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शुक्रवार, 9 मई 2025

ब्रांड मोदी से चलती है विरोधियों की भी रोजी-रोटीः प्रो.संजय द्विवेदी

 

भारतीय जन संचार संस्थान(आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक प्रो.संजय द्विवेदी से वरिष्ठ पत्रकार आनंद सिंह की बातचीत-

 

प्रो.संजय द्विवेदी, भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नयी दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार, भोपाल के प्रभारी कुलपति और कुलसचिव भी रहे हैं। सक्रिय लेखक हैं और अब तक 35 पुस्तकें प्रकाशित। 14 साल की सक्रिय पत्रकारिता के दौरान कई प्रमुख समाचार पत्रों के संपादक रहे। संप्रति माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आचार्य और अध्यक्ष हैं। उनसे बातचीत की वरिष्ठ पत्रकार आनंद सिंह ने। प्रस्तुत है इस चर्चा के मुख्य अंश।




 

टीवी चैनलों और डिबेट्स में इन दिनों पाकिस्तान को लेकर जो कुछ भी चल रहा है, उसे आप कैसे देखते हैं?

कोई भी दृश्य माध्यम बहुत प्रभावशाली होता ही है। टीवी का भी असर है। उसके साथ आवाज और दृश्य का संयोग है। दृश्य माध्यमों की यही शक्ति और सीमा दोनों है। टीवी पर ड्रामा क्रियेट करना पड़ता है। स्पर्धा और आगे निकलने की होड़ में कई बार सीमाएं पार हो जाती हैं। यह सिर्फ भारत-पाक मामले पर नहीं है। यह अनेक बार होता है। जब मुद्दे नहीं होते तब मुद्दे खड़े भी किए जाते हैं। मैं मानता हूं कि इस मुद्दे पर चर्चा बहुत हो रही है, किंतु इसका बहुत लाभ नहीं है। हर माध्यम की अपनी जरूरतें और बाजार है, वे उसके अनुसार ही खुद को ढालते हैं। बहुत गंभीर विमर्श के और जानकारियों से भरे चैनल भी हैं। किंतु जब मामला लोकप्रियता बनाम गंभीरता का हो तो चुने तो लोकप्रिय ही जाते हैं। शोर में बहुत सी आवाजें दब जाती हैं, जो कुछ खास कह रही हैं। हमारे पास ऐसी आवाजें को सुनने का धैर्य और अवकाश कहां हैं?

क्या आप यह मानते हैं कि इस देश में ट्रेंड जर्नलिस्टों की घोर कमी है?

ट्रेनिंग से आपका आशय क्या है मैं समझ नहीं पाया। बहुत पढ़-लिखकर भी आपको एक व्यवस्था के साथ खड़ा होना पड़ता है। हम लोग जब टीवी में नौकरी के लिए गए तो कहा गया कि ये लेख लिखने वाले खालिस प्रिंट के लोग हैं टीवी में क्या करेंगें। किंतु हमने टीवी और उसकी भाषा को सीखा। हम गिरे या उन्नत हुए ऐसा नहीं कह सकते। हर माध्यम अपने लायक लोग खोजता और तैयार करता है। मैंने प्रिंट, डिजीटल और टीवी तीनों में काम किया। तीनों माध्यमों की जरूरतें अलग हैं। इसके साथ ही संस्थानों के चरित्र और उनकी जरूरतें भी अलग-अलग हैं। आप आकाशवाणी में जिस भाषा में काम करते हैं, वे बाजार में चल रहे एफएम रेडियो के लिए बेमतलब है। कोई ऐसी ट्रेनिंग नहीं जो आपको हर माध्यम के लायक बना दे। आप किसी एक काम को सीखिए उसी को अच्छे से करिए। जहां तक ट्रेंड जर्नलिस्ट की बात है, देश में बहुत अच्छे मीडिया के लोग हैं। बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। इतने बड़े देश, उसकी आकांक्षाओं, आर्तनाद, दर्द और सपनों को दर्ज करना बड़ी बात है, मीडिया के लोग इसे कर रहे हैं। अपने-अपने माध्यमों के अनुसार वे अपना कटेंट गढ़ रहे हैं। इसलिए मैं यह मानने को तैयार नहीं कि हमारे लोग ट्रेंड नहीं हैं।

क्या आप मानते हैं कि मीडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्र बिंदु मान कर पत्रकारिता कर रहा है? प्रो- मोदी, एंटी मोदी को क्या आप मानते हैं?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके समर्थकों के साथ उनके विरोधियों ने भी बनाया है। मोदी का नाम इतना बड़ा हो गया है कि उनके समर्थन या विरोध दोनों से आपको फायदा मिलता है। अनेक ऐसे हैं जो मोदी को गालियां देकर अपनी दुकान चला रहे हैं, तो अनेक उनकी स्तुति से बाजार में बने हुए हैं। इसलिए मोदी समर्थक और मोदी विरोधी दो खेमे बन गए हैं। यह हो गया है। समाज जीवन के हर क्षेत्र में यह बंटवारा दिखने लगा है। राजनीति, पत्रकारिता, शिक्षा, समाज सब जगह ये दिखेगा। इसमें अंधविरोध भी है और अंधसमर्थन भी । दोनों गलत है। किसी समाज में अतिवाद अच्छा नहीं। मैं यह मानता हूं कोई भी व्यक्ति जो देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा है वह सिर्फ गलत कर रहा है या उससे कोई भूल नहीं हो सकती, मैं इसे नहीं मानता। गुण और दोष के आधार पर समग्रता से विचार होना चाहिए। किंतु मोदी जी को लेकर एक अतिवादी दृष्टिकोण विकसित हो गया है। यहां तक कि मोदी विरोध करते-करते उनके विरोधी भारत विरोध और समाज विरोध तक उतर आते हैं। यह ठीक नहीं है।

 

कई यूट्यूब चैनल्स मोदी के नाम पर, चाहे विरोध हो अथवा प्रशंसा, लाखों रुपये कमाने का दावा करते हैं। क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि यूट्यूब हो या मीडिया का कोई और प्रकल्प, वहां मोदी ही हावी रहते हैं? यह स्वस्थ पत्रकारिता के लिए किस रुप में देखा जाएगा?

मैंने पहले भी कहा कि श्री नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व ऐसा है कि उन्होंने अपने विरोधियों और समर्थकों दोनों को रोजगार दे रखा है। उनका नाम लेकर और उन्हें गालियां देकर भी अच्छा व्यवसाय हो सकता है, यही ब्रांड मोदी की ताकत है। आपने कहा कि मोदी हावी रहते हैं, क्या मोदी ऐसा चाहते हैं? आखिर कौन व्यक्ति होगा कि जो गालियां सुनना चाहता है। किसी का अंधविरोध अच्छी पत्रकारिता नहीं है। यह सुपारी पत्रकारिता है। एक व्यक्ति जिसने अपनी जिंदगी के पचास वर्ष सार्वजनिक जीवन में झोंक दिए। जिसके ऊपर भ्रष्टाचार, परिवारवाद का कोई कलंक नहीं है। उसके जीवन में कुछ लोगों को कुछ भी सकारात्मक नजर नहीं आता तो यह उनकी समस्या है। नरेंद्र मोदी को इससे क्या फर्क पड़ता है। वे गोधरा दंगों के बाद वैश्विक मीडिया के निशाने पर रहे , खूब षड़यंत्र रचे गए पर आज उनके विरोधी कहां हैं और वे कहां हैं आप स्वयं देखिए।

 

अनेक चैनलों पर आपने अब संघ की विचारधारा के लोगों को प्राइम टाइम में डिस्कस करते देखा होगा। क्या आप मानते हैं कि देश का मिजाज बनाने के क्रम में संघ मीडिया में घुसपैठ करने में कामयाब हुआ है?

आमतौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रचार से दूर रहता है। उनके लोगों में छपने और टीवी पर दिखने की वासना मैंने तो नहीं देखी। जो लोग संघ की ओर से चैनलों पर बैठते हैं, वे संघ के अधिकृत पदाधिकारी नहीं हैं। संघ के विचार के समर्थक हो सकते हैं। इसे घुसपैठ कहना ठीक नहीं। संघ दुनिया के सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन है। उसके विचारों पर चलने वाले दो दर्जन से अधिक संगठनों की आज समाज में बड़ी भूमिका है। यह भी सच है कि प्रधानमंत्री सहित उसके अनेक स्वयंसेवक आज मंत्री, सांसद,विधायक और मुख्यमंत्री हैं। ऐसे में समाज और मीडिया दोनों की रुचि यह जानने में है कि संघ की सोच क्या है। लोग इस बारे में जानना चाहते हैं। संघ की रुचि मीडिया में छा जाने की नहीं है। समाज की रुचि संघ को जानने की है। इसलिए कुछ संघ को समझने वाले लोग चैनलों पर अपनी बात कहते हैं। मुझे जहां तक पता है कि संघ इस प्रकार की चर्चाओं, विवादों और वितंडावाद में रुचि नहीं रखता। उसका भरोसा कार्य करने में है, उसका विज्ञापन करने में नहीं।

 

हाल ही में आपने एक खबर पढ़ी होगी कि संघ प्रमुख मोहन भागवत पहली बार पीएमओ बुलाए गये और प्रधानमंत्री से उनकी लंबी बातचीत हुई। युद्ध की आशंका से घिरे इस देश में भागवत का मोदी से मिलना क्या संकेत देता है?

देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन के मुखिया का प्रधानमंत्री से मिलना जरूर ऐसी बात है जिसकी चर्चा होगी ही। पिछले महीने भी नागपुर संघ मुख्यालय में जाकर प्रधानमंत्री ने सरसंघचालक से मुलाकात की थी। यह बहुत सहज है। उनकी क्या बात हुई, इसे वे दोनों ही बता सकते हैं। पर मुलाकात में गलत क्या है। संवाद तो होना ही चाहिए।

 

सक्रिय पत्रकारिता में एक तथ्यात्मक फर्क ये देखने को मिल रहा है कि फील्ड के संवाददाता बहुधा अब फील्ड में कम ही जाते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मेरे पास हैं। यह पत्रकारिता, खास कर हिंदी पत्रकारिता को कितना डैमेज कर रहे हैं?

यह सही है कि मैदान में लोग कम दिखते हैं। मौके पर जाकर रिपोर्ट करने का अभ्यास कम दिखता है। इसके दो कारण हैं। पहला है सोशल मीडिया जिसके माध्यम से कम्युनिकेशन तुरंत हो जाता है। घटना के खबर, फोटो, इंटरव्यू आपके पहुंचने से पहले आ जाते हैं। सूचनाओं को भेजने की प्रक्रिया सरल और सहज हो गयी है। बातचीत करना आसान है। आप कहीं से भी किसी से भी बात कर सकते हैं। दूसरा यह है कि मीडिया बहुत बढ़ गया है। हर कस्बे तक मीडिया के लोग हैं। हो सकता है वे वेतनभोगी न हों, पर पत्रकार तो हैं। खबरें, वीडियो सब भेजते हैं। सो चीजें कवर हो रही हैं। ग्रामीण, जिला स्तर पर कवरेज का दायरा बहुत बढ़ा है। जिलों-जिलों के संस्करण और टीवी चैनलों के राज्य संस्करण आखिर खबरें ही दिखा रहे हैं। यह सही बात है कि पहले की तरह राजधानियों के संवाददाता, बड़े शहरों मे विराजे पत्रकार अब हर बात के लिए दौड़ नहीं लगाते, तब जबकि बात बहुत न हो। अभी जैसे पहलगाम हमला हुआ तो देश के सारे चैनलों के स्टार एंकर मैदान में दिखे ही। इसलिए इसे बहुत सरलीकृत करके नहीं देखना चाहिए। मीडिया की व्यापकता को देखिए। उसके विस्तार को देखिए। उसके लिए काम कर रहे अंशकालिक पत्रकारों की सर्वत्र उपस्थिति को भी देखिए।

 

हिंदी अथवा अंग्रेजी या उर्दू, किसी भी अखबार को उठाएं, सत्ता वर्ग की चिरौरीनुमा खबरों से आपके दिन की शुरुआत होती है। क्या आप इस तथ्य में यकीन करते हैं कि हर रोज का अखबार सरकार के लिए चेतावनी भरे स्वर में शीर्षकयुक्त होने चाहिए, ना कि चिरौरी में?

