मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-2
संस्कृत की शक्ति को पहचानना होगा
आचार्य डॉ. महेश चंद्र शर्मा
छत्तीसगढ प्रदेश का यह महान सौभाग्य है कि यहां अनादिकाल से संस्कृत साधना होती रही है। श्रीराम, रामायण, माता कौशल्या और वाल्मीकि जी का इस पुण्य भूमि से संबंध रहा है। महर्षि वेदव्यास की पण्डवानी आज भी यहां गूंजती है। यहां के असंख्य संस्कृत कवियों और विद्वानों ने पूरे विश्व को अनेक संस्कृत महाकाव्यों के साथ विपुल संस्कृत साहित्य सौंपा। राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ राजभाषा छत्तीसगढ़ी का संस्कृत से बेहद अन्तरंग संबंध है। इसकी भाषा वैज्ञानिक एवं व्याकरणिक रचना संस्कृत के बहुत करीब है। स्वर्गीय हरि ठाकुर जी के साथ इस लेखक ने एक लेख लिखा था- 'संस्कृत और छत्तीसगढ़ी का अंतर्संबंध। काफी चर्चित और लोकप्रिय रहा था यह सांस्कृतिक आलेख। गोद के लिए संस्कृत में 'क्रोड है तो छत्तीसगढ़ी में 'कोरा है। संस्कृत का 'लांगल ही छत्तीसगढ़ में 'नागर (हल) है। वर्ष के लिए संस्कृत में 'वत्सर या 'संवत्सर है तो छत्तीसगढ़ी में 'बच्छर है। ऐसे असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं। आशय यह है कि यदि छत्तीसगढ़ में प्राथमिक स्तर पर संस्कृत शिक्षा अनिवार्य की जाती है, तो यह स्वागतयोग्य कदम है। इससे छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान, संस्कार और सुसंस्कृत शिक्षा में भी वृध्दि होगी। इससे छत्तीसगढ़ी को कोई क्षति नहीं होगी। अपितु छत्तीसगढ़ी हर तरह से समृध्द होगी। इस पृष्ठभूमि से छत्तीसगढ़ी नई ऊंचाइयां प्राप्त करेगी। संवेदनशील शासन के उक्त निर्णय का हरेक छत्तीसगढ़िया स्वागत करेगा। छत्तीसगढ़ में 30 से अधिक संस्कृत काव्य एवं सहस्त्राधिक अन्य ग्रन्थ लिखे गए हैं।
किन्तु 'छत्तीसगढ़ अस्मिता संस्थान के विद्वान संयोजक नन्द किशोर जी शुक्ल का लेख एक समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ। 'संस्कृत की बजाय शिक्षा छत्तीसगढ़ी में क्यों नहीं? इस शीर्षक से आए विचार अज्ञानतापूर्ण, भ्रामक, अप्रमाणिक, तथ्यों से परे एवं सौहार्द्र विरोधी हैं। जहां तक हमारी अल्प जानकारी है 'संस्कृत में नहीं अपितु 'संस्कृत की शिक्षा देने की योजना है। भ्रांतिमूलक आधार से शांतिमूलक विचार की आशा ही मृगतष्णा कहलाती है। सीखने का माध्यम संस्कृत को नहीं बनाया गया है। संस्कृत साहित्य को एक भाषा, साहित्य या विषय के रूप में पढ़ने-पढ़ाने की बात है। इसका हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिए। बच्चों में भाषायी सद्भाव की नींव पड़ने के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी और राजभाषा छत्तीसगढ़ी की शब्दावली इससे समृध्दि होगी। उच्चारण की शुध्दता के साथ-साथ नैतिक संस्कार एवं जीवन मूल्यों से भी छत्तीसगढ़ का बालपन सुपरिचित होगा और सबसे सुखद बात यह है कि उनमें 'छत्तीसगढ़ी अस्मिता और स्वाभिमान भी संस्कृत शिक्षा से जागृत होगा।
संस्कृत के विश्वव्यापी, अंतरराष्ट्रीय और प्रांतीय महत्व की जानकारी में यदि लेखक को कुछ मार्गदर्शन लेना होता तो राष्ट्रीय संस्कृत और वेद सम्मेलनों के प्रखर वक्ता वेदों के प्रताप से तेजस्वी डॉ. वेद प्रताप वैदिक जी से ही ले लेते। लेखक ने जिस प्रगतिशील जापान का उल्लेख प्रमुखता से किया है वहीं यथाशीघ्र 'विश्व संस्कृत सम्मेलन होने जा रहा है। चीन बौध्द देश संस्कृत की महत्ता को स्वीकार कर चुका है। तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने इस लेख के लेखक की कृति 'सिध्दार्थचरित (संस्कृत-हिन्दी) का अवलोकन कर लिखित शुभकामनाएं दीं। जर्मनी में संस्कृत अध्ययन जगप्रसिध्द है। सत्यव्रत जी शास्त्री ने इसे 'शर्मण्य देश कह कर संस्कृत ग्रन्थ लिखे हैं। आशय यह कि छत्तीसगढ़ में ही नहीं पूरे विश्व में बड़ी संख्या के लोग संस्कृत के ज्ञाता हैं। वे 'मुट्ठी भर पण्डित-पुरोहित नहीं अपितु 'आमजन हैं। इंटरनेट-कम्प्यूटर पर अमरीका भी संस्कृत को प्रणाम कर रहा है। छत्तीसगढ़ में सुदूर वनांचल कैलाश नाथेश्वर और सांभरबार के श्री रामेश्वर गाहिरा गुरु संस्कृत आवासीय महाविद्यालय एवं अन्य संलग्न आश्रमों, पाठशालाओं में संस्कृत के छात्रों की संख्या कई हजार से अधिक है। इसी तरह छत्तीसगढ़ के दूसरे वनांचल बस्तर में स्वाध्यायी और नियमित संस्कृत छात्रों की संख्या 2000 से अधिक प्रत्यक्ष इस वर्ष भी इस लेखक (अर्थात मैंने) देखी है।
शालेय स्तर पर कक्षा 10 तक और कहीं-कहीं 11वीं-12वीं में भी हजारों बच्चो पढ़ रहे हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्र मेरिट के साथ संस्कृत में सर्वोच्च अंक ला रहे हैं। कई प्राध्यापक भी इन वर्गों को संस्कृत पढ़ा रहे हैं। विश्व संस्कृत प्रतिष्ठानम, संस्कृत भारती, लोक भाषा प्रचार समिति और राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान द्वारा संचालित संस्कृत शिक्षण प्रशिक्षण शिविरों में भी हजारों की संख्या में विविध आयु, धर्म जाति एवं वर्गों के लोगों को लगातार शिक्षित किया जाना किसी से छिपा नहीं है। साहित्य, संगीत, कला, राजनीति, शासन-प्रशासन एवं समाज सेवा के असंख्य जन संस्कृतज्ञ या संस्कृत प्रेमी हैं। फिर इसे चन्द लोगों की भाषा कहना दुर्भाग्यपूर्ण है। उधर पाठशालाओं में प्राच्य पध्दति से हजारों छात्र संस्कृत पढ़ कर धन्य हो रहे हैं। फिर भी संस्कृत 'मुट्ठी भर लोगों की भाषा कहना निराधार नहीं तो और क्या है? छात्र तो संस्कृत लेकर प्रशासन में उच्च पदों पर पहुंच चुके हैं। पर कोई जानना नहीं चाहे तो क्या किया जाए? वास्तव में संस्कृत की शक्ति को लेकर संजय द्विवेदी के लेख (देखें 'हरिभूमि 2 जून 2008 का संपादकीय पृष्ठ) से इस संदर्भ में राहत और प्रेरणा दोनों मिली। छत्तीसगढ़ के भाषायी सौहार्द्र-सद्भाव में संस्कृत सशक्त भूमिका निभाती आई है।
