शुक्रवार, 29 मई 2020

अजीत जोगी-बहुत कठिन है उन-सा होना


-प्रो.संजय द्विवेदी

  जिद, जिजीविषा, जीवटता और जीवंतता एक साथ किसी एक आदमी में देखनी हो तो आपको अजीत जोगी के बारे में जरूर जानना चाहिए। छत्तीसगढ़ के पूर्व और प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी यानि एक ऐसा नायक जिसने बेहद खुरदरी जमीन से जिंदगी की शुरुआत की और आसमान की उन ऊंचाइयों तक पहुंचे, जहां पहुंचना किसी के लिए सपने से कम नहीं है। अजीत जोगी किसी की कृपा से नहीं बनते। वे खुद बने और अनेक को बनाया। उनकी सबसे बड़ी देन यही है कि उन्होंने हर अभावग्रस्त व्यक्ति को यह पाठ पढ़ाया कि आपकी परिस्थितियां आपको बड़ा बनने से रोक नहीं सकतीं, अगर आपमें हौसला है।
    वे बिलासपुर जिले के छोटे से कस्बे पेंड्रा के पास जनजातियों के एक गांव जोगीसार में पैदा हुए और लेकिन इस अध्यापक पुत्र के सपने बहुत बड़े थे। भोपाल से इंजीनियरिंग, आईपीएस, आईएएस बनने के बाद कलेक्टर और फिर बरास्ते राज्यसभा उनके मुख्यमंत्री बनने का सफर एक जादुई कहानी सरीखा है। साधारण परिस्थितियों को घता बताकर असाधारण सफलताएं प्राप्त करने की कहानी हैं अजीत जोगी । बावजूद इसके उनकी जिंदगी में चैन कहां है। इस पूरी जिंदगी में सिर्फ एक चीज है, जो लगातार उपस्थित है, वह है संघर्ष। संघर्ष और उससे उपजी सफलताएं। मुख्यमंत्री रहते उनके तेज और ताप की कहानियां, उनकी दुर्घटना के बाद उनका ह्वील चेयर पर आ जाना और बिना थके, बिना रूके अहर्निश संघर्ष आपको कंपा देगा। किंतु अजीत जोगी शरीर से नहीं दिमाग से राजनीति करते थे। शरीर थका, लाचार हुआ पर उनका दिमाग चलता रहा। वे चुनौती देते रहे। जूझते रहे। अपनी शर्तों पर जीते रहे। आखिरी सांस तक वे छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय नेताओं में एक बने रहे। उन्हें सुनने के लिए व्यग्र लोगों को मैंने अपनी आंखों से देखा है। उनसे मिलने का दीवानापन देखा है। ठेठ छत्तीसगढ़ी में धाराप्रवाह और लालित्यपूर्ण भाषण से लोगों को बांध लेना उन्हें आता था। यह दीवानगी आखिरी दिन तक बनी रही।
    छत्तीसगढ़ में होते हुए पत्रकारीय कर्म के नाते उनसे अनेक बार मिलना हुआ। वे मेरे आयोजनों में भी आए। कुछ किताबों के विमोचन में भी। अपनी असहमतियों को अलग रखकर दूसरे विचारों को सम्मान देना उन्हें आता था। राजनीति में वे कुछ छोड़ते नहीं थे किंतु साहित्य और संस्कृति की दुनिया में वे थोड़ा स्पेश दूसरों को भी देते थे। उन्हें पसंद था कि उन्हें लोग लेखक, कवि और कहानीकार के रूप में जानें। वे दरअसल पढ़ने-लिखने वाले इंसान थे। बहुपठित और बहुविज्ञ। किंतु वे शक्ति चाहते थे जो साहित्य और संस्कृति की दुनिया उन्हें नहीं दे सकती थी। इसलिए शक्ति जिन-जिन रास्तों से आती थी, वह उन सब पर चले। वे आईपीएस बने, आईएएस बने, राजनीति में गए और सीएम बने। पावर का यह चस्का उन्हें प्रारंभ से था। वे कलेक्टर थे तो जननेता की तरह व्यवहार करते थे, जब मुख्यमंत्री बने तो कलेक्टर सरीखे दिखे। उनकी एक छवि में अनेक छवियां थीं। एक जिंदगी में वे कई जिंदगियां जीना चाहते थे। उन्हें याद करना जरूरी है और उनसे सीखना भी जरूरी है। वे अपनी ही रची कहानी के एक ऐसे नायक थे जिसे चलना तो पता था, किंतु पड़ाव और विश्राम के सूत्र उन्होंने सीखे नहीं थे। वे बहुतों के अनुभवों  में बेहद उदार नायक हैं, तो कई के लिए खलनायक। ऐसी मिश्रित छवियों का यह नायक हमें सिखाता बहुत है। अपनी जिंदगी से उन्होंने हमें अनेक पाठ पढ़ाए हैं। एक तो किसी भी सामाजिक, आर्थिक स्थिति और परिवेश को चुनौती देकर आप पहली पंक्ति में अपनी जगह बना सकते हैं। दूसरा शारीरिक व्याधियों के बाद भी आप जो चाहे कर सकते हैं। अपने जीवन के आखिरी दिनों में एक पार्टी का गठन और उसे एक सशक्त विकल्प में पेश कर देना साधारण नहीं था जो उन्होंने कर दिखाया। अजीत जोगी से बात करते हुए, उन्हें सुनते हुए आपको जो अनुभव हुए होगें वे विलक्षण थे। उनकी रेंज बहुत बड़ी थी। बहुत बड़ी। वे राजनीति में आकर उन्होंने खुद की दुनिया बहुत तंग कर ली। राजनीति उन्होंने जिस शैली में की उसने भी बहुत निराश किया। किंतु उन्हें जो करना होता था, उसे करते थे। उनके दोस्त हों, समर्थक हों  या आलाकमान, जोगी के साथ जिसे चलना हो चले, वरना वे अपना रास्ता खुद तय करते थे। जिंदगी के आखिरी दिनों में उनके लिए गए फैसलों को आत्मघाती जरूर कह सकते हैं, किंतु इस जिजीविषा का नाम अजीत जोगी है। आज जब वे इस दुनिया को छोड़कर जा चुके हैं तो यही कहना है कि उन-सा होना कठिन है। बहुत कठिन। मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।   

रविवार, 17 मई 2020

संकट में है पत्रकारिता की पवित्रता


-प्रो.संजय द्विवेदी

भारतीय मीडिया अपने पारंपरिक अधिष्ठान में भले ही राष्ट्रभक्ति,जनसेवा और लोकमंगल के मूल्यों से अनुप्राणित होती रही हो, किंतु ताजा समय में उस पर सवालिया निशान बहुत हैं। एजेंडा आधारित पत्रकारिता के चलते समूची मीडिया की नैतिकता और समझदारी कसौटी पर है। सही मायने में पत्रकारिता में अब गैरपत्रकारीय शक्तियां ज्यादा प्रभावी होती हुयी दिखती हैं। जो कहने को तो मीडिया में उपस्थित हैं, किंतु मीडिया की नैतिक शक्ति और उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करना उनका स्वभाव बन गया है। इस कठिन समय में टीवी मीडिया के शोर और कोलाहल ने जहां उसे न्यूज चैनल के बजाए व्यूज चैनल बना दिया है। वहीं सोशल मीडिया में आ रही अधकचरी और तथ्यहीन सूचनाओं की बाढ़ ने नए तरह के संकट खड़े कर दिए हैं।

