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गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

संपादक के विस्थापन का कठिन समय!

                                                         हिंदी पत्रकारिता के 200 साल

-प्रो.संजय द्विवेदी




     हिंदी पत्रकारिता के 200 साल की यात्रा का उत्सव मनाते हुए हमें बहुत से सवाल परेशान कर रहे हैं जिनमें सबसे खास है संपादक का विस्थापन। बड़े होते मीडिया संस्थान जो स्वयं में एक शक्ति में बदल चुके हैं, वहां संपादक की सत्ता और महत्ता दोनों कम हुई है। अखबारों से खबरें भी नदारद हैं और विचार की जगह भी सिकुड़ रही है। बहुत गहरे सौंदर्यबोध और तकनीकी दक्षता से भरी प्रस्तुति के बाद भी अखबार खुद को संवाद के लायक नहीं बना पा रहे हैं। यह ऐसा कठिन समय है जिसमें रंगीनियां तो हैं पर गहराई नहीं। हर तथ्य और कथ्य का बाजार पहले ढूंढा जा रहा है, लिखा बाद में जा रहा है।

   नए समय में पत्रकारिता को सिर्फ कौशल या तकनीक के सहारे चलाने की कोशिशें हो रही हैं। जबकि पत्रकारिता सिर्फ कौशल नहीं बहुत गहरी संवेदना के साथ चलने वाली विधा है। जहां शब्द हैं, विचार हैं और उसका समाज पर पड़ने वाला प्रभाव है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या पत्रकारिता के पारंपरिक मूल्य और सिद्धांत अप्रासंगिक हो गए हैं या नए जमाने में ऐसा सोचना ठीक नहीं है। डिजीटल मीडिया की मोबाइल जनित व्यस्तता ने पढ़ने, गुनने और संवाद का सारा समय खा-पचा लिया है। जो मोबाइल पर आ रहा है,वही हमें उपलब्ध है। हम इसी से बन रहे हैं, इसी को सुन और गुन रहे हैं। ऐसे खतरनाक समय में जब अखबार पढ़े नहीं, पलटे जाने की भी प्रतीक्षा में हैं। दूसरी ओर वाट्सअप में अखबारों के पीडीएफ तैर रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो पीडीएफ पर ही छपते हैं। अखबारों को हाथ में लेकर पढ़ना और ई-पेपर की तरह पढ़ना दोनों के अलग अनुभव हैं। नई पीढ़ी मोबाइल सहज है। उसने मीडिया घरानों के एप मोबाइल पर ले रखे हैं। वे अपने काम की खबरें देखते हैं। न्यूज यू कैन यूज का नारा अब सार्थक हुआ है। खबरें भी पाठकों को चुन रही हैं और पाठक भी खबरों को चुन रहे हैं। यह कहना कठिन है कि अखबारों की जिंदगी कितनी लंबी है। 2008 में प्रिंट इज डेट किताब लिखकर जे. गोमेज इस अवधारणा को बता चुके हैं।

   सवाल यह नहीं है कि अखबार बचेंगे या नहीं मुद्दा यह है कि पत्रकारिता बचेगी या नहीं। उसकी संवेदना, उसका कहन, उसकी जनपक्षधरता बचेगी या नहीं। संपादक की सत्ता पत्रकारिता की इन्हीं भावनाओं की संरक्षक थी। संपादक अखबार की संवेदना, भाषा, उसके वैचारिक नेतृत्व,समाजबोध का संरक्षण करता था। उसकी विदाई के साथ कई मूल्य भी विदा हो जाएंगें। गुमनाम संपादकों को अब लोग समाज में नहीं जानते हैं। खासकर हिंदी इलाकों में अब पहचान विहीन और ब्रांड वादी अखबार निकाले जा रहे हैं। अब संपादक के होने न होने से फर्क नहीं पड़ता। उसके लिखने न लिखने से भी फर्क नहीं पड़ता। न लिखे तो अच्छा ही है। पहचानविहीन चेहरों की तलाश है, जो अखबार के ब्रांड को चमका सकें। संपादक की यह विदाई अब उस तरह से याद भी नहीं की जाती। पाठकों ने नए अखबार के साथ अनुकूलन कर लिया है। नया अखबार पहले पन्ने पर भी किसी भी प्रोडक्ट का एड छाप सकता है, संपादकीय पन्ने को आधा कर विचार को हाशिए लगा सकता है। खबरों के नाम पर एजेंडा चला सकता है। सत्य के बजाए यह नरेटिव के साथ खड़ा है। यहां सत्य रचे और तथ्य गढ़े जा सकते हैं। उसे बीते हुए समय से मोह नहीं है वह नए जमाने का नया अखबार है। वह विचार और समाचार नहीं कंटेट गढ़ रहा है। उसे बाजार में छा जाने की ललक है। उसके टारगेट पर खाये-अघाए पाठक हैं जो उपभोक्ता में तब्दील होने पर आमादा हैं। उसके कंटेंट में लाइफ स्टाइल की प्रमुखता है। वह जिंदगी को जीना और मौज सिखाने में जुटा है। इसलिए उसका जोर फीचर पर है, अखबार को मैग्जीन बनाने पर है। अखबार बहुत पहले रंगीन हो चुका है, उसका सारा ध्यान अब अपने सौंदर्यबोध पर है। वह प्रजेंटेबल बनना चाहता है। अपनी समूची प्रस्तुति में ज्यादा रोचक और ज्यादा जवान। उसे लगता है कि उसे सिर्फ युवा ही पढ़ते हैं और वह यह भी मानकर चलता है कि युवा को गंभीर चीजें रास नहीं आतीं।

    यह नया अखबार अब संपादक की निगरानी से मुक्त है। मूल्यों से मुक्त। संवेदनाओं से मुक्त। भाषा के बंधनों से मुक्त। यह भाषा सिखाने नहीं बिगाड़ने का माध्यम बन रहा है। मिश्रित भाषा बोलता हुआ। संपादक की विदा के बहुत से दर्द हैं जो दर्ज नहीं है। नए अखबार ने मान लिया है कि उसे नए पाठक चुनने हैं। बनाना है उन्हें नागरिक नहीं, उपभोक्ता। ऐसे कठिन समय में अब सक्रिय पाठकों का इंतजार है। जो इस बदलते अखबार की गिरावट को रोक सकें। जो उसे बता सकें कि उसे दृश्य माध्यमों से होड़ नहीं करनी है। उसे शब्दों के साथ होना है। विचार के साथ होना है।

   हिंदी के संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने कहा था, ‘‘पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र सर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है।

    श्री पराड़कर की यह भविष्यवाणी आज सच होती हुई दिखती है। समानांतर प्रयासों से कुछ लोग विचार की अलख जगाए हुए हैं। लेकिन जरूरी है कि हम अपने पाठकों के सक्रिय सहभाग से मूल्य आधारित पत्रकारिता के लिए आगे आएं। तभी उसकी सार्थकता है।

 

रामबहादुर राय होने का अर्थ समझाती एक किताब

‘दिल्ली’ में ‘भारत’ को जीने वाला बौद्धिक योद्धा!