जहां तक मातृभाषा में शिक्षा की उपयोगिता का सवाल है, कोई अभागा ही इससे असहमत होगा। किन्तु हिन्दी और छत्तीसगढ़ी हमारी मातृभाषा है, तो संस्कृत इनकी भी मातृभाषा है। अर्थात् संस्कृत मातृभाषा की भी मातृभाषा है। एक दादी-नानी, पोती का अहित कैसे कर सकती है। लेकिन आज के बुरे समय में पोती-पोतों को दादा-दादी, नाना-नानी से अलग रखने का फैशन चल रहा पड़ा है। राष्ट्रभाषा और दिव्य गुणों से मानव को देव बनाने वाली देवभाषा संस्कृत को निंदा या उपेक्षा के गृह युध्द में अंग्रेजी जैसी बाहरी भाषाओं के आक्रमण से बचाना है तो हमें घरेलू भाषायी सौहार्द्र बढ़ाना होगा। छत्तीसगढ़ के गांधी, बल्कि गांधी जी ने जिन्हें गुरु माना ऐसे पं. सुन्दरलाल शर्मा तो राजिम में संस्कृत पाठशाला संचालित करते थे। पद्मश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय ने 'मेघदूत का प्रथम छत्तीसगढ़ी में पद्यानुवाद किया। नन्दकिशोर जी, सैकड़ों उदाहरण हैं। छत्तीसगढ़ी की उन्नति न चाहने वाले कोई और होंगे। संस्कृत हितैषी कभी 'षडयंत्र नहीं करते। सब मिलकर बढ़ें। मैं प्रतीक्षा में हूं कि हम सब कहें कि संस्कृत अनिवार्यत: रोजगार से जुड़े। संघ में शक्ति है। असौहार्द्र में नहीं।
(लेखक संस्कृत भाषा के प्रख्यात विद्वान एवं शिक्षाविद् हैं।)
किन्तु 'छत्तीसगढ़ अस्मिता संस्थान के विद्वान संयोजक नन्द किशोर जी शुक्ल का लेख एक समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ। 'संस्कृत की बजाय शिक्षा छत्तीसगढ़ी में क्यों नहीं? इस शीर्षक से आए विचार अज्ञानतापूर्ण, भ्रामक, अप्रमाणिक, तथ्यों से परे एवं सौहार्द्र विरोधी हैं। जहां तक हमारी अल्प जानकारी है 'संस्कृत में नहीं अपितु 'संस्कृत की शिक्षा देने की योजना है। भ्रांतिमूलक आधार से शांतिमूलक विचार की आशा ही मृगतष्णा कहलाती है। सीखने का माध्यम संस्कृत को नहीं बनाया गया है। संस्कृत साहित्य को एक भाषा, साहित्य या विषय के रूप में पढ़ने-पढ़ाने की बात है। इसका हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिए। बच्चों में भाषायी सद्भाव की नींव पड़ने के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी और राजभाषा छत्तीसगढ़ी की शब्दावली इससे समृध्दि होगी। उच्चारण की शुध्दता के साथ-साथ नैतिक संस्कार एवं जीवन मूल्यों से भी छत्तीसगढ़ का बालपन सुपरिचित होगा और सबसे सुखद बात यह है कि उनमें 'छत्तीसगढ़ी अस्मिता और स्वाभिमान भी संस्कृत शिक्षा से जागृत होगा।
संस्कृत के विश्वव्यापी, अंतरराष्ट्रीय और प्रांतीय महत्व की जानकारी में यदि लेखक को कुछ मार्गदर्शन लेना होता तो राष्ट्रीय संस्कृत और वेद सम्मेलनों के प्रखर वक्ता वेदों के प्रताप से तेजस्वी डॉ. वेद प्रताप वैदिक जी से ही ले लेते। लेखक ने जिस प्रगतिशील जापान का उल्लेख प्रमुखता से किया है वहीं यथाशीघ्र 'विश्व संस्कृत सम्मेलन होने जा रहा है। चीन बौध्द देश संस्कृत की महत्ता को स्वीकार कर चुका है। तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने इस लेख के लेखक की कृति 'सिध्दार्थचरित (संस्कृत-हिन्दी) का अवलोकन कर लिखित शुभकामनाएं दीं। जर्मनी में संस्कृत अध्ययन जगप्रसिध्द है। सत्यव्रत जी शास्त्री ने इसे 'शर्मण्य देश कह कर संस्कृत ग्रन्थ लिखे हैं। आशय यह कि छत्तीसगढ़ में ही नहीं पूरे विश्व में बड़ी संख्या के लोग संस्कृत के ज्ञाता हैं। वे 'मुट्ठी भर पण्डित-पुरोहित नहीं अपितु 'आमजन हैं। इंटरनेट-कम्प्यूटर पर अमरीका भी संस्कृत को प्रणाम कर रहा है। छत्तीसगढ़ में सुदूर वनांचल कैलाश नाथेश्वर और सांभरबार के श्री रामेश्वर गाहिरा गुरु संस्कृत आवासीय महाविद्यालय एवं अन्य संलग्न आश्रमों, पाठशालाओं में संस्कृत के छात्रों की संख्या कई हजार से अधिक है। इसी तरह छत्तीसगढ़ के दूसरे वनांचल बस्तर में स्वाध्यायी और नियमित संस्कृत छात्रों की संख्या 2000 से अधिक प्रत्यक्ष इस वर्ष भी इस लेखक (अर्थात मैंने) देखी है।
