साक्षात्कार
भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक प्रोफेसर संजय द्विवेदी से
मीडिया प्राध्यापक डा.ऋतेश चौधरी की अंतरंग बातचीत
प्रो. संजय द्विवेदी देश के प्रख्यात पत्रकार, संपादक, लेखक, अकादमिक प्रबंधक और मीडिया प्राध्यापक हैं। दैनिक भास्कर, नवभारत, हरिभूमि, स्वदेश, इंफो इंडिया डाटकाम और छत्तीसगढ़ के पहले सेटलाइट चैनल जी चौबीस घंटे छत्तीसगढ़ जैसे मीडिया संगठनों में संपादक,समाचार सम्पादक, कार्यकारी संपादक, इनपुट हेड और एंकर जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभालीं। रायपुर, बिलासपुर, मुंबई और भोपाल में सक्रिय पत्रकारिता के बाद आप अकादमिक क्षेत्र से जुड़े। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में 10 वर्ष जनसंचार विभाग के अध्यक्ष रहने के अलावा विश्वविद्यालय के कुलसचिव और प्रभारी कुलपति रहे। मूल्यआधारित पत्रकारिता को समर्पित संगठन- ‘मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति’ के अध्यक्ष हैं। मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर अब तक 25 पुस्तकों का लेखन एवं संपादन। राजनीतिक, सामाजिक और मीडिया मुद्दों पर नियमित लेखन से खास पहचान। अनेक संगठनों द्वारा मीडिया क्षेत्र योगदान के सम्मानित। संप्रति भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC), नई दिल्ली के महानिदेशक हैं। मीडिया के समसामयिक सवालों पर उनसे लंबी बातचीत की डा.ऋतेश चौधरी ने। इसी संवाद के अंश-
आपको पत्रकारिता का लंबा अनुभव है। आपने नब्बे के दशक में पत्रकारिता की शुरुआत
की। आज लगभग तीन दशक बाद आप इस व्यवसाय में किस तरह का परिवर्तन देख रहे हैं। क्या
आपको लगता है कि मीडिया बदल रहा है? क्या मीडिया के काम करने के तरीके में बदलाव
आया है?
-देखिए वक्त का काम है बदलना,वह बदलेगा। समय आगे ही
जाएगा,यही उसकी नैसर्गिक वृत्ति है। ऐसे में पत्रकारिता भी अब बहुत बदली है। वह एक
सक्षम उद्योग है, जिस पर निर्भर तमाम जिंदगियां बहुत अच्छा जीवन जी रही हैं।
परिवर्तन कई तरह के हैं। तकनीक के हैं, भाषा के हैं, प्रस्तुति के भी हैं,
छाप-छपाई के हैं,काम करने की शैली के हैं । हर क्षेत्र में हमने प्रगति की है। आज
दुनिया के बेहतर अखबारों के समानांतर समाचार पत्र हमारे यहां छप रहे हैं। वे अपनी
गुणवत्ता, प्रस्तुति, छाप-छपाई में कहीं कमजोर नहीं हैं। टीवी और इंटरनेट आधारित मीडिया
में हमने बहुत प्रगति की है। यह प्रगति विस्मय में डालती है। काम के तरीके में
परिवर्तन आया है, तकनीक के सहारे ज्यादा काम हो रहा है। किंतु विचार और गुणवत्ता
की जगह तकनीक नहीं ले सकती। यह मानना ही चाहिए।
पत्रकारिता के सफर में आपका भारत के विभिन्न रंगों से परिचय हुआ होगा। भारत के
उन रंगों को जो आज मीडिया पर प्रतिबिम्बित नहीं हैं, उनके विषय में कुछ साझा कीजिये।
-मीडिया की मजबूरी है कि वह समाज निरपेक्ष
नहीं हो सकता। उसे प्रथमतः और अंततःजनता के दुख-दर्द के साथ होना होगा। कोरोना
संकट-एक और दो दोनों समय पर जिस तरह मीडिया ने आम जनता के दुख-दर्द उनकी तकलीफों
को बताया। समाज को संबल दिया वह बात बताती है कि मीडिया की मुक्ति कहां है। वह
विचारधारा के आधार पर पक्ष लेता है। कुछ के प्रति ज्यादा कड़ा या नरम हो सकता है।
पर यह बात बहुलांश पर लागू नहीं होती। ज्यादातर मीडिया अपेक्षित तटस्थता और
ईमानदारी के साथ काम करता है। दूसरी बात मीडिया के पाठक वर्ग की है जो उनका पाठक
है, उनकी बात ज्यादा रहेगी। मीडिया मूलतः महानगर केंद्रित है। शहर केंद्रित है। पर
अब छोटे स्थानों को भी जगह मिल रही है। गांवों तक अखबार जा रहे हैं। उनकी भी खबरें
आने लगी हैं। हर अखबार के स्थानीय संस्करण अपने स्थानीयताबोध और माटी की महक के
नाते ही स्वीकारे जा रहे हैं।
एक जमाना था जब अखबार की सुर्खियाँ महीनों चर्चा का विषय होती थीं और अब अखबार
बेचने के लिये स्कीम देनी पड़ती है। ऐसे में अखबारों से क्या उम्मीद की जानी चाहिए?
