संस्कृत भाषा का ध्वंसीकरण भारतीय संस्कृति का अधोपतन
डीएन राय
भारतीय संस्कृति के मर्यादा पुरुषोत्तम राम के मातुलालय, संस्कृत काव्य-कुल कौमुदी, वाल्मिकी, व्यास, कालिदास की साहित्य-सर्जना की पवित्रभूमि, प्राचीन काल में संस्कृत की अनगिनत इबारतों के गढ़ छत्तीसगढ़ में संस्कृत के पठन-पाठन को संकुचित करने का प्रस्ताव बेसुरा अलाप जैसा लगता है। समाचार पत्र 'हरिभूमि के स्थानीय संपादक संजय द्विवेदी की इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस छेड़ने की पहल समयोचित, सार्थक एवं स्वागतेय है।
संस्कृत भारत की संस्कृति है। वृहत्तर भारत अर्थात हिन्द-एशिया को सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान, पौराणिक विज्ञान, मानवीय चिंतन, दर्शन, चारित्रिक सात्विकता प्रदान करने वाली सुरभारती, प्राचीनता एवं व्यापकता में अन्यतमा है। संस्कृत के तात्विक गुणों ने ही अतिप्राचीन काल में चम्पा, मलाया, बोर्रान या सुमात्रा, जाबा, कम्बोडिया आदि सुदूर द्वीपों में इसे स्वीकार्य एवं व्यवहार्य बनाया था। इसकी प्राचीनता एवं उपयोगिता के मद्देनजर मध्य कालीन भारत के मुगल शासकों एवं शेरशाह सूरी जैसे गैर-हिन्दू हुक्मरानों ने भी संस्कृत को तवाो देकर इसके अक्षय साहित्य का तर्जुमा अपनी भाषाओं में कराया था। इसकी गुणवत्ता के ही कारण पाश्चात्य विद्वान मैक्समूलर ने कहा था कि अमृत मधुर होता है मगर संस्कृत उससे भी अधिक मधुर है। जर्मन देश के एक अन्य विद्वान ओपेन हावर ने लिखा है कि संस्कृत ग्रंथों में उपनिषदों के अनुशीलन से मेरे जीवन में वास्तविक शांति प्राप्त हुई है। जर्मन देश के ही प्रसिध्द कवि, गेटे ने कालिदास रचित शकुन्तला नाटक पढ़ने के बाद निम्नलिखित उद्गार प्रकट किया था-'यदि भूतल की समस्त आत्म रश्मियों को पीना चाहते हो, यदि आकाश में अनेकों निधि अमृत को पीना चाहते हो तो केवल एक साहित्य कलश शकुन्तला में डूब जाओ।
छत्तीसगढ़ जो प्राचीनकाल में दक्षिण कोशल कहलाता था, देवभाषा संस्कृत के गंथों की रचना का केंद्र स्थल था एवं इस पुण्य स्थली पर संस्कृत की अनेक अक्षय कृतियों की रचना हुई है। कहते हैं कि संस्कृत के महाकवि कालिदास ने प्रकृति की इसी लीलाभूमि में अपने 'मेघदूत की रचना की थी। मेघदूत में काव्यात्मक शैली एवं उपमा कालिदासस्य के तहत वर्णित शैव कालिदार को शायद अपने प्रतिद्वंद्वी बौध्द दिड़नाग से यही भिड़ंत हुई थी जिसमें यहां के उनके संस्कृत शिष्य निचुल ने उनके प्रतिद्वंद्वी को परास्त किया था। प्राचीन काल में दक्षिण कोसल के सुदीर्घ अंचल के पर्यटक, ह्वेनसांग ने लिखा है कि तब दक्षिण कोसल की राजधानी सिरपुर में अवस्थित थी। सिरपुर प्राचीन काल में बौध्दधर्म के दिग्गजों का वास स्थान था। कालिदास का काल ह्वेनसांग के पूर्व का समय है परंतु अन्य पुस्तकों के आधार पर विद्वानों ने यह पमाणित करने की कोशिश की है कि कालिदास बौध्द धर्म में मूर्ति पूजा विरोधी मनोभाव से अपरिचित नहीं थे एवं मेघदूत में वर्णित बौध्द दिनाग से कालिदास की मुठभेड़ का स्थान रायपुर का सिरपुर या इसके इर्द गिर्द मान लिया जाए तो यह बात तर्कविहीन नहीं होगी। अत: कभी संस्कृत के दिग्गजों के वास स्थान छत्तीसगढ़ में संस्कृत की अवमानना की बात बेमानी लगती है।
