सोमवार, 28 अप्रैल 2014

जहरीली जुबान से घायल लोकतंत्र

मतदाता के विवेक पर भरोसा कीजिए, वह बहुत समझदार है
-संजय द्विवेदी

     देश में चुनावों का मौसम है, इसलिए जहरीली जुबान की होड़ है। राजनीतिक क्षेत्र में भाषा की गिरावट की यह अनोखा समय है। चुनाव आयोग की निगहबानी और टीवी मीडिया की अति सक्रियता के समय में भी नेता वाणी संयम से परहेज कर रहे हैं और रोजाना ऐसी स्थितियों का सृजनकर रहे हैं, जिससे वातावरण बिगड़ रहा है। चुनावी अभियानों की भाषा सामान्य दिनों से थोड़ी तीखी और गर्म होती ही है क्योंकि सामने खड़ी जनता को अपने पक्ष में ला-खड़े करने की होड़ यहां साफ दिखती है। बावजूद इसके सामाजिक संवाद की अपनी मर्यादाएं हैं और राजनेताओं को इसका पालन भी करना चाहिए।
   संसदीय लोकतंत्र का सौंदर्य यही है हमें आलोचना करने का संवैधानिक हक प्राप्त है। हम संसदीय प्रणाली को आलोचनाओं के साथ-साथ सृजनात्मक बनाने के भी प्रयास करें तो इससे राजनीति की गरिमा ही बढ़ेगी। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू लोकतांत्रिक मर्यादाओं के संस्थापक और उदार लोकतांत्रिक व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते हैं। वे बहसों के पक्ष में थे। उनका मानना था कि कोई भी लोकतंत्र इससे ही जीवंत बनता है। उनकी इन कोशिशों का ही नतीजा था कि हमें एक आदर्श और जीवंत लोकतांत्रिक परंपरा विरासत में मिली जहां विपक्ष को अपनी बात कहने के अवसर थे और सत्ता में आलोचना को स्वीकार करने का साहस था। किंतु आज के राजनीतिक वातावरण में विरोध को सुनने का माद्दा घटता जा रहा है। सुझावों को आज आलोचना समझा जा रहा है और आलोचना को लोग षडयंत्र मानने लगे हैं। किसी भी लोकतंत्र के लिए यह स्थिति खतरनाक है। लोकतंत्र में आलोचना को सुनने का साहस न होगा तो यह बेमानी हो जाएगा। पार्टियों और उनके समर्थकों को समझना होगा कि एक लोकतंत्र में रह रहे हैं, जहां असहमति का अपना महत्व है। कोई भी विचार संख्या बल से दबाया नहीं जा सकता। यहां विचारों की आजादी है। जो हमें हमारा संविधान प्रदान करता है। वाक् और अभिव्यक्ति की इस आजादी में संयम के साथ अपनी बात कहने का हक हम सभी को है। यहां भाषा की मर्यादा भी जुड़ी हुयी है। देश के एक केंद्रीय मंत्री कहते हैं कि मोदी को वोट देने वाले समुंदर में डूब जाएं और इससे देश टूट जाएगा। सही मायने में यह एक अलोकतांत्रिक विचार है। देश को जोड़ने का कामना कीजिए, तोड़ने वाले तो बहुत हैं। ऐसे विचार हमारे लोकतंत्र को चोट पहुंचाते हैं। बेहतर होगा कि हम मतदाता के विवेक पर भरोसा करें और यह मानकर चलें कि वह जो भी फैसला लेगा वह देश के हित में होगा। देश की सभी राजनीतिक पार्टियां इस देश के संविधान और उसकी मर्यादाओं के साथ बंधी हुयी हैं। किसी भी राजनीतिक पार्टी के सत्ता में आने से देश के टूटने का खतरा नहीं है। यह सब हवाई बातें हैं और लोगों को भयाक्रांत कर गोलबंद करने के लिए की जाती हैं।
    आज जबकि देश में लोकतंत्र का महापर्व चल रहा है, हमें भारतीय गणतंत्र की जड़ों को मजबूत करने की जरूरत है। वाणी और संवाद का संयम रखते हुए उन सवालों को रेखांकित करना चाहिए, जिससे इस देश का भविष्य जुड़ा हुआ है। लोकतंत्र में चुनाव जनसंवाद का माध्यम भी हैं, जिस बहाने देश के सभी राजनीतिक दल अपनी बात जनता तक पहुंचाते हैं। यह आम जनजीवन में राजनीतिक जागरूकता और मुद्दों पर समझ पैदा करने का अवसर भी है। इस बहाने जो लोकविमर्श खड़ा होता है उससे मतदाता की समझ तो बढ़ती ही है लोकतंत्र परिपक्व भी होता है। चुनावी गतिविधियों के दौरान राजनीति में रूचि न लेने वाले लोग भी राजनीतिक सवालों पर रूचि लेते हैं। इसका लाभ लेते हुए राजनीतिक चेतना पैदा करना राजनीतिक कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी होती है। इसके लिए संवाद की शुचिता, मुद्दों की समझ बहुत आवश्यक है।
   इस बार का लोकसभा चुनाव इस अर्थ में थोड़ा अलग है कि हम इसमें आवश्यक सवालों के बजाए भावनात्मक मुद्दों पर बात ज्यादा कर रहे हैं। इसके साथ ही सतही और छिछली नारेबाजियों और जुमलों पर जोर है। लोकसभा के चुनावों के मुद्दे देश का सामाजिक-आर्थिक विकास, सुशासन और समाज जीवन में शुचिता का सवाल होना चाहिए किंतु हम इन सवालों से टकराने के बजाए देश की राजनीति के परंपरागत मानकों जाति,पंथ और भाषाई आधारों पर ही अटके हुए हैं। कई बार लगता है मतदाता आगे निकल गया है और राजनीतिक पार्टियां पीछे छूट गयी हैं। मतदाता आज देश के भविष्य पर बात करना चाहता है। देश को सक्षम और प्रभावी नेतृत्व सौंपना चाहता है। अपने सपनों और आकांक्षाओं को सच होते देखना चाहता है पर राजनीति के मानक वही हैं। वह भय, असुरक्षा और संवाद में कड़वाहटें डालकर अपने लक्ष्य हासिल करना चाह रही है। देश में एक नए किस्म का जागरण हुआ है। दिल्ली में हुए तमाम जनांदोलनों और उसके नाते मध्यवर्ग में आई राजनीतिक चेतना ने देश का परिदृश्य बदलकर रख दिया है। इस जागरूकता ने मतदान के प्रति भी एक गंभीरता का सृजन किया है। यह शायद पहले ऐसे चुनाव  हैं जिसमें युवा मतदाता इतनी गंभीरता से हिस्सा ले रहे हैं। उन्हें शायद पहली बार अपने क्षेत्र के प्रत्याशियों और उनके प्रोफाइल की जानकारी है। वे उम्मीदों से भरे हुए हैं और अपने क्षेत्र से योग्यतम प्रत्याशी को चुनना चाहते हैं। चुनाव आयोग के जनजागरण अभियानों ने भी मतदाताओं को मतदान के प्रति जागरूक किया है। ऐसे जागृत समय में राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही बयानबाजियों पर भी लोगों की नजर है। वे हर उत्तेजक बयान और देशतोड़क बयान की भाषा का आकलन कर रहे हैं। इस चुनाव में मतदाता का विवेक न सिर्फ जागृत है वरन् वह आकलन भी कर रहा है। अपने फैसले लेते वक्त वह तमाम मुद्दों को ध्यान में रख रहा है।