-आज मीडिया का आकार-प्रकार बहुत बढ़ गया है।
अखबारों के पेज बढ़े हैं, संस्करण बढ़े हैं। जिले-जिले के पेज बनते हैं। टीवी
न्यूज चैनल चौबीस घंटे समाचार देते हैं,
न्यू मीडिया पल-प्रतिपल अपडेट होता है। ऐसे में खबरों की उमर ज्यादा नहीं रहती। एक
जाती है तो तुरंत दूसरी आती है। ऐसे में किसी खबर पर महीनों चर्चा हो यह संभव नहीं
है। दोपहर की खबर पर शाम को चैनल चर्चा करते हैं। सुबह अखबारों में संपादकीय,
विश्लेषण और लेख आ जाते हैं। इससे ज्यादा क्या चाहिए? गति बढ़ी है तो इससे सारा कुछ बदल गया है।
जहां तक अखबार बेचने की बात है, स्कीम दी जाती है, सच है। यह स्पर्धा के नाते है।
आज अखबारों में लाखों में छपते और बिकते हैं। चीन, जापान और भारत आज भी प्रिंट के
बड़े बाजार हैं। यहां ग्रोथ निरंतर है। ऐसे में अपना प्रसार बढ़ाने की स्पर्धा में
स्कीम आदि के कार्य होते हैं। इसमें गलत क्या है? आप सीमित संख्या
में छपना और बिकना चाहते हैं, तो स्कीम नहीं चाहिए। आपको
ज्यादा प्रसार चाहिए तो कुछ आकर्षण देना पड़ेगा। वे इवेंट हों, इनाम हों, स्कीम हो
कुछ भी हो। जहां तक उम्मीद की बात है, तो भरोसा तो रखना पड़ेगा। आप मीडिया पर
भरोसा नहीं करेगें तो किस पर करेगें? कहां जाएंगें?
न्यूज़ चैनल का एक एंकर देश को बचाने के लिए स्टूडियो में नकली बुलेट प्रूफ़
जैकेट पहने दहाड़ता रहता है, पता नहीं कब दुष्ट पाकिस्तान गोली चला दे।
आपके हिसाब से क्या ये तमाशा पत्रकारिता के लिए खतरे कि घंटी नहीं है?
-टीवी से आप बहुत ज्यादा उम्मीद रख रहे हैं।
टीवी ड्रामे का माध्यम है, वहां दृश्य रचने होते हैं। इसलिए यह सब चलता है। कल तक
नाग-नागिन की शादी, काल-कपाल-महाकाल,स्वर्ग की सीढ़ी, राजू श्रीवास्तव-राखी
सावंत-रामदेव से निकलकर ये टीवी चैनल बहस
पर आए हैं। कल खबरों पर भी आएंगें। थोड़ा धीरज रखिए। गंभीर चैनल भी हैं पर उन्हें
देखा नहीं जाता। दर्शकों और पाठकों को भी मीडिया साक्षर बनाने की सोचिए। सारा
ठीकरा मीडिया पर मत फोड़िए। डीजी न्यूज खबरें दिखाता है, देखिए। हमें पाठक और
दर्शक की सुरूचि का विकास भी करना होगा। वह गंभीर मुद्दों पर स्वस्थ संवाद के लिए
तैयार किया जाना चाहिए। अभी इसमें समय लगेगा। नहीं होगा, ऐसा नहीं है। समझ का
विकास समय लेता है। लोकतंत्र के लिए वैसे भी कहते हैं कि वह सौ साल में साकार होता
है। हमें इंतजार करना होगा।
मैं
फिर कह रहा हूं सामाजिक सरोकार छोड़कर कोई पत्रकारिता नहीं हो सकती। न्यूज मीडिया
अलग है और मनोरंजन का मीडिया अलग है। दोनों को मिलाइए मत। दोनों चलेंगें। एक आपको
आनंद देता है, दूसरा खबरें और विचार देता है। दोनों अपना-अपना काम कर रहे हैं।
इसमें गलत क्या है? मनोरंजन का मीडिया भी जरूरी है। खबर मीडिया
भी जरूरी है। कुछ खुद को इंफोटेनमेंट चैनल कहते हैं, यानि दोनों काम करते हैं।
इसलिए बाजार है, तो बाजार में हर तरह के उत्पाद हैं। यहां पोर्न और सेमीपोर्न भी
है। किंतु हमें न्यूज मीडिया की जिम्मेदारियों और उसकी बेहतरी की बात करनी चाहिए।
यही हमारी दुनिया है। शेष से हमारी स्पर्धा नहीं है। यह तय मानिए मनोरंजन, ओटीटी
और फिल्म की दुनिया से न्यूज के दर्शक कम ही रहेंगे, इस पर विलाप करने की जरूरत
नहीं है। हम खास हैं, यह मानिए। इसलिए हमारे पास खास दर्शक या पाठक समूह हैं, हमें
भीड़ आवश्यक्ता नहीं है।
'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' ने 180 देशों की सूची जारी की है, जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता
के हिसाब से भारत का स्थान 142 वां है। ऐसे में विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस दुनिया
का सबसे बड़ा छलावा नहीं माना जाना चाहिए? क्या इसे जनता के साथ एक क्रूर मज़ाक के रूप
में देखना गलत होगा?
मैं
विदेशी संस्थाओं के जारी किए गए तथ्यों और आंकड़ों पर भरोसा नहीं करता। भारत में
लोकतंत्र है और जीवंत लोकतंत्र है। मीडिया में सर्वाधिक आलोचना हमारे सबसे ताकतवर
प्रधानमंत्री की ही होती है और आप कह रहे हैं कि प्रेस की आजादी नहीं है। मई महीने
में ही कोविड को लेकर कोलकाता के टेलीग्राफ अखबार ने कैसे शीर्षक लगाए हैं, उसे
देखिए। देश की दो प्रमुख पत्रिकाओं इंडिया टुडे(नाकाम सरकार-19 मई,2021) और
आउटलुक( लापता-भारत सरकार-31मई,2021) की कवर स्टोरी देखिए, पढ़िए और बताइए कि
प्रेस की आजादी कहां चली गई है? यदि आपातकाल है तो आप सत्ता के विरुद्ध ऐसे तेवर लेकर कहां
रह पाते? हम एक लोकतंत्र में रहते हैं। यहां पंथ
आधारित देशों, साम्यवादी देशों जैसी व्यवस्था नहीं हैं। यहां हमें लिखने, पढ़ने,
बोलने की आजादी को संवैधानिक संरक्षण है। यह अलग बात है कि इसी का लाभ लेकर
देशतोड़क गतिविधियों भी की जा रही हैं। विरोध करते-करते कब हम देश के विरोध में
खड़े हो जाते हैं, हमें पता
नहीं चलता। इसलिए आजादी है तो उसके साथ कुछ संवैधानिक सीमाएं भी हैं। स्वतंत्रता
और स्वच्छंदता के अंतर को समझे बिना हम इसे नहीं समझ पाएंगें। इसलिए विदेशी
एजेंसियों के मूल्यांकन का आधार क्या है, वे ही जानें। पत्रकार के रूप में
एक्टीविस्ट बनकर आप देश विरोधी हिंसक अभियानों के शहरी-बौद्धिक मददगार बनेंगे और
आपके विरूद्ध कुछ न हो यह कहां संभव है?
