शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

भारतीय पत्रकारिता के ‘कर्मवीर’ पं. माखनलाल चतुर्वेदी


-प्रो. संजय द्विवेदी
प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल



   पं.माखनलाल चतुर्वेदी के संपादन में निकला कर्मवीर एक ऐसा पत्र है, जिसकी धमक हम आज भी महसूस करते हैं। हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में कर्मवीर एक ऐसा नाम है, जिसे छोड़कर भारतीय पत्रकारिता का समग्र मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। इसी तरह उसके संपादक पं. माखनलाल चतुर्वेदी और उनकी संपूर्ण जीवनयात्राआत्मसमर्पण के खिलाफ लड़ने वाले संपादक की यात्रा है। रचना और संघर्ष की भावभूमि पर खड़ी हुयी उनकी लेखनी में अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध का जज्बा न चुकान कम हुआ। वस्तुतः वे एक साथ कई मोर्चों पर लड़ रहे थे और कोई मोर्चा ऐसा न थाजहां उन्होंने अपनी छाप न छोड़ी हो। सही मायने में कर्मवीर के संपादक ने अपने पत्र के नाम को सार्थक किया और माखनलाल जी स्वयं कर्मवीर बन गए। 4 अप्रैल, 1889 को होशंगाबाद(मप्र) के बाबई जिले में जन्में माखनलालजी ने जब पत्रकारिता शुरू की तो सारे देश में राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव देखा जा रहा था। राष्ट्रीयता एवं समाज सुधार की चर्चाएं और फिरंगियों को देश बदर करने की भावनाएं बलवती थीं। इसी के साथ महात्मा गांधी जैसी तेजस्वी विभूति के आगमन ने सारे आंदोलन को एक नई ऊर्जा से भर दिया। दादा माखनलाल जी भी उन्हीं गांधी भक्तों की टोली में शामिल हो गए। गांधी के जीवन दर्शन से अनुप्राणित दादा ने रचना और कर्म के स्तर पर जिस तेजी के साथ राष्ट्रीय आंदोलन को ऊर्जा एवं गति दी वह महत्व का विषय है।
पत्रकारिता का गांधी समयः
       इस दौर की पत्रकारिता भी कमोवेश गांधी के विचारों से खासी प्रभावित थी। सच कहें तो हिंदी पत्रकारिता का वह जमाना ही अजीब था। आम कहावत थी – जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो और सच में अखबार की ताकत का अहसास आजादी के दीवानों को हो गया था। इसी के चलते सारे देश में आंदोलन से जुड़े नेताओं ने अपने पत्र निकाले। जिनके माध्यम से ऐसी जनचेतना पैदा की कि भारत आजादी की सांस ले सका। वस्तुतः इस दौर में अखबारों का इस्तेमाल एक अस्त्र के रूप में हो रहा था और माखनलाल जी का कर्मवीर इसमें एक जरूरी नाम बन गया था।
    हालांकि इस दौर में राजनीतिक एवं सामाजिक पत्रकारिता के समानांतर साहित्यिक पत्रकारिता का एक दौर भी चल रहा था। सरस्वती और उसके संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी उसके प्रतिनिधि के रूप में उभरे। माखनलाल जी ने भी 1913 में प्रभा नाम की एक उच्चकोटि की साहित्यिक पत्रिका के माध्यम से इस क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप किया। लोगों को झकझोरने एवं जगानेवाली रचनाओं के प्रकाशन के माध्यम से प्रभा शीध्र ही हिंदी जगत का एक जरूरी नाम बन गयी। दादा की 56 सालों की ओजपूर्ण पत्रकारिता की यात्रा में प्रतापप्रभा  कर्मवीर उनके विभिन्न पड़ाव रहे। साथ ही उनकी राजनीतिक वरीयता भी बहुत उंची थी। वे बड़े कवि थेपत्रकार थे पर उनके इन रूपों पर राजनीति कभी हावी न हो पायी। इतना ही नहीं जब प्राथमिकताओं की बात आयी तो मप्र कांग्रेस का वरिष्टतम नेता होने के बावजूद उन्होंने सत्ता में पद लेने के बजाए मां सरस्वती की