रविवार, 11 मई 2014

भोपाल में रहते हुए

-संजय द्विवेदी


    तमाम नौजवानों की तरह मैं भी अपनी नजर से दुनिया देखने के लिए ही भोपाल में 1994 में दाखिल हुआ। पहली बार किसी इतने खूबसूरत शहर से वास्ता पड़ा था। पहाड़ियों पर बसा और अपनी जमीं पर ढेर सा पानी समेटे यह शहर तब से दिल में बसा हुआ है। इस शहर में रहते हुए डिग्रियां बटोरीं, जमाने के लायक बनते हुए अखबारनवीस से प्राध्यापक भी बने। बड़े तालाब के किनारे तो कभी मनीषा झील के पानी को उलीचते हुए कितनी शामें बिताईं। कभी आंखों में देखा तो कभी पानी में छलकती आंखें देखीं। यहीं समझा कि आंखों के पानी के साथ झील में भी पानी जरूरी है। भोपाल तबसे और बड़ा और खूबसूरत हुआ है। आज भी यहां पटिए (पुराने भोपाल में बातचीत के अड्डे) आबाद हैं, काफी हाउस जिंदा हैं और मुहब्बतें भी पल रही हैं। रिश्ते और जुबान आज भी यहां की खासियत हैं। न्यू मार्केट में टाप इन टाउन पर सरगोशियां करते हुए कितनी शामें और सुबहें काटीं हैं। पर वे दिन अलग थे दोस्त फुरसत में थे। अब भोपाल भी भागने को तैयार है, उसे भी नई सदी ने नई चाल में ढाल दिया है। राजा भोज के इस शहर में मेरे जैसे न कितने गंगू अपने सपने लेकर आते हैं और सच भी करते हैं।अब यह शहर, सपनों की तरफ दौड़ लगता शहर बन रहा है। उम्मीदों का शहर बन रहा है। उत्तर भारत के तमाम राज्यों की राजधानियां रश्क करती हैं ,काश वे भोपाल हो पातीं। कांक्रीट के जंगलों में भी हरियाली समेटने में अब तक यह शहर सफल रहा है। बुरी नजरें लगती हैं, पर कायम नहीं रह पातीं। वीआईपी रोड पर अब राजा भोज भी खड़े हैं, तालाब में एक बड़ी तलवार के साथ जैसे कह रहे हों इस शहर का रक्षक अब आ गया है। शहर की तासीर में एक अजीब सी खुशबू है। एक गंगा-जमुनी तहजीब यहां बिखरी दिखती है। जहां रिश्ते बहुत बनावटी नहीं हैं। व्यापार और जिंदगी भी साझेपन में चल रही है। पुराना भोपाल, बैरागढ़ और उसके बाजार कुछ अलग तरह से अपने ठहरे जीवन के साथ नए जमाने से ताल मिलाने की कोशिशों में हैं तो नई उग रही कालोनियां एक नया सामाजिक परिवेश और विमर्श रच रही हैं। जहां रिश्ते नए तरह से पारिभाषित हो रहे हैं।
  अपने खास अंदाज के बावजूद भोपाल महानगर बनने की यात्रा पर है। नए उगते मल्टीप्लेक्स, माल और मेगा शो-रूम अपनी नजाकत के साथ इस शहर में अपने होने को साबित करना चाहते हैं पर पुराने भोपाल के बाजार भी आबाद हैं। उनमें उतनी ही भीड़ हैं, मोल-भाव हैं, रिश्ते हैं और पहचान है। कोई शहर कैसे अपना कायान्तरण करता है भोपाल इसे बताता है। जब मैं इस शहर में आया, वह आज का भोपाल नहीं है। आज का भोपाल शहर चारों तरफ अपनी भुजाएं फैला रहा है वह अपने भूगोल में तमाम खेत-खलिहानों और गांवों को निगल चुका है। लाल बसों ने शहर की और सड़कों की रंगत बदल दी है पर पूरी तरह हिलता -बजती हुयी और आर्तनाद करती छोटी बसें भी सेवा में जुटी हैं। भोपाल ने राजा भोज की यादों से जुड़कर नवाबों का समय देखा है तो आजाद भारत के साढ़े छः दशक की यात्रा ने उसे बहुत जिम्मेदार और परिपक्व बनाया है।

  एक समय धीरे-धीरे सरकता शहर आज गति से दौड़ रहा है और खुद को महानगर बनाने और साबित करने की स्पर्धा में शामिल है। भोपाल को लेकर कई बिंब बनते हैं तो कई टूटते भी हैं। इस शहर ने खुद को कला, संस्कृति और साहित्य की राजधानी के तौर पर खुद को स्थापित करने के सचेतन जतन भी किए हैं। इसके चलते कलाओं, संस्कृति और यहां तक की आदिवासी संस्कृति को संरक्षित करने के प्रयास भी यहां दिखते हैं। साहित्य और जनसरोकारों से जुड़े लोग भोपाल को आज भी एक जिंदा और उम्मीदों वाले शहर की तरह देखते हैं। यह वह शहर है जो बाजार की आंधी में भी अपनी खास पहचान के साथ खड़ा है। जहां कलाएं, साहित्य, थियेटर, गायन-वादन, आदिवासी संस्कृति और मनुष्यता के मूल्य बचे हुए हैं। यह शहर बाजार की हवाओं से टकराता हुआ भी अपने सांस्कृतिक वैभव और मूल्यबोध के साथ खड़ा है। नई कलाएं और नई अभिव्यक्तियां यहां स्वागत व स्वीकार्यता पाती हैं। यहां होना एक खूबसूरत शहर में होना भर नहीं है, यह अपने लिए एक ऐसा कोना तलाशने की जगह भी देता है जिसे शायद आप अपना कह सकें। संवेदनशील मनुष्यों के लिए भोपाल की फिजां में आज भी ज्यादा अपनापन और ज्यादा मानवीयता मौजूद है। इसे यहां होते हुए ही महसूस किया जा सकता है।