आपको नहीं लगता कि दुनिया भर में मीडिया कार्पोरेट के हाथ में है, जिसका
एकमात्र उद्देश्य अधिक से अधिक फ़ायदा कमाना है। मीडिया राजनीतिक तंत्र का जीता
जगता हथियार भी बन गया है। आज राजनीतिक तंत्र जब चाहे, जहां चाहे मीडिया का उपयोग करता है और बदले
में ये राजनीतिक तंत्र मीडिया घरानों, प्रबंधकों व संपादकों की आवश्यकताओं की
पूर्ति प्रमुखता से करता है। क्या ये हालात लोकताँत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक
नहीं है।
इतने
भारी-भरकम और खर्चीले मीडिया को कारपोरेट के अलावा कौन चला सकता है? सरकार चलाएगी तो उस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। समाज या पाठक
को मुफ्त का अखबार चाहिए। आप अगर सस्ता अखबार और पत्रिकाएं चाहते हैं तो उसकी
निर्भरता तो विज्ञापनों पर रहेगी। विज्ञापन देने वाला कुछ तो अपनी भी बात रखेगा।
यानि अगर मीडिया को आजाद होना है, तो उसकी विज्ञापनों पर निर्भरता कम होनी चाहिए।
ऐसे में पाठक और दर्शक उसका खर्च उठाएं। अगर आप अच्छी, सच्ची, शोधपरक खबरें पढ़ना
चाहते हैं तो खर्च कीजिए। आज भी हमारे पास बहुत अच्छे अखबार, वेबसाइट, न्यूज चैनल
हैं, जो दबाव से मुक्त होकर बातें कहते हैं।
लेकिन उन्हें जनसहयोग नहीं होगा, आर्थिक संबल नहीं होगा तो कब तक यह भूमिका
निभाएंगें कहा नहीं जा सकता। बावजूद इसके निराशाजनक हालात नहीं हैं। सारी व्यवस्था
विरोधी खबरें भी यही कारपोरेट मीडिया लेकर आ रहा है। मीडिया के वजूद को बचाना है
तो जनपक्ष अनिवार्य है। थोड़ा बहुत एजेंडा सेंटिंग सब करते हैं। जो सत्ता में
हैं,मंत्री हैं उनकी बात ज्यादा आएगी। लेकिन प्रतिपक्ष को जगह नहीं मिलती, यह कहना
गलत है। संतुलन बनाने की दृष्टि से भी मीडिया को यह करना होता है। कई बार पत्रकार
खुद एक पक्ष हो जाता है, यह बात जरूर चिंता में डालती है। अगर पार्टियों के
प्रवक्ताओं का काम एंकर या पत्रकार ही करने लगेंगें तो हमारे इतने सारे
प्रतिभाशाली प्रवक्तागण बेरोजगार हो जाएंगें। कुछ लोगों को अपेक्षित संयम रखने की
जरूरत है। यह नहीं होना चाहिए कि मैं मुंह खोलूंगा तो क्या बोलूंगा, यह दर्शक को
पहले से पता हो। मैं कोई लेख लिखता हूं तो वह इस उम्मीद से पढ़ा जाए कि आज संजय
द्विवेदी ने क्या लिखा होगा। यह नहीं कि मेरी फोटो और नाम देखकर ही पाठक लेख का
कथ्य ही समझ जाए कि मैंने क्या लिखा है। यह किसी पत्रकार की विफलता है,किंतु सब
ऐसे नहीं हैं। बहुलांश में लोग अपना काम अपेक्षित तटस्थता से ही करते हैं। प्रभाष
जोशी जी कहते थे- “पत्रकार की पोलिटिकल लाइन होना गलत नहीं है, गलत है पार्टी
लाइन होना।”
यह वह दौर है जब मीडिया का तकनीकी विकास अपने चरम पर है। आज उसकी पहुँच देश के
कोने-कोने तक है। देश में हजारों अखबार और सैकड़ों संचार चैनल अपने तरीके से इस
समय जनतंत्र के बीच हैं। लेकिन क्या आपको नहीं लगता की इस सब के बावजूद यही
जनतंत्र मीडिया से गायब है?
