जिन्होंने अपनी युवावस्था में जिस विचार को स्वीकारा अपनी सारी  गुणसंपदा उसे ही समर्पित कर दी। वे उन लोगों मे थे जिन्होंने पहले संघ को समझा और बाद में उसे गढ़ने में अपनी जिंदगी लगा दी। उनकी पावन स्मृति को शत्-शत् नमन।



शनिवार, 2 जनवरी 2016

कौन चाहता है बन जाए राममंदिर?

-संजय द्विवेदी

  राममंदिर के लिए फिर से अयोध्या में पत्थरों की ढलाई का काम शुरू हो गया है। नेताओं की बयानबाजियां शुरू हो गयी हैं। उप्र पुलिस भी अर्लट हो गयी है। कहा जा रहा है कि पत्थरों की यह ढलाई राममंदिर की दूसरी मंजिल के लिए हो रही है।
   राममंदिर के लिए चले लंबे संघर्ष की कथाएं आज भी आखों के सामने तैर जाती हैं। खासकर नवें दशक में एक प्रखर आंदोलन खड़ा करने वाले राममंदिर आंदोलन की त्रिमूर्ति रामचंद्र परमहंस, महंत अवैद्यनाथ और अशोक सिंहल तीनों इस दुनिया से विदा हो चुके हैं। ऐतिहासिक अयोध्या आंदोलन के तमाम नायकों ने समय से समझौता कर अपनी-अपनी राह पकड़ ली है। तब के बजरंगी विनय कटियार वाया भाजपा कई चुनाव हारकर अब राज्यसभा में हैं, तो उमाश्री भारती अपने पड़ोसी राज्य उप्र से दो चुनाव जीतकर (एक विधानसभा एक लोकसभा) अब केंद्र में मंत्री हैं। साध्वी ऋतंभरा ने वात्सल्य आश्रम के माध्यम से सेवा की नई राह चुन ली है। इसके अलावा राजनीति में इस आंदोलन के शिखर पुरूष रहे श्री लालकृष्ण आडवानी भी अब राजनीतिक बियाबान में ही हैं। कुल मिलाकर मंदिर आंदोलन के सारे योद्धा या निस्तेज हो गए हैं तो कई दुनिया छोड़ गए हैं। राममंदिर आंदोलन ने जिस तरह का जनज्वार खड़ा किया था उससे अशोक सिंहल, विनय कटियार, श्रीषचंद्र दीक्षित, दाउदयाल खन्ना, जयभान सिंह पवैया जैसे तमाम चेहरे अचानक खास बन गए थे। लगता था कि सारा जमाना उनके पीछे चल रहा है। अपने अनोखे प्रयोगों जैसे रामशिला पूजन, रामज्योति आदि से यह आंदोलन लोगों तक ही नहीं उत्तर भारत के गांव-गांव तक फैला। यह साधारण नहीं है, अयोध्या में गोली से मरे दो भाई कोठारी बंधु भी पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे।
    आंदोलन को खड़ा करने की सांगठनिक शक्ति से वास्तव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके संगठनों का कोई मुकाबला नहीं है। हिंदी पट्टी में जहां जाति ही सबसे बड़ी विचारधारा और संगठन है वहां हिंदू शक्ति को एकजुट कर खड़ा करना कठिन था, किंतु एक संगठन ने इसे कर दिखाया। इस समय ने अपने नायक चुने और समूचा हिंदू समाज राममंदिर के निर्माण की भावना के साथ खड़ा दिखाई दिया। इस आंदोलन से शक्ति लेकर ही भाजपा एक बड़ी पार्टी बनी और उसका भौगोलिक और सामाजिक विस्तार हुआ। अनेक जातियों में उसके नेता खड़े हुए। यह साधारण नहीं था कि राममंदिर आंदोलन के तमाम पोस्टर ब्वाय पिछड़े वर्ग से आते थे। जिसमें कल्याण सिंह, उमा भारती और विनय कटियार सबसे बड़े चेहरे थे। राजनीति की पाठशाला में तमाम नए नवेले चेहरे आए और राममंदिर आंदोलन के नाते बड़े नेता बन गए। उप्र में भाजपा को ऐतिहासिक विजय मिली, उसने अपने दम पर पहली बार पूर्ण बहुमत पाकर सरकार बनायी। यह घटना दिल्ली में भी दोहराई गयी और केंद्र में भी सरकार बनी। किंतु राममंदिर का क्या हुआ? तीन बार अटलजी की गठबंधन सरकार और एक बार नरेंद्र मोदी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार भी भाजपा बना चुकी है, लेकिन सरकार और संगठन का दृष्टिकोण हमेशा अलग-अलग रहा है। सत्ता में जाते ही नेताओं की जुबान बदल जाती है। वे सरकारी बोलने के अभ्यस्त हो जाते हैं। जबकि मंदिर विवाद अदालती से ज्यादा राजनीतिक समस्या है। किंतु यह अफसोसजनक है कि चंद्रशेखर के अलावा किसी भी प्रधानमंत्री ने इस विवाद को संवाद से हल कराने की गंभीर कोशिश नहीं की। चंद्रशेखर जी सिर्फ बहुत कम समय सत्ता में रहे, इसलिए विवाद के हल होने की संभावना भी खत्म हो गयी। आज भी सत्ता के शिखरों पर बैठे लोग इस मंदिर आंदोलन से शक्ति पाकर ही आगे बढ़े हैं किंतु समस्या के समाधान के लिए उनकी कोशिशें नहीं दिखतीं।
    राममंदिर को एक नारे की तरह इस्तेमाल करना और फिर चुप बैठ जाना बार-बार आजमाया गया फार्मूला है। होना तो यह चाहिए या तो अदालत या फिर संवाद दो में से किसी एक रास्ते का अनुसरण हो। हमारे राजनीतिक दलों और राजनेताओं में वह इकबाल नहीं कि वे समस्या के समाधान के लिए संवाद का धरातल बन सकें, वे हर चीज के लिए अदालतों पर निर्भर हैं। सो इस मामले में भी अदालत ही आखिरी फैसला करेगी। सरकारों के बस का तो यह है ही नहीं। इसलिए बेहतर होगा कि संघ परिवार और भाजपा अपने काडर को साफ तौर पर यह संदेश दे कि राममंदिर को लेकर बेवजह की बयानबाजियां रोकी जाएं। बार-बार हिंदू जनमानस से छल करने के ये प्रयास, उनकी हवा खराब कर रहे हैं। जितना बड़ा जनांदोलन 90 के दशक में खड़ा हुआ, अब हो नहीं सकता। इसलिए जनांदोलन की भाषा बोलने के बजाए, समाधान पर जोर दिया जाना चाहिए। अब जबकि यह साफ है कि राममंदिर के मुद्दे पर राजनीतिक दलों और राजनेताओं की सीमाएं स्पष्ट हो चुकी हैं तब इस मामले पर माहौल बिगाड़ने की कोशिशें रोकी जानी चाहिए। आज की तारीख में हमारे सामने अदालत से फैसला लाना ही एकमात्र विकल्प है। हाईकोर्ट इस विषय में फैसला दे चुकी है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना शेष है। इसके बावजूद तमाम लोग जिनकी राजनीति राममंदिर के बिना पूरी नहीं होती, इस मुद्दे पर बयान देने से बाज नहीं आते। दोनों तरफ ऐसी राजनीतिक शक्तियां हैं जो इस मामले को जिंदा रखना चाहती हैं। छह दिसंबर को जिस तरह का वातावरण बनाने की कोशिशें होती हैं वह बताती हैं कि राममंदिर की फिक्र दरअसल किसी को नहीं हैं। यह गजब है कि अयोध्या में अपनी जन्मभूमि पर भी इस देश के राष्ट्रपुरूष भगवान श्रीराम का मंदिर बनाने पर विवाद है। जो आजादी के वक्त सोमनाथ में हो सकता है, वह अयोध्या में क्यों नहीं? क्या हम पहले से कम राष्ट्रीय हो गए हैं? अयोध्या में राममंदिर का विवाद दरअसल इस देश की हिंदू-मुस्लिम समस्या का एक जीवंत प्रमाण है। किस प्रकार एक आक्रांता ने एक हिंदू मंदिर को तोड़कर वहां एक ढांचा खड़ा कर दिया था। आज इतने समय बाद भी हम उन यादों को भुला कहां पाए हैं। इतिहास को विकृत करने वाली विरासतों से रिश्ता जोड़ना कहां से भाईचारे की बुनियाद को मजबूत कर सकता है? खुद इकबाल लिखते हैं-
है राम के वजूद पर हिंदोस्तां को नाज
अहले नजर समझते हैं उनको इमामे-हिंद।
  ऐसी सांझी विरासतों को जब मजबूत करने की जरूरत है तो भी राममंदिर न बनने देने के पक्ष में खड़ी ताकतों को भी यह लोकतंत्र अवसर देता है। आप इसे लोकतंत्र का सौंदर्य कह सकते हैं, किंतु यह एक राष्ट्रपुरूष, राष्ट्र की प्रज्ञा और राष्ट्र की अस्मिता का अपमान है। भगवान श्रीराम इस देश के 80 प्रतिशत नागरिकों के लिए राष्ट्रपुरूष और धीरोदात्त नायक हैं। वे जन-मन की आस्था के केंद्र हैं। भारत में बसने वाला शेष समाज प्रभु राम के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए इस स्थान को हिंदू समाज की भावनाओं के मद्देनजर सौंप देता तो कितनी सुंदर राष्ट्रीय भावना का संचार होता। राजनीति के खिलाड़ियों ने इस सद्भावना के बीज को पनपने ही नहीं दिया और अपने-अपने राजनीतिक खेल के लिए लोगों का इस्तेमाल किया। सही मायने में जब कांग्रेस नेता और उप्र सरकार में मंत्री रहे दाऊदयाल खन्ना ने आठवें दशक के अंत में राममंदिर का मामला उठाया था तब यह विषय एक स्थानीय सवाल था, आज यह मुद्दा अपने विशाल स्वरूप से फिर बहुत छोटे रूप में जिंदा है। इस आंदोलन के ज्यादातर नायक कालबाह्य हो चुके हैं। बावजूद इसके 1990 से आज 2015 के अंतिम समय में भी इसके समाधान के लिए शांतिप्रिय आवाजें आगे नहीं आईं। सबको पता है कि वहां अब कभी बाबरी ढांचा या कोई अन्य स्मारक नहीं बन सकता,लेकिन रामलला तिरपाल और टीनशेड में उत्तर प्रदेश की शीत लहर झेल रहे हैं। राममंदिर आंदोलन के समर्थक और विरोधी दोनों प्रकार के राजनीतिक दल जनता का इस्तेमाल कर सत्ता पा चुके हैं। राजभोग जारी है, इसलिए आ रहे साल 2016 की देहरी पर खड़े होकर यह पूछने का मन हो रहा है कि आखिर राममंदिर की चिंता किसे है?

शनिवार, 30 मई 2015

आप क्यों चाहते हैं कि विरोधी भी करें मोदी-मोदी!

भाजपा सरकार को राजनीतिक विरोधियों की आलोचना से घबराने की जरूरत नहीं
-संजय द्विवेदी

   भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार इन दिनों इस बात के लिए काफी दबाव में है कि उसके अच्छे कामों के बावजूद उसकी आलोचना या विरोध ज्यादा हो रहा है। भाजपा मंत्रियों और संगठन के नेताओं के इन दिनों काफी इंटरव्यू देखने को मिले जिनमें उन्हें लगता है कि मीडिया उनके प्रतिपक्ष की भूमिका में है। खुद सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरूण जेटली ने कहा कि मीडिया एजेंडा सेट कर रहा है। इसी तरह पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की नाराजगी भी मीडिया से नजर आती है। उनसे एक एंकर ने पूछा कि कभी ऐसा लगा कि कुछ गलत हो गया, तो वे बोले कि तभी ऐसा लगता है जब आप लोगों को नहीं समझा पाते। जाहिर तौर पर दिल्ली की नई सरकार मीडिया से कुछ ज्यादा उदारता की उम्मीद कर रही है। जबकि यह आशा सिरे से गलत है।
सारे सर्वेक्षण यह बता रहे हैं कि मोदी आज भी सबसे लोकप्रिय नेता हैं, उनकी लोकप्रियता के समकक्ष भी कोई नहीं है और जनता की उम्मीदें अभी भी उनसे टूटी नहीं है। समस्या यह है कि भाजपा नेता उन लोगों से अपने पक्ष में सकारात्मक संवाद की उम्मीद कर रहे हैं जो परंपरागत रूप से भाजपा और उसकी राजनीति के विरोधी हैं। वे मोदी विरोधी भी हैं, भाजपा और संघ के विरोधी भी हैं। वे आलोचक नहीं हैं, वे स्थितियों को तटस्थ व्याख्याकार नहीं हैं। उनका एक पक्ष है उससे वे कभी टस से मस नहीं हुए। ऐसे आग्रही विचारकों की निंदा या विरोध को भाजपा को बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं हैं। आज के टीवी दर्शक और अखबारों के पाठक बहुत समझदार हैं। वे इन आलोचनाओं के मंतव्य भी समझते हैं। टीवी पर भी रोज जो ड्रामा रचा जाता है बहस के नाम पर वह भी दर्शकों के लिए एक लीला ही है। पार्टियों के प्रवक्ताओं को छोड़ दें तो शेष राजनीतिक विश्लेषक या बुद्धिजीवी जो टीवी पर बैठकर हिंदुस्तान का मन बताते हैं उनके चेहरे देखकर कोई भी टीवी दर्शक यह जान जाता है कि वे क्या कहेंगें। इसी तरह नाम पढकर पाठक उनके लेख का निष्कर्ष समझ जाता है। वे वही लोग हैं जो चुनाव के पूर्व यह मानने को तैयार नहीं थे कि मोदी की कोई लहर है और भाजपा कभी सत्ता में भी आ सकती है। वे देश की दुदर्शा के दौर में भी यूपीए-तीन का इंतजार कर रहे थे। भाजपा उनके तमाम विश्वेषणों और लेखमालाओं व किंतु-परंतु के बाद भी चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल कर लेती है। उसके बाद ये सारे लोग यह बताने में लग गए कि भाजपा को देश में सिर्फ 31 प्रतिशत वोट मिले हैं और मोदी को मिला समर्थन अधूरा है क्योंकि 69 प्रतिशत वोट उनके विरूद्ध गिरे हैं।
   भाजपा की दुविधा यह है कि वह इस कथित बुद्धिजीवी वर्ग से सहानुभूति पाना चाहती है। आखिर यह क्यों जरूरी है। जबकि सच तो यह है यह वर्ग आज भी नरेंद्र मोदी को दिल से प्रधानमंत्री स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उन्हें इस जनादेश का लिहाज और उसके प्रति आस्था नहीं है। जनमत को वे नहीं मानते क्योंकि वे बुद्धिजीवी हैं। उनके मन का न हो तो सामने खड़े सत्य को भी झूठ करने की विधियां जानते हैं। ऐसे लोगों की सदाशयता आखिर भाजपा को क्यों चाहिए? आप देखें तो वे भाजपा के हर कदम के आलोचक हैं। कश्मीर का सवाल देखें। जिन्हें गिलानी और अतिवादियों के साथ मंच पर बैठने में संकोच नहीं वे आज वहां फहराए जा रहे पाकिस्तानी झंडों पीडित हैं। अगर कश्मीर में कांग्रेस या नेशनल कांफ्रेस के साथ पीडीपी सरकार बनाती तो सेकुलर गिरोह को समस्या नहीं थी। किंतु भाजपा ने ऐसा किया तो उन्हें डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की याद आने लगी। वे लिखने लगे कि 370 का क्या होगा? भाजपा अपने वादे से हट रही है। भाजपा अपने वादे से हटकर आपके स्टैंड पर आती है तो आप उसके विरोध में क्यों हैं? ऐसे जाने कितने विवाद रोज बनाए और खड़े किए जाते हैं। सरकार के अच्छे कामों पर एक शब्द नहीं। किसी साध्वी के बयान पर हंगामा। राजनीति का यह दौर भी अजब है। जहां प्रधानमंत्री की सफलता भी एक बड़े वर्ग को दुखी कर रही है। उनके द्वारा विदेशों में जाकर किए जा सफल अनुबंधों और संपर्कों पर भी स्यापा व्याप्त है। यह सूचनाएं बताती हैं कि मोदी को आज भी दिल्ली वालों ने स्वीकार नहीं किया है। यह सोचना गजब है कि जब आडवानी जी का भाजपा संगठन पर खासा प्रभाव था तो इस सेकुलर खेमे के लिए अटल जी हीरो थे। जब मोदी आए तो उन्हें आडवानी जी की उपेक्षा खलने लगी। आज भाजपा के सफल पीढ़ीगत परिवर्तन को भी निशाना बनाया जा रहा है। मोदी के नेतृत्व में मिली असाधारण सफलताओं का भी छिद्रान्वेषण किया जा रहा है। यह कितना विचित्र है कि मोदी का वस्त्र चयन भी चर्चा का मुद्दा है। उनकी देहभाषा भी आलोचना के केंद्र में है। एक कद्दावर नेता को किस तरह डिक्टेटर साबित करने की कोशिशें हो रही हैं इसे देखना रोचक है।

   ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि भाजपा और उसके समविचारी संगठनों को आलोचकों को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए। क्योंकि वे आलोचक नहीं है बल्कि भाजपा और संघ परिवार के वैचारिक विरोधी हैं। इसीलिए मोदी जैसे कद्दावर नेता के विरूद्ध कभी वे अरविंद केजरीवाल को मसीहा साबित करने लगते हैं तो कभी राहुल गांधी को मसीहा बना देते हैं। उन्हें मोदी छोड़ कोई भी चलेगा। जनता में मोदी कुछ भी हासिल कर लें, अपने इन निंदकों की सदाशयता मोदी को कभी नहीं मिल सकती। इसलिए मीडिया में उपस्थित इन वैचारिक विरोधियों का सामना विचारों के माध्यम से भी करना चाहिए। इनकी सद्भावना हासिल करने का कोई भी प्रयास भाजपा को हास्य का ही पात्र बनाएगा। क्योंकि एक लोकतंत्र में रहते हुए विरोध का अपना महत्व है। आलोचना का भी महत्व है। इसलिए इन प्रायोजित और तय आलोचनाओं से अलग मोदी और उनके शुभचिंतकों को यह पहचानने की जरूरत है कि इनमें कौन आलोचक हैं और कौन विरोधी। आलोचकों की आलोचना को सुना जाना चाहिए और उनके सुझावों का स्वागत होना चाहिए,जबकि विरोधियों को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए और यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए आपके राजनीतिक-वैचारिक विरोधी भी देश की बेहतरी के लिए मोदी-मोदी करने लगेंगें। यह काम अपने समर्थकों से ही करवाइए, विरोधियों को उनके दुख के साथ अकेला छोड दीजिए। अपनी चिंताओं के केंद्र में सिर्फ सुशासन,विकास और भ्रष्टाचार को रखिए, आखिरी आदमी की पीड़ा को रखिए। क्योंकि अगर देश के लोग आपके साथ हैं, तो राजनीतिक विरोधियों को मौका नहीं मिलेगा। इसलिए विचलित होकर प्रतिक्रियाओं में समय नष्ट करने के बजाए निरंतर संवाद और राष्ट्र सर्वोपरि का भाव ही मोदी सरकार का एकमात्र मंत्र होना चाहिए।

शनिवार, 16 मई 2015

रिटेल एफडीआई पर केंद्र सरकार के यू-टर्न के मायने क्या हैं

                          -संजय द्विवेदी


   भारतीय जनता पार्टी की मोदी सरकार ने खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत एफडीआई के पूर्ववर्ती सरकार के निर्णय को जारी रखने का फैसला किया है। कभी इसी भाजपा ने 8 दिन संसद रोककर, हर राज्य की राजधानी में बड़ा प्रदर्शन आयोजित कर यह कहा था कि वह सत्ता में आई तो तुरंत रिटेल सेक्टर में एफडीआई का फैसला वापस ले लेगी। भाजपा के चुनाव घोषणापत्र और चुनावी जुमलों में यह नारेबाजी जारी रही। 20 सिंतबर,2012 को 48 छोटी-बड़ी पार्टियों के साथ भारत बंद का आयोजन कर भाजपा ने इस नीति का विरोध किया था और एक मंच पर भाजपा-कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट सब साथ आए थे।
   आखिर अपने एक साल पूरे करने जा रही भाजपा सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि उसने रिटेल एफडीआई को जारी रखने का फैसला किया है? यह समझना मुश्किल है कि क्या उस समय अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, आडवानीजी ने जो कुछ कहा था वह सच था या आज जब वे सत्ता में होते हुए इसे आगे बढ़ा रहे हैं। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात के खिलाफ थे। भाजपा पर भरोसा कर उसे वोट देने वाले इन फैसलों से ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं। वैसे भी यह कानून नहीं है, एक नीति है जो एक कैबिनेट के फैसले से रद्द हो सकती है। इसके लिए राज्यसभाई बहुमत की जरूरत नहीं है। सरकार चाहती तो इसे एक पल में रद्द कर सकती थी। रिटेल में एफडीआई का सवाल वैसे भी राज्य की सूची में है। उस समय 11 राज्यों ने इसे स्वीकार किया था और भाजपा शासित राज्यों ने इसे स्वीकारने से मना किया था। भूमि अधिग्रहण कानून को अलोकप्रियता सहकर भी बदलने के लिए आतुर मोदी सरकार आखिर रिटेल एफडीआई के फैसले को रद्द करने से क्यों बच रही है, यह एक बड़ा सवाल है। क्या जब वे 8 दिन लोकसभा रोककर और भारत बंद में शामिल होकर देश का करोडों का आर्थिक नुकसान कर रहे थे, तब उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि वे सत्ता में आएगें? आज जब पालिसी का मूल्यांकन करने का समय था तो उसने मनमोहन सरकार की नीति  को जस का तस स्वीकार किया है। सैद्धांतिक रूप से चीजों का विरोध करना और व्यावहारिक तरीके से उसे स्वीकारना साफ तौर पर दोहरी राजनीति है, जिसे सराहा नहीं जा सकता।  7 मार्च,2013 को रामलीला मैदान की रैली में आज के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने यह घोषणा की थी कि वे सत्ता में आते ही इस जनविरोधी नीति को वापस लेंगे। कहा जा रहा है कि सरकार इस नीति को इसलिए वापस नहीं ले सकती कि इससे विदेशों में, निवेशकों में गलत संदेश जाएगा? दूसरी ओर प्रवक्ता यह भी कह रहे ,हैं हमने किसी को साल भर में रिटेल में एफडीआई के लिए अनुमति नहीं दी है। यह कहां का मजाक है ?अगर आप अनुमति नहीं दे रहे हैं, तो इस नीति का लाभ क्या है। सही तो यह है कि सरकार पहले भारत के आम लोगों के बीच अपनी छवि की चिंता करे न कि निवेशकों और वैश्विक छवि की। आम जनता का भरोसा खोकर सरकार दुनिया में अपनी छवि चमका भी ले जाती है तो उसका फायदा क्या है?
    हालात यह हैं तमाम राज्यों में होलसेल का लाइसेंस लेकर विदेश कंपनियां रिटेल सेक्टर में फुटकर कारोबार कर रही हैं और लोगों से झूठ बोला जा रहा है। क्या देश की जनता के प्रश्न और सरकार के हित अलग-अलग हैं? पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने जिस छल के साथ बिना चर्चा किए फिर इस नीति को लागू किया, क्या इस व्यवस्था को जनतंत्र कहना उचित होगा? जनभावनाएं खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के खिलाफ हैं, तमाम राजनीतिक दल इसके विरोध में हैं किंतु सरकार तयशुदा राह पर चल रही है। शायद इसीलिए राजनीतिक दलों की नैतिकता और ईमानदारी पर सवाल उठते हैं। क्योंकि आज के राजनीतिक दल अपने मुद्दों के प्रति भी ईमानदार नहीं रहे। खुदरा क्षेत्र में एफडीआई का सवाल जिससे 5 करोड़ लोगों की रोजी-रोटी जाने का संकट है, हमारी राजनीति में एक सामान्य सा सवाल है। भाजपा ने कांग्रेस के इस कदम का विरोध करते हुए राजनीतिक लाभ तो ले लिया और आज वह खुद उसी रास्ते पर बढ़ रही है।
    याद कीजिए कि आज के राष्ट्रपति और पूर्ववर्ती सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी दिनांक सात दिसंबर, 2011 को संसद में यह आश्वासन देते हैं कि आम सहमति और संवाद के बिना खुदरा क्षेत्र में एफडीआई नहीं लाएंगें। किंतु मनमोहन सरकार अपना वचन भूल गई और चोर दरवाजे से जब संसद भी नहीं चल रही है, खुदरा एफडीआई को देश पर थोप दिया गया। आखिर क्या हमारा लोकतंत्र बेमानी हो गया है? जहां राजनीतिक दलों की सहमति, जनमत का कोई मायने नहीं है। क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि राजनीतिक दलों का विरोध सिर्फ दिखावा है ?
