वो हमारी जिंदगी का नहीं, स्मृतियों का
हिस्सा बन गया
-संजय द्विवेदी
मैंने
कभी सोचा भी नहीं था अपने बहुत प्यारे दोस्त, सहयोगी और एक जिंदादिल इंसान
देवेंद्र कर के लिए मुझे यह श्रद्धांजलि लिखनी पड़ेगी। तीन दिन पहले की ही बात है
देवेंद्र का फोन आया था वे मुझसे पूछ रहे थे “आखिर मप्र कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने मेरे खिलाफ बयान क्यों दिया है।
ऐसा क्या लिख दिया सर।”
वही चहकता
अंदाज पर भोपाल और रायपुर की दूरी को पाट देने वाली हंसी। “सर विवाद आपका पीछा नहीं छोड़ते।” फिर वही परिवार का हाल “भाभी कैसी हैं बात कराइए।” मैंने कहा आफिस में हूं, घर जाकर भूमिका से बात कराता हूं। पर बात
नहीं हो पाई। अब हो भी नहीं पाएगी। प्रभु को इतना निर्मम होते देखना भी कठिन है।
एक परिवार से तीन शव निकलें, यह क्या है महिमामय परमेश्वर। इस दुर्घटना में
देवेंद्र ,उनकी पत्नी और बहन तीनों की मौत मेरे लिए हिलाकर
रख देने वाली सूचना है। उनके बहुत प्यारे दो बच्चे भी घायल हैं।
देवेंद्र का मेरा रिश्ता अजीब है। जिसमें ढेर सा प्यार था और स्वार्थ कुछ
भी नहीं। जिन दिनों मैं दैनिक हरिभूमि, रायपुर का संपादक था उन्हीं दिनों देवेंद्र
से पहली बार मिलना हुआ। साल 2003, महीना मई के आसपास। देवेंद्र हरिभूमि में
कार्यरत थे और देवेंद्र के पास सूचनाओं की खान हुआ करती थी। रिश्तों को उसने कैसे
कमाया कि रश्क होता था। प्रदेश के
बड़े से बड़े नौकरशाह, राजनेता और समाज जीवन के अग्रणी लोग देवेंद्र को जानते थे।
संपादक होने के नाते और मैदानी पत्रकारिता के प्रति अपने लंबे संकोच के नाते
देवेंद्र ही मेरे लिए रायपुर में हर ताले
की चाबी थे। मेरे मंत्रालय का पास बनवाने से लेकर मान्यता दिलाने तक वे ही मेरे
लिए आधार थे। उनके संपर्क गजब के थे। जहां से गुजरते देवेंद्र भाई, देवेंद्र भैया
की आवाजें गूंजती। कभी उनके साथ घड़ी चौक स्थित उस समय के मंत्रालय में जाते तो
लगता कि देवेंद्र की हस्ती क्या है। मंत्रालय के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों से
लेकर आला अफसरों तक वही जलवा। देवेंद्र की एक खूबी यह भी थी वो सारा कुछ कह देता
था। अच्छे रिर्पोटर होने के नाते पूरी रिर्पोट जस की तस, संपादन तो उसने सीखा ही
नहीं था। जो कहना है बिना संपादन के, बिना लाग-लपेट के कहना। आपको बुरा लगे तो
लगता रहे। देवेंद्र ने कभी आदमी या कुर्सी देखकर बात नहीं की। उसे न जानने वाले तो
जो भी राय बनाते रहे हों, किंतु जिसने देवेंद्र को जान लिया वह देवेंद्र का हो
गया। देवेंद्र अपनी जिंदगी की तरह नौकरी में भी कभी व्यवस्थित नहीं रहा। उनकी मरजी
तो वे एक दिन में चार एक्सक्यूसिव खबरें तुरंत दे सकते हैं और मरजी नहीं तो कई दिन
दफ्तर न आएं। वह भी बिना सूचना के। फोन कीजिए तो वही अट्टहास “बस हाजिर हो रहे हैं सर।” पर देवेंद्र को कौन पकड़ सकता है। वे तो रायपुर
में हर जगह हैं, पर दफ्तर में नहीं। बड़े भैया हिमांशु
द्विवेदी से लेकर सुकांत राजपूत, ब्रम्हवीर सिंह सब इसकी ताकीद करेंगें कि वो अपने
दिल की सुनता था, किसी और की नहीं। उन दिनों हम और भूमिका (मेरी पत्नी) उसके दीनदयाल
