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गुरुवार, 17 जुलाई 2025

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: रचना ,सृजन और संघर्ष के सौ साल

                                                                       -प्रो.संजय द्विवेदी



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भारतीय समाज के पुनर्गठन की वह प्रयोगशाला है, जो विचार, सेवा और अनुशासन के आधार पर एक सांस्कृतिक राष्ट्र का निर्माण कर रही है। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की अनोखी भारतीय दृष्टि से उपजा यह संगठन आज अपनी शताब्दी के द्वार पर खड़ा है। यह केवल संगठन विस्तार की नहीं, बल्कि भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक पुनरुत्थान की एक अनवरत यात्रा है।

सौ वर्षों की इस साधना में संघ और इसके स्वयंसेवकों ने देश की चेतना को जाग्रत किया है। उन्होंने दिखाया कि न तो किसी सरकारी सहयोग की आवश्यकता होती है और न ही प्रचार के माध्यम से प्रसिद्धि की—यदि लक्ष्य पवित्र हो, मार्ग अनुशासित हो और कार्यकर्ता समर्पित हों।

सेवा: राष्ट्र के हृदय को स्पर्श करती संवेदना-

संघ के स्वयंसेवकों की सेवा-भावना समाज के सबसे वंचित वर्गों तक पहुंचती है। गिरिजनों और वनवासियों से लेकर महानगरों की झुग्गी बस्तियों तक, संघ प्रेरित संगठन—जैसे सेवा भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, एकल विद्यालय, राष्ट्र सेविका समिति और आरोग्य भारती—अखंड सेवा के भाव से कार्यरत हैं।

इन संस्थाओं का उद्देश्य केवल राहत पहुंचाना नहीं, बल्कि लोगों को आत्मनिर्भर, शिक्षित और संस्कारित बनाना है। सेवा, संघ के लिए कर्मकांड नहीं, जीवनधर्म है—जो मानवता को जोड़ता है, पोषित करता है और राष्ट्र के लिए भावनात्मक एकता निर्मित करता है।

शिक्षा: मूल्यबोध से युक्त राष्ट्रनिर्माण

संघ ने प्रारंभ से ही यह अनुभव किया कि एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है, जो केवल ज्ञान नहीं, बल्कि संस्कार दे। इस विचार की परिणति विद्या भारती के रूप में हुई। देश भर में फैले इसके विद्यालयों में लाखों छात्र न केवल आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति, नैतिकता और राष्ट्रबोध की गंगोत्री में स्नान भी कर रहे हैं।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) ने छात्र राजनीति में एक नई संस्कृति का प्रारंभ किया। ‘शिक्षक अध्यक्ष’ की परंपरा, ‘शैक्षिक परिवार’ का विचार और संगठन के कार्यों में राष्ट्र के प्रति समर्पण—ये सब अभाविप को विशिष्ट बनाते हैं।

शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, भारतीय शिक्षण मंडल और अखिल भारतीय शैक्षिक महासंघ जैसे संगठनों ने शिक्षा नीति निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 संघ प्रेरित वैचारिक चेतना का मूर्त रूप मानी जा सकती है।

विविध क्षेत्रों में राष्ट्र की पुनर्रचना

संघ का कार्यक्षेत्र अत्यंत व्यापक है। समाज जीवन के प्रत्येक आयाम में उसकी सृजनात्मक उपस्थिति देखी जा सकती है। उपभोक्ता हितों की रक्षा हेतु अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत, साहित्यिक जगत में हस्तक्षेप करती अखिल भारतीय साहित्य परिषद, और कला-संस्कृति को संवारती संस्कार भारती—संघ की इस बहुआयामी दृष्टि की प्रतीक हैं।

भारत विकास परिषद, लघु उद्योग भारती, भारतीय किसान संघ, सहकार भारती, स्वदेशी जागरण मंच भारत के सशक्तिकरण, स्वदेशी चेतना और किसान कल्याण को समर्पित हैं। ये सभी संगठन संघ की उस मूल भावना को मूर्त करते हैं, जो कहती है कि परिवर्तन केवल सरकार से नहीं, समाज से होता है। राम मंदिर निर्माण के माध्यम से विश्व हिन्दू परिषद ने अभूतपूर्व लोक जागरण किया। इस ऐतिहासिक जनांदोलन ने भविष्य के भारत की आधारशिला रखी। जाति,पंथ, भाषा से ऊपर उठकर चले इस महाभियान ने स्व.अशोक सिंहल जैसा नायक दिया, जिसने समाज और संत शक्ति के समन्वय से समरसता की धारा को तेज गति से प्रवाहित किया। एक तरफ जहां राजनीतिक दल समाज को तोड़ने में जुटे हैं विहिप समाज के एकीकरण और एकात्म भाव को लेकर सक्रिय है।