वैचारिक साम्राज्यवाद के खतरे से बचे भारत


आतंकवाद का विस्तार अब नए रूपों में हो रहा है
-संजय द्विवेदी

      आतंकवाद को लेकर हमारी ढीली-ढाली शैली पर समय-समय पर टिप्पणियां होती रहती हैं। एक बड़े खतरे के रूप में इस संकट को स्वीकारने के बावजूद हम इसके खिलाफ कोई सार्थक रणनीति नहीं बना पाए हैं। नक्सलवाद और आतंकवाद के खिलाफ हमारी शैली घुटनाटेक ही है और हमारा राज्य हमेशा हास्य का पात्र ही बनता है। सीमाओं के भीतर चल रहे आतंकवाद के विरूद्ध भी हम राज्य-केंद्र की लड़ाई से बाहर नहीं निकल पाते और समाधान की संयुक्त कोशिशों के बजाए दोषारोपण ही हमारे हिस्से आता है। जबकि ऐसे सवालों से सिर्फ अपेक्षित संवेदनशीलता से ही जूझा जा सकता है। हम देखें तो राष्ट्रीयता के प्रति सोच संदेह के दायरे में है। देश की एकता और सुरक्षा को लेकर लापरवाही हमारे चरित्र में है और हम बड़ी आसानी से अपने गणतंत्र और राष्ट्र की आलोचना का कोई अवसर नहीं छोड़ते। कर्तव्यबोध के बजाए हमारा अधिकारबोध अधिक जागृत है। देश के लिए दीवानापन और कर्तव्यनिष्ठा खोजे नहीं मिलती।
     ऐसे कठिन समय में जब मैदानी युद्ध कम लड़े जा रहे हैं, हमें खतरा अलग तरह के युद्धों से भी है। जिसमें एक बड़ा खतरा आज साइबर वारफेयर और वैचारिक युद्ध है। पूर्व में युद्ध का चरित्र अलग था, जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति से युद्ध करता था। सही मायने में तब यह शारीरिक बल पर निर्भर करता था कि कौन किससे जीतेगा। दूर से मारने वाले हथियार आए और पशुओं का शिकार प्रारंभ हुआ। आज का समय बदल गया है, इस दौर में सूचना एक तीक्ष्ण हथियार में बदल गयी है। आज सूचना एक शक्ति भी है और हथियार भी है। कालोनिजम आफ माइंड यानि यह दौर वैचारिक साम्राज्यवाद का है। जिसमें हथियारों की होड़ के साथ दिमागों पर भी कब्जा करने की जंग चल रही है। दिमागों पर कब्जा करने के लिए एक लंबी रणनीति चल रही है। यह भी एक लंबी कवायद है जो पश्चिमी देश करते रहे हैं। पूर्व में भी संचार माध्यमों पर कब्जे के नाते उनकी परोसी गयी सामग्री ही पूरी दुनिया के दिमागों पर आरोपित की जाती रही है। आज जबकि संचार माध्यमों की बहुलता है और मोबाइल जैसे यंत्र के अविष्कार ने हर व्यक्ति को मीडिया की पहुंच में ला दिया है तब यह संकट और गहरा हो गया है। इस युद्ध का सबसे बड़ा प्रभाव यह है कि यह बिना कोई खून बहाये जंग जीत या हार जाने जैसा है।
    सूचना और मीडिया की शक्तियां आज देश की सीमाओं का अतिक्रमण कर वैश्विक हो चुकी हैं। अपने जैसा सोचने, खाने, पहनने और व्यवहार करने वाला समाज खड़ा करना ही शायद वैचारिक साम्राज्यवाद  का अंतिम लक्ष्य है। भारत में अंग्रेजी शासनकाल में इसकी जड़ें हम तलाश सकते हैं, जब तमाम हिंदुस्तानी हमें आजाद भारत में भी ऐसे मिले जो पूरी तरह अंग्रेज हो चुके थे। मुगलों और अन्य आक्रामणकारियों ने लूटपाट में धन-संपदा और मंदिरों को क्षति पहुंचाई पर वैचारिक तौर हम पर अपने चिन्ह जैसे अंग्रेजों ने छोड़े वैसा पूर्व के आक्रांता नहीं कर पाए। खानपान-परिवेश-शिक्षा-व्यवहार सबमें पश्चिमी परिवेश दिखने लगा और इसे ही प्रगतिशीलता माना जाने लगा। इसके प्रति समाज में भी प्रतिरोध अनुपस्थित था, क्योंकि वे एक ऐसा मानस तैयार कर चुके थे जो उनकी चीजों को स्वीकार करने के प्रति उदार था। गांधी चाहकर भी उस हिंदुस्तानी मन को नहीं जगा पाए जो राजनीतिक आजादी से आगे की बात करता और अपने पर गर्व करता। हिंदुस्तानी मनों को भी यह लगने लगा कि अंग्रेजियत का विरोध बेमानी है। आजादी के सातवें दशक में यह संकट और गहरा हुआ है। हम एक महाशक्ति होने के गुमाम से भरे होने के बावजूद वैचारिक युद्ध हार रहे हैं। इंटरनेट ने इसे संभव किया है। आप याद करें कि बंग्लादेश युद्ध के समय हमने मैदानी और वैचारिक दोनों युद्ध जीते थे किंतु वही लड़ाई हम नेपाल में हार रहे हैं। नेपाल में आज भारत विरोधी भावनाएं प्रखर दिखती हैं। क्योंकि यह वैचारिक साम्राज्यवाद का कुचक्र था जिसे हम तोड़ नहीं पाए। मीडिया में विदेशी निवेश को संभव बनाकर हमने अपने पैरों पर कुल्हाडी मार ली है। आज विदेशी पैसे के बल पर कौन किस इरादे से क्या दिखा और पढ़ा रहा है, इस पर हमारा नियंत्रण समाप्त सा है।
  द्वितीय विश्वयुद्ध की याद करें तो इसके उदाहरण साफ दिखेंगें कि किस तरह इंग्लैंड ने पूरे वातावरण को अपने पक्ष में किया था। चीजें इतनी तरह से और इतनी बार, इतने माध्यमों से आरोपित की जा रही हैं कि वे सच लगने लगी हैं। वे विवेक का अपहरण तो कर ही रही हैं साथ ही सोचने के लिए अपनी दिशा दे रही हैं। ईराक युद्ध के समय में भी हमने इसे संभव होते हुए देखा। कश्मीर से लेकर तमिलनाडु में इसे संभव होता हुआ देख रहे हैं। मीडिया के द्वारा, साहित्य के द्वारा और अपने वैचारिक प्रबंधकों के द्वारा जनता के मत परिवर्तन की कोशिशें चरम पर हैं। वे साइबर के माध्यम से भी हैं और परंपरागत माध्यमों के द्वारा भी। गोयाबल्स को याद करें और सोचें कि आज अकेले हिंदुस्तानियत  से लड़ने के लिए कितने गोयाबल्स रचे जा रहे हैं। अफवाहें सच्चाई में बदल रही हैं। झूठ को धारणा बनाने के सचेतन प्रयास हो रहे हैं। गणेश जी का दूध पीना एक ऐसी ही घटना थी। जिसका प्रयोग बताता है कि कैसे हम हिंदुस्तानी किसी भी सूचना के शिकार हो सकते हैं। इस मनोवैज्ञानिक युद्ध भी कह सकते हैं। साथ ही चल रहे सूचना युद्ध की भी चर्चा और उसे लेकर सजगता जरूरी है। इस हा-हाकारी मीडिया समय में मीडिया ही हमें बता रहा है कि हमें आखिर कैसा होना है। हमारा होना, जीना और प्रतिक्रिया करने के विषय भी मीडिया तय कर रहा है। वैचारिक साम्राज्यवाद के ये अनेक रूप हमें लुभा रहे हैं, विवेकशून्य कर रहे हैं, जड़ों से उखाड़ रहे हैं, सोचने-मनन करने की प्रक्रिया को भंग कर हमारा अवकाश भी छीन रहे हैं। आप देखें तो इस सूचना साम्राज्यवाद से दुनिया कितनी घबराई हुयी है। 2002 में अलजजीरा से तंग आकर ही हुस्नी मुबारक (मिस्र) ने कहा था कि सारे फसाद की जड़ ईडियट बाक्स है। यही घटनाएं हम अपने आसपास घटती हुयी देख रहे हैं। ओसामा बिन लादेन के मरने से लेकर राष्ट्रपति ओबामा की प्रेस कांफ्रेस तक कुल दो घंटे और45 मिनट में हुए 2.79 करोड़ ट्विट बताते हैं कि चीजें कितनी बदल गयी हैं। कश्मीर में हुआ ई-प्रोटेस्ट भी इसका एक उदाहरण है। इसके साथ-साथ इंटरनेट माध्यमों के उपयोग से मनोविकारी, मनोरोगी और अवसादग्रस्त व्यक्ति कैसे अपराध कर रहे हैं बताने की आवश्यकता नहीं है। प्रतिदिन सोशल साइट्स के माध्यम से रची जा रही सूचनाएं कितनी बड़ा संसार बना रही हैं यह भी पूर्व में संभव कहां था। भारत जैसे बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक परिवेश वाले देश के लिए यह एक बड़ी चुनौती भी है। सूचना का एक अलग गणतंत्र रचा जा रहा है। निजताएं अब सामूहिक वार्तालाप में बदल रही हैं। विचार की ताकत बड़ी हुयी है, इस अर्थ में एक वाक्य भी क्रांति का सूचक बन सकता है। ऐसे समय में भारत जैसे देश को इस वैचारिक साम्राज्यवाद के खतरे को ठीक से समझने और व्याख्यायित करते हुए सही रणनीति बनाने की आवश्यकता है। इसके सामाजिक प्रभावों और संकटों पर हमने आज बातचीत शुरू नहीं की तो कल बहुत देर हो जाएगी। इसके लिए हमें वैचारिक साम्राज्यवाद के खतरों को समझकर इससे लड़ने का मन बनाना होगा।