    आप देखें तो राजनीति और अर्थनीति अरसे से अलग-अलग चल रहे हैं। यानि हमारी राजनीति तो देश के भीतर चल रही है किंतु अर्थनीति को चलाने वाले लोग कहीं और बैठकर हमें नियंत्रित कर रहे हैं। यही कारण है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में अर्थनीति पर दिखावटी मतभेदों को छोड़ दें तो आम सहमति बन चुकी है। रास्ता वही अपनाया जा रहा है जो नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकार ने दिखाया था। उसके बाद आयी तीसरा मोर्चा की सरकारें हो या स्वदेशी की पैरोकार भाजपा की सरकार सबने वही किया जो मनमोहन टीम चाहती है। ऐसे में यह कहना कठिन है कि हम विदेशी राष्ट्रों के दबावों, खासकर अमरीका और कारपोरेट घरानों के प्रभाव से मुक्त होकर अपने फैसले ले पा रहे हैं। अपनी कमजोर सरकारों को गंवानें की हद तक जाकर भी हमारी राजनीति अमरीका और कारपोरेट्स की मिजाजपुर्सी में लगी रही। यह सारा कुछ हम देख चुके हैं। पश्चिमी और अमरीकी मीडिया जिस तरह अपने हितों के लिए सर्तक और एकजुट है, क्या हमारा मीडिया भी उतना ही राष्ट्रीय हितों के लिए सक्रिय और ईमानदार है?
    हम देखें तो 1991 की नरसिंह राव की सरकार जिसके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे ने नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की शुरूआत की। तब राज्यों ने भी इन सुधारों को उत्साहपूर्वक अपनाया। लेकिन जनता के गले ये बातें नहीं उतरीं यानि जन राजनीति का इन कदमों को समर्थन नहीं मिला, सुधारों के चैंपियन आगामी चुनावों में खेत रहे और संयुक्त मोर्चा की सरकार सत्ता में आती है। गजब यह है कि संयुक्त मोर्चा सरकार और उसके वित्तमंत्री पी. चिदंबरम् भी वही करते हैं जो पिछली सरकार कर रही थी। वे भी सत्ता से बाहर हो जाते हैं। फिर अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ता में आती है। उसने तो गजब ढाया। प्रिंट मीडिया में निवेश की अनुमति, केंद्र में पहली बार विनिवेश मंत्रालय की स्थापना की और जोर-शोर से यह उदारीकरण का रथ बढ़ता चला गया। यही कारण था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक स्व.दत्तोपंत ढेंगड़ी ने तत्कालीन भाजपाई वित्तमंत्री को अनर्थमंत्री तक कह दिया। संघ और भाजपा के द्वंद इस दौर में साफ नजर आए। सरकारी कंपनियां धड़ल्ले से बेची गयीं और मनमोहनी एजेंडा इस सरकार का भी मूलमंत्र रहा। अंततः इंडिया शायनिंग की हवा-हवाई नारेबाजियों के बीच भाजपा की सरकार भी विदा हो गयी। सरकारें बदलती गयीं किंतु हमारी अर्थनीति पर अमरीकी और कारपोरेट प्रभाव कायम रहे। सरकारें बदलने का नीतियों पर असर नहीं दिखा। फिर कांग्रेस लौटती है और देश के दुर्भाग्य से उन्हीं डा. मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह, चिदम्बरम् जैसों के हाथ देश की कमान आ जाती है जो देश की अर्थनीति को किन्हीं और के इशारों पर बनाते और चलाते थे। ऐसे में यह कहना उचित नहीं है कि जनता ने प्रतिरोध नहीं किया। जनता ने हर सरकार को उलट कर एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की, किंतु हमारी राजनीति पर इसका कोई असर नहीं हुआ।
    एक बार फिर लोगों ने नरेंद्र मोदी की सरकार को चुनकर उन्हें भारत के स्वाभिमान को विश्वमंच पर स्थापित करने की कमान दी है। नरेंद्र मोदी जैसा कद्दावर और मजबूत नेता अगर घुटने टेकता दिखेगा तो देश किस पर भरोसा करे?रिटेल एफडीआई का सवाल बहुत छोटा सवाल हो सकता है किंतु वह इतना बताने के लिए पर्याप्त है कि हमारे राजनीतिक दल गहरे द्वंद और मुद्दों पर दिशाहीनता के शिकार हैं। बाजार की आंधी में उनके पैर उखड़ रहे हैं। वे विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों पर खासे भ्रमित हैं। यहां तक कि सरकारों को अपनी छवि की भी परवाह नहीं है। प्रधानमंत्री अगर सत्ता संभालते हुए अपनी सरकार गरीबों को समर्पित करते हैं और साल भर में सरकार की छवि कारपोरेट समर्थक, गरीब और मध्यम वर्ग विरोधी के रूप में स्थापित हो जाए, तो उन्हें सोचना जरूर चाहिए। एफडीआई रिटेल पर भाजपा सरकार के नए रवैये पर स्वदेशी जागरण मंच, मजदूर संघ, अखिलभारतीय ग्राहक पंचायत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की धारा के मित्र क्या सोच रहे हैं, इसे जानने में लोगों की रूचि जरूर है। उम्मीद है कि वे भी सरकार के इस फैसले के साथ तो नहीं ही होगें।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)


   

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

सांप्रदायिकता से कौन लड़ना चाहता है?

