शनिवार, 7 जून 2008

अनुदारता छत्तीसगढ़ की परंपरा नहीं

मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-3

अनुदारता छत्तीसगढ़ की परंपरा नहीं
गिरीश पंकज
इन दिनों छत्तीसगढ़ में सामाजिक समरसता और भाषाई उदारता के विरोध में जो वातावरण बनता दीख रहा है, उसे लेकर सद्भावना को जीवन का पाथेय मानने लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है। किसी भाषा या जाति को बड़ा या छोटा साबित करके कुछ लोग समाज में नफरत की विष-बेल तो पनपा सकते हैं, मोहब्बत का पैगाम नहीं दे सकते। हरिभूमि में दो जून को प्रकाशित संजय द्विवेदी का लेख ऐसी ही अनुदार सोच के विरुध्द एक जरूरी हस्तक्षेप है। सचमुच यह विचार अपने आप में कितना खतरनाक है, कि हम एक रौ में बहते हुए सारी भाषाओं की जननी संस्कृत का ही विरोध शुरू कर दें। संस्कृत के विरोध में सदियों से एक वातावरण बनाया जाता रहा है। आज संस्कृत के सामने अस्तित्व का प्रश्न है। ऐसे दौर में हम भारतीय लोग ही अगर संस्कृत शिक्षा के विरुध्द बयान देंगे, तो इस महान भाषा का क्या हश्र होगा? अंग्रेजी का विरोध तो समझ में आता है, लेकिन संस्कृत का विरोध करके हम आखिर क्या साबित करना चाहते हैं? हम अपनी भाषाई अस्मिता के प्रति इतने कट्टर भी न हो जाएं, कि हमें अपने आसपास कुछ और नजर ही न आए।


छत्तीसगढ़ी की बात करते हुए हम सरगुजिया, हल्बी, लरिया सदरी, खल्टाही जैसी सहायक बोलियों को तो न भूल जाएं। ये क्या बात हुई कि केवल छत्तीसगढ़ी में ही पढ़ाई हो, यहां की दूसरी बोलियों में नहीं। अन्य महत्वपूर्ण बोलियों ने क्या बिगाड़ा है? उन बोलियों में तो साहित्य लिखा जा रहा है। वाचिक में भी है, और लिखित में भी है। जब आप केवल छत्तीसगढ़ी की बात करेंगे और दूसरी बोलियों का विरोध करेंगे, तो यह स्वाभाविक है, कि अन्य बोलियों के बोलने वाले भी उठ खड़े होंगे। इस तरह धीरे-धीरे भाषाई वैमनस्य पनपेगा और शांत छत्तीसगढ अशांत होता चला जाएगा। छत्तीसगढ में ऐसा कभी नहीं हुआ। इसलिए बेहतर है कि हम छत्तीसगढ़ की तमाम बोलियों को साथ ले कर चलें और जिस इलाके में जो बोलियां प्रमुख हैं, उस इलाके की प्राथमिक शिक्षा वहां प्रचलित बोलियों में भी दी जाए। इससे वे बोलियां भी समृध्द होंगी और आपसी प्रेम व्यवहार भी बना रहेगा।

इधर छत्तीसगढ़ के बरक्स संस्कृत को रखने की कोशिश भी खेदजनक है। यह कहना कि प्राथमिक शिक्षा संस्कृत में नहीं दी जानी चाहिए, एक तरह का परंपरा विरोधी बयान है। संस्कृत एक भाषा ही नहीं है, वह हमारी आस्था, परंपरा और अस्मिता की प्रतीक भी है। आक्रांताओं के कारण संस्कृत धीरे-धीरे हाशिए पर चली गई, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि वह अब हमारे काम की नहीं रही। आखिर वह हमारी आदि माँ है। अगर हम लोग ही उससे मुंह मोड़ने की कोशिश करेंगे, तो हम प्रकारांतर से अंग्रेजी को ही मंडित करने की नादानी करेंगे। आज जरूरत इस बात की है कि पूरे देश में अंग्रेजी के विरुध्द आंदोलन शुरू हों, लेकिन छत्तीसगढ़ में कुछ लोग संस्कृत के विरुध्द वातावरण बनाने की कोशिश कर रहे हैं। संस्कृत ही नहीं, ये लोग दूसरी बोलियों के विरुध्द भी हैं। आखिर यह भाषाई कट्टरता समाज को कहां ले जाएगी?