     
जर्नलिस्ट या एक्टिविस्ट-
पत्रकार और एक्टिविस्ट का बहुत दूर का फासला है। किंतु हम देख रहे हैं कि हमारे बीच पत्रकार अब सूचना देने वाले कम, एक्टिविस्ट की तरह ज्यादा व्यवहार कर रहे हैं। एक्टिविस्ट के मायने साफ हैं, वह किसी उद्देश्य या मिशन से अपने विचार के साथ आंदोलनकारी भूमिका में खड़ा होता है। किंतु एक पत्रकार के लिए यह आजादी नहीं है कि वह सूचना देने की शक्ति का अतिक्रमण करे और उसके पक्ष में वातावरण भी बनाए। इसमें कोई दो राय नहीं कि कोई भी व्यक्ति विचारधारा या राजनैतिक सोच से मुक्त नहीं हो सकता। हर व्यक्ति का अपना राजनीतिक चिंतन है, जिसके आधार पर वह दुनिया की बेहतरी के सपने देखता है। यहां हमारे समय के महान संपादक स्व. श्री प्रभाष जोशी हमें रास्ता दिखाते हैं। वे कहते थे पत्रकार की पोलिटिकल लाइन तो हो, किंतु उसकी पार्टी लाइन नहीं होनी चाहिए। यह एक ऐसा सूत्र वाक्य है, जिसे लेकर हम हमारी पत्रकारीय जिम्मेदारियों का पूरी निष्ठा से निर्वहन कर सकते हैं।
      मीडिया में प्रकट पक्षधरता का ऐसा चलन उसकी विश्वसनीयता और प्रामणिकता के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। हमारे संपादकों, मीडिया समूहों के मालिकों और शेष पत्रकारों को इस पर विचार करना होगा कि वे मीडिया के पवित्र मंच का इस्तेमाल भावनाओं को भड़काने, राजनीतिक दुरभिसंधियों, एजेंडा सेटिंग अथवा नैरेटिव बनाने के लिए न होने दें। हम विचार करें तो पाएंगें कि बहुत कम प्रतिशत पत्रकार इस रोग से ग्रस्त हैं। किंतु इतने लोग ही समूची मीडिया को पक्षधर मीडिया बनाने और लांछित करने के लिए काफी हैं। हम जानते हैं कि औसत पत्रकार अपनी सेवाओं को बहुत ईमानदारी से कर रहा है। पूरी नैतिकता के साथ, सत्य के साथ खड़े होकर अपनी खबरों से मीडिया को समृद्ध कर रहा है। देश में आज लोकतंत्र की जीवंतता का सबसे बड़ा कारण मीडियाकर्मियों की सक्रियता ही है। मीडिया ने हर स्तर पर नागरिकों को जागरूक किया है तो राजनेता और नौकरशाहों को चौकन्ना भी किया है। इसी कारण समाज आज भी मीडिया की ओर बहुत उम्मीदों से देखता है। किंतु कुछ मुठ्ठी भर लोग जो मीडिया में किन्हीं अन्य कारणों से हैं और वे इस मंच का राजनीतिक कारणों और नरेटिव सेट के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें पहचानना जरुरी है। क्योंकि ये थोड़े से ही लोग लाखों-लाख ईमानदार पत्रकारों की तपस्या पर भारी पड़ रहे हैं। बेहतर हो कि एक्टिविस्ट का मन रखनेवाले पत्रकार इस दुनिया को नमस्कार कह दें ताकि मीडिया का क्षेत्र पवित्र बना रहे। हमें यह मानना होगा कि मीडिया का काम सत्यान्वेषण है, नरेटिव सेट करना,एजेंडा तय करना उसका काम नहीं है। पत्रकारिता को एक टूल की तरह इस्तेमाल करने वाले लोग अपना और मीडिया दोनों का भला नहीं कर रहे हैं। क्योंकि उनकी पत्रकारिता स्वार्थों के लिए है, इसलिए वे तथ्यों की मनमानी व्याख्या कर समाज में तनाव और वैमनस्य फैलाते हैं।
तकनीक से पैदा हुए संकट-
सूचना प्रौद्योगिकी ने पत्रकारिता के पूरे स्वरूप को बदल दिया है।अब सूचनाएं सिर्फ संवाददाताओं की चीज नहीं रहीं। विचार अब संपादकों के बंधक नहीं रहे। सूचनाएं अब उड़ रही हैं इंटरनेट के पंखों पर। सोशल मीडिया और वेब मीडिया ने हर व्यक्ति को पत्रकार तो नहीं पर संचारक या कम्युनिकेटर तो बना ही दिया है। वह फोटोग्राफर भी है। उसके पास विचारों, सूचनाओं और चित्रों की जैसी भी पूंजी है, वह उसे शेयर कर रहा है। इस होड़ में संपादन के मायने बेमानी हैं, तथ्यों की पड़ताल बेमतलब है, जिम्मेदारी का भाव तो कहीं है ही नहीं। सूचना की इस लोकतांत्रिकता ने आम आदमी को आवाज दी है, शक्ति भी दी है। किंतु नए तरह के संकट खड़े कर दिए हैं।
    सूचना देना अब जिम्मेदारी और सावधानी का काम नहीं रहा। स्मार्ट होते मोबाइल ने सूचनाओं को लाइव देना संभव किया है। समाज के तमाम रूप इससे सामने आ रहे हैं। इसके अच्छे और बुरे दोनों तरह के प्रयोग सामने आने लगे हैं। सरकारें आज साइबर ला के बारे में काम रही हैं। साइबर के माध्यम से आर्थिक अपराध तो बढ़े ही हैं, सूचना और संवाद की दुनिया में भी कम अपराध नहीं हो रहे। संवाद और सूचना से लोंगो को भ्रमित करना, उन्हें भड़काना आसान हुआ है। कंटेट को सृजित करनेवाले प्रशिक्षित लोग नहीं है, इसलिए दुर्घटना स्वाभाविक है। ऐसे में तथ्यहीन, अप्रामणिक, आधारहीन सामग्री की भरमार है, जिसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं है। यहां साधारण बात को बड़ा बनाने की छोड़ दें, बिना बात के भी बात बनाने की भी होड़ है। फेक न्यूज का पूरा उद्योग यहां पल रहा है। यह भी ठीक है कि परंपरागत मीडिया के दौर में भी फेक न्यूज होती थी, किंतु इसकी इतनी विपुलता कभी नहीं देखी गई। वाट्सअप यूनिर्वसिटी जैसे शब्द बताते हैं कि सूचनाएं किस स्तर पर संदिग्ध हो गयी हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में सच कहीं सहमा सा खड़ा है। इसलिए सोशल मीडिया अपनी अपार लोकप्रियता के बाद भी भरोसा हासिल करने में विफल है।
सबसे ताकतवर हैं फेसबुक और यूट्यूब-
आज बड़े से बड़े मीडिया हाउस से ताकतवर फेसबुक और यू-ट्यूब हैं, जो कोई कंटेट निर्माण नहीं करते। आपकी खबरों, आपके फोटो और आपकी सांस्कृतिक, कलात्मक अभिरुचियों को प्लेटफार्म प्रदान कर ये सर्वाधिक पैसे कमा रहे हैं। गूगल, फेसबुक, यू-ट्यूब, ट्विटर जैसे संगठन आज किसी भी मीडिया हाउस के लिए चुनौती की तरह हैं। बिना कोई कंटेट क्रियेट किए भी ये प्लेटफार्म आपकी सूचनाओं और आपके कंटेट के दम पर बाजार में छाए हुए हैं और बड़ी कमाई कर रहे हैं। बड़े से बड़े मीडिया हाउस को इन प्लेटफार्म पर आकर अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए जतन करने पड़ रहे हैं। यह एक अद्भुत समय है। जब भरोसा, प्रामणिकता, विश्वसनीयता जैसे शब्द बेमानी लगने लगे हैं। माध्यम बड़ा हो गया है,विचार और सूचनाएं उसके सामने सहमी हुयी हैं। सूचनाओं को इतना बेबस कभी नहीं देखा गया, सूचना तो शक्ति थी। किंतु सूचना के साथ हो रहे प्रयोगों और मिलावट ने सूचनाओं की पवित्रता पर भी ग्रहण लगा दिए हैं। व्यक्ति की रूचि रही है कि वह सर्वश्रेष्ठ को ही प्राप्त करे। उसे सूचनाओं में मिलावट नहीं चाहिए। वह भ्रमित है कि कौन सा माध्यम उसे सही रूप में सूचनाओं को प्रदान करेगा। बिना मिलावट और बिना एजेंडा सेंटिग के।
विकल्पों पर भी हो बात-
ऐसे कठिन समय में अपने माध्यमों को बेलगाम छोड़ देना ठीक नहीं है। नागरिक पत्रकारिता के उन्नयन के लिए हमें इसे शक्ति देने की जरुरत है। एजेंडा के आधार पर चलने वाली पत्रकारिता के बजाए सत्य पर आधारित पत्रकारिता समय की मांग है। पत्रकारिता का एक ऐसा माडल सामने आना चाहिए जहां सत्य अपने वास्तविक स्वरूप में स्थान पा सके। मूल्य आधारित पत्रकारिता या मूल्यानुगत पत्रकारिता ही किसी भी समाज का लक्ष्य है। पत्रकारिता का एक ऐसा माडल भी प्रतीक्षित है, जहां सूचनाओं के लिए समाज स्वयं खर्च वहन करे। समाज पर आधारित होने से मीडिया ज्यादा स्वतंत्र और ज्यादा लोकतांत्रिक हो सकेगा। अफसोस है कि ऐसे अनेक माडल हमारे बीच आए किंतु वे जनता के साथ न होकर एजेंडा पत्रकारिता में लग गए, इससे वो लोगों का भरोसा तो नहीं जीत सके। साथ ही वैकल्पिक माध्यमों से भी लोगों का भरोसा जाता रहा। इस भरोसे को जोड़ने की जिम्मेदारी भी मीडिया के प्रबंधकों और संपादकों की है। क्योंकि कोई भी मीडिया प्रामणिकता और विश्वसनीयता के आधार पर ही लोकप्रिय बनता है। प्रामणिकता उसकी पहली शर्त है। आज संकट यह है कि अखबारों के स्तंभों में छपे हुए नामों और उनके लेखकों के चित्रों से ही पता चल जाता है कि इन साहब ने आज क्या लिखा होगा। बहसों(डिबेट) के बीच टीवी न्यूज चैनलों की आवाज को बंद कर दें और चेहरे देखकर आप बता सकते हैं कि यह व्यक्ति क्या बोल रहा होगा। ऐसे समय में मीडिया को अपनी छवि पर विचार करने की जरुरत है। सब पर सवाल उठाने वाले माध्यम ही जब सवालों के घेरे में हों तो हमें सोचना होगा कि रास्ता सरल नहीं है। इन सवालों पर सोचना, इनके ठोस और वाजिब हल निकालना पत्रकारिता से प्यार करने वाले हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है। हमारी, आपकी, सबकी।


देश के दुखों की नदी में तैरते सवाल


कोरोना के बहाने आइए अपने असल संकटों पर विचार करें
-प्रो. संजय द्विवेदी


  कोरोना संकट के बहाने भारत के दुख-दर्द,उसकी जिजीविषा, उसकी शक्ति, संबल, लाचारी, बेबसी, आर्तनाद और संकट सब कुछ खुलकर सामने आ गए हैं। इन सात दशकों में जैसा देश बना या बनाया गया है, उसके कारण उपजे संकट भी सामने हैं। दिनों दिन बढ़ती आबादी हमारे देश का कितना बड़ा संकट है यह भी खुलकर सामने है, किंतु इस प्रश्न पर संवाद का साहस न राजनीति में है न विचारकों में । संकटों में भी राजनीति तलाशने का अभ्यास भी सामने आ रहा है। मीडिया से लेकर विचारकों के समूह कैसे विचारधारा या दलीय आस्था के आधार पर चीजों को विश्लेषित और व्याख्यायित कर रहे हैं कि सच कहीं सहम कर छिप गया है। देश के दुख, देश के लोगों के दुख और संघर्ष भी राजनीतिक चश्मों से देखे और समझाए जा रहे हैं।
   ऐसे कठिन समय में सच को व्यक्त करना कठिन है, बहुत कठिन। क्योंकि सभी विचारवंतों के अपने अपने सच हैं। जो राजनीतिक आस्थाओं के आधार देखे और परखे जा रहे हैं। भारतीय बौद्धिकता और मीडिया के शिखर पुरुषों ने इतना निराश कभी नहीं किया था। साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बताने वाले देश ने राजनीतिक आस्थाओं को ही सच का पर्याय मान लिया है। संकटों के समाधान खोजने, उनके हल तलाशने और देश को राहत देने के बजाए जख्म को कुरेद-कुरेद कर हरा करने में मजा आ रहा है। यह सडांध तब और गहरी होती दिखती है, जब कुछ लोग पलायन की पीड़ा भोग रहे हिंदुस्तान के दुख में भी आनंद की अनुभूति सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि देश के नेता के सिर उसका ठीकरा फोड़ा जा सके। केंद्र की मजबूत सरकार और उसके मजबूत नेता को विफल होते देखने की हसरत इतनी प्रबल है कि वह लोगों की पीड़ा और आर्तनाद में भी आनंद का भाव खोज ले रही है। हमारी केंद्र और राज्य की सरकारों की विफलता दरअसल एक नेता की विफलता नहीं है। यह समूचे लोकतंत्र और इतने सालों में विकसित तंत्र की भी विफलता है। सामान्य संकटों में भी हमारा पूरा तंत्र जिस तरह धराशाही हो जाता है वह अद्भुत है। बाढ़, सूखा, भूकंप और अन्य दैवी आपदाओं के समय हमारे आपदा प्रबंधन के सारे इंतजाम धरे रह जाते हैं। सामान्यजन इसकी पीड़ा भोगता है। यह घुटनाटेक रवैया निरंतर है और इस पर लगाम कब लगेगी कहा नहीं जा सकता। व्यंग्य कवि स्व. प्रदीप चौबे ने लिखा –बाढ़ आए या सूखा मैं खाऊं तू खा। यानि जहां बाढ़ आ रही है, वहां सालों से हर साल आ रही। फिर उसी इलाके में सूखा भी हर साल आ रहा है। यानि इस संकट ने उस इलाके में एक इको सिस्टम बना लिया है और उसके साथ लोग जीना सीख गए हैं। हमारा महान प्रशासनिक तंत्र इन संकटों से निजात पाने के उपाय नहीं खोजता, उसके लिए हर संकट में एक अवसर है।
     हम अपने संकटों को चिन्हिंत करें तो वे ज्यादा नहीं हैं, वे आमतौर पर विपुल जनसंख्या और उससे उपजे हुए संकट ही हैं। उत्तर भारत के राज्यों के सामने यह कुछ ज्यादा विकराल हैं क्योंकि यहां की राजनीति ने राजनेता और राजनीतिक योद्धा तो खूब दिए किंतु जमीन पर उतरकर संकटों के समाधान तलाशने की राजनीति यहां आज भी विफल है। ये इलाके आज भी जातीय दंभ, अहंकार, माफियाराज, लूटपाट, गुंडागर्दी के अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इसलिए उत्तर भारत के राज्य इस संकट में सबसे ज्यादा परेशानहाल दिखते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, बंगाल जिस तरह पलायन की पीड़ा से बेहाल हैं, उसे देखकर आंखें भर आती हैं। एक बार दक्षिण और पश्चिम के राज्यों महाराष्ट्र,गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल की ओर हमें देखना चाहिए। आखिर क्या कारण हैं हमारे हिंदी प्रदेश हर तरह के संकट का कारण बने हुए हैं।पलायन, जातिवाद, सांप्रदायिकता, माफिया,भ्रष्टाचार, ध्वस्त स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था सब इनके हिस्से हैं। यह संभव है कि समुद्र के किनारे बसे राज्यों की व्यवस्थाएं, अवसर और संभावनाएँ बलवती हैं। किंतु उत्तर भारत के हरियाणा, पंजाब जैसे राज्य भी उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी संभावनाओं को जमीन पर उतारा है। प्रधानमंत्रियों का राज्य रहा उत्तर प्रदेश आज भी देश और दुनिया के सामने सबसे बड़ा सवाल बनकर खड़ा है। अपनी विशाल आबादी और विशाल संकटों के साथ। जमाने से कभी गिरिमिटिया मजदूरों के रूप में विदेशों में ले जाए जाने की पीड़ा तो आजादी के बाद मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, रंगून जैसे महानगरों में संघर्ष करते, पसीना बहाते लोग एक सवाल की तरह सामने हैं। यही हाल बिहार का है। एक जमाने में गांवों में गाए जाने वाले लोकगीत भी इसी पलायन के दर्द का बयान करते हैं-
रेलिया बैरन पिया को लिए जाए हो, रेलिया बैरन।
(रेल मेरी दुश्मन है जो मेरे पति को लेकर जा रही है)
मेरे पिया गए रंगून किया है वहां से टेलीफून,
तुम्हारी याद सताती है जिया में आग लगाती है।
  आजादी के बाद भी ये दर्द कम कहां हुए हैं? स्वदेशी, स्वावलंबन का गांधी पथ छोड़कर सत्ताधीश नए मार्ग पर दौड़ पड़े जो गांवों को खाली करा रहे थे और शहरों को बेरोजगार युवाओं की भीड़ से भर रहे थे। एक समय में आत्मनिर्भर रहे हमारे गांव अचानक मनीआर्डर एकोनामी पर पलने लगे। गांवों में स्वरोजगार के काम ठप पड़ गए। कुटीर उद्योग ध्वस्त हो गए। भारतीय समाज को लांछित करने के लिए उस पर सबसे बड़ा आरोप वर्ण व्यवस्था का है। जबकि वर्ण व्यवस्था एक वृत्ति थी, टेंपरामेंट थी। आपके स्वभाव, मन और इच्छा के अनुसार आप उसमें स्थापित होते थे। व्यावसायिक वृत्ति का व्यक्ति वहां क्षत्रिय बना रहने के मजबूर नहीं था, न ही किसी को अंतिम वर्ण में रहने की मजबूरी थी। अब ये चीजें काल बाह्य हैं। वर्ण व्यवस्था समाप्त है। जाति भी आज रूढ़ि बन गयी किंतु एक समय तक यह हमारे व्यवसाय से संबंधित थी। हमारे परिवार से हमें जातिगत संस्कार मिलते थे-जिनसे हम विशेषज्ञता प्राप्त कर जाब गारंटी भी पाते थे। इसमें सामाजिक सुरक्षा थी और इसका सपोर्ट सिस्टम भी था। बढ़ई, लुहार, सोनार, निषाद, माली, धोबी, कहार ये जातियां भर नहीं है। इनमें एक व्यावसायिक हुनर और दक्षता जुड़ी थी। गांवों की अर्थव्यवस्था इनके आधार पर चली और मजबूत रही। आज यह सारा कुछ उजड़ चुका है। हुनरमंद जातियां आज रोजगार कार्यालय में रोजगार के लिए पंजीयन करा रही हैं या महानगरों में नौकरी के लिए धक्के खा रही हैं। जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था दोनों ही अब अपने मूल स्वरूप में काल बाह्य हो चुके हैं। अप्रासंगिक हो चुके हैं। ऐसे में जाति के गुण के बजाएजाति की पहचान खास हो गयी है। इसमें भी कुछ गलत नहीं है। हर जाति का अपना इतिहास है, गौरव है और महापुरुष हैं। ऐसे में जाति भी ठीक है, जाति की पहचान भी ठीक हैपर जातिभेद ठीक नहीं है। जाति के आधार भेदभाव यह हमारी संस्कृति नहीं। यह मानवीय भी नहीं और सभ्य समाज के लिए जातिभेद कलंक ही है।
      हमें हमारे गांवों की ओर देखना होगा। मनीषी धर्मपाल की ओर देखना होगा, उन्हें पढ़ना होगा, जो बताते हैं कि किस तरह हमारे गांव स्वावलंबी थे। जबकि आज नई अर्थव्यवस्था में किसान आत्महत्या करने लगे और कर्ज को बोझ से दबते चले गए। 1991 के लागू हुयी नई आर्थिक व्यवस्था ने पूरी तरह से हमारे चिंतन को बदलकर रख दिया। संयम के साथ जीने वाले समाज को उपभोक्ता समाज में बदलने की सचेतन कोशिशें प्रारंभ हुयीं। 1991 के खड़ा हुआ यह अर्थतंत्र इतना निर्मम है कि वह दो महीने भी आपको संकटों में संभाल नहीं सकता। आप देखें तो छोटे उद्यमियों की छोड़ें,बड़ी कंपनियों ने भी अपने कर्मियों के वेतन में तत्काल कटौती करने में कोई कमी नहीं की। यहां से जो गाड़ी पटरी से उतरी है,संभलने को नहीं है। ईएमआई के चक्र ने जो जाल बुना है, समूचा मध्यवर्ग उससे जूझ रहा है। निम्न वर्ग उससे स्पर्धा कर रहा है। इससे समाज में बढ़ती गैरबराबरी और स्पर्धा की भावना एक बड़े समाज को निराशा और अवसाद से भर रही है। जाहिर है संकट हमारे हैं, इसके हल हम ही निकालेगें। शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, कृषकों के संकट, बढ़ती जनसंख्या के सवाल हमारे सामने हैं। इनके ठोस और वाजिब हल निकालना हमारी जिम्मेदारी है। कोरोना संकट ने हमें साफ बताया है कि हम आज भी नहीं संभले तो कल बहुत देर हो जाएगी। अंधे पूंजीवाद और निर्मम कारपोरेट की नीतियों से अलग एक मानवीय,संवेदनशील समाज बनाने की जरूरत है जो भले महानगरों में बसता हो उसकी जड़ों में संवेदना और आत्मीयता हो। सिर्फ हासिल करने और हड़पने की चालाकी न हो। देने का भाव भी हो। भरोसा कीजिए हम इस दुखों की नदी को पार कर जाएंगें।





