बेमिसाल शिक्षक और जनसरोकारों के लिए जूझने वाली योद्धा थीं वे
-प्रो. संजय द्विवेदी
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय
पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग की अध्यक्ष रहीं प्रो.
दविंदर कौर उप्पल का जाना एक ऐसा शून्य रच रहा है, जिसे भर पाना कठिन है। वे एक बेमिसाल
अध्यापक थीं, बेहद अनुशासित और अपने विद्यार्थियों से बहुत ज्यादा उम्मीदें रखने वालीं।
उन्होंने पढ़ने- पढ़ाने, फिल्में देखने, संवाद करने और सामाजिक सरोकारों के लिए
सजग रहते हुए अपनी पूरी जिंदगी बिताई। उनके पूरे व्यक्तित्व में एक गरिमा थी, नफासत
थी और विलक्षण आत्मानुशासन था। वे लापरवाही और कैजुअलनेस के बिल्कुल बर्दाश्त नहीं
कर पाती थीं। बेलाग और बेबाक। उन्हें अगर लगेगा कि यह ठीक नहीं है तो वे बोलेंगीं।
जरूर बोलेंगी। सामने उनका विद्यार्थी है या कुलपति, इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता।
एक बहुत छोटे शहर शहडोल के एक कस्बे से निकल चंडीगढ़, सागर होते हुए वे भोपाल में
आईं। इन अनुभवों ने उन्हें गढ़ा था। बनाया था।
वे माखनलाल विश्वविद्यालय के जनसंचार में मेरी अध्यापक
रहीं। बाद के दिनों में मुझे उनके साथ काम करने का मौका उनके विभाग में ही मिला। मैं
सौभाग्यशाली हूं कि उनकी अकादमिक विरासत और उनका विभागीय उत्तराधिकार भी मुझे
मिला। मैं उनकी सेवानिवृत्ति के बाद दस वर्षों तक जनसंचार विभाग का अध्यक्ष रहा।
वे बेहद गरिमामय और सहजता से नए नेतृत्व को तैयार का बड़ा मन रखती थीं। अपनी
सेवानिवृत्ति के काफी पहले ही उन्होंने कुलपति के आदेश से मुझे विभाग का समन्वयक
बनाने का आदेश जारी करवा दिया। उस समय के तत्कालीन कुलपति श्री अच्युतानंद मिश्र
से मैंने कहा “सर मैडम के रहने तक उनके साथ ही काम करना ठीक
है। छोटा सा विभाग है, दो लोगों की क्या जरूरत।” उन्होंने कहा कि “मैडम ने ही कहा कि संजय को अब जिम्मेदारियां
संभालने का अभ्यास करना चाहिए।” मैंने
मैडम से कहा “आप ऐसा क्यों कर रही हैं।” उन्होंने कहा कि “ अब मैं फिल्में देखूंगी,
किताबें पढ़ूंगी। अब तुम संभालो। कल संभालना ही है, तो अभी प्रारंभ करो।” मैं
मीडिया की दुनिया से आया था,इस तरह उन्होंने मुझे अकादमिक क्षेत्र के लिए तैयार
किया।
जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में, शोध और अनुसंधान
के क्षेत्र में उनका नाम बहुत बड़ा है। वे शोध में खास रूचि रखती थीं और
विद्यार्थियों को प्रेरित करती थीं। अनेक विद्यार्थियों में उन्होंने वह आग जगाई, जिसे
लेकर वे जीवन युद्ध में सफल हो सके। संचार, विकास संचार, शोध और सिनेमा उनकी खास रूचि
के विषय थे। विकास के मुद्दों पर उनकी गहरी रूचि थी, ताकि सामान्य जनों की जिंदगी
में उजाला लाया जा सके। विकास और जिंदगी से जुड़े मुद्दों पर उन्होंने अनेक रेडियो
कार्यक्रम बनाए। इसरो के साथ झाबुआ प्रोजेक्ट में काम किया। उनके रेडियो रूपक ‘एक कंठ विषपायी’ को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। इसे
2016 का सबसे अच्छा महिला कार्यक्रम घोषित किया गया। यह कार्यक्रम रशीदा बी और चंपा
बाई पर केंद्रित था, जिनका परिवार भोपाल गैस त्रासदी ने बरबाद कर दिया था। भोपाल
गैस त्रासदी के बाद गैस पीड़ितों के संर्घष में, नर्मदा बचाओ आंदोलन में भी उनका
सहयोग रहा। वे सामाजिक सरोकारों से गहरे जुड़कर बड़ी संवेदना के साथ विषयों को
रखती थीं। किंतु कहीं से उनके मन में किसी के प्रति दुराव नहीं था। अपने आग्रहों के
साथ रहते हुए भी वे वैचारिक छूआछूत से भी दूर थीं, नहीं तो हम जैसे अनेक विद्यार्थी
