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सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

शिक्षा परिसर राजनीति मुक्त नहीं, संस्कार युक्त हों

-संजय द्विवेदी


  हमारे कुछ शिक्षा परिसर इन दिनों विवादों में हैं। ये विवाद कुछ प्रायोजित भी हैं, तो कुछ वास्तविक भी। विचारधाराएं परिसरों को आक्रांत कर रही हैं और राजनीति भयभीत। जैसी राजनीति हो रही है, उससे लगता है कि ये परिसर देश का प्रतिपक्ष हैं। जबकि यह पूरा सच नहीं है। कुछ मुट्ठी भर लोग भारतीय युवा और उसकी समझ को चुनौती नहीं दे सकते। देश का औसतन युवा देशभक्त और अपने विवेक पर भरोसा करने वाला है। उसे अपने देश की शक्ति और कमजोरियों का पता है। वह भावुक है, पर भावनात्मक आधार पर फैसले नहीं लेता। दुनिया की चमकीली प्रगति से चमत्कृत भी है, पर इसके पीछे छिपे अंधेरों को भी पहचानता है।
  कई स्थानों से यह विमर्श सुनने में आता है कि शिक्षा परिसरों को राजनीति मुक्त कर देना चाहिए और विद्यार्थी सिर्फ पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दें। उन्हें राजनीति से क्या मतलब? जबकि यह सोच एकांगी है। देश के एक महत्वपूर्ण छात्र संगठन का मानना है कि छात्र कल का नहीं, आज का नागरिक है। अतएव छात्र शक्ति को सही मार्गदर्शन देते हुए राष्ट्रहित में उसका योगदान सुनिश्चित करना जरूरी है। हम एक लोकतांत्रिक समाज में रहते हैं, हमारे परिसर भी इसी व्यवस्था का हिस्सा हैं। राजनीति, छात्रों का इस्तेमाल कर अपने वोट बैंक को मजबूत तो करना चाहती है, किंतु छात्रसंघों के चुनाव अनेक राज्यों में प्रतिबंधित हैं। छात्रसंघों से राजनीति और सत्ता को घबराहट होती है। यहां तक कि जो राजनेता छात्रसंघों के माध्यम से राजनीति में आए, वे भी छात्रसंघों के प्रति उदार नहीं हैं। होना यह चाहिए कि छात्रसंघ विद्यार्थियों के सांस्कृतिक, वैचारिक और राजनीतिक रूझानों के विकास में सहायक बनें। ताकि छात्र नेतृत्व और उसकी गंभीरता को समझकर अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें। छात्रसंघ और छात्र राजनीति कहीं न कहीं इस भूमिका से विरत हुयी है, इसलिए देश के राजनेताओं व अन्य प्रशासकों को इनका गला दबाने का अवसर मिला। कहा जाता है कि इसके चलते परिसर में तनाव और हिंसाचार भी बढ़ता है। हम देखते हैं कि जब अनेक बुराइयों के बावजूद भी हम संसदीय राजनीति के खिलाफ नहीं हो जाते, बल्कि उसमें सुधार का ही प्रयास करते हैं। इसी तरह छात्रसंघों के रचनात्मक इस्तेमाल की भूमिका बनाने के बजाए, उनका गला दबा देने का विचार लोकतांत्रिक नहीं है। हमें देखना होगा कि छात्र संगठन क्यों राजनीतिक दलों के हस्तक बन रहे हैं। सभी प्रकार के आंदोलनों की तरह छात्र आंदोलन भी मर रहे हैं। विचारधारा के आधार पर विभाजित राजनीति कब पंथ और जाति की गलियों में भटक जाती है, कहा नहीं जा सकता।
  ऐसे समय में शिक्षकों, शिक्षाविदों और परिसरों को जीवंत देखने की आकांक्षा रखने वाले लोगों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। सत्ता- राजनीति तो चाहती ही है कि परिसरों में फेयरवेल पार्टियां हों, फ्रेशर्स पार्टियां हों, मनोरंजन प्रधान आयोजन हों। किंतु ऐसे आयोजन जिससे बहस का प्रारंभ हो, नए विचार सृजित हों-उन्हें किए जाने से परिसरों के अधिपति घबराते हैं। एक लोकतंत्र में होते हुए हमें असहमतियों के लिए स्थान बनाना होगा। विमर्शों को जगह देनी होगी और असुविधाजनक सवालों के लिए भी तैयार रहना होगा। एक लोकतंत्र का यही सौंदर्य है और यही उसकी ताकत भी है। विद्यार्थियों को इस तरह से तैयार करना कि वे भावी चुनौतियों से टकराने का साहस अर्जित कर सकें, जरूरी है। यहां यह कहना आवश्यक है कि यह सारा कुछ अपने तिरंगे और देश को मजबूत करने के लिए होगा। देश को तोड़ने और खंडित करने वाले विचारों के लिए, यहां जगह नहीं होनी चाहिए- अगर ऐसा होगा तो परिसर आतंक की जगह बनेंगे। राज्य की ताकत को हम जानते हैं, इसलिए परिसर विमर्शों का केन्द्र तो बनें, किंतु देशतोड़कों की पनाहगाह नहीं। अपने शोध-अनुसंधान और शिक्षण-प्रशिक्षण से हमें इस देश को बनाना है, बर्बाद नहीं करना है, यह सोच हमेशा केन्द्र में रहनी चाहिए। कोई भी विश्वविद्यालय अपने अध्यापकों और विद्यार्थियों के अवदान से ही बड़ा बनता है। हमें हमारे परिसरों को जीवंत बनाने के लिए इन्हीं दो पर ध्यान देना होगा। ऊर्जावान, नए विचारों से भरे हुए अध्यापक ही अपने विद्यार्थियों को नई रोशनी दे सकते हैं। वे ही नवाचारों के लिए प्रेरणा बन सकते हैं।
  एक विद्यार्थी जब किसी भी परिसर में आता है तो एक उम्मीद के साथ आता है। उसे अपने दल का कैडर बनाने के बजाए, एक विचारवान नागरिक बनाना, शिक्षकों का पहला कर्तव्य है। वे उसे आंखें दें पर उधार की आंखें न दें। शिक्षकों का यह कर्तव्य है कि वे चाणक्य बनें और उनके विद्यार्थी चंद्रगुप्त। अध्यापकों के सामने सर्वश्री डा. राधाकृष्णन, हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डा.एपीजे अबुल कलाम, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, श्यामाचरण दुबे, विद्यानिवास मिश्र जैसे अनेक उदाहरण हैं, जिनके सानिध्य में जाकर कोई भी साधारण बालक भी एक असाधारण प्रतिभा में बदल जाता है। विद्यार्थी के इस रूपांतरण के लिए ऐसे शिक्षकों का राष्ट्र भी आदर करता है। गुरू-शिष्य परंपरा ऐसी हो, जिससे राष्ट्र के लिए हर क्षेत्र में नायक गढ़े जाएं।

  सही बात तो यह है कि कुछ शिक्षकों को यह खबर ही नहीं कि उनके विद्यार्थी क्या कर रहे हैं, वे एक वेतन भोगी कर्मचारी की तरह अपनी कक्षा को बहुत निरपेक्ष तरीके से करते हुए, बस जिए जा रहे हैं तो कुछ ऐसे हैं, जिन्हें अपनी कक्षा से ही अपनी विचारधारा के लिए वैचारिक योद्धा और अपने राजनीतिक दल के लिए कैडर गढ़ने हैं। ऐसी दोनों प्रकार की अतियां गलत हैं। हमारी शिक्षा और उकसावे से हमारे किसी विद्यार्थी का जीवन बदल जाए तो ठीक है पर बिगड़ जाए तो...। हमारे क्रांतिकारी विचार उसे जेल की यात्राएं करवा दें, तो विचार करना होगा कि हमने शिक्षा में क्या गड़बड़ की है। हमारे विद्यार्थी हमारी अपनी संतानों की तरह हैं। हम उनसे वही अपेक्षा करें, वही मार्ग दिखाएं जिस पर हमारी अपनी संतानों के चलने पर हमें आपत्ति न हो। यही एक ही सूत्र है जो हमारी खुद की परीक्षा के लिए काफी है। हमारे विद्यार्थी बहुत सी उम्मीदों, आशाओं, आकांक्षाओं और सपनों के साथ परिसर में आते हैं। उनके सपनों में रंग भरने की उन्हें ताकत देना, हम शिक्षकों की जिम्मेदारी है। दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि क्या हम उनके साथ ऐसा कर पा रहे  हैं। परिसरों को राजनीति मुक्त नहीं, संस्कार युक्त बनाकर ही हम देश की प्रतिभाओं को उचित मंच दे पाएंगे। हम शिक्षकों ने आज ही यह शुरूआत नहीं की, तो कल बहुत देर हो जाएगी।

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

जेएनयू के भारत विरोधी!