गुरुवार, 8 मई 2014

दलितों को मिल रही है मीडिया में जगह : श्री नैमिशराय

'सामाजिक समरसता और मीडिया की भूमिकाविषय पर एमसीयू में व्याख्यान

भोपाल, 08 मई। प्रख्यात पत्रकार एवं चिंतक मोहनदास नैमिशराय का कहना है कि मीडिया में अब दलितों के सवालों को जगह मिलने लगी है। मीडिया संस्थानों को समझ आ रहा है कि दलितों की बात करने पर उनका माध्यम चर्चित होता है, इसलिए अब अधिक मात्रा में समाचार माध्यमों में दलितों की आवाज को जगह मिल रही है। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल की ओर से 'सामाजिक समरसता और मीडिया की भूमिकाविषय पर आयोजित व्याख्यान में बतौर मुख्य वक्ता उपस्थित थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. ब्रज किशोर कुठियाला ने की।
   उन्होंने कहा कि आज भी भारत के किसी भी हिस्से में दलित विमर्श से जुड़े किसी भी समाचार-पत्र और पत्रिका की प्रसार संख्या 10 हजार से अधिक नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि दलित साहित्य में अच्छा नहीं लिखा जा रहा है। महाराष्ट्र सहित अन्य प्रांतों में दलित साहित्य और अन्य लेखन में उत्कृष्ट कार्य हुआ है। सामाजिक समरसता में मीडिया की भूमिका के संबंध में उन्होंने कहा कि 20-25 साल पहले पत्रकारिता के जो मूल्य थे, उनमें बदलाव आ गया है। पत्रकारिता को कैसे स्वस्थ रखना है? यह चुनौती आज हमारे सामने है। पत्रकारिता मिशन से हटी है, यह सच है लेकिन पत्रकारिता के वर्तमान चरित्र को ही पूरा दोष नहीं दिया जा सकता। स्वस्थ पत्रकारिता के लिए पत्रकारों को स्वयं पर अंकुश रखना जरूरी है। पत्रकारों को तमाम प्रलोभन दिए जाते हैं, उन्हें इनसे बचना है। पत्रकार जहां समझौता कर लेते हैं, फिर वहां स्वस्थ पत्रकारिता संभव नहीं रह जाती। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में खुद की सुरक्षा रखते हुए सामाजिक सरोकार के लिए पत्रकारिता करने का रास्ता पत्रकारों को खोजना चाहिए। श्री नैमिशराय ने ऐसे कई पत्रकारों के उदाहरण दिए जो सामाजिक समरसता के लिए तमाम तरह की चुनौतियों के बीच काम करते रहे।
कुठाएं छोड़कर बढ़ें आगेः   उन्होंने कहा कि दलित, वनवासी और पिछड़े समाज के लोगों में बरसों से उन पर हुए उत्पीडऩ को लेकर कुंठाएं हैं। लेकिन हमारे सामने सवाल है कि आखिर इन कुंठाओं में हम कब तक पड़े रहेंगे और इसमें हमारा भविष्य क्या है? अपनी बेहतरी के लिए हमें कुंठाएं छोड़कर रचनात्मक और सकारात्मक सोच के साथ आगे बढऩा चाहिए। श्री नैमिशराय ने कहा कि सामाजिक समरसता लाने में महज दलितों का ही नहीं, वरन समाज के सभी वर्गों का शिक्षित होना जरूरी है।
शिक्षा सबके लिए जरूरी है, ऐसा बाबा साहब अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था। बाबा साहब अम्बेडकर का जिक्र करते हुए श्री नैमिशराय ने कहा कि वे दुनिया के एकमात्र व्यक्ति हैं जिनके चरित्र पर आज तक कोई लांछन नहीं लगा है। उनका जीवन सदैव निष्कलंक बना रहा।
सबकी जाति होगी भारतीय : प्रो. कुठियाला
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. ब्रज किशोर कुठियाला ने कहा कि शूद्र पहले सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। जिस समाज को आज हम वंचित समाज कहते हैं वह कभी मुख्यधारा का समाज था। कुछ परिस्थितियां ऐसी बनी कि मुख्यधारा का समाज वंचित समाज हो गया। तथ्यों के आधार पर यह बात बाबा साहब अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक 'शूद्र कौन हैंमें लिखा है। बाबा साहब ने यह भी बताया है कि शूद्रों के गौत्र कई सवर्ण जातियों के गौत्र के ही समान हैं। प्रो. कुठियाला ने कहा कि मीडिया को इस तरह के तथ्यों को समाज के सामने लाने में अपनी महती भूमिका का निर्वहन करना चाहिए। ताकि आज जिसे हम वंचित समाज कह रहे हैं, उसमें स्वाभिमान का भाव जाग्रत हो। वंचित समाज के संबंध में अन्य समाज की धारणा भी बदले। सामाजिक समरसता के संदर्भ में मीडिया की भूमिका को समझने के लिए राष्ट्रगान की पंक्ति 'जन-गण-मन अधिनायकको ध्यान में रखना चाहिए। राजनीति के संदर्भ को जोड़ते हुए प्रो. कुठियाला ने कहा कि जब समाज को आगे बढ़ाने की तैयारी मीडिया की है तब मीडिया यह विभाजन क्यों करता है कि किस सीट पर किस जाति के अधिक मतदाता हैं? यह उचित नहीं है। मीडिया को जाति के आधार पर मतदाता, उम्मीदवार और पार्टियों को नहीं बांटना चाहिए। उन्होंने कहा कि आज युवा जिस तरह जातिवाद से ऊपर उठकर सोच रहा है, आगे बढ़ रहा है उसे देखकर कहा जा सकता है कि नए भारत का जो निर्माण होने वाला है, उसमें सब भारतीय ही होंगे। हर किसी की जाति सिर्फ भारतीय होगी। समरस भारत ही समृद्ध भारत बन सकता है।

भारत- पाकिस्तान एक होंगे : प्रो. कुठियाला ने कहा कि बाबा साहब का मानना था कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भारत से अलग होकर पाकिस्तान का निर्माण हुआ था। यह स्वाभाविक विभाजन नहीं था। इसलिए अनुकूल परिस्थितियां आने पर दोनों फिर से मिलकर अखण्ड भारत बन जाएंगे। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। इस दौरान विश्वविद्यालय की एसटीएससी सेल के अध्यक्ष प्रदीप डहेरिया, संबद्ध संस्थाओं के निदेशक दीपक शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार गिरीश उपाध्याय, रामभुवन कुशवाह, संगीत वर्मा, अनिल सौमित्र, पुष्पेंद्रपाल सिंह, डा. राखी तिवारी भी मौजूद थे।

सोमवार, 5 मई 2014

उन्हें भरोसा नहीं है मतदाताओं के विवेक पर

-संजय द्विवेदी


     भारतीय लोकतंत्र इस बार एक ऐसे चुनाव से मुकाबिल है, जिसकी मिसाल खोजे नहीं मिलेगी। भाषा और वाणी के स्तर पर गिरावट सिर्फ राजनेताओं में होती तो चल जाता। इस बार लेखक समुदाय, पत्रकारों और स्तंभ लेखकों की वाणी भी जरूरत से ज्यादा बहकी हुयी है। निष्पक्ष विश्वेषण क्या होता है, इसे खोजना दुर्लभ है। पहली बार ऐसा हो रहा है, जब मतदाता के विवेक पर भी सवाल उठाया जा रहा है। लोग नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने पर देश छोड़ने को तैयार बैठै हैं। कांग्रेस के पिछले दस साल के कुशासन और भ्रष्टाचार ही नहीं वरन् आपातकाल के बुरे दिनों में भी जिन्होंने देश नहीं छोड़ा, वे अब देश छोड़ने की धमकियों से साथ जनमत को प्रभावित करना चाहते हैं।
 काशी के एक बड़े लेखक ने एक साक्षात्कार में कहा कि मोदी जीते तो काशी हार जाएगी। तमाम लेखकों को बहुत गंभीरता से इन दिनों पढ़ता रहा, वे सब एक व्यक्ति के खिलाफ यूं डटे हैं जैसे उन्होंने सुपारी ले रखी हो। लेखों में तर्क-गंभीर विश्लेषण के बजाए ऐसे तथ्य हैं, जिसका सत्य से वास्ता नहीं है। आखिर देश के लेखक, विचारक और बुद्धिजीवी अगर इस तरह जनता की आंखों में धूल झोंकने पर आमादा हों तो सत्य कहां बचेगा। मुद्दों पर चयनित दृष्टिकोण और अपने तयशुदा निष्कर्षों के आधार पर लेखन क्या कलम की गरिमा को कम नहीं करता? आज लालूप्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव के सारे पाप कम हो गए और वर्तमान प्रधानमंत्री की कहीं चर्चा ही नहीं हो रही है।गुजरात माडल निशाने पर है किंतु तीन दशक के वाममोर्चा के बंगाल माडल पर चर्चा नहीं हो रही है। साथ ही कांग्रेस के 10 सालों के शासनकाल पर चर्चा के बजाए उस गुजरात पर बातचीत हो रही है, जहां पांचवीं बार लगातार भाजपा की सरकार बनी है। यही घटना जब पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के लिए घटती थी तो जनादेश कही जाती थी और भाजपा या मोदी के पक्ष में जनता खड़ी हो गयी तो वह सांप्रदायिक है।
   सांप्रदायिक दंगे आजाद भारत के इतिहास की बुरी और कड़वी सच्चाईयां हैं। बल्कि महात्मा गांधी, पं. नेहरू,सरदार पटेल जैसी विभूतियों की उपस्थिति के बावजूद हम हिंसा को रोक नहीं पाए। लाखों लोगों की लाशों पर देश का बंटवारा हुआ। सेकुलर निजाम के झंडाबरदारों को हिंदुओं से खाली हुयी कश्मीर घाटी नहीं दिखी और हाल के दौर में उप्र में लगातार हुए दंगें हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं। गुजरात में पिछले 12 सालों से दंगे न होना कोई उदाहरण नहीं है, बल्कि असम में हुयी हिंसा के लिए भी गुजरात के मुख्यमंत्री को दोषी ठहराया जा रहा है। अपने राज्यों में कानून-व्यवस्था और शांति स्थापित करने में विफल राजनैतिक दल क्या अब गलत तथ्यों के आधार पर लोगों को गुमराह करेंगे। असम में जो आग सुलग रही है उसके लिए हमारी नीतियां, घुसपैठ, जनसांख्यकीय असंतुलन और स्थानीय कारकों के बजाए गुजरात के मुख्यमंत्री को दोषी बताना कहां का न्याय है? आखिर वे कौन लोग हैं जो दलों को वोट देने के आधार पर आपके सच्चे मुसलमान होने या न होने की बात कर रहे हैं? सांप्रदायिक राजनीति, दंगे और तोड़ने वाली भाषा किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक है। किंतु जोड़ने की बात करने वाले लोग कम होते जा रहे हैं। जहरीली भाषा से जहर कम नहीं होगा और बढ़ेगा। कसाई, जल्लाद, हत्यारा जैसी भाषा बोलकर हम अपने लोकतंत्र का अपमान ही कर रहे हैं। असहमति से लोकतंत्र का सौंदर्य ही बढ़ता है किंतु भाषा का क्षरण रोकना भी हमारी बड़ी जिम्मेदारी है। देश के बुद्धिजीवी वर्गों को भी देश के नागरिकों का सही दिशाबोध करना चाहिए किंतु वे भी इस राजनीति में एक पक्ष सरीखा व्यवहार कर रहे हैं। नागरिकों को दिशाबोध करने के बजाए वे स्वयं भड़काऊ भाषा में लेखन करते हुए ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, जैसै नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री हो जाने से आसमान फट जाएगा। आज हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि जहां पहले लोग भरोसा करते थे कि जनता सही फैसला करेगी और जनता ही जर्नादन है। वहां हम देख रहे हैं अब जनता को कोसने का क्रम जारी है। अपने लेखों, भाषणों के माध्यम से जनता को मार्गदर्शन करने के बजाए उस पर शक और अविश्वास किया जा रहा है। ऐसा लगता है, जैसै जनता का अपना कोई विवेक न हो और वह अपना अच्छा- बुरा न समझती हो। हमें भरोसा रखना चाहिए कि जनता अंततः समाज की सामूहिक शक्ति को तोड़ने और उसका भरोसा तोड़ने वालों के खिलाफ निर्णय लेना जानती है।
     यह जनता का विवेक ही था कि उसने कई राज्यों में भाजपा को विधानसभा में प्रचंड बहुमत देने के बावजूद केंद्रीय चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया और कांग्रेस को सीटें दीं। आज केंद्रीय सत्ता के लिए एक कद्दावर नेता के मैदान में उतरने के बाद अगर जनता को लगता है कि राजग या भाजपा एक विकल्प बना है तो वह उसके साथ खड़ी दिख रही है तो इसमें आपत्ति क्या है? सच तो यह है कि कांग्रेस सरकार के कुशासन के खिलाफ विकल्प देने के बजाए सभी राजनीतिक दल सिर्फ मोदी विरोध की राजनीति करते रहे और यही कारण है कि वे आज हाशिए पर हैं। बिहार से मोदी विरोध का जो बिगुल नीतिश कुमार ने बजाया जो सही मायने में शुद्ध अवसरवाद था और बाद में यह लहर उड़ीसा होती हुयी पश्चिम बंगाल तक पहुंची।