शनिवार, 16 मई 2020

अनिल दवेः परंपरा के पथ का आधुनिक नायक


पुण्यतिथि (18 मई,2017) पर श्री अनिल माधव दवे की याद
- प्रो. संजय द्विवेदी


      पर्यावरण,जल,जीवन और जंगल के सवाल भी किसी राजनेता की जिंदगी की वजह हो सकते हैं तो ऐसे ही एक राजनेता थे अनिल माधव दवे। 18 मई,2017 को वे हमें छोड़कर चले गए इसके बाद भी उनकी दिखाई राह आज भी उतनी ही पाक, मुकम्मल और प्रासंगिक है। आज जब कोरोना के संकट से समूचा दुनिया सवालों घिरी है, तब अनिल माधव दवे की याद अधिक स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। वे जिस तरह बुनियादी सवालों पर संवाद कर रहे थे वह दुर्लभ है। जिंदगी को प्रकृति से जोड़ने और उसके साथ सहजीवन कायम करने की उनकी भावना अप्रतिम थी। अपनी मृत्यु के समय वे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री थे। उन्हें संसद में बहुत गंभीरता से सुना जाता था।
प्रतिबद्धता को प्रकट करती वसीयतः
      श्री अनिल माधव दवे, देश के उन चुनिंदा राजनेताओं में थेजिनमें एक बौद्धिक गुरूत्वाकर्षण मौजूद था।उन्हें देखनेसुनने और सुनते रहने का मन होता था। पानीपर्यावरण,नदी और राष्ट्र के भविष्य से जुड़े सवालों पर उनमें गहरी अंर्तदृष्टि मौजूद थी। उनके साथ नदी महोत्सवों ,विश्व हिंदी सम्मेलन-भोपाल, अंतरराष्ट्रीय विचार महाकुंभ-उज्जैन सहित कई आयोजनों में काम करने का मौका मिला। उनकी विलक्षणता के आसपास होना कठिन था। वे एक ऐसे कठिन समय में हमें छोड़कर चले गएजब देश को उनकी जरूरत सबसे ज्यादा थी। आज जबकि राजनीति में बौने कद के लोगों की बन आई तब वे एक आदमकद राजनेता-सामाजिक कार्यकर्ता के नाते हमारे बीच उन सवालों पर अलख जगा रहे थे, जो राजनीति के लिए वोट बैंक नहीं बनाते। वे ही ऐसे थे जो जिंदगी के, प्रकृति के सवालों को मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बना सकते थे।
    अपनी वसीयत में ही उन्होंने यह साफ कर दिया था कि उनकी प्रतिबद्धता क्या है। उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा था कि मेरा अंतिम संस्कार नर्मदा नदी के तट पर बांद्राभान में किया जाए तथा उनकी स्मृति में कोई स्मारक, प्रतियोगिता, पुरस्कार, प्रतिमा स्थापन इत्यादि ना हो। मेरी स्मृति में यदि कोई कुछ करना चाहते हैं तो वृक्ष लगाएं और उन्हें संरक्षित करके बड़ा करेंगे तो मुझे बड़ा आनंद होगा। वैसे ही नदियों एवं जलाशयों के संरक्षण में भी अधिकतम प्रयत्न किए जा सकते हैं। दवे जी का जीवन और उनकी वसीयत एक ऐसा पाठ है जो बहुत कुछ सिखाती है।
     भोपाल में जिन दिनों हम पढ़ाई करने आए तो वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे, विचार को लेकर स्पष्टता, दृढ़ता और गहराई के बावजूद उनमें जड़ता नहीं थी। वे उदारमना, बौद्धिक संवाद में रूचि रखने वाले, नए ढंग से सोचने वाले और जीवन को बहुत व्यवस्थित ढंग से जीने वाले व्यक्ति थे। उनके आसपास एक ऐसा आभामंडल स्वतः बन जाता था कि उनसे सीखने की ललक होती थी। नए विषयों को पढ़ना, सीखना और उन्हें अपने विचार परिवार (संघ परिवार) के विमर्श का हिस्सा बनाना, उन्हें महत्वपूर्ण बनाता था। वे परंपरा के पथ पर भी आधुनिक ढंग से सोचते थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन अविवाहित रहकर समाज को समर्पित कर दिया। वे सच्चे अर्थों में भारत की ऋषि परंपरा के उत्तराधिकारी थे। संघ की शाखा लगाने से लेकर हवाई जहाज उड़ाने तक वे हर काम में सिद्धहस्त थे। 6 जुलाई,1956 को मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के बड़नगर में जन्में श्री दवे की मां का नाम पुष्पादेवी और पिता का नाम माधव दवे था।
गहरा सौंदर्यबोध और सादगीः
  उनकी सादगी में भी एक सौंदर्यबोध परिलक्षित होता था। बांद्राभान (होशंगाबाद) में जब वे अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव का आयोजन करते थे, तो कई बार अपने विद्यार्थियों के साथ वहां जाना होता था। इतने भव्य कार्यक्रम की एक-एक चीज पर उनकी नजर होती थी। यही विलक्षता तब दिखाई दी, जब वे भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में इसे स्थापित करते दिखे। आयोजनों की भव्यता के साथ सादगी और एक अलग वातावरण रचना उनसे सीखा जा सकता था। सही मायने में उनके आसपास की सादगी में भी एक गहरा सौंदर्यबोध छिपा होता था। वे एक साथ कितनी चीजों को साधते हैं, यह उनके पास होकर ही जाना जा सकता था। हम भाग्यशाली थे कि हमें उनके साथ एक नहीं अनेक आयोजनों में उनकी संगठनपुरूष की छवि, सौंदर्यबोध,भाषणकला,प्रेरित करनी वाली जिजीविषा के दर्शन हुए। विचार के प्रति अविचल आस्था, गहरी वैचारिकता, सांस्कृतिक बोध के साथ वे विविध अनुभवों को करके देखने वालों में थे। शौकिया पर्यटन ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा था। वे मुद्दों पर जिस अधिकार से अपनी बात रखते थे, वह बताती थी कि वे किस तरह विषय के साथ गहरे जुड़े हुए हैं। उनका कृतित्व और जीवन पर्यावरण, नदी संरक्षण, स्वदेशी के युगानुकूल प्रयोगों को समर्पित था। वे स्वदेशी और पर्यावरण की बात कहते नहीं, करके दिखाते थे। उनके मेगा इवेंट्स में तांबे के लोटे ,मिट्टी के घड़े, कुल्हड़ से लेकर भोजन के लिए पत्तलें इस्तेमाल होती थीं। आयोजनों में आवास के लिए उनके द्वारा बनाई गयी कुटिया में देश के दिग्गज भी आकर रहते थे। हर आयोजन में नवाचार करके उन्होंने सबको सिखाया कि कैसे परंपरा के साथ आधुनिकता को साधा जा सकता है। राजनीति में होकर भी वे इतने मोर्चों पर सक्रिय थे कि ताज्जुब होता था।
कुशल संगठक और रणनीतिकारः
    वे एक कुशल संगठनकर्ता होने के साथ चुनाव रणनीति में नई प्रविधियों के साथ उतरने के जानकार थे। भाजपा में जो कुछ कुशल चुनाव संचालक हैं, रणनीतिकार हैं, वे उनमें एक थे। किसी राजनेता की छवि को किस तरह जनता के बीच स्थापित करते हुए अनूकूल परिणाम लाना, यह मध्यप्रदेश के कई चुनावों में वे करते रहे। दिग्विजय सिंह के दस वर्ष के शासनकाल के बाद उमाश्री भारती के नेतृत्व में लड़े गए विधानसभा चुनाव और उसमें अनिल माधव दवे की भूमिका को याद करें तो उनकी कुशलता एक मानक की तरह सामने आएगी। वे ही ऐसे थे जो मध्यप्रदेश में उमाश्री भारती से लेकर शिवराज सिंह चौहान सबको साध सकते थे। सबको साथ लेकर चलना और साधारण कार्यकर्ता से भी, बड़े से बड़े काम करवा लेने की उनकी क्षमता मध्य प्रदेश ने बार-बार देखी और परखी थी।
 बौद्धिकता-लेखन और संवाद से बनाई जगहः
     उनके लेखन में गहरी प्रामाणिकता, शोध और प्रस्तुति का सौंदर्य दिखता है। लिखने को कुछ भी लिखना उनके स्वभाव में नहीं था। वे शिवाजी एंड सुराज, क्रिएशन टू क्रिमेशन, रैफ्टिंग थ्रू ए सिविलाइजेशन, ए ट्रैवलॉग, शताब्‍दी के पांच काले पन्‍ने, संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से, महानायक चंद्रशेखर आजाद, रोटी और कमल की कहानी, समग्र ग्राम विकास, अमरकंटक से अमरकंटक तक, बेयांड कोपेनहेगन, यस आई कैनसो कैन वी जैसी पुस्तकों के माध्यम से अपनी बौद्धिक क्षमताओं से लोगों को परिचित कराते हैं। अनछुए और उपेक्षित विषयों पर गहन चिंतन कर वे उसे लोकविमर्श का हिस्सा बना देते थे। आज मध्यप्रदेश में नदी संरक्षण को लेकर जो चिंता सरकार के स्तर पर दिखती है , उसके बीज कहीं न कहीं दवे जी ने ही डाले हैं, इसे कहने में संकोच नहीं करना चाहिए। वे नदी, पर्यावरण, जलवायु परिर्वतन,ग्राम विकास जैसे सवालों पर सोचने वाले राजनेता थे। नर्मदा समग्र संगठन के माध्यम से उनके काम हम सबके सामने हैं। नर्मदा समग्र का जो कार्यालय उन्होंने बनाया उसका नाम भी उन्होंने ‘नदी का घर’ रखा। वे अपने पूरे जीवन में हमें नदियों से, प्रकृति से, पहाड़ों से संवाद का तरीका सिखाते रहे। प्रकृति से संवाद दरअसल उनका एक प्रिय विषय था। दुनिया भर में होने वाली पर्यावरण से संबंधित संगोष्ठियों और सम्मेलनों मे वे ‘भारत’ (इंडिया नहीं) के एक अनिवार्य प्रतिनिधि थे। उनकी वाणी में भारत का आत्मविश्वास और सांस्कृतिक चेतना का निरंतर प्रवाह दिखता था। एक ऐसे समय में जब बाजारवाद  हमारे सिर चढ़कर नाच रहा है, प्रकृत्ति और पर्यावरण के समक्ष रोज संकट बढ़ता जा रहा है, हमारी नदियां और जलश्रोत- मानव रचित संकटों से बदहाल हैं, अनिल दवे का हमारे साथ न होना हमें बहुत अकेला कर गया है।