उन सिरफिरों का इलाज जरूरी जो जेएनयू की छवि और राष्ट्र की अस्मिता से खेल रहे हैं
-संजय द्विवेदी


   यह एक यक्ष प्रश्न है कि इतने बड़े विचारकों, विश्व राजनीति-अर्थनीति की गहरी समझ, तमाम नेताओं की अप्रतिम ईमानदारी और विचारधारा के प्रति समर्पण के किस्सों के बावजूद भारत का वामपंथी आंदोलन क्यों जनता के बीच स्वीकृति नहीं पा सका? अब लगता है, भारत की महान जनता इन राष्ट्रद्रोहियों को पहले से ही पहचानती थी, इसलिए इन्हें इनकी मौत मरने दिया। जो हर बार गलती करें और उसे ऐतिहासिक भूल बताएं, वही वामपंथी हैं। वामपंथी वे हैं जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे राष्ट्रनायक को 'तोजो का कुत्ता' बताएं, वे वही हैं जो चीन के साथ हुए युद्ध में भारत विरोध में खड़े रहे। क्योंकि चीन के चेयरमैन माओ उनके भी चेयरमेन थे। वे ही हैं जो आपातकाल के पक्ष में खड़े रहे। वे ही हैं जो अंग्रेजों के मुखबिर बने और आज भी उनके बिगड़े शहजादे (माओवादी) जंगलों में आदिवासियों का जीवन नरक बना रहे हैं।

देश तोड़ने की दुआएं कौन कर रहे हैः    अगर जेएनयू परिसर में वे पाकिस्तान जिंदाबाद करते नजर आ रहे हैं, तो इसमें नया क्या है? उनकी बदहवासी समझी जा सकती है। सब कुछ हाथ से निकलता देख, अब सरकारी पैसे पर पल रहे जेएनयू के कुछ बुद्धिधारी इस इंतजाम में लगे हैं कि आईएसआई (पाकिस्तान) उनके खर्चे उठा ले। जब तक जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगाने वाली ताकतें हैं ,देश के दुश्मनों को हमारे मासूम लोगों को कत्ल करने में दिक्कत क्या है? हमारा खून बहे, हमारा देश टूटे यही भारतीय वामपंथ का छुपा हुआ एजेंडा है। हमारी सुरक्षा एजेंसियां देश में आतंकियों के मददगार स्लीपर सेल की तलाश कर रही हैं, इसकी ज्यादा बड़ी जगह जेएनयू है। वहां भी नजर डालिए।
सरकारी पैसे पर राष्ट्रद्रोह की विषवेलः जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय एक ऐसी जगह है, जहां सरकारी पैसे से राष्ट्रद्गोह के बीज बोए जाते हैं। यहां ये घटनाएं पहली बार नहीं हुयी हैं। ये वे लोग हैं नक्सलियों द्वारा हमारे वीर सिपाहियों की हत्या पर खुशियां मनाते हैं। अपनी नाक के नीचे भारतीय राज्य अरसे से यह सब कुछ होने दे रहा है,यह आश्चर्य की बात है। इस बार भी घटना के बाद माफी मांग कर अलग हो जाने के बजाए, जिस बेशर्मी से वामपंथी दलों के नेता मैदान में उतरकर एक राष्ट्रद्रोही गतिविधि का समर्थन कर रहे हैं, वह बात बताती है, उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है। यह कहना कि जेएनयू को बदनाम किया जा रहा है,ठीक नहीं है। गांधी हत्या की एक घटना के लिए आजतक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लांछित करने वाली शक्तियां क्यों अपने लिए छूट चाहती हैं? जबकि अदालतों ने भी गांधी हत्या के आरोप से संघ को मुक्त कर दिया है। टीवी बहसों को देखें तो अपने गलत काम पर पछतावे के बजाए वामपंथी मित्र भाजपा और संघ के बारे में बोलने लगते हैं। भारत को तोड़ने और खंडित करने के नारे लगाने वाले और इंडिया गो बैक जैसी आवाजें लगाने वाले किस तरह की मानसिकता में रचे बसे हैं, इसे समझा जा सकता है। देश तोड़ने की दुआ करने वालों को पहचानना जरूरी है।
राहुल जी, आप वहां क्या कर रहे हैः वामपंथी मित्रों की बेबसी, मजबूरी और बदहवासी समझी जा सकती है, किंतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसी जिम्मेदार पार्टी के नेता राहुल गांधी का रवैया समझ से परे है। कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय आंदोलन का अतीत और उसके नेताओं का राष्ट्र की रक्षा के लिए बलिदान लगता है राहुल जी भूल गए हैं। आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि वे जाकर देशद्रोहियों के पाले में खड़े हो जाएं? उनकी पं. नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री राजीव गांधी की विरासत का यह अपमान है। इनमें से दो ने तो अपने प्राण भी इस राष्ट्र की रक्षा के लिए निछावर कर दिए। ऐसे परिवार का अंध मोदी विरोध या भाजपा विरोध में इस स्तर पर उतर जाना चिंता में डालता है। पहले दो दिन कांग्रेस ने जिस तरह की राष्ट्रवादी लाइन ली, उस पर तीसरे दिन जेएनयू जाकर राहुल जी ने पानी फेर दिया। जेएनयू जिस तरह के नारे लगे उसके पक्ष में राहुल जी का खड़ा होना बहुत दुख की बात है। वे कांग्रेस जैसी गंभीर और जिम्मेदार पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। उन्हें यह सोचना होगा कि भाजपा और नरेंद्र मोदी का विरोध करते-करते कहीं वे देशद्रोहियों के एजेंडे पर तो नहीं जा रहे हैं। उन्हें और कांग्रेस पार्टी को यह भी ख्याल रखना होगा कि किसी दल और नेता से बड़ा है देश और उसकी अस्मिता। देश की संप्रभुता को चुनौती दे रही ताकतों से किसी भी तरह की सहानुभूति रखना राहुल जी और उनकी पार्टी के लिए ठीक नहीं है। जेएनयू की घटना को लेकर पूरे देश में गुस्सा है, ऐसे समूहों के साथ अपने आप को चिन्हित कराना, कांग्रेस की परंपरा और उसके सिद्धांतों के खिलाफ है।
अभिव्यक्ति की आजादी के नाम परः कौन सा देश होगा जो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर खुद को तोड़ने की नारेबाजी को प्रोत्साहन देगा। राष्ट्र के खिलाफ षडयंत्र और देशद्रोहियों की याद में कार्यक्रम करने वालों के साथ जो आज खड़े हैं, वे साधारण लोग नहीं हैं। जिस देश ने आपको सांसद, विधायक, मंत्री और प्रोफेसर बनाया। लाखों की तनख्वाहें देकर आपके सपनों में रंग भरे, आपने उस देश के लिए क्या किया? आजादी आप किससे चाहते हैं? इस मुल्क से आजादी, जिसने आपको एक बेहतर जिंदगी दी। अन्याय और अत्याचार से मुक्ति दिलाने की आपकी यात्रा क्यों गांव-गरीब और मैदानों तक नहीं पहुंचती? अपने ही रचे जेएनयू जैसे स्वर्ग में शराब की बोतलों और सिगरेट की घुंओं में क्रांति करना बहुत आसान है किंतु जमीन पर उतर कर आम लोगों के लिए संघर्ष करना बहुत कठिन है। हिंदुस्तान के आम लोग पढ़े-लिखे लोगों को बहुत उम्मीदों से देखते हैं कि उनकी शिक्षा कभी उनकी जिंदगी में बदलाव लाने का कारण बनेगी। किंतु आपके सपने तो इस देश को तोड़ने के हैं। समाज को तोड़ने के हैं। समाज में तनाव और वर्ग संघर्ष की स्थितियां पैदा कर एक ऐसा वातावरण बनाने पर आपका जोर है ताकि लोगों की आस्था लोकतंत्र से, सरकार से और प्रशासनिक तंत्र से उठ जाए। विदेशी विचारों से संचालित और विदेशी पैसों पर पलने वालों की मजबूरी तो समझी जा सकती है। किंतु भारत के आम लोगों के टैक्स के पैसों से एक महान संस्था में पढ़कर इस देश के सवालों से टकराने के बजाए, आप देश से टकराएंगें तो आपका सिर ही फूटेगा।
    जेएनयू जैसी बड़ी और महान संस्था का नाम किसी शोधकार्य और अकादमिक उपलब्धि के लिए चर्चा में आए तो बेहतर होगा, अच्छा होगा कि ऐसे प्रदर्शनों-कार्यक्रमों के लिए राजनीतिक दल या समूह जंतर-मंतर, इंडिया गेट, राजधाट और रामलीला मैदान जैसी जगहें चुनें। शिक्षा परिसरों में ऐसी घटनाओं से पठन-पाठन का वातावरण तो बिगड़ता ही है, तनाव पसरता है, जो ठीक नहीं है। इससे विश्वविद्यालय को नाहक की बदनामी तो मिलती ही है, और वह एक खास नजर से देखा जाने लगता है। अपने विश्वविद्यालय के बचाने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी शायद वहां के अध्यापकों और छात्रों की ही है। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकना ही, इस बार मिली बदनामी का सबसे बड़ा इलाज है।
    एक लोकतंत्र में होते हुए आपकी सांसें घुट रही हैं, तो क्या माओ के राज में, तालिबानों और आईएस के राज में आपको चैन मिलेगा? सच तो यह है कि आप बेचैन आत्माएं हैं, जिनका विचार ही है भारत विरोध, भारत द्वेष, लोकतंत्र का विरोध। आपका सपना है एक कमजोर और बेचारा भारत। एक टूटा हुआ, खंड-खंड भारत। ये सपने आप दिन में भी देखते हैं, ये ही आपके नारे बनकर फूटते हैं। पर भूल जाइए, ये सपना कभी साकार नहीं होगा, क्योंकि देश और उसके लोग आपके बहकावे में आने को तैयार नहीं है। देश तोड़क गतिविधियों और राष्ट्र विरोधी आचरण की आजादी यह देश किसी को नहीं दे सकता। आप चाहे जो भी हों। जेएनयू या दिल्ली भारत नहीं है। भारत के गांवों में जाइए और पूछिए कि आपने जो किया उसे कितने लोगों की स्वीकृति है, आपको सच पता चल जाएगा। राष्ट्र की अस्मिता और चेतना को चुनौती मत दीजिए। क्योंकि कोई भी व्यक्ति, विचारधारा और दल इस राष्ट्र से बड़ा नहीं हो सकता। चेत जाइए।

सोमवार, 25 जनवरी 2016

छात्र आंदोलनः खो गया है रास्ता


-संजय द्विवेदी


      हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमूला की आत्महत्या की घटना ने हमारे शिक्षा परिसरों को बेनकाब कर दिया है। सामाजिक-राजनीतिक संगठनों में काम करने वाले छात्र अगर निराशा में मौत चुन रहे हैं, तो हमें सोचना होगा कि हम कैसा समाज बना रहे हैं? किसी राजनीति या विचारधारा से सहमति-असहमति एक अलग बात है, किंतु बात आत्महत्या तक पहुंच जाए तो चिंताएं स्वाभाविक हैं।
     यहां सवाल अगर हैदराबाद विश्वविद्यालय प्रशासन पर उठता है, तो साथ ही उन लोगों पर भी उठता है, जो रोहित से जुड़े हुए थे। उसके भावनात्मक उद्वेलन को समझकर उसे सही राह दिखाई जाती, तो शायद वह अपने जीवन को खत्म करने के बजाए बहादुरी से जूझने का फैसला करता। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लखनऊ में छात्रों के बीच ठीक ही कहा कि मां भारती ने अपना एक लाल खोया है। एक युवा कितने सपनों के साथ एक परिसर में आता है। उसमें देश और समाज को बदलने के कितने सपने एक साथ झिलमिलाते हैं। सामाजिक-राजनीतिक संगठनों में काम करने वाले युवा अगर निराशा के कारण इस प्रकार के कदम उठा रहे हैं तो उन संगठनों को भी सोचना होगा कि आखिर वे इनका कैसा प्रशिक्षण दे रहे हैं। सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाला युवा एक अलग तरह की प्रेरणा से भरा होता है। संघर्ष का पथ वह चुनता है, और उसके खतरे उठाता है। रोहित के प्रकरण में असावधानी हर तरफ से दिखती है। रोहित का अकेलापन, उसके दर्द की नासमझी, उसकी मौत का कारण बनी है। विश्वविद्यालय में अलग-अलग राजनीतिक धाराओं के संगठनों की सक्रियता कोई नई बात नहीं हैं, उनके आपसी संघर्ष भी कोई नई बात नहीं हैं। बल्कि पश्चिम बंगाल और केरल में तो वामपंथियों ने अपने राजनीतिक विरोधी छात्रों की हत्या करने से भी गुरेज नहीं किया। शिक्षा परिसरों में राजनीतिक दलों से जुड़े छात्र संगठन काम करते हैं और उन्हें करना भी चाहिए किंतु उस सक्रियता में सकारात्मकता कम होती है। संवाद, सरोकार और संघर्ष की त्रिवेणी से ही छात्र संगठन किसी भी परिसर को जीवंत बनाते हैं। किंतु देखा जा रहा है, उनकी सकारात्मक भूमिका कम होती जा रही है, और वे अपनी राजनीतिक पार्टियों के पिछलग्गू से ज्यादा कुछ नहीं बचे हैं।
    शिक्षा परिसरों में विचार-धारा के नाम पर छात्र और शिक्षक भी टकराव लगातार देखने में आ रहे हैं। यह टकराव संवाद के माध्यम से और मर्यादा में रहे तो ठीक है, किंतु यह टकराव मार-पिटाई और हत्या और आत्महत्या तक जा पहुंचे तो ठीक नहीं है। एक युवा कितने सपनों के साथ किसी अच्छे परिसर में पहुंचाता है। ये सपने सिर्फ उसके नहीं होते उसके माता-पिता और परिवार तथा समाज के भी होते हैं। किंतु जब परिसर की एक बड़ी दुनिया में पहुंचकर वह राजनीतिक कुचक्रों में फंस जाता है, तो उसकी एक नई यात्रा प्रारंभ होती है। संकट यह है कि हमारे अध्यापक भी असफल हो रहे हैं। वे इस दौर में अपने विद्यार्थियों में आ रहे परिर्वतनों को न देख पाते हैं, न ही समझ पाते हैं। वे तो अपनी कक्षा में उपस्थित छात्र तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं। विभिन्न विचारधाराओं से जुड़े छात्र परिसर में सक्रिय होते हैं, किंतु उन्हें संवाद की सीमाएं बताना शिक्षकों और प्रशासन का ही काम है। संसदीय राजनीतिक की तमाम बुराइयां छात्र संगठनों में भी आ चुकी हैं, किंतु संसदीय राजनीति में खत्म होता संवाद नीचे तक पसरता दिखता है। संकट यह है कि आज राष्ट्र से बड़ी विचारधारा है, विचारधारा से बड़ी पार्टी है और पार्टी से बड़ा व्यक्ति है। ऐसे में भावनात्मक आधार पर संगठन से जुड़े कार्यकर्ताओं का शोषण हर ओर दिखता है। गांव और सामान्य परिवारों से आए युवाओं को छात्र संगठन पकड़ लेते हैं, उनकी ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं और अपने संगठन को गति देते हैं।
   छात्र जीवन एक ऐसा समय है, जब युवा अपने भविष्य को रचता है। अपने अध्ययन-अनुशीलन और अभ्यास से वह भावी चुनौतियों के लिए तैयार होता है। परिसरों में राजनीतिक घुसपैठ से माहौल बिगड़ता जरूर है, किंतु एक संसदीय लोकतंत्र में रहते हुए इसे रोकने के बजाए, सही दिशा देनी जरूरी है। अपनी विचारधारा के आधार पर लोगों का संगठन और जनमत निर्माण एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गति देते हैं। इससे विमर्श के नए द्वार खुलते हैं, और अधिनायकत्व को चुनौती मिलती है। संवाद, और लोकतंत्र एक दूसरे को शक्ति देते हैं। संवादहीनता और वैमनस्यता के बजाए हमें उदार लोकतांत्रिक विचारों के आधार पर अपने संगठनों को तैयार करना चाहिए। अतिवादिता के बजाए समन्वय, संघर्ष के बजाए संवाद, आक्रामकता के बजाए विमर्श इसका रास्ता है। अपने राजनीतिक विरोधियों को शत्रु समझना एक लोकतंत्र नहीं है। अपने राजनीतिक विरोधियों की असहमति को आदर देना ही लोकतंत्र है। हमें अपने लोकतंत्र को परिपक्व बनाना है, तो यह शुरूआत परिसरों से ही करनी होगी। परिसर खामोशी की चादर ओढ़ने के बजाए प्रश्नाकुल हों, यह समय की मांग है। इस तरह की हिंसक घटनाएं उन लोगों को मजबूत करती हैं, जो परिसरों में राजनीति के खिलाफ हैं, संवाद के खिलाफ हैं। कोई भी शिक्षा परिसर यथास्थिति को तोड़कर नए सवालों के साथ ही धड़कता और खड़ा होता है।
      राजनीति और सत्ता तो यही चाहते हैं कि परिसरों में सिर्फ फेयरवेल पार्टियां हों फेशर्स पार्टियां हों, आनंद उत्सव हो। यहां राजनीतिक विचारों, देश के सवालों पर विवाद और संवाद हो यह हमारी सत्ताएं भी नहीं चाहतीं। इसलिए अनेक राज्यों में आज छात्रसंघों के चुनाव नहीं होते। लोकतंत्र की नर्सरी में उगते कटीले झाड़ों का बहाना लेकर परिसरों से सिर्फ रोबोट बनाने का काम चल रहा है। जो युवाओं को एक मशीन में तब्दील कर रहे हैं। या जिन्हें सिर्फ जल्दी और ज्यादा कमाने की विधियां बता रहे हैं। सामाजिक सरोकार, सामाजिक जिम्मेदारी को उठाने और निभाने की भावना आज के युवा में कम होती जा रही है। एक लोकतंत्र में रहते हुए युवा अगर अपने समय के सवालों से जूझने के लिए तैयार नहीं है तो हम कैसा समाज बनाएगें? रोहित की आत्महत्या हम सबके सामने एक सवाल की तरह है, पर उसे प्रधानमंत्री पर हमले का हथियार न बनाएं। यह सोचें कि परिसरों में ऐसा क्या हो रहा है कि एक सामाजिक सोच का युवा भी मौत चुनने को तैयार है। जो रोहित की मौत पर आंसू बहा रहे हैं वे भी सोचें कि अगर वे आज की तरह उसके साथ होते तो उसे जीवन नहीं गंवाना पड़ता। इस क्रम को हमें रोकना है तो परिसरों को जीवंत बनाना होगा, उम्मीदों से भरना होगा। तभी हमारे युवा जीतते दिखेगें, हारते हुए नहीं। वे जिंदगी चुनेंगें मौत नहीं।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

