रविवार, 16 मई 2021

जल,जंगल और जमीन के सवालों से जूझते रहे अनिल दवे

                                                          पुण्यतिथि(18 मई) पर विशेष

पर्यावरण के मुद्दे को मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बनाने वाला नायक

-प्रो.संजय द्विवेदी

    उन्हें याद करना एक ऐसे व्यक्ति को याद करना है, जिसके लिए राजनीति का मतलब इस पृथ्वी और मानवता के सामने उपस्थित संकटों के समाधान खोजना था। उनका सुदर्शन,सजीला और नफासत से भरा व्यक्तित्व, मनुष्य जीवन के सामने उपस्थित चुनौतियों व्यथित रहता था। अपने संवादों में वे इन चिंताओं को निरंतर व्यक्त भी करते थे। विचारों में आधुनिक, किंतु भारतीयता की जड़ों से गहरे जुड़े अनिल दवे संघ परिवार के उन कार्यकर्ताओं में थे, जिनमें गहरा भारतप्रेम और भारतबोध था। पर्यावरण,जल,जीवन और जंगल के सवाल भी किसी राजनेता की जिंदगी की वजह हो सकते हैं, तो ऐसे ही राजनेता थे श्री अनिल माधव दवे। 18 मई,2017 को वे हमें छोड़कर चले गए इसके बाद भी उनकी दिखाई राह आज भी उतनी ही पाक, मुकम्मल और प्रासंगिक है। आज जब कोरोना के संकट से समूचा दुनिया सवालों घिरी है, तब अनिल माधव दवे की याद अधिक स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। वे जिस तरह बुनियादी सवालों पर संवाद कर रहे थे वह दुर्लभ है। जिंदगी को प्रकृति से जोड़ने और उसके साथ सहजीवन कायम करने की उनकी भावना अप्रतिम थी। अपनी मृत्यु के समय वे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री थे। उन्हें संसद में बहुत गंभीरता से सुना जाता था।

      श्री अनिल माधव दवेदेश के उन चुनिंदा राजनेताओं में थेजिनमें एक बौद्धिक गुरूत्वाकर्षण मौजूद था।उन्हें देखनेसुनने और सुनते रहने का मन होता था। पानीपर्यावरण,नदी और राष्ट्र के भविष्य से जुड़े सवालों पर उनमें गहरी अंर्तदृष्टि मौजूद थी। उनके साथ नदी महोत्सवों ,विश्व हिंदी सम्मेलन-भोपालअंतरराष्ट्रीय विचार महाकुंभ-उज्जैन सहित कई आयोजनों में काम करने का मौका मिला। उनकी विलक्षणता के आसपास होना कठिन था। वे एक ऐसे कठिन समय में हमें छोड़कर चले गएजब देश को उनकी जरूरत सबसे ज्यादा थी। आज जबकि राजनीति में बौने कद के लोगों की बन आई तब वे एक आदमकद राजनेता-सामाजिक कार्यकर्ता के नाते हमारे बीच उन सवालों पर अलख जगा रहे थेजो राजनीति के लिए वोट बैंक नहीं बनाते। वे ही ऐसे थे जो जिंदगी केप्रकृति के सवालों को मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बना सकते थे।

    अपनी वसीयत में ही उन्होंने यह साफ कर दिया था कि उनकी प्रतिबद्धता क्या है। उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा था कि मेरा अंतिम संस्कार नर्मदा नदी के तट पर बांद्राभान में किया जाए तथा उनकी स्मृति में कोई स्मारकप्रतियोगितापुरस्कारप्रतिमा स्थापना इत्यादि ना हो। मेरी स्मृति में यदि कोई कुछ करना चाहते हैं तो वृक्ष लगाएं और उन्हें संरक्षित करके बड़ा करेंगे तो मुझे बड़ा आनंद होगा। वैसे ही नदियों एवं जलाशयों के संरक्षण में भी अधिकतम प्रयत्न किए जा सकते हैं। दवे जी का जीवन और उनकी वसीयत एक ऐसा पाठ है जो बहुत कुछ सिखाती है।

