माओवादी हमलों से रक्तरंजित छत्तीसगढ़ कब
मुक्त होगा ?
-संजय द्विवेदी
भारतीय
राज्य की सहनशीलता की कहानियां देखनी हों तो माओवाद से उनके संघर्ष के तरीके से
साफ पता चल जाएंगी। राजनीति कैसे किसी राज्य को भोथरा और अनिर्णय का शिकार बना
सकती है, इसे बस्तर इलाके में हमारे लड़ाई लड़ने के तरीके से समझा जा सकता है। बस्तर
के दरभा घाटी में शनिवार को हुआ माओवादी आतंकवादियों का हमला फिर सात लोगों की जान
ले चुका है।
दरभा में ये तीसरा हमला है। पहले हमले में
कांग्रेस दिग्गजों महेंद्र कर्मा, विद्याचरण शुक्ल, नंदकुमार पटेल सहित अनेक राजनीतिक कार्यकर्ताओं
की निर्मम हत्या की गयी थी। उसी घाटी में आज तीसरी बार खून बहा है। हमले की
बर्बरता देखिए वे ‘संजीवनी’ नाम की सरकारी एंबुलेंस को भी नहीं छोड़ते। किंतु हमारे राज्य के पास
इन विषयों से जूझने की फुसरत कहां हैं। लोग पूछने लगे हैं आखिर कितने हमलों के बाद? कितनी
जानें गंवाने के बाद आप चेतेंगें?
हमारे नेताओं की पहली और आखिरी प्रतिक्रिया यही होती है “नक्सली कायर हैं और कायराना हरकत कर रहे
हैं। उन्हें मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा।“
वाह चलिए मान लिया कि माओवादी और नक्सलवादी कायर हैं तो हमारा भारतीय राज्य अपनी
बहादुरी के सबूत कब देगा? रोज भारत मां के लाल आदिवासी, आम नागरिक,
साधारण सैनिक और सिपाही मौत के घाट उतारे जा रहे हैं और जेड सुरक्षा में घूमते
हमारे राजपुरूषों के लिए बस्तर हाशिए का विषय है। राष्ट्रीय मीडिया पूरे दिन अमेठी
में राहुल गांधी के नामांकन पर झूम रहा है और वहां लुटाए गए पांच सौ किलो गुलाब के
फूलों पर निहाल है। इधर खून से नहाती हुयी इस घरती के पुत्रों की चिंता न राज्य को
है न केंद्र है।
1970 के बाद बस्तर के इस इलाके में घुस आए
माओवादी एक समानांतर सरकार चला रहे हैं किंतु हमारी सरकारें और राजनीति जबानी
जमाखर्च से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं। वे संविधान, चुनाव और गणतंत्र सबका मजाक
बनाते हुए खूनी खेल खेल रहे हैं और हम माओवाद से लड़ने की नीति भी तय नहीं कर पाए
हैं। विकास के कामों में आने वाले धन में अपना हिस्सा या लेवी सुनिश्चित कर ये
नरभक्षी यहां मौत और भय का व्यापार कर रहे हैं। यूं जैसे जंगल में मंगल हो। बिछती
हुयी लाशें, किसी को आंदोलित नहीं करतीं। अखबार भी इन खबरों को छापते-छापते थक
चुके हैं। बस्तर से सिर्फ बुरी सूचनाओं का इंतजार ही होता है। ऐसे में सवाल यह भी
उठता है कि क्या हम और हमारी सरकारें माओवादी आतंकवाद से लड़ना चाहती हैं? क्या सीआरपीएफ या पुलिस के जवानों और
भोले-भाले आदिवासी समाज की मौतों से उन्हें फर्क पड़ता है या राजकाज की
जिम्मेदारियों के बोझ तले उन्हें इस हाशिए पर पड़े इलाकों की सुध ही नहीं है।
माओवादी आतंकवाद इस समय अपने सबसे विकृत रूप में पहुंच चुका है। बस्तर की घरती पर
पल रहा यहा नासूर और इसे जड़ से उखाड़ने के संकल्प नदारद हैं। राजनीतिक और सामाजिक
क्षेत्र में अभी यह बहस पूरी नहीं हो पाई है कि यह एक राजनीतिक-सामाजिक समस्या है
या हमारे गणतंत्र के खिलाफ एक सुनियोजित आतंकवादी कार्रवाई। ऐसे में सरकारी स्तर
पर भ्रम बहुत गहरा है।
माओवादी
इलाकों में तैनात सुरक्षा बलों को भी पता नहीं है कि उन्हें लड़ना है या नहीं। वे
सिर्फ हमले झेल रहे हैं, शहीद हो रहे हैं। सीआरपीएफ और पुलिस के न जाने कितने
जवानों और आम नागरिकों की लाशों पर बैठी यह राजनीति आज भी माओवाद से निपटने के
तरीकों को लेकर भ्रम में है। यह दिमागी दिवालिया रायपुर से लेकर दिल्ली तक पसरा
हुआ है। प्रधानमंत्री इसे एक बड़ी समस्या करार दे चुके हैं पर उससे लड़ने के
हथियार, विकल्प और संकल्पों से हमारी राजनीतिक-प्रशासनिक शक्तियां खाली हैं। ऐसे
में सवाल यह भी उठता है कि क्या हम वास्तव में माओवादी आतंकवाद से लड़ना चाहते हैं
या हम इस बहाने आ रही मदद, धन और विकास के कामों के लिए आ रहे विपुल धन का
दुरूपयोग करने के इच्छुक हैं। यह राज्य और राजनीति की निर्ममता ही कही जाएगी कि
संकटग्रस्त इलाके भी उनके लिए आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का वरदान बन जाते हैं। इन
इलाकों में सुरक्षा बलों की तैनाती के बावजूद आतंक कम नहीं हो रहा है, क्योंकि
हमारे पास इनसे निपटने के लिए नीति नहीं हैं। क्या कारण है कि हमारी सरकारों ने
कश्मीर घाटी को फौजों से पाट रखा है और बस्तर के नागरिकों को मरने के लिए छोड़
दिया गया है? जबकि यह बातें प्रमाणित हो चुकी हैं कि
सभी आतंकी संगठनों के आपसी रिश्ते हैं चाहे वे इस्लामी जेहादी हों या बस्तर के
क्रांतिकारी या नेपाल के अतिवादी। जंगलों तक पहुंचते हथियार,लेवी वसूली के माध्यम
से खड़ा हुआ माओवादियों का आर्थिक तंत्र बताता है कि हमारी सरकारें इस खूनी खेल के
खिलाफ सिर्फ जुबानी लड़ाई लड़ रही हैं। यह बातें तब और दुख देती हैं जब हमें यह
पता चलता है हमारे राजनीतिक नेताओं, व्यापारियों, अधिकारियों और ठेकेदारों के बीच
एक आम सहमति से इस इलाके के आर्थिक क्रिया व्यापार आराम से चल रहे हैं। राजनीति के
इस घिनौने स्वरूप पर कई बार चिंताएं जतायी जा चुकी हैं। यह मानने का कोई कारण नहीं
है भारतीय राज्य पर माओवादी भारी हैं। किंतु आम लोग यह जानना जरूर चाहेंगें कि अगर
भारतीय राज्य माओवादी आतंकवाद से जूझना चाहता है तो उसके हाथ किसने बांध रखे हैं?
यह एक
सिद्ध तथ्य है कि माओवादी या नक्सलवादी एक खास विचारधारा से प्रेरित होकर काम करने
वाले लोग हैं। जिनका अंतिम लक्ष्य भारत के गणतंत्र को समाप्त कर 2050 तक भारतीय
राजसत्ता पर कब्जा करना है। अपने इस लक्ष्य को वे छिपाते भी नहीं हैं और पशुपति से
तिरूपति के लाल गलियारे की कहानियां भी हमें पता हैं। इस घोषित लक्ष्य के बावजूद
उनके पाले पोसे बुद्धिजीवियों और मानवाधिकारवादियों ने ऐसा वातावरण बना रखा है, जैसे वे जनमुक्ति की लड़ाई लड़ रहे हों।
भारतीय राज्य की भीरूता देखिए कि वह भी इस दुष्प्रचार का शिकार हो रहा है। वह भी
अपने नागरिकों की जान की कीमत पर। किसी भी राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने
नागरिकों को भयमुक्त होकर जीने और अपने सपनों को सच करने के अवसर दे। किंतु इस
जनतंत्र में माओवादी और उनके समर्थक मौज में हैं और आम जनता पिस रही है। देश इस
समय एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है। आने वाले दिनों में एक नई सरकार दिल्ली में होगी।
ऐसे में देश की जनता राजनीतिक दलों से यह ठोस आश्वासन भी चाहती है कि वे माओवादी
के सवाल पर क्या सोचते हैं और कैसा रवैया अपनाएंगें। राजसत्ता हासिल करने के लिए
दौड़ लगा रहे नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी समेत इस देश के हर राजनेता और राजनीतिक दल
से देश के माओवादी आतंक से पीड़ित इलाकों की जनता ठोस आश्वासन चाहती है। शायद
माओवादी आतंकवाद से मुक्ति ही इस देश की सबसे प्राथमिक और अहम मांग है, क्योंकि इस
संघर्ष में हम अपने आदिवासी समाज के उन बंधुओं को नरभक्षियों के सामने झोंक चुके
हैं जो प्रकृतिजीवी होने के नाते शांति और सद्भाव से रहना चाहते हैं।
(लेखक माओवाद
के जानकार और राजनीतिक विश्वेषक हैं)
कब तक रंगी जाती रहेगी लहू से धरती
जवाब देंहटाएंकब तक रहेगी इंसानियत यूं ही मरती
कफ़न नहीं और अब, हमें अमन चाहिए
बहुत हो चुका अब , खुशहाल चमन चाहिए
कब तक रंगी जाती रहेगी लहू से धरती
जवाब देंहटाएंकब तक रहेगी इंसानियत यूं ही मरती
कफ़न नहीं और अब, हमें अमन चाहिए
बहुत हो चुका अब , खुशहाल चमन चाहिए
सटीक आलेख के लिए आपको बधाई , संजय जी
जवाब देंहटाएं