   इस पूरी कवायद में तीसरे मोर्चे की नारेबाजियां तो खूब हुयीं पर एक सक्षम विकल्प देने के बजाए सबके निशाने पर नरेंद्र मोदी रहे। नरेंद्र मोदी को कोस-कोस कर नेता बनाने वाले दरअसल यही उनके विरोधी हैं। सच्चाई तो यह है कि विरोध की राजनीति से कभी सृजन नहीं हो सकता। सही मायने में तीसरे मोर्चे के दलों ने अपने आपको वैकल्पिक राजनीति का प्रतीक बनाने में असफलता पायी और इसके चलते भाजपा का उभार हुआ। इसका एक बड़ा कारण भाजपा और संघ परिवार की सधी हुयी रणनीति थी। साथ ही एक सक्षम नेतृत्व समय पर देकर वे इस मैदान में एक समर्थ विकल्प की तरह उपस्थित हो गए। बाकी दल यहीं चूक गए और भाजपा ने कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ खुद को स्थापित कर लिया। इसमें सबसे दयनीय वामदलों की स्थिति रही जो कहीं के नहीं रहे, उनके कुछ विचारक और नेता आप में संभावनाएं तलाशते हुए एक नए विकल्प की कामनाएं करते रहे किंतु उस जोश को भी हम ठंडा होता हुआ देख रहे हैं। ऐसे में समय पर विकल्प न खड़े कर पाने और भारतीय राजनीति में अप्रासंगिक हो जाने की पीड़ा से उपजी बौखलाहट हमें वामपंथी विचारकों,लेखकों और काडर में साफ दिखती है। यह कड़वाहट अब उनके बयानों से आगे उनके लेखन और विश्लेषणों में भी दिखने लगी है। क्या ही अच्छा होता कि वे किसी व्यक्ति को निशाना बनाने के बजाए वे मुद्दों के आधार पर अपना जनाधार खड़ा करते और लोगों के बीच जाते। किंतु तीसरे मोर्चे की मैनेजरी का उनका सपना उन्हें मैदान में जाने से भी रोकता है और तमाम दलों के खिलाफ असहज सवाल उठाने से भी रोकता है। मुद्दों पर उनका चयनित दृष्टिकोण उन्हें जनता की नजरों में संदिग्ध भी बनाता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या ऐसी राजनीति किसी भी तरह से  देश का भविष्य का वाहक बन सकती है जहां मुद्दों के बजाए व्यक्ति पर हमला और वह भी सुपारी की शक्ल में किया जा रहा हो। अपनी वैचारिक जड़ों को मजबूत करने और जनसंघर्षों में लगने के बजाए आरोपों और गालियों की राजनीति से देश का वातावरण कलुषित हो रहा है।इस पूरे मंजर को देश की जनता भौंचक होकर देख  रही है। बावजूद इसके वह उम्मीद से खाली नहीं है, स्थान-स्थान पर उसने अपने नायक चुन लिए हैं। वह उन पर भरोसा करती है और उनके साथ खड़ी है। राज्यों में बड़ी संख्या में क्षेत्रीय दलों की बनती हुयी सरकारें बताती हैं जनता उनमें भरोसा जता रही है। 2009 के लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश, गुजरात जैसे भाजपा शासित राज्यों से भी कांग्रेस को बेहतर लोकसभा सीटें मिली थीं, क्योंकि राज्य के लोग केंद्र में उस समय भाजपा को एक सक्षम विकल्प नहीं मान रहे थे। उन्होंने यूपीए-2 को मौका दिया। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य से कांग्रेस को 22 सांसद दिए। इतिहास की इस घड़ी में जनता राज्य की विधानसभाओं में भले ही किसी को भी वोट दे चुकी हो किंतु केंद्र में वह एक सक्षम विकल्प के संकल्प से भरी दिखती है। भरोसा न हो तो देख लीजिएगा। 

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

जहरीली जुबान से घायल लोकतंत्र

मतदाता के विवेक पर भरोसा कीजिए, वह बहुत समझदार है
-संजय द्विवेदी

     देश में चुनावों का मौसम है, इसलिए जहरीली जुबान की होड़ है। राजनीतिक क्षेत्र में भाषा की गिरावट की यह अनोखा समय है। चुनाव आयोग की निगहबानी और टीवी मीडिया की अति सक्रियता के समय में भी नेता वाणी संयम से परहेज कर रहे हैं और रोजाना ऐसी स्थितियों का सृजनकर रहे हैं, जिससे वातावरण बिगड़ रहा है। चुनावी अभियानों की भाषा सामान्य दिनों से थोड़ी तीखी और गर्म होती ही है क्योंकि सामने खड़ी जनता को अपने पक्ष में ला-खड़े करने की होड़ यहां साफ दिखती है। बावजूद इसके सामाजिक संवाद की अपनी मर्यादाएं हैं और राजनेताओं को इसका पालन भी करना चाहिए।
   संसदीय लोकतंत्र का सौंदर्य यही है हमें आलोचना करने का संवैधानिक हक प्राप्त है। हम संसदीय प्रणाली को आलोचनाओं के साथ-साथ सृजनात्मक बनाने के भी प्रयास करें तो इससे राजनीति की गरिमा ही बढ़ेगी। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू लोकतांत्रिक मर्यादाओं के संस्थापक और उदार लोकतांत्रिक व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते हैं। वे बहसों के पक्ष में थे। उनका मानना था कि कोई भी लोकतंत्र इससे ही जीवंत बनता है। उनकी इन कोशिशों का ही नतीजा था कि हमें एक आदर्श और जीवंत लोकतांत्रिक परंपरा विरासत में मिली जहां विपक्ष को अपनी बात कहने के अवसर थे और सत्ता में आलोचना को स्वीकार करने का साहस था। किंतु आज के राजनीतिक वातावरण में विरोध को सुनने का माद्दा घटता जा रहा है। सुझावों को आज आलोचना समझा जा रहा है और आलोचना को लोग षडयंत्र मानने लगे हैं। किसी भी लोकतंत्र के लिए यह स्थिति खतरनाक है। लोकतंत्र में आलोचना को सुनने का साहस न होगा तो यह बेमानी हो जाएगा। पार्टियों और उनके समर्थकों को समझना होगा कि एक लोकतंत्र में रह रहे हैं, जहां असहमति का अपना महत्व है। कोई भी विचार संख्या बल से दबाया नहीं जा सकता। यहां विचारों की आजादी है। जो हमें हमारा संविधान प्रदान करता है। वाक् और अभिव्यक्ति की इस आजादी में संयम के साथ अपनी बात कहने का हक हम सभी को है। यहां भाषा की मर्यादा भी जुड़ी हुयी है। देश के एक केंद्रीय मंत्री कहते हैं कि मोदी को वोट देने वाले समुंदर में डूब जाएं और इससे देश टूट जाएगा। सही मायने में यह एक अलोकतांत्रिक विचार है। देश को जोड़ने का कामना कीजिए, तोड़ने वाले तो बहुत हैं। ऐसे विचार हमारे लोकतंत्र को चोट पहुंचाते हैं। बेहतर होगा कि हम मतदाता के विवेक पर भरोसा करें और यह मानकर चलें कि वह जो भी फैसला लेगा वह देश के हित में होगा। देश की सभी राजनीतिक पार्टियां इस देश के संविधान और उसकी मर्यादाओं के साथ बंधी हुयी हैं। किसी भी राजनीतिक पार्टी के सत्ता में आने से देश के टूटने का खतरा नहीं है। यह सब हवाई बातें हैं और लोगों को भयाक्रांत कर गोलबंद करने के लिए की जाती हैं।
    आज जबकि देश में लोकतंत्र का महापर्व चल रहा है, हमें भारतीय गणतंत्र की जड़ों को मजबूत करने की जरूरत है। वाणी और संवाद का संयम रखते हुए उन सवालों को रेखांकित करना चाहिए, जिससे इस देश का भविष्य जुड़ा हुआ है। लोकतंत्र में चुनाव जनसंवाद का माध्यम भी हैं, जिस बहाने देश के सभी राजनीतिक दल अपनी बात जनता तक पहुंचाते हैं। यह आम जनजीवन में राजनीतिक जागरूकता और मुद्दों पर समझ पैदा करने का अवसर भी है। इस बहाने जो लोकविमर्श खड़ा होता है उससे मतदाता की समझ तो बढ़ती ही है लोकतंत्र परिपक्व भी होता है। चुनावी गतिविधियों के दौरान राजनीति में रूचि न लेने वाले लोग भी राजनीतिक सवालों पर रूचि लेते हैं। इसका लाभ लेते हुए राजनीतिक चेतना पैदा करना राजनीतिक कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी होती है। इसके लिए संवाद की शुचिता, मुद्दों की समझ बहुत आवश्यक है।
   इस बार का लोकसभा चुनाव इस अर्थ में थोड़ा अलग है कि हम इसमें आवश्यक सवालों के बजाए भावनात्मक मुद्दों पर बात ज्यादा कर रहे हैं। इसके साथ ही सतही और छिछली नारेबाजियों और जुमलों पर जोर है। लोकसभा के चुनावों के मुद्दे देश का सामाजिक-आर्थिक विकास, सुशासन और समाज जीवन में शुचिता का सवाल होना चाहिए किंतु हम इन सवालों से टकराने के बजाए देश की राजनीति के परंपरागत मानकों जाति,पंथ और भाषाई आधारों पर ही अटके हुए हैं। कई बार लगता है मतदाता आगे निकल गया है और राजनीतिक पार्टियां पीछे छूट गयी हैं। मतदाता आज देश के भविष्य पर बात करना चाहता है। देश को सक्षम और प्रभावी नेतृत्व सौंपना चाहता है। अपने सपनों और आकांक्षाओं को सच होते देखना चाहता है पर राजनीति के मानक वही हैं। वह भय, असुरक्षा और संवाद में कड़वाहटें डालकर अपने लक्ष्य हासिल करना चाह रही है। देश में एक नए किस्म का जागरण हुआ है। दिल्ली में हुए तमाम जनांदोलनों और उसके नाते मध्यवर्ग में आई राजनीतिक चेतना ने देश का परिदृश्य बदलकर रख दिया है। इस जागरूकता ने मतदान के प्रति भी एक गंभीरता का सृजन किया है। यह शायद पहले ऐसे चुनाव  हैं जिसमें युवा मतदाता इतनी गंभीरता से हिस्सा ले रहे हैं। उन्हें शायद पहली बार अपने क्षेत्र के प्रत्याशियों और उनके प्रोफाइल की जानकारी है। वे उम्मीदों से भरे हुए हैं और अपने क्षेत्र से योग्यतम प्रत्याशी को चुनना चाहते हैं। चुनाव आयोग के जनजागरण अभियानों ने भी मतदाताओं को मतदान के प्रति जागरूक किया है। ऐसे जागृत समय में राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही बयानबाजियों पर भी लोगों की नजर है। वे हर उत्तेजक बयान और देशतोड़क बयान की भाषा का आकलन कर रहे हैं। इस चुनाव में मतदाता का विवेक न सिर्फ जागृत है वरन् वह आकलन भी कर रहा है। अपने फैसले लेते वक्त वह तमाम मुद्दों को ध्यान में रख रहा है।

