मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-7
लोकभाषाओं का विरोध बेमानी है
डॉ.बलदेव
हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है कि हम भाषा और साहित्य को एक नज़र से देखने के विवेक पर विश्वास करते हैं । भाषा मिट्टी है और साहित्य मिट्टी का घड़ा । भाषा से साहित्य है न कि साहित्य से भाषा । भाषा, जिसे हम अपने निर्दोष अबोधता से कई बार लिपि, साहित्य और व्याकरण; तथा कई बार व्यवहृतकर्ताओं की संख्या की शर्तों पर मानक या अमानक मानते हैं, वस्तुत समुदाय विशेष की अभिव्यक्ति का माध्यम हुआ करती है । उस समुदाय को भूगोल की सीमा में नहीं रखा जा सकता । भाषा मूलतः किसी न किसी बोली की विकसित रूप होती है । यदि इस अर्थ में वह भाषा कहलाती है तो जाहिर है कि उस पर किसी बोली या लोकभाषा का ऋण भी रहता है । भारतीय भाषाओं की जैविक वास्तविकता और शोध से अनुप्रमाणित भी है कि इनका स्त्रोत कहीं न कहीं आदि भारतीय भाषा संस्कृत भी है । जब यह सब हमारी मनीषा में है तो अपने मूल और लोकभाषाओं के विरोध का सवाल ही अकारज है । सवालों के पीछे की भाषा को समझें तो यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि कुछ लोग भाषा में भी व्यावसायिकता की संभावना तलाशते हैं जिन्हें राजसत्ता अपनी मूढ़ता से बिना किसी लाज-लिहाज परमिट भी जारी किया करती है ।
भाषा और साहित्य जनता का विषय है । उसका विकास और विनाश जनता के अभिभावकत्व पर निर्भर करता है । उन्हें तंत्र का ज़रूर संरक्षण चाहिए किंतु वे राज्यसत्ता की दासी नहीं बन सकते। पर भाषा और साहित्य के प्रसंग में जब भी मैं अपने राज्य की राज्यसत्ता को एक कोण पर रखकर सोचता हूँ तो मुझे समूचे राज्य में वीरगाथा काल दिखाई देता है । पर वे ठीक से वीरगाथा के कवि भी सिद्ध नही हो पा रहे हैं । यदि ऐसा होता तो राज्याश्रय से बड़े-बड़े (वस्तुतः छोटे भले ही दिखने में भारी) पुरस्कारों और संस्थानों में उनकी जगह समाचार लेखकों की ताज़पोशी नहीं हो पाती । लाखों के प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कारों को देने से पहले साहित्यिकों की सूची में कोई ना कोई योग्यता की कसौटी पर ज़रूर खरा उतरता । जैसा कि होना लाज़िमी था और जो हो नहीं सका । यह तंत्र की विडंबना ही है कि उसे पुजारी मछेरा दिखाई देता है और मछेरा पुजारी । यह न कोई निजी कुंठा है ना ही बैरतामूलक आत्महीनता। इसमें इस अर्थ की संभावना की तलाश निरर्थक होगी कि हमने क्या कुछ खास नहीं रचा ? हमने खूब रचा पर उसे अखिल भारतीय संदर्भों में 20 साबित किया जाना शेष है । उधर छत्तीसगढ़ी भाषा-भाषियों के मनोविज्ञान को सच माने तो कहा जा सकता है कि वह अपने भूगोल में तो हिचकिचाते हुए छत्तीसगढ़ी में वार्तालाप कर लेता है किन्तु सीमा से बाहर वह छत्तीसगढ़ी में बतियाने को तौहीनी की श्रेणी में मानता है ।
मेरी सोच मुझे यही संबोधती है कि संस्कृत का विरोध या छत्तीसगढ़ी भूगोल की अन्यान्य भाषाओं( चाहें तो आप उन्हें बोली भी कह सकते हैं ) के तर्क पर छत्तीसगढ़ी के अनुसमर्थन के पीछे भाषा (मातृभाषा छत्तीसगढ़ी ) का प्रेम कम अपने भविष्य की असुरक्षा को लेकर आत्मकुंठा अधिक है । सच तो यह भी है कि छत्तीसगढी के नाम पर अन्यान्य भाषाओं के उत्थान को प्रश्नांकित करने वाले स्वयं जानते हैं कि अपने मूल चरित्र में वे ऐसे हैं नही और उन्हें संस्कृत और राज्य की अन्य भाषाओं के प्रति संपूर्ण आस्था भी है । आपको इसे समझने के लिए सत्ता की घोषणाओं में संदर्भ मिल जायेगा जिसमें कहा जा रहा है कि भविष्य में छत्तीसगढ़ी भाषा आयोग का गठन किया जाना है । जाहिर है गठन होगा तो इसमे अध्यक्ष सह सदस्यों का भी मनोनयन होगा जो भले ही छत्तीसगढ़ी और संस्कृत परिषद की तरह फिसड्डी न हो पर उन्हें व्यवस्था की ओर से मंत्री का दर्जा भी मिलेगा । वे लाल बत्ती की गाड़ी में पर्यटन कर सकेंगे । यह इसलिए भी सच है कि जो अपनी महत्ता साबित करने के लिए इस समय नियोक्ता और उसके सिपहसालारों में अपनी घुसपैठ बना रहे हैं वे कहीं से भी भाषाविद् नहीं हैं । साहित्य यानी कि कथा, कविता, गीत लिखना अलग बात है और भाषा के मर्म को व्याख्यायित करना और उसे किसी राज्य की राजभाषा के योग्य बनाने की बात और ।
छत्तीसगढ़ी के साहित्यकारों को अपनी रचनात्मकता पर पुनः गौर करना चाहिए कि उनका लिखा-पढ़ा कहीं पुनर्पाठ में भोथरा तो नहीं । यदि वह भोथरा लगता है तो यह सपना देखना भूल जाना चाहिए कि वे ही छत्तीसगढ़ी को राजभाषा के योग्य सत्ताधारियों को मनवाने में सक्षम रहें है और उसमें उनके ही साहित्य की महती भूमिका है । अच्छा तो यही होगा कि हम सब मिलकर आवाज़ उठायें कि छत्तीसगढ़ी का जो बिल महामहिम के पास है उसे जल्द से जल्द हमारे जननायक क्लियर करायें । मृतप्रायः छत्तीसगढ़ी भाषा परिषद का पुनर्गठन हो या फिर छत्तीसगढ़ी साहित्य अकादमी का गठन हो । और सबसे बड़ी बात यह कि छत्तीसगढ़ी भाषा आयोग को ऐसे मनीषियों के हाथों सौंपा जाये जो केवल ददरिया, साल्हो, पैरोड़ी, या फिर साहित्य ही क्यों नहीं लिखते बल्कि इससे आगे उनमें छत्तीसगढ़ी को राजकाज और कामकाज के योग्य बनाने की सारी प्रशासनिक और भाषावैज्ञानिक क्षमता भी हो । क्योंकि प्रश्न व्याकरण का है लेखन मात्र का नहीं । यदि सत्ता-संचालक इससे असहमति जताते हैं तो इसके विरोध करने का उत्तरदायित्व साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों का है न कि मातृभाषा प्रेम की आड़ में किसी भाषा के विरोध के बहाने अपनी बहादुरी के प्रति सत्ता का ध्यान मात्र आकृष्ट करने का ।
(लेखक छत्तीसगढ़ी के वरिष्ठ आलोचक और भाषाविद् हैं )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें