सोमवार, 5 मई 2014

उन्हें भरोसा नहीं है मतदाताओं के विवेक पर

-संजय द्विवेदी


     भारतीय लोकतंत्र इस बार एक ऐसे चुनाव से मुकाबिल है, जिसकी मिसाल खोजे नहीं मिलेगी। भाषा और वाणी के स्तर पर गिरावट सिर्फ राजनेताओं में होती तो चल जाता। इस बार लेखक समुदाय, पत्रकारों और स्तंभ लेखकों की वाणी भी जरूरत से ज्यादा बहकी हुयी है। निष्पक्ष विश्वेषण क्या होता है, इसे खोजना दुर्लभ है। पहली बार ऐसा हो रहा है, जब मतदाता के विवेक पर भी सवाल उठाया जा रहा है। लोग नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने पर देश छोड़ने को तैयार बैठै हैं। कांग्रेस के पिछले दस साल के कुशासन और भ्रष्टाचार ही नहीं वरन् आपातकाल के बुरे दिनों में भी जिन्होंने देश नहीं छोड़ा, वे अब देश छोड़ने की धमकियों से साथ जनमत को प्रभावित करना चाहते हैं।
 काशी के एक बड़े लेखक ने एक साक्षात्कार में कहा कि मोदी जीते तो काशी हार जाएगी। तमाम लेखकों को बहुत गंभीरता से इन दिनों पढ़ता रहा, वे सब एक व्यक्ति के खिलाफ यूं डटे हैं जैसे उन्होंने सुपारी ले रखी हो। लेखों में तर्क-गंभीर विश्लेषण के बजाए ऐसे तथ्य हैं, जिसका सत्य से वास्ता नहीं है। आखिर देश के लेखक, विचारक और बुद्धिजीवी अगर इस तरह जनता की आंखों में धूल झोंकने पर आमादा हों तो सत्य कहां बचेगा। मुद्दों पर चयनित दृष्टिकोण और अपने तयशुदा निष्कर्षों के आधार पर लेखन क्या कलम की गरिमा को कम नहीं करता? आज लालूप्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव के सारे पाप कम हो गए और वर्तमान प्रधानमंत्री की कहीं चर्चा ही नहीं हो रही है।गुजरात माडल निशाने पर है किंतु तीन दशक के वाममोर्चा के बंगाल माडल पर चर्चा नहीं हो रही है। साथ ही कांग्रेस के 10 सालों के शासनकाल पर चर्चा के बजाए उस गुजरात पर बातचीत हो रही है, जहां पांचवीं बार लगातार भाजपा की सरकार बनी है। यही घटना जब पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के लिए घटती थी तो जनादेश कही जाती थी और भाजपा या मोदी के पक्ष में जनता खड़ी हो गयी तो वह सांप्रदायिक है।
   सांप्रदायिक दंगे आजाद भारत के इतिहास की बुरी और कड़वी सच्चाईयां हैं। बल्कि महात्मा गांधी, पं. नेहरू,सरदार पटेल जैसी विभूतियों की उपस्थिति के बावजूद हम हिंसा को रोक नहीं पाए। लाखों लोगों की लाशों पर देश का बंटवारा हुआ। सेकुलर निजाम के झंडाबरदारों को हिंदुओं से खाली हुयी कश्मीर घाटी नहीं दिखी और हाल के दौर में उप्र में लगातार हुए दंगें हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं। गुजरात में पिछले 12 सालों से दंगे न होना कोई उदाहरण नहीं है, बल्कि असम में हुयी हिंसा के लिए भी गुजरात के मुख्यमंत्री को दोषी ठहराया जा रहा है। अपने राज्यों में कानून-व्यवस्था और शांति स्थापित करने में विफल राजनैतिक दल क्या अब गलत तथ्यों के आधार पर लोगों को गुमराह करेंगे। असम में जो आग सुलग रही है उसके लिए हमारी नीतियां, घुसपैठ, जनसांख्यकीय असंतुलन और स्थानीय कारकों के बजाए गुजरात के मुख्यमंत्री को दोषी बताना कहां का न्याय है? आखिर वे कौन लोग हैं जो दलों को वोट देने के आधार पर आपके सच्चे मुसलमान होने या न होने की बात कर रहे हैं? सांप्रदायिक राजनीति, दंगे और तोड़ने वाली भाषा किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक है। किंतु जोड़ने की बात करने वाले लोग कम होते जा रहे हैं। जहरीली भाषा से जहर कम नहीं होगा और बढ़ेगा। कसाई, जल्लाद, हत्यारा जैसी भाषा बोलकर हम अपने लोकतंत्र का अपमान ही कर रहे हैं। असहमति से लोकतंत्र का सौंदर्य ही बढ़ता है किंतु भाषा का क्षरण रोकना भी हमारी बड़ी जिम्मेदारी है। देश के बुद्धिजीवी वर्गों को भी देश के नागरिकों का सही दिशाबोध करना चाहिए किंतु वे भी इस राजनीति में एक पक्ष सरीखा व्यवहार कर रहे हैं। नागरिकों को दिशाबोध करने के बजाए वे स्वयं भड़काऊ भाषा में लेखन करते हुए ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, जैसै नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री हो जाने से आसमान फट जाएगा। आज हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि जहां पहले लोग भरोसा करते थे कि जनता सही फैसला करेगी और जनता ही जर्नादन है। वहां हम देख रहे हैं अब जनता को कोसने का क्रम जारी है। अपने लेखों, भाषणों के माध्यम से जनता को मार्गदर्शन करने के बजाए उस पर शक और अविश्वास किया जा रहा है। ऐसा लगता है, जैसै जनता का अपना कोई विवेक न हो और वह अपना अच्छा- बुरा न समझती हो। हमें भरोसा रखना चाहिए कि जनता अंततः समाज की सामूहिक शक्ति को तोड़ने और उसका भरोसा तोड़ने वालों के खिलाफ निर्णय लेना जानती है।
     यह जनता का विवेक ही था कि उसने कई राज्यों में भाजपा को विधानसभा में प्रचंड बहुमत देने के बावजूद केंद्रीय चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया और कांग्रेस को सीटें दीं। आज केंद्रीय सत्ता के लिए एक कद्दावर नेता के मैदान में उतरने के बाद अगर जनता को लगता है कि राजग या भाजपा एक विकल्प बना है तो वह उसके साथ खड़ी दिख रही है तो इसमें आपत्ति क्या है? सच तो यह है कि कांग्रेस सरकार के कुशासन के खिलाफ विकल्प देने के बजाए सभी राजनीतिक दल सिर्फ मोदी विरोध की राजनीति करते रहे और यही कारण है कि वे आज हाशिए पर हैं। बिहार से मोदी विरोध का जो बिगुल नीतिश कुमार ने बजाया जो सही मायने में शुद्ध अवसरवाद था और बाद में यह लहर उड़ीसा होती हुयी पश्चिम बंगाल तक पहुंची।