खामोश परिसरों में हलचलों का इंतजार



सार्थक प्रतिरोध की शक्ति को जगाएं छात्र संगठन
-संजय द्विवेदी

छात्र आंदोलन के यह सबसे बुरे दिन हैं। छात्र आंदोलनों का यह विचलन क्यों है अगर इसका विचार करें तो हमें इसकी जड़ें हमारी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में दिखाई देंगी। आज के तमाम हिंसक अभियानों व आंदोलनों के पीछे और आगे युवा ही दिखते हैं। यह हो रहा है और हम इसे देखते रहने को मजबूर हैं। क्योंकि स्पष्ट सोच, वैचारिक उर्जा और समाज जीवन में मूल्यों की घटती अहमियत ने ही ऐसे हालात पैदा किए हैं। ऐसे में विघटनकारी तत्वों ने समाज को बदलने की उर्जा रखने वाले नौजवानों के हाथ में कश्मीर, पूर्वोत्तर के सात राज्यों समेत तमाम नक्सलप्रभावित राज्यों में हथियार पकड़ा दिए हैं। भारतीय युवा एवं छात्र आंदोलन कभी इतना दिशाहारा और थकाहारा न था। आजादी के पहले नौजवानों के सामने एक लक्ष्य था। अपने बेहतर कैरियर की परवाह न करके उस दौर में उन्होंने त्याग और बलिदान का इतिहास रचा। भाषा और प्रांत की दीवारें तोड़ते हुए देश के हर हिस्से के नौजवान ने राष्ट्रीय आंदोलन में अपना योगदान किया।
आजादी के बाद बिगड़े हालातः
आजादी के बाद यह पूरा का पूरा चित्र बदल गया। नौजवानों के सामने न तो सही लक्ष्य रखे गए, न ही देश की आर्थिक संरचना में युवाओं का विचार कर ऐसे कार्यक्रम बनाए गए जिससे देश के विकास में उनकी भागीदारी तय हो पाती। इस सबके बावजूद देश के महान नेताओं के प्रभामंडल से चमत्कृत छात्र-युवा शक्ति, उनके खिलाफ अपनी जायज मांगों को लेकर भी न खड़ी हो पायी। क्योंकि उस दौर के लगभग सभी नेता राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े थे और उनकी देशनिष्ठा-कर्त्व्यनिष्ठा पर उंगली उठाना संभव न था। किंतु यह दौर 1962 में चीन-भारत युद्ध में भारत की हार के साथ खत्म हो गया। यह हताशा इस पराजय के बाद व्यापक छात्र-आक्रोश के रूप में प्रकट हुयी। देश के महानायकों के प्रति देश के छात्र-युवाओं के मोहभंग की यह शुरूआत थी।
1962 का यह साल, आजादी मिलने के बाद छात्र-आंदोलन में आई चुप्पी के टूटने का साल था। भारतीय सेनाओं की पराजय से आहत युवा मन को यदि उस समय कोई सार्थक नेतृत्व मिला होता तो निश्चय ही देश की तस्वीर कुछ और होती। इसके तत्काल बाद सरकार ने महामना मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिंदू विश्वविद्यालय का नाम बदलकर काशी विश्वविद्यालय रखने का विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया। इस प्रसंग में पूरे देश के नौजवानों की तीखी प्रतिक्रिया के चलते सरकार को विधेयक वापस लेना पड़ा। अपनी सफलता के बावजूद इस प्रसंग ने छात्र राजनीति को धार्मिक आधार पर बांट दिया। इन्हीं दिनों भाषा विवाद भी गहराया और इसने भी छात्रों को उत्तर-दक्षिण दो खेमों में बांट दिया। दक्षिण में छात्रों के अंग्रेजी समर्थक आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया।1967 का यह दौर भाषा आंदोलन तीव्रता का समय था। सरकार द्वारा अंग्रेजी को स्थायी रूप से जारी रखने के फैसले के खिलाफ उत्तर भारत में चले इस आंदोलन को समाज भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। कई बड़े साहित्यकारों ने अपनी उपाधियां और पुरस्कार सरकार को लौटाकर अपना जताया। छात्र आंदोलन की व्यापकता और सामाजिक समर्थन के बावजूद सरकारी हठधर्मिता के चलते अंग्रेजी को स्थायित्व देने वाला विधेयक लोकसभा में पारित हो गया। इस आंदोलन ने छात्रों के मन में तत्कालीन शासन के प्रति गुस्से का निर्माण किया। इस दौर में सत्ता से क्षुब्ध नौजवान हिंसक प्रयोगों की ओर भी बढ़े, जिसके फलस्वरूप नक्सली आंदोलन का जन्म और विकास हुआ। जिसके नेता चारू मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल थे। इसके पीछे अहिंसक विचारधारा से उपजा नैराश्य था जिसने नौजवानों के हाथ में बंदूके पकड़ा दीं।
व्यवस्था परिवर्तन के वाहकः
इन अवरोधों के बावजूद नौजवानों का जज्बा मरा नहीं। वह निरंतर सत्ता से सार्थक प्रतिरोध करते हुए व्यवस्था परिवर्तन की धार को तेज करने की कोशिशों में लगा रहा। इन दिनों अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद, समाजवादी युवजन सभाष स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया जैसी तीन राजनीतिक शक्तियां परिसरों में सक्रिय थीं। तीनों की अपनी निश्चित प्रतिबद्धताएं थीं। इन संगठनों ने छात्रसंघ चुनावों में अपने हस्तक्षेप से छात्रों के जोश और उत्साह को रचनात्मक दिशा प्रदान की। छात्रों के भीतर जो उत्तेजनाएं थीं उन्हें जिंदा रखकर उसका सही ढंग से इस्तेमाल किया गया। इस दौर में डा. राममनोहर लोहिया के व्यक्तित्व का नौजवानों पर खासा असर रहा।