-प्रोफेसर संजय द्विवेदी


   कभी जनांदोलनों से जुड़े रहे, पदम भूषण और पद्मश्री सम्मानों से अलंकृत श्री रामबहादुर राय का समूचा जीवन रचना, सृजन और संघर्ष की यात्रा है। उनकी लंबी जीवन यात्रा में सबसे ज्यादा समय उन्होंने पत्रकार के रूप में गुजारा है। इसलिए वे संगठनकर्ता, आंदोलनकारी, संपूर्ण क्रांति के नायक के साथ-साथ महान पत्रकार हैं और लेखक भी। अपने समय के नायकों से निरंतर संवाद और साहचर्य ने उनके लेखन को समृद्ध किया है। हमारे समय में उनकी उपस्थिति ऐसे नायक की उपस्थिति है, जिसके सान्निध्य का सुख हमारे जीवन को शक्ति और लेखन को खुराक देता है। उनका समावेशी स्वभाव, मानवीय संवेदना से रसपगा व्यक्तित्व भीड़ में उन्हें अलग पहचान देता है। ‘दिल्ली’ में ‘भारत’ को जीने वाले बौद्धिक योद्धा के रूप में पूरा देश उन्हें देखता, सुनता और प्रेरणा लेता है। जिस दौर की पत्रकारिता की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता पर ढेरों सवाल हों, ऐसे समय में राम बहादुर राय की उपस्थिति हमें आश्वस्त करती है कि सारा कुछ खत्म नहीं हुआ है। सही मायने में उनकी मौजूदगी हिन्दी पत्रकारिता की उस परंपरा की याद दिलाती है, जो बाबूराव विष्णुराव पराड़कर से होती हुई राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी तक जाती है।

   4 फरवरी, 1946 को उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के एक गांव में जन्में श्री राय सही मायने में पत्रकारिता क्षेत्र में शुचिता और पवित्रता के जीवंत उदाहरण हैं। वे एक अध्येता, लेखक, दृष्टि संपन्न संपादक, मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में प्रेरक छवि रखते हैं। भारतीय जीवन मूल्यों और पत्रकारिता के उच्च आदर्शों को जीवन में उतारने वाले रामबहादुर राय ने राजनीति के शिखर पुरुषों से रिश्तों के बावजूद कभी कलम को ठिठकने नहीं दिया। उन्होंने वही लिखा और कहा जो उन्हें सच लगा। राय साहब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर छात्र राजनीति में सक्रिय रहते हुए, ऐतिहासिक जयप्रकाश आंदोलन के नायकों में रहे। दैनिक 'आज' में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का आंखों देखा वर्णन लिखकर आपने अपनी पत्रकारीय पारी की एक सार्थक शुरुआत की। युगवार्ता फीचर सेवा, हिन्दुस्तान समाचार संवाद समिति में कार्य करने के बाद आप 'जनसत्ता' से जुड़ गए। 'जनसत्ता' में एक संवाददाता के रूप में कार्य प्रारंभ कर वे उसी संस्थान में मुख्य संवाददाता, समाचार ब्यूरो प्रमुख, संपादक, जनसत्ता समाचार सेवा के पदों पर रहे। आप नवभारत टाइम्स, दिल्ली में विशेष संवाददाता भी रहे। आप देश की अनेक सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हैं जिनमें प्रज्ञा संस्थान, युगवार्ता ट्रस्ट, दशमेश एजुकेशनल चेरिटेबल ट्रस्ट, इंडियन नेशनल कमीशन फॉर यूनेस्को, प्रभाष परंपरा न्यास, भानुप्रताप शुक्ल न्यास के नाम प्रमुख हैं।

   आपकी चर्चित किताबों में आजादी के बाद का भारत झांकता है। ये किताबें राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र की मूल्यवान किताबें हैं। जिनमें भारतीय संविधानःएक अनकही कहानी, रहबरी के सवाल (पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जीवनी), मंजिल से ज्यादा सफर (पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह की जीवनी), काली खबरों की कहानी (पेड न्यूज पर केंद्रित), भानुप्रताप शुक्ल- व्यक्तित्व और विचार प्रमुख हैं। भारतीय पत्रकारिता की उजली परंपरा के नायक के रूप में रामबहादुर राय आज भी निराश नहीं हैं, बदलाव और परिवर्तन की चेतना उनमें आज भी जिंदा है। स्वास्थ्यगत समस्याओं के बावजूद आयु के इस मोड़ पर भी वे उतने ही तरोताजा हैं।

    पत्रकारिता के इस अनूठे नायक पर प्रो. कृपाशंकर चौबे की नई किताब ‘रामबहादुर रायःचिंतन के विविध आयाम’( प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित) उनके अवदान को अच्छी तरह से रेखांकित करती है। एक पत्रकार, संपादक, सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में बहुज्ञात राय साहब को इस तरह देखना निश्चित ही कृपाजी की उपलब्धि है। उनकी यह किताब राय साहब के संपूर्ण रचनाधर्मी स्वभाव का जिस तरह मूल्यांकन करती है, वह अप्रतिम है। किताब में उनका व्यक्तित्व, उनकी किताबें, उनके रिश्ते और रचना कर्म दिखता है। इस तरह यह किताब उन्हें जानने का सबसे बेहतरीन जरिया है। क्योंकि रामबहादुर राय जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व को आप उनकी किसी एक किताब, एक मुलाकात, एक व्याख्यान से नहीं समझ सकते। किंतु यह किताब बड़ी सरलता से उनके बारे में सब कुछ कह देती है। किताब में अंत में छपा उनका साक्षात्कार तो अद्भुत है, एक यात्रा की तरह और फीचर का सुख देता हुआ। संवाद ऐसा कि चित्र और दृश्य साकार हो जाएं। रामबहादुर राय से यह सब कुछ कहलवा लेना लेखक के बूते ही बात है। यह किताब एक बड़ी कहानी की तरह धीरे-धीरे खुलती है और मन में उतरती चली जाती है। किताब एक बैठक में उपन्यास का आस्वाद देती है, तो पाठ-दर पाठ पढ़ने पर कहानी का सुख देती है। यह एक पत्रकार की ही शैली हो सकती है कि इतने गूढ़ विषय पर इतनी सरलता से, सहजता से संचार कर सके। संचार की सहजता ही इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है। 

  किताब की सबसे बड़ी विशेषता इसकी समग्रता है। वह बताती है कि किसी खास व्यक्ति का मूल्यांकन किस तरह किया जाना चाहिए। हिंदी पत्रकारिता में आलोचना की परंपरा बहुत समृद्ध नहीं है। इसका कारण यह है कि साहित्यिक आलोचना में सक्रिय लोग पत्रकारिता को बहुत गंभीरता से नहीं लेते, मीडिया अध्ययन संस्थानों में भी पत्रकारों के काम पर शोध का अभ्यास नहीं है। ऐसे में यह किताब हमें पत्रकारीय व्यक्तित्व की आलोचना का पाठ भी सिखाती है। 11 अध्यायों में फैली इस किताब का हर अध्याय समग्रता लिए हुए है। हमारे बीते दिनों की यात्राएं, आजादी के बाद एक बनते हुए देश की चिंताएं, सरकारों की आवाजाही, हमारे नायकों की मनोदशा सबकुछ। पहले अध्याय में संघर्ष और सरोकार के तहत उनके बचपन,स्कूली शिक्षा,कालेज जीवन, अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद में उनकी सक्रियता, संघर्ष, जेल यात्रा सब कुछ जीवंत हो उठा है। उनके आंदोलनकारी और छात्र राजनीति के पक्ष को यहां समझा जा सकता है। जयप्रकाश नारायण से उनका रिश्ता कैसे उन्हें रूपांतरित करता है, कैसे वे आंदोलन के मार्ग से लोकजागरण के लिए पत्रकारिता के मार्ग पर आते हैं, इसे पढ़ना सुख देता है।