मैं नहीं जानता आप कौन से अखबार की बात कर रहे हैं। मुझे इतना पता है कि 2014 से कोलकाता का टेलीग्राफ क्या लिख रहा है। हिंदू क्या लिख रहा है। मुख्यधारा के अन्य अखबार क्या लिख रहे हैं। देश का मीडिया बहुत बदला हुआ है। यह वह समय नहीं कि महीने के तीस दिनों में प्रधानमंत्री की हेडलाइंस बने। राजनीतिक खबरें भी सिकुड़ गयी हैं। पहले पन्ने पर क्या जा रहा है, ठीक से देखिए। पूरे अखबार में राजनीतिक खबरें कितनी हैं, इसे भी देखिए। मुझे लगता है कि हम पुरानी आंखों से ही आज की पत्रकारिता का आकलन कर रहे हैं। आज के अखबार बहुत बदल गए हैं। वे जिंदगी को और आम आदमी की जरूरत को कवर कर रहे हैं। देश के बड़े अखबारों का विश्लेषण कीजिए तो सच्चाई सामने आ जाएगी।

 

एक नया ट्रेंड यह चला है कि आपने सत्तापक्ष को नाराज करने वाली खबरें लिखीं नहीं कि आपका विज्ञापन बंद। फिर बड़े-बड़े संपादक-प्रबंधक-दलाल सरकार के मुखिया से दो वक्त का टाइम लेने के लिए मुर्गा तक बन जाते हैं। आखिर ऐसे अखबारों पर लोग यकीन करें तो कैसे और क्या जनता को ऐसे अखबारों को आउटरेट रिजेक्ट नहीं कर देना चाहिए?

सत्ता को मीडिया के साथ उदार होना चाहिए। अगर सरकारें ऐसा करती हैं तो गलत है। मीडिया को सत्ता के आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता रखना ही चाहिए। यही हमारी भूमिका है। मैंने देश भर की पत्र-पत्रिकाओं का देखता हूं। मैंने ऐसी पत्र-पत्रिकाओं में उत्तर-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश सरकार के विज्ञापन लगातार देखे हैं जिन्होंने मोदी और योगी की सुपारी ले रखी है। मीडिया अपना काम कर रहा है, उसे करने दीजिए। मीडिया को सताने के मामले में स्वयं को बहुत लोकतांत्रिक कहलाने वाली राज्य सरकारों का चरित्र और व्यवहार क्या रहा है, मुझसे मत कहलवाइए।

इन दिनों आपको म्यूजिक सुनने का मौका मिल पाता है? पसंदीदा गायक कौन हैं?

संगीत तो जीवन है। मेरे सुनने में बहुत द्वंद्व है या तो गजल सुनता हूं या फिर भजन। जगजीत सिंह की आवाज दिल के बहुत करीब है। फिर मोहम्मद ऱफी मुकेश भी कम नहीं। लता जी के तो क्या कहने। सब रूह को छू लेने वाली आवाजें हैं। शनिवार और मंगलवार सुंदरकांड भी सुनता हूं।  

 

आखिरी मर्तबा आपने कौन सी पुस्तक पूरी पढ़ी? क्या हासिल हुआ आपको?

देश के प्रख्यात पत्रकार, समाज चिंतक और विचारक श्री रामबहादुर राय की किताब भारतीय संविधानएक अनकही कहानी मैंने पढ़ी है। जिसने संविधान से जुड़े तमाम सवालों को फिर से चर्चा में ला दिया है।  पद्मश्री से अलंकृत और जनांदोलनों से जुड़े रहे श्री रामबहादुर राय की यह किताब कोरोना काल के विषैले और कड़वे समय के वैचारिक मंथन से निकला अमृत है। आजादी का अमृतकाल हमारे राष्ट्र जीवन के लिए कितना खास समय है, इसे कहने की जरूरत नहीं है। किसी भी राष्ट्र के जीवन में 75 साल वैसे तो कुछ नहीं होते, किंतु एक यात्रा के मूल्यांकन के लिए बहुत काफी हैं। वह यात्रा लोकतंत्र की भी है, संविधान की भी है और आजाद व बदलते हिंदुस्तान की भी है। आजादी और विभाजन दो ऐसे सच हैं जो 1947 के वर्ष को एक साथ खुशी और विषाद से भर देते हैं। दो देश, दो झंडे, विभाजन के लंबे सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक असर से आज भी हम मुक्त कहां हो पाए हैं। आजादी हमें मिली किंतु हमारे मनों में अंधेरा बना रहा। विभाजन ने सारी खुशियों पर ग्रहण लगा दिए। इन कहानियों के बीच एक और कहानी चल रही थी, संविधान सभा की कहानी। देश के लिए एक संविधान रचने की तैयारियां। कांग्रेस- मुस्लिम लीग के मतभेदों को बीच भी आजाद होकर साथ-साथ जीने वाले भारत का सपना तैर रहा था। वह सच नहीं हो सका, किंतु संविधान ने आकार लिया। अपनी तरह से और हिंदुस्तान के मन के मुताबिक। संविधान सभा की बहसों और संविधान के मर्म को समझने के लिए सही मायने में यह किताब अप्रतिम है। यह किताब एक बड़ी कहानी की तरह धीरे-धीरे खुलती है और मन में उतरती चली जाती है। किताब एक बैठक में उपन्यास का आस्वाद देती हैतो पाठ-दर पाठ पढ़ने पर कहानी का सुख देती है। यह एक पत्रकार की ही शैली हो सकती है कि इतने गूढ़ विषय पर इतनी सरलता से, सहजता से संचार कर सके। संचार की सहजता ही इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है।

     इस क्रम में मैंने इतिहासकार सुधीरचंद्र की किताब गांधी एक असंभव संभावना को पढ़ा। इस किताब के शीर्षक ने सर्वाधिक प्रभावित किया। यह शीर्षक कई अर्थ लिए हुए हैजिसे इस किताब को पढ़कर ही समझा जा सकता है। 184 पृष्ठों की यह किताब गांधी के बेहद लाचार, बेचारे, विवश हो जाने और उस विवशता में भी अपने सत्य के लिए जूझते रहने की कहानी है। जाहिर तौर पर यह किताब गांधी की जिंदगी के आखिरी दिनों की कहानी बयां करती है। इसमें असंभव संभावना शब्द कई तरह के अर्थ खोलता है। गांधी तो उनमें प्रथम हैं ही, तो भारत-पाकिस्तान के रिश्ते भी उसके साथ संयुक्त हैं। ऐसे में यह मान लेने का मन करता है कि भारत-पाक रिश्ते भी एक असंभव संभावना हैंसामान्य मनुष्य इसे मान भी ले किंतु अगर गांधी भी मान लेते तो वे गांधी क्यों होते? मुझे लगा कि प्रत्येक विपरीत स्थिति और झंझावातों में भी अपने सच के साथ रहने और खड़े होने का नाम ही तो गांधी है।

 

बुधवार, 20 नवंबर 2024

अजातशत्रु अच्युतानंद

 

-प्रो.संजय द्विवेदी



         हमारे समय के बेहद महत्वपूर्ण संपादक, पत्रकार, लेखक, पत्रकार संगठनों के अगुआ, शिक्षाविद्आयोजनकर्ता, और सामाजिक कार्यकर्ता जैसी अच्युतानंद मिश्र की अनेक छवियां हैं। उनकी हर छवि न सिर्फ पूर्णता लिए हुए है, वरन् लोगों को जोड़ने वाली साबित हुयी है। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि मानव की सहज कमजोरियां भी उनके आसपास से होकर नहीं गुजरी हैं। राग-द्वेष और अपने- पराए के भेद से परे जैसी दुनिया उन्होंने रची है उसमें सबके लिए आदर है, प्यार है, सम्मान है और कुछ देने का भाव है। देश के आला अखबारों जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला, लोकमत समाचार के संपादक के नाते उन्हें हिंदी की दुनिया ने देखा और पढ़ा है। अपनी संपादन क्षमता और नेतृत्व क्षमता से उन्होंने जो किया वह हिंदी पत्रकारिता का बहुत उजला अध्याय है।

     2 दिसंबर,1937 को गाजीपुर के एक गांव में जन्मे श्री मिश्र पत्रकारों के संघर्षों की अगुवाई करते हुए संगठन को शक्ति देते रहे हैं तो एक शिक्षाविद् के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति के नाते उन्होंने पत्रकारिता शिक्षा और शोध के क्षेत्र में नए आयाम गढ़े। स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता पर शोध परियोजना के माध्यम से उन्होंने जो काम किया है वह आने वाली पीढियों के लिए एक मानक काम है, जिसके आगे चलकर और भी नए रास्ते निकलेंगें। लोगों को जोड़ना और उन्हें अपने प्रेम से सींचना, उनसे सीखने की चीज है। उनके जानने वाले लोगों से आप मिलें तो पता चलेगा कि आखिर अच्युतानंद मिश्र क्या हैं। वे कितनी धाराओं, कितने विचारों, कितने वादों और कितनी प्रतिबद्धताओं के बीच सम्मान पाते हैं कि व्यक्ति आश्चर्य से भर उठता है। उनका कवरेज एरिया बहुत व्यापक है, उनकी मित्रता में देश की राजनीति, मीडिया और साहित्य के शिखर पुरूष भी हैं तो बेहद सामान्य लोग और साधारण परिवेश से आए पत्रकार और छात्र भी।

         वे हर आयु के लोगों के बीच लोकप्रिय हैं। उनके परिधानों की तरह उनका मन, जीवन और परिवेश भी बहुत स्वच्छ है। यह व्यापक रेंज उन्होंने सिर्फ अपने खरे पन से बनाई है, ईमानदारी भरे रिश्तों से बनाई है। लोगों की सीमा से बाहर जाकर मदद करने का स्वभाव जहां उनकी संवेदनशीलता का परिचायक है, वहीं रिश्तों में ईमानदारी उनके खांटी मनुष्य होने की गवाही देती है। वे जैसे हैं, वैसे ही प्रस्तुत हुए हैं। इस बेहद चालाक और बनावटी समय में वे एक असली आदमी हैं। अपनी भद्रता से वे लोगों के मन, जीवन और परिवारों में जगह बनाते गए। खाने-खिलाने, पहनने-पहनाने के शौक ऐसे कि उनसे हमेशा रश्क हो जाए। जिंदगी कैसे जीनी चाहिए उनको देख कर सीखा जा सकता है। डायबिटीज है पर वे ही ऐसे हैं जो खुद न खाने के बावजूद आपके लिए एक-एक से मिठाईंयां पेश कर सकते हैं। उनका आतिथ्यभाव,स्वागतभाव, प्रेमभाव मिलकर एक अहोभाव रचते हैं।  