श्रमिक और छात्र आंदोलनों का नया विमर्श

संघ ने श्रमिक आंदोलन को संघर्ष की नहीं, संवाद और संगठन की दिशा दी। भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) इसकी जीवंत मिसाल है। दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे विचारकों के मार्गदर्शन में बीएमएस देश का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन बना, जिसने मज़दूरों को राष्ट्र निर्माण का सहभागी बनाने का कार्य किया।

अभाविप ने भी छात्र आंदोलनों में अनुशासन, विचार और सकारात्मक हस्तक्षेप की एक नई परंपरा शुरू की। छात्र और शिक्षक का परस्पर सहयोग, शिक्षा में नवाचार और राष्ट्रवादी चिंतन—अभाविप ने इसे एक आंदोलन का रूप दिया।

समावेशी दृष्टिकोण: भारत के विविध समाज का एकीकरण

संघ को प्रायः अल्पसंख्यक विरोधी कहा गया, किंतु इसके विपरीत संघ ने राष्ट्र को धर्म और जाति की संकीर्णताओं से ऊपर रखकर देखा है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के भाव के साथ संघ ने मुस्लिम समाज के साथ संवाद और समरसता को बल दिया।

राष्ट्रीय मुस्लिम मंच इसका मूर्त उदाहरण है, जहां मुस्लिम समुदाय के कई जागरूक सदस्य देश और संस्कृति के साथ जुड़कर रचनात्मक कार्य कर रहे हैं। इसी प्रकार राष्ट्रीय सिख संगत ने सिख और हिंदू समाज के बीच भेद बनाने के लिए खींची गई रेखाओं को मिटाने का कार्य किया है।

संघ की दृष्टि में भारत केवल एक भूखंड नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक जीवित सत्ता है, जिसमें प्रत्येक नागरिक का स्थान है—चाहे उसकी जाति, पंथ या भाषा कोई भी हो।

राजनीति से ऊपर, राष्ट्रनीति की प्रेरणा

संघ का मूल कार्यक्षेत्र राजनीति नहीं है, परंतु उसके स्वयंसेवकों ने राजनीति में प्रवेश कर उसे मूल्यनिष्ठा, सेवा और राष्ट्रधर्म से जोड़ा है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी जैसे नायक संघ की विचारभूमि से निकले तपस्वी हैं, जिन्होंने राजनीति को राष्ट्रसेवा का माध्यम बनाया।

भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से संघ की राष्ट्रवादी विचारधारा को राजनीतिक मंच मिला, जिसने भारत की राजनीतिक संस्कृति को स्थायित्व, उद्देश्य और राष्ट्रबोध प्रदान किया।

शाखा: संगठन का मूल बीज

संघ की सबसे विशिष्ट विशेषता उसकी ‘शाखा’ है। यह केवल दिनचर्या का अनुशासन नहीं, बल्कि व्यक्तित्व निर्माण और समाज संगठन की पाठशाला है। यहां खेल, योग, गीत, व्याख्यान और अभ्यास के माध्यम से राष्ट्रप्रेम, सेवा और अनुशासन के बीज रोपे जाते हैं।

शाखा का वातावरण सामाजिक समरसता का भी प्रतीक है—जहां जाति, वर्ग, भाषा और आयु का भेद नहीं होता। सभी स्वयंसेवक एक समान भाव से भारतमाता की सेवा के लिए कटिबद्ध होते हैं।

भारत की आत्मा का जागरण

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक वैचारिक आंदोलन है। उसने दिखाया है कि संगठन, विचार और समर्पण के बल पर समाज को बदला जा सकता है, और राष्ट्र का नव निर्माण संभव है।

संघ की यात्रा सेवा से समरसता तक, अनुशासन से राष्ट्रधर्म तक और शाखा से संसद तक—हर पड़ाव पर भारत की आत्मा को जागृत करती है। वह भारत को केवल एक राजनीतिक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक चेतना के रूप में स्थापित करना चाहता है।