    ऐसे समय में राजनेताओं को संयम बरतने और समाज में श्रेष्ठ संवाद की स्थितियां पैदा करनी चाहिए। समाज में आ रहे सकारात्मक परिवर्तनों का स्वागत करते हुए राजनीति और राजनीतिक दलों को अपने आचरण, व्यवहार और भाषा का ध्यान रखना होगा। क्योंकि तमाम राजनेताओं को जनता एक रोल माडल की तरह लेती है और उन सा आचरण करती है। उनके संवाद में शुचिता होगी, आशा होगी तो देश भी नई आकांक्षाओं से भर जाएगा। हमारा संविधान हमें वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी देते हुए इसलिए कुछ बंधन भी लगाता है जिससे केंद्र में समाज और राष्ट्रहित ही है। मुश्किल से मिली यह आजादी हमें गर्व  से भरती है कि हम एक ऐसे लोकतंत्र में हैं जहां हर आवाज के अपने मायने हैं। यहां कमजोर आवाजें भी अनसुनी नहीं की जाती हैं। एक हजार से ज्यादा राजनीतिक दल अपने तमाम मुद्दों के साथ हमारे बीच हैं, यही इस लोकतंत्र की शक्ति है। वह विमर्शों से संवादों से निरंतर मजबूत होता हुआ और कड़वाहटों को अनसुना करते हुए आगे बढ़ रहा है। यहां विरोध भी शक्ति देते हैं और मिथ्या समर्थन भी धराशाही होते हैं। देश की जनता की राजनीतिक परिपक्वता के परिणाम हमारे सामने हर चुनाव देकर जाते हैं। सही बात तो यह है कि जनता तो हमेशा सही फैसले करती है किंतु सत्ता में जाकर हमारे राजनीतिक दल जनता से कट जाते हैं और उनके आचरण में परिवर्तन आ जाता है। इसके चलते वे फिर जनता की अदालत में फेल हो जाते हैं। इसलिए जरूरी है कि राजनीतिक मैदान में गर्जन-तर्जन के बजाए हम अपने वाणी और कृति में एकता लाएं ताकि जनता का भरोसा बने और कायम रहे। अगर ऐसा हो सका तो लोगों की राजनीतिक क्षेत्र में भरोसा और बढ़ेगा जो अंततः जनतंत्र को सार्थक बनाएगा। क्योंकि कोई भी लोकतंत्र लोगों के भरोसे और सहभागिता से ही जीवंत होता है।