       अध्याय दो में ‘प्रश्नोत्तर शैली में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जीवनी’ शीर्षक अध्याय में राय साहब की किताब ‘रहबरी के सवाल’ की चर्चा है। चंद्रशेखर जी के साथ संवाद से बनी यह किताब राजनीति, समाज और समय के संदर्भों की अनोखी व्याख्या है। जहां संवाद एक तरह के शिक्षण में बदल जाता है। पुस्तक में एक भाषण में भारत को पारिभाषित करते हुए चंद्रशेखर जी कहते हैं,-“भारत सिर्फ मिट्टी का नाम नहीं है। कुछ नदियों और पहाड़ों का समुच्चय नहीं है। भारत सत्य, एक सतत, शास्वत गवेषणा का नाम है। सत्य की इस धारा से दुनिया बार-बार आलोकित होती रही है।”

   अध्याय तीन में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की जीवनी (मंजिल से ज्यादा सफर) भी संवाद शैली में ही लिखी गयी है। इस स्तर के राजनेताओं के अनुभव निश्चय ही हमें समृद्ध करते हैं। क्योंकि वे आजादी के बाद के भारत की राजनीति, संसद और समाज की गहरी समझ लेकर आते हैं। पत्रकार राय साहब इस तरह समाजविज्ञानियों और राजनीतिशास्त्रियों के लिए मौलिक पाठ रचते नजर आते हैं। इस किताब की भूमिका में यशस्वी संपादक प्रभाष जोशी लिखते हैं -“रामबहादुर राय देश के एक बहुत विश्वसनीय और प्रामाणिक पत्रकार हैं। यह जल्दी में काता-कूता कपास नहीं है। बड़े जतन से बुनी गयी चादर है। ”

अध्याय चार और पांच महान समाजवादी चिंतक और राजनेता जेबी कृपलानी और जयप्रकाश नारायण को समझने में मदद करते हैं। अध्याय –छह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे बालासाहब देवरस की विचार दृष्टि पर चर्चा है। यह पाठ ‘हमारे बालासाहब देवरस’ नामक पुस्तक पर केंद्रित है जिसका संपादन राय साहब और राजीव गुप्ता ने किया था। अध्याय सात में गोविंदाचार्य पर संपादित किताब की चर्चा है। गोविंदाचार्य के बहाने यह किताब राजनीति की लोकसंस्कृति पर विमर्श खड़ा करती है। अध्याय आठ में पड़ताल शीर्षक से छपे उनके स्तंभ का विश्वेषण है। इस स्तंभ पर केंद्रित चार पुस्तकें अरुण भारद्वाज के संपादन में प्रकाशित हुई हैं। जिनका प्रो. कृपाशंकर चौबे ने नीर-क्षीर विवेचन किया है। अध्याय- नौ में राय साहब की बहुचर्चित किताब ‘भारतीय संविधान- एक अनकही कहानी’ की चर्चा है। इस किताब में संविधान सभा की बहसें हमारे सामने चलचित्र की तरह चलती हैं। बहुत मर्यादित और गरिमामय टिप्पणियों के साथ। शायद लेखक चाहते हैं कि उनके पाठक भी वही भाव और स्पंदन महसूस कर सकें, जिसे संविधान सभा में उपस्थित महापुरुषों ने उस समय महसूस किया होगा। रामबहादुर जी की कलम उस ताप को ठीक से महसूस और व्यक्त करती है। जैसे राजेंद्र प्रसाद जी को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष बनाते समय श्री सच्चिदानंद सिन्हा और अंत में बोलने वाली भारत कोकिला सरोजनी नायडू जी के वक्तव्य को पढ़ते हुए होता है। अध्याय-10 में राय साहब के निबंधों की चर्चा है। अध्याय-11 में राय साहब से कृपाशंकर जी का संवाद अद्भुत है। उसे पढ़ना पत्रकारिता में उनके अनुभवों के साथ बहुत सी बातें सामने आती हैं। खासकर नवभारत टाइम्स के संपादक राजेंद्र माथुर की मृत्य के कारणों पर उन्होंने जो कहा वह बहुत साहसिक है। यह वही समय है जब हमारी पत्रकारिता से संपादक के विस्थापन और कारपोरेट के पंजों की पकड़ मजबूत हो रही है। 

   अपनी आधी सदी की पत्रकारिता में रामबहादुर राय ने जिन आदर्शों और लोकधर्म का पालन किया है, यह किताब उनके जीवन मूल्यों को लोक तक लाने में सफल रही है। इस बहाने उनके जीवन, कृतित्व और सरोकारों से परिचित होने का मौका यह पुस्तक दे रही है। लेखक को इस शानदार किताब के लिए बधाई। राय साहब  के लिए प्रार्थनाएं कि वे शतायु हों।

शुक्रवार, 31 मई 2024

राजनीति में भी चमके मीडिया के सितारे

 

- प्रो. (डा.) संजय द्विवेदी

      इन दिनों देश में लोकतंत्र का महापर्व चल रहा है। राजनीति का आकर्षण प्रबल है। सिने कलाकार, साहित्यकार, वकील, न्यायाधीश, खिलाड़ी, गायक, उद्योगपति सब क्षेत्रों के लोग राजनीति में हाथ आजमाना चाहते हैं। ऐसा ही हाल पत्रकारिता के सितारों का भी है। मीडिया और पत्रकारिता के अनेक चमकीले नाम राजनीति के मैदान में उतरे और सफल हुए।

     आजादी के आंदोलन में तो मीडिया को एक तंत्र की तरह इस्तेमाल करने के लिए प्रायः सभी वरिष्ठ राजनेता पत्रकारिता से जुड़े और उजली परंपराएं खड़ी कीं। बालगंगाधर तिलक, महात्मा गांधी से लेकर सुभाष चन्द्र बोस, महामना पं.मदनमोहन मालवीय, पंडित नेहरू सभी पत्रकार थे। आजादी के बाद बदलते दौर में पत्रकारिता और राजनीति की राहें अलग-अलग हो गईं, लेकिन सत्ता का आकर्षण बढ़ गया। जनपक्ष, राष्ट्र सेवा की पत्रकारिता अब आजाद भारत में राष्ट्र निर्माण का भाव भरने में लगी थी। सेवा राजनीति के माध्यम से भी की जा सकती है, यह भाव भी प्रबल हुआ।



मूल्यों पर अटलरहने वाले वाजपेयी’-

     राजनीतिक दलों से संबंधित समाचार पत्रों, पत्रिकाओं के अलावा मुख्यधारा की पत्रकारिता से भी लोग राजनीति में आए, जिसमें सबसे खास नाम श्री अटल बिहारी वाजपेयी का है।वे  'वीर अर्जुन' जैसे दैनिक अखबार के संपादक थे। इसके साथ ही वे 'स्वदेश', 'पांचजन्य' और 'राष्ट्रधर्म' के भी संपादक भी थे। वे जहां संसदीय राजनीति के लंबे अनुभव के साथ प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री भी रहे, तो वहीं भाजपा के संस्थापक अध्यक्ष भी थे। पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी भी 'हिंदुस्तान समाचार' और 'ऑर्गनाइजर' से संबद्ध थे, फिर राजनीति में आए।

  कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष रहे पं.कमलापति त्रिपाठी जाने-माने पत्रकार थे। आज(वाराणसी) के संपादक के रूप में उन्होंने ख्याति अर्जित की। बाद में वे लोकसभा के सदस्य चुने गए और केंद्र सरकार में मंत्री भी रहे। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने दैनिक 'लोकमत', साप्ताहिक 'सारथी' और 'श्री शारदा' के संपादक के रूप में ख्याति अर्जित की।तत्कालीन विंध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शंभूनाथ शुक्ल बाद में बने मध्यप्रदेश में मंत्री और सांसद रहे। 'विशाल भारत' के संपादक रहे बनारसी दास चतुर्वेदी दो बार राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। गणेश शंकर विद्यार्थी के शिष्य बालकृष्ण शर्मा नवीन 'प्रताप' के संपादक थे और कांग्रेस से राज्यसभा पहुंचे। महाराष्ट्र का दर्डा परिवार राजनीति में अग्रणी स्थान रखता है । 'लोकमत' समाचार के संस्थापक जवाहरलाल दर्डा, राजेन्द्र दर्डा और विजय दर्डा सांसद, विधायक और मंत्री रहे। 'विजया कर्नाटक' और 'कन्नड़ प्रभा' अखबार से जुड़े रहे प्रताप सिम्हा भाजपा से दो बार लोकसभा पहुंचे। उनका नाम चर्चा में तब आया, जब उनके द्वारा अनुमोदित विजिटर पास से दो युवकों ने नई संसद में पहुंच कर हंगामा किया। अंग्रेजी के नामवर पत्रकार खुशवंत सिंह राज्यसभा के लिए मनोनीत सदस्य के रूप राष्ट्रपति द्वारा नामित किए गए। सपा ने दैनिक जागरण के मालिकों में एक महेंद्र मोहन गुप्त को उप्र से राज्यसभा भेजा।

मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ तक सितारों की जगमगाहट-



     मूलतः पत्रकारिता से सार्वजनिक जीवन में आए मोतीलाल वोरा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री और लंबे समय तक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष थे। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने रायपुर से 'दैनिक महाकौशल' अखबार निकाला। भाजपा के मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद बने लखीराम अग्रवाल ने बिलासपुर से 'लोकस्वर' अखबार निकाला। बिलासपुर के पत्रकार बीआर यादव मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री और चार बार विधायक चुने गए। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी नवभारत, नागपुर के संपादक थे और बाद में सांसद बने। नवीन दुनिया, जबलपुर के संपादक मुंदर शर्मा विधायक और सांसद दोनों पदों पर चुने गए। जबलपुर से प्रहरी (साप्ताहिक) के संपादक रहे उसी शहर से मेयर और 2 बार राज्यसभा के सदस्य थे।

     बिलासपुर के रहने वाले कवि, पत्रकार श्रीकांत वर्मा कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और राज्यसभा के सदस्य बने। वे 'दिनमान' के संपादक मंडल में रहने के बाद राजनीति में आए थे । छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के रहने वाले चंदूलाल चंद्राकर दैनिक 'हिन्दुस्तान' के संपादक बने। बाद में कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा में भेजा। चंद्राकर, राजीव गांधी की सरकार में मंत्री भी बने किंतु एक विवाद में नाम आने पर उनका इस्तीफा ले लिया गया। नवभारत से जुड़े रहे राजनांदगांव के पत्रकार लीलाराम भोजवानी छत्तीसगढ़ सरकार में श्रम मंत्री थे। 'देशबन्धु' में पत्रकारिता का पाठ पढ़ने वाले चंद्रशेखर साहू छत्तीसगढ़ से सांसद, मंत्री और विधायक बने। मध्यप्रदेश में सीहोर के पत्रकार शंकर लाल साहू विधायक थे। दमोह के आनंद श्रीवास्तव भी पत्रकार थे, बाद में विधायक बने। त्रिभुवन यादव पिपरिया से विधायक बने। कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे और दो बार विधायक चुने गए विष्णु राजोरिया मूलतः पत्रकार ही हैं, बाद में उन्होंने 'शिखर वार्ता' पत्रिका भी निकाली। मप्र में ही केएन प्रधान सांसद, विधायक और मंत्री भी थे। नागपुर के अंग्रेजी अखबार 'हितवाद' के प्रकाशन करने वाले बनवारी लाल पुरोहित कांग्रेस और भाजपा दोनों से लोकसभा पहुंचे। संप्रति वे पंजाब के राज्यपाल हैं।

भाजपा हो या कांग्रेस, सबने दिये मौके-



कांग्रेस ने अंग्रेजी के दिग्गज पत्रकार कुलदीप नैयर, एचके दुआ (हिंदुस्तान टाइम्स), हिंदी के राजीव शुक्ला, प्रफुल्ल कुमार माहेश्वरी, मराठी के कुमार केतकर आदि को राज्यसभा से नवाजा। राजीव शुक्ला मनमोहन सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहे। शिवसेना से अंग्रेजी के पत्रकार और फिल्ममेकर प्रतीश नंदी राज्यसभा पहुंचे। पांचवा स्तंभ नामक मासिक पत्रिका निकालने वाली मृदुला सिन्हा गोवा की राज्यपाल बनीं। चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय भी जनता दल से फरूखाबाद से लोकसभा पहुंचे। वरिष्ठ पत्रकार संजय निरुपम भी लोकसभा पहुंचे, वे मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। 'सामना' के संपादक संजय राऊत अपने धारदार बयानों के लिए लोकप्रिय हैं, वे भी उद्धव ठाकरे की शिवसेना से राज्यसभा सदस्य हैं। जनता दल (यू) ने प्रभात खबर के संपादक रहे हरिवंश नारायण सिंह को दो बार राज्यसभा भेजा, वे इन दिनों राज्यसभा के उपसभापति भी हैं। 'ऑर्गनाइजर' के संपादक रहे श्री के.आर.मलकानी बाद में राज्यसभा पहुंचे। भारतीय जनता पार्टी ने अरूण शौरी, चंदन मित्रा, स्वप्नदास गुप्ता, दीनानाथ मिश्र, बलबीर पुंज, राजनाथ सिंह सूर्य, नरेन्द्र मोहन, प्रभात झा, तरुण विजय को राज्यसभा भेजा। शौरी वाजपेयी सरकार में संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री थे। उनके पास विनिवेश मंत्री का कार्यभार भी था। इनमें चंदन मित्रा बाद में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए, जबकि पुंज और झा पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी मनोनीत हुए। प्रभात झा मध्यप्रदेश भाजपा के चर्चित अध्यक्ष भी थे। भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों में रह चुके वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर किशनगंज से कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंचे। बाद में भाजपा ने उन्हें राज्यसभा भेजा और विदेश राज्यमंत्री बनाया। मोदी सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य कर चुके रमेश पोखरियाल निशंक का पत्रकारिता से गहरा नाता रहा है। वे दैनिक जागरण से जुड़े थे, साथ ही स्वयं का सीमांत वार्ता नाम का अखबार भी प्रकाशित किया।हिमाचल प्रदेश के उप मुख्यमंत्री मुकेश कौशिक भी मूलतः पत्रकार हैं। वह दिल्ली और शिमला में पत्रकारिता की लंबी पारी के बाद राजनीति में आए। हरियाणा के अंबाला लोकसभा क्षेत्र से 2014 में भाजपा सांसद चुने गए अश्विनी कुमार अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन 'पंजाब केसरी' के माध्यम से की गई उनकी धारदार पत्रकारिता लोगों के जेहन में है। 'इकोनॉमिक टाइम्स' में रहे देवेश कुमार बिहार में भाजपा से विधान परिषद में है और प्रदेश महामंत्री भी हैं। हरियाणा सरकार में वित्त मंत्री बने कैप्टन अभिमन्यु भी दैनिक 'हरिभूमि' के संपादक, प्रकाशक थे।

क्षेत्रीय दलों ने भी दिए अवसर-



तृणमूल कांग्रेस ने हाल में ही अंग्रेजी की पत्रकार सागरिका घोष को राज्यसभा भेजा है। इसके पूर्व उर्दू  पत्रकारिता से जुड़े रहे नदीमुल हक भी तृणमूल से राज्यसभा पहुंचे। हिंदी अखबार 'सन्मार्ग' के मालिक विवेक गुप्ता तृणमूल से सांसद भी रहे, अब विधानसभा में हैं। कुणाल घोष भी इसी दल से राज्यसभा पहुंचे।   उर्दू के पत्रकार शाहिद सिद्दीकी (उर्दू नई दुनिया) सपा से, तो मीम अफजल (अखबार-ए-नौ) कांग्रेस से राज्यसभा पहुंचे। शाहिद सपा, कांग्रेस, आरएलडी की परिक्रमा करके फिर सपा में हैं। आंध्र प्रदेश से छपने वाले तेलुगु अखबार 'वार्ता' के संपादक गिरीश सांघी कांग्रेस से राज्यसभा हो आए। पत्रकारिता से जुड़े रहे तेलंगाना के के. केशवराव कांग्रेस और टीआरएस दोनों दलों से राज्यसभा जा चुके हैं। कोलकाता के पत्रकार अहमद सईद मलीहाबादी भी राज्यसभा पहुंचे। जनता दल (यूनाइटेड) से एजाज अली भी राज्यसभा (2008 से 2010) में रहे। टीवी पत्रकार मनीष सिसोदिया आम आदमी पार्टी के दिग्गज नेताओं में हैं और दिल्ली सरकार में उपमुख्यमंत्री बने। संप्रति वे शराब घोटाले के आरोप में तिहाड़ जेल में हैं।

      कुछ पत्रकार लोकसभा चुनाव लड़कर भी संसद नहीं पहुंच पाए। जैसे वरिष्ठ पत्रकार उदयन शर्मा, सुप्रिया श्रीनेत (कांग्रेस), साजिया इल्मी, आशीष खेतान, आशुतोष (आप), और सीमा मुस्तफा जनता दल के टिकट पर लोकसभा नहीं पहुंच सके। साजिया अब बीजेपी में आ चुकी हैं।

कुछ ने नेपथ्य में तलाशी संभावनाएं-



   अनेक दिग्गज पत्रकार चुनावी समर में उतरने के बजाए नेपथ्य में ताकतवर रहे और अपने समय की राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते रहे। श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के साथ मीडिया सलाहकार एच.वाई. शारदा प्रसाद ने इंडियन एक्सप्रेस से अपना कैरियर प्रारंभ किया था। बाद में वे इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मासकम्युनिकेशन और नेशनल डिजाइन इंस्टीट्यूट की स्थापना में सहयोगी थे। उन्हें पद्मविभूषण से भी अलंकृत किया गया। इंडिया टुडे के पत्रकार सुमन दुबे भी राजीव गांधी के मीडिया सलाहकार थे। अब वे राजीव गांधी फाउंडेशन का काम देख रहे हैं। इसके अलावा प्रधानमंत्री कार्यालय में पदस्थ रहे अशोक टंडन, सुधीन्द्र कुलकर्णी,हरीश खरे, पंकज पचौरी, संजय बारू के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें टंडन और कुलकर्णी अटल जी के साथ और खरे,पचौरी, तथा बारू मनमोहन सिंह के साथ थे। बारू बाद में अपनी किताब द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर लिखकर विवादों में भी आए।

       राजनीति के मंच पर ऐसे अनेक सितारे चमके और अपनी जगह बनाई। तमाम ऐसे भी थे, जो पार्टी के प्रवक्ता या बौद्धिक कामों से संबद्ध थे। तमाम अज्ञात ही रह गये। राजनीति वैसे भी कठिन खेल है, संभावनाओं से भरा भी। किंतु सबको इसका फल मिले यह जरूरी नहीं। बावजूद इसके इसका आकर्षण कम नहीं हो रहा। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी कहते थे, "पत्रकार की पोलिटिकल लाइन तो ठीक है, पर पार्टी लाइन नहीं होनी चाहिए।" किंतु यह लक्ष्मण रेखा भी टूट रही है। क्यों, इस पर सोचिए जरूर।

रविवार, 30 जनवरी 2022

भारतबोध का नया समयः नए युगबोध का दस्तावेज

 

- इंदिरा दांगी

(समीक्षक देश की प्रख्यात कहानीकार एवं उपन्यासकार हैं। इन दिनों भोपाल में रहती हैं।)


   प्रोफेसर संजय द्विवेदी भारतीय पत्रकारिता के प्रतिष्ठित आचार्य हैं। उनकी नई पुस्तक भारतबोध का नया समयके पहले आलेख में (जो कि पुस्तक का शीर्षक भी है) मीडिया आचार्य संजय द्विवेदी वसुधैव कुटुम्बकम् (धरती मेरा घर है) की उपनिषदीय अवधारणा को बताते हुए इस धरा को, इस धरती को ऋषियों-ज्ञानियों की जननी मानते हैं और इसी का परिणाम वे मानते हैं कि इस देश में राजसत्तायें भी लोकसत्तायें रही हैं। आलेख पुनर्जागरण से ही निकलेंगी राहेंमें लेखक प्रसिद्ध विचार गुलामी आर्थिक नहीं सांस्कृतिक होती हैकी रोशनी में अपनी बात रखते हैं। अपनी संस्कृति को लेकर नए समय के लोगों में जो हीनताबोध है, वही लेखक की चिंता है।

आज़ादी की ऊर्जा का अमृतआलेख में लेखक स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर पुरोधाओं की महान परंपरा को कृतज्ञता से याद करते हैं। और एकदम यहां अनायास ही अपने पढ़ने वालों के जहन में एक सवाल भी छोड़ते चलते हैं। इस आलेख में स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर सिर्फ कुछ गिने हुए महापुरुषों और हाईलाइट्सवाले आन्दोलनों का ही नाम नहीं लिया गया है, बल्कि वे जो सच्चे लोकनायक थे, जिनकी सब लड़ाईयां और शहादतें देश के लिए थीं, उन्हें भी समतुल्य खड़ा किया गया है। जय-विजय के बीच हम सबके रामआलेख पढ़ते हुए मुझे पंडित विद्यानिवास मिश्र का निबंध मेरे राम का मुकुट भीग रहा हैयाद आने लगता है। लेखक ने यहां तुलसी के राम, कबीर के राम, रहीम के राम से लेकर गांधी और लोहिया के राम तक को याद किया है।

गौसंवर्धन से निकलेंगी समृद्धि की राहेंआलेख न सिर्फ गौवंश पर आधारित भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अवलोकन करता है, वरन विश्व अर्थव्यवस्था में गाय के महत्त्व के साथ ही साथ उसके औषधीय महत्त्व पर भी रोशनी डालता है। एकात्म मानव दर्शन और मीडिया दृष्टिलेख में एक बहुत ही जरूरी बात है कि मीडिया की दृष्टि लोकमंगल की हो, समाज के शुभ की हो। इसी तरह चुनी हुई चुप्पियों का समयएक बहुत ही प्रासंगिक और समसमायिक आलेख है, और साथ ही इसकी विषय वस्तु कालातीत है। अद्भुत अनुभव है योगलेख को पढ़ते हुए आप इस पुस्तक में उस मुकाम तक पहुंच जाएंगे, जहां आपको लगेगा कि गौसंवर्धन का अर्थशास्त्रीय पहलू हो या नई शिक्षा नीति की बात या फिर वर्तमान राजनीति का सिनारियो या फिर विश्व योग के सिरमौर भारत पर चर्चाये पुस्तक वास्तव में इस नये समय में नये भारत को समझने में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

मोदी की बातों में माटी की महकआलेख में लेखक भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी के जननायक हो जाने के सफर की पड़ताल करते हुए उनकी भाषण कला, देहभाषा और लोकविमर्श की शक्ति पर चर्चा करते हैं। खुद को बदल रहे हैं अखबारलेख में ई-पत्रकारिता के इस दौर में परंपरागत समाचार पत्रों को नये समय की चुनौतियों से रूबरू कराते हैं द्विवेदी जी। अगले लेख पत्रकारिता में नैतिकतामें जहां आचार्य द्विवेदी ग्रामीण पत्रकारिता की उपेक्षा की बात करते हैं, वहां मुझे याद आता है कि जब किसी छोटी जगह पर कोई बड़ा आयोजन होता है या कोई राजनेता जाता है तो रिपोर्टिंग करने के लिए स्टेट या राजधानी से पत्रकार जाते हैं, मतलब ग्रामीण भारत कितना उपेक्षित है भारतीय पत्रकारिता में, जबकि फिल्मी अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की छोटी-से-छोटी खबर छपती हैं बड़े-बड़े अख़बारों में। मीडिया गुरु ने सही ही विषय लिया है इस आलेख में।

मीडिया शिक्षा के सौ वर्षमें लेखक ने पिछली एक सदी में मीडिया शिक्षा की दशा और दिशा से अवगत कराया है। संकल्प से सिद्धि का सूत्र मिशन कर्मयोगीआलेख में वे बताते हैं कि मिशन कर्मयोगी अधिकारियों और कर्मचारियों की क्षमता निर्माण की दिशा में अपनी तरह का एक नया प्रयोग है। देश को श्रेष्ठ लोकसेवकों आवश्यकता है, और ये पहली बार है कि बात सरकारी सेवकों के कौशल विकास की हो रही है।

इस पुस्तक में इन आलेखों से आगे, पत्रकारिता के शलाका पुरुषों, देव पुरुषों पर लेख हैं। देवर्षि नारद, विवेकानंद, माधवराव सप्रे, महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, बाबा साहेब आंबेडकर, वीर सावरकर, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवन पर आधारित आलेख हैं।

इस तरह इस किताब में, नए युगबोध का ऐसा कोई विषय नहीं जो अछूता हो; अपनी पुस्तक में लेखक ने नए भारत से हमें मिलवाया है, नए भारतबोध के साथ। किताब पढ़कर एक आम पाठक शायद आखिर में यही सोचे कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में कैसी किताबें पढ़ाई जानी चाहिए-यकीनन भारत बोध का नया समयजैसी!!

पुस्तक : भारतबोध का नया समय

लेखक : प्रो. संजय द्विवेदी

मूल्य : 500 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

 



मंगलवार, 15 जून 2021

पत्रकारिता की उजली परंपरा के वाहक

 

75 वीं वर्षगांठ (18 जून) पर विशेष

स्वदेश कुल की वैचारिक पत्रकारिता के कुलपति हैं राजेंद्र शर्मा

-प्रो.संजय द्विवेदी



      उनका हमारे बीच होना उस उम्मीद और आत्मविश्वास का होना है कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। पत्रकारिता के छीजते आभामंडल, प्रश्नांकित हो रही विश्वसनीयता और बाजार की तेज हवाओं के बीच जब विचार की पत्रकारिता सहमी हुई है तभी वे एक प्रकाशपुंज की तरह हमारे सामने आते हैं। बात स्वदेश समाचार पत्र समूह, भोपाल के प्रधान संपादक श्री राजेंद्र शर्मा की हो रही है। 18 जून,1946 को उज्जैन जिले के बड़नगर में जन्में श्री शर्मा इस समय स्वदेश के छह संस्करणों की कमान संभाल रहे हैं। इस कठिन समय में वे ही हैं, जो डटे हुए हैं और विचार की पत्रकारिता की मशाल को थामे हुए हैं। तमाम आदर्शों के आत्मसमर्पण के बाद भी वे न जाने किस विश्वास पर अपने उस विचार पर डटे हैं, जो उन्होंने अपनी युवा अवस्था में अपनाया था। उन्होंने रिश्ते बनाए, नाम कमाया किंतु समझौतों से उन्हें परहेज रहा। कठिन मार्ग ही उन्हें भाता है और वे उस पर ही चलते आ रहे हैं। सच कहने और लिखने की सजा भी भुगतते रहे हैं और अनेक साथियों से पीछे रह जाने का भी उन्हें कोई अफसोस नहीं है। ऐसे लोग ही किसी भी समय के नायक होते हैं और उनका होना हमेशा हमें प्रेरित करता है। अपनी सरलता,सहज स्नेह से किसी को भी अपना बना लेने वाले राजेंद्र जी सही मायने में अजातशत्रु हैं। पत्रकारिता में एक खास विचारधारा से जुड़े होकर काम करने के बाद भी उनका कोई शत्रु नहीं है, प्रतिद्वंदी नहीं है, आलोचक नहीं है। वे अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने वाले व्यक्ति हैं और शायद इसीलिए भोपाल ही नहीं देश की पत्रकारिता के शिखर संपादकों की सूची में उन्हें बड़े सम्मान से देखा जाता है।

विचारधारा के प्रति अविचल आस्थाः

    सभी राजनीतिक दलों के शिखर पुरुषों से उनके रिश्ते हैं, घर आना-जाना है, किंतु विचारधारा के साथ वे कभी समझौता करते नहीं देखे गए। उनका अखबार कम छपे, कम बिके पर अपनी राह चलता है। उस प्रवाह के साथ जिसे आदरणीय दीनदयालजी, अटल जी, माणिकचंद्र वाजपेयी जी जैसे तपस्वी पत्रकारों ने गढ़ा था। उन्हें पता है कि जब विचार की ही पत्रकारिता कठिन है तो विचारधारा का मार्ग तो और भी कठिन है। बाजार में उतर गई और कारपोरेट बनने को आतुर मीडिया समय में वे एक कठिन संकल्प के साथ हैं। स्वदेश समाचार पत्र समूह की विचारधारा स्पष्ट है और उसके लक्ष्य सबके सामने हैं। अपना अखबार होने के नाते उसके अपने भी उसकी बहुत परवाह नहीं करते फिर विरोधी क्यों करेंगें? ऐसा नहीं है कि देश में विचारधारा आधारित अखबारों की कोई परंपरा नहीं है। बावजूद इसके वर्तमान में ऐसे अखबारों को चलाना और स्पर्धा में बनाए रखना कठिन है। ऐसे अखबार इस मनोरंजक,नकारात्मक और जुगुत्सा जगाने वाली खबरों की पत्रकारिता के समय में अपने कंटेंट के नाते स्वयं ही स्पर्धा से बाहर हो जाते हैं। उनका वैचारिक आग्रह ही उन पर भारी पड़ता है। केरल में माकपा के मुखपत्र पीपुल्स डेली, बंगाल के पीपुल्स डेमोक्रेसी, कांग्रेस के नवजीवन, नेशनल हेराल्ड, कौमी आवाज, शिवसेना के सामना और दोपहर का सामना जैसे अखबारों की ओर देखें तो पता चलता है कि विचारधारा आधारित पत्र अपने कैडर तक भी नहीं पहुंच पाते। अगर विचारधारा और राजनीतिक प्रशिक्षण पर जोर दिया जाता तो निश्चय ही इन अखबारों की अपनी उपस्थिति बन पाती। सच तो यह है कि अगर ये अखबार विवादित और तेवर भरी टिप्पणियां न करें तो उनका उल्लेख भी नहीं होता। इन स्थितियों के बीच भी मध्यप्रदेश में अगर स्वदेश की आवाज कही और सुनी गयी तो इसके पीछे इसके यशस्वी संपादकों की परंपरा और समाज जीवन में उनकी गहरी उपस्थिति के कारण ही हो पाया। श्री माणिकचंद्र वाजपेयी मामा जी, श्री जयकृष्ण गौड़, श्री जयकिशन शर्मा, श्री बलदेव भाई शर्मा, श्री भगवतीधर वाजपेयी, श्री बबन प्रसाद मिश्र ( युगधर्म)  जैसे अनेक नाम इसके उदाहरण हैं। इसी परंपरा का सबसे प्रासंगिक नाम श्री राजेंद्र शर्मा का है, जिन्होंने पिछले पांच दशक से मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में अपनी यशस्वी पत्रकारिता के पदचिन्ह छोड़े हैं।