नगर घर तक जाते तो वह बिछ जाता, बेटा दौड़कर बगल की दुकान से ठंडे की बड़ी दो लीटर
की बोतल लाता, जिसमें ज्यादा वही (बेटा) पीता। उसके गंभीर रूप से घायल होने से
विचलित हूं। मैं बेटे को समझाता कि “बेटा बाबा रामदेव कहते हैं ठंडा कम पीयो ।“ वह कहता ‘अंकल आज तो पीने दो।‘
देवेंद्र
के दोस्तों की एक लंबी श्रृंखला है जिसमें इतने तरह के लोग हैं कि आप सोच भी नहीं
सकते। किंतु संवाद की उसकी वही शैली,
सबके साथ है। देवेंद्र को यह नहीं आता कि वह अपने संपादक से अलग तरीके से पेश आए
और किसी साधारण व्यक्ति से अलग। उसके लिए राज्य के सम्मानित नेता और नौकरशाह और उसके
दोस्त सब बराबर हैं। संवाद में ज्यादा वह ही बोलता था। कई बार दोस्तों से मजाक में
इतना छेड़ता कि वो भागते हुए मेरे पास शिकायत दर्ज कराते। कहते ‘सर देवेंद्र को संभाल लीजिए।‘ मैं कहता “भाई ये मेरे बस की बात नहीं।“
एक बार मेरे तब के रायपुर ,अवंति विहार स्थित आवास पर देवेंद्र और अजय वर्मा ऐसा लड़े
कि उन्हें समझाना कठिन था। देवेंद्र हंसता रहा, अजय अपना क्रोध प्रकट करता रहा।
चीखता रहा। देवेंद्र इन्हीं बातों से बहुत प्यारा था। वह कुछ भी दिल में नहीं रखता
था। उसे मनचाहा सच कहने की आदत थी।
बाद के दिनों मैं भोपाल आ गया किंतु देवेंद्र
रिश्तों को भूलते नहीं और याद रखते थे। वो बराबर फोन कर मेरा और परिवार न सिर्फ
हालचाल लेते रहे वरन रायपुर आने पर अपनी खुद ओढ़ी व्यस्तताओं में से मेरे लिए समय
निकालते। मेरे हर आयोजन में वे खड़े दिखते और एक ही वाक्य ‘छा गए सर।‘ लेकिन हमें पता है कि देवेंद्र खुद अपने चाहने वालों के दिलोदिमाग पर
छाया रहता था। एक बार मैं संयोगवश छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से रायपुर से भोपाल जा रहा
था। मेरा भाग्य ही था कि सामने रीतेश साहू और देवेंद्र कर विराजे थे। वे दोनों
दिल्ली जा रहे थे। एसी डिब्वों के सहयात्रियों को हमें अपने बीच पाकर दुख जरूर हुआ
होगा पर भोपाल तक का रास्ता कैसा कटा कि वह आज भी अकेलेपन में देवेंद्र के खालिस
जिंदादिल इंसान होने की गवाही सरीखा लगता है। देवेंद्र में खास किस्म का ‘सेंस आफ ह्यूमर’ था कि आप उसकी बातों के दीवाने बन जाते
हैं। पत्रकारिता में एक संवाददाता से प्रारंभ कर हमारे देखते ही देखते वह एक दैनिक
अखबार ‘आज की जनधारा’ का संपादक-प्रकाशक बना,किंतु उसने अपनी
शैली और जमीन नहीं छोड़ी। वह अपनी कमजोरियों को जानता था, इसलिए उसे ही उसने अपनी
ताकत बना लिया। उसने लिखने-पढ़ने से छुट्टी ले ली और रोजाना खबरें देने के तनाव से
मुक्त होकर बिंदास अपने सामाजिक दायरों में विचरण करने लगा। मुझे तब भी लगता था कि
देवेंद्र को कोई तनाव क्यों नहीं व्यापते और आज जब उसके न रहने की सूचना मिली है
तो उसका जवाब भी मिल गया है। जीवन को इस तरह क्षण में नष्ट होते देखने के बाद मुझे
लगता है कि वह जिंदगी के प्रति इतना लापरवाह क्यों था? क्यों उसने अपने को बहुत व्यवस्थित
व्यक्ति के रूप में स्थापित करने के जतन नहीं किए? क्यों वह अपने रिश्तों को
हर चीज से उपर मानता रहा?