           वे मेरे विश्वविद्यालय कुलपति रहे हैं। किंतु इससे ज्यादा वे मेरे अभिभावक हैं। जीवन में एक आत्मीय उपस्थिति। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में आने के पहले उन्हें रायपुर के एक- दो आयोजनों में सुना था। जनसत्ता के माध्यम से उन्हें जानते भी थे। उनकी लेखनी से परिचय था। जनसत्ता उन दिनों स्टार अखबार था। उनका नाम उसमें प्रिंट लाइन में जाता था। जाहिर है हमारे लिए वे हीरो ही थे। एक दिन उन्हें अपने बास के नाते पाया। उनकी बहुत गहरी आत्मीयता और वात्सल्य के निकट से दर्शन हुए। हर व्यक्ति की चिंता और उसकी समस्याओं का समाधान कैसे हो सकता है, इसके रास्ते निकालना उनका स्वभाव रहा है। एक प्रशासक के रूप में भी वे बहुत सरल और लोकतांत्रिक चेतना के वाहक हैं। कुर्सी कभी उन पर नहीं बैठी, वे कुर्सी पर बैठै। उनके कार्यकाल में विश्वविद्यालय को अकादमिक ऊंचाई मिली। स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता पर शोध परियोजना के माध्यम से उन्होंने देश भर के पत्रकारों,संपादकों और शोधकर्ताओं को विश्वविद्यालय से जोड़ा। इस महती योजना का दायित्व उन्होंने आदरणीय विजयदत्त श्रीधर जैसे मनीषी को सौंपा जो भोपाल के माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय के संस्थापक हैं। उनकी शोध परक दृष्टि और कुशल संपादन क्षमता से शोध परियोजना को बहुत लाभ हुआ। इस दौरान अनेक विशिष्ठ आयोजनों के माध्यम से देश की श्रेष्ठतम बौद्धिक विभूतियों का विश्वविद्यालय में आगमन हुआ।

         शोध परियोजना के तहत देश भर में बौद्धिक आयोजन भी हुए। इन गतिविधियों से विश्वविद्यालय अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने में सफल रहा। यह हमारे तत्कालीन कुलपति अच्युतानंद जी के निजी संपर्कों और औदार्य के चलते हो पाया। हमने महसूस किया कि नेतृत्व कैसे किसी संस्था को न सिर्फ सही दिशा दे सकता है बल्कि उसे अखिलभारतीय पहचान भी दिला सकता है। निश्चित ही ऐसे लोग किसी भी संस्था को बहुत ऊंचाई प्रदान करते हैं। जिस दौर में बौनों और अनुचरों की बन आई है, वहां ऐसे लोग हमें प्रेरित करते हैं। शायद इसीलिए मिश्रजी ने अपने उदार लोकतांत्रिक व्यवहार से अजातशत्रु की संज्ञा प्राप्त कर ली। अक्षरा के प्रधान संपादक,साहित्यकार श्री कैलाशचंद्र पंत लिखते हैं-अच्युतानंद मिश्र ने हिंदी भाषा और हिंदी पत्रकारिता की गरिमा के लिए लंबे समय तक वैचारिक संघर्ष को जीवित रखा। सही मायनों में वे पत्रकारिता और साहित्य का सेतुबंध बनाने वाले लोगों में एक हैं। हाल में आई उनकी किताब तीन श्रेष्ठ कवियों का हिंदी पत्रकारिता में अवदान इस बात की पुष्टि करती है। किस तरह उन्होंने साहित्य के साधकों की पत्रकारीय साधना को रेखांकित किया है। इस पुस्तक में वे हमारे समय के तीन महत्वपूर्ण संपादकों अज्ञेय, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती के बहाने एक पूरी परंपरा को याद करते हैं। हिंदी साहित्य और पत्रकारिता किस तरह साथ-साथ चलते हुए समाज की वैचारिक और सूचनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहे हैं, इससे पता चलता है। उनकी यह किताब बहुत गहन अध्ययन के बाद लिखी गयी है। क्योंकि वे इस दौर के साक्षी और सहयात्री भी रहे हैं। हमारी पत्रकारिता और साहित्य के नायकों को इस तरह याद किया जाना बहुत महत्वपूर्ण है। इसी तरह उनकी किताब कुछ सपने कुछ संस्मरण हमारे समय अनेक ज्वलंत मुद्दों पर बात करती है। इस किताब में संकलित निबंध श्री मिश्र कै वैचारिक अवदान को सामने लाते हैं। इसके साथ ही अनेक महापुरुषों के संस्मरण भी हैं। इस किताब में मिश्र जी के निबंध पत्रकारिता की नई समझ के द्वार खोलते हैं। इसमें भाषा की चिंता है तो महानायकों की याद भी जो इस समय में हमारा संबल बन सकते हैं। मिश्र जी के लेखन में आशा जगाने वाले तत्व हैं। वे उत्साह जगाते हैं। परंपरा से जोड़ते हैं और दायित्वबोध कराते हैं। इस मायने में उनकी लेखनी कहीं निराशा के बीज नहीं बोती। ऐसी गहरी सकारात्मकता, संस्कार और परंपरा के माध्यम से वे लोकशिक्षण करते हैं।

    अच्युतानंद मिश्र जैसे नायकों का हमारे बीच में होना इस बात की गवाही है कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। वे जहां भी रहे संस्कारों के बीच रोपते रहे, रिश्तों को सींचते रहे। किसी भी शहर में जाकर उस शहर के बुद्धिजीवियों, कलावंतों से मिलने वाले मिश्र जी एक परंपरा बनाते हैं। संपादकों को सिखाते हैं कि कैसे संचार की दुनिया के लोगों को समावेशी, कलाओं का पारखी और उदार होना चाहिए। इसलिए उनका होना सिर्फ उत्सव नहीं है, संस्कार भी है, बहुत गहरी जिम्मेदारी भी। वे कुछ कहकर नहीं, करके सिखाते हैं। शब्द की साधना, भाषा की सेवा, संवेदनशीलता की जो थाती वे हमें सौंप रहे हैं, उसे हमें आगे बढ़ाना है और इसमें कुछ जोड़ना भी है। इस बहुत कठिन उत्तराधिकार के लिए हमारी पीढ़ी को आगे आना ही होगा। उनकी दिखाई राह ही मूल्यनिष्ठ और राष्ट्रभाव की पत्रकारिता की धारा को जीवंत बनाए रख पाएगी।


मंगलवार, 30 जुलाई 2024

'सरस्वती प्रज्ञा सम्मान' से अलंकृत किए गए प्रो.संजय द्विवेदी



भोपाल। प्रख्यात मीडिया शिक्षक और लेखक प्रो.संजय द्विवेदी को 'सरस्वती प्रज्ञा सम्मान -2024' से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह सम्मान भोपाल स्थित गांधी भवन में निर्दलीय प्रकाशन,जन संगठन दृष्टि की ओर से आयोजित समारोह में पद्मश्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार श्री विजयदत्त श्रीधर ने प्रदान किया। इस अवसर पर नव नालंदा महाविहार विश्वविद्यालय के प्रो.विजय कुमार कर्ण, गांधी भवन न्यास के सचिव दयाराम नामदेव, पत्रकार कैलाश आदमी, गांधीवादी विचारक आर के पालीवाल, प्रिंस अभिषेक अज्ञानी विशेष रूप से उपस्थित थे।

  प्रो.संजय द्विवेदी भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक हैं। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के प्रभारी कुलपति भी रह चुके हैं। उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण समाचार पत्रों में संपादक के रूप में काम किया है। मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर उनकी 35 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सक्रिय पत्रकार,लेखक और संपादक के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई है।

  इस अवसर पर अपने संबोधन में प्रो.द्विवेदी ने कहा हमारा मीडिया पश्चिमी मानकों पर खड़ा है, उसे भारतीय मूल्यों पर आधारित करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि समाज के सब क्षेत्रों की तरह मीडिया भी औपनिवेशिक विचारों से मुक्त नहीं हो सका है। हमें संचार, संवाद की भारतीय अवधारणा पर काम करते हुए लोक-मंगल को केंद्र में रखना होगा और संचार के भारतीय माडल बनाने होंगे। इसके लिए समाधानपरक पत्रकारिता का विचार प्रासंगिक हो सकता है। कार्यक्रम का संचालन विमल भंडारी ने किया।

जिम्मेदारियों को बढ़ाता है सम्मान : प्रो. संजय द्विवेदी


 -खुशी फॉउण्डेशन एवं दिशा एजुकेशनल सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में सेवा शिखर सम्मान समारोह आयोजित

- विभिन्न क्षेत्रों की महान विभूतियों को सम्मान से नवाजा गया 



लखनऊ 27 जुलाई  - खुशी फॉउण्डेशन और दिशा एजुकेशनल सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में शनिवार को बौद्ध शोध संस्थान, गोमतीनगर के सभागार में सेवा शिखर सम्मान समारोह-2024 आयोजित किया गया। समारोह की अध्यक्षता  भारतीय जनसंचार संस्थान के पूर्व महानिदेशक प्रो(डॉ ) संजय द्विवेदी ने की। 

प्रो. संजय द्विवेदी ने  कहा कि प्रतिभाओं के सम्मान से समाज में सकारात्मक चेतना पैदा होती है और लोग अच्छे कामों को करने हेतु प्रेरित होते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय परिवारों की शक्ति उनकी मूल्यनिष्ठा ही है। संस्कृति, संस्कार और परम्पराओं की रक्षा से ही भारत श्रेष्ठ बनेगा। खुशी समय जैसी संस्थाएं देश को जीवंत बनाए रखने में सहयोगी हैं। प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने कहा कि सेवा के बदले में मिलने वाले सम्मान की ख़ुशी ही कुछ अलग होती है। यह सम्मान समाज के अन्य लोगों में सेवा भाव को जगाने का पुनीत कार्य करता है। प्रो. द्विवेदी ने इस भव्य आयोजन के लिए ख़ुशी फाउंडेशन और दिशा एजुकेशनल सोसायटी के प्रतिनिधियों का आभार जताया। इसके साथ ही समाज के कमजोर वर्ग के हित में किये जा रहे उनके कार्यों को सराहा। 

इस मौके पर बौद्ध शोध संश्तान के अध्यक्ष हरगोविंद बौद्ध ने कहा कि सम्मान से नवाजी गयीं विभिन्न क्षेत्रों की महान विभूतियों के चेहरों पर ख़ुशी की झलक साफ़ देखी जा सकती थी। संस्था द्वारा सम्मानित लोगों की जिम्मेदारी अब और बढ़ जाती है कि वह और मनोयोग से अपने-अपने क्षेत्र में कार्य कर दूसरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करें। कार्यक्रम को पापुलेशन सर्विसेज इंटरनेशनल इंडिया के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर मुकेश कुमार शर्मा ने सम्बोधित किया और कार्यक्रम की भरपूर सराहना की ।  धन्यवाद ज्ञापन दिशा एजुकेशनल एवं वेलफेयर सोसाइटी के अध्यक्ष प्रभात पांडेय ने किया। 

इनको मिला सम्मान : संतोष गुप्ता (सीइओ - इंडियन सोशल रेस्पोंसबिल्टी नेटवर्क), श्री बलबीर सिंह मान(सचिव - उम्मीद), श्री महेंद्र दीक्षित(प्रबंध निदेशक - सिग्मा ट्रेड विंग्स) , सचिन गुप्ता - निदेशक -ओलिवहेल्थ, डॉ आर पी सिंह (निदेशक - खेल, उत्तर प्रदेश), श्रीमती सुमोना एस पांडेय(आकाशवाणी) , मेदांता, लखनऊ,  दीपेश सिंह( ऑर्गॅनिक्स4यू), श्री नरेंद्र कुमार मौर्या (मैनेजिंग डायरेक्टर- रोहित ग्रुप), अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान , श्रीमती ममता शर्मा, श्रीमती रश्मि मिश्रा के अलावा कई अन्य क्षेत्रों में सराहनीय कार्य करने वालों को सेवा गौरव सम्मान से नवाजा गया।  