इस सदी के आखिरी बड़े छात्र आंदोलन की शुरूआत 1974 में गुजरात के एक विश्वविद्यालय के मेस की जली रोटियों के प्रतिरोध के रूप में हुयी और उसने राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐतिहासिक छात्र आंदोलन की भावभूमि तैयार की। विद्यार्थी परिषद, युवजन सभा के नेताओं की सक्रियता और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व संभालने के बाद यह आंदोलन युवाओं की भावनाओं का प्रतीक बन गया। किंतु सत्ता परिवर्तन के बाद कुर्सी की रस्साकशी में संपूर्ण क्रांति का नारा तिरोहित हो गया। रही सही कसर जेपी के असामयिक निधन ने पूरी कर दी। यह भारतीय छात्र आंदोलन के बिखराव, ठहराव और तार-तार होकर बिखरने के दिन थे। नौजवान असहाय और ठगे-ठगे से जनता प्रयोग की विफलता का तमाशा देखते रहने को मजबूर थे।
आदर्शविहीनता ने ली मूल्यों की जगहः
सपनों के इस बिखराव के चलते छात्र राजनीति में मूल्यों का स्थान आर्दशविहीनता ने ले लिया। राजनीति से हुयी अपनी अनास्था और प्रतिक्रिया जताने की गरज से युवा रास्ते तलाशने लगे। आदर्शविहीनता के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में तब तक संजय गांधी का उदय हो चुका था। उनके साथ विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली उदंड नौजवानों की एक पूरी फौज थी जो सारा कुछ डंडे के बल पर नियंत्रित करना चाहती थी। जिसके पास आदर्श और नैतिकता नाम की कोई चीज नहीं थी। जेपी आंदोलन में पैदा हुयी युवा नेताओं की इफरात जमात,जनता पार्टी की संपूर्ण क्रांति की विफलता की प्रतिक्रिया में युवक कांग्रेस से जुड़ गयी। यहा ‘संजय गांधी परिघटना’ की जीत हुयी और छात्र आंदोलनों से नैतिकता, आस्था और विचार दर्शन की राजनीति के भाव तिरोहित हो गए। इसके बाद शिक्षा मंदिरों में हिंसक राजनीति, छेड़छाड़, अध्यापकों से दुव्यर्हार, गुंडागर्दी, नकल, अराजकता और अनुशासनहीनता का सिलसिला प्रारंभ हुआ। छात्रसंघ चुनावों में बमों के धमाके सुनाई देने लगे। संसदीय राजनीति की सभी बुराईयां छात्रसंघ चुनावों की अनिर्वाय जरूरत बन गयीं। परिसरों में पठन-पाठन का वातावरण बिगड़ा। छात्र अपने मूल मुद्दों से भटक गए। दलीय राजनीति, जातीय राजनीति, माफियाओं और धनपतियों की धुसपैठ ने छात्रसंघों की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर दिए। इससे छात्र राजनीति की धीमी मौत का सिलसिला शुरू हो गया। इसी दौर में लखनऊ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रवींद्र सिंह की हत्या हुयी और कुछ परिसरों से छात्राओं के साथ दुराचार की खबरें भी आयीं। इन सूचनाओं ने वातावरण को बहुत विषाक्त कर दिया। इससे परिसर संस्कृति विकृत हुयी।
विफल हुआ असम आंदोलनः
1981 में असम छात्र आंदोलन की अनुंगूंज सुनाई देने लगी। लंबे संघर्ष के बाद प्रफुल्ल कुमार महंत असम के मुख्यमंत्री बने। किंतु सत्ता में आने के बाद महंत की सरकार ने बहुत निराश किया। यह सही मायने में पहली बार पूरी तरह छात्र आंदोलन से बनी सरकार थी। जिसकी निराशाजनक परिणति ने छात्र आंदोलनों की नैतिकता और समझदारी पर सवालिया निशान लगा दिए। इस घटाटोप के बीच राजीव गांधी जैसे युवा प्रधानमंत्री के उभार ने युवाओं को एक अलग तरीके से प्रेरित किया किंतु जल्दी ही बोफोर्स के धुंए में सब तार-तार हो गया। फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के साथ प्रकट हुए। नौजवान उनके साथ पूरी ऊर्जा से लगा और वे देश के प्रधानमंत्री बने। यहां फिर जनता प्रयोग जैसे हाल और सत्ता संधर्ष से नौजवानों को निराशा ही हाथ लगी। मंडल आयोग की रिपोर्ट को हड़बड़ी में लागू करने के चलते नौजवानों के एक तबके में अलग किस्म का आक्रोश नजर आया। इस आंदोलन में हुयी आत्महत्याएं निराशा का चरमबिंदु थीं। ये बताती थीं कि युवा व्यवस्था में अपनी जगह को सिकुड़ता हुआ पाकर कितना निराश है। ऐसा लगा कि नौजवानों के पास अब भविष्य की आशा, आदर्श और भविष्य की इच्छाएं चुक सी गयी हैं। इस दौर ने संधर्ष के मार्ग को लूट के मार्ग में बदल दिया। बड़े आदर्शों की जगह विखंडित आदर्शों ने अपनी जगह बना ली।
छात्रसंघों की प्रासंगिकता पर उठे सवालः
ये परिस्थितियां बताती थीं कि कमोबेश समस्त छात्र संगठन और छात्र नेता राजनीतिक दलों की चेरी बन गए हैं। छात्र संगठनों के एजेंडे भी अब राजनीतिक पार्टियां तय कर रही हैं। ये समूह किसी परिवर्तन का वाहक न बनकर अपनी ही पार्टी का साइनबोर्ड बनकर रह गए हैं। इनके सपने, आदर्श सब कुछ कहीं और तय होते हैं। छात्रसंघों की बदलती भूमिका और घटती प्रासंगिकता ने छात्रों के मन से उनके प्रति सहानुभूति खत्म कर दी है। छात्रसंघ चुनावों को उन मुख्यमंत्रियों ने भी प्रतिबंधित कर रखा है जो छात्र आंदोलन से ही जन्में हैं। जहां चुनाव हो रहे हैं वहां भी मतदान का प्रतिशत गिर रहा है। ऐसा लगता है कि छात्रसंघ अब आम छात्रों की शैक्षणिक और सांस्कृतिक प्रतिभा के उन्नयन का माध्यम नहीं रहे। वे अराजक तत्वों और माफियाओं के अखाड़े बन गए हैं। छात्रसंघों ने सदैव भ्रष्ट राजसत्ता को चुनौती देने का काम किया है किंतु आज वे सत्तासीनों की आंख में गड़ने लगे हैं। छात्रसंघ चुनाव की विकृतियां भी हमारे संसदीय लोकतंत्र ही देन हैं। यहां तर्क यह भी है कि यदि तमाम बुराईयों के बावजूद लोकसभा से लेकर पंचायत के चुनाव हम करा रहे हैं तो छात्रसंघ की प्रतिबंधित क्यों। हमें इन चुनावों में सुधार की बात करनी चाहिए न कि इनका गला घोंटना चाहिए।