साधना को ही प्राथमिकता दी। आजादी के बाद 30 अप्रैल, 1968 तक वे जीवित रहे पर सत्ता का लोभ उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाया। इतना ही नहीं 1967 में भारतीय संसद द्वारा राजभाषा विधेयक पारित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रपति को वह पद्मभूषण का अलंकरण भी लौटा दिया जो उन्हें 1963 में दिया गया था। उनके मन में संघर्ष की ज्वाला हमेशा जलती रही। वे निरंतर समझौतों के खिलाफ लोंगों में चेतना जगाते रहे। उन्होंने स्वयं लिखा है-
अमर राष्ट्रउदंड राष्ट्रउन्मुक्त राष्ट्रयह मेरी बोली
यह सुधार-समझौतों वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली।
     माखनलाल जी सदैव असंतोष एवं मानवीय पीड़ाबोध को अपनी पत्रकारिता के माध्यम से स्वर देते रहे। पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई भी जंजीर उन्हें बांध नहीं पायी। उनकी लेखनी भद्रता एवं मर्यादा की तो कायल थी किंतु वे भयसंत्रास एवं बंधनों के खिलाफ थे।
कर्मवीर और उसके संपादक के तेवरः
 कर्मवीर के संपादक कैसे संपादक थे, इसे बताने के लिए उन्होंने कहा कि – हम फक्कड़ सपनों के स्वर्गों को लुटाने निकले हैं। किसी की फरमाइश पर जूते बनानेवाले चर्मकार नहीं हैं हम” यह निर्भीकता ही उनकी पत्रकारिता की भावभूमि का निर्माण करती थी। स्वाधीनता आंदोलन की आँच को तेज करने में उनका कर्मवीर अग्रणी बना। कर्मवीर की परिधि व्यापक थी। राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय विषयों पर समान अधिकार से चलने वाली संपादक की लेखनी हिंदी को सोच की भाषा देने वाली तथा युगचिंतन को भविष्य के परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करने वाली थी। कर्मवीर जिस भाषा में अंग्रेजी राजसत्ता से संवाद कर रहा थाउसे देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय जनमानस में आजादी पाने की ललक कितनी तेज थी।
   स्वाधीनता आंदोलन में अपने प्रखर हस्तक्षेप के अलावा कर्मवीर ने जीवन के विविध पक्षों को भी पर्याप्त महत्व दिया। आए दिन होने वाली घटनाओं को मापने- जोखने एवं उनसे रास्ता निकालने की दिव्यदृष्टि भी कर्मवीर के संपादक के पास थी। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से राजनीति के अलावा साहित्य कला और संस्कृति को भी उन्होंने महत्व दिया। साहित्यिक पत्रों के संदर्भ में उनकी समझदारी विलक्षण थी वो कहते हैं- हिंदी भाषा का मासिक साहित्य बेढंगें और बीते जमाने की चाल चल रहा है। यहां बरसाती कीड़ों की तरह पत्र पैदा होते हैं। फिर भी यह आश्चर्य नहीं कि वे मर क्यों जाते हैं। यूरोप में हर पत्र अपनी एक निश्चित नीति रखता है। हिंदी वालों को इस मार्ग में रीति की गंध नहीं लगी। यह टिप्पणी आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है।
     अपने लंबे पत्रकारीय जीवन के माध्यम से दादा ने नई पीढ़ी को रचना और संघर्ष का जो पाठ पढ़ाया वह आज भी हतप्रभ कर देने वाला है। कम ही लोग जानते होंगें कि दादा को इसकी कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। उनके संपादकीय कार्यालय यानी घर पर तिरसठ बार छापे पड़ेतलाशियां हुयीं। 12 बार वे जेल गए। कर्मवीर को अर्थाभाव में कई बार बंद होना पड़ा। लेखक से लेकर प्रूफ रीडर तक सबका कार्य वे स्वयं कर लेते थे। इन अर्थों में दादा विलक्षण स्वावलंबी थे।
पत्रकारिता के मूल्य और राष्ट्र प्रथम की नीतिः