रविवार, 20 अप्रैल 2014

अपने जिंदादिल अंदाज और बेबाकी के लिए बहुत याद आएंगें देवेंद्र कर

वो हमारी जिंदगी का नहीं, स्मृतियों का हिस्सा बन गया
-संजय द्विवेदी

   मैंने कभी सोचा भी नहीं था अपने बहुत प्यारे दोस्त, सहयोगी और एक जिंदादिल इंसान देवेंद्र कर के लिए मुझे यह श्रद्धांजलि लिखनी पड़ेगी। तीन दिन पहले की ही बात है देवेंद्र का फोन आया था वे मुझसे पूछ रहे थे आखिर मप्र कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने मेरे खिलाफ बयान क्यों दिया है। ऐसा क्या लिख दिया सर। वही चहकता अंदाज पर भोपाल और रायपुर की दूरी को पाट देने वाली हंसी। सर विवाद आपका पीछा नहीं छोड़ते। फिर वही परिवार का हाल भाभी कैसी हैं बात कराइए। मैंने कहा आफिस में हूं, घर जाकर भूमिका से बात कराता हूं। पर बात नहीं हो पाई। अब हो भी नहीं पाएगी। प्रभु को इतना निर्मम होते देखना भी कठिन है। एक परिवार से तीन शव निकलें, यह क्या है महिमामय परमेश्वर। इस दुर्घटना में देवेंद्र ,उनकी पत्नी और बहन तीनों की मौत मेरे लिए हिलाकर रख देने वाली सूचना है। उनके बहुत प्यारे दो बच्चे भी घायल हैं।
   देवेंद्र का मेरा रिश्ता अजीब है। जिसमें ढेर सा प्यार था और स्वार्थ कुछ भी नहीं। जिन दिनों मैं दैनिक हरिभूमि, रायपुर का संपादक था उन्हीं दिनों देवेंद्र से पहली बार मिलना हुआ। साल 2003, महीना मई के आसपास। देवेंद्र हरिभूमि में कार्यरत थे और देवेंद्र के पास सूचनाओं की खान हुआ करती थी। रिश्तों को उसने कैसे कमाया कि रश्क होता था। प्रदेश के बड़े से बड़े नौकरशाह, राजनेता और समाज जीवन के अग्रणी लोग देवेंद्र को जानते थे। संपादक होने के नाते और मैदानी पत्रकारिता के प्रति अपने लंबे संकोच के नाते देवेंद्र ही मेरे लिए रायपुर में  हर ताले की चाबी थे। मेरे मंत्रालय का पास बनवाने से लेकर मान्यता दिलाने तक वे ही मेरे लिए आधार थे। उनके संपर्क गजब के थे। जहां से गुजरते देवेंद्र भाई, देवेंद्र भैया की आवाजें गूंजती। कभी उनके साथ घड़ी चौक स्थित उस समय के मंत्रालय में जाते तो लगता कि देवेंद्र की हस्ती क्या है। मंत्रालय के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों से लेकर आला अफसरों तक वही जलवा। देवेंद्र की एक खूबी यह भी थी वो सारा कुछ कह देता था। अच्छे रिर्पोटर होने के नाते पूरी रिर्पोट जस की तस, संपादन तो उसने सीखा ही नहीं था। जो कहना है बिना संपादन के, बिना लाग-लपेट के कहना। आपको बुरा लगे तो लगता रहे। देवेंद्र ने कभी आदमी या कुर्सी देखकर बात नहीं की। उसे न जानने वाले तो जो भी राय बनाते रहे हों, किंतु जिसने देवेंद्र को जान लिया वह देवेंद्र का हो गया। देवेंद्र अपनी जिंदगी की तरह नौकरी में भी कभी व्यवस्थित नहीं रहा। उनकी मरजी तो वे एक दिन में चार एक्सक्यूसिव खबरें तुरंत दे सकते हैं और मरजी नहीं तो कई दिन दफ्तर न आएं। वह भी बिना सूचना के। फोन कीजिए तो वही अट्टहास बस हाजिर हो रहे हैं सर। पर देवेंद्र को कौन पकड़ सकता है। वे तो रायपुर में हर जगह हैं, पर दफ्तर में नहीं। बड़े भैया हिमांशु द्विवेदी से लेकर सुकांत राजपूत, ब्रम्हवीर सिंह सब इसकी ताकीद करेंगें कि वो अपने दिल की सुनता था, किसी और की नहीं। उन दिनों हम और भूमिका (मेरी पत्नी) उसके दीनदयाल नगर घर तक जाते तो वह बिछ जाता, बेटा दौड़कर बगल की दुकान से ठंडे की बड़ी दो लीटर की बोतल लाता, जिसमें ज्यादा वही (बेटा) पीता। उसके गंभीर रूप से घायल होने से विचलित हूं। मैं बेटे को  समझाता कि बेटा बाबा रामदेव कहते हैं ठंडा कम पीयो । वह कहता अंकल आज तो पीने दो।
    देवेंद्र के दोस्तों की एक लंबी श्रृंखला है जिसमें इतने तरह के लोग हैं कि आप सोच भी नहीं सकते। किंतु संवाद की उसकी वही शैली, सबके साथ है। देवेंद्र को यह नहीं आता कि वह अपने संपादक से अलग तरीके से पेश आए और किसी साधारण व्यक्ति से अलग। उसके लिए राज्य के सम्मानित नेता और नौकरशाह और उसके दोस्त सब बराबर हैं। संवाद में ज्यादा वह ही बोलता था। कई बार दोस्तों से मजाक में इतना छेड़ता कि वो भागते हुए मेरे पास शिकायत दर्ज कराते। कहते सर देवेंद्र को संभाल लीजिए। मैं कहता भाई ये मेरे बस की बात नहीं। एक बार मेरे तब के रायपुर ,अवंति विहार स्थित आवास पर देवेंद्र और अजय वर्मा ऐसा लड़े कि उन्हें समझाना कठिन था। देवेंद्र हंसता रहा, अजय अपना क्रोध प्रकट करता रहा। चीखता रहा। देवेंद्र इन्हीं बातों से बहुत प्यारा था। वह कुछ भी दिल में नहीं रखता था। उसे मनचाहा सच कहने की आदत थी।
   बाद के दिनों मैं भोपाल आ गया किंतु देवेंद्र रिश्तों को भूलते नहीं और याद रखते थे। वो बराबर फोन कर मेरा और परिवार न सिर्फ हालचाल लेते रहे वरन रायपुर आने पर अपनी खुद ओढ़ी व्यस्तताओं में से मेरे लिए समय निकालते। मेरे हर आयोजन में वे खड़े दिखते और एक ही वाक्य छा गए सर। लेकिन हमें पता है कि देवेंद्र खुद अपने चाहने वालों के दिलोदिमाग पर छाया रहता था। एक बार मैं संयोगवश छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से रायपुर से भोपाल जा रहा था। मेरा भाग्य ही था कि सामने रीतेश साहू और देवेंद्र कर विराजे थे। वे दोनों दिल्ली जा रहे थे। एसी डिब्वों के सहयात्रियों को हमें अपने बीच पाकर दुख जरूर हुआ होगा पर भोपाल तक का रास्ता कैसा कटा कि वह आज भी अकेलेपन में देवेंद्र के खालिस जिंदादिल इंसान होने की गवाही सरीखा लगता है। देवेंद्र में खास किस्म का सेंस आफ ह्यूमर था कि आप उसकी बातों के दीवाने बन जाते हैं। पत्रकारिता में एक संवाददाता से प्रारंभ कर हमारे देखते ही देखते वह एक दैनिक अखबार आज की जनधारा का संपादक-प्रकाशक बना,किंतु उसने अपनी शैली और जमीन नहीं छोड़ी। वह अपनी कमजोरियों को जानता था, इसलिए उसे ही उसने अपनी ताकत बना लिया। उसने लिखने-पढ़ने से छुट्टी ले ली और रोजाना खबरें देने के तनाव से मुक्त होकर बिंदास अपने सामाजिक दायरों में विचरण करने लगा। मुझे तब भी लगता था कि देवेंद्र को कोई तनाव क्यों नहीं व्यापते और आज जब उसके न रहने की सूचना मिली है तो उसका जवाब भी मिल गया है। जीवन को इस तरह क्षण में नष्ट होते देखने के बाद मुझे लगता है कि वह जिंदगी के प्रति इतना लापरवाह क्यों था? क्यों उसने अपने को बहुत व्यवस्थित व्यक्ति के रूप में स्थापित करने के जतन नहीं किए? क्यों वह अपने रिश्तों को हर चीज से उपर मानता रहा? क्यों उस पर लोग भरोसा करते थे और वह क्यों भरोसे को तोड़ता नहीं था? 
   मुझे कई बार लगता है वह चालाक, तेज और दुनियादार लोगों के साथ रहा जरूर किंतु उसने जिंदगी अपनी बनाई दुनिया में ही जी। आखिरी बार मेरे दोस्त बबलू तिवारी मुझे रायपुर स्थित उसके जनधारा के दफ्तर ले गए। वह कहकर भी वहां पहुंचा नहीं था। मैंने फोन पर कहा बुलाकर भी गैरहाजिर। उसका जवाब था सर हम तो आपके दिल में रहते हैं। बस तुरंत हाजिर हुआ। देवेंद्र ऐसा ही था आपको बुलाकर गायब हो जाएगा। लेकिन आप पर खुदा न करे कोई संकट हो तो सबसे पहले अपना हाथ बढ़ाएगा। देवेंद्र इसीलिए इस चालाक-चतुर दुनिया में एक भरोसे का नाम था। उसके दोस्त और चाहनेवाले आज अगर उसकी मौत की खबर पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं तो मानिए कि उसने किस तरह आपके दिलों में जगह बनाई है। देवेंद्र जैसै लोग इसीलिए शायद ऊपरवाले को भी ज्यादे प्यारे लगते हैं क्योंकि जो अच्छा है, वह भगवान की नजर में भी अच्छा है। फोन को छूते हुए हाथ कांप रहे हैं। सुकांत राजपूत और हेमंत पाणिग्राही दोनों यह बुरी खबर मुझे बता चुके हैं। भरोसा नहीं हो रहा है कि की-बोर्ड पर थिरक रही उंगलियां देवेंद्र पर लिखा यह स्मृति लेख लिख चुकी हैं। आज से वह हमारी जिंदगी का नहीं, स्मृतियों का हिस्सा बन गया है। प्रभु उसकी आत्मा को शांति देना।  