बच्चों की भाव भंगिमाओं ने लोगों के मन को मोहा : सम्मान समारोह की शुरुआत में पीहू द्विवेदी द्वारा गणेश वंदना एवं सरस्वती के साथ की गयी।  इसके बाद लखनऊ कनेक्शन वर्ल्ड वाइड द्वारा गीत गायन प्रस्तुत किया गया। गार्गी द्विवेदी द्वारा सांस्कृतिक नृत्य प्रस्तुत किया गया। इसके अलावा दीपा अवस्थी एवं निखिल कसुधान द्वारा भी शिव जी को समर्पित नृत्य प्रस्तुत किया गया। वहीं विद्याभूषण सोनी के भी मोहक नृत्य प्रस्तुति ने भी खूब तालियाँ बटोरी ।  प्रतुत और गार्गी द्विवेदी के नृत्य ने लोगों को नृत्यांगना डांस इंस्टीट्युट इंदिरानगर की डायरेक्टर और कोरियोग्राफर अनुपमा श्रीवास्तव की देखरेख में भानवी श्रीवास्तव ने गणेश वंदना प्रस्तुत कर लोगों को मन्त्रमुग्ध कर दिया।



बुधवार, 26 जून 2024

सोने जैसे दिल वाला सामाजिक कार्यकर्ता कैसे बना राष्ट्रीय राजनीति का सितारा

 

ओम बिरला होने का मतलब

-प्रो.संजय द्विवेदी


 

  ओम बिरला में ऐसा क्या है जो उन्हें लगातार दूसरी बार लोकसभा के अध्यक्ष जैसी बड़ी जिम्मेदारी पर पहुंचाता है। अपने कोटा शहर में जरूरतमंद लोगों को कपड़े, दवाएं, भोजन पहुंचाते-पहुंचाते बिरला कब राष्ट्रीय राजनीति के सितारे बन गए, यह एक अद्भुत कहानी है। उनकी सरलता,सहजता और सदन चलाने की उनकी क्षमताएं प्रमाणित हैं। अब जब वे ध्वनिमत से लोकसभा के अध्यक्ष चुने जा चुके हैं, तब उन पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आन पड़ी है। यह भी शुभ रहा कि कांग्रेस ने प्रारंभिक चर्चाओं के बाद भी मत विभाजन की मांग नहीं की और उनका चयन सर्वसम्मत से हुआ। इससे संसद की गरिमा बनी और परंपराओं का पालन हुआ है। उम्मीद की जानी चाहिए आने वाले समय में लोकसभा ज्यादा बेहतर तरीके से अपने कामों को अंजाम दे सकेगी।

      श्री बलराम जाखड़ के बाद वे दूसरे ऐसे सांसद हैं, जिन्होंने यह गरिमामय पद दुबारा संभाला है। इस बात को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि नए सांसदों को बिरला से सीखना चाहिए। मोदी ने कहा कि संसद 140 करोड़ देशवासियों की आशा का केंद्र है। सदन में आचरण और नियमों का पालन जरूरी है। सदन की गरिमा और परंपराओं का पालन अध्यक्ष की बहुत महती जिम्मेदारी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि संसद में लोकसभा अध्यक्ष के रूप में बिरला जी का यह कार्यकाल उदाहरण बनेगा। जहां गंभीर बहसें होंगी और शासकीय काम के साथ विमर्शों का नया आकाश खुलेगा।
     राजस्थान के कोटा जिले में 23 नवंबर,1962 को जन्में ओम बिरला का समूचा राजनीतिक और सावर्जनिक जीवन सेवा, समर्पण और उससे उपजी सफलताओं से बना है। भारतीय जनता युवा मोर्चा के जिलाध्यक्ष के रूप में काम प्रारंभ कर वे राजस्थान में युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे 2003, 2008 और 2013 में तीन बार राजस्थान विधानसभा में विधायक निर्वाचित किए गए। 2014 से वे लगातार तीसरी बार लोकसभा पहुंचे हैं। इस तरह वे एक सफल जनप्रतिनिधि के रूप में कोटा के लोगों का दिल जीतते रहे हैं। 17 वीं लोकसभा में अध्यक्ष चुने जाते ही वे राष्ट्रीय फलक पर छा गए। अपने तमाम फैसलों की तरह उस समय नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक विश्वेषकों को चौंकाते हुए बिरला के नाम का प्रस्ताव रखा था। किंतु अपनी सौजन्यता, कुशल सदन संचालन और लोकसभा उपाध्यक्ष का चुनाव न होने के बाद भी अकेले वरिष्ठ सांसदों के पैनल के आधार उन्होंने सदन चलाया । उनका सहज अंदाज और हल्की मुस्कान,मीठी डांट से सदन को चलाने का तरीका उन्हें इस बार इस पद का स्वाभाविक उत्तराधिकारी बना चुका था। अब कोटा की स्थानीय राजनीति से राष्ट्रीय फलक पर आए बिरला सदन की उपलब्धि बन चुके हैं।

      बिरला राजनीति में आने से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े थे। उनके मन में समाजसेवा की भावना इसी संगठन से उपजी और वे विविध प्रकल्पों के माध्यम से इसी काम में रम गए। उन्होंने अपने क्षेत्र में 2012 में परिधान नाम कल्याणकारी कार्यक्रम प्रारंभ किया, जिसके तहत समाज के कमजोर वर्गों को किताबें और कपड़े वितरित किए जाते थे। इसके साथ ही रक्तदान और मुफ्त दवा वितरण के आयोजनों से वे लोगों के दिलों में उतरते चले गए। फिर उन्होंने मुफ्त भोजन कार्यक्रम भी चलाया। उनका संकल्प था उनके लोग भूखे न सोएं। इस तरह वे बहुत संवेदनशील और बड़े दिलवाले सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता की तरह सामने आते हैं। यह उन हाशिए के लोगों की दुआएं ही थीं कि बिरला आज सत्ता राजनीति के शिखर पर हैं।

   
     भाजपा को एक दल के रूप में इस बार लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं है और उसकी निर्भरता राजग के सहयोगियों पर बढ़ी है। इसी तरह सदन में प्रतिपक्ष ज्यादा ताकतवर हुआ है। तीसरी बार प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने अब नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी मौजूद होंगे। मोदी की तीसरी सरकार में नेता प्रतिपक्ष का पद मिलना भी एक बड़ी सूचना है। पिछले दो सदनों में कांग्रेस के इतने सदस्य नहीं थे कि वह नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल कर सके। इससे नेता प्रतिपक्ष अब लोकलेखा समिति के अध्यक्ष भी होंगे और सरकारी खर्चों पर टिप्पणी कर सकेंगें। इस बदले हुए परिदृश्य में सदन में प्रतिपक्ष की आवाज भी प्रखर होगी। राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने अध्यक्ष को धन्यवाद प्रस्ताव देते हुए सत्ता पक्ष पर अंकुश और प्रतिपक्ष को संरक्षण देने की अपील की। उम्मीद की जानी कि ओम बिरला अपने बड़े दिल से सदन की गरिमा को नई ऊंचाई प्रदान करेंगें। फिलहाल तो उन्हें शुभकामनाएं ही दी जा सकती हैं।

शनिवार, 15 जून 2024

अबू धाबी के विद्यार्थियों से बोले प्रो. द्विवेदी - यह क्रियेटिविटी और आईडियाज का समय

 

-भारतीय विद्या भवन , अबू धाबी का आयोजन

-कम्युनिकेशन से ही होगा दुनिया के संकटों का समाधान




भोपाल। किसी भी इंसान को छोटी-छोटी समस्याओं पर नजर रखनी चाहिए। उनका हल सोचना चाहिए। बड़े और सफल आइडियाज इन्हीं से निकलते हैं।" यह विचार भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी)के पूर्व महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने अबू धाबी के भारतीय विद्या भवन द्वारा संचालित इंटरनेशनल स्कूल में आयोजित आनलाईन संवाद कार्यक्रम में व्यक्त किए। प्रो. द्विवेदी ने कहा कि यह समय क्रियेटिविटी और आईडियाज का है। दुनिया का हर संकट संवाद और संचार से हल किया जा सकता है। उन्होंने कहा संचार और संवाद की दुनिया में वही लोग स्थापित हो सकते हैं, जिनके पास नए विचार, नई भाषा और कहानी कहने की कला है। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्राइवेट इंटरनेशनल स्कूल, आबूधाबी की प्राचार्या वनिता वाल्टर ने की। इस अवसर पर प्रधानाचार्य सुरेश बालकृष्णन, उप-प्रधानाचार्या श्रीमती मिनी रमेश, हिंदी विभाग प्रमुख रवि शुक्ल भी उपस्थित रहे।

    विद्याथियों के प्रश्नों के उत्तर देते हुए उन्होंने जहां मीडिया की दुनिया में अवसरों के बारे में  बताया, वहीं जीवन में भाषा की महत्ता पर भी बात की। प्रो. द्विवेदी ने कहा कि अकसर कुछ नया देखते ही हम उसके उपभोग के बारे में सोचने लगते हैं, लेकिन उसे बेहतर बनाने की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। हर प्रोडक्ट या सर्विस अलग-अलग जगहों पर सफल नहीं हो सकती, लेकिन तुलना करने पर हम हर जगह के बारे में बेहतर जान सकते हैं। फिर पहले से मौजूद आइडिया में जरूरी बदलाव कर कुछ नया सोच सकते हैं। प्रो. द्विवेदी ने कहा कि अपनी रुचि की चीजों के बारे में खूब पढ़िए। कुछ नया सीखने को मिले, तो इसके बारे में लोगों से बातें कीजिए। वे क्या सोचते हैं, यह जानने की कोशिश कीजिए। मन में जो भी विचार आते हैं, उन्हें अमलीजामा पहनाने की कोशिश कीजिए। इनके नतीजे अच्छे न निकलें, तो घबराइए मत, क्योंकि इसके बाद ही अच्छे आइडिया भी आएंगे। बस आपको अपनी क्रिएटिव सोच बनाए रखनी है। 

कार्यक्रम का संचालन विद्यालय की छात्राओं सुश्री अक्षया अनिल कुमार, नंदिनी त्रिवेदी ने किया। कार्यक्रम में 

सहभागी विद्यार्थी में कीर्तना नायर, प्रज्वल राव, अफ़शीन शेक, आकाश, साईं सिद्धार्थ प्रमुख रहे। कार्यक्रम में 

विद्यालय के भिन्न कक्षाओं  विद्यार्थियों ने सहभाग किया।

गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

विश्व शांति के लिए जरूरी है हिन्दुत्व : सुनील आंबेकर

डॉ. इन्दु‍शेखर तत्पुरुष की पुस्तक 'हिन्दुत्व: एक विमर्श' का विमोचन


नई दिल्ली, 26 दिसंबर। प्रख्यात कवि, आलोचक एवं संपादक डॉ. इन्दु‍शेखर तत्पुरुष की पुस्तक 'हिन्दुत्व: एक विमर्श' का विमोचन करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख श्री सुनील आंबेकर ने कहा कि विश्व शांति के लिए हिन्दुत्व बेहद जरूरी है। आधुनिक समय में हिन्दुत्व के नियमों को भूलने का परिणाम हम जीवन के हर क्षेत्र में महसूस करते हैं। इस अवसर पर भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी एवं पांचजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद डॉ. महेश चंद्र शर्मा ने की। संचालन दिल्ली विश्वविद्यालय में वरिष्ठ आचार्या प्रो. कुमुद शर्मा ने किया।