कर्मवीर एक ऐसा पत्र था जिसके संपादक आजादी के आंदोलन के अग्रणी नेता थे। इसलिए राष्ट्र प्रथम उसकी वैचारिक नीति भी रही। आजादी के समय देश के बंटवारे का दंश पूरे देशवासियों के मनों को मथ रहा था। इस भावना को व्यक्त करते हुए कर्मवीर के 15 अगस्त,1947 को माखनलाल जी लिखते हैं- यह 15 अगस्त है, भारत दो टुकड़े हैं, किंतु आजाद है, क्या पूर्ण आजाद है...? यह जवाहर और जयप्रकाश जानें कि भारत पूर्ण स्वतंत्र होगा या उपनिवेश बनकर रह जाएगा। नोआखली को जानेवाले यात्री गांधी से गांधी से देश स्वागत नहीं कह सकता, क्योंकि देश खंडित है। बिदा भी नहीं कह सकते क्योंकि अखंड भारत और पूर्ण स्वातंयि का स्वप्न अभी अपनी मुठ्ठी में लिए वह चला जा रहा है। यह 15 अगस्त है। इसी तरह पत्रकारिता उनके लिए राष्ट्रसेवा और समाज के जागरण का ही एक माध्यम थी। कर्मवीर के माध्यम से वे यही कर रहे थे। भरतपुर के संपादक सम्मेलन में वे पत्रकारिता जगत का आह्वान करते हुए कहते हैं-यदि समाचार पत्र संसार की एक बड़ी ताकत है तो उसके सिर जोखिम भी कम नहीं है। पर्वत की जो शिखरें हिम से चमकती हैं और राष्ट्रीय रक्षा की महान दीवार बनती हैं, उन्हें ऊंची होना पड़ता है। जगत में समाचार पत्र यदि बड़प्पन पाए हुए हैं, तो उनकी जिम्मेदारी भी भारी है।बिना जिम्मेदारी के बड़प्पन का मूल्य ही क्या है?
     कर्मवीर अपने समय का एक ऐसा पत्र बना जिसने समकालीन रचनाशीलता को बहुत प्रोत्साहित किया। तमाम उदीयमान लेखक इसके माध्यम से लेखन की दुनिया में आए। इसके साथ ही अनेक बड़े लेखक जैसे बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्रा कुमारी चौहान, रमाशंकर शुक्ल, भवानी प्रसाद तिवारी, भवानी प्रसाद मिश्र, प्रभाकर माचवे, गजानन माधव मुक्तिबोध, वीरेंद्र जैन, शिवमंगल सिंह सुमन, धर्मवीर भारती ही नहीं दिनकर, रामबृक्ष बेनीपुरी, सोहनलाल द्विवेदी तक इसमें छपते रहे।
कर्मवीर की संपादकीय नीतिः
      माखनलाल जी आम लोगों के बीच से उपजे पत्रकार थे। उनका कहना था कि पत्र संपादक की दृष्टि परिणाम पर सतत लगी रहनी चाहिए। क्योंकि वह समस्त देश के समक्ष उत्तरदायी है। वे समाचार पत्रों में उत्तरदायित्तव की भावना भरना चाहते थे। वहीं उनके मन में समाचार पत्र की पूर्णता को लेकर भी विचार थे। उनकी सोच थी कि हमें अपने पत्रों को ऐसा बनाना चाहिए कि हम पर ज्ञान की कमी का लांछन न लगे। वे पत्रकारिता जगत में फैल सकने वाले प्रदूषण के प्रति भी आशंकित थे। इसी के चलते उन्होंने अपने लिए आचार संहिता भी बनाई। आज जब पत्रकारिता और पत्रकारों के चरित्र पर सवालिया निशान लग रहे हैं तो यह सहज ही पता लग जाता है कि दादा वस्तुतः कितनी अग्रगामी सोच के वाहक थे। हिंदी पत्र साहित्य को उनकी एक बड़ी देन यह है कि उन्होंने कई तरह से हिंदी को मोड़ा और लचीला बनाया। भाषा को समृद्ध एवं जनप्रिय बनाने में उनका योगदान सदा स्मरणीय रहेगा। 4 अप्रैल,1925 को खंडवा से कर्मवीर का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। कर्मवीर’ के संपादक के रूप में पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने संपादन-सिद्धांत बनाए और उन्हें घोषित किया जो इस प्रकार थे-
1.    कर्मवीर’ संपादन और ‘कर्मवीर परिवार’ की कठिनाइयों का उल्लेख न करना।
2.    कभी धन के लिए अपील न निकालना।
3.    ग्राहक संख्या बढ़ाने के लिए ‘कर्मवीर’ के कालमों में न लिखना।
4.    क्रांतिकारी पार्टी के खिलाफ वक्तव्य नहीं छापना। (गांधीजी का वक्तव्य भी कर्मवीर में नहीं छपा था।)
