रविवार, 11 मई 2014

भोपाल में रहते हुए

-संजय द्विवेदी


    तमाम नौजवानों की तरह मैं भी अपनी नजर से दुनिया देखने के लिए ही भोपाल में 1994 में दाखिल हुआ। पहली बार किसी इतने खूबसूरत शहर से वास्ता पड़ा था। पहाड़ियों पर बसा और अपनी जमीं पर ढेर सा पानी समेटे यह शहर तब से दिल में बसा हुआ है। इस शहर में रहते हुए डिग्रियां बटोरीं, जमाने के लायक बनते हुए अखबारनवीस से प्राध्यापक भी बने। बड़े तालाब के किनारे तो कभी मनीषा झील के पानी को उलीचते हुए कितनी शामें बिताईं। कभी आंखों में देखा तो कभी पानी में छलकती आंखें देखीं। यहीं समझा कि आंखों के पानी के साथ झील में भी पानी जरूरी है। भोपाल तबसे और बड़ा और खूबसूरत हुआ है। आज भी यहां पटिए (पुराने भोपाल में बातचीत के अड्डे) आबाद हैं, काफी हाउस जिंदा हैं और मुहब्बतें भी पल रही हैं। रिश्ते और जुबान आज भी यहां की खासियत हैं। न्यू मार्केट में टाप इन टाउन पर सरगोशियां करते हुए कितनी शामें और सुबहें काटीं हैं। पर वे दिन अलग थे दोस्त फुरसत में थे। अब भोपाल भी भागने को तैयार है, उसे भी नई सदी ने नई चाल में ढाल दिया है। राजा भोज के इस शहर में मेरे जैसे न कितने गंगू अपने सपने लेकर आते हैं और सच भी करते हैं।अब यह शहर, सपनों की तरफ दौड़ लगता शहर बन रहा है। उम्मीदों का शहर बन रहा है। उत्तर भारत के तमाम राज्यों की राजधानियां रश्क करती हैं ,काश वे भोपाल हो पातीं। कांक्रीट के जंगलों में भी हरियाली समेटने में अब तक यह शहर सफल रहा है। बुरी नजरें लगती हैं, पर कायम नहीं रह पातीं। वीआईपी रोड पर अब राजा भोज भी खड़े हैं, तालाब में एक बड़ी तलवार के साथ जैसे कह रहे हों इस शहर का रक्षक अब आ गया है। शहर की तासीर में एक अजीब सी खुशबू है। एक गंगा-जमुनी तहजीब यहां बिखरी दिखती है। जहां रिश्ते बहुत बनावटी नहीं हैं। व्यापार और जिंदगी भी साझेपन में चल रही है। पुराना भोपाल, बैरागढ़ और उसके बाजार कुछ अलग तरह से अपने ठहरे जीवन के साथ नए जमाने से ताल मिलाने की कोशिशों में हैं तो नई उग रही कालोनियां एक नया सामाजिक परिवेश और विमर्श रच रही हैं। जहां रिश्ते नए तरह से पारिभाषित हो रहे हैं।
  अपने खास अंदाज के बावजूद भोपाल महानगर बनने की यात्रा पर है। नए उगते मल्टीप्लेक्स, माल और मेगा शो-रूम अपनी नजाकत के साथ इस शहर में अपने होने को साबित करना चाहते हैं पर पुराने भोपाल के बाजार भी आबाद हैं। उनमें उतनी ही भीड़ हैं, मोल-भाव हैं, रिश्ते हैं और पहचान है। कोई शहर कैसे अपना कायान्तरण करता है भोपाल इसे बताता है। जब मैं इस शहर में आया, वह आज का भोपाल नहीं है। आज का भोपाल शहर चारों तरफ अपनी भुजाएं फैला रहा है वह अपने भूगोल में तमाम खेत-खलिहानों और गांवों को निगल चुका है। लाल बसों ने शहर की और सड़कों की रंगत बदल दी है पर पूरी तरह हिलता -बजती हुयी और आर्तनाद करती छोटी बसें भी सेवा में जुटी हैं। भोपाल ने राजा भोज की यादों से जुड़कर नवाबों का समय देखा है तो आजाद भारत के साढ़े छः दशक की यात्रा ने उसे बहुत जिम्मेदार और परिपक्व बनाया है।

  एक समय धीरे-धीरे सरकता शहर आज गति से दौड़ रहा है और खुद को महानगर बनाने और साबित करने की स्पर्धा में शामिल है। भोपाल को लेकर कई बिंब बनते हैं तो कई टूटते भी हैं। इस शहर ने खुद को कला, संस्कृति और साहित्य की राजधानी के तौर पर खुद को स्थापित करने के सचेतन जतन भी किए हैं। इसके चलते कलाओं, संस्कृति और यहां तक की आदिवासी संस्कृति को संरक्षित करने के प्रयास भी यहां दिखते हैं। साहित्य और जनसरोकारों से जुड़े लोग भोपाल को आज भी एक जिंदा और उम्मीदों वाले शहर की तरह देखते हैं। यह वह शहर है जो बाजार की आंधी में भी अपनी खास पहचान के साथ खड़ा है। जहां कलाएं, साहित्य, थियेटर, गायन-वादन, आदिवासी संस्कृति और मनुष्यता के मूल्य बचे हुए हैं। यह शहर बाजार की हवाओं से टकराता हुआ भी अपने सांस्कृतिक वैभव और मूल्यबोध के साथ खड़ा है। नई कलाएं और नई अभिव्यक्तियां यहां स्वागत व स्वीकार्यता पाती हैं। यहां होना एक खूबसूरत शहर में होना भर नहीं है, यह अपने लिए एक ऐसा कोना तलाशने की जगह भी देता है जिसे शायद आप अपना कह सकें। संवेदनशील मनुष्यों के लिए भोपाल की फिजां में आज भी ज्यादा अपनापन और ज्यादा मानवीयता मौजूद है। इसे यहां होते हुए ही महसूस किया जा सकता है।

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