यह सवाल आज फिर मौजूं हो उठा है कि आखिर सांप्रदायिकता से कौन लड़ना चाहता है? देश के तमाम इलाकों में घट रही घटनाएं बताती हैं कि समाज में नैतिकता और समझदारी के बीज अभी और बोने हैं। हिंसा कर रहे समूह, या हिंसक विचारों को फैला रहे गुट आखिर यह हिंसा किसके खिलाफ कर रहे हैं? वे किसके खिलाफ लड़ रहे हैं? मानवता के मूल्यों और धार्मिकता को भूलने से ही ऐसे मामले खड़े होते हैं। कभी देश की राजनीति को दिशा देने वाले उत्तर प्रदेश ने अपना चेहरा इस मामले में सबसे अधिक बदरंग किया है। 
उत्तर प्रदेश में आए दिन हो रही हिंसक वारदातें बता रही हैं कि लोगों में कानून का, प्रशासन का खौफ नहीं रह गया है। दुर्भाग्य यह कि राजसत्ता ही इन वृत्तियों को बढ़ाने में सहायक बन रही है। राजसत्ता का यह चरित्र बताता है कि कैसे समय बदला है और कैसे राजनीति बदल रही है। एक चुनाव से दूसरा चुनाव और एक उपचुनाव से दूसरा उपचुनाव यही आज की राजनीति के लक्ष्य और संधान हैं। इसमें जनता की गोलबंदी जनता के एजेंडे पर नहीं, उसके विरूद्ध की जा रही है। जनता को यह नहीं बताया जा रहा है कि आखिर उसके सपनों की दुनिया कैसे बनेगी, कैसे भारत को एक समर्थ देश के रूप में तब्दील किया जा सकता है? उसे पंथ के नारों पर भड़काकर, उसके धर्म से विलग किया जा रहा है। यह वोट बैंक बनाने की राजनीति इस राष्ट्र की सबसे बड़ी शत्रु है।
बांटो और राज करोः
  अंग्रेजी राज ने हमें कुछ सिखाया हो या न सिखाया हो, बांटना जरूर सिखा दिया है। ‘एक राष्ट्र और एक जन’ के भाव से विलग हम एक राष्ट्र में कितने राष्ट्र बनाना चाहते हैं? देश की आम जनता के मनोभावों को विकृत कर हम उनमें विभेद क्यों भरना चाहते हैं? क्या हमारी कुर्सियों की कीमत इस देश की एकता से बड़ी है? क्या हमारी राजनीति लोगों के लिए नहीं, कुर्सियों के लिए होगी? ऐसे तमाम सवाल हैं जो हमारे समाज को मथ रहे हैं। हम एक परिवार और एक माता के पुत्र हैं, यही भावना हमें बचा सकती है। 
हम भारत के लोग अपनी एकता और अखंडता के लिए जब तक कृतसंकल्पित हैं, तभी तक यह देश सुरक्षित है। यह कैसा समय है कि हमारे नौजवान खून बहाते ईराकी लड़ाकों की मदद के लिए निकल जाते हैं? क्या हमारी मातृभूमि अब खून बहाने वाले हत्यारों को जन्म देगी? हमें सोचना होगा कि आखिर यह जूनुन हमारे समाज को कहां ले जाएगा? गौतम बुद्ध,गांधी और महावीर के देश में यह कैसा जहर पल रहा है। हमने दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाया है। अपने भारतीय दर्शन में सबके लिए जगह दी है। विरोधी विचारों को भी स्वीकारा और अंगीकार किया है। आखिर क्या कारण है कि यह आतंक, हिंसा और तमाम तरह की दुश्चितांएं हमारे देश को ग्रहण लगा रही हैं?
एक राष्ट्र-एक जन का भाव जगाएः
 हमारी आज की राजनीति भले फूट डालने वाली हो, किंतु हमारे नायक हमें जोड़ना सिखाते हैं। महात्मा गांधी, डा. राममनोहर लोहिया से लेकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सिखाए पाठ हमें बताते हैं कि किस तरह हम एक मां के पुत्र हैं। किस रास्ते से हम दुनिया के सामने एक वैकल्पिक और शांतिपूर्ण समाज का दर्शन दे सकते हैं। हमें ये नायक बताते हैं कि हमारी जड़ों और उसकी पहचान से ही हमें यह अवसर मिलेगा कि हम कैसे खुद को एक नई यात्रा पर डाल सकें। दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवदर्शन, इसी की बात करता है। वे भारत राष्ट्र की संकल्पना करते हुए ‘एक राष्ट्र -एक जन’ की बात करते हैं। यह बहुत गहरी बात है। जब हम सब एक मां के बेटे हैं, एक मां के पुत्र हैं। तो हम सब भाई-बहन हैं। हमारे पुरखे, हमारे नायक, हमारी आकांक्षाएं, हमारे सपने समान हैं। अगर हम यह मान लें तो सांप्रदायिकता की समस्या का अंत तुरंत हो जाएगा। किंतु सांप्रदायिक सवालों पर हम चयनित दृष्टिकोण अपनाते हैं। हमें यह मानने में आज भी हिचक है कि सांप्रदायिकता-सांप्रदायिकता है, उसका रंग अलग-अलग नहीं होता। सांप्रदायिकता मुस्लिम हो या हिंदू, वह सांप्रदायिकता है। दंगाईयों को अलग-अलग रंगों से देखने और व्यवहार करने के कारण सत्ता और राजनीति दोनों प्रश्नांकित होते हैं। 
कानून को अगर अपना काम करने दिया जाए और सांप्रदायिकता फैला रहे तत्वों के साथ कड़ाई से निपटा जाए तो ऐसे घटनाएं रोकी जा सकती हैं। इसके साथ ही हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में यह बात भी जोड़ने की जरूरत है जिससे राष्ट्रवाद और भारतीयता के विचारों को बल मिले। सांप्रदायिकता की भावना को प्रचारित करने और युवाओं का गलत इस्तेमाल करने वाली ताकतों को कड़ाई से कुचल दिया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय संकट पर ही नहीं सामान्य दिनों में भी बनें राष्ट्रवादीः
 भारत का संकट यह है कि हम संकट के दिनों में ही राष्ट्रवादी बनते हुए दिखते हैं। जैसे इस समय कश्मीर गहरे संकट में है, तो पूरा देश उस पीड़ा को महसूस करते हुए उसके दर्द में साथ खड़ा है। यही राष्ट्रीय भावना है, कि देश के किसी भी हिस्से में भारत मां के पुत्र दुखी हैं तो वह दुख हमें भी अनुभव होना चाहिए। उदाहरण के लिए केरल के किसी गांव में यह खबर आती है कि चीनी सैनिकों ने हमारे कुछ भारतीय सैनिकों की हत्या की है तो उस गांव में दुख फैल जाता है। लोग अपनी चर्चाओं में दुख व्यक्त करते हैं। सैनिकों के प्रति श्रद्धांजलि देते हैं। जबकि उन सैनिकों में कोई भी न तो उस गांव का, केरल का या वहां रह रही जातियों का है। किंतु समान दुख, वह सब भी अनुभव करते हैं जो एक उत्तर भारतीय करता है। यही राष्ट्रीय भावना है। दरअसल इसे ही पोषित करने की जरूरत है।
  