-ऐसा साधारणीकरण करना ठीक नहीं है। यह सबको
एक कलर से पेंट कर देना है। लाखों पत्रकारों और मीडिया के लोंगों के त्यागपूर्ण
जीवन पर सवाल खड़ा करना है। समाज जीवन के हर क्षेत्र में गिरावट है।
कार्यपालिका,न्यायपालिका, विधायिका से जुड़े लोग क्या शत प्रतिशत ईमानदारी से अपना
काम कर रहे हैं? जाहिर है पर
उत्तर नकारात्मक आएगा। ऐसे ही मीडिया में भी सब हरिश्चंद्र नहीं हैं। यह भी
हमारे समाज का ही हिस्सा है। समाज में डाक्टर, वकील, इंजीनियर, अध्यापक, व्यापारी,
सरकारी कर्मचारी जितने प्रतिशत ईमानदार हैं, उससे कुछ ज्यादा पत्रकार और मीडिया के
लोग ईमानदार हैं। यह इसलिए क्योंकि मीडिया में आनेवाले ज्यादातर युवा कुछ आदर्शों,
बेचैनियों और बदलाव की उम्मीद से आते हैं। वरना मीडिया में आरंभिक दिनों की जो
तनख्वाह होती है , वो बहुत उत्साहवर्धक नहीं होती। पर वे आते हैं संघर्ष करते हैं
और सपनों को सच करते हैं और वह सब कुछ हासिल करते है जो अन्य व्यवसाय हमें दे सकते
हैं। लेकिन उनका आरंभिक संघर्ष हर कोई नहीं देखता। उनकी यात्रा का आरंभ आपने नहीं
देखा। आपने कुछ चेहरों की चमक देखकर पूरे मीडिया का आकलन किया है, जो न्यायपूर्ण
नहीं है। हमें अपने समाज में व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया को तेज करना होगा। ताकि
देश प्रथम का भाव रखने वाले नागरिक तैयार हों। सिर्फ मीडिया क्यों समाज के हर
क्षेत्र में ईमानदार, समर्पित, देशभक्त और संवेदनशील लोग चाहिए। किंतु हमारे
परिवार, स्कूल, समाज, धर्म और पूरी व्यवस्था अब हमें नागरिक नहीं बना रही है।
बाजार हमें जैसा बना रहा है, हम बन रहे हैं। संस्थाओं को अपनी जिम्मेदारी निभानी
होगी। इसमें सबसे पहली संस्था है परिवार और दूसरे हैं हमारे स्कूल। वे ही हमें
अच्छा मनुष्य बनाएगें। यह गजब है कि कोरोना के संकट में भी पूरे समाज, मरीजों और
उनके परिजनों को लूट रहे लोगों को अच्छा और ईमानदार मीडिया चाहिए। यह हिम्मत आपमें
कहां से आती है? तभी आती है
जब आप मनुष्यता के तल से बहुत नीचे गिर चुके होते हैं।
संविधान की धारा 19
(1) सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देती है।
देश की मीडिया भी इसी अधिकार से लैस है। इसी औजार के बल पर बिना किसी कानूनी
मान्यता के भी मीडिया को लोकतंत्र के चौथे खम्भे का दर्जा हासिल है। आज सवाल
मीडिया द्वारा अपने अधिकारों के सही इस्तेमाल को लेकर ही है।
मीडिया
को कोई संवैधानिक शक्ति हासिल नहीं है। कोई संरक्षण हासिल नहीं है। अमरीका की बात
अलग है। इसलिए यह चौथा और पांचवां खंभा तो ठीक है, किंतु नागरिकों को मिले अधिकार
का ही हम उपयोग करते हैं। इसलिए उसकी सीमाएं भी हैं। मीडिया आज जिस स्थिति में
हैं, उसमें स्पर्धा के चलते हड़बड़ी में काम करना होता है। खबरों की गति बढ़ गयी
है। इसलिए कई बार पुष्टि, प्रतिपुष्टि जैसे मुद्दे हाशिए लग जाते हैं। इस हड़बड़ी
ने काफी कुछ बिगाड़ा है।
क्या आपको नहीं लगता कि जिस देश में पत्रकार (कुछ पत्रकार) ही दलाली, लाबिंग और तमाम दूसरे प्रवृतियों में संलग्न
हो गए, वहाँ किस तरह के सामाजिक सरोकार की स्थापना होगी। क्योंकि बहुत दिन नहीं हुए जब टूजी घोटाले में फंसे ए.
राजा को मंत्री पद दिलाने के लिये लाबिस्ट नीरा राडिया का नाम आया था। जिसमें उसके
साथ बड़े मीडिया समूह के कुछ पत्रकारों के भी लाबिंग में शामिल होने के सबूत मिले। कुछ पत्रकारों को उनके मालिकों ने हटा कर
अपने पाप तो धोए लेकिन कुछ लाबिंग जर्नलिस्ट आज भी चौथे स्तम्भ का हिसा बने हुए
हैं।
लाबिंग
तो होती है। अमरीका जैसे देशों में भी होती है। मैंने कहा कि पत्रकार भी एक मनुष्य
भी है। उसके बिगड़ने के अवसर भी ज्यादा हैं। उसकी मुलाकातें, संपर्क अलीट क्लास और
ताकतवर लोगों से होते हैं। सो फिसलन भरी राह है। कई लोग फिसल जाते हैं, उनका क्या।
पर ज्यादातर उस काजल की कोठरी में जाना नहीं चाहते, यह बड़ा और गहरा सच है। मैं
उन्हीं को उम्मीदों से देखता हूं। यह हर क्षेत्र में है, कुछ अच्छे और बुरे लोग हर
प्रोफेशन में हैं। वो रहेंगें भी। त्रेता में भी रावण था, द्वापर में कंस था।
कलयुग में यह संख्या बढ़ना आश्चर्यजनक नहीं है। हमें उम्मीद रखनी चाहिए कि देश के
लोग पढ़ लिखकर,संवेदना के साथ आगे आएंगें और सतयुग आएगा। एक बेहतर और सुंदर दुनिया
की उम्मीद तो जिंदा रखनी ही चाहिए। वह बनेगी,भरोसा रखिए।
क्या पेड न्यूज़, फेक न्यूज़, नो न्यूज़ जैसे चीजें मीडिया के मजबूत खम्भे
को दरका रही है।
इसमें
क्या दो राय है। जो गलत है, वो गलत है। इसका समर्थन कोई नहीं करता। जो इन कामों
में लिप्त हैं, वह भी नहीं करते। मीडिया में खुद इन चीजों को लेकर बहुत बेचैनी है।
हर समाज में पत्रकारिता की ताकत में अंतर होता है। ‘वॉशिंगटन पोस्ट’, ‘न्यूयोर्क टाइम्स’ ने संयुक्त राष्ट्र अमरीका में, जो दुनिया का सबसे पुराना और सबसे ताक़तवर
लोकतंत्र है, से टकराने की जुर्रत दिखाई। लेकिन कितने अखबारों ने दुनिया
के सबसे बड़े लोकतंत्र में पत्रकारों और उनके काम का पक्ष लेते हुए, शक्तिशाली लोगों से टकराने की हिम्मत दिखाई
है? क्या समाज के लिए दुनिया से टक्कर लेने वाले पत्रकार के पक्ष में खड़े होने
वाले लोगो की कमी है? अगर हाँ तो इसकी वजह आपके हिसाब से क्या है?
हमारे
तमाम अखबार, टीवी चैनल और पत्रिकाएं साहस के साथ अपनी बात कहती हैं। कल यही इतिहास
बनेगा। आपातकाल के दिनों में भी वह आग थी। अंग्रेजों के दमनकारी दिनों में भी थी।
आगे भी रहेगी। आप इस आग को बुझा नहीं सकते। आप ध्यान देंगें तो पाएंगें कि आपके
आसपास समूची पत्रकारिता साहसी लोगों से भरी हुई है। लोग लिख रहे हैं, बोल रहे हैं और उन्हें ऐसा करना भी
चाहिए। पत्रकारिता के लिए कोई आलोचना से परे नहीं है। उसका काम ही है सत्यान्वेषण
और प्रश्नाकुलता। इसी में पत्रकारिता की मुक्ति है, यही उसका धर्म है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने एक बार कहा था कि, कुछ देशों में, अन्य देशों के मुकाबले राजनेता-मीडिया और पत्रकारों को वश में रखने में
ज्यादा कामयाब रहे हैं। लेकिन सत्ता पर काबिज एक शक्तिशाली व्यक्ति किसी पत्रकार
को किस हद तक वश में कर सकता है, यह बात बहुत हद तक उस पत्रकार विशेष पर भी
निर्भर करती है। आज के परिप्रेक्ष्य में आप इसे किस तरह से देखते हैं?
सत्ता
या दलों के निकट होना गलत नहीं है। मूल बात है खबरों के लिए ईमानदार होना। अपने
पेशे के लिए ईमानदार होना। मैं ऐसे अनेक पत्रकारों को जानता हूं कि वे अनेक
नेताओं, अधिकारियों के हमप्याला- हमनिवाला रहे। किंतु जब खबरें मिलीं तो उन्होंने
उनके साथ कोई रियायत नहीं बरती। यही मीडिया का चरित्र है। कई बार लोग मजाक में
कहते हैं प्रेस वालों से दोस्ती और दुश्मनी दोनों अच्छी नहीं। प्रेस की अपनी जगह
है। पत्रकार में यह सहज गुण होता है। जैसे घोड़ा घास से दोस्ती नहीं कर सकता, वैसे
ही पत्रकार खबरों से दोस्ती नहीं कर सकता। कब कौन सी एक खबर उसके जीवन में आए और
वह अमर हो जाए। वह नहीं जानता। उसी एक खबर के इंतजार में पत्रकार रोज निकलता है।
क्योंकि आपकी जिंदगी में ज्यादातर रूटीन होता है। एक खबर ही आपको मीडिया के आकाश
का सितारा बना देती है। अगर कोई भी राजनेता या अधिकारी इस धोखे में हैं, उसने
मीडिया को या किसी पत्रकार को जेब में रखा हुआ है ,तो उसका यह धोखा बना रहने
दीजिए। समय पर उसको इसका पछतावा जरूर होगा।
पत्रकारिता के बारे में यह मान्यता थी, विशेषकर आम लोगों में कि जब कहीं सुनवाई न हो, तब पीड़ित व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह अगर
पत्रकार के पास पहुंच जाए और पत्रकार उनकी समस्या सुनकर इसका संज्ञान ले ले तो
विश्वास था कि उनकी समस्याएं समाधान की तरफ बढ़ जाएंगी। क्या यह विश्वास आज भी लोंगों
के मन मे बना हुआ है या ये विश्वास आज गलत साबित हो रहा है?
-तीनों
पालिकाओं से निराश लोग खबरपालिका के पास जाते हैं, यह सच है। किंतु संकट तब आता है
जब आप चाहते हैं आपकी लड़ाई पत्रकार या उसका प्रेस लड़े, किंतु आप सामने नहीं
आएंगें। सच के लिए सबको सामने आना पड़ता है। प्रेस को, पत्रकार को समाज का भी साथ
चाहिए होता है। वह कई बार नहीं मिलता।
आप सक्रिय पत्रकारिता से अलग आज लंबे अरसे से पत्रकारिता शिक्षण से जुड़े हैं।
क्या आपको नहीं लगता कि देश में पत्रकारिता शिक्षा को लेकर संजीदगी की आवश्यकता
है।
-पूरी
शिक्षा व्यवस्था पर ही सवाल हैं। अकेली मीडिया शिक्षा को क्यों कह रहे हैं। शिक्षा
पहले तो मनुष्य बनाए, वह कौशल से जुड़े और श्रम का सम्मान करना सिखाए। राष्ट्रीय
शिक्षा नीति इन विषयों को संबोधित कर रही है। हम सब भी एकात्मक और समग्र दृष्टिकोण
के साथ काम करें, यह जरूरी है। इससे ही रास्ते निकलेगें।
एक पत्रकार के रूप में आपने पहचान बनाई। आज आपको लोग एक शिक्षाविद् और लेखक के
रूप में जानते हैं। आप समाज में किस तरह का परिवर्तन देखना चाहते हैं। किस आदर्श समाज
की परिकल्पना करते हैं।
मैं
भारत की ज्ञान परंपरा और शाश्वत मूल्यों पर विश्वास रखने वाला व्यक्ति हूं। जिससे
समरसता, समभाव और आत्मीयता का विस्तार होता है। हम सब भारत मां के पुत्र-पुत्रियां
हैं, तो हम सबके साझे दुख और सुख हैं। साझी उपलब्धियां और चुनौतियां हैं। रामराज्य
हमारा आदर्श समाज है- दैहिक,दैविक,भौतिक तापा,रामराज काहुंहिं नहिं व्यापा।
‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का मंत्र हमें बताता है कि हमारा पहला और अंतिम उद्देश्य
ही एक बेहतर,सुंदर और सुखमय दुनिया बनाना है। हम ही हैं जो आनो भद्रा क्रतवो
यन्तु विश्वतः कहकर चारों दिशाओं(पूरी दुनिया) से आ रहे कल्याणाकारी
विचारों को स्वीकारना चाहते हैं। जहां किसी प्रकार का द्वेष, विरोध, द्वंद न हो।
आत्मीय भाव चारो तरफ हों। इसलिए हमारे ऋषि की प्रार्थना है- सर्वे भवंतु
सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः। ऐसा सुंदर विचार रखने वाली संस्कृति एक दिन
समूचे विश्व में स्वीकारी जाएगी। इससे विश्व भी अपने संकटों से निजात पा सकेगा।
आपने विविध आयामी लेखन किया है। कोई ऐसा विषय जो अभी भी आपको लगता है की उस पर
लिखना बाकी है। आपका एक जुमला जो आप अक्सर बातचीत के समय प्रयोग में लाते हैं 'देश हित में सब मंज़ूर'। सवाल आपसे ये है की भविष्य में खुद को कहाँ
देखते हैं। ऐसी परिकल्पना जो देश हित में हो।
मैं
ही क्यों हर व्यक्ति जो किसी भी क्षेत्र में अपना काम ईमानदारी से कर रहा है वह
देशहित में ही कर रहा है। इसमें मेरे जैसे अध्यापक, लेखक, पत्रकार हैं तो किसान,
मजदूर, जवान और तमाम श्रमदेव और श्रमदेवियां शामिल हैं। उनके पसीने से ही भारत मां
का ललाट चमक रहा है, उसका आत्मविश्वास कायम है। मैंने अपनी बाल्यावस्था में ही खुद
को लेखन के लिए समर्पित करने का सपना देखा था। समय के साथ उसमें पत्रकारिता और
अध्यापन कार्य भी जुड़ गए। हम आयु से बड़े होते जाते हैं, सपने पूरे होते और बदलते
जाते हैं। यह एक यात्रा है जो निरंतर है। अभी तो यही योजना है कि भारतीय जन संचार
संस्थान को उसकी पारंपरिक गरिमा के साथ ऊंचाई दे सकूं। एक महान संस्था की सेवा का
यह अवसर मेरे लिए बहुत खास है। मैं चाहता हूं कि संस्थान के विद्यार्थियों के लिए
वह सब कुछ कर सकूं, जिससे उनमें भरोसा और आत्मविश्वास पैदा है। मैं चाहता हूं कि
देश के हर क्षेत्र की नामवर हस्तियों से हमारे विद्यार्थी बात कर पाएं,उनसे सीख
पाएं। बहुत सी योजनाएं हैं, सपने हैं। कोरोना ने थोड़ा ब्रेक लगाया है, पर सपने
जिंदा हैं।
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