संघ के कार्य को कोई चाहे जितना विरोध करे, किंतु उसकी राष्ट्रनिष्ठा, सेवा भावना और समर्पण को नकारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि विरोधी भी व्यक्तिगत रूप से संघ के कार्यों की प्रशंसा करते हैं, और कहीं-न-कहीं उससे प्रेरित भी होते हैं।

संघ की शताब्दी यात्रा भारत की उस यात्रा का प्रतीक है, जो हजारों वर्षों की सभ्यता, संस्कृति और साधना का प्रतिफल है। यह यात्रा निरंतर चल रही है—भारत के निर्माण, उत्थान और पुनः विश्वगुरु बनने की दिशा में।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान- आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं।)

शनिवार, 20 मार्च 2021

बड़े दिल वाले हैं दत्तात्रेय होसबाले

 

आरएसएस के नए सरकार्यवाह के सामने हैं कई चुनौतियां

-प्रो.संजय द्विवेदी



  संघ के सरकार्यवाह के रूप में 12 साल का कार्यकाल पूरा कर जब भैयाजी जोशी विदा हो रहे हैं, तब उनके पास एक सुनहरा अतीत है, सुंदर यादें हैं और असंभव को संभव होता देखने का सुख है। केंद्र में अपने विचारों की सरकार का दो बार सत्ता में आना शायद उनके लिए पहली खुशी न हो किंतु राम मंदिर का निर्माण और धारा 370 दो ऐसे सपने हैं, जिन्हें आजादी के बाद संघ ने सबसे ज्यादा चाहा था और वे सच हुए। ऐसा चमकदार कार्यकाल, संघ का सामाजिक और भौगोलिक विस्तार उनके कार्यकाल की ऐसी घटनाएं हैं, जिस पर कोई भी मुग्ध हो जाएगा। संघ की वैचारिक आस्था को जानने वाले जानते हैं कि संघ में व्यक्ति की जगह विचार और ध्येयनिष्ठा ज्यादा बड़ी चीज है। बावजूद इसके जब उनकी जगह दत्तात्रेय होसबाले ले रहें हैं, तब यह देखना जरूरी है, यहां से अब संघ के सामने क्या लक्ष्य पथ होगा और होसबाले इस महापरिवार को क्या दिशा देते हैं।

  अंग्रेजी में स्नातकोत्तर, आधुनिक विचारों के वाहक, जेपी आंदोलन के बरास्ते अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेता रहे और हिंदी-अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाओं में संवाद कुशल होसबाले ने जब 13 साल की आयु में शाखा जाना प्रारंभ किया होगा, तब उन्हें शायद ही यह पता रहा कि यह विचार परिवार एक दिन राष्ट्र जीवन की दिशा तय करेगा और वे उसके नायकों में वे एक होगें। आपातकाल में 16 महीने जेल में रहे कर्नाटक के शिमोगा जिले के निवासी दत्तात्रेय होसबाले भी यह जानते हैं कि इतिहास की इस घड़ी में उनके संगठन ने उन पर जो भरोसा जताया है, उसकी चुनौतियां विलक्षण हैं। उन्हें पता है कि यहां से उन्हें संगठन को ज्यादा आधुनिक और ज्यादा सक्रिय बनाते हुए उस नए भारत के साथ तालमेल करना है जो एक वैश्विक महाशक्ति बनने के रास्ते पर है। करोना जैसे संकट में हारकर बैठने के बजाए भारतीय मेघा की शक्ति को वैश्विक बनाते हुए उन्हें अपने कार्यकर्ताओं में वह आग फूंकनी है जिससे वे नई सदी की चुनौतियों को जिम्मेदारी से वहन कर सकें। 1992 के कानपुर विद्यार्थी परिषद के अधिवेशन में जब वे संघ के वरिष्ठ प्रचारक मदनदास देवी से परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री का दायित्व ले रहे थे, उसी दिन यह तय हो गया था कि वे एक दिन देश का वैचारिक नेतृत्व करेंगें। उसके बाद संघ के बौद्धिक प्रमुख और अब सरकार्यवाह के रूप में उनकी पदस्थापना इस बात का प्रतीक है कि परंपरा और सातत्य किस तरह किसी विचार आधारित संगठन को गढ़ते हैं। दत्ता जी एक उजली परंपरा के उत्तराधिकारी हैं और गुवाहाटी, पटना, लखनऊ, दिल्ली और बेंगलुरू में रहते हुए भी, देश भर में दौरा करते हुए उन्होंने राष्ट्र के मन को समझा है। राष्ट्र मन की अनुंगूंज, उसके सपनों और आकांक्षाओं की थाह उन्हें बेहतर पता है। इसी के साथ विदेशों में भारतीय समाज के साथ उनका सतत संवाद रहा है, इस तरह वे वैश्विक भारतीय मन के प्रवक्ता भी हैं। जिसे हमारे समय की चुनौतियों से जूझकर इस देश के राष्ट्रनायकों के सपनों को सच करना है। देश की आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में उनका संगठन शीर्ष पर होना कुछ कहता है। इसके मायने वे समझते हैं। सत्ता से मर्यादित दूरी रखते हुए वे उससे संवाद नहीं छोड़ते और अपना लक्ष्य नहीं भूलते। इस मायने में उनकी मौजूदगी एक संवादकुशल, प्रेरक और आत्मीय उपस्थिति भी है। वे लोकजीवन में गहरे घंसे हुए हुए हैं। वे स्वयं दक्षिण भारत से आते हैं, पूर्वोत्तर उनकी कर्मभूमि रहा है, असम की राजधानी गौहाटी में रहते हुए वे वहां के लोकमन की थाह लेते रहे हैं। पटना और लखनऊ में वर्षों रहते हुए उन्होंने हिंदी ह्दय प्रदेश की भी चिंता की है। उनका मन इन भौगोलिक विस्तारों से बड़ा बना है। इन प्रवासों ने उन्हें सही मायने में अखिलभारतीय और वैश्विक चिति का स्वामी बनाया है।  हम वसुधैव कुटुंबकम् कहते हैं वे इस मंत्र को जीने वाले नायक हैं। बहुत अपने से, बहुत स्नेहिल और बेहद आत्मीय।

 देश की युवा और छात्र शक्ति के बीच काम करते हुए उन्होंने उनके मन की थाह ली है। वे नई पीढ़ी से संवाद करना जानते हैं। उनके सपनों, उनकी आकांक्षाओं को जानते हैं। वे छात्र राजनीति के रास्ते समाज नीति में आए हैं इसलिए वे बहुत व्यापक और उदार हैं। उनकी रेंज और कवरेज एरिया बहुत बड़ा है। संघ के शिखर पदों पर रहते हुए वे देश के शिखर बुद्धिजीवियों, कलावंतों,विचारवंतों, साहित्य, संगीत,पत्रकारिता और सिनेमा की दुनिया के लोगों से संवाद रखते रहे हैं। इन बौद्धिक संवादों ने उन्हें समृद्ध किया है और उनकी चेतना को ज्यादा सरोकारी और ज्यादा समावेशी बनाया है। इस मायने में वे भारतीय मेघा का आदर करने वाले और उसे राष्ट्रीय सरोकारों से जोड़ने वाले कार्यकर्ता भी हैं। सामान्य स्वयंसेवक से लेकर देश की शिखर प्रतिभाओं से उनका आत्मीय संवाद है और सबके प्रति उनके मन में आदर है।

  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक खास परिपाटी है। संगठन की दृष्टि से संघ अप्रतिम है। इसलिए संगठन स्तर पर वहां कोई चुनौती नहीं है। वह अपने तरीके से चलता है और आगे बढ़ता जाता है। किंतु दत्ताजी का नेतृत्व उसे ज्यादा समावेशी, ज्यादा सरोकारी और ज्यादा संवेदनशील बनाएगा और वे अपने स्वयंसेवकों में वही आग फूंक सकेंगें जिसे लेकर वे शिमोगा के एक गांव से विचारयात्रा के शिखर तक पहुंचे हैं। उनका यहां पहुंचना इस भरोसे का भी प्रमाण है कि ध्येयनिष्ठा से क्या हो सकता है। उनकी शिखर पर मौजूदगी हमें आश्वस्त करती है कि भैया जी सरीखे प्रचारकों ने जिस परंपरा का उत्तराधिकार उन्हें सौंपा है, वे उस चादर को और उजला कर भारत मां के यश में वृद्धि ही करेंगें। साथ ही इस देश की तमाम शोषित, पीड़ित मानवता की जिंदगी में उजाला लाने के लिए अपने संगठन के सामाजिक प्रकल्पों को और बल देगें।

सिर्फ पीढ़ीगत परिवर्तन नहीं है दत्तात्रेय होसबाले का आगमन

 

परंपरा को बनाए रखते हुए नए भारत की चुनौतियों से कैसे जूझेंगें नए सरकार्यवाह

-प्रो.संजय द्विवेदी

                                                            