श्री आंबेकर ने कहा कि हिन्दुत्व का मूल तत्व एकत्व की अनुभूति है। वेदों में जिस एकत्व की बात कही गई है, उसे समाज जीवन में महसूस किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि इसी एकत्व भाव के कारण हम एक रहे और आगे बढ़ते रहे। अब हमें अपने लिए नए मार्ग तलाशने हैं और हिन्दुत्व के नियम इस दिशा में हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं।

श्री आंबेकर के अनुसार हिन्दुत्व के नियमों के अनुसार एक दूसरे की चिंता करना जरूरी है। हमारे बीच प्रतिस्पर्धा हो, लेकिन एक दूसरे को प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिस्पर्धा हो। उन्होंने कहा कि देश के सामान्यजनों तक हिन्दुत्व की समझ को पहुंचाना राष्ट्रीय कार्य है और हम सभी को मिलकर यह कार्य करना होगा।

भारतबोध का पर्याय है 'हिन्दुत्व: एक विमर्श' : प्रो. द्विवेदी

कार्यक्रम में अपने विचार व्यक्त करते हुए भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने कहा कि डॉ. इन्दु‍शेखर तत्पुरुष की पुस्तक 'हिन्दुत्व: एक विमर्श' भारतबोध का पर्याय है। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक के माध्यम से हिन्दुत्व को उजाला मिलेगा। डॉ. तत्पुरुष पुस्तक के माध्यम से एक सार्थक विमर्श हमारे सामने लेकर आए हैं, जिस पर चर्चा करना बेहद जरूरी है।

हिन्दुत्व के बिना दार्शनिक व्याख्या संभव नहीं : हितेश शंकर

पांचजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर ने कहा कि संसार की दार्शनिक व्याख्या हिन्दुत्व के बिना संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में पहले हिन्दुत्व, फिर भारत, भारतबोध और अंत में संस्कृति और स्वाधीनता की बात की गई है, जो आजादी के अमृतकाल में हम सभी के लिए मार्गदर्शक होगी। श्री शंकर ने पुस्तक को साहित्य से अकादमिक जगत की तरफ ले जाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया। 

एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद डॉ. महेश चंद्र शर्मा ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में  डॉ. इन्दु‍शेखर तत्पुरुष को पुस्तक के प्रकाशन के लिए बधाई दी। 

पुस्तक के बारे में जानकारी देते हुए डॉ. तत्पुरुष ने कहा कि पराधीन मानसिकता के कारण लोगों द्वारा हिन्दु‍त्व की मनमानी व्याख्या कर जो भ्रामक निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं, इस पुस्तक के माध्यम से उस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया गया है। उन्होंने कहा कि इसे लेकर दो मत हो सकते हैं कि हिन्दुत्व भारतीयता का पर्याय है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिन्दुत्व इसी देश और इसी मिट्टी की उपज है।

कार्यक्रम में बड़ी संख्या में पत्रकारों, लेखकों एवं साहित्यकारों ने हिस्सा लिया।




विचारों की घर वापसी है भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति : प्रो. संजय द्विवेदी

 

'राष्ट्र का एकत्व है अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का लक्ष्य'

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, ब्रज प्रांत के 63वें प्रांत अधिवेशन का आयोजन


कासगंज, 28 दिसंबर। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, ब्रज प्रांत के 63वें प्रांत अधिवेशन को संबोधित करते हुए भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने कहा कि भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति विचारों की घर वापसी है। बीते 24 महीनों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के हिसाब से कई परिवर्तनों की आधारशिला रखी गई है। उन्होंने कहा कि राष्ट्र निर्माण के महायज्ञ में शिक्षा नीति सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। इस अवसर पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रो. भूपेंद्र सिंह, प्रांत अध्यक्ष डॉ. अमित अग्रवाल, प्रांत मंत्री सुश्री गौरी दुबे, क्षेत्रीय संगठन मंत्री श्री मनोज नीखरा एवं प्रांत संगठन मंत्री श्री मनीष राय सहित बड़ी संख्या में विद्यार्थियों ने हिस्सा लिया।

अधिवेशन के मुख्य अतिथि के रूप में अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रो. द्विवेदी ने कहा कि शिक्षा परिसर से लेकर देश की सीमाओं तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कार्य कर रहा है। एबीवीपी अकेला ऐसा संगठन है, जो समाज के संकटों और राष्ट्र की चुनौतियों को अपना मानता है और उसका डटकर मुकाबला करता है। उन्होंने कहा कि राष्ट्र का एकत्व ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का लक्ष्य है। विद्यार्थियों को शिक्षा, संस्कार और स्वावलंबन प्रदान करने में एबीवीपी की महत्वपूर्ण भूमिका है।

आईआईएमसी के महानिदेशक के अनुसार आजादी के अमृतकाल में हमें अगले 25 वर्षों को स्वर्णिम काल में बदलना है। हमें एक ऐसा भारत बनाना है, जो अपनी जड़ों पर खड़ा हो और जिसकी सोच और अप्रोच नई हो। इस कार्य में विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। उन्होंने कहा कि ये सपने देखने का नहीं, बल्कि संकल्प पूरे करने का अमृतकाल है। इस महत्वपूर्ण समय में हमें भारत का भारत से परिचय कराने की जरुरत है।

प्रो. द्विवेदी के अनुसार आज ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, और सबका प्रयास’ देश का मूल मंत्र बन रहा है। आज हम एक ऐसी व्यवस्था बना रहे हैं, जिसमें भेदभाव की कोई जगह न हो, एक ऐसा समाज बना रहे हैं, जो समानता और सामाजिक न्याय की बुनियाद पर मजबूती से खड़ा हो और हम एक ऐसे भारत को उभरते देख रहे हैं, जिसके निर्णय प्रगतिशील हैं। उन्होंने कहा कि 26 हजार नए स्टार्टअप का खुलना दुनिया के किसी भी देश का सपना हो सकता है। ये सपना आज भारत में सच हुआ है, जिसके पीछे भारत के नौजवानों की शक्ति और उनके सपने हैं।

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि एवं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रो. भूपेंद्र सिंह ने कहा आजादी के 75 वर्षों के साथ विद्यार्थी परिषद के भी 75 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पास भारत माता की सेवा करने का सबसे पुराना अनुभव है। विश्व में कोई ऐसा संगठन नहीं है, जिसके पास युवाओं की इतनी बड़ी टीम हो। हमें अपनी इस शक्ति को नए भारत के निर्माण में लगाना है।   

प्रांत अध्यक्ष डॉ. अमित अग्रवाल ने कहा भारतीय संस्कृति, सभ्यता और मर्यादा की रक्षा करने की जिम्मेदारी युवाओं पर है। उन्होंने कहा कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद टुकड़े-टुकड़े गैंग को भारतवर्ष से बाहर करके रहेगा। इसके लिए संगठन को मजबूत करना और सदस्यता को बढ़ाना होगा, तभी ये कार्य संभव हो सकता है।

कार्यक्रम में स्वागत भाषण डॉ. सुरेंद्र गुप्ता ने एवं धन्यवाद ज्ञापन श्री सुनील वार्ष्णेय ने दिया।



बुधवार, 30 नवंबर 2022

जिंदगी के रंगों को दिखाती हैं राजीव मिश्रा की पेंटिंग्स : प्रो. द्विवेदी

 जिंदगी के रंगों को दिखाती हैं राजीव मिश्रा की पेंटिंग्स : प्रो. द्विवेदी

'पावर ऑफ सेल्फ रिफ्लेक्शन' पेंटिंग प्रदर्शनी का शुभारंभ करते हुए बोले आईआईएमसी के महानिदेशक


दिल्ली के रवींद्र भवन में 30 नवंबर से 6 दिसंबर तक होगा प्रदर्शनी का आयोजन

नई दिल्ली, 30 नवंबर। प्रख्यात चित्रकार राजीव मिश्रा की समकालीन कलाकृतियों पर आधारित पेंटिंग प्रदर्शनी 'पावर ऑफ सेल्फ रिफ्लेक्शन' का शुभारंभ करते हुए भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा कि कलाकार की खासियत होती है कि उसे दर्शकों को पेंटिंग के बारे में कुछ भी बताने की जरुरत नहीं पड़ती। बिना बोले ही दर्शक पेंटिंग को समझ जाते हैं। कलाकार की कल्पना शक्ति समाज की हर बारीकियों को समझती है और उसी कल्पना शक्ति को वह कैनवास पर उतारता है। कलाकार की तारीफ तभी हो जाती है, जब दर्शक बोलें कि हर पेटिंग कुछ कहती है। राजीव मिश्रा की कलाकृतियों की यही खासियत है। अपनी कलाकृतियों के माध्यम से राजीव मिश्रा दर्शकों को जीवन की अनूठी यात्रा पर ले जाते हैं। प्रदर्शनी का आयोजन दिल्ली के रवींद्र भवन में 30 नवंबर से 6 दिसंबर, 2022 को किया जा रहा है।

प्रो. द्विवेदी ने कहा कि पेंटिंग से कलाकार के व्यक्तित्व का पता चलता है। उसकी सोच, कल्पना शक्ति कैसी है, इस बात की जानकारी होती है। राजीव मिश्रा की पेंटिंग्स में रंगों के साथ संस्कार भी समाहित हैं। उन्होंने कहा कि राजीव मिश्रा की कलाकृतियों को देखने के बाद यह तय करना मुश्किल लगता है कि किसे सर्वश्रेष्ठ कहा जाए, क्योंकि सभी कलाकृतियां असाधारण हैं।

आईआईएमसी के महानिदेशक ने राजीव मिश्रा की 'गौशाला' परिकल्पना को असाधारण बताते हुए कहा कि कोई भी घर पेंटिंग के बिना पूरा नहीं हो सकता। जिस घर में पेंटिंग है, वही घर पूर्ण है। खुद का खुद से परिचय कराती ये कलाकृतियां आपको पूर्णता का अनुभव कराती हैं।

'पावर ऑफ सेल्फ रिफ्लेक्शन' एक अनोखी प्रदर्शनी है, जिसमें राजीव मिश्रा की 75 कलाकृतियों को प्रस्तुत किया गया है। इस प्रदर्शनी के माध्यम से आत्म प्रतिबिंब की शक्ति को राजीव मिश्रा ने अपने कैनवास पर उकेरा है। इस अवसर पर राजीव मिश्रा ने कहा कि वैसे तो सभी पेंटिंग्स उनके दिल के बेहद करीब हैं, लेकिन 'गौशाला' पर बनी पेंटिंग्स कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने कहा कि हमारा प्रयास है कि लोग इन पेटिंग्स को देखने का नहीं, बल्कि समझने का प्रयास करें।  

प्रदर्शनी का आयोजन सोमवार से शनिवार प्रात: 11 बजे से सायं 7 बजे तक ललित कला अकादमी, रवींद्र भवन, नई दिल्ली में किया जा रहा है। प्रदर्शनी के संबंध में ज्यादा जानकारी के लिए मोबाइल नंबर 8009448870 एवं 9935873681 पर संपर्क किया जा सकता है।




सोमवार, 10 अक्टूबर 2022

प्रेम से ही देश है और साहित्य प्रेम का पर्याय हैः प्रो. द्विवेदी

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा आयोजित संगोष्ठी में बोले आईआईएमसी के महानिदेशक



