मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया -1
बहुभाषिकता हमारी अस्मिता है
जयप्रकाश मानस
छत्तीसगढ़ में भाषा को लेकर छिड़े बौद्धिक उन्माद को देखकर मुझे एक कहानी याद आ रही है - एक साधु किसी के साथ कहीं जा रहे थे । रास्ते में एक मरा हुआ क्ता मिला । वह पूरी तरह सड़ चुका था । उसे देखकर आदमी चीख पड़ा - महाराज, बचकर चलिए; देखिए इस ग़लीज़ कुत्ते से कैसी बदबू आ रही है । साधु बोले – आह, इस कुत्ते के दाँत तो देखो, कितने साफ़ और चमकीले हैं । हम कैसे बुद्धिजीवी हैं जो अपनी ही भाषाओं को साधु विरोधी दृष्टि से देख रहे हैं ।
बहुभाषिकता भारतीय भाषा-परिदृश्य का विशिष्ट लक्षण है । अपनी चारित्रक सात्विकता के साथ वह भारतीयता की पहचान भी है । भाषा स्वयं में अराजक या असामाजिक नहीं होती । फिर किसी एक बृहत भूगोल की भाषाओं में साम्यता, परस्पर विश्वास के बीज भी होते हैं । यही भाषा विज्ञान का अद्यतन सत्य है । भाषाओं या बहुभाषिकता को लेकर की जाने वाली दुर्भावनाओं और दुर्घटनाओं के मूल में राजनीतिक चश्मे से देखने की धूर्तता मात्र है । भाषायी आधार पर शत्रुता के पीछे न कोई वैज्ञानिकता होती है, न ही भाषायी आधार पर वांछित विकास हेतु कोई वैचारिक मापदंड । शायद यही दूरदृष्टिता उस मूल में है जिससे प्रेरित होकर हमने भारतोदय के समय भाषायी प्रजातंत्र को अंगीकार किया ।
भारत की भाषिक विविधता एक जटिल चुनौती पेश करती है तो दूसरी ओर वह हमारे लिए विविध अवसर भी बटोरकर देती है । भारत केवल इसलिए अनूठा नहीं है कि यहाँ अनेक प्रकार की भाषायें बोली जाती है, बल्कि उन भाषाओं में अनेक भाषा-परिवारों का प्रतिनिधित्व भी है । बहुभाषिकता भारत की थाती है, और इन मायनों में हम सर्वाधिक धनी ठहरते हैं । दुनिया के और किसी मुल्क में पाँच भाषा परिवारों की भाषायें नहीं पायी जाती । यह भाषायी विविधता में समृद्धि मात्र नहीं, ज्ञान सहित प्राचीन विज्ञान, दर्शन, चिंतन में भी भारतीय समृद्धि का परिचायक भी है । बहुभाषिकता बच्चे की अस्मिता का निर्माण करती है । निज भाषा का निष्कलुष उत्थान वरेण्य है किन्तु परभाषा की पतन-चेष्ठा सर्वथा बौद्धिक अतिवाद है । इसलिए उपेक्षणीय है । शिक्षा में बहुभाषिकता का समर्थन केवल देश में उपलब्ध संसाधन का बेहत्तर उपयोग नहीं अपितु वह हर बच्चे (हर भाषिक समुदाय)की स्वीकार्यता और संरक्षणत्व की भी गारंटी है । यह अर्थांतर से भाषिक पृष्ठभूमि के आधार पर किसी को पिछड़ने न देने का विश्वास भी है । जब हम पिछड़ों, दलितो, वनबंधुओं की उत्थान की बात करते हैं तो हमें कदापि यह नहीं भूलना चाहिए कि इस उन्नति में भाषा का उत्थान भी सम्मिलित है । हमें संविधान की धारा 350 –क का भी ऐसे समय स्मरण कर लेना चाहिए जिसमें कहा गया है कि राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषायी अल्पसंख्यक-वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा । यदि छत्तीसगढ़ में भी गोंड़ी, हलबी, भथरी, सरगुजिहा में पढ़ाई की व्यवस्थागत स्वीकृति मिलती है तो उसे इसलिए ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता कि वे छत्तीसगढ़ी परिवार की भाषायें है और ऐसे में केवल छत्तीसगढ़ी में ही पढ़ाई होनी चाहिए । ऐसे तर्कों को भाषागत प्रेम नहीं अपितु कांइयापन और भाषायी उन्माद की श्रेणी मे रखा जाना चाहिए । क्योंकि ऐसी सभी अल्पसंख्यक भाषाओं या बोलियों का न तो कोई जनक है न ही उनका नियंता कि उसे नेस्तनाबूत करने का अधिकार सौंप दिया जाय । हमें अपने वरिष्ठ नंदकिशोर तिवारी जी जैसे पुरानी पीढ़ी को अपनी उदारता दिखाने की अपील करनी ही होगी कि वे अपनी भाषा के कल्याण के लिए संघर्ष ज़रूर करें किन्तु उन्हें परस्परविश्वासी किन्तु अल्पसंख्यक भाषाओं के सफाया करने का जहर वातावरण में न घोलें । यह एक तरह से छत्तीसगढ़ और खासकर वनांचलों में सक्रिय अतिवादियों को उकसाना भी हो सकता है, साथ भी आदिजनों के विश्वास पर कुठाराघात भी । आज समय की मांग है कि और संजय द्विवेदी जैसे युवा किन्तु समरस विचारों का अनुसमर्थन देना ही होगा । और ऐसा न करना भाषायी सांप्रदायिकता को भी प्रोत्साहित करना होगा ।
जब हम मातृभाषा और घर की भाषा की बात करते हैं तो उसमें घर, कुनबे, पास पड़ौस आदि की भाषा आ जाती है । जिसे हम घर और समाज से ग्रहण करते हैं । अधिकांशतः बच्चे जब स्कूल में प्रवेश के समय दो-तीन ऐसी भाषाओं को बोलने-समझने की क्षमता से लैश होते हैं । भिन्न प्रतिभा वाले बच्चे जो बोल नहीं पाते वे भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए उतने ही जटिल वैकल्पिक संकेतों और प्रतीकों का विकास कर लेते हैं । ऐसे समय भाषायें स्मृतिकोश की तरह काम करती हैं जिसमें अपने सहवक्ताओं से विरासत में मिले संकेतों के साथ-साथ जीवन-काल में बनाये गये संकेत भी शामिल होते हैं । ये वे माध्यम भी हैं जिनसे अधिकतर ज्ञान का निर्माण होता है । इसलिए इनका मनुष्य के विचार और उसकी अस्मिता से गहरा संबंध होता है कि बच्चे की मातृभाषा या मातृभाषाओं को नकारना या उनके ध्वस्तीकरण का प्रयास उसे अपने व्यक्तित्व मे हस्तक्षेप की तरह लगते हैं । सच यह भी है कि प्रभावी समझ और भाषाओं के प्रयोगों के माध्यम से बच्चे विचारों, व्यक्तियों, वस्तुओं और आसपास के संसार से अपने को जोड़ पाते हैं ।
जहाँ तक प्राथमिक शिक्षा और भाषा का प्रश्न है वहाँ द्विभाषी क्षमता मनुष्य की संज्ञानात्मक वृद्धि, सामाजिक सहिष्णुता, विस्तृत चिंतन और बौद्धिक उपलब्धियों का खास औज़ार है । यह केवल सदभावी विचार जनित कल्पना नहीं, उच्च अध्ययनों और शोधों का निष्कर्ष भी है । उसमें द्वंद्व, अविश्वास, सामुदायिक विभाजन की संभावना तलाशना केवल मूढ़ता है । जहाँ तक अँगरेज़ी को तवज्जो देने का सवाल है वह मुद्दा जनता की आकांक्षाओं का राजनीतिक प्रत्युत्तर है, न कि इसके पीछे अकादमिक या साध्यता का मुद्दा है । वह अन्य पश्चिमी भाषा में विद्यमान सौदर्य के अलावा वर्तमान विश्व समाज जो तकनीकी ज्ञान की गारंटी माँगता है व्यावसायिक दक्षता और कौशल के लिए भी आवश्यकता है । प्रकारांतर से वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भविष्य की पीढ़ी के लिए रोजी-रोटी की भाषा है । यह अलग बात है कि वह शासक की भाषा है और उसे हमने ही अन्य भारतीय भाषाओं और लोकभाषाओं को सरंक्षण न देकर विकसित करते रहे हैं पर आज के संदर्भ में उसे एकबारगी नहीं नकारा जा सकता है ।