    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जो लोग जानते हैं, उन्हें पता है कि यहां किसी व्यक्ति की जगह विचार की महत्ता है। यह एक विचार केंद्रित संगठन है, जहां व्यक्ति निष्ठा से बड़ी विचार और ध्येयनिष्ठा है। अपने ध्येय के लिए सतत् चलते हुए काम करना यही संघ का हेतु है और इसी में उसकी मुक्ति है। इसीलिए संघ संस्थापक डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने भगवा ध्वज को स्वयंसेवकों की प्रेरणा बताया और गुरु स्थान पर स्थापित किया। बावजूद इसके श्री दत्तात्रेय होसबाले का सहकार्यवाह चुना जाना, अपेक्षा से अधिक चर्चा में है। शायद इसलिए भी कि इस समय संघ एक पीढ़ीगत परिवर्तन से गुजर रहा है और उससे अपेक्षाएं बहुत बढ़ गयी हैं। भैयाजी जोशी जैसे योग्य संगठनकर्ता, समन्वयकारी विचारों के धनी और गहरे सामाजिक सरोकारों के वाहक स्वयंसेवक के स्थान पर श्री दत्तात्रेय होसबाले का आना दरअसल उसी परंपरा का विस्तार है जिसे भैया जी और उनके पूर्ववर्तियों ने स्थापित किया है। बावजूद इसके अंग्रेजी में स्नातकोत्तर, एक दक्षिण भारतीय छात्रनेता, अप्रतिम संगठनकर्ता जिसने जेपी आंदोलन से अपनी यात्रा प्रारंभ की का इस तरह संघ के केंद्र में आना साधारण नहीं है। यह संघ में नए विचार का आगमन भी है, जिसे न्यू इंडिया के संकटों का समाधान भी खोजना है। श्री एचवी शेषाद्रि के बाद वे दूसरे ऐसे कर्नाटकवासी हैं, जिन्हें यह बहुत अहम पद मिला है।

   संघ जैसा समावेशी, उदार और लचीला संगठन ढूंढने से नहीं मिलेगा। अपने में परिवर्तन करने, आत्मसमीक्षा करने और अपना दायरा बढ़ाते जाने के लिए संघ ख्यात रहा है। जिस तरह संघ ने समाज जीवन के सब क्षेत्रों, सब वर्गों में, सभी विचारवंतो में, सभी सामाजिक और भौगोलिक क्षेत्रों में अपनी सेवा भावना से जगह बनाई है, वह उसकी सोच को प्रकट करता है। इस अर्थ में संघ कहीं से जड़वादी संगठन नहीं है, जिसके कारण सांप्रदायिक और दायराबंद सोच पनपती है। राष्ट्रीय मुस्लिम मंच, राष्ट्रीय सिख संगत, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, एकल विद्यालय जैसे संगठनों के माध्यम से संघ ने यह स्थापित किया कि समाज को जोड़ना और सेवा के माध्यम से भारत को बदलना ही उसका लक्ष्य है। सभी सरसंघचालकों ने स्वयंसेवकों में यह भाव भरने का प्रयास किया और यह सूक्ति ही उनका ध्येय वाक्य बन गयी- नर सेवा नारायण सेवा। ऐसे समय में श्री दत्तात्रेय होसबाले का सरकार्यवाह पद पर आना पीढ़ीगत परिवर्तन के साथ-साथ वर्तमान समय की चुनौतियों को भी रेखांकित करता है। यह वह समय है, जब संघ विचार से प्रभावित स्वयंसेवक समाज जीवन के हर क्षेत्र में स्थापित हैं तथा बदलते हुए भारत की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए प्राणपण से जुटे हैं। संघ की व्यवस्था में सरसंघचालक एक पूज्य मार्गदर्शक स्थान है और सरकार्यवाह ही दैनिक कार्यों का नेतृत्व करता है। ऐसे में भैयाजी का पिछले 12 वर्षों का नेतृत्व, चमत्कारी कार्यकाल ही कहा जाएगा। भैया जी ने स्वयं को बहुत लो-प्रोफाइल रखते हुए, विवादों से बचते हुए संघ और उससे जुड़े संगठनों को व्यापक विस्तार दिया। साथ ही संघ के समर्थक विचारों का राजनीतिक दल, केंद्रीय राजसत्ता में दो चुनावी जीत हासिल कर सका काबिज हो सका। संघ के संकल्पों में धारा 370 का हटना, गौ-हत्या के लिए कई राज्यों में कानून का बनना, राममंदिर का निर्माण होना ऐसी सूचनाएं है जो हर भारतीय को आह्लादित करती हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल संघ की हमेशा चिंता में रहे हैं। इन अर्थों में संघ दलगत राजनीति से दूर भले है किंतु वह राष्ट्रीय प्रश्नों पर सार्थक हस्तक्षेप करता है। उसमें घुसपैठ से लेकर हमारी सुरक्षा चिंताएं, भाषा और संस्कृति की रक्षा के सवाल संयुक्त हैं। संघ की प्रतिनिधि सभा में पारित प्रस्तावों के विषय और उनकी भाषा देखें तो संघ का पवित्र मन हमारे ध्यान में आता है। इसलिए संघ के शीर्ष अधिकारी कहते हैं संघ को जानना है तो संघ के पास आना होगा। संघ पर उसके वैचारिक विरोधियों द्वारा लिखी गई किताबें आपको कभी सच के करीब नहीं जाने देंगीं। 