नई दिल्ली, 10 अक्टूबर। "प्रेम हमारी आवश्यकता है। हम सब उसे पाना चाहते हैं, लेकिन उससे पहले हमें प्रेम देना सीखना होगा, क्योंकि प्रकृति का नियम है जो देता है उसे ही मिलता है। हिंदुस्तान में जो देता है, उसे देवता कहते हैं। इसलिए जो हम देंगे, वही लौटकर आएगा। यदि हम साहित्य में प्रेम और सद्भावना देंगे, तो पाठकों के मन में भी वैसी ही भावना विकसित होगी।" यह विचार भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा गाजियाबाद में 'भारतीय भाषा साहित्य में प्रेम और सद्भावना के प्रसंग' विषय पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।

   संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए प्रो. द्विवेदी ने कहा कि साहित्य शब्द दो शब्दों से मिलकर बनता है। 'सः' और 'हितः', यानी एक ऐसा तरीका, जिसमें किसी एक वर्ग, जाति या धर्म की जगह, समस्त विश्व और समाज के कल्याण की भावना निहित हो। उन्होंने कहा कि साहित्य ही एक रास्ता है, जहां हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों को बनाए और बचाए रख सकते हैं।

  इस अवसर पर चंडीगढ़ से आए डॉ. अमरसिंह वधान ने कहा कि यदि वैश्विक परिदृश्य पर ध्यान दिया जाए, तो सृष्टि का हर आदमी प्रेम और सद्भावना का भूखा है। प्रेम मनुष्य के लिए ऑक्सीजन है, तो सद्भावना मानव सांसों की बहती नदी है। उन्होंने कहा कि हमारे दो ध्रुव हैं- हृदय और मस्तिष्क, लेकिन हृदय मस्तिष्क से ज्यादा महत्वपूर्ण है। हमें हृदय से काम लेना चाहिए, क्योंकि भाषा साहित्य की रचना भी हृदय से ही होती है, जिसके माध्यम से समाज के लोग अपना मार्ग तय करते हैं। 

   गिरिडीह से आईं हिंदी और बांग्ला की विदुषी डॉ. ममता बनर्जी ने कहा कि भारत की साहित्यिक पहचान में बांग्ला साहित्य का विशेष योगदान है। उन्होंने चैतन्य  महाप्रभु की रचनाओं में प्रेम प्रसंग से लेकर बंगाली साहित्य के दिग्गजों की रचनाओं में भी प्रेम व सद्भावना के प्रसंगों के उदाहरण प्रस्तुत किए। उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर के साहित्य-सृजन में प्रकृति प्रेम, नारी प्रेम, देश प्रेम के महत्व पर प्रकाश डाला। 

  संगोष्ठी के दौरान पूर्वोत्तर हिंदी परिषद  के प्रमुख डॉ. अकेला भाई ने हिंदी और उर्दू भाषा की रचनाओं में प्रेम और सद्भावना के प्रसंगों पर अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और बिना प्रेम और सद्भावना के हम सामाजिक नहीं बन सकते। प्रेम और सद्भावना को घर-घर तक पहुंचाने का कर्तव्य हर रचनाकार निभाता है। 

  इस अवसर पर एचएसएससी इंडिया के राजभाषा अधिकारी प्रमोद कुमार ने हिंदी को सरकारी कामकाज में ज्यादा से ज्यादा उपयोग में लाने पर जोर दिया। कार्यक्रम का संचालन राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के संपादक पंकज चतुर्वेदी ने किया। संगोष्ठी में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग के पूर्व निदेशक एवं पद्मश्री से अलंकृत डाॅ. श्याम सिंह शशि, गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग में कार्यरत रघुवीर शर्मा एवं यू.एस.एम. पत्रिका के संपादक उमाशंकर मिश्र ने भी हिस्सा लिया।

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2022

पत्रकार और प‍त्रकारिता से जुड़े सवालों के उत्तरों की तलाश

 पुस्तक समीक्षा- अजय बोकील

 पुस्तक : जो कहूंगा सच कहूंगा - प्रो. संजय द्विवेदी से संवाद

 संपादक : डॉ. सौरभ मालवीय, लोकेंद्र सिंह

  मूल्य : 500 रुपये

  प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002



   पुस्तक ‘जो कहूंगा सच कहूंगा’ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली (आईआईएमसी) के महानिदेशक, पत्रकार, शिक्षाविद प्रो. (डाॅ.) संजय द्विवेदी के साक्षात्कारों का ऐसा संकलन है, जो उनकी ‘मन की बात’ का परत दर परत खुलासा करता है। यह मीडिया का एक मीडिया विशेषज्ञ के साथ सार्थक संवाद है। पुस्तक में शामिल ज्यादातर इंटरव्यू उनके आईआईएमसी महानिदेशक बनने पर लिए गए हैं। लेकिन प्रकारांतर से यह द्विवेदीजी की प्रोफेशनल यात्रा का दस्तावेज है। 

   संजयजी ने शिक्षा क्षेत्र में आने से पहले बाकायदा प्रोफेशनल पत्रकार के रूप में कई दैनिक अखबारों और कुछ टीवी चैनलों में काम किया। इस मायने में उनकी यह यात्रा व्यावहारिक पत्रकारिता से सैद्धांतिक पत्रकारिता की ओर है तथा यही इस यात्रा की प्रामाणिकता को सिद्ध करती है, क्योंकि अक्सर प‍त्रकारिता का अध्यापन करने वाले पर यह आरोप लगता है कि उन्हें व्यावहारिक पत्रकारिता का ज्यादा ज्ञान नहीं होता। जबकि पत्रकारिता एक व्यावहारिक अनुशासन ही है। 

   एक साक्षात्कार में स्वयं संजय जी इसका खुलासा करते हैं- 'मेरे पास यात्राएं हैं, कर्म हैं और उससे उपजी सफलताएं हैं। मैं खुद को आज भी मीडिया का विद्यार्थी ही मानता हूं। 'दैनिक भास्कर', 'स्वदेश', 'नवभारत', 'हरिभूमि' जैसे अखबारों से शुरू कर के 'जी 24 छत्तीसगढ़' चैनल, फिर कुशाभाऊ ठाकरे प‍त्रकारिता विवि, रायपुर में प‍त्रकारिता विभाग का संस्थापक अध्यक्ष, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विवि में दस साल प्रोफेसर, कुलपति व कुलसचिव जैसे दायित्वों का निर्वहन। बचपन में ‘बाल सुमन’ पत्रिका निकाली।'

      खास बात यह है कि संजय द्विवेदी का यह यात्रा अनुभव सिद्ध होने के साथ निरंतर सक्रियता का संदेश भी देता है। इस पुस्तक में डाॅ. संजय द्विवेदी द्वारा विभिन्न माध्यमों को दिए गए 25 साक्षात्कार संकलित हैं और इनके‍ ‍शीर्षक अपने भीतर के कंटेट और उद्देश्य को स्वत: बयान करते हैं। मसलन 'हर पत्रकार हरिश्चंद्र नहीं होता', 'सोशल मीडिया हैंडलिंग सीखने की जरूरत', 'मीडिया को मूल्यों की और लौटना होगा', 'जर्नलिस्ट और एक्टिविस्ट का अंतर समझिए'। इसी प्रकार ‘आईआईएमसी से निकलेंगे कम्युनिकेशन की दुनिया के ग्लोबल लीडर', 'एकता के सूत्रों को तलाश करने की जरूरत’ या फिर 'सरस्वती के मंदिर में राजनीति के जूते उतार कर आइए' तथा 'बहती हुई नदी है हिंदी' आदि। इस पुस्तक का संपादन पं. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय संचार विवि के प्राध्यापकों डाॅ. सौरभ मालवीय और लोकेन्द्र सिंह ने किया है। 

    बात जब साक्षात्कार की होती है, तो उसकी कसौटी होती है साक्षात्कार देने वाले की मुक्त मन से और खरी-खरी बात। एक सार्थक इंटरव्यू संबंधित व्यक्ति के समूचे व्यक्तित्व और उसकी सोच को खोल कर रख देता है। इस अर्थ में पुस्तक में शामिल सभी इंटरव्यू समकालीन पत्रकारिता से जुड़े तमाम सवालों और चुनौतियों का उत्तर तलाशने में मददगार लगते हैं। साथ ही संजय द्विवेदी की सोच, समझ, संकल्प और प्रतिबद्धता को भी प्रकट करते हैं। बकौल उनके-आज की पत्रकारिता दो आधारों पर खड़ी है, एक भाषा, दूसरा तकनीकी ज्ञान। तकनीक माध्यमों के अनुसार लगातार बदलती रहती है। लेकिन एक अच्छी भाषा में सही तरीके से कही गई बात का कोई विकल्प नहीं है।

     भारतीय जन संचार संस्थान के स्थापना दिवस के उपलक्ष में दिए एक इंटरव्यू में समकालीन पत्रकारिता के सामने मौजूद चुनौतियों के बारे में द्विवेदी कहते हैं- ‘हमे सवाल खड़े करने वाला ही नहीं बनना है, इस देश के संकटों को हल करने वाला पत्रकार भी बनना है। मीडिया का उद्देश्य अंतत: लोकमंगल की है। यही साहित्य व अन्य प्रदर्शनकारी कलाओं का उद्देश्य भी है। इसके साथ देश की समझ आवश्यक तत्व है। देश के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, परंपरा, आर्थिक सामाजिक चिंताओं, संविधान की मूलभूत चिंताओं की गहरी समझ हमारी प‍त्रकारिता को प्रामाणिक बनाती है। समाजार्थिक न्याय  से युक्त, न्यायपूर्ण समरस समाज हम सबका साझा स्वप्न है। पत्रकारिता अपने इस कठिन दायित्वबोध से अलग नहीं हो सकती। इसमें शक नहीं कि आज मीडिया एजेंडा केन्द्रित पत्रकारिता और वस्तुनिष्ठ और निरपेक्ष पत्रकारिता के बीच बंट गया है। यह स्थिति स्वयं मीडिया की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाती है।' 

       वैचारिक आग्रह कुछ भी हों, लेकिन एक प्रोफेशनल और प्रामाणिक पत्रकार की बुनियादी प्रतिबद्धता तथ्य और सत्य के पक्ष में होती है तथा होनी भी चाहिए। संजय द्विवेदी एक इंटरव्यू में  इसी बात को बहुत साफगोई के साथ कहते हैं- ‘पत्रकार का तथ्यपरक होना जरूरी है। सत्य का साथ पत्रकार नहीं देगा तो कौन देगा। समस्या यह है कि आज जर्नलिस्ट के साथ तमाम एक्टिविस्ट भी पत्रकारिता में चले आए हैं। जर्नलिज्म और एक्टिविज्म दो अलग अलग चीजे हैं। जर्नलिज्म का रिश्ता फैक्ट फाइंडिंग से हैं। एक्टिविस्ट का काम किसी विचार या विचारधारा के लिए लोगों को मोबिलाइज करना और सरकार पर दबाव बनाना है। जर्नलिस्ट का यह काम नहीं है। उसका काम है तथ्य और सत्य के आधार पर चीजों  का विश्लेषण करान।सोशल मीडिया के आने से अराजकता पैदा हो रही है और तथ्‍यों के साथ खिलवाड़ हो रहा है। पत्रकारिता को ऑब्जेक्टिव होने की जरूरत है।' 

