डिजीटल
ट्रांसफार्मेशन के लिए तैयार हों नए पत्रकार
- प्रो. संजय द्विवेदी
एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार
पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार
का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। वर्ष
2020 को लोग चाहे कोरोना महामारी की वजह से याद करेंगे, लेकिन एक मीडिया शिक्षक होने के नाते मेरे लिए ये बेहद महत्वपूर्ण है कि पिछले
वर्ष भारत में मीडिया शिक्षा के 100 वर्ष पूरे हुए थे। वर्ष
1920 में थियोसोफिकल सोसायटी के तत्वावधान में मद्रास राष्ट्रीय विश्वविद्यालय
में डॉक्टर एनी बेसेंट ने पत्रकारिता का पहला पाठ्यक्रम शुरू किया था। लगभग एक दशक
बाद वर्ष 1938 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पत्रकारिता
के पाठ्यक्रम को एक सर्टिफिकेट कोर्स के रूप में शुरू किया गया। इस क्रम में पंजाब
विश्वविद्यालय, जो उस वक्त के लाहौर में हुआ करता था,
पहला विश्वविद्यालय था, जिसने अपने यहां पत्रकारिता
विभाग की स्थापना की। भारत में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थापक कहे जाने वाले प्रोफेसर पीपी सिंह
ने वर्ष 1941 में इस विभाग की स्थापना की थी। अगर हम स्वतंत्र
भारत की बात करें, तो सबसे पहले मद्रास विश्वविद्यालय ने वर्ष
1947 में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की स्थापना की।
इसके पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय, मैसूर
के महाराजा कॉलेज, उस्मानिया यूनिवर्सिटी एवं नागपुर यूनिवर्सिटी
ने मीडिया शिक्षा से जुड़े कई कोर्स शुरू किए। 17 अगस्त,
1965 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने भारतीय जन संचार संस्थान की स्थापना
की, जो आज मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में पूरे एशिया में सबसे
अग्रणी संस्थान है। आज भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी
राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर में कुशाभाऊ
ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय एवं जयपुर में हरिदेव जोशी पत्रकारिता
एवं जनसंचार विश्वविद्यालय पूर्ण रूप से मीडिया शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य कर रहे
हैं। भारत में मीडिया शिक्षा का इतिहास 100 वर्ष जरूर पूर्ण कर
चुका है, परंतु यह अभी तक इस उलझन से मुक्त नहीं हो पाया है कि
यह तकनीकी है या वैचारिक। तकनीकी एवं वैचारिकी का द्वंद्व मीडिया शिक्षा की उपेक्षा
के लिए जहां उत्तरदायी है, वहां सरकारी उपेक्षा और मीडिया संस्थानों
का सक्रिय सहयोग न होना भी मीडिया शिक्षा के इतिहास की तस्वीर को धुंधली प्रस्तुत करने
को विवश करता है।
भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती है,
तो प्रोफेसर के. ई. ईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन
भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर
ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ
साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिए, तभी
वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार
शिक्षण संस्थान, मीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता
दे रहे हैं, जिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव
हो। ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकें, ऐसा शैक्षिक
पाठ्यक्रम तैयार कर सकें, जिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने
कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं। पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील
बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा
जा सकता है?
दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों
या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों
से संबंद्ध संस्थानों में, तीसरे, भारत
सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय
और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया
संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या है, वो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा
निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और
कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है,
कि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।
मीडिया शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए आज मीडिया एजुकेशन काउंसिल
की आवश्यकता है। इसकी मदद से न सिर्फ पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षा के पाठ्यक्रम में
सुधार होगा, बल्कि मीडिया इंडस्ट्री की जरुरतों
के अनुसार पत्रकार भी तैयार किये जा सकेंगे। आज मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही
है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने
का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है।
आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई है, इसलिए पत्रकारिता शिक्षा
में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैं, वैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण
में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगे, जिनमें विषयवस्तु के साथ
साथ नई तकनीक का भी समावेश हो।
न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
के कारण लाखों नौकरियां गई हैं। इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान
देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय
भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस
पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय
भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती है,
जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत
अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा है,
जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय
भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी
में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय
के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की
व्यवस्था कर सकते हैं, जिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल
सके।
एक वक्त था जब पत्रकारिता का मतलब प्रिंट मीडिया होता था। अस्सी के दशक में
रिलीज हुई अमेरिकी फिल्म Ghostbusters (घोस्टबस्टर्स)
में सेक्रेटरी जब वैज्ञानिक से पूछती है कि ‘क्या
वे पढ़ना पसंद करते हैं? तो वैज्ञानिक कहता है ‘प्रिंट इज डेड’। इस पात्र का यह कहना उस समय हास्य का
विषय था, परंतु वर्तमान परिदृश्य में प्रिंट मीडिया के भविष्य
पर जिस तरह के सवाल खड़े किये जा रहे हैं, उसे देखकर ये लगता
है कि ये सवाल आज की स्थिति पर बिल्कुल सटीक बैठता है। आज दुनिया के तमाम प्रगतिशील
देशों से हमें ये सूचनाएं मिल रही हैं कि प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल हैं। ये भी
कहा जा रहा है कि बहुत जल्द अखबार खत्म हो जाएंगे। वर्ष 2008 में अमेरिकी लेखक जेफ गोमेज ने ‘प्रिंट इज डेड’
पुस्तक लिखकर प्रिंट मीडिया के खत्म होने की अवधारणा को जन्म दिया था।
उस वक्त इस किताब का रिव्यू करते हुए एंटोनी चिथम ने लिखा था कि, “यह किताब उन सब लोगों के लिए ‘वेकअप कॉल’
की तरह है, जो प्रिंट मीडिया में हैं, किंतु उन्हें यह पता ही नहीं कि इंटरनेट के द्वारा डिजिटल दुनिया किस तरह की
बन रही है।” वहीं एक अन्य लेखक रोस डावसन ने तो
समाचारपत्रों के विलुप्त होने का, समय के अनुसार एक चार्ट ही
बना डाला। इस चार्ट में जो बात मुख्य रूप से कही गई थी, उसके
अनुसार वर्ष 2040 तक विश्व से अखबारों के प्रिंट संस्करण खत्म
हो जाएंगे। मीडिया शिक्षण संस्थानों
को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए, कि वे न्यू
मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण
हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार
और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो
सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं
को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने
छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के लिए
पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व
भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल
की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे।
जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करें,
यह एक बड़ी जिम्मेदारी है।
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