मेरे आलेख की प्रतिक्रिया - 4
किसी भाषा को दरकिनार करने का मतलब
डॉ. जे. आर. सोनी
प्रत्येक भाषा की एक गरिमा होती है । उसकी निजी सुंदरता उसी में खुलती है । उसके अनुयायी उसी भाषा में स्वयं को पूरी तरह अभिव्यक्त कर पाते हैं । मातृभाषा केवल अभिव्यक्ति ही नहीं वह उस उसके बोलने वालों की अस्मिता भी है जिसका संपूर्ण विश्वास सिर्फ़ उसी भाषा में संभव होता है । ऐसी स्थिति में किसी भाषा को दरकिनार करने का मतलब उस भाषा-भाषियों को भी दरकिनार करना है । शायद इसीलिए लुप्तप्रायः भाषाओं को भी बचाने पर सभी विचारधारा के बुद्धिजीवी और समाज सहमत हैं । छोटी-से-छोटी भाषाओं के प्रति लापरवाही बरतना एक तरह से सांस्कृतिक खजानों को लूटते देखना है
जब हम छत्तीसगढ़ की भाषाओं (बोलियों सहित) की बात करते हैं तो हमारे सम्मुख कई प्रकार की भाषायें उपस्थित होती हैं । छत्तीसगढी राज्य की प्रमुख भाषा है । राज्य की 82.56 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में तथा शहरी क्षेत्रों में केवल 17 प्रतिशत लोग रहते हैं । यह निर्विवाद सत्य है कि छत्तीसगढ का अधिकतर जीवन छत्तीसगढी के सहारे गतिमान है । यह अलग बात है कि गिने-चुने शहरों के कार्य-व्यापार राष्ट्रभाषा हिन्दी व उर्दू, पंजाबी, उडिया, मराठी, गुजराती, बाँग्ला, तेलुगु, सिन्धी आदि भाषा में होती हैं किन्तु इनमें से अधिकांश छत्तीसगढ़ी समझते भी हैं और कुछ-कुछ बोलते भी हैं । आदिवासी क्षेत्रों में हलबी, भतरी, मुरिया, माडिया, पहाडी कोरवा, उराँव, सरगुजिया आदि बोलियो के सहारे ही संपर्क होता है । इस सबके बावजूद छत्तीसगढी ही ऐसी भाषा है जो समूचे राज्य में बोली, व समझी जाती है । एक तरह से यह छत्तीसगढ राज्य की संपर्क भाषा है । वस्तुतः छत्तीसगढ राज्य के नामकरण के पीछे उसकी भाषिक विशेषता भी है । सभी तरफ से देखें तो वह छत्तीसगढ़िया होने का विशिष्ट प्रमाण भी है। कदाचित् इसीलिए छत्तीसगढ़ी को दलगत भावना से उठकर सभी ने श्रद्धा से देखा । जहाँ कांग्रेस ने उसे राजभाषा बनाने की पहल की तो भाजपा ने उस संकल्प को अमली जामा पहनाने की शुरूआत की है । जिसके परिणाम में छत्तीसगढ़ी भाषा आयोग का कागज़ी अवतरण हो चुका है और निकट भविष्य में वह हम सबको दिखने लगेगा ।
यदि यही कारण है कि इन दिनों राज्य में छत्तीसगढ़ी के सबसे बड़े ज्ञाता और भाग्यविधाता होने की होड़ मची हुई है । कोई अपने राजनीतिक प्रतिबद्धता का सहारा लेकर इस आयोग में प्रवेश करना चाहता है तो कोई मीडिया का । कल तक जो छत्तीसगढ़ी के सच्चे हितैषी थे वही आज एक दूसरे के ख़िलाफ कीचड़ उछालने की कवायद करते देखे जा सकते हैं । ऐसे समय यदि छत्तीसगढ़ी के संवर्धन के लिए संस्कृत और अन्य आदिवासी-भाषाओं के खिलाफ कोई कुछ भी कहता है तो जनमानस साफ-साफ समझ सकता है कि असली मुद्दा अन्य भाषाओं के खिलाफ नहीं बल्कि स्वार्थ जनित है । यह पदलोलुपता का कारण भी हो सकता है । यहाँ यह भी कहना अप्रांसगिक नहीं होगा कि इस आयोग में मात्र छत्तीसगढ़ी साहित्य लेखन के आधार पर नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ी भाषा-मर्मज्ञता, भाषा वैज्ञानिक दक्षता के आधार पर ही प्रतिभासंपन्न एवं प्रशासनिक उत्तरदायित्वों मे सक्षम आयुवाले व्यक्तित्वों पर विचार किया जाय । मात्र आयुगत वरिष्ठता एवं दलगत निष्ठा से किसी प्रशासनिक उद्देश्यों की औपचारिक पूर्ति तो हो सकती है पर भाषा जैसे संवेदन प्रकरण का उत्थान वास्तविक योग्यता से ही संभव है और इसमें सतर्कता अंत्यंत ज़रूरी है । हमें नहीं भूलना चाहिए यह साहित्य अकादमी नहीं भाषा अकादमी है ।