शालेय स्तर पर कक्षा 10 तक और कहीं-कहीं 11वीं-12वीं में भी हजारों बच्चो पढ़ रहे हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्र मेरिट के साथ संस्कृत में सर्वोच्च अंक ला रहे हैं। कई प्राध्यापक भी इन वर्गों को संस्कृत पढ़ा रहे हैं। विश्व संस्कृत प्रतिष्ठानम, संस्कृत भारती, लोक भाषा प्रचार समिति और राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान द्वारा संचालित संस्कृत शिक्षण प्रशिक्षण शिविरों में भी हजारों की संख्या में विविध आयु, धर्म जाति एवं वर्गों के लोगों को लगातार शिक्षित किया जाना किसी से छिपा नहीं है। साहित्य, संगीत, कला, राजनीति, शासन-प्रशासन एवं समाज सेवा के असंख्य जन संस्कृतज्ञ या संस्कृत प्रेमी हैं। फिर इसे चन्द लोगों की भाषा कहना दुर्भाग्यपूर्ण है। उधर पाठशालाओं में प्राच्य पध्दति से हजारों छात्र संस्कृत पढ़ कर धन्य हो रहे हैं। फिर भी संस्कृत 'मुट्ठी भर लोगों की भाषा कहना निराधार नहीं तो और क्या है? छात्र तो संस्कृत लेकर प्रशासन में उच्च पदों पर पहुंच चुके हैं। पर कोई जानना नहीं चाहे तो क्या किया जाए? वास्तव में संस्कृत की शक्ति को लेकर संजय द्विवेदी के लेख (देखें 'हरिभूमि 2 जून 2008 का संपादकीय पृष्ठ) से इस संदर्भ में राहत और प्रेरणा दोनों मिली। छत्तीसगढ़ के भाषायी सौहार्द्र-सद्भाव में संस्कृत सशक्त भूमिका निभाती आई है।
जहां तक मातृभाषा में शिक्षा की उपयोगिता का सवाल है, कोई अभागा ही इससे असहमत होगा। किन्तु हिन्दी और छत्तीसगढ़ी हमारी मातृभाषा है, तो संस्कृत इनकी भी मातृभाषा है। अर्थात् संस्कृत मातृभाषा की भी मातृभाषा है। एक दादी-नानी, पोती का अहित कैसे कर सकती है। लेकिन आज के बुरे समय में पोती-पोतों को दादा-दादी, नाना-नानी से अलग रखने का फैशन चल रहा पड़ा है। राष्ट्रभाषा और दिव्य गुणों से मानव को देव बनाने वाली देवभाषा संस्कृत को निंदा या उपेक्षा के गृह युध्द में अंग्रेजी जैसी बाहरी भाषाओं के आक्रमण से बचाना है तो हमें घरेलू भाषायी सौहार्द्र बढ़ाना होगा। छत्तीसगढ़ के गांधी, बल्कि गांधी जी ने जिन्हें गुरु माना ऐसे पं. सुन्दरलाल शर्मा तो राजिम में संस्कृत पाठशाला संचालित करते थे। पद्मश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय ने 'मेघदूत का प्रथम छत्तीसगढ़ी में पद्यानुवाद किया। नन्दकिशोर जी, सैकड़ों उदाहरण हैं। छत्तीसगढ़ी की उन्नति न चाहने वाले कोई और होंगे। संस्कृत हितैषी कभी 'षडयंत्र नहीं करते। सब मिलकर बढ़ें। मैं प्रतीक्षा में हूं कि हम सब कहें कि संस्कृत अनिवार्यत: रोजगार से जुड़े। संघ में शक्ति है। असौहार्द्र में नहीं।
(लेखक संस्कृत भाषा के प्रख्यात विद्वान एवं शिक्षाविद् हैं।)
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