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

चुनाव जो मीडिया में ज्यादा और मैदान में कम लड़ा जा रहा

मीडिया की सर्वव्यापी उपस्थिति से जीवंत हो रहा है लोकतंत्र

-संजय द्विवेदी



बेहतर चुनाव कराने की चुनाव आयोग की लंबी कवायद, राजनीतिक दलों का अभूतपूर्व उत्साह,मीडिया सहभागिता और सोशल मीडिया की धमाकेदार उपस्थिति ने इस लोकसभा चुनाव को वास्तव में एक अभूतपूर्व चुनाव में बदल दिया है। चुनाव आयोग के कड़ाई भरे रवैये से अब दिखने में तो उस तरह का प्रचार नजर नहीं आता, जिससे पता चले कि चुनाव कोई उत्सव भी है, पर मीडिया की सर्वव्यापी और सर्वग्राही उपस्थित ने इस कमी को भी पाट दिया है। मोबाइल फोनों से लैस हिंदुस्तानी अपने कान से ही अपने नेता की वाणी सुन रहा है। वे वोट मांग रहे हैं। मतदाता का उत्साह देखिए वह कहता है मुझे रमन सिंह का फोन आया। तो अगला कहता है मेरे पास नरेंद्र मोदी का फोन आ चुका है। शायद कुछ को राहुल गांधी, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल का भी फोन आया हो। यानि यह चुनाव मीडिया के कंधों पर लड़ा जा रहा है। एक टीवी स्क्रीन पर जैसे ही नरेंद्र मोदी प्रकट होते हैं, तुरंत दूसरा चैनल राहुल गांधी का इंटरव्यू प्रसारित करने लगता है। इसके बाद सबके लिए सोशल मीडिया का मैदान खुलता है, जहां इन दोनों साक्षात्कारों की समीक्षा जारी है।
    वास्तव में इस चुनाव में मीडिया ने जैसी भूमिका निभाई है, उसे रेखांकित किया जाना चाहिए। टेलीविजन पर मुद्दों पर इतनी बहसों का आकाश कब इतना निरंतर और व्यापक था? टीवी माध्यम अपनी सीमाओं के बावजूद जनचर्चा को एक व्यापक विमर्श में बदल रहा है। आपने गलती की नहीं कि आसमान उठा लेने के लिए प्रसार माध्यम तैयार बैठै हैं। सोशल मीडिया की इतनी ताकतवर उपस्थिति कभी देखने को नहीं मिली। इसके प्रभावों का आकलन शेष है। किंतु एक आम हिंदुस्तानी की भावनाएं, उसका गुस्सा,उत्साह, सपने, आकांक्षाएं, तो कभी खीज और बेबसी भी यहां पसरी पड़ी है। वे कह रहे हैं ,सुन रहे हैं और प्रतिक्रिया कर रहे हैं। वे मीडिया की भी आलोचना कर रहे हैं। कभी केजरीवाल तो कभी मोदी के ओवरडोज से वे भन्नाते भी हैं। किंतु यह जारी है और यहां सृजनात्मकता का विस्फोट हो रहा है। इंडिया टीवी पर चला नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू कैसे इस दौर का सबसे ज्यादा देखा जाने वाला इंटरव्यू बना इसे भी समझिए। अब किसी एक माध्यम की मोनोपोली नहीं रही। एक माध्यम दूसरे की सवारी कर रहा है। एक मीडिया दूसरे मीडिया को ताकत दे रहा है और सभी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए प्रतीत हो रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने शायद इसीलिए अपने साक्षात्कार में यह कहा कि सोशल मीडिया नहीं होता तो आम हिंदुस्तानी की क्रियेटिविटी का पता ही नहीं चलता। आप देखें तो यहां रचनात्मकता कैसे प्रकट होकर लोकव्यापी हो रही है। यहां लेखक, संपादक और रिर्पोटर नहीं हैं, किंतु सृजन जारी है। प्रतिक्रिया जारी है और इस बहाने एक विमर्श भी खड़ा हो रहा है, जिसे आप लोकविमर्श कह सकते हैं। सामाजिक बदलाव ने काफी हाउस, चाय की दूकानों, पटिए और ठीहों पर नजर गड़ा दी है, वे टूट रहे हैं या अपनी विमर्श की ताकत को खो रहे हैं। किंतु समानांतर माध्यमों ने इस कमी को काफी हद तक पूरा किया है। मोबाइल के स्मार्ट होते जाने ने इसे व्यापक और संभव बनाया है। अखबार भी अब सोशल साइट्स पर चल रहे एक लाइना विमर्शों, जोक्स  और संवादों को अपने पन्नों पर जगह दे रहे हैं। यह नया समय ही है, जिसने एक पंक्ति के विचार को महावाक्य में बदल दिया है। सूक्तियों में संवाद का समय लौट आया लगता है। एक पंक्ति का विचार किताबों पर भारी है। आपके लंबे और उबाउ वक्तव्यों पर टिप्पणी है- इतना लंबा कौन पढ़ेगा, फिर हिंदी भी तो नहीं आती। माध्यम आपको अपने लायक बनाना चाहता है। वह हिंग्लिश और रोमन में लिखने के लिए प्रेरित करता है। वह बता रहा है कि यहां विचरण करने वाली प्रजातियां अलग हैं और उनके व्यवहार का तरीका भी अलग है।
  मतदान इस दौर में चुनाव आयोग के अभियानों, मीडिया अभियानों और जनसंगठनों के अभियानों से एक प्रतिष्ठित काम बन गया है। वोट देकर आती सोशल मीडिया की अभ्यासी पीढ़ी अपनी उंगली दिखाती है। यानि वोट देना इस दौर में एक फैशन की तरह भी विस्तार पा रहा है। इस जागरूकता के लिए चुनाव आयोग के साथ सोशल मीडिया को भी सलाम भेजिए। कोऊ नृप होय हमें का हानि का मंत्रजाप करने वाले हमारे समाज में एक समय में ज्यादातर लोग वोट देकर कृपा ही कर रहे थे। बहाने भी गजब थे पर्ची नहीं मिली, धूप बहुत है, लाइन लंबी है, मेरे वोट देने से क्या होगा? पर इस समय की सूचनाएं अलग हैं, लोग विदेशों से अपनी सरकार बनाने आए हैं। दूल्हा मंडप में जाने से पहले मतदान को हाजिर है। जाहिर तौर पर ये उदाहरण एक समर्थ होते लोकतंत्र में अपनी उपस्थिति जताने और बताने की कवायद से कुछ ज्यादा हैं। वरना वोट निकलवाना तो राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं का ही काम हुआ करता था। वो ही अपने मतदाता को मतदान केंद्र तक ले जाने के लिए जिम्मेदार हुआ करते थे। लेकिन बदलते दौर में समाज में अपेक्षित चेतना का विस्तार हुआ है। मीडिया का इसमें एक अहम रोल है। देश में पिछले सालों में चले आंदोलनों ने समाज में एक अभूतपूर्व किस्म की संवेदना और चेतना का विस्तार भी किया है। बाबा रामदेव, अन्ना हजारे, श्री श्री रविशंकर से लेकर अरविंद केजरीवाल के साथियों के योगदान को याद कीजिए। नरेंद्र मोदी जैसे जिन नेताओं ने काफी पहले इस माध्यम की शक्ति को पहचाना वो आज इसकी फसल काट रहे हैं। ये बदलते भारत का चेहरा है। उसकी आकांक्षाओं और सपनों को सच करने का विस्फोट है। मीडिया ने इसे संभव किया है। सोशल मीडिया के व्यापक प्रसार ने देश की एकता और अखंडता के सरोकारों को भी व्यापक किया है। हमें भले लगता हो कि सोशल मीडिया पर सिर्फ फुरसती लोग इकट्टे हैं, किंतु एक नाजायज टिप्पणी करके देखिए और हिंदुस्तानी मन की प्रतिक्रियाएं आप तक आ जाएंगीं। वास्तव में यह नया माध्यम युवाओं का ही माध्यम है किंतु इस पर हर आयु-वर्ग के लोग विचरण कर रहे हैं। कुछ संवाद, कुछ आखेट तो कुछ अन्यान्न कारणों से यहां मौजूद हैं। बावजूद लोकविमर्श के तत्व यहां मिलते हैं। मोती चुनने के लिए थोड़ा श्रम तो लगता ही है। अपने स्वभाव से ही बेहद लोकतांत्रिक होने के नाते इस मीडिया की शक्ति का अंदाजा लगाना मुश्किल है। यहां टीवी का ड्रामा भी है तो प्रिंट माध्यमों की गंभीरता भी है। यहां होना, कनेक्ट होना है। सोशलाइट होना है, देशभक्त होना है।  
   एक समय में हिंदुस्तान का नेता बुर्जुग होता था। आज नौजवान देश के नेता हैं। इस परिघटना को भी मीडिया के विस्तार ने ही संभव किया है। पुराने हिंदुस्तान में जब तक किसी राजनेता को पूरा देश जानता था, वह बूढ़ा हो जाता था। बशर्ते वह किसी राजवंश का हिस्सा न हो। आज मीडिया क्रांति रातोरात आपको हिंदुस्तान के दिल में उतार सकती है। नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की परिघटना को ऐसे ही समझिए। आज देश मनोहर पारीकर और माणिक सरकार को भी जानता है, अन्ना हजारे को भी पहचानता है। उसने राहुल गांधी की पूरी युवा बिग्रेड के चेहरों को भी मीडिया के माध्यम से ही जाना है। यानि मीडिया ने हिंदुस्तानी राजनीति में किसी युवा का नेता होना भी संभव किया है। मीडिया का सही, रणनीतिक इस्तेमाल इस देश में भी, प्रदेश में भी ओबामा जैसी घटनाओं को संभव बना सकता है। अखिलेश यादव को आज पूरा हिंदुस्तान पहचानता है तो इसमें मुलायम पुत्र होने के साथ –साथ टीवी और सोशल मीडिया की देश व्यापी उपस्थिति का योगदान भी है। वे टीवी के स्क्रीन से लेकर मोबाइल स्क्रीन तक चमक रहे हैं। रंगीन हो चुके अखबार भी अब उनकी खूबसूरत तस्वीरों के साथ हाजिर हैं। काले-सफेद हर्फों में छपे काले अक्षर तब ज्यादा मायने रखते होंगें किंतु इस दौर में बढ़ी आंखों की चेतना को रंगीन चेहरे अधिक भाते हैं। माध्यम एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं। टीवी में अखबार दिखने लगा है, अखबार थोड़ा टीवी होना चाहते हैं। सोशल मीडिया एक साथ सब कुछ होना चाहता है।माध्यमों ने राजनीति को भी सुंदर और सुदर्शन बनाया है। दलों के नेता और प्रवक्ता भी अब रंगीन कुर्तों में नजर आने लगे हैं। फैब इंडिया जैसे कुरतों के ब्रांड इसी मीडिया समय में लोकप्रिय हो सकते थे। राजनीति में सफेदी के साथ कपड़ों की सफेदी भी घटी है। चेहरा टीवी के लिए, नए माध्यमों के लिए तैयार हो रहा है। इसलिए वह अपडेट है और स्मार्ट भी। अब माध्यम नए-नए रूप धरकर हमें अपने साथ लेना चाहते हैं। वे जैसा हमें बना रहे हैं, हम वैसा ही बन रहे हैं। सही मायने में यह मीडियामय समय है जिसमें राजनीति, समाज और उसके संवाद के सारे एजेंडे यहीं तय हो रहे हैं। टीवी की बहसों से लेकर सोशल साइट्स पर व्यापक विमर्शों के बावजूद कहीं कुछ कमी है जिसे हमारे प्रखर होते लोकतंत्र में हमें सावधानी से खोजना है। इस बात पर बहस हो सकती है कि यह लोकसभा चुनाव जितना मीडिया पर लड़ा गया, उतना मैदान में नहीं।
(लेखक मीडिया विशेषज्ञ और राजनीतिक विश्वेषक हैं)
  

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

माओवादी कायर हैं और सरकारें बहादुर!