क्यों उस पर लोग भरोसा करते थे और वह क्यों भरोसे
को तोड़ता नहीं था?
मुझे
कई बार लगता है वह चालाक, तेज और दुनियादार लोगों के साथ रहा जरूर किंतु उसने जिंदगी
‘अपनी बनाई दुनिया’ में ही जी। आखिरी बार मेरे दोस्त बबलू
तिवारी मुझे रायपुर स्थित उसके जनधारा के दफ्तर ले गए। वह कहकर भी वहां पहुंचा
नहीं था। मैंने फोन पर कहा “बुलाकर
भी गैरहाजिर”। उसका जवाब था “सर हम तो आपके दिल में रहते हैं। बस तुरंत
हाजिर हुआ।“ देवेंद्र ऐसा ही था आपको बुलाकर गायब हो
जाएगा। लेकिन आप पर खुदा न करे कोई संकट हो तो सबसे पहले अपना हाथ बढ़ाएगा। देवेंद्र
इसीलिए इस चालाक-चतुर दुनिया में एक भरोसे का नाम था। उसके दोस्त और चाहनेवाले आज अगर
उसकी मौत की खबर पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं तो मानिए कि उसने किस तरह आपके
दिलों में जगह बनाई है। देवेंद्र जैसै लोग इसीलिए शायद ऊपरवाले को भी ज्यादे
प्यारे लगते हैं क्योंकि जो अच्छा है,
वह भगवान की नजर में भी अच्छा है। फोन को छूते हुए हाथ कांप रहे हैं। सुकांत
राजपूत और हेमंत पाणिग्राही दोनों यह बुरी खबर मुझे बता चुके हैं। भरोसा नहीं हो
रहा है कि की-बोर्ड पर थिरक रही उंगलियां देवेंद्र पर लिखा यह स्मृति लेख लिख चुकी
हैं। आज से वह हमारी जिंदगी का नहीं, स्मृतियों का हिस्सा बन गया है। प्रभु उसकी
आत्मा को शांति देना।
हरिभूमि के रायपुर संस्करण की शुरूआत से उससे जुडा था मैं, पर देवेन्द्र भैया से तब सम्पर्क हुआ जब अचाानक मेरा तबादला रायपुर कर दिया गया...घर परिवार को छोडकर अचानक रायपुर आना और वहां सिटी रिपोर्टिंग का काम करना, पहले भी रायपुर में काम कर चुका था, इसलिए फिल्ड में काम करने में दिक्कत नहीं थी, पर अचानक, घर परिवार से दूर... तनाव था..... साथ में काम करने वाले नीरज, ब्रम्हवीर, अजय और बाकी लोगों के साथ से काम आसान हुआ और इस बीच देवेन्द्र भैया से ऐसा रिश्ता बन गया जो अब उनक जाने के बाद भी नहीं टूट सकता...... वो हर दिन काम के बीच से उठाकर चाय पीने ले जाते थे, खूब समझाते थे.... अपने दीनदयाल नगर वाले घर भी कई बार ले गए, कभी महसूस ही नहीं होने दिया कि रायपुर में अकेला हूं.......
जवाब देंहटाएंरायपुर में काम करने जहां संजय जी ने हौसला दिया, वहीं इस हौसले को बनाए रखने, एक बडे भाई की तरह हमेशा संबल देने वाले रहे देवेन्द्र भैया......
भैया आप बहुत याद आओगे.......
क्यों उसने अपने को बहुत व्यवस्थित व्यक्ति के रूप में स्थापित करने के जतन नहीं किए? क्यों वह अपने रिश्तों को हर चीज से उपर मानता रहा? क्यों उस पर लोग भरोसा करते थे और वह क्यों भरोसे को तोड़ता नहीं था?........सर...बहुत सही आपने विश्लेषण किया देवेद्र भैया की फितरत का....वो इंसान ऐसे थे कि कभी भी जिसे भुलाया नहीं जा सकता....
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