(लेखक, शिक्षाविद् एवं साहित्यकार हैं)
बहुभाषिकता भारतीय भाषा-परिदृश्य का विशिष्ट लक्षण है । अपनी चारित्रक सात्विकता के साथ वह भारतीयता की पहचान भी है । भाषा स्वयं में अराजक या असामाजिक नहीं होती । फिर किसी एक बृहत भूगोल की भाषाओं में साम्यता, परस्पर विश्वास के बीज भी होते हैं । यही भाषा विज्ञान का अद्यतन सत्य है । भाषाओं या बहुभाषिकता को लेकर की जाने वाली दुर्भावनाओं और दुर्घटनाओं के मूल में राजनीतिक चश्मे से देखने की धूर्तता मात्र है । भाषायी आधार पर शत्रुता के पीछे न कोई वैज्ञानिकता होती है, न ही भाषायी आधार पर वांछित विकास हेतु कोई वैचारिक मापदंड । शायद यही दूरदृष्टिता उस मूल में है जिससे प्रेरित होकर हमने भारतोदय के समय भाषायी प्रजातंत्र को अंगीकार किया ।
भारत की भाषिक विविधता एक जटिल चुनौती पेश करती है तो दूसरी ओर वह हमारे लिए विविध अवसर भी बटोरकर देती है । भारत केवल इसलिए अनूठा नहीं है कि यहाँ अनेक प्रकार की भाषायें बोली जाती है, बल्कि उन भाषाओं में अनेक भाषा-परिवारों का प्रतिनिधित्व भी है । बहुभाषिकता भारत की थाती है, और इन मायनों में हम सर्वाधिक धनी ठहरते हैं । दुनिया के और किसी मुल्क में पाँच भाषा परिवारों की भाषायें नहीं पायी जाती । यह भाषायी विविधता में समृद्धि मात्र नहीं, ज्ञान सहित प्राचीन विज्ञान, दर्शन, चिंतन में भी भारतीय समृद्धि का परिचायक भी है । बहुभाषिकता बच्चे की अस्मिता का निर्माण करती है । निज भाषा का निष्कलुष उत्थान वरेण्य है किन्तु परभाषा की पतन-चेष्ठा सर्वथा बौद्धिक अतिवाद है । इसलिए उपेक्षणीय है । शिक्षा में बहुभाषिकता का समर्थन केवल देश में उपलब्ध संसाधन का बेहत्तर उपयोग नहीं अपितु वह हर बच्चे (हर भाषिक समुदाय)की स्वीकार्यता और संरक्षणत्व की भी गारंटी है । यह अर्थांतर से भाषिक पृष्ठभूमि के आधार पर किसी को पिछड़ने न देने का विश्वास भी है । जब हम पिछड़ों, दलितो, वनबंधुओं की उत्थान की बात करते हैं तो हमें कदापि यह नहीं भूलना चाहिए कि इस उन्नति में भाषा का उत्थान भी सम्मिलित है । हमें संविधान की धारा 350 –क का भी ऐसे समय स्मरण कर लेना चाहिए जिसमें कहा गया है कि राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषायी अल्पसंख्यक-वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा । यदि छत्तीसगढ़ में भी गोंड़ी, हलबी, भथरी, सरगुजिहा में पढ़ाई की व्यवस्थागत स्वीकृति मिलती है तो उसे इसलिए ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता कि वे छत्तीसगढ़ी परिवार की भाषायें है और ऐसे में केवल छत्तीसगढ़ी में ही पढ़ाई होनी चाहिए । ऐसे तर्कों को भाषागत प्रेम नहीं अपितु कांइयापन और भाषायी उन्माद की श्रेणी मे रखा जाना चाहिए । क्योंकि ऐसी सभी अल्पसंख्यक भाषाओं या बोलियों का न तो कोई जनक है न ही उनका