हम छत्तीसगढ़ी की वकालत करें यहां तक भी ठीक है, लेकिन हम छत्तीसगढ़ की दूसरी बोलियों के विरोध में भी खड़े दिखाई दें, तो यह एक तरह से आपसी अलगाव की ही शुरूआत होगी। आखिर जो अनुदारता महाराष्ट्र में दिखाई पड़ रही है, वही अनुदारता अगर छत्तीसगढ़ में नजर आएगी, तो सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया जैसे महान नारे का क्या होगा? छत्तीसगढ़ क़ी उदारता विख्यात है। यह उदारता बनी रहे। यही इसकी पहचान है। नफरत यहां की मुख्यधारा कभी नहीं रही। लेकिन कुछ लोग जब यहां के सीधे-सादे लोगों को गुमराह करने की कोशिश करते रहते हैं, तब पीड़ा होती है।

छत्तीसगढ़ी बहता नीर :- छत्तीसगढ़ी भषा किसी के रोकने से नहीं रूकने वाली। वह भी बहता नीर है। आगे बढ़ती जाएगी। राजभाषा तो वह बन ही गई है। छत्तीसगढ़ के स्टेशनों में भी वह गूंजने लगी है। छत्तीसगढ़ी में उद्धोषणाएं सुन कर मन प्रफुल्लित हो जाता है। देश भर के लोग छत्तीसगढ़ आते-जाते रहते हैं, यहां से गुजरते हैं। वे जब छत्तीसगढ़ी में उद्धोषणाएं सुनते हैं, तो वे अपने साथ यहां के शब्द भी ले जाते हैं। यहां की मिठास ले जाते हैं। यह बताते हुए मुङो हार्दिक प्रसन्नता हो रही है, कि अब छत्तीसगढी साहित्य अकादमी, दिल्ली तक जा पहुंची है। पिछले दिनों अकादमी के हिंदी बोर्ड की बैठक में छत्तीसगढ़ से इकलौता सदस्य होने के नाते मैंने सबसे पहले यही प्रस्ताव रखा कि छत्तीसगढ़ी भाषा पर परिचयात्मक पुस्तक प्रकाशित होना चाहिए क्योंकि छत्तीसगढ़ी अब छत्तीसगढ राज्य की राजभाषा हो गई है। अकादेमी के सभी सदस्यों ने मेरे सुझाव पर अपनी मुहर लगा दी। बहुत जल्दी अकादेमी की ओर से छत्तीसगढ़ी पर पुस्तक प्रकाशित हो जाएगी और देश छत्तीसगढ़ी भाषा के बारे में प्रामाणिक जानकारी प्राप्त कर सकेगा। कल को साहित्य अकादेमी द्वारा छत्तीसगढ़ी साहित्य के लिए पुरस्कार की शुरुआत भी हो सकती है। जैसे इस वक्त मैथिली आदि पर पुरस्कार दिए जाते हैं। छत्तीसगढ़ी साहित्य का प्रकाशन भी हो सकता है। यहां यह बताने का मकसद सिर्फ इतना है, कि किसी भाषा को कोई रोक नहीं सकता। मैं छत्तीसगढ़ का हूं, इसलिए मेरा फर्ज है कि मैं जहां कहीं भी जाऊं, छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढी क़े पक्ष में खड़ा होऊं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं दूसरी भाषाओं के विरोध में भी अपने तर्क दूं, और सामाजिक समरसता को आहत करने की कोशिश करूं।

हर भाषा अपनी जगह बना ही लेती है। शुरुआत धीरे-धीरे होती है। लेकिन यह बेहद दुर्भाग्यजनक सोच है कि हम केवल छत्तीसगढ़ी की बात करें और संस्कृत का विरोध करें। संस्कृत के विरोध की कल्पना करना भी हमें अभारतीयता और असहिष्णुता की ओर ले जाता है। कोई अंग्रेज या कोई विदेशी संस्कृत विरोध करे तो बात समझ में आती है, लेकिन एक भारतीय चिंतक ही संस्कृत भाषा के विरोध में खड़ा नजर आए तो इस पर केवल दुख ही व्यक्त किया जा सकता है।