बुधवार, 13 मई 2020

करोना के बाद सपनों को सच करने की जिम्मेदारी


-प्रो.संजय द्विवेदी


             संकट कितने भी बड़े, गहरे और लाइलाज हों। एक नायक को उम्मीदों और सपनों के साथ ही होना होता है। वह चाहकर भी निराशा नहीं बांट सकता। अवसाद नहीं फैला सकता। उसकी जिम्मेदारी है कि टूटे हुए मनों, दिलों और आत्मा पर लग रही खरोंचों पर मरहम ही रखे। ऐसे कठिन समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 12 मई,2020 के राष्ट्र के नाम संदेश की भावनाओं को समझा जाना चाहिए। करोना के अंधेरे समय में जब दुनिया की तमाम प्रगतिशील अर्थव्यवस्थाएं संकटों से घिरी हैं और घबराई हुई हैं, तब भी वे उम्मीदों और सपनों का साथ नहीं छोड़ते। एक समर्थ नेता की तरह वे लोगों में निराशा नहीं भरते, बल्कि भरोसा जगाते हैं। वे निराश और हताश नहीं हैं, बल्कि संकटों में अवसर की तलाश कर रहे हैं। वे करोना महामारी के व्यापक प्रसार के क्षणों में भी कहते हैं कि हम करोना से लड़ेंगें और आगे बढेंगे।
    करोना संकट के बाद अखबार बुरी खबरों से भरे पड़े हैं। गांव जाते हुए ट्रेन से कटते श्रमिक, भूख से बिलखते हुए बच्चे, गहरी असुरक्षा से घिरे छोटी गाड़ियों,साइकिलों, मोटरसाइकिलों और पैदल ही गांव को जाते लोग जैसी तमाम छवियां मन को दुखी कर जाती हैं। इस नकारात्मकता के संसार में सोशल मीडिया पर अखंड विलाप करते लोग भी हैं, जो लोकतंत्र की बेबसी और हमारे सरकारी तंत्र की विफलताओं की रूदाली कर रहे हैं। इस गहरे अंधकार, नकारात्मक सूचनाओं के संसार में एक राष्ट्रनायक का काम क्या है? सही मायने में एक राष्ट्र के नायक का यही कर्तव्य है कि वह राष्ट्रजीवन में निराशा और अवसाद के बादल न चढ़ने दे। वह दुखी जनों को और संतप्त न करे। कठिनतम जीवन संघर्ष में लगी जनता को प्रेरित कर उन्हें रास्ता दिखाए। देश की विशाल आबादी हमारा संकट है। बावजूद इसके इस प्रश्न पर बोलना खतरे से खाली भी नहीं है। सारे संसाधन पैदा होते ही अगर कम हो जाते हैं तो इसका कारण हमारी विशाल जनसंख्या ही है। शायद इसीलिए मोदी यह कहते नजर आ रहे हैं कि अर्थ केंद्रित वैश्वीकरण या मनुष्य केंद्रित वैश्वीकरण ?” उनका यह प्रश्न खुद से भी है, देश से भी और नीति-निर्माताओं से भी है। उन देशों से भी है जो तमाम चमकीली प्रगति के बाद भी गहरी निराशा में हैं।  मोदी मानते हैं कि आपदा को अवसर में बदला जा सकता है। लोगों के दुख कम किए जा सकते हैं। उन्होंने भुज के उदाहरण से समझाने की कोशिश भी की है कि कैसे खत्म हुए इलाके फिर सांस लेने लगते हैं, धड़कने लगते हैं।
   प्रधानमंत्री के इस भाषण की सबसे बड़ी बात है कि उन्होंने आत्मनिर्भर भारत शब्द का कई बार इस्तेमाल किया। यह आत्मनिर्भर भारत ही दरअसल अपने पैरों पर खड़ा भारत, स्वावलंबी भारत है। जहां अपने जरूरत की चीजें और उनका निर्माण हम कर पाते हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य वन डिस्ट्रिक वन प्रोडक्ट जैसे अभियान के माध्यम से इसे संभव भी कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री जो उदार आर्थिक नीतियों के पक्ष में रहे हैं, अगर आज आत्मनिर्भर भारत को एकमात्र मार्ग बता रहे हैं तो इसके विशिष्ट अर्थ हैं। यानि अब वह स्थिति है जिसमें भारत एक ग्लोबल लीडर बनने की आतुरता दिखा रहा है। वे यहीं नहीं रुके उन्होंने यह भी कहा कि लोकल ने हमें बचाया है, लोकल के लिए वोकल बनिए और यही हमारा जीवन मंत्र होना चाहिए।  
     करोना के वैश्विक संकट ने भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश के सामने जैसे प्रश्न खड़े किए हैं, उनके उत्तर हमेशा सकारात्मक नहीं हो सकते। सरकारों और उसके तंत्र को कोसते आए हम लोग अचानक उसकी श्रेष्ठता और जनपक्षधरता का बखान नहीं कर सकते। यह तंत्र जैसा भी है, बना और बनाया गया है। यह जितना भी उपयोगी या अनुपयोगी है, सच यह है कि वही हमारे काम आ रहा है। बहुनिंदित पुलिस, सरकारी डाक्टर, नर्स, सफाई और स्वच्छता से जुड़ा सरकारी तंत्र ही इस महान संकट में अपनी जान जोखिम में डालकर आपके पास पहुंच रहा है। बावजूद इसके कि हर जगह उनके लिए फूल नहीं बरस रहे। कहीं पत्थर हैं तो कहीं व्यापक असहयोग। आप सोचें की जिस तरह निजीकरण की अंधी आंधी 1991 से चली और यह लगा कि सरकार का काम स्कूल, अस्पताल और सेवा के तमाम करना नहीं है, ये सारे काम तो निजी क्षेत्र में ही गुणवत्ता से संभव हैं । आप कल्पना करें अगर यह बुरे और खराब सेवाएं देने वाले सरकारी अस्पताल भी हमारे पास न होते क्या होता?      
   हम जानते हैं कि कभी भी नायक उम्मीदों का दामन नहीं छोड़ते। देश की विशाल आबादी जो अपने संकटों के कारण अब महानगरों से पलायन कर रही है। उसकी उम्मीदें टूट रही हैं और वह किसी भी हाल में अपने गांव या घर पहुंचना चाहती है। ऐसे में सरकारों का दायित्व क्या है? राष्ट्रनायकों का दायित्व क्या है? यही कि वे भरोसे को दरकने न दें। उम्मीदों को टूटने न दें। सपनों को मरने न दें। हमें यह मान लेना चाहिए कि देश की इतनी विशाल आबादी के लिए कोई भी तंत्र या व्यवस्था द्वारा बनाए गए इंतजाम नाकाफी ही साबित होंगे। किंतु जहां जैसे संकट खड़े हो रहे हैं, सरकारें और समाज पीड़ित जनों के साथ खड़े होते ही हैं। सरकारी तंत्र की सबसे बड़ी विफलता है कि उसके प्रति विश्वास खत्म हो चुका है। वे कुछ भी करें, अब वह भरोसा हासिल नहीं कर सकते। यह भरोसा धीरे-धीरे तोड़ा गया है। सरकार, मीडिया, समाज और प्रभु वर्ग सबने मिलकर सरकारी संस्थाओं, सरकारी अस्पतालों, स्कूलों, सरकारी सेवाओं से लोगों का भरोसा डिगाया है। सरकारी फोन से लेकर सरकारी पीडीएस की दूकानों की तरफ देखने की हमारी खास दृष्टि है। आप यह भी देखें कि प्राइवेट विश्वविद्यालय, प्राइवेट फोन कंपनियां, प्राइवेट अस्पताल भी तमाम गलतियां करते हैं पर निशाने पर सरकारी संस्थाएं ही होती हैं। मीडिया के निशाने पर भी सरकारी संस्थाएं ही होती हैं, जैसे निजी क्षेत्र में रामराज्य कायम हो। सरकारों की जड़ता, नीति-नियंताओं की स्वार्थपरता ने हालात और बिगाड़ दिए हैं । अपनी ही संस्थाओं के प्रति सरकारें अनुदार होती गयीं और निजी क्षेत्र पर उनकी कृपा और संवेदना बरसने लगी। किंतु जब संकट आन पड़ा तो वही बहुनिंदित, लापरवाह और कथित तौर पर भ्रष्ट तंत्र ही हमारे काम आया। आज भी नीचे के स्तर पर हमारे सफाई कामगारों, नर्स बहनों से लेकर, सेनिटाइजेशन के काम से जुड़े लोग, पुलिसकर्मियों से लेकर आंगनबाड़ी की बहनों की सेवाओं की ओर देखना चाहिए।
          सही मायनों में मोदी सपनों के सौदागर हैं। वे निराश नहीं होते, निराशा नहीं बांटते। अवसाद की परतें तोड़ते हैं और उजास जगाते हैं। वे इसीलिए अपने इस भाषण में एक नायक की तरह बात करते हैं वे कहते हैं कर्मठता की पराकाष्ठा और कौशल(क्राफ्ट) की पूंजी से ही भारत आत्मनिर्भर बनेगा। वे जोड़ते हैं मिट्टी की महक से बनेगा नया भारत। हम देखें तो एक नायक तौर पर मोदी संभावनाओं में ही निवेश कर रहे हैं। वे मुख्यमंत्रियों के साथ सतत संवाद कर रहे हैं। उन्हें नेतृत्व दे रहे हैं। अपनी ओर से विविध वर्गों से संवाद कर रहे हैं। एक लोकतंत्र में संवाद से ही दुनिया बनती और अवसर सृजित होते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि संकट गहरा है, इंतजाम नाकाफी हैं, सेवाएं गुणवत्तापूर्ण नहीं है, रामराज्य अभी भी प्रतीक्षित ही है, ईमानदारी से कर्तव्य निर्वहन करने वालों की संख्या सीमित है। फिर भी हिंदुस्तान का मन मरा नहीं है। अपनी विशाल आबादी, विशाल संकटों के बाद उसका हौसला टूटा नहीं है। उसकी संवेदनाएं मरी नहीं है। हमारे श्रमदेव और श्रमदेवियों की अपार उपेक्षा के बाद भी, हमारे किसानों के लाख संकटों के बाद भी भारत फिर उठ खड़ा होगा और सपनों की ओर दौड़ लगाएगा, भरोसा कीजिए। करोना संकट के बाद का भारत एक नई तरह से सोचेगा, व्यवहार करेगा। साथ ही ज्यादा आत्मनिर्भर और ज्यादा समर्थ होगा।