यह दुखद है कि हमारे नौजवान ईराक की धर्मांध आतंकी हिंसा को पोषित करने के लिए जा रहे हैं। हमें सोचना होगा कि आखिर हमने अपने इन नौजवानों का पालन-पोषण कैसे किया है। कैसे एक भारतीय किसी दूसरे देश की जमीन पर जाकर निर्दोष बच्चों और महिलाओं को कत्ल को अंजाम देने वाले समूहों के साथ खड़ा हो रहा है? बढ़ती सांप्रदायिकता, सांप्रदायिक विचार हमारी युवा शक्ति को रचना के मार्ग से विरत कर रहे हैं। 

इसलिए वे विध्वंश रच रहे हैं। आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न युवा की पूरी जिंदगी तबाह हो जाती है। उसे कुछ भी हासिल नहीं होता। ऐसी अंधसांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने और खड़ा होने का साहस हमारे समाज को विकसित करना होगा। भारत इस समय बेहद कठिन समय से गुजर रहा है, जब उसके सामने एक उजला भविष्य तो है किंतु उसके उजले भविष्य को ग्रहण लगाने वाली ताकतें भी बहुत सक्रिय हैं। हमें यह कोशिशें तेज करनी होगीं कि राष्ट्रविरोधी विचारों, सांप्रदायिक राजनीति करने वालों और भाई-भाई में मतभेद कर अपनी राजनीति करने वालों की पहचान करें। एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए भारत का अपना विचार हमारे साथ है। हम ही हैं जो दुनिया को उसकी विविधताओं-विभिन्नताओं-विशेषताओं के साथ स्वीकार कर सकते हैं। यह जिम्मेदारी हमने आज नहीं ली तो कल बहुत देर हो जाएगी।

