आतंकवाद का विस्तार अब नए रूपों में हो रहा है
-संजय द्विवेदी
आतंकवाद को लेकर हमारी ढीली-ढाली शैली पर समय-समय पर टिप्पणियां होती रहती हैं। एक बड़े खतरे के रूप में इस संकट को स्वीकारने के बावजूद हम इसके खिलाफ कोई सार्थक रणनीति नहीं बना पाए हैं। नक्सलवाद और आतंकवाद के खिलाफ हमारी शैली घुटनाटेक ही है और हमारा राज्य हमेशा हास्य का पात्र ही बनता है। सीमाओं के भीतर चल रहे आतंकवाद के विरूद्ध भी हम राज्य-केंद्र की लड़ाई से बाहर नहीं निकल पाते और समाधान की संयुक्त कोशिशों के बजाए दोषारोपण ही हमारे हिस्से आता है। जबकि ऐसे सवालों से सिर्फ अपेक्षित संवेदनशीलता से ही जूझा जा सकता है। हम देखें तो राष्ट्रीयता के प्रति सोच संदेह के दायरे में है। देश की एकता और सुरक्षा को लेकर लापरवाही हमारे चरित्र में है और हम बड़ी आसानी से अपने गणतंत्र और राष्ट्र की आलोचना का कोई अवसर नहीं छोड़ते। कर्तव्यबोध के बजाए हमारा अधिकारबोध अधिक जागृत है। देश के लिए दीवानापन और कर्तव्यनिष्ठा खोजे नहीं मिलती।
ऐसे कठिन समय में जब मैदानी युद्ध कम लड़े जा रहे हैं, हमें खतरा अलग तरह के युद्धों से भी है। जिसमें एक बड़ा खतरा आज साइबर वारफेयर और वैचारिक युद्ध है। पूर्व में युद्ध का चरित्र अलग था, जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति से युद्ध करता था। सही मायने में तब यह शारीरिक बल पर निर्भर करता था कि कौन किससे जीतेगा। दूर से मारने वाले हथियार आए और पशुओं का शिकार प्रारंभ हुआ। आज का समय बदल गया है, इस दौर में सूचना एक तीक्ष्ण हथियार में बदल गयी है। आज सूचना एक शक्ति भी है और हथियार भी है। ‘कालोनिजम आफ माइंड’ यानि यह दौर वैचारिक साम्राज्यवाद का है। जिसमें हथियारों की होड़ के साथ दिमागों पर भी कब्जा करने की जंग चल रही है। दिमागों पर कब्जा करने के लिए एक लंबी रणनीति चल रही है। यह भी एक लंबी कवायद है जो पश्चिमी देश करते रहे हैं। पूर्व में भी संचार माध्यमों पर कब्जे के नाते उनकी परोसी गयी सामग्री ही पूरी दुनिया के दिमागों पर आरोपित की जाती रही है। आज जबकि संचार माध्यमों की बहुलता है और मोबाइल जैसे यंत्र के अविष्कार ने हर व्यक्ति को मीडिया की पहुंच में ला दिया है तब यह संकट और गहरा हो गया है। इस युद्ध का सबसे बड़ा प्रभाव यह है कि यह बिना कोई खून बहाये जंग जीत या हार जाने जैसा है।
सूचना और मीडिया की शक्तियां आज देश की सीमाओं का अतिक्रमण कर वैश्विक हो चुकी हैं। अपने जैसा सोचने, खाने, पहनने और व्यवहार करने वाला समाज खड़ा करना ही शायद वैचारिक साम्राज्यवाद का अंतिम लक्ष्य है। भारत में अंग्रेजी शासनकाल में इसकी जड़ें हम तलाश सकते हैं, जब तमाम हिंदुस्तानी हमें आजाद भारत में भी ऐसे मिले जो पूरी तरह अंग्रेज हो चुके थे। मुगलों और अन्य आक्रामणकारियों ने लूटपाट में धन-संपदा और मंदिरों को क्षति पहुंचाई पर वैचारिक तौर हम पर अपने चिन्ह जैसे अंग्रेजों ने छोड़े वैसा पूर्व के आक्रांता नहीं कर पाए। खानपान-परिवेश-शिक्षा-व्यवहार सबमें पश्चिमी परिवेश दिखने लगा और इसे ही प्रगतिशीलता माना जाने लगा। इसके प्रति समाज में भी प्रतिरोध अनुपस्थित था, क्योंकि वे एक ऐसा मानस तैयार कर चुके थे जो उनकी चीजों को स्वीकार करने के प्रति उदार था। गांधी चाहकर भी उस हिंदुस्तानी मन को नहीं जगा पाए जो राजनीतिक आजादी से आगे की बात करता और अपने पर गर्व करता। हिंदुस्तानी मनों को भी यह लगने लगा कि अंग्रेजियत का विरोध बेमानी है। आजादी के सातवें दशक में यह संकट और गहरा हुआ है। हम एक महाशक्ति होने के गुमाम से भरे होने के बावजूद वैचारिक युद्ध हार रहे हैं। इंटरनेट ने इसे संभव किया है। आप याद करें कि बंग्लादेश युद्ध के समय हमने मैदानी और वैचारिक दोनों युद्ध जीते थे किंतु वही लड़ाई हम नेपाल में हार रहे हैं। नेपाल में आज भारत विरोधी भावनाएं प्रखर दिखती हैं। क्योंकि यह वैचारिक साम्राज्यवाद का कुचक्र था जिसे हम तोड़ नहीं पाए। मीडिया में विदेशी निवेश को संभव बनाकर हमने अपने पैरों पर कुल्हाडी मार ली है। आज विदेशी पैसे के बल पर कौन किस इरादे से क्या दिखा और पढ़ा रहा है, इस पर हमारा नियंत्रण समाप्त सा है।
द्वितीय विश्वयुद्ध की याद करें तो इसके उदाहरण साफ दिखेंगें कि किस तरह इंग्लैंड ने पूरे वातावरण को अपने पक्ष में किया था। चीजें इतनी तरह से और इतनी बार, इतने माध्यमों से आरोपित की जा रही हैं कि वे सच लगने लगी हैं। वे विवेक का अपहरण तो कर ही रही हैं साथ ही सोचने के लिए अपनी दिशा दे रही हैं। ईराक युद्ध के समय में भी हमने इसे संभव होते हुए देखा। कश्मीर से लेकर तमिलनाडु में इसे संभव होता हुआ देख रहे हैं। मीडिया के द्वारा, साहित्य के द्वारा और अपने वैचारिक प्रबंधकों के द्वारा जनता के मत परिवर्तन की कोशिशें चरम पर हैं। वे साइबर के माध्यम से भी हैं और परंपरागत माध्यमों के द्वारा भी। गोयाबल्स को याद करें और सोचें कि आज अकेले हिंदुस्तानियत से लड़ने के लिए कितने गोयाबल्स रचे जा रहे हैं। अफवाहें सच्चाई में बदल रही हैं। झूठ को धारणा बनाने के सचेतन प्रयास हो रहे हैं। गणेश जी का दूध पीना एक ऐसी ही घटना थी। जिसका प्रयोग बताता है कि कैसे हम हिंदुस्तानी किसी भी सूचना के शिकार हो सकते हैं। इस मनोवैज्ञानिक युद्ध भी कह सकते हैं। साथ ही चल रहे सूचना युद्ध की भी चर्चा और उसे लेकर सजगता जरूरी है। इस हा-हाकारी ‘मीडिया समय’ में मीडिया ही हमें बता रहा है कि हमें आखिर कैसा होना है। हमारा होना, जीना और प्रतिक्रिया करने के विषय भी मीडिया तय कर रहा है। वैचारिक साम्राज्यवाद के ये अनेक रूप हमें लुभा रहे हैं, विवेकशून्य कर रहे हैं, जड़ों से उखाड़ रहे हैं, सोचने-मनन करने की प्रक्रिया को भंग कर हमारा अवकाश भी छीन रहे हैं। आप देखें तो इस सूचना साम्राज्यवाद से दुनिया कितनी घबराई हुयी है। 2002 में अलजजीरा से तंग आकर ही हुस्नी मुबारक (मिस्र) ने कहा था कि “सारे फसाद की जड़ ईडियट बाक्स है।” यही घटनाएं हम अपने आसपास घटती हुयी देख रहे हैं। ओसामा बिन लादेन के मरने से लेकर राष्ट्रपति ओबामा की प्रेस कांफ्रेस तक कुल दो घंटे और45 मिनट में हुए 2.79 करोड़ ट्विट बताते हैं कि चीजें कितनी बदल गयी हैं। कश्मीर में हुआ ई-प्रोटेस्ट भी इसका एक उदाहरण है। इसके साथ-साथ इंटरनेट माध्यमों के उपयोग से मनोविकारी, मनोरोगी और अवसादग्रस्त व्यक्ति कैसे अपराध कर रहे हैं बताने की आवश्यकता नहीं है। प्रतिदिन सोशल साइट्स के माध्यम से रची जा रही सूचनाएं कितनी बड़ा संसार बना रही हैं यह भी पूर्व में संभव कहां था। भारत जैसे बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक परिवेश वाले देश के लिए यह एक बड़ी चुनौती भी है। सूचना का एक अलग गणतंत्र रचा जा रहा है। निजताएं अब सामूहिक वार्तालाप में बदल रही हैं। विचार की ताकत बड़ी हुयी है, इस अर्थ में एक वाक्य भी क्रांति का सूचक बन सकता है। ऐसे समय में भारत जैसे देश को इस वैचारिक साम्राज्यवाद के खतरे को ठीक से समझने और व्याख्यायित करते हुए सही रणनीति बनाने की आवश्यकता है। इसके सामाजिक प्रभावों और संकटों पर हमने आज बातचीत शुरू नहीं की तो कल बहुत देर हो जाएगी। इसके लिए हमें वैचारिक साम्राज्यवाद के खतरों को समझकर इससे लड़ने का मन बनाना होगा।
aap ki lekhani ko salam sir g
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