   आज पत्रकारिता की साख पहले जैसी नहीं रह गई है, उसका मुख्य कारण है खबरों में ‍मिलावट। संजय द्विवेदी इसके खिलाफ बहुत साफ तौर पर बात करते हैं। वो कहते हैं- ‘आज सबसे बड़ी चुनौती खबरों में मिलावट की है। खबरे परिशुद्धता के साथ कैसे प्रस्तुत हों, कैसे लिखी जाएं, बिना झुकाव, बिना आग्रह कैसे वो सत्य को अपने पाठकों तक सम्प्रेषित करें। प्रभाष जोशी कहते थे कि ‍पत्रकार की पाॅलिटिकल लाइन तो हो, लेकिन पार्टी लाइन न हो।'

    एक शिक्षाविद होने के नाते डाॅ. संजय द्विवेदी नई शिक्षा नीति की खूबियों और चुनौतियों को व्याख्यायित करते हैं। कुछ लोगों के मन में नई शिक्षा नीति को लेकर सवाल भी हैं, लेकिन संजय द्विवेदी एक साक्षात्कार में कहते हैं- ‘नई शिक्षा नीति बहुत सुविचारित और सुचिंतित तरीके से प्रकाश में आई है। इसे जमीन पर उतारना कठिन काम है, इसलिए शि‍क्षाविदों, शिक्षा से जुड़े अधिकारियो और संचारकों की भूमिका बहुत बढ़ गई है। लेकिन इस कठिन दायित्व बोध ने हम सबमें ऊर्जा का संचार भी किया है।' 

    पत्रकारिता के बदले परिदृश्य और भावी चुनौतियों को लेकर डाॅ. संजय द्विवेदी का नजरिया बहुत साफ है। आज मल्टीमीडिया का जमाना है। इसलिए पत्रकार को अपनी बात भी कई माध्यमों से कहना जरूरी हो गया है, क्योंकि पाठक या श्रोता के भी अब कई स्तर और प्रकार हो गए हैं। संजयजी इसे कन्वर्जेंस का समय मानते हैं। अपने एक साक्षात्कार में वो कहते हैं- ‘अब जो समय है कन्वर्जेंस का है। एक माध्यम पर रहने से काम नहीं चलेगा। अलग अलग माध्यमों को एक साथ साधने का समय आ गया है। जो व्यक्ति प्रिंट पर है, उसे वेब पर भी होना है। मोबाइल एप पर भी होना है। टेलीविजन पर भी होना है। आज वही मीडिया संस्थान ठीक से काम कर रहे हैं, जो एक साथ अनेक माध्यमों पर काम कर रहे है।'

   अध्यापन के साथ साथ संजयजी विभिन्न और सोद्देश्य पत्रिकाओं का नियमित संपादन भी करते हैं। यह उनकी अखूट ऊर्जा और सक्रियता का परिचायक है। ऐसा ही एक प्रकाशन है ‘मीडिया विमर्श।' यह त्रैमासिक प‍त्रिका अपने आप में अनूठी है। संजय द्विवेदी कहते हैं- जहां तक ‘मीडिया‍ विमर्श’ की बात है, मेरे मन में यह था कि मीडिया पर हम लोग बहुत बातचीत करते हैं, पर कोई ऐसी पत्रिका नहीं है, जो मीडिया और उसके सवालों के बारे में बातचीत करे, तो मीडिया विमर्श नाम की एक पत्रिका का प्रकाशन हमने 14 साल पहले रायपुर से शुरू किया। यह त्रैमासिक पत्रिका है और एक विषय पर पूरा संवाद रहता है। भाषाई पत्रकारिता पर हमने कई अंक निकाले। उर्दू, गुजराती, तेलुगू, मलयालम आदि।' 

    संजय द्विवेदी मूलत: उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले से हैं। उनके पिता भी हिंदी के प्राध्यापक थे और घर में शुरू से ही साहित्यिक माहौल था। लिहाजा हिंदी से उनका प्रेम स्वाभाविक है। आईआईएमसी जैसे संस्थान में भी वो हिंदी का झंडा बुलंद करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। एक साक्षात्कार में वो कहते हैं- ‘हिंदी का पाठ्यक्रम मूल हिंदी में ही तैयार होगा। आजकल नई हिंदी आई है। बोलचाल की हिंदी। भाषा को जीवन के साथ रहने दीजिए, उसे पुस्तकालयों में मत ले जाइये। हिंदी जैसी उदार भाषा कोई नहीं है। हिंदी को शास्त्रीय बनाने के प्रयासों से हमे बचना चाहिए। हिंदी एक बहती हुई नदी है। इसका जितना प्रवाह होगा, वह उतनी ही बहती जाएगी।'                                                                                                                                                                                     

  संजय द्विवेदी अब तक दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके हैं या उन्हें संपादित कर चुके हैं। इनमें राजनीतिक विश्लेषण भी हैं। आपने अपराध पत्रकारिता पर भी डाॅ. वर्तिका नंदा के साथ मिलकर एक पुस्तक का संपादन किया है। पत्रकार और पत्रकारिता शिक्षक के रूप में उनकी यह यात्रा अनवरत है। दरअसल पत्रकार होना अपने समय से भिड़ना भी है। यह भिड़ंत साहित्य की तुलना में ज्यादा जोखिम भरी भी है। इसीलिए पत्रकारिता का असर बहुत व्यापक पैमाने पर देखने को मिलता है। महान लेखक ऑस्कर वाइल्ड ने कहा था- ‘अमेरिका में एक राष्ट्रपति तो चार साल साल के लिए ही शासन करता है, लेकिन पत्रकारिता तो हमेशा-हमेशा के लिए शासन करती है।' प्रस्तुत ‍पुस्तक ‘जो कहूंगा सच कहूंगा’ की प्रासंगिकता इसी में है कि यह पत्रकार और पत्रकारिता से जुड़ी शंकाओं और सवालों का जवाब देने की पूरी कोशिश करती है।    


(लेखक मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार एवंं भोपाल से प्रकाशित समाचार पत्र ‘सुबह सवेरे’ में वरिष्ठ संपादक हैं।)

वक्त के साथ बदलते मीडिया से साक्षात्कार

पुस्तक समीक्षा- डा. विनीत उत्पल

पुस्तक : जो कहूंगा सच कहूंगा - प्रो. संजय द्विवेदी से संवाद

संपादक : डॉ. सौरभ मालवीय, लोकेंद्र सिंह

मूल्य : 500 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002



वक्त बदल रहा है, मीडिया बदल रहा है, मीडिया तकनीक बदल रही है, मीडिया के पाठक और दर्शक की रुचि, स्थिति और परिस्थिति भी बदल रही है। ऐसे में मीडिया अध्ययन, अध्यापन और कार्य करने वालों को खुद में बदलाव लाना आवश्यक है। इसके लिए मीडिया के मिजाज को समझना और समझाना आवश्यक है। “जो कहूंगा, सच कहूंगा” नामक पुस्तक इस दिशा में कार्य करने में सक्षम है।

   भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी की बातचीत मीडिया विद्यार्थियों को एक नव दिशा देने का कार्य करती है। मीडिया में आने वाले विद्यार्थी पत्रकार तो बन जाते हैं, लेकिन मीडिया की बारीकियों को समझने में उन्हें समय लगता है, क्योंकि मीडिया वक्त के साथ परिवर्तनकारी होता है। यही कारण है कि डॉ. ऋतेश चौधरी के साथ साक्षात्कार में संजय द्विवेदी कहते हैं, “वक्त का काम है बदलना, वह बदलेगा। समय आगे ही जायेगा, यही उसकी नैसर्गिक वृत्ति है।” लेकिन मीडिया की दशा और दिशा को देखकर वे कहते हैं, “मीडिया की मजबूरी है कि वह समाज निरपेक्ष नहीं हो सकता। उसे प्रथमतः और अंततः जनता के दुख-दर्द के साथ होना होगा।”

   संजय द्विवेदी पत्रकारों को सामान्य व्यक्ति नहीं मानते। एसडी वीरेंद्र से बातचीत में वे कहते हैं, “सामान्य व्यक्ति पत्रकारिता नहीं कर सकता। जब तक समाज के प्रति संवेदन नहीं होगी, अपने समाज के प्रति प्रेम नहीं होगा, कुछ देने की ललक नहीं होगी, तो मीडिया में आकर आप क्या करेंगे? मीडिया में आते ही ऐसे लोग हैं, जो उत्साही होते हैं, समाज के प्रति संवेदना से भरे होते हैं और बदलाव की जिसके अंदर इच्छा होती है।” समाज में पत्रकार की भूमिका को लेकर जो आमतौर पर चिंता जताई जाती है, या फिर मीडिया की परिधि में समाचार, विचार और मनोरंजन के आ जाने से आलोचना की जाती है, उसे लेकर उनका मंतव्य स्पष्ट है कि “सामाजिक सरोकार छोड़कर कोई पत्रकारिता नहीं हो सकती। न्यूज़ मीडिया अलग है और मनोरंजन का मीडिया अलग है। दोनों को मिलाइये मत। दोनों चलेंगे। एक आपको आनंद देता है, दूसरा खबरें और विचार देता है। दोनों अपना-अपना काम कर रहे हैं।”

   संजय द्विवेदी मानते हैं कि मीडिया का काम जिमेदारी भरा है। लोगों की आकांक्षा मीडिया से जुड़ी होती है। यही कारण है कि वे कहते हैं, “मीडिया को अपनी जिम्मेदारी स्वीकारनी होगी, अन्यथा लोग आपको नकार देंगे। अगर आप अपेक्षित तटस्थता के साथ, सत्य के साथ खड़े नहीं हुए, तो मीडिया की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े हो जायेंगे। इसलिए मीडिया को अपनी विश्वसनीयता को बचाये रखने की जरुरत है। यह तभी होगा, अगर हम तथ्यों के साथ खिलवाड़ न करें और एजेंडा पत्रकारिता से दूर रहें।” कुमार श्रीकांत से बातचीत में वे कहते भी हैं, “पत्रकारिता से सब मूल्यों का ह्रास हो गया है, यह कहना ठीक नहीं है। 90 प्रतिशत से अधिक पत्रकार ईमानदारी के साथ अपने काम को अंजाम देते हैं। यह कह देना कि सभी पत्रकार इस तरीके के हो गए हैं, यह ठीक नहीं है।”

    संजय द्विवेदी मीडिया को सिर्फ और सिर्फ सवाल खड़ा करने वाला नहीं मानते। वे मानते हैं कि सवाल के जवाब को ढूंढने का काम भी मीडिया का है। मीडिया यदि इस काम में आगे आए, तो समाज की कई समस्याओं को समाधान स्वतः हो जाएगा। वे कहते हैं, “सवाल उठाना मीडिया का काम है ही, लेकिन सवालों के जवाब खोजना भी मीडिया का ही काम है। यह उत्तर खोजने का काम आप सरकार के आगे नहीं छोड़ सकते।”

    अजीत द्विवेदी से बातचीत में वे गहरे तौर पर कहते हैं, “पत्रकार का तथ्यपरक होना बेहद जरूरी है। सत्य का साथ पत्रकार नहीं देगा, तो और कौन देगा?” वे किसी साक्षात्कार में आने वाले मीडिया विद्यार्थियों को सलाह भी देते हैं कि “परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है। अगर आपके अंदर क्रिएटिविटी नहीं है, आइडियाज नहीं है, भाषा की समझ नहीं है, समाज की समझ नहीं है और सबसे महत्वपूर्ण समाज की समस्याओं की समझ नहीं है, तो आपको पत्रकारिता के क्षेत्र में नहीं आना चाहिए।”