कुल मिलाकर देश को अपनी रचनात्मकता और संघर्ष से दिशा देने वाले परिसर आज नैतिकता और संस्कारहीन व्यवहार का पर्याय बन गए हैं। जो परिसर ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दों पर संवाद का केंद्र हुआ करते थे, वे आज मूल्यहीन आपराधिक राजनीति का केंद्र बन गए हैं। जिन छात्रसंघों से निकले छात्रनेताओं ने देश का योग्य मार्गदर्शन किया और राजनीति को दिशा दी वहीं से आज पथभ्रष्ट और टुटपुजियां कार्यकर्ता निकल रहे हैं। ऐसे हालात में छात्रराजनीति के सामने गहरा संकट है। अपने शैक्षिक अधिकारों, निर्धनता, बेरोजगारी और विषमता के खिलाफ इन परिसरों से आवाज नहीं आती। अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने की प्रवृति भी कम हुयी है। आज की आदर्शविहीनता, बाजारवादी हवाओं में हमारे परिसरों में संस्कृति कर्म के नाम पर फेयरवेल या फ्रेशर्स पार्टियां होती हैं जहां हमारे युवा मस्त-मस्त होकर झूम रहे हैं।परिसर अंततः छात्रों की प्रतिभा के सर्वांगीण विकास का मंच हैं। उन्हें विकसित और संस्कारित होने के साथ लोकतांत्रिक प्रशिक्षण देना भी परिसरों की जिम्मेदारी है ताकि वे जिम्मेदार नागरिक व भारतीय भी बन सकें।
संवाद नहीं, परिसरों में पसरा मौनः
परिसरों का सबसे बड़ा संकट यही है वहां अब संवाद नदारद हैं, बहसें नहीं हो रहीं हैं, सवाल नहीं पूछे जा रहे हैं। हर व्यवस्था को ऐसे खामोश परिसर रास आते हैं- जहां फ्रेशर्स पार्टियां हों, फेयरवेल पार्टियां हों, फैशन शो हों, मेले-ठेले लगें, उत्सव और रंगारंग कार्यक्रम हों, फूहड़ गानों पर नौजवान थिरकें, पर उन्हें सवाल पूछते, बहस करते नौजवान नहीं चाहिए। सही मायने में हमारे परिसर एक खामोश मौत मर रहे हैं। राजनीति और व्यवस्था उन्हें ऐसा ही रखना चाहती है। क्या आप उम्मीद कर सकते हैं आज के नौजवान दुबारा किसी जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर दिल्ली की कुर्सी पर बैठी मदांध सत्ता को सबक सिखा सकते हैं। आज के दौर में कल्पना करना मुश्किल है कि कैसे गुजरात के एक मेस में जली हुयी रोटी वहां की तत्कालीन सत्ता के खिलाफ नारे में बदल जाती है और वह आंदोलन पटना के गांधी मैदान से होता हुआ संपूर्ण क्रांति के नारे में बदल जाता है। याद करें परिसरों के वे दिन जब इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, पटना के नौजवान हिंदी आंदोलन के लिए एक होकर साथ निकले थे। वे दृश्य आज क्या संभव हैं। इसका कारण यह है कि राजनीतिक दलों ने इन सालों सिर्फ बांटने का काम किया है। राजनीतिक दलों ने नौजवानों और छात्रों को भी एक सामूहिक शक्ति के बजाए टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया है। सो वे अपनी पार्टी के बाहर देखने, बहस करने और सच्चाई के साथ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाते। जनसंगठनों में जरूर तमाम नौजवान दिखते हैं, उनकी आग भी दिखती है किंतु हमारे परिसर नौकरी करने और ज्यादा पैसा कमाने के लिए प्रेरित करने के अलावा क्या कर पा रहे हैं। एक लोकतंत्र में यह खामोशी खतरनाक है। छात्र आंदोलन के दिन तभी बहुरेंगें जब परिसरों में दलीय राजनीति के बजाए छात्रों का स्वविवेक, उनके अपने मुद्दे- शिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई, भाषा के सवाल, देश की सुरक्षा के सवाल एक बार फिर उनके बीच होंगें। छात्र राजनीति के वे सुनहरे दिन लौटें तभी लौटगें जब परिसरों से निकलने वाली आवाज ललकार बने। तभी देश का भविष्य बनेगा। देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम इसी भरोसे के साथ परिसरों में जा रहे हैं कि देश का भविष्य बदलने और बनाने की ताकत इन्हीं परिसरों में है। क्या हमारी राजनीति, सत्ता और व्यवस्था के पास नौजवानों के सपनों की समझ है कि वह उनसे संवाद बना पाए।
देश का औसत नौजवान आज भी ईमानदार, नैतिक, मेहनती और बड़े सपनों को सच करने के संधर्ष में लगा है क्या हम उसके लिए यह वातावरण उपलब्ध कराने की स्थिति में हैं। हमें सोचना होगा कि ये भारत के लोग जो नागरिक बनना चाहते हैं उन्हें व्यवस्था सिर्फ वोटर और उपभोक्ता क्यों बनाना चाहती है। ऐसे कठिन समय में जब बाजार हमारी सभी स्वाभाविक प्रवृत्तियों पर अपनी रूचियों का आरोपण कर रहा है, ऐसे में हर तरह के आंदोलन,संवाद और बहसें खतरे में हैं। इसे बचाने के लिए के हम सभी को अपने-अपने तरीके से काम करने की जरूरत है क्योंकि तभी लोकतंत्र बचेगा और मजबूत भी होगा। खामोश परिसर हमारे लिए खतरे की घंटी हैं क्योंकि वे कारपोरेट के पुरजे तो बना सकते हैं पर मनुष्य बनाने के लिए संवाद, विमर्श और लड़ाइयां जरूरी हैं। इसलिए हमें नए जमाने के नए हथियारों और नए तरीकों से फिर से उस आंदोलन की धार को पाना होगा जिसे गवां बैठने का दुख हर संवेदनशील आदमी को बेतरह मथ रहा है।