माओवादी हमलों से रक्तरंजित छत्तीसगढ़ कब मुक्त होगा ?

-संजय द्विवेदी

  भारतीय राज्य की सहनशीलता की कहानियां देखनी हों तो माओवाद से उनके संघर्ष के तरीके से साफ पता चल जाएंगी। राजनीति कैसे किसी राज्य को भोथरा और अनिर्णय का शिकार बना सकती है, इसे बस्तर इलाके में हमारे लड़ाई लड़ने के तरीके से समझा जा सकता है। बस्तर के दरभा घाटी में शनिवार को हुआ माओवादी आतंकवादियों का हमला फिर सात लोगों की जान ले चुका है।
   दरभा में ये तीसरा हमला है। पहले हमले में कांग्रेस दिग्गजों महेंद्र कर्मा, विद्याचरण शुक्ल,  नंदकुमार पटेल सहित अनेक राजनीतिक कार्यकर्ताओं की निर्मम हत्या की गयी थी। उसी घाटी में आज तीसरी बार खून बहा है। हमले की बर्बरता देखिए वे संजीवनी नाम की सरकारी एंबुलेंस को भी नहीं छोड़ते। किंतु हमारे राज्य के पास इन विषयों से जूझने की फुसरत कहां हैं। लोग पूछने लगे हैं आखिर कितने हमलों के बाद? कितनी  जानें गंवाने के बाद आप चेतेंगें? हमारे नेताओं की पहली और आखिरी प्रतिक्रिया यही होती है नक्सली कायर हैं और कायराना हरकत कर रहे हैं। उन्हें मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। वाह चलिए मान लिया कि माओवादी और नक्सलवादी कायर हैं तो हमारा भारतीय राज्य अपनी बहादुरी के सबूत कब देगा? रोज भारत मां के लाल आदिवासी, आम नागरिक, साधारण सैनिक और सिपाही मौत के घाट उतारे जा रहे हैं और जेड सुरक्षा में घूमते हमारे राजपुरूषों के लिए बस्तर हाशिए का विषय है। राष्ट्रीय मीडिया पूरे दिन अमेठी में राहुल गांधी के नामांकन पर झूम रहा है और वहां लुटाए गए पांच सौ किलो गुलाब के फूलों पर निहाल है। इधर खून से नहाती हुयी इस घरती के पुत्रों की चिंता न राज्य को है न केंद्र है।
    1970 के बाद बस्तर के इस इलाके में घुस आए माओवादी एक समानांतर सरकार चला रहे हैं किंतु हमारी सरकारें और राजनीति जबानी जमाखर्च से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं। वे संविधान, चुनाव और गणतंत्र सबका मजाक बनाते हुए खूनी खेल खेल रहे हैं और हम माओवाद से लड़ने की नीति भी तय नहीं कर पाए हैं। विकास के कामों में आने वाले धन में अपना हिस्सा या लेवी सुनिश्चित कर ये नरभक्षी यहां मौत और भय का व्यापार कर रहे हैं। यूं जैसे जंगल में मंगल हो। बिछती हुयी लाशें, किसी को आंदोलित नहीं करतीं। अखबार भी इन खबरों को छापते-छापते थक चुके हैं। बस्तर से सिर्फ बुरी सूचनाओं का इंतजार ही होता है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या हम और हमारी सरकारें माओवादी आतंकवाद से लड़ना चाहती हैं? क्या सीआरपीएफ या पुलिस के जवानों और भोले-भाले आदिवासी समाज की मौतों से उन्हें फर्क पड़ता है या राजकाज की जिम्मेदारियों के बोझ तले उन्हें इस हाशिए पर पड़े इलाकों की सुध ही नहीं है। माओवादी आतंकवाद इस समय अपने सबसे विकृत रूप में पहुंच चुका है। बस्तर की घरती पर पल रहा यहा नासूर और इसे जड़ से उखाड़ने के संकल्प नदारद हैं। राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में अभी यह बहस पूरी नहीं हो पाई है कि यह एक राजनीतिक-सामाजिक समस्या है या हमारे गणतंत्र के खिलाफ एक सुनियोजित आतंकवादी कार्रवाई। ऐसे में सरकारी स्तर पर भ्रम बहुत गहरा है।
    माओवादी इलाकों में तैनात सुरक्षा बलों को भी पता नहीं है कि उन्हें लड़ना है या नहीं। वे सिर्फ हमले झेल रहे हैं, शहीद हो रहे हैं। सीआरपीएफ और पुलिस के न जाने कितने जवानों और आम नागरिकों की लाशों पर बैठी यह राजनीति आज भी माओवाद से निपटने के तरीकों को लेकर भ्रम में है। यह दिमागी दिवालिया रायपुर से लेकर दिल्ली तक पसरा हुआ है। प्रधानमंत्री इसे एक बड़ी समस्या करार दे चुके हैं पर उससे लड़ने के हथियार, विकल्प और संकल्पों से हमारी राजनीतिक-प्रशासनिक शक्तियां खाली हैं। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या हम वास्तव में माओवादी आतंकवाद से लड़ना चाहते हैं या हम इस बहाने आ रही मदद, धन और विकास के कामों के लिए आ रहे विपुल धन का दुरूपयोग करने के इच्छुक हैं। यह राज्य और राजनीति की निर्ममता ही कही जाएगी कि संकटग्रस्त इलाके भी उनके लिए आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का वरदान बन जाते हैं। इन इलाकों में सुरक्षा बलों की तैनाती के बावजूद आतंक कम नहीं हो रहा है, क्योंकि हमारे पास इनसे निपटने के लिए नीति नहीं हैं। क्या कारण है कि हमारी सरकारों ने कश्मीर घाटी को फौजों से पाट रखा है और बस्तर के नागरिकों को मरने के लिए छोड़ दिया गया है? जबकि यह बातें प्रमाणित हो चुकी हैं कि सभी आतंकी संगठनों के आपसी रिश्ते हैं चाहे वे इस्लामी जेहादी हों या बस्तर के क्रांतिकारी या नेपाल के अतिवादी। जंगलों तक पहुंचते हथियार,लेवी वसूली के माध्यम से खड़ा हुआ माओवादियों का आर्थिक तंत्र बताता है कि हमारी सरकारें इस खूनी खेल के खिलाफ सिर्फ जुबानी लड़ाई लड़ रही हैं। यह बातें तब और दुख देती हैं जब हमें यह पता चलता है हमारे राजनीतिक नेताओं, व्यापारियों, अधिकारियों और ठेकेदारों के बीच एक आम सहमति से इस इलाके के आर्थिक क्रिया व्यापार आराम से चल रहे हैं। राजनीति के इस घिनौने स्वरूप पर कई बार चिंताएं जतायी जा चुकी हैं। यह मानने का कोई कारण नहीं है भारतीय राज्य पर माओवादी भारी हैं। किंतु आम लोग यह जानना जरूर चाहेंगें कि अगर भारतीय राज्य माओवादी आतंकवाद से जूझना चाहता है तो उसके हाथ किसने बांध रखे हैं?
    यह एक सिद्ध तथ्य है कि माओवादी या नक्सलवादी एक खास विचारधारा से प्रेरित होकर काम करने वाले लोग हैं। जिनका अंतिम लक्ष्य भारत के गणतंत्र को समाप्त कर 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना है। अपने इस लक्ष्य को वे छिपाते भी नहीं हैं और पशुपति से तिरूपति के लाल गलियारे की कहानियां भी हमें पता हैं। इस घोषित लक्ष्य के बावजूद उनके पाले पोसे बुद्धिजीवियों और मानवाधिकारवादियों ने ऐसा वातावरण बना रखा है, जैसे वे जनमुक्ति की लड़ाई लड़ रहे हों। भारतीय राज्य की भीरूता देखिए कि वह भी इस दुष्प्रचार का शिकार हो रहा है। वह भी अपने नागरिकों की जान की कीमत पर। किसी भी राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने नागरिकों को भयमुक्त होकर जीने और अपने सपनों को सच करने के अवसर दे। किंतु इस जनतंत्र में माओवादी और उनके समर्थक मौज में हैं और आम जनता पिस रही है। देश इस समय एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है। आने वाले दिनों में एक नई सरकार दिल्ली में होगी। ऐसे में देश की जनता राजनीतिक दलों से यह ठोस आश्वासन भी चाहती है कि वे माओवादी के सवाल पर क्या सोचते हैं और कैसा रवैया अपनाएंगें। राजसत्ता हासिल करने के लिए दौड़ लगा रहे नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी समेत इस देश के हर राजनेता और राजनीतिक दल से देश के माओवादी आतंक से पीड़ित इलाकों की जनता ठोस आश्वासन चाहती है। शायद माओवादी आतंकवाद से मुक्ति ही इस देश की सबसे प्राथमिक और अहम मांग है, क्योंकि इस संघर्ष में हम अपने आदिवासी समाज के उन बंधुओं को नरभक्षियों के सामने झोंक चुके हैं जो प्रकृतिजीवी होने के नाते शांति और सद्भाव से रहना चाहते हैं।

(लेखक माओवाद के जानकार और राजनीतिक विश्वेषक हैं)