उनके निकट स्थान कैसे पाते। उनका दिल बहुत बड़ा था और मन बहुत उदार। ऊपर से कड़े
दिखने के बाद भी वे गहरी ममता और वात्सलल्य से भरी हुई थीं। बहुत खिलखिलाकर हंसना
और हमारी गलतियां भूल जाना, उनकी आदत थी।
सागर
विश्वविद्यालय से लेकर एमसीयू तक उनकी एक लंबी शिष्य परंपरा है। उनके विद्यार्थी
आकाश की ऊंचाई पर हैं, लेकिन उनके सामने बौनापन महसूस करते। बिना समय लिए आप उनसे
मिल नहीं सकते। उनकी अपनी जिंदगी थी, जो वे अपनी शर्तों पर जी रही थीं। मुझे नहीं पता
कि कितने लोग मेरी तरह बिना समय लिए उनके पास चले जाते थे, पर पहुंचने पर वे थोड़ा
अनमनी हो जाती थीं, कुछ देर बाद ही सामान्य होतीं। मैं जानता कि समय लेने पर वे कम
से कम एक सप्ताह बाद ही बुलाएंगी, जबकि मेरी आदत है जिन रास्तों से गुजरो वहां अपनों
के घर दस्तक देते जाओ। मेरे गुरू अब स्वर्गीय प्रो. कमल दीक्षित भी कहते थे –“फोन कर लिया करो पंडित अगर मैं इंदौर में होता तब।” मैं कहता “सर मैं दिल की आवाज पर चलता हूं, शायद ही कभी
ऐसा हुआ हो कि आप न मिले हों।” उप्पल मैम हर चीज में टोकतीं पर मैं अपनी करता। वे पैर छूकर प्रणाम को बुरा मानती
थीं,पर मैंने कभी उनकी बात नहीं मानी। पर वे कहना नहीं भूलतीं और बाद के दिनों में
एक दिन उन्होंने कहा अब बहुत बड़े हो गए हो, अच्छा नहीं लगता। मैं उनसे कहता मैम
हम अपने अध्यापक से बड़े कैसे हो सकते हैं। उन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति के बाद
अपनी बहुत सी किताबें, पत्रिकाएं मुझे दीं और हिदायत भी कि कुछ गंभीर लेखन करो।
उन्हें मेरा अखबारी लेखन पसंद था, किंतु वे ज्यादा उम्मीदें रखती थीं।
मेरी बेटी शुभ्रा के जन्म के मौके पर वे
बहुत खुश हुयीं। घर आईं बहुत और प्यार जताया। ऐसे मौके पर उनका वात्सल्य साफ दिखता
था। मेरी पत्नी भूमिका और बेटी शुभ्रा उनके लिए मुझसे ज्यादा खास थे। उनके हर फोन
पर काम की बातें बाद में पहले शुभ्रा और भूमिका की चिंता रहती थी। मेरे आईआईएमसी
के महानिदेशक बनने पर उनका फोन आया और बोलीं “बधाई डीजी साहब।” मैंने कहा “मैम आशीर्वाद दीजिए”। उन्होंने हंसते हुए कहा “वो तो तुम जबरिया ले ही लेते हो।” उनकी आवाज में एक अलग तरह की खुशी मैंने महसूस की। कालेज और स्कूलों में आती
लड़कियां उन्हें पंसद थीं। वे स्त्रियों के अधिकारों और उनके सम्मान को लेकर बहुत
सजग थीं। महिलाओं को अधिकार दिलाने के मुद्दों पर काम करना उनको भाता था। वे बहुत खुश
होतीं जब ग्रामीण और सामान्य घरों से आने वाली छात्राएं कुछ बेहतर करतीं। उनका वे
विशेष ध्यान और संरक्षण भी करती थीं। मुझे लगता है, संवेदना के
जिस तल पर वे सोचती और काम करती थीं, हम वहां तक नहीं पहुंच पाए। हमारे हिस्से
सिर्फ यह गर्व आया कि हम उप्पल मैम के विद्यार्थी हैं। काश उनके सुंदर, संवेदना से
भरे और पवित्र मन का थोड़ा हिस्सा हमें भी मिलता तो शायद हम ज्यादा सरोकारी, ज्यादा
मानवीय हो पाते। उनकी यादें बहुत हैं। मन विकल है। पूरी जिंदगी उन्होंने किसी की
मदद नहीं ली, अब जब वे जा चुकी हैं तो भी हम उनसे बहुत दूर हैं, बहुत दूर। उन्होंने
हमें कामयाब जिंदगी दी, नजरिया दिया और वे सूत्र दिए जिनके सहारे हम अपनी जिंदगी
को बेहतर बना सकते थे। लेकिन हमारे मन पर ताजिंदगी कितना बोझ रहेगा कि हम उनके
आखिरी वक्त पर उनके पास नहीं हैं। मैं ही नहीं उनके तमाम विद्यार्थी ऐसा ही सोचते
हैं। इस कठिन समय में उनका जाना अतिरिक्त दुख दे गया है। हमारी दुनिया और खाली हो
गयी है। भावभीनी श्रद्धांजलि।
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