शनिवार, 6 सितंबर 2014

शिक्षा, राजनीति और मोदी



-संजय द्विवेदी
  आप चाहें तो नरेंद्र मोदी के शिक्षक दिवस पर हुए संवाद को एक राजनीतिक एजेंडा मान सकते हैं। बावजूद इसके इस घटना ने भारतीय समाज जीवन को एक आत्मीय सुख से भर दिया है। राजनीति के शिखर पर बैठे नरेंद्र मोदी अगर नई पीढ़ी से संवाद बना रहे हैं, शिक्षक दिवस पर अपने व्यस्ततम समय में से कुछ घंटे निकालकर एक सार्थक संवाद कर रहे हैं तो इसकी सिर्फ सराहना ही हो सकती है। इसे आप दिशावाहक,सकारात्मक राजनीतिक प्रयास कह दें, तो भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। दरअसल देश के नेताओं का आचरण और व्यवहार ऐसा ही होना चाहिए। पं. नेहरू के बाद अपनी भावी पौध से संवाद का साहस अगर मोदी ही कर पा रहे हैं तो आप तय मानिए की सालों की दूरियां उन्होंने पलों में पाट दी हैं। वे एक ऐसे भारत के निर्माण के लिए प्रयासरत हैं, जिसका सपना हमारे नेताओं ने देखा था।
    आज जिस तरह राजनीतिक सिर्फ वोटबैंक को संबोधित करती है। जातीय सम्मेलनों में जाती है, विचारधाराओं और दलों की बंधक है। मोदी इसे शिशुओं-किशोरों के बीच ले जा रहे हैं। वे बता रहे हैं कि देश इनसे भी बनता है और देश में ये भी शामिल हैं। जातीय समारोहों और जाति के सम्मेलनों की शोभा बढ़ाती हमारी राजनीति क्यों नई पीढ़ी से अपनी चिंताएं साझा नहीं करना चाहती? क्यों उनसे बातचीत नहीं होनी चाहिए? किंतु मोदी करते हैं और इसके मायने भी समझते हैं। इसीलिए 15 अगस्त पर वे भाषण पढ़ते नहीं, दिल से बोलते हैं। मंच से बुलेट प्रूफ ग्लास हटाकर सीधा संवाद बनाते हैं, मंच से उतरकर बच्चों के बीच जाते हैं। उनसे मिलते हैं। शिक्षक दिवस के औपचारिक शैली के समारोहों से अलग वे एक ऐसा विमर्श खड़ा कर देते हैं, जिससे एक नया भारत बनाने की तैयारी दिखती है। शिक्षा के सामने, परिसरों के सामने खड़े प्रश्न सामने आते हैं। उनके इस एक अभियान से हमारे शिक्षा मंदिरों की लाचारियां, परेशानियां सामने आयी हैं। डिजीटल भारत के प्रधानमंत्री के सपनों को मुंह चिढ़ाते परिसर इसी देश में मीडिया ने दिखाए जहां न टीवी है, न कंप्यूटर है, न ही बिजली। कई जगह उनका भाषण रेडियो से सुना गया। यह साधारण नहीं है कि एक पूरे दिन शिक्षक दिवस पर मोदी के बहाने, हमारी शिक्षा और शिक्षकों की बुरी हालत पर भी बात हुयी। यह विमर्श कुछ नया रच रहा है। गणतंत्र ऐसे ही संवादों बनता है और समाधान भी निकलते हैं। दिवसों की रस्मअदायगी से, यह आगे की राजनीति है। प्रधानमंत्री इसीलिए शिक्षक दिवस पर भाषण नहीं देते, संवाद करते हैं। बच्चों के सवालों के जवाब देते हैं। इससे लोकतंत्र मजबूत होता है। टेक्नालाजी ने इसे संभव किया है, नरेंद्र मोदी उसे प्रयोग में लाते हैं। वे टेक्नालाजी चपल हैं, मीडिया का इस्तेमाल जानते हैं। संवाद की भाषा जानते हैं। संवाद से सार्थक विमर्श रचना भी जानते हैं। कई मामलों में वे एजेंडा सेट करने वाले राजनेता भी हैं। वे लोगों को अपने एजेंडे पर ले आते हैं।
   वे अच्छे दिनों की बात करते हैं, विरोधी कहते हैं अच्छे दिन कब आएगें। वे कहते हैं कि संवाद होगा,विरोधी कहते हैं नहीं होना चाहिए। कुछ कहते हैं, शाम को नहीं, सुबह होना चाहिए। बाकी कहते हैं कि शिक्षक दिवस नहीं, बाल दिवस पर होना चाहिए। बाकी स्कूलों की बदहाली और बेचारगी का बखान कर रहे हैं। किंतु आप देखें तो इस विमर्श में अपने आप शिक्षा की बदहाली और मोदी केंद्र में आ जाते हैं। मोदी का अपना अंदाज है । वे ड्रम बजाएं, या बांसुरी, गीत गुनगुनाएं या गीता भेंट करें। हर जगह उनका संदेश साफ है। जीवन में उन्हें ऐसे ही गढ़ा है। वे हर मूड में खास हैं। हर अदा में खास हैं। वे जापान में हों, नेपाल में, या भूटान में उनका अंदाज सबसे निराला है। मोदी इसीलिए शिक्षक दिवस पर मोदी सर जैसे ही नजर आए।
    टीवी चैनलों पर हो रही बहसों को देखिए। वे कितनी गलीज हैं। विरोध के लिए विरोध, एक नई शैली है। राजनीति का यह बेसुरा पाठ भी हमें चकित करता है। कुछ लोग इस भाषण के चलते एक दिन में आए खर्च को गिन रहे हैं। जबकि डिजीटल भारत में सुना गया यह भाषण सबसे सस्ता है। क्योंकि प्रधानमंत्री ने एक साथ कितनों को संबोधित किया। जनसभाओं, रैलियों और मजमों में होने वाले खर्च की कीमत में यह काफी कम है। किंतु आलोचना का भी अपना एक बाजार है। आलोचकों के अपने सुख हैं। मीडिया संतुलन से चलता है। संतुलन बनाने के लिए आलोचना अनिवार्य है। सवाल यह उठता है कि क्या हर सवाल पर आलोचना जरूरी है। क्या हम राष्ट्रीय सवालों और गैरराजनीतिक विषयों की आलोचना के बिना नहीं रह सकते है? यहां यह सोचना भी जरूरी है कि क्या स्कूलों की बदहाली के लिए 100 दिन पहले प्रधानमंत्री बने मोदी ही जिम्मेदार हैं? अमेठी में बिजली क्या मोदी के अपनी जापान यात्रा के दौरान ड्रम न  बजाने से आ जाएगी? क्या सत्ता में होने और विपक्ष में होने के मूल्य और सिद्धांत अलग-अलग हैं?
     दस साल लगातार केंद्र की सत्ता में रहे नेता जब महंगाई के खिलाफ, भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते हैं, तो यह दृश्य बहुत रोचक हो जाता है। लेकिन लोकतंत्र इससे ही सुंदर और प्रभावी बनता है। इसीलिए यह देश आलोचना का भी आनंद लेता है। मजे लेता है। झूमता है। किंतु सच को भी समझता और स्वीकार करता है। इस देश का नागरिक टीवी बहसों के सच और सत्य को भी जानता है। वह अब पैनलिस्ट के चेहरे भी पहचानता है और मुंह खोलेंगे तो वे क्या बोलेंगें, यह भी जानता है। जिस देश में मीडिया, पैनलिस्ट, पत्रकार और विश्लेषक इतने चिन्हित हो जाएं तो लोकतंत्र की धड़कनों का पता कैसे चलेगा। इसलिए परिणाम उलट आते हैं। चर्चाओं की दिशा कुछ और जनता की दिशा कुछ और होती है। इसी शिक्षक दिवस पर मोदी के संवाद को लेकर मीडिया के विमर्श और जन विमर्श का अध्ययन कीजिए, परिणाम अलग-अलग आएंगें। मीडिया पर पैनलिस्ट कुछ और कह रहे थे, मोदी के संवाद में शामिल बच्चे कुछ और कह रहे थे। अरसे बाद जनता की धड़कनों को समझने वाला नायक सामने आया है, तो ऐसे अजूबे तो घटते ही रहेंगें। शायद इसीलिए मोदी कहते हैं मैं हेडमास्टर नहीं टास्क मास्टर हूं। अपने हर टास्क में 100 में 100 हासिल करते मोदी तो यही साबित करते हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)