    ऐसे समय में राजनेताओं को संयम बरतने और समाज में श्रेष्ठ संवाद की स्थितियां पैदा करनी चाहिए। समाज में आ रहे सकारात्मक परिवर्तनों का स्वागत करते हुए राजनीति और राजनीतिक दलों को अपने आचरण, व्यवहार और भाषा का ध्यान रखना होगा। क्योंकि तमाम राजनेताओं को जनता एक रोल माडल की तरह लेती है और उन सा आचरण करती है। उनके संवाद में शुचिता होगी, आशा होगी तो देश भी नई आकांक्षाओं से भर जाएगा। हमारा संविधान हमें वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी देते हुए इसलिए कुछ बंधन भी लगाता है जिससे केंद्र में समाज और राष्ट्रहित ही है। मुश्किल से मिली यह आजादी हमें गर्व  से भरती है कि हम एक ऐसे लोकतंत्र में हैं जहां हर आवाज के अपने मायने हैं। यहां कमजोर आवाजें भी अनसुनी नहीं की जाती हैं। एक हजार से ज्यादा राजनीतिक दल अपने तमाम मुद्दों के साथ हमारे बीच हैं, यही इस लोकतंत्र की शक्ति है। वह विमर्शों से संवादों से निरंतर मजबूत होता हुआ और कड़वाहटों को अनसुना करते हुए आगे बढ़ रहा है। यहां विरोध भी शक्ति देते हैं और मिथ्या समर्थन भी धराशाही होते हैं। देश की जनता की राजनीतिक परिपक्वता के परिणाम हमारे सामने हर चुनाव देकर जाते हैं। सही बात तो यह है कि जनता तो हमेशा सही फैसले करती है किंतु सत्ता में जाकर हमारे राजनीतिक दल जनता से कट जाते हैं और उनके आचरण में परिवर्तन आ जाता है। इसके चलते वे फिर जनता की अदालत में फेल हो जाते हैं। इसलिए जरूरी है कि राजनीतिक मैदान में गर्जन-तर्जन के बजाए हम अपने वाणी और कृति में एकता लाएं ताकि जनता का भरोसा बने और कायम रहे। अगर ऐसा हो सका तो लोगों की राजनीतिक क्षेत्र में भरोसा और बढ़ेगा जो अंततः जनतंत्र को सार्थक बनाएगा। क्योंकि कोई भी लोकतंत्र लोगों के भरोसे और सहभागिता से ही जीवंत होता है।

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