5.    सनसनीखेज खबरें नहीं छापना।
6.    विज्ञापन जुटाने के लिए किसी आदमी की नियुक्ति न करना।
     ये संपादकीय सिद्धांत कर्मवीर के तेवर को बताते हैं। आज के समय में इन सिद्धांतों पर चलकर पत्र प्रकाशन मुश्किल है। लेकिन माखनलाल जी ने ऐसा किया और गरिमा के साथ किया। आजादी के आंदोलन में वे महात्मा गांधी के अनुयायी थे किंतु गरम दल के नेताओं और क्रांतिकारियों के प्रति उनकी सहानुभूति साफ दिखती थी। उनका मानना था कि अलग-अलग मार्ग से हम सभी भारत माता की मुक्ति के यज्ञ में योगदान दे रहे हैं, इसलिए क्रांतिकारियों के विरुद्ध कुछ भी कर्मवीर नहीं छापेगा। महात्मा गांधी स्वयं उनके इस संकल्प को जानते थे। राष्ट्रपिता ने इस महान पत्रकार के बारे में कहा-हम सब लोग तो बात करते हैं, बोलना (भाषण) तो माखनलाल जी ही जानते हैं। इतना ही नहीं राष्ट्रपिता ने कहा- मैं बाबई जैसे छोटे स्थान पर इसलिए जा रहा हूं क्योंकि वह माखनलालजी का जन्मस्थान है। जिस भूमि ने माखनलालजी को जन्म दिया, उसी भूमि को मैं सम्मान देना चाहता हूं।
चर्चित शायर श्री फिराक गोरखपुरी भी माखनलाल जी कलम के प्रशंसक थे। उनका कहना था कि-उनके लेखों को पढ़ने से ऐसा मालूम होता था कि आदि-शक्ति शब्दों के रूप में अवतरित हो रही है या गंगा स्वर्ग से उतर रही है। यह शैली हिंदी में ही नहीं, भारत की दूसरी भाषाओं में भी विरले ही लोगों को नसीब हुई है। मुझ जैसे हजारों लोंगो ने अपनी भाषा और लिखने की कला माखनलाल जी  से ही सीखी।
पत्रकारिता विद्यापीठ के स्वप्नदृष्टाः
    माखनलाल जी ने ही देश में एक पत्रकारिता विद्यापीठ स्थापित करने का स्वप्न देखा था। उन्होंने भरतपुर(राजस्थान) में 1927 में आयोजित संपादक सम्मेलन में कहा था-हिंदी समाचार पत्रों में कार्यालय में योग्य व्यक्तियों के प्रवेश कराने के लिए, एक पाठशाला आजकल के नए नामों की बाढ़ में से कोई शब्द चुनिए तो कहिए कि एक संपादन कला के विद्यापीठ की आवश्यक्ता है। ऐसी विद्यापीठ किसी योग्य स्थान पर बुद्धिमान, परिश्रमी, अनुभवी, संपादक-शिक्षकों द्वारा संचालित होना चाहिए। उक्त पीठ में अन्यान्य विषयों का एक प्रकांड ग्रंथ संग्रहालय होना चाहिए।” यह संयोग ही है कि उनके इस स्वप्न को 1990 में मध्यप्रदेश सरकार ने साकार करते हुए उनके नाम पर ही भोपाल में पत्रकारिता विश्वविद्यालय की स्थापना की। 30 जनवरी,1968 को उनका निधन हो गया। यह संयोग ही है कि उनकी और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जो उनके आदर्श थे की पुण्यतिथि एक ही दिन मनायी जाती है।
     आज जब पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर संकट के बादल हैंपाठक एवं अखबार के बीच एक नया रिश्ता जन्म ले रहा है ऐसे संक्रमण में कर्मवीर जैसे पत्रों और उसके यशस्वी संपादक की याद आना बहुत स्वाभाविक है। 16-17 जनवरी,1965 को खंडवा में मध्यप्रदेश शासन द्वारा आयोजित कार्यक्रम एक भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी के सम्मान समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने कहा- सत्ता साहित्य के चरणों में नत है।  सही मायनों में कर्मवीर और उसके संपादक का अवदान हमेशा भारतीय पत्रकारिता को उसके उजले अतीत और कर्तव्यबोध की याद दिलाता रहेगा। हमारी कई पीढियां उनके इस अवदान के लिए सदैव नतमस्तक रहेंगी।


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