छत्तीसगढ़ी के हित में लड़ना हम सभी छत्तीसगढ़ियों के लिए लाजिमी है । और कोई भी ऐसा करता है तो उसमें कोई बुराई नहीं । बुराई की जड़ तो वहाँ है जब हम ऐसा किसी पद, भूमिका, या निजी महत्वाकांक्षा के लिए करते हैं । हम यह कैसे कह सकते हैं कि संस्कृत को पढ़ाई से हटा दें । उसमें हमारे भारतीय(छत्तीसगढ़िया भी पहले भारतीय है) होने का जीवंत दस्तावेज है । वह भारतीयता की भी निशानी है । उसमें हमारे जीवन-दर्शन, संस्कृति का मूल है । भले ही वह लुप्त प्रायः है पर वह आज भी हर संकट में हमारा सर्वोच्च विश्वसनीय संदर्भ भी है । आज उसे जनता की आंकाक्षानुरूप संरक्षण देने की सच्ची पहल की ज़रूरत है न कि उसे छत्तीसगढ़ी जैसी मयारुक भाषा की दीवानगी में आलोचना का शिकार बनाने की । पर हमें संस्कृत के पाठों को भी नये संदर्भों, परिप्रेक्ष्यों में समझना होगा क्योंकि वह समाज में वर्चस्व की शिक्षा न दे बल्कि दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के प्रति भी समान स्नेह का वातावरण दे सके, राज्य सहित देश में भी जिसकी आज महती आवश्यकता है । तभी सर्वे भवन्तु सुखिनः का नारा फलित होगा । हम यह भी कैसे कह सकते हैं कि राज्य की अन्य भाषाओं को खतम कर दें या उनके लिए हो रहे कार्यों को बंद कर दें ? ऐसा कहना और करना दोनों तानाशाही होगा ।
उचित तो यही होगा कि अपने मित्र भाषाओं के प्रति भी सहिष्णुता का परिचय दें और यदि राज्य में हलबी, भथरी, सादरी आदि भाषाओं में प्राथमिक स्कूल के बच्चों की शिक्षा की पहल की जाती है तो उसे समर्थन दें क्योंकि वह छत्तीसगढ़ी से बाहर है ही नहीं । वैसे भी कक्षा पहली से लेकर पाँचवी तक व्यवहारिक तौर पर राज्य भर में स्थानीय भाषा में ही हमारे गुरूजन शिक्षा देते रहे हैं । पर छत्तीसगढ़ी में पढ़ाई-लिखाई के स्थायी मुद्दों को भी याद करना होगा । अंग्रेजी, आधुनिक विज्ञान, प्रौद्योगिकी की भाषा है, उसे हम मातृभाषा की तरह न अपनाये पर उसे कामकाज की भाषा बनाने मे हमें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि संस्कृति के साथ साथ रोटी भी चाहिए मनुष्य को ।
(लेखक गुरुघासीदास साहित्य अकादमी के महासचिव हैं)
जब हम छत्तीसगढ़ की भाषाओं (बोलियों सहित) की बात करते हैं तो हमारे सम्मुख कई प्रकार की भाषायें उपस्थित होती हैं । छत्तीसगढी राज्य की प्रमुख भाषा है । राज्य की 82.56 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में तथा शहरी क्षेत्रों में केवल 17 प्रतिशत लोग रहते हैं । यह निर्विवाद सत्य है कि छत्तीसगढ का अधिकतर जीवन छत्तीसगढी के सहारे गतिमान है । यह अलग बात है कि गिने-चुने शहरों के कार्य-व्यापार राष्ट्रभाषा हिन्दी व उर्दू, पंजाबी, उडिया, मराठी, गुजराती, बाँग्ला, तेलुगु, सिन्धी आदि भाषा में होती हैं किन्तु इनमें से अधिकांश छत्तीसगढ़ी समझते भी हैं और कुछ-कुछ बोलते भी हैं । आदिवासी क्षेत्रों में हलबी, भतरी, मुरिया, माडिया, पहाडी कोरवा, उराँव, सरगुजिया आदि बोलियो के सहारे ही संपर्क होता है । इस सबके बावजूद छत्तीसगढी ही ऐसी भाषा है जो समूचे राज्य में बोली, व समझी जाती है । एक तरह से यह छत्तीसगढ राज्य की संपर्क भाषा है । वस्तुतः छत्तीसगढ राज्य के नामकरण के पीछे उसकी भाषिक विशेषता भी है । सभी तरफ से देखें तो वह छत्तीसगढ़िया होने का विशिष्ट प्रमाण भी है। कदाचित् इसीलिए छत्तीसगढ़ी को दलगत भावना से उठकर सभी ने श्रद्धा से देखा । जहाँ कांग्रेस ने उसे राजभाषा बनाने की पहल की तो भाजपा ने उस संकल्प को अमली जामा पहनाने की शुरूआत की है । जिसके परिणाम में छत्तीसगढ़ी भाषा आयोग का कागज़ी अवतरण हो चुका है और निकट भविष्य में वह हम सबको दिखने लगेगा ।