     भोपाल में जिन दिनों हम पढ़ाई करने आए तो वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थेविचार को लेकर स्पष्टतादृढ़ता और गहराई के बावजूद उनमें जड़ता नहीं थी। वे उदारमनाबौद्धिक संवाद में रूचि रखने वालेनए ढंग से सोचने वाले और जीवन को बहुत व्यवस्थित ढंग से जीने वाले व्यक्ति थे। उनके आसपास एक ऐसा आभामंडल स्वतः बन जाता था कि उनसे सीखने की ललक होती थी। नए विषयों को पढ़नासीखना और उन्हें अपने विचार परिवार (संघ परिवार) के विमर्श का हिस्सा बनानाउन्हें महत्वपूर्ण बनाता था। वे परंपरा के पथ पर भी आधुनिक ढंग से सोचते थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन अविवाहित रहकर समाज को समर्पित कर दिया। वे सच्चे अर्थों में भारत की ऋषि परंपरा के उत्तराधिकारी थे। संघ की शाखा लगाने से लेकर हवाई जहाज उड़ाने तक वे हर काम में सिद्धहस्त थे। 6 जुलाई,1956 को मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के बड़नगर में जन्में श्री दवे की मां का नाम पुष्पादेवी और पिता का नाम माधव दवे था।

    उनकी सादगी में भी एक सौंदर्यबोध परिलक्षित होता था। बांद्राभान (होशंगाबाद) में जब वे अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव का आयोजन करते थेतो कई बार अपने विद्यार्थियों के साथ वहां जाना होता था। इतने भव्य कार्यक्रम की एक-एक चीज पर उनकी नजर होती थी। यही विलक्षता तब दिखाई दीजब वे भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में इसे स्थापित करते दिखे। आयोजनों की भव्यता के साथ सादगी और एक अलग वातावरण रचना उनसे सीखा जा सकता था। सही मायने में उनके आसपास की सादगी में भी एक गहरा सौंदर्यबोध छिपा होता था। वे एक साथ कितनी चीजों को साधते हैंयह उनके पास होकर ही जाना जा सकता था। हम भाग्यशाली थे कि हमें उनके साथ एक नहीं अनेक आयोजनों में उनकी संगठनपुरूष की छविसौंदर्यबोध,भाषणकला,प्रेरित करनी वाली जिजीविषा के दर्शन हुए। विचार के प्रति अविचल आस्थागहरी वैचारिकतासांस्कृतिक बोध के साथ वे विविध अनुभवों को करके देखने वालों में थे। शौकिया पर्यटन ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा था। वे मुद्दों पर जिस अधिकार से अपनी बात रखते थेवह बताती थी कि वे किस तरह विषय के साथ गहरे जुड़े हुए हैं। उनका कृतित्व और जीवन पर्यावरणनदी संरक्षणस्वदेशी के युगानुकूल प्रयोगों को समर्पित था। वे स्वदेशी और पर्यावरण की बात कहते नहींकरके दिखाते थे। उनके मेगा इवेंट्स में तांबे के लोटे ,मिट्टी के घड़ेकुल्हड़ से लेकर भोजन के लिए पत्तलें इस्तेमाल होती थीं। आयोजनों में आवास के लिए उनके द्वारा बनाई गयी कुटिया में देश के दिग्गज भी आकर रहते थे। हर आयोजन में नवाचार करके उन्होंने सबको सिखाया कि कैसे परंपरा के साथ आधुनिकता को साधा जा सकता है। राजनीति में होकर भी वे इतने मोर्चों पर सक्रिय थे कि ताज्जुब होता था।

    वे एक कुशल संगठनकर्ता होने के साथ चुनाव रणनीति में नई प्रविधियों के साथ उतरने के जानकार थे। भाजपा में जो कुछ कुशल चुनाव संचालक हैंरणनीतिकार हैंवे उनमें एक थे। किसी राजनेता की छवि को किस तरह जनता के बीच स्थापित करते हुए अनूकूल परिणाम लानायह मध्यप्रदेश के कई चुनावों में वे करते रहे। दिग्विजय सिंह के दस वर्ष के शासनकाल के बाद उमाश्री भारती के नेतृत्व में लड़े गए विधानसभा चुनाव और उसमें अनिल माधव दवे की भूमिका को याद करें तो उनकी कुशलता एक मानक की तरह सामने आएगी। वे ही ऐसे थे जो मध्यप्रदेश में उमाश्री भारती से लेकर शिवराज सिंह चौहान सबको साध सकते थे। सबको साथ लेकर चलना और साधारण कार्यकर्ता से भीबड़े से बड़े काम करवा लेने की उनकी क्षमता मध्य प्रदेश ने बार-बार देखी और परखी थी।

     उनके लेखन में गहरी प्रामाणिकताशोध और प्रस्तुति का सौंदर्य दिखता है। लिखने को कुछ भी लिखना उनके स्वभाव में नहीं था। वे शिवाजी एंड सुराजक्रिएशन टू क्रिमेशनरैफ्टिंग थ्रू ए सिविलाइजेशनए ट्रैवलॉगशताब्‍दी के पांच काले पन्‍नेसंभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों सेमहानायक चंद्रशेखर आजादरोटी और