लोक भाषा का समादार लोकतंत्र के लिए लाजिमी होता है एवं सरकार ने छत्तीसगढ़ी भाषा को राजभाषा का दर्जा देकर अपने पवित्र कर्म को संपादित किया है और यह साधुवाद है। संदर्भत: यह उल्लेखनीय है कि अर्ध्दमागधी प्राकृत से निकली छत्तीसगढ़ी भाषा संस्कृत के निकट है। विषय की तह में जाने वाले छत्तीसगढ़ी भाषा के रिसर्चरों द्वारा संस्कृत से इस उपभाषा के तुलनात्मक अध्ययन के उपरांत यह जाहिर हो सकता है कि वाक्यविन्यास, तत्सम, तद्भव शब्दों के अपार भंडार के क्षेत्र में दोनों भाषाओं में समता एवं कहीं कहीं एकरूपता भी है। अत: छत्तीसगढ़ी की अभिवृध्दि के क्षेत्र में संस्कृत का गहन पठन-पाठन उपादेय होगा एवं छत्तीसगढ़ी-पौध को पुष्पित एवं फलप्रसु बनाने में संस्कृत उर्वरक का काम करेगी।
भाषा संवेदनशील मुद्दा है और इसे राजनीतिक ओछे केल भाषाई अतिवादिता एवं अंध राजभक्ति या सोवनिज्म से दूर ही रखना श्रोयस्कर है। छत्तीसगढ़ की अन्य बोलियों एवं ग्रामीण उपभाषाओं को नजर अंदाज करना राजभाषा छत्तीसगढ़ी की प्रगति को बाधित भी कर सकता है। छत्तीसगढ़ी भाषा के हिमायती प्रबुध्द लोगों को संस्कृत व इस अंचल की छोटी-बड़ी अन्य लोकसभाओं एवं ग्रामीण बोलियों को साथ लेकर चलना ही जनहित में मंगलकारी होगा। देश की बदनसीबी थी कि अंग्रेजी हुकुमत के शुरुआती दौर में ही मैकाले की शिक्षा-नीति ने भारत के ग्राम राजों, शहर, कस्बों में अवस्थित पाठशालाओं तथा टोलों में संचालित संस्कृत में शिक्षा की इतिश्री कर दी। गणतांत्रिक भारत में मुदालियर, कोठारी आदि शिक्षा-आयोगों ने संस्कृत शिक्षा के दृत गौरव को पुनर्जीवित नहीं किया। नई शिक्षा नीति में तो संस्कृत-शिक्षा की हालत बद से बदतर हो गई है।
(लेखक पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं)
संस्कृत भारत की संस्कृति है। वृहत्तर भारत अर्थात हिन्द-एशिया को सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान, पौराणिक विज्ञान, मानवीय चिंतन, दर्शन, चारित्रिक सात्विकता प्रदान करने वाली सुरभारती, प्राचीनता एवं व्यापकता में अन्यतमा है। संस्कृत के तात्विक गुणों ने ही अतिप्राचीन काल में चम्पा, मलाया, बोर्रान या सुमात्रा, जाबा, कम्बोडिया आदि सुदूर द्वीपों में इसे स्वीकार्य एवं व्यवहार्य बनाया था। इसकी प्राचीनता एवं उपयोगिता के मद्देनजर मध्य कालीन भारत के मुगल शासकों एवं शेरशाह सूरी जैसे गैर-हिन्दू हुक्मरानों ने भी संस्कृत को तवाो देकर इसके अक्षय साहित्य का तर्जुमा अपनी भाषाओं में कराया था। इसकी गुणवत्ता के ही कारण पाश्चात्य विद्वान मैक्समूलर ने कहा था कि अमृत मधुर होता है मगर संस्कृत उससे भी अधिक मधुर है। जर्मन देश के एक अन्य विद्वान ओपेन हावर ने लिखा है कि संस्कृत ग्रंथों में उपनिषदों के अनुशीलन से मेरे जीवन में वास्तविक शांति प्राप्त हुई है। जर्मन देश के ही प्रसिध्द कवि, गेटे ने कालिदास रचित शकुन्तला नाटक पढ़ने के बाद निम्नलिखित उद्गार प्रकट किया था-'यदि भूतल की समस्त आत्म रश्मियों को पीना चाहते हो, यदि आकाश में अनेकों निधि अमृत को पीना चाहते हो तो केवल एक साहित्य कलश शकुन्तला में डूब जाओ।