यदि यही कारण है कि इन दिनों राज्य में छत्तीसगढ़ी के सबसे बड़े ज्ञाता और भाग्यविधाता होने की होड़ मची हुई है । कोई अपने राजनीतिक प्रतिबद्धता का सहारा लेकर इस आयोग में प्रवेश करना चाहता है तो कोई मीडिया का । कल तक जो छत्तीसगढ़ी के सच्चे हितैषी थे वही आज एक दूसरे के ख़िलाफ कीचड़ उछालने की कवायद करते देखे जा सकते हैं । ऐसे समय यदि छत्तीसगढ़ी के संवर्धन के लिए संस्कृत और अन्य आदिवासी-भाषाओं के खिलाफ कोई कुछ भी कहता है तो जनमानस साफ-साफ समझ सकता है कि असली मुद्दा अन्य भाषाओं के खिलाफ नहीं बल्कि स्वार्थ जनित है । यह पदलोलुपता का कारण भी हो सकता है । यहाँ यह भी कहना अप्रांसगिक नहीं होगा कि इस आयोग में मात्र छत्तीसगढ़ी साहित्य लेखन के आधार पर नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ी भाषा-मर्मज्ञता, भाषा वैज्ञानिक दक्षता के आधार पर ही प्रतिभासंपन्न एवं प्रशासनिक उत्तरदायित्वों मे सक्षम आयुवाले व्यक्तित्वों पर विचार किया जाय । मात्र आयुगत वरिष्ठता एवं दलगत निष्ठा से किसी प्रशासनिक उद्देश्यों की औपचारिक पूर्ति तो हो सकती है पर भाषा जैसे संवेदन प्रकरण का उत्थान वास्तविक योग्यता से ही संभव है और इसमें सतर्कता अंत्यंत ज़रूरी है । हमें नहीं भूलना चाहिए यह साहित्य अकादमी नहीं भाषा अकादमी है ।
छत्तीसगढ़ी के हित में लड़ना हम सभी छत्तीसगढ़ियों के लिए लाजिमी है । और कोई भी ऐसा करता है तो उसमें कोई बुराई नहीं । बुराई की जड़ तो वहाँ है जब हम ऐसा किसी पद, भूमिका, या निजी महत्वाकांक्षा के लिए करते हैं । हम यह कैसे कह सकते हैं कि संस्कृत को पढ़ाई से हटा दें । उसमें हमारे भारतीय(छत्तीसगढ़िया भी पहले भारतीय है) होने का जीवंत दस्तावेज है । वह भारतीयता की भी निशानी है । उसमें हमारे जीवन-दर्शन, संस्कृति का मूल है । भले ही वह लुप्त प्रायः है पर वह आज भी हर संकट में हमारा सर्वोच्च विश्वसनीय संदर्भ भी है । आज उसे जनता की आंकाक्षानुरूप संरक्षण देने की सच्ची पहल की ज़रूरत है न कि उसे छत्तीसगढ़ी जैसी मयारुक भाषा की दीवानगी में आलोचना का शिकार बनाने की । पर हमें संस्कृत के पाठों को भी नये संदर्भों, परिप्रेक्ष्यों में समझना होगा क्योंकि वह समाज में वर्चस्व की शिक्षा न दे बल्कि दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के प्रति भी समान स्नेह का वातावरण दे सके, राज्य सहित देश में भी जिसकी आज महती आवश्यकता है । तभी सर्वे भवन्तु सुखिनः का नारा फलित होगा । हम यह भी कैसे कह सकते हैं कि राज्य की अन्य भाषाओं को खतम कर दें या उनके लिए हो रहे कार्यों को बंद कर दें ? ऐसा कहना और करना दोनों तानाशाही होगा ।
उचित तो यही होगा कि अपने मित्र भाषाओं के प्रति भी सहिष्णुता का परिचय दें और यदि राज्य में हलबी, भथरी, सादरी आदि भाषाओं में प्राथमिक स्कूल के बच्चों की शिक्षा की पहल की जाती है तो उसे समर्थन दें क्योंकि वह छत्तीसगढ़ी से बाहर है ही नहीं । वैसे भी कक्षा पहली से लेकर पाँचवी तक व्यवहारिक तौर पर राज्य भर में स्थानीय भाषा में ही हमारे गुरूजन शिक्षा देते रहे हैं । पर छत्तीसगढ़ी में पढ़ाई-लिखाई के स्थायी मुद्दों को भी याद करना होगा । अंग्रेजी, आधुनिक विज्ञान, प्रौद्योगिकी की भाषा है, उसे हम मातृभाषा की तरह न अपनाये पर उसे कामकाज की भाषा बनाने मे हमें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि संस्कृति के साथ साथ रोटी भी चाहिए मनुष्य को ।
(लेखक गुरुघासीदास साहित्य अकादमी के महासचिव हैं)
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