हम अपनी भाषाई कट्टरता में आपा खोने लगते हैं। जैसा महाराष्ट्र में राज ठाकरे सरीखे लोग कर रहे हैं। सबै भूमि गोपाल की है। महाराष्ट्र केवल मराठियों का ही नहीं है, उसके निर्माण में दूसरे प्रांतों से आए लोगों का भी योगदान है। पूरा देश हमारा घर है। हम कहीं भी जा कर रह सकते हैं। जैसे छत्तीसगढ़ में बाहर से आई अनेक संस्कृतियां समन्वय के साथ रह रही हैं। छत्तीसगढ़ में सरगुजा से लेकर बस्तर तक और बस्तर से जशपुर तक, अनेक बोलियां प्रचलित हैं। इन सबकी बड़ी बहिन है छत्तीसगढ़ी, इसलिए उसे सबको साथ लेकर चलना ही चाहिए। यह कहना कि छत्तीसगढ़ में केवल छत्तीसगढ़ी में ही पढ़ाई की जाए, संस्कृत नहीं, अन्य बोलियां भी नहीं, तो एक तरह की वैचारिक तानाशाही है, जिस ओर संजय द्विवेदी ने अपने लेख में इशारा किया है। यह सकारात्मक सोच है। अगर कहीं कोई अव्यवहारिक सोच पनपती है, तो उसका विरोध होना ही चाहिए। लेकिन यह विरोध मतभेद के स्तर का हो, हम तर्क दें। हमारे मतभेद मनभेद में तब्दील न हों। वैसे भी देववाणी कही जाने वाली संस्कृत भाषा का विरोध हमारी संस्कृति नहीं हो सकती। हम संस्कृत ही क्यों, किसी भी भाषा और बोली के विरुध्द खड़े न दिखाई दें। छत्तीसगढ़ में जितनी भाषा-बोलियां हैं, उनको भी जीने का हक है। छत्तीसगढ़ में सबका उन्नयन हो, सब विकास करें। सब सुखी रहें। संस्कृत भी पनपे, और छोटी-छोटी बोलियां भी। ऐसी हो हमारी सोच। यही सोच सामाजिक समरसता की श्रीवृध्दि में सहायक होगी।
(लेखक साहित्य अकादमी के सदस्य एवं छत्तीसगढ़ के प्रख्यात साहित्यकार हैं)

3 टिप्‍पणियां:

  1. first of all i want to tell that my mother tongue is hindi and i live in chhattisgarh. actually i love hindi but i am not good at typing it.
    i do not agree with you on hindi and sanskrit issue because i feel ,in the name of hindi as a national language all other regional languages are being marginalised.dont you think that other languages also have the right to survive. i feel it is a linguistic invasion by the hindi on other languages and i agree with the concerns of the tamilians and maharashtrians and also the chhattisgrhi people.
    your argument in favour of the gondi and other minority languges of chhattisgarh is nothing but a counter argument in favour of hindi as you cannot directly confront the pro chhattisgarhi voice so you put forward the back door argument. i am in favour of encouraging every regional languge including chhattisgarhi and gondi halbi etc and i also contend that hindi should not be pushed down the throat of any indian i think india as anation can only survive if there is no cultural invasion by any one party.at last noone can stop the process of chhattisgrhi being the order of the day in chhattisgarh because they have the vote and the hindi bandwagon dont.
    so accept the truth my friend

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  2. गिरीश पंकजजी आप मध्यप्रदेशमे रहनेवाला श्री कृष्ण प्रसाद शर्माका बेटा हो तो मेराका एक इमेल कर्ना अनुरोध कर्ता हुँ ।
    मै अमेरिका से गिरीश पोखरेल आपका इस ब्लागमे सन्देश भेज रहाँ हुँ ।

    गिरीश पोखरेल
    वािसंङटन डीसी

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