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

कायर नक्सली और बहादुर सरकारें


छत्तीसगढ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों द्वारा लगभग 76 जवानों की हत्या के बाद कहने के लिए बचा क्या है। केंद्रीय गृहमंत्री नक्सलियों को कायर कह रहे हैं, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री नक्सलियों की कार्रवाई को कायराना कह रहे हैं पर देश की जनता को भारतीय राज्य की बहादुरी का इंतजार है। 12 जुलाई, 2009 छत्तीसगढ़ में ही राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक सहित 29 पुलिसकर्मियों को नक्सलियों ने ऐसी ही एक घटना में मौत के घाट उतार दिया था। राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का गृहजिला भी है। चुनौती के इस अंदाज के बावजूद हमारी सरकारों का हाल वही है। केंद्रीय गृहमंत्री और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हर घटना के बाद नक्सलियों को इस कदर कोसने लगते हैं जैसे इस जुबानी जमाखर्च से नक्सलियों का ह्रदय परिवर्तन हो जाएगा।
सुरक्षा बलों और आम आदिवासी जनों का जिस तरह नक्सली सामूहिक नरसंहार कर रहे हैं यह सबसे बड़ी त्रासदी है। बावजूद इसके सरकारों का भ्रम कायम है। लोकतंत्र के सामने चुनौती बनकर खड़े नक्सलवाद के खिलाफ भी हमारी राजनीति का भ्रम अचरज में डालता है। क्या कारण है कि हमारी राजनीति इतने खूनी उदाहरणों के बावजूद लोकतंत्र के विरोधियों को ‘अपने बच्चे’ कहने का साहस पात लेती है। क्या ये इतनी आसानी से अर्जित लोकतंत्र है जिसे हम किसी हिंसक विचारधारा की भेंट चढ़ जाने दें। हिंसा से कराह रहे तमाम इलाके हमारे लोकतंत्र के सामने सवाल की तरह खड़े हैं। हमारी राजनीति के पास के विमर्श, बैठकें, आश्वासन और शब्दजाल ही हैं। अपने सुरक्षाबलों को हमने मौत के मुंह में झोंक रखा है जबकि हमें खुद ही नहीं पता कि हम चाहते क्या हैं। हम नक्सलियों को कोसने और उन्हें यह बताने में लगे हैं कि वे कितने अमानवीय हैं। इन शब्दजालों से क्या हासिल होने वाला है। हम नक्सलियों को कायर और अमानवीय बता रहे हैं। अमानवीय तो वे हैं यह साबित है पर कायर हैं यह साबित करने के लिए हमारे राज्य ने कौन से कदम उठाए हैं, जिससे हमारा राज्य बहादुर साबित हो सके। हमें देखना होगा कि हमारी सरकारें एक गहरे भ्रम का शिकार हैं। शक्ति के इस्तेमाल को लेकर एक गहरा भ्रम है।
नक्सलवाद को पूरा खारिज कीजिएः
कुछ रूमानी विचारक अपनी कल्पनाओं में नक्सलियों के महिमामंडन में लगे हैं। जैसे कि नक्सली कोई बहुत महान काम कर रहे हैं। अफसोस कि वे विचारक नक्सलियों के पक्ष में महात्मा गांधी को भी इस्तेमाल कर लेते हैं। भारतीय राज्य के सामने उपस्थित यह चुनौती बहुत विकट है किंतु इसे सही संदर्भ में समझा नहीं जा रहा है। शब्दजाल ऐसे की आज भी तमाम बुद्धिजीवी ‘नक्सली हिंसा’ की आलोचना कर रहे हैं, ‘नक्सलवाद’ की नहीं। आखिर विचार की आलोचना किए बिना, आधी-अधूरी आलोचना से क्या हासिल। सारा संकट इसी बुद्धिवाद का है। अगर हम नक्सलवाद के विचार से जरा सी भी सहानुभूति रखते हैं तो हम अपनी सोच में ईमानदार कैसे कहे जा सकते हैं। नक्सलवाद या माओवाद स्वयं में लोकतंत्र विरोधी विचार है। उसे किसी लोकतंत्र में शुभ कैसे माना जा सकता है। हमें देखना होगा कि रणनीति के मामले में हमारे विभ्रम ने ही हमारा ये हाल किया है। हम बिना सही रणनीति के अपने ही जवानों की बलि ले रहे हैं। ऐसी अधकचरी समझ से हम नक्सलवादियों की सामूहिक और चपल रणनीति से कैसे मुकाबला करेगें। आजतक के उदाहरणों से तो यही साबित होता है और नक्सली हमारी रणनीति को धता बताते आए हैं। राज्य की हिंसा के अरण्यरोदन से घबराई हमारी सरकारें, भारतीय नागरिकों और जवानों की मौत पर सिर्फ स्यापा कर रही हैं। हमारी सरकार कहती हैं कि नक्सली अमानवीय हरकतें कर रहे हैं। आखिर आप उनसे मानवीय गरिमा की अपेक्षा ही क्यों कर रहे हैं। नक्सलवाद कभी कैसा था, इसकी रूमानी कल्पना करना और उससे किसी भी प्रकार की नैतिक अपेक्षाएं पालना अंततः हमें इस समस्या को सही मायने में समझने से रोकना है। वह कैसा भी विचार हो यदि उसकी हमारे लोकतंत्र और संविधान में आस्था नहीं है तो उसका दमन करना किसी भी लोकतांत्रिक विचार की सरकार व जनता की जिम्मेदारी है। जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है वे लोकतंत्र को पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और हम अपने लोकतंत्र को नष्ट करने की साजिशों का महिमामंडन कर रहे हैं।
जवानों के लिए क्यों सूखे आंसूः
देश की महान लेखिका अरूंधती राय ने पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण पत्रिका में एक लेख लिखकर अपनी बस्तर यात्रा और नक्सलियों के महान जनयुध्द पर रोचक जानकारियां दी हैं और पुलिस की हिंसा को बार-बार लांछित किया है। महान लेखिका क्या दंतेवाड़ा के शहीदों और उनके परिजनों की पीड़ा को भी स्वर देने का काम करेंगीं। जाहिर वे ऐसा नहीं करेंगीं। हमारे मानवाधिकार संगठन, जरा –जरा सी बातों पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं, आज वे कहां हैं। संदीप पाण्डेय, मेधा पाटकर और महाश्वेता देवी की प्रतिक्रियाओं की देश प्रतीक्षा कर रहा है। मारे गए जवान निम्न मध्यवर्ग की पृष्ठभूमि के ही थे, इसी घरती के लाल। लेकिन लाल आतंक ने उन्हें भी डस लिया है। नक्सलवाद या माओवाद का विचार इसीलिए खारिज करने योग्य है कि ऐसे राज में अरूंधती को माओवाद के खिलाफ लिखने की, संदीप पाण्डेय को कथित नक्सलियों के पक्ष में धरना देने की आजादी नहीं होगी। तब राज्य की हिंसा को निंदित नहीं,पुरस्कृत किया जाएगा। ऐसे माओ का राज हमारे जिंदगीं के अंधेरों को कम करने के बजाए बढ़ाएगा ही।
जनतंत्र को असली लोकतंत्र में बदलने की जरूरतः
लोकतंत्र अपने आप में बेहद मोहक विचार है। दुनिया में कायम सभी व्यवस्थाओं में अपनी तमाम कमियों के बावजूद यह बेहद आत्मीय विचार है। हमें जरूरत है कि हम अपने लोकतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने का काम करें। उसकी कमियों को कम करने या सुधारने का जतन करें न कि लोकतंत्र को ही खत्म करने मे लगी ताकतों का उत्साहवर्धन करें। लोकतांत्रिक रास्ता ही अंततः नक्सल समस्या का समाधान है। ऐसे तर्क न दिए जाएं कि आखिर इस व्यवस्था में चुनाव कौन लड़ सकता है। पूंजीपतियों, ठेकेदारों, नेताओं और अफसरों का अगर कोई काकस हमें बनता और लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करता दिख रहा है तो इसके खिलाफ लड़ने के लिए सारी सरंजाम इस लोकतंत्र में ही मौजूद हैं। अकेले सूचना के अधिकार के कानून ने लोकतंत्र को मजबूत करने में एक बड़ी भूमिका अदा की है। हमें ऐसी जनधर्मी व्यवस्था को बनाने और अभिव्यक्ति के तमाम माध्यमों से जनचेतना पैदा करने के काम करने चाहिए। सारी जंग आज इसी विचार पर टिकी है कि आपको गणतंत्र चाहिए गनतंत्र। लोकतंत्र चाहिए या माओवाद। जाहिर तौर पर हिंसा पर टिका कोई राज्य जनधर्म नहीं निभा सकता। भारत के खिलाफ माओवादियों की यह जंग किसी जनमुक्ति की लड़ाई नहीं वास्तव में यह लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ है। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ जाएं बेहतर, वरना हमारे पास सड़ांध मारती हिंसा और देश को तोड़ने वाले विचारों के अलावा कुछ नहीं बचेगा। उम्मीद है चिंदबरम साहब भी कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगें। इतिहास की इस घड़ी में नक्सलप्रभावित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की भी जिम्मेदारी है कि वे अपने कर्तव्य के निवर्हन में किंतु-परंतु जैसे विचारों से इस जंग को कमजोर न होने दें।