शुक्रवार, 1 मई 2020

भारतीय मीडियाः गरिमा बहाली की चुनौती


-प्रो. संजय द्विवेदी


      भारतीय मीडिया का यह सबसे त्रासद समय है। छीजते भरोसे के बीच उम्मीद की लौ फिर भी टिमटिमा रही है। उम्मीद है कि भारतीय मीडिया आजादी के आंदोलन में छिपी अपनी गर्भनाल से एक बार फिर वह रिश्ता जोड़ेगा और उन आवाजों का उत्तर बनेगा जो उसे कभी पेस्टीट्यूट, कभी पेड न्यूज तो कभी गोदी मीडिया के नाम पर लांछित करती हैं। जिनकी समाज में कोई क्रेडिट नहीं वह आज मीडिया का हिसाब मांग रहे हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे लोग, वाणी और कृति से अविश्वास के प्रतीक भी मीडिया से शुचिता की मांग कर रहे हैं।
     देखा जाए तो यह गलत भी नहीं है। मेरे गलत होने से आपको गलत होने की आजादी नहीं मिल जाती। एक पाठक और एक दर्शक के नाते हमें तो श्रेष्ठ ही चाहिए, मिलावट नहीं। वह मिलावट खबरों की हो या विचारों की। लेकिन आज के दौर में ऐसी परिशुद्धता की अपेक्षा क्या उचित है? क्या बदले हुए समय में मिलावट को युगधर्म नहीं मान लेना चाहिए? आखिर मीडिया के सामने रास्ता क्या है? किन उपायों और रास्तों से वह अपनी शुचिता, पवित्रता, विश्वसनीयता और प्रामणिकता को कायम रख सकता है, यह सवाल आज सबको मथ रहा है। जो मीडिया के भीतर हैं उन्हें भी, जो बाहर हैं उन्हें भी।
खबरों में मिलावट का समयः
सबसे बड़ी चुनौती खबरों में मिलावट की है। खबरें परिशुद्धता के साथ कैसे प्रस्तुत हों, कैसे लिखी जाएं, बिना झुकाव, बिना आग्रह कैसे वे सत्य को अपने पाठकों तक संप्रेषित करें। क्या विचारधारा रखते हुए एक पत्रकार इस तरह की साफ-सुथरी खबरें लिख सकता है? ऐसे सवाल हमारे सामने हैं। इसके उत्तर भी साफ हैं, जी हां हो सकता है। हमारे समय के महत्त्वपूर्ण पत्रकार और संपादक श्री प्रभाष जोशी हमें बताकर गए हैं। वे कहते थे पत्रकार की पोलिटकल लाइन तो हो किंतु उसकी पार्टी लाइन नहीं होनी चाहिए।
     प्रभाष जी का मंत्र सबसे प्रभावकारी है, अचूक है। सवाल यह भी है कि एक विचारवान पत्रकार और संपादक विचार निरपेक्ष कैसे हो सकता है? संभव हो उसके पास विचारधारा हो, मूल्य हों और गहरी सैंद्धांतिकता का उसके जीवन और मन पर असर हो। ऐसे में खबरें लिखता हुआ वह अपने वैचारिक आग्रहों से कैसे बचेगा ? अगर नहीं बचेगा तो मीडिया की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता का क्या होगा? उत्पादन के कारखानों में क्वालिटी कंट्रोल के विभाग होते हैं। मीडिया में यह काम संपादक और रिर्पोटर के अलावा कौन करेगा? तथ्य और सत्य का संघर्ष भी यहां सामने आता है। कई बार तथ्य गढ़ने की सुविधा होती है और सत्य किनारे पड़ा रह जाता है।
      पत्रकार ऐसा करते हुए खबरों में मिलावट कर सकता है। वह सुविधा से तथ्यों को चुन सकता है, सुविधा से परोस सकता है। इन सबके बीच भी खबरों को प्रस्तुत करने के आधार बताए गए हैं, वे अकादमिक भी हैं और सैद्धांतिक भी। हम खबर देते हुए न्यायपूर्ण हो सकते हैं। ईमान की बात कर सकते हैं। परीक्षण की अनेक कसौटियां हैं। उस पर कसकर खबरें की जाती रही हैं और की जाती रहेंगी। विचारधारा के साथ गहरी लोकतांत्रिकता भी जरुरी है जिसमें आप असहमति और अकेली आवाजों को भी जगह देते हैं, उनका स्वागत करते हैं। एजेंडा पत्रकारिता के समय में यह कठिन जरूर लगता है पर मुश्किल नहीं।
बौद्धिक विमर्शों से टूटता रिश्ताः
       हिंदी पत्रकारिता पर आरोप लग रहे हैं कि वह अपने समय के सवालों से कट रही है। उन पर बौद्धिक विमर्श छेड़ना तो दूर, वह उन मुद्दों की वास्तविक तस्वीर सूचनात्मक ढंग से भी रखने में विफल पा रही है तो यह सवाल भी उठने लगा है कि आखिर ऐसा क्यों है। 1990 के बाद के उदारीकरण के सालों में अखबारों का सुदर्शन कलेवर, उनकी शानदार प्रिटिंग और प्रस्तुति सारा कुछ बदला है। वे अब पढ़े जाने के साथ-साथ देखे जाने लायक भी बने हैं। किंतु क्या कारण है उनकी पठनीयता बहुत प्रभावित हो रही है। वे अब पढ़े जाने के बजाए पलटे ज्यादा जा रहे हैं। पाठक एक स्टेट्स सिंबल के चलते घरों में अखबार तो बुलाने लगा है, किंतु वह इन अखबारों पर वक्त नहीं दे रहा है। क्या कारण है कि ज्वलंत सवालों पर बौद्धिकता और विमर्शों का सारा काम अब अंग्रेजी अखबारों के भरोसे छोड़ दिया गया हैहिंदी अखबारों में अंग्रेजी के जो लेखक अनूदित होकर छप रहे हैं वह भी सेलिब्रेटीज ज्यादा हैं, बौद्धिक दुनिया के लोग कम । हिंदी की इतनी बड़ी दुनिया के पास आज भी ‘द हिंदू’ या ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसा एक भी अखबार क्यों नहीं है, यह बात चिंता में डालने वाली है। कम पाठक, सीमित स्वीकार्यता के बजाए अंग्रेजी के अखबारों में हमारी कलाओं, किताबों, फिल्मों और शेष दुनिया की हलचलों पर बात करने का वक्त है तो हिंदी के अखबार इनसे मुंह क्यों चुरा रहे हैं।
       हिंदी के एक बड़े लेखक अशोक वाजपेयी कह रहे हैं कि-पत्रकारिता में विचार अक्षमता बढ़ती जा रही है, जबकि उसमें यह स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। हिंदी में यह क्षरण हर स्तर पर देखा जा सकता है। हिंदी के अधिकांश अखबार और समाचार-पत्रिकाओं का भाषा बोध बहुत शिथिल और गैरजिम्मेदार हो चुका है। जो माध्यम अपनी भाषा की प्रामणिकता आदि के प्रति सजग नहीं हैं, उनमें गहरा विचार भी संभव नहीं है। हमारी अधिकांश पत्रकारिता, जिसकी व्याप्ति अभूतपूर्व हो चली है, यह बात भूल ही गयी है कि बिना साफ-सुथरी भाषा के साफ-सुथरा चिंतन भी संभव नहीं है। (जनसत्ता,26 अप्रैल,2015) 
       श्री वाजपेयी का चिंताएं हिंदी समाज की साझा चिंताएं हैं। हिंदी के पाठकों, लेखकों, संपादकों और समाचारपत्र संचालकों को मिलकर अपनी भाषा और उसकी पत्रकारिता के सामने आ रहे संकटों पर बात करनी ही चाहिए। यह देखना रोचक है कि हिंदी की पत्रकारिता के सामने आर्थिक संकट उस तरह से नहीं हैं जैसा कि भाषायी या बौद्धिक संकट। हमारे समाचारपत्र अगर समाज में चल रही हलचलों, आंदोलनों और झंझावातों की अभिव्यक्ति करने में विफल हैं और वे बौद्धिक दुनिया में चल रहे विमर्शों का छींटा भी अपने पाठकों पर नहीं पड़ने दे रहे हैं तो हमें सोचना होगा कि आखिर हमारी एक बड़ी जिम्मेदारी अपने पाठकों का रूचि परिष्कार भी रही है। साथ ही हमारा काम अपने पाठक का उसकी भाषा और समाज के साथ एक रिश्ता बनाना भी है।
सूचना और मनोरंजन से आगे बढ़ना होगाः