   ऐसे में नवनिर्वाचित सरकार्यवाह की चुनौतियां बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि संघ की संगठन के तौर अपनी कोई चुनौती नहीं है। संघ तो समूचे राष्ट्रजीवन और उसके भविष्य का विचार करता है इसलिए इस देश के प्रश्न, उसके संकट ही उसके मुद्दे हैं, चुनौतियां हैं। संघ उन संगठनों में भी नहीं है जो सवाल उठाकर और आंदोलन खड़े कर अपनी भूमिका का अंत मान लेते हैं। संघ सवाल भी उठाता है और उनके समाधान भी सुझाता है। इस मायने में यह उसकी विलक्षणता है। उसके स्वयंसेवक इसलिए समाज जीवन के हर क्षेत्र में सामाजिक व्याधियों का अंत और इलाज करते हुए दिखेंगें। वे आंदोलन करते, सवाल उठाते और सरकारों की घेराबंदी भर करते हुए नहीं दिखते। दत्तात्रेय होसबाले को संघ की इसी भावना का विस्तार करना है। समाजतोड़क गतिविधियों, देशविरोधी प्रयत्नों के विरूद्ध सज्जन शक्ति को ताकतवर बनाना उनका लक्ष्य होगा। जब आपके विचारों से मेल खाती हुई सरकार सत्ता में हो तो चुनौती और बढ़ जाती है।

    दत्ता जी को यह लक्ष्य संधान भी करना होगा कि राजनीति ही उनके कार्यकर्ताओं की मुख्य प्रेरणा न बन जाए। समाज जीवन में संघ के स्वयंसेवक अपनी सेवा भावना से स्वीकृति पाए हुए हैं, उनका परिमाण बढ़े और वे देश के संकटों को कम करने में सहायक बनें। हर संगठन के अपने राजनीतिक विचार होते हैं किंतु संघ ने राजनीति के बजाए बदलाव और सेवा पर जोर दिया है । कर्नाटक में जन्में दत्तात्रेय होसबाले उन लोगों में हैं, जो 13 साल की अल्पायु में संघ की शाखा में गए और पूरी जिंदगी इसी विचार के लिए लगा दी। आपातकाल में 16 माह जेल में रहे होसबाले संघ के छात्र संगठन अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद के 15 साल राष्ट्रीय संगठन मंत्री रहे। गौहाटी, पटना और लखनऊ जैसे स्थानों पर आपने लंबा समय गुजारा और देश भर में प्रवास किया। इस मायने में देश के युवाओं और विद्यार्थियों के बीच उनकी खास पहचान है। वे संघ का उदार और समावेशी चेहरा भी हैं। कई मायनों में ज्यादा आधुनिक भी। वे बहुभाषी हैं और बहुत अधिकार के साथ अनेक भारतीय और विदेशी भाषाएं बोलते हैं। विदेशों के व्यापक प्रवास ने आपको एक वैश्विक दृष्टि भी प्रदान की है और वे नए भारत की वैश्विक भूमिका को बहुत जिम्मेदारी से रेखांकित करते हैं। ऐसे नेतृत्व का शीर्ष पर आना संघ का एक नए युग में प्रवेश है। देखना है कि परंपरा के साथ सातत्य बनाए रखते हुए कैसे वे न्यू इंडिया में अपने संगठन की भूमिका को रेखांकित करते हैं।