     मीडिया में हो रहे बदलाव को लेकर संजय द्विवेदी सोचते हैं कि “न्यूज सलेक्शन का अधिकार अब रीडर को दिया जा रहा है। पहले एडिटर तय कर देता था कि आपको क्या पढ़ना है। आज वह समय धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। आज आप तय करते हैं कि आपको कौन-सी न्यूज चाहिए। धीरे-धीरे यह समय ऐसा आएगा, जिसमें पाठक तय करेगा कि किस मीडिया में जाना है।” आरजे ज्योति से कहते हैं, “मीडिया बहुत विकसित हो गया है। आज उसके दो हथियार हैं। पहला है भाषा, जिससे आप कम्युनिकेट करते हैं। जिस भाषा में आपको काम करना है, उस भाषा पर आपकी बहुत अच्छी कमांड होनी चाहिए। दूसरी चीज है टेक्नोलॉजी। जिस व्यवस्था में आपको बढ़ना है, उसमे टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होता है। एक अच्छे जर्नलिस्ट के दो ही आधार होते हैं कि वह अच्छी भाषा सीख जाए और उससे तकनीक का इस्तेमाल करना आ जाए।”

   संजय द्विवेदी सकारात्मक सोच के व्यक्ति हैं और वे टीवी मीडिया को लेकर अलग नजरिया रखते हैं। वे कहते हैं कि “टीवी से आप बहुत ज्यादा उम्मीद रख रहे हैं। टीवी ड्रामे का माध्यम है, वहां दृश्य रचने होते हैं।” “दर्शकों और पाठकों को भी मीडिया साक्षर बनाने का सोचिये। सारा ठीकरा मीडिया पर मत फोड़िये। हमें पाठक और दर्शक की सुरुचि का विकास भी करना होगा।” हालांकि एक बातचीत में वे कहते नजर आते हैं, “1991 के बाद मीडिया का ध्यान धीरे-धीरे डिजिटल की तरफ बढ़ने लगा। मीडिया कन्वर्जेंस का टाइम हमें दिख रहा है। यानी एक साथआपको अनेक माध्यमों पर सक्रिय होना पड़ता है। अगर आप प्रिंट मीडिया के हाउस हैं, तो आपको प्रिंट के साथ-साथ टीवी, रेडियो और डिजिटल पर भी रहना पड़ेगा और इसके अलावा ऑन ग्राउंड इवेंट्स भी करने होंगे। यानी आप एक साथ पांच विधाओं को साधते हैं।”

   संजय द्विवेदी इस पुस्तक में एक जगह कहते हैं कि, “हमारी जो सोचने की क्षमता है, हमारा जो मौलिक चिंतन है, वह सोशल मीडिया से नष्ट हो रहा है। धीरे-धीरे सोशल मीडिया के बारे में जानकारी के साथ-साथ हमें उसके उपयोग की विधि सीखनी होगी। हमें उसका उपयोग सीखना होगा। हमें सोशल मीडिया हैंडलिंग सीखनी पड़ेगी, वरना हमारे सामने दूसरी तरह के संकट पैदा होंगे।”

   अनिल निगम के साथ बातचीत में कहते हैं, “सोशल मीडिया अभी मैच्योर पोजीशन में नहीं है और लोगों के हाथों में इसे दे दिया गया है। इसका इस्तेमाल करने वाले लोग प्रशिक्षित पत्रकार नहीं हैं। वे ट्रेंड नहीं हैं। उनको बहुत भाषा का ज्ञान भी नहीं है। वे कानून पढ़कर भी नहीं आये हैं।  वे लिखते हैं और इसके बाद जेल भी जाते हैं।”

    मीडिया के बदलते रुतबे और कार्यप्रणाली को लेकर द्विवेदी सजग हैं और कहते हैं, “मीडिया का आकार-प्रकार बहुत बढ़ गया है। अखबारों के पेज बढ़े हैं, संस्करण बढे हैं। जिले-जिले के पेज बनते हैं। आज अखबार लाखों में छपते और बिकते हैं। चीन, जापान और भारत आज भी प्रिंट के बड़े बाजार हैं। यहां ग्रोथ निरंतर हैं। ऐसे में अपना प्रसार बढ़ाने के लिए स्पर्धा में स्कीम आदि के कार्य होते हैं।” वहीं, कॉर्पोरट के द्वारा मीडिया इंडस्ट्री के संचालन में किसी भी तरह का नयापन या आश्चर्य उन्हें नहीं दिखता है, उलटे वे सवाल करते हैं कि “इतने भारी-भरकम और खर्चीले मीडिया को कॉर्पोरेट के अलावा कौन चला सकता है? सरकार चलाएगी तो उस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। समाज या पाठक को मुफ्त का अखबार चाहिए। आप अगर सस्ता अखबार और पत्रिकाएं चाहते हैं, तो उसकी निर्भरता तो विज्ञापनों पर रहेगी। अगर मीडिया को आजाद होना है तो उसकी विज्ञापनों पर निर्भरता कम होनी चाहिए। ऐसे में पाठक और दर्शक उसका खर्च उठाएं। अगर आप अच्छी, सच्ची, शोधपरक खबरें पढ़ना चाहते हैं तो खर्च कीजिये।”

  नीरज कुमार दुबे से बातचीत में संजय द्विवेदी कहते हैं, “मैं सभी शिक्षकों से यही आग्रह करता हूं कि वे अपने विद्यार्थियों से वही काम कराएं, जो वे अपने बच्चों से कराना चाहेंगे। यह ठीक नहीं है कि आपका बच्चा तो अमेरिका के सपने देखे और आप अपने विद्यार्थी को ‘पार्टी का कॉडर’ बनायें। यह धोखा है।” उनका कहना है कि हमारे पास “दो शब्द हैं, ‘एक्टिविज्म’ और दूसरा है ‘जर्नलिज्म’। वे कहते हैं कि कहीं-न-कहीं पत्रकारों को एक्टिविज्म छोड़ना होगा और जर्नलिज्म की तरफ आना होगा। जर्नलिज्म के मूल्य हैं खबर देना। हमें अपने मूल्यों की ओर लौटना होगा, अगर हम एजेंडा पत्रकारिता करेंगे, एक्टिविज्म का जर्नलिज्म करेंगे या पत्रकारिता की आड़ में कुछ एजेंडा चलने की कोशिश करेंगे, तो हम अपनी विश्वसनीयता खो बैठेंगे और हमें इससे बचना चाहिए।”

   एक साक्षात्कार में संजय द्विवेदी कहते हैं, “हमें यह देखना होगा कि दुनिया के अंदर मीडिया शिक्षा में किस तरह के प्रयोग हुए हैं। उन प्रयोगों को भारत की भूमि में यहां की जड़ों से जोड़कर कैसे दोहराया जा सकता है। पत्रकारिता एक प्रोफेशनल कोर्स है। यह एक सैद्धांतिक दुनिया भर नहीं है…हमें मीडिया में नेतृत्व करने वाले लोग खड़े करने पड़ेंगे और यह जिम्मेदारी मीडिया में जाने के बाद नहीं शुरू होती। हमें मीडिया शिक्षण संस्थाओं से ही लीडर खड़े करने पड़ेंगे। जब लीडर खड़े होंगे, तभी मीडिया का भविष्य ज्यादा बेहतर होगा। मीडिया एजुकेशन देने वाले संस्थानों की यह जिम्मेदारी है कि इन संस्थानों से लीडर खड़े किए जाएं और वे प्रबंधन की भूमिका में भी जाएं।”

    संजय द्विवेदी का मानना है कि  “जैसा हमारा समाज होता है, वैसे ही हमारे समाज के सभी वर्गों के लोग होते हैं। उसी तरह का मीडिया भी है। तो हमें समाज के शुद्धिकरण का प्रयास करना चाहिए। मीडिया बहुत छोटी चीज है और समाज बहुत बड़ी चीज है। मीडिया समाज का एक छोटा-सा हिस्सा है। मीडिया ताकतवर हो सकता है, लेकिन समाज से ताकतवर नहीं हो सकता…याद रखिये कि मीडिया अच्छा हो जाएगा और समाज बुरा रहेगा, ऐसा नहीं हो सकता। समाज अच्छा होगा, तो समाज जीवन के सभी क्षेत्र अच्छे होंगे।”

    पुस्तक ‘जो कहूंगा, सच कहूंगा’ के संपादकीय में सम्पादक द्वय डॉ. सौरभ मालवीय और लोकेंद्र सिंह लिखते हैं, “संजय द्विवेदी अपने समय के साथ संवाद करते हैं। अपने समय से साथ संवाद करना उनकी प्रकृति है। इसलिए संवाद के जो भी साधन जिस समय में उपलब्ध रहे, उसका उपयोग संजय जी ने किया। जो विषय उन्हें अच्छे लगे या जिन मुद्दों पर उन्हें लगा कि इन पर समाज के साथ संवाद करना आवश्यक है, उन्होंने परंपरागत और डिजिटल मीडिया का उपयोग किया।” इस बात को संजय द्विवेदी भी एक जगह कहते हैं, “समय के साथ रहना, समय के साथ चलना और अपने समय से संवाद करना मेरी प्रकृति रही है। मैं पत्रकारिता का एक विद्यार्थी मानता हूं और अपने समय से संवाद करता हूं।”

    वहीं, रिजवान अहमद सिद्दीकी से बातचीत में संजय द्विवेदी एक आदर्श व्यक्तित्व प्रस्तुत करते हैं और वे कहते है, “जो काम मुझे मिला, ईमानदारी से, प्रामाणिकता से और अपना सब कुछ समर्पित कर उसे पूरा किया। कभी भी ये नहीं सोचा कि ये काम अच्छा है, बुरा है, छोटा है या बड़ा है। और कभी भी किसी काम की किसी दूसरे काम से तुलना भी नहीं की। किसी भी काम में हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास किया। यही मेरा मंत्र है।” साथ ही, दूसरों से उम्मीद करते हुए कहते हैं, “अपने काम में ईमानदारी और प्रमाणिकता रखने के साथ परिश्रम करना चाहिए, क्योंकि इसका कोई विकल्प नहीं है। सामान्य परिवार से आने वाले बच्चों के पास दो ही शक्ति होती है, उनकी क्रिएटिविटी और उनके आइडियाज, अगर परिश्रम के साथ काम करते हैं तो अपार संभावनाएं हैं।” इतना ही नहीं, वे कार्य को देशहित से भी जोड़ते हैं। पुस्तक में एक स्थान पर वे कहते हैं, “हर व्यक्ति जो किसी भी क्षेत्र में अपना काम ईमानदारी से कर रहा है, वह देशहित में ही कर रहा है।”

    इस संपादित पुस्तक में कुल जमा 25 साक्षात्कार हैं, जो विभिन्न समय पर लिए गए हैं। ये साक्षात्कार डॉ. ऋतेश चौधरी, सौरभ कुमार, विकास सिंह, एसडी वीरेंद्र, रिजवान अहमद सिद्दीकी, डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी, अजीत द्विवेदी, कुमार श्रीकांत, विकास सक्सेना, नीरज कुमार दुबे, डॉ. अनिल निगम, डॉ. विष्णुप्रिय पांडेय, आनंद पराशर, प्रगति मिश्रा, राहुल चौधरी, आरजे ज्योति, आशीष जैन, सौम्या तारे, गौरव चौहान, माया खंडेलवाल, शबीना अंजुम, डॉ. रुद्रेश नारायण मिश्रा एवं शिवेंदु राय द्वारा लिए गए हैं। कुल 256 पेज की यह पुस्तक कई मायनों में अलग है, जिसे मीडिया में विद्यार्थियों, शिक्षाविदों और मीडियाकर्मियों को पढ़नी और गढ़नी चाहिए।


(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, जम्मू में सहायक प्राध्यापक हैं।)