स्वदेश की विस्तार यात्रा के सारथीः

  श्री राजेंद्र शर्मा का पिंड पत्रकार का है,लेखक का है , संपादक का है। बावजूद इसके वे चुनौतियों से भागने वाले व्यक्ति नहीं हैं। एक सफल संपादक के नाते ग्वालियर में उनकी ख्याति हम सब जानते हैं। बावजूद इसके पत्रकार-संपादक होते हुए भी उन्होंने न सिर्फ प्रबंधन की जिम्मेदारियां संभाली, वरन स्वदेश के विस्तार की सफल योजनाएं बनाईं। जिसके चलते स्वदेश ग्वालियर और इंदौर से आगे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का प्रमुख पत्र बन सका। उसकी आवाज और उपस्थिति पूरे संयुक्त मध्यप्रदेश में महसूस की जाने लगी। आज ई-माध्यमों की उपस्थिति के बाद स्वदेश के सभी संस्करणों की वैश्विक उपस्थिति है। इसके लेख, समाचार और विचार वेबसाइट के माध्यम से दुनिया भर में पढ़े जाते हैं, जिनकी खबरों और लेखों को सुधी पाठक सोशल मीडिया पर शेयर करते रहते हैं। यह राजेंद्र जी का ही करिश्मा है कि उन्होंने स्वदेश के संपादकीय पृष्ठ को कभी प्राणहीन नहीं होने दिया। देश के शिखर संपादक और लेखक स्वदेश के संपादकीय पृष्ठ पर अपने विचारों से विमर्श के नित नए बिंदु देते हैं, जिससे लोकमत निर्माण का पत्रकारीय उद्देश्य पूर्ण होता है। बावजूद इसके प्रबंधन में उनकी व्यस्तता ने उनके मूल काम(लेखन) को प्रभावित किया है, इसमें दो राय नहीं है। प्रबंधन में उनकी गहरी संलग्नता न होती तो आज वे देश के श्रेष्ठतम लेखकों में गिने जाते। जिन्होंने उनकी आलंकारिक भाषा, साहसी कलम, गहरी सामाजिक संलग्नता से निकली अभिव्यक्ति देखी है, वे मानेंगें कि राजेंद्र जी अपने को जिस तरह और जितना अभिव्यक्त कर सकते थे, नहीं कर पाए। कहा भी जाता है कि संपादन का कर्म आपके व्यक्तिगत लेखन को खा जाता है। यहां तो राजेंद्र जी संपादन और प्रबंधन दोनों को साधते दिखते हैं, सो उनका लेखन तो इससे प्रभावित होना ही था। बावजूद इसके उनकी अन्य उपलब्धियां कम नहीं हैं, जो उन्हें हमारे समाज में आदर्श के रूप में प्रस्तुत करती हैं।

अप्रतिम संपादक, संदर्भों के सृजनकारः

   श्री राजेंद्र शर्मा एक दैनिक अखबार के संपादक तो हैं ही, साथ ही संदर्भों के सृजनहार भी हैं। उनके संपादन में जो पुस्तकें निकली हैं, उनका मूल्यांकन होना अभी शेष है। स्वदेश के विविध विषयों पर निकले विशेषांक अलग से समीक्षा और समालोचना की मांग करते हैं। इन सभी विशेषांकों का ऐतिहासिक महत्त्व है. क्योंकि ये पहली बार किसी भी व्यक्तित्व पर एकत्र की गयी अप्रतिम संदर्भ सामग्री है। मुझे लगता है श्री अटलविहारी वाजपेयी अमृत महोत्सव विशेषांक, राजमाता सिंधिया पुण्य स्मरण विशेषांक, लालकृष्ण आडवाणीः व्यक्ति और विचार, राष्ट्रऋषि गुरूजी, सुदर्शन स्मृति, भाजपा रजत जयंती विशेषांक, स्वामी विवेकानंद विशेषांक, माणिकचंद्र वाजपेयी विशेषांक, प्यारेलाल खंडेलवाल विशेषांक,जनादेश विशेषांक, आओ बनाएं अपना मध्यप्रदेश, विश्वसनीय छत्तीसगढ़, जननायक (श्री नरेंद्र मोदी पर एकाग्र) को जिन्होंने न देखा हो, उन्हें इन ग्रंथों/विशेषांकों को पलटकर देखना चाहिए। इसके साथ ही कर्इ वर्षों तक आप मध्यप्रदेश संदर्भ का भी संपादन- प्रकाशन करते रहे। ये सभी ग्रंथ सिर्फ विशेषांक नहीं हैं, एक पूर्ण संदर्भ ग्रंथ हैं। अफसोस है कि इस महत्त्वपूर्ण प्रदेय की उतनी चर्चा नहीं हुई, जैसी होनी चाहिए। जिद के धनी राजेंद्र जी इन ग्रंथों की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान देते हैं। ये सारे ग्रंथ(विशेषांक) महाकाय हैं। ग्लेज पेपर पर बहुत सुंदर प्रिंटिग के साथ छपे हैं, जिसे देखकर ही इनकी गुणवत्ता का पता चलता है। उनका यह प्रदेय निश्चित ही रेखांकित किया जाना चाहिए। किसी भी समाचार पत्र द्वारा ऐसे ग्रंथों का प्रकाशन एक अद्भुत घटना है, क्योंकि समाचार पत्र समूह प्रायः उन्हीं संदर्भों पर विशेषांक छापते हैं, जिनसे व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति होती है। इस अर्थ में राजेंद्र जी के विषय चयन और उसकी प्रस्तुति सराहनीय है।