   इस पूरी कवायद में तीसरे मोर्चे की नारेबाजियां तो खूब हुयीं पर एक सक्षम विकल्प देने के बजाए सबके निशाने पर नरेंद्र मोदी रहे। नरेंद्र मोदी को कोस-कोस कर नेता बनाने वाले दरअसल यही उनके विरोधी हैं। सच्चाई तो यह है कि विरोध की राजनीति से कभी सृजन नहीं हो सकता। सही मायने में तीसरे मोर्चे के दलों ने अपने आपको वैकल्पिक राजनीति का प्रतीक बनाने में असफलता पायी और इसके चलते भाजपा का उभार हुआ। इसका एक बड़ा कारण भाजपा और संघ परिवार की सधी हुयी रणनीति थी। साथ ही एक सक्षम नेतृत्व समय पर देकर वे इस मैदान में एक समर्थ विकल्प की तरह उपस्थित हो गए। बाकी दल यहीं चूक गए और भाजपा ने कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ खुद को स्थापित कर लिया। इसमें सबसे दयनीय वामदलों की स्थिति रही जो कहीं के नहीं रहे, उनके कुछ विचारक और नेता आप में संभावनाएं तलाशते हुए एक नए विकल्प की कामनाएं करते रहे किंतु उस जोश को भी हम ठंडा होता हुआ देख रहे हैं। ऐसे में समय पर विकल्प न खड़े कर पाने और भारतीय राजनीति में अप्रासंगिक हो जाने की पीड़ा से उपजी बौखलाहट हमें वामपंथी विचारकों,लेखकों और काडर में साफ दिखती है। यह कड़वाहट अब उनके बयानों से आगे उनके लेखन और विश्लेषणों में भी दिखने लगी है। क्या ही अच्छा होता कि वे किसी व्यक्ति को निशाना बनाने के बजाए वे मुद्दों के आधार पर अपना जनाधार खड़ा करते और लोगों के बीच जाते। किंतु तीसरे मोर्चे की मैनेजरी का उनका सपना उन्हें मैदान में जाने से भी रोकता है और तमाम दलों के खिलाफ असहज सवाल उठाने से भी रोकता है। मुद्दों पर उनका चयनित दृष्टिकोण उन्हें जनता की नजरों में संदिग्ध भी बनाता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या ऐसी राजनीति किसी भी तरह से  देश का भविष्य का वाहक बन सकती है जहां मुद्दों के बजाए व्यक्ति पर हमला और वह भी सुपारी की शक्ल में किया जा रहा हो। अपनी वैचारिक जड़ों को मजबूत करने और जनसंघर्षों में लगने के बजाए आरोपों और गालियों की राजनीति से देश का वातावरण कलुषित हो रहा है।इस पूरे मंजर को देश की जनता भौंचक होकर देख  रही है। बावजूद इसके वह उम्मीद से खाली नहीं है, स्थान-स्थान पर उसने अपने नायक चुन लिए हैं। वह उन पर भरोसा करती है और उनके साथ खड़ी है। राज्यों में बड़ी संख्या में क्षेत्रीय दलों की बनती हुयी सरकारें बताती हैं जनता उनमें भरोसा जता रही है। 2009 के लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश, गुजरात जैसे भाजपा शासित राज्यों से भी कांग्रेस को बेहतर लोकसभा सीटें मिली थीं, क्योंकि राज्य के लोग केंद्र में उस समय भाजपा को एक सक्षम विकल्प नहीं मान रहे थे। उन्होंने यूपीए-2 को मौका दिया। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य से कांग्रेस को 22 सांसद दिए। इतिहास की इस घड़ी में जनता राज्य की विधानसभाओं में भले ही किसी को भी वोट दे चुकी हो किंतु केंद्र में वह एक सक्षम विकल्प के संकल्प से भरी दिखती है। भरोसा न हो तो देख लीजिएगा। 

1 टिप्पणी:

  1. आपका यह लेख मुझे बहुत ही अच्छा लगा। राजनेताओं का तो समझ में आता था लेकिन जिस तरह आज हमारे समाज को साम्प्रदायिकता का डर दिखा कर अपने वैचारिक कट्टरता, बुद्धिहीनता और अनर्गल प्रलापों का परिचय हमारे सामने दे रहे हैं उससे तो यही पता चलता है कि ये स्वयम्भू बुद्धिजीवी को चली आ रही वयवस्था से काफी लाभ हो रहा है और बदलती परिस्थितियों में अपने भूमिका को लेकर चिंता है।
    मुंबई के हमारा महानगर में आपका यह लेख मैं आज तडके पढ़ा और सोचा कि इसे फेसबुक पर प्रसारित करू लेकिन वहाँ पर यह हो नहीं पाया। फिर गूगल पर खोजते खोजते आपका यह ब्लॉग मिला लेकिन अफ़सोस कि यहाँ पर भी आपने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं रखी है।
    http://raghawendradeo.blogspot.in/

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