      आखिर हमारे हिंदी अखबारों के पाठक को क्यों नहीं पता होना चाहिए कि उसके आसपास के परिवेश में क्या घट रहा है। हमारे पाठक के पास चीजों के होने और घटने की प्रक्रिया के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक पहलुओं पर विश्लेषण क्यों नहीं होने चाहिएक्यों वह गंभीर विमर्शों के लिए अंग्रेजी या अन्य भाषाओं पर निर्भर होहिंदी क्या सिर्फ सूचना और मनोरंजन की भाषा बनकर रह जाएगी?  अपने बौद्धिक विश्लेषणों, सार्थक विमर्शों के आधार पर नहींसिर्फ चमकदार कागज पर शानदार प्रस्तुति के कारण ही कोई पत्रकारिता लोकस्वीकृति पा सकती हैआज का पाठक समझदार, जागरूक और विविध दूसरे माध्यमों से सूचना और विश्वेषण पाने की क्षमता से लैस है। ऐसे में हिंदी के अखबारों को यह सोचना होगा कि वे कब तक अपनी छाप-छपाई और प्रस्तुति के आधार पर लोगों की जरूरत बने रहेंगें।
गहरी सांस्कृतिक निरक्षरता से मुक्ति जरूरीः
    पठनीयता का संकट, सोशल मीडिया का बढ़ता असर, मीडिया के कंटेट में तेजी से आ रहे बदलाव, निजी नैतिकता और व्यावसायिक नैतिकता के सवाल, मोबाइल संस्कृति से उपजी चुनौतियों के बीच मूल्यों की बहस को देखा जाना चाहिए। इस समूचे परिवेश में आदर्श, मूल्य और सिद्धांतों की बातचीत भी बेमानी लगने लगी है।  बावजूद इसके एक सुंदर दुनिया का सपना, एक बेहतर दुनिया का सपना देखने वाले लोग हमेशा एक स्वस्थ और सरोकारी मीडिया की बहस के साथ खड़े रहेंगे। संवेदना, मानवीयता और प्रकृति का साथ ही किसी भी संवाद माध्यम को सार्थक बनाता है। संवेदना और सरोकार समाज जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक है, तो मीडिया उससे अछूता कैसे रह सकता है। सही मायने में यह समय गहरी सांस्कृतिक निरक्षता और संवेदनहीनता का समय है। इसमें सबके बीच मीडिया भी गहरे असमंजस में है। लोक के साथ साहचर्य और समाज में कम होते संवाद ने उसे भ्रमित किया है। चमकती स्क्रीनों, रंगीन अखबारों और स्मार्ट हो चुके मोबाइल उसके मानस और कृतित्व को बदलने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे में मूल्यों की बात कई बार नक्कारखाने में तूती की तरह लगती है। किंतु जब मीडिया के विमर्शकार, संचालक यह सोचने बैठेंगे कि मीडिया किसके लिए और क्यों- तब उन्हें इसी समाज के पास आना होगा। रूचि परिष्कार, मत निर्माण की अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित करना होगा। तभी मीडिया की सार्थकता है और तभी उसका मूल्य है । लाख मीडिया क्रांति के बाद भी भरोसा वह शब्द है जो आसानी से अर्जित नहीं होता। लाखों का प्रसार आपके प्राणवान और सच के साथ होने की गारंटी नहीं है। विचारों के अनुकूलन के समय में भी लोग सच को पकड़ लेते हैं। मीडिया का काम सूचनाओं का सत्यान्वेषण ही है, वरना वे सिर्फ सूचनाएं होंगी- खबर या समाचार नहीं बन पाएंगी।
इलेक्ट्रानिक मीडिया के नाते बढ़ा संकटः
   एक समय में प्रिंट मीडिया ही सूचनाओं का वाहक था, वही विचारों की जगह भी था। 1990 के बाद टीवी घर-घर पहुंचा और उदारीकरण के बाद निजी चैनलों की बाढ़ आ गयी। इसमें तमाम न्यूज चैनल भी आए। जल्दी सूचना देने की होड़ और टीआरपी की जंग ने माहौल को गंदला दिया। इसके बाद शुरू हुई टीवी बहसों ने तो हद ही कर दी। टीवी पर भाषा की भ्रष्टता, विवादों को बढ़ाने और अंतहीन बहसों की एक ऐसी दुनिया बनी जिसने टीवी स्क्रीन को चीख-चिल्लाहटों और शोरगुल से भर दिया। इसने हमारे एंकर्स, पत्रकारों और विशेषज्ञों को भी जगहंसाई का पात्र बना दिया। उनकी अनावश्यक पक्षधरता भी लोगों से सामने उजागर हुयी। ऐसे में भरोसा टूटना ही था। इसमें पाठक और दर्शक भी बंट गए। हालात यह हैं कि दलों के हिसाब से विशेषज्ञ हैं जो दलों के चैनल भी हैं। पक्षधरता का ऐसा नग्न तांडव कभी देखा नहीं गया। आज हालात यह हैं कि टीवी म्यूट (शांत) रखकर भी अनेक विशेषज्ञों के बारे में यह बताया जा सकता है कि वे क्या बोल रहे होंगे। इस समय का संकट यह है कि पत्रकार या विशेषज्ञ तथ्यपरक विश्लेषण नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे अपनी पक्षधरता को पूरी नग्नता के साथ व्यक्त करने में लगे हैं। ऐसे में सत्य और तथ्य सहमे खड़े रह जाते हैं। दर्शक अवाक रह जाता है कि आखिर क्या हो रहा है। कहने में संकोच नहीं है कि अनेक पत्रकार, संपादक और विषय विशेषज्ञ दल विशेष के प्रवक्ताओं को मात देते हुए दिखते हैं। ऐसे में इस पूरी बौद्धिक जमात को वही आदर मिलेगा जो आप किसी दल के प्रवक्ता को देते हैं। मीडिया की विश्वसनीयता को नष्ट करने में टीवी मीडिया के इस ऐतिहासिक योगदान को रेखांकित जरूर किया जाएगा। यह साधारण नहीं है कि टीवी के नामी एंकर भी अब टीवी न देखने की सलाहें दे  रहे हैं। ऐसे में यह टीवी मीडिया कहां ले जाएगा कहना कठिन है।
सत्यान्वेषण से ही सार्थकताः
        कोई भी मीडिया सत्यान्वेषण की अपनी भूख से ही सार्थक बनता है, लोक में आदर का पात्र बनता है। हमें अपने मीडिया को मूल्यों, सिद्धांतों और आदर्शों के साथ खड़ा करना होगा। यह शब्द आज की दुनिया में बोझ भले लगते हों पर किसी भी संवाद माध्यम को सार्थकता देने वाले शब्द यही हैं। सच की खोज कठिन है पर रुकी नहीं है। सच से साथ खड़े रहना कभी आसान नहीं था। हर समय अपने नायक खोज ही लेता है। इस कठिन समय में भी कुछ चमकते चेहरे हमें इसलिए दिखते हैं क्योंकि वे मूल्यों के साथ, आदर्शों की दिखाई राह पर अपने सिद्धांतों के साथ डटे हैं। समय ऐसे ही नायकों को इतिहास में दर्ज करता है और उन्हें ही मान देता है। हर समय अपने साथ कुछ चुनौतियां लेकर सामने आता है, उन सवालों से जूझकर ही नायक अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं। नए समय ने अनेक संकट खड़े किए हैं तो अपार अवसर भी दिए भी हैं। भरोसे का बचाना जरुरी है, क्योंकि यही हमारी ताकत है। भरोसे का नाम ही पत्रकारिता है, सभी तंत्रों से निराश लोग अगर आज भी मीडिया की तरफ आस से देख रहे हैं तो तय मानिए मीडिया और लोकतंत्र एक दूसरे के पूरक ही हैं। गहरी लोकतांत्रिकता में रचा-बसा समाज ही एक अच्छे मीडिया का भी पात्र होता है। हमें अपने मनों में झांकना होगा कि क्या हमारी सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियां एक बेहतर मीडिया के लिए, एक अच्छे मनुष्य के लिए उपयुक्त हैं? अगर नहीं तो मनुष्य की मुक्ति के अभी कुछ और जतन करने होंगे। लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र में बदलने के लिए और काम करना होगा। ऐसी सारी यात्राएं पत्रकारिता, कलाओं, साहित्य और सृजन की दुनिया को ज्यादा लोकतांत्रिक, ज्यादा विचारवान, ज्यादा संवेदनशील और ज्यादा मानवीय बनाएंगी। यह सृजनात्मक दुनिया एक बेहतर दुनिया को जल्दी संभव करेगी।