सामाजिक सरोकारों से जुड़ा जीवनः

  संपादक- प्रबंधक की आसंदी व्यस्तता की पराकाष्ठा है। इसके बीच भी राजेंद्र शर्मा सामाजिक सरोकारों, सामाजिक आंदोलनों, तमाम विधाओं के संगठनों से जुड़कर अपना सामाजिक उत्तरदायित्व भी निभाते हैं। वे सही अर्थों में सरोकारी, जीवंत और लोकाचारी व्यक्तित्व हैं। वे भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों की प्रतिनिधि संस्था इंडियन लैंग्वेज न्यूज पेपर एसोसिएशन(इलना) के दो बार अध्यक्ष रहे, ग्वालियर के श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष रहे। वे उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के उपाध्यक्ष भी रहे। ग्वालियर प्रेस क्लब के संस्थापक अध्यक्ष होने के साथ आप अखिलभारतीय संपादक सम्मेलन से भी जुड़े रहे। इसके साथ ही मप्र समाचार पत्र संघ, मप्र प्रेस सलाहकार परिषद, मप्र रेडक्रास सोसाइटी, मप्र अधिमान्यता समिति, मप्र पत्रकार कल्याण कोष, डीएवीपी की प्रेस एडवाइजरी कमेटी, श्रम सलाहकार परिषद, समाचार पत्र संचालकों की संस्था आईएनएस जैसे संगठनों में उनकी सक्रियता उनकी सामाजिक उपस्थिति का प्रमाण है। सबको पता है कि राजेंद्र जी के व्यक्तित्व को रचने और गढ़ने वाले संगठन का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है, जिसके संपर्क में वे बाल्यकाल में ही आ गए थे। इसी भावधारा के चलते वे 25 वर्षों तक विश्व हिंदू परिषद, मध्यभारत प्रांत के अध्यक्ष रहे। मानस भवन, भोपाल और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से भी वे अनेक दायित्वों से जुड़े रहे हैं। उन्हें उप्र हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा पत्रकारिता भूषण, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान से भी अलंकृत किया गया है।

मेरे गुरु, मेरे अभिभावकः

    श्री राजेंद्र शर्मा की मेरे जीवन में बहुत खास जगह है। वे मेरे लिए पितातुल्य तो हैं ही, मेरे पत्रकारिता गुरू और अभिभावक भी हैं। उनकी स्नेहछाया में ही मैंने पत्रकारिता की मैदानी दीक्षा ली और उन्होंने बहुत कम आयु में ही श्री हरिमोहन शर्मा जी की संस्तुति पर मुझे अखबार का संपादक बना दिया। यह भरोसा साधारण नहीं था। उनके इस कदम से मुझमें अतिरिक्त आत्मविश्वास भी पैदा हुआ और पत्रकारिता के क्षेत्र में मैं कुछ कर सका। उनकी प्रेरणा, प्रोत्साहन और संरक्षण ने मेरी जिंदगी की हर कठिनाई का अंत ही नहीं किया, वरन विजेता भी बनाया। आपकी जिंदगी में जब ऐसे स्नेही अभिभावक होते हैं तो आपके लिए हर मंजिल आसान हो जाती है। आज भी वे मुझे बहुत उम्मीदों से देखते हैं। उनका यह भरोसा बचा और बना रहे इसके लिए मैं भी सतत कोशिशें भी करता हूं। उनका मार्गदर्शन और स्नेह पितृछाया की तरह ही है, जो आपको जीवन के झंझावातों से जूझने के लिए हौसला देती है। राजेंद्र जी का असली सच यह है कि वे एक वैचारिक योद्धा हैं जिन्होंने अपने जैसे न जाने कितने विचारवंत संपादक-पत्रकार तैयार किए हैं। स्वदेश को वैचारिक पत्रकारिता की नर्सरी यूं ही नहीं कहा जाता। स्वदेश में प्रशिक्षण प्राप्त कर अनेक संपादक और पत्रकार अपने क्षेत्र में यशस्वी हैं, उनकी प्रगति और ख्याति निश्चित ही राजेंद्र जी के लिए संतोष का बड़ा कारण है। श्री अक्षत शर्मा उनके सुयोग्य पुत्र और सक्षम उत्तराधिकारी हैं। अक्षत जी ने अपने पिता का सौंदर्य, आकर्षक व्यक्तित्व, सरलता, सहजता और सौजन्य पाया है। वे स्वदेश कुल को निश्चित ही आगे लेकर जाएंगें। स्वदेश कुल का शिक्षार्थी होने के नाते मैं स्वयं को गौरवशाली मानता हूं। साथ ही कामना करता हूं कि स्वदेश कुल के कुलपति श्री राजेंद्र शर्मा यूं ही हम सबको दिशाबोध कराते रहें। उनके स्वस्थ-सानंद व सुदीर्घ जीवन की मंगलकामनाएं, प्रार्थनाएं।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। स्वदेश, भोपाल और रायपुर संस्करणों से जुड़े रहे श्री द्विवेदी के श्री राजेंद्र शर्मा से पारिवारिक और आत्मीय रिश्ते हैं।)



सोमवार, 14 जून 2021

हिंदी पत्रकारिता के प्रवर्तक के नाम पर होगा आईआईएमसी का पुस्तकालय


देश में पं. युगल किशोर शुक्ल के नाम पर बनेगा पहला स्मारक



नई दिल्ली, 14 जून। भारतीय जन संचार संस्थान का पुस्तकालय अब पं. युगल किशोर शुक्ल ग्रंथालय एवं ज्ञान संसाधन केंद्र के नाम से जाना जाएगा। हिंदी पत्रकारिता के प्रवर्तक पं. युगल किशोर शुक्ल के नाम पर यह देश का पहला स्मारक होगा। पुस्तकालय के नामकरण के अवसर पर आईआईएमसी द्वारा 17 जून को "हिंदी पत्रकारिता की प्रथम प्रतिज्ञा: हिंदुस्तानियों के हित के हेत" विषय पर एक विशेष विमर्श का आयोजन किया जाएगा। इस कार्यक्रम में देश के प्रमुख विद्वान अपने विचार व्यक्त करेंगे।

आईआईएमसी के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने बताया कि इस वेबिनार में दैनिक जागरण (दिल्ली-एनसीआर) के संपादक श्री विष्णु प्रकाश त्रिपाठी मुख्य अतिथि होंगे तथा पद्मश्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार श्री विजयदत्त श्रीधर मुख्य वक्ता के तौर पर शामिल होंगे। कार्यक्रम के विशिष्ट वक्ताओं के रूप में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की निदेशक डॉ. सोनाली नरगुंदे, पांडिचेरी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ. सी. जय शंकर बाबु, कोलकाता प्रेस क्लब के अध्यक्ष श्री स्नेहाशीष सुर एवं आईआईएमसी, ढेंकनाल केंद्र के निदेशक प्रो. मृणाल चटर्जी अपने विचार प्रकट करेंगे।

प्रो. द्विवेदी ने इस आयोजन के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि भारत में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत पं. युगल किशोर शुक्ल द्वारा 30 मई, 1826 को कोलकाता से प्रकाशित समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' से हुई थी। इसलिए 30 मई को पूरे देश में हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। उन्होंने कहा कि 'उदन्त मार्तण्ड' का ध्येय वाक्य था, ‘हिंदुस्तानियों के हित के हेत’ और इस एक वाक्य में भारत की पत्रकारिता का मूल्यबोध स्पष्ट रूप में दिखाई देता है।

प्रो. द्विवेदी ने कहा कि ये हमारे लिए बड़े गर्व का विषय है कि आईआईएमसी का पुस्तकालय अब पं. युगल किशोर शुक्ल के नाम से जाना जाएगा। उन्होंने कहा कि हिंदी पत्रकारिता ने स्वाधीनता से लेकर आम आदमी के अधिकारों तक की लड़ाई लड़ी है। समय के साथ पत्रकारिता के मायने और उद्देश्य चाहे बदलते रहे हों, लेकिन हिंदी पत्रकारिता पर देश के लोगों का विश्वास आज भी है।