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

शिक्षा परिसरों को तो बख्श दीजिए

-संजय द्विवेदी
हमारे शिक्षा परिसर राजनीति के केंद्र बन गए हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। छात्र राजनीति कभी मूल्यों के आधार पर होती है। शेष समाज की तरह उसका भी बुरा हाल हुआ है। छात्र राजनीति से निकले तमाम नेता आज देश के बड़े पदों पर हैं, छात्र राजनीति का एक सृजनात्मक रूप भी तब दिखता था। आज हालात बदल गए हैं। छात्र संगठन राजनीति दलों की चेरी की तरह हैं। वे उनके इशारे पर काम करते हैं। जिंदाबाद –मुर्दाबाद तक आकर उनकी राजनीति सिमट जाती है।
राजनीतिक प्रशिक्षण की परंपरा लगभग लुप्त है। लोग कैसे और क्यों राजनीति में आ रहे हैं कहा नहीं जा सकता। इंदौर में पिछले दिनों अहिल्यादेवी विश्वविद्यालय में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के प्रवास ने काफी हलचल मचा दी। मप्र की सरकार ने इस मामले पर विश्वविद्यालय को नोटिस जारी कर दिया। राहुल गांधी का परिसर में जाना गलत है या सही इसका कोई सीधा जवाब नहीं हो सकता। अपनी बात कहने के लिए लोकतंत्र में सबको हक है, राहुल गांघी को भी है। परिसरों में विमर्श का वातावरण, संवाद बहाल हो, मुद्दों पर बात हो यह बहुत अच्छी बात है पर यह किसी दल के आधार पर नहीं हो। परिसरों में छात्र संगठन अपनी गतिविधियां चलाते रहे हैं और उन्हें इसका हक भी है पर मैं दलीय राजनीति को परिसर में जड़ें जमाने देने के खिलाफ हूं। वे परिसर में आएंगें तो अपने दल का एजेंडा और झंडा भी साथ लाएंगें। दलीय राजनीति अंततः उन्हीं अंधेरी गलियों में भटक जाती है और छात्र ठगा हुआ रह जाता है।
परिसर अंततः छात्रों की प्रतिभा के सर्वांगीण विकास का मंच हैं। उन्हें विकसित और संस्कारित होने के साथ लोकतांत्रिक प्रशिक्षण देना भी परिसरों की जिम्मेदारी है ताकि वे जिम्मेदार नागरिक व भारतीय भी बन सकें। परिसरों का सबसे बड़ा संकट यही है वहां अब संवाद नदारद हैं, बहसें नहीं हो रहीं हैं, सवाल नहीं पूछे जा रहे हैं। हर व्यवस्था को ऐसे खामोश परिसर रास आते हैं- जहां फ्रेशर्स पार्टियां हों, फेयरवेल पार्टियां हों, फैशन शो हों, मेले-ठेले लगें, उत्सव और रंगारंग कार्यक्रम हों, फूहड़ गानों पर नौजवान थिरकें, पर उन्हें सवाल पूछते, बहस करते नौजवान नहीं चाहिए। सही मायने में हमारे परिसर एक खामोश मौत मर रहे हैं। राजनीति और व्यवस्था उन्हें ऐसा ही रखना चाहती है। क्या आप उम्मीद कर सकते हैं आज के नौजवान दुबारा किसी जयप्रकाश के आह्वान पर दिल्ली की कुर्सी पर बैठी मदांध सत्ता को सबक सिखा सकते हैं। आज के दौर में कल्पना करना मुश्किल है कि कैसे गुजरात के एक मेस में जली हुयी रोटी वहां की तत्काल सत्ता के खिलाफ नारे में बदल जाती है और वह आंदोलन पटना के गांधी मैदान से होता हुआ संपूर्ण क्रांति के नारे में बदल जाता है। आजादी के आंदोलन में भी हमारे परिसरों की एक बड़ी भूमिका थी। नौजवान आगे बढ़कर अपनी जिम्मेदारियां निभाने ही नहीं अपनी जान को हथेली पर रखकर सर्वस्व निछावर करने को तैयार था। याद करें परिसरों के वे दिन जब इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, पटना के नौजवान हिंदी आंदोलन के लिए एक होकर साथ निकले थे। वे दृश्य आज क्या संभव हैं। इसका कारण यह है कि राजनीतिक दलों ने इन सालों सिर्फ बांटने का काम किया है। राजनीतिक दलों ने नौजवानों और छात्रों को भी एक सामूहिक शक्ति के बजाए टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया है। सो वे अपनी पार्टी के बाहर देखने, बहस करने और सच्चाई के साथ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाते। जनसंगठनों में जरूर तमाम नौजवान दिखते हैं, उनकी आग भी दिखती है किंतु हमारे परिसर नौकरी करने और ज्यादा पैसा कमाने के लिए प्रेरित करने के अलावा क्या कर पा रहे हैं। एक लोकतंत्र में यह खामोशी खतरनाक है। परिसर में राहुल गांधी का आना किसी जयप्रकाश नारायण का आना नहीं हैं, मैं इस सूचना पर मुग्ध नहीं हो सकता। मैं मुग्ध तभी हो पाउंगा जब परिसरों में दलीय राजनीति के बजाए छात्रों का स्वविवेक, उनके अपने मुद्दे- शिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई, भाषा के सवाल, देश की सुरक्षा के सवाल एक बार फिर उनके बीच होंगें। छात्र राजनीति के वे सुनहरे दिन लौटें। परिसरों से निकलने वाली आवाज ललकार बने, तभी देश का भविष्य बनेगा। देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम इसी भरोसे के साथ परिसरों में जा रहे हैं कि देश का भविष्य बदलने और बनाने की ताकत इन्हीं परिसरों में है। क्या हमारी राजनीति, सत्ता और व्यवस्था के पास नौजवानों के सपनों की समझ है कि वह उनसे संवाद बना पाए। देश का औसत नौजवान आज भी ईमानदार, नैतिक, मेहनती और बड़े सपनों को सच करने के संधर्ष में लगा है क्या हम उसके लिए यह वातावरण उपलब्ध कराने की स्थिति में हैं। हमें सोचना होगा कि ये भारत के लोग जो नागरिक बनना चाहते हैं उन्हें व्यवस्था सिर्फ वोटर और उपभोक्ता क्यों बनाना चाहती है। राहुल गांधी का परिसरों में जाना बुरा नहीं पर खतरा यह है कि वे अकेले नहीं जाएंगें उनके साथ वह राजनीतिक संस्कृति भी जाएगी जिससे शायद हम भारतवासी सबसे ज्यादा भयभीत हैं।