नियंता कि उसे नेस्तनाबूत करने का अधिकार सौंप दिया जाय । हमें अपने वरिष्ठ नंदकिशोर तिवारी जी जैसे पुरानी पीढ़ी को अपनी उदारता दिखाने की अपील करनी ही होगी कि वे अपनी भाषा के कल्याण के लिए संघर्ष ज़रूर करें किन्तु उन्हें परस्परविश्वासी किन्तु अल्पसंख्यक भाषाओं के सफाया करने का जहर वातावरण में न घोलें । यह एक तरह से छत्तीसगढ़ और खासकर वनांचलों में सक्रिय अतिवादियों को उकसाना भी हो सकता है, साथ भी आदिजनों के विश्वास पर कुठाराघात भी । आज समय की मांग है कि और संजय द्विवेदी जैसे युवा किन्तु समरस विचारों का अनुसमर्थन देना ही होगा । और ऐसा न करना भाषायी सांप्रदायिकता को भी प्रोत्साहित करना होगा ।
जब हम मातृभाषा और घर की भाषा की बात करते हैं तो उसमें घर, कुनबे, पास पड़ौस आदि की भाषा आ जाती है । जिसे हम घर और समाज से ग्रहण करते हैं । अधिकांशतः बच्चे जब स्कूल में प्रवेश के समय दो-तीन ऐसी भाषाओं को बोलने-समझने की क्षमता से लैश होते हैं । भिन्न प्रतिभा वाले बच्चे जो बोल नहीं पाते वे भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए उतने ही जटिल वैकल्पिक संकेतों और प्रतीकों का विकास कर लेते हैं । ऐसे समय भाषायें स्मृतिकोश की तरह काम करती हैं जिसमें अपने सहवक्ताओं से विरासत में मिले संकेतों के साथ-साथ जीवन-काल में बनाये गये संकेत भी शामिल होते हैं । ये वे माध्यम भी हैं जिनसे अधिकतर ज्ञान का निर्माण होता है । इसलिए इनका मनुष्य के विचार और उसकी अस्मिता से गहरा संबंध होता है कि बच्चे की मातृभाषा या मातृभाषाओं को नकारना या उनके ध्वस्तीकरण का प्रयास उसे अपने व्यक्तित्व मे हस्तक्षेप की तरह लगते हैं । सच यह भी है कि प्रभावी समझ और भाषाओं के प्रयोगों के माध्यम से बच्चे विचारों, व्यक्तियों, वस्तुओं और आसपास के संसार से अपने को जोड़ पाते हैं ।
जहाँ तक प्राथमिक शिक्षा और भाषा का प्रश्न है वहाँ द्विभाषी क्षमता मनुष्य की संज्ञानात्मक वृद्धि, सामाजिक सहिष्णुता, विस्तृत चिंतन और बौद्धिक उपलब्धियों का खास औज़ार है । यह केवल सदभावी विचार जनित कल्पना नहीं, उच्च अध्ययनों और शोधों का निष्कर्ष भी है । उसमें द्वंद्व, अविश्वास, सामुदायिक विभाजन की संभावना तलाशना केवल मूढ़ता है । जहाँ तक अँगरेज़ी को तवज्जो देने का सवाल है वह मुद्दा जनता की आकांक्षाओं का राजनीतिक प्रत्युत्तर है, न कि इसके पीछे अकादमिक या साध्यता का मुद्दा है । वह अन्य पश्चिमी भाषा में विद्यमान सौदर्य के अलावा वर्तमान विश्व समाज जो तकनीकी ज्ञान की गारंटी माँगता है व्यावसायिक दक्षता और कौशल के लिए भी आवश्यकता है । प्रकारांतर से वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भविष्य की पीढ़ी के लिए रोजी-रोटी की भाषा है । यह अलग बात है कि वह शासक की भाषा है और उसे हमने ही अन्य भारतीय भाषाओं और लोकभाषाओं को सरंक्षण न देकर विकसित करते रहे हैं पर आज के संदर्भ में उसे एकबारगी नहीं नकारा जा सकता है ।
(लेखक, शिक्षाविद् एवं साहित्यकार हैं)
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