छत्तीसगढ़ जो प्राचीनकाल में दक्षिण कोशल कहलाता था, देवभाषा संस्कृत के गंथों की रचना का केंद्र स्थल था एवं इस पुण्य स्थली पर संस्कृत की अनेक अक्षय कृतियों की रचना हुई है। कहते हैं कि संस्कृत के महाकवि कालिदास ने प्रकृति की इसी लीलाभूमि में अपने 'मेघदूत की रचना की थी। मेघदूत में काव्यात्मक शैली एवं उपमा कालिदासस्य के तहत वर्णित शैव कालिदार को शायद अपने प्रतिद्वंद्वी बौध्द दिड़नाग से यही भिड़ंत हुई थी जिसमें यहां के उनके संस्कृत शिष्य निचुल ने उनके प्रतिद्वंद्वी को परास्त किया था। प्राचीन काल में दक्षिण कोसल के सुदीर्घ अंचल के पर्यटक, ह्वेनसांग ने लिखा है कि तब दक्षिण कोसल की राजधानी सिरपुर में अवस्थित थी। सिरपुर प्राचीन काल में बौध्दधर्म के दिग्गजों का वास स्थान था। कालिदास का काल ह्वेनसांग के पूर्व का समय है परंतु अन्य पुस्तकों के आधार पर विद्वानों ने यह पमाणित करने की कोशिश की है कि कालिदास बौध्द धर्म में मूर्ति पूजा विरोधी मनोभाव से अपरिचित नहीं थे एवं मेघदूत में वर्णित बौध्द दिनाग से कालिदास की मुठभेड़ का स्थान रायपुर का सिरपुर या इसके इर्द गिर्द मान लिया जाए तो यह बात तर्कविहीन नहीं होगी। अत: कभी संस्कृत के दिग्गजों के वास स्थान छत्तीसगढ़ में संस्कृत की अवमानना की बात बेमानी लगती है।
लोक भाषा का समादार लोकतंत्र के लिए लाजिमी होता है एवं सरकार ने छत्तीसगढ़ी भाषा को राजभाषा का दर्जा देकर अपने पवित्र कर्म को संपादित किया है और यह साधुवाद है। संदर्भत: यह उल्लेखनीय है कि अर्ध्दमागधी प्राकृत से निकली छत्तीसगढ़ी भाषा संस्कृत के निकट है। विषय की तह में जाने वाले छत्तीसगढ़ी भाषा के रिसर्चरों द्वारा संस्कृत से इस उपभाषा के तुलनात्मक अध्ययन के उपरांत यह जाहिर हो सकता है कि वाक्यविन्यास, तत्सम, तद्भव शब्दों के अपार भंडार के क्षेत्र में दोनों भाषाओं में समता एवं कहीं कहीं एकरूपता भी है। अत: छत्तीसगढ़ी की अभिवृध्दि के क्षेत्र में संस्कृत का गहन पठन-पाठन उपादेय होगा एवं छत्तीसगढ़ी-पौध को पुष्पित एवं फलप्रसु बनाने में संस्कृत उर्वरक का काम करेगी।
भाषा संवेदनशील मुद्दा है और इसे राजनीतिक ओछे केल भाषाई अतिवादिता एवं अंध राजभक्ति या सोवनिज्म से दूर ही रखना श्रोयस्कर है। छत्तीसगढ़ की अन्य बोलियों एवं ग्रामीण उपभाषाओं को नजर अंदाज करना राजभाषा छत्तीसगढ़ी की प्रगति को बाधित भी कर सकता है। छत्तीसगढ़ी भाषा के हिमायती प्रबुध्द लोगों को संस्कृत व इस अंचल की छोटी-बड़ी अन्य लोकसभाओं एवं ग्रामीण बोलियों को साथ लेकर चलना ही जनहित में मंगलकारी होगा। देश की बदनसीबी थी कि अंग्रेजी हुकुमत के शुरुआती दौर में ही मैकाले की शिक्षा-नीति ने भारत के ग्राम राजों, शहर, कस्बों में अवस्थित पाठशालाओं तथा टोलों में संचालित संस्कृत में शिक्षा की इतिश्री कर दी। गणतांत्रिक भारत में मुदालियर, कोठारी आदि शिक्षा-आयोगों ने संस्कृत शिक्षा के दृत गौरव को पुनर्जीवित नहीं किया। नई शिक्षा नीति में तो संस्कृत-शिक्षा की हालत बद से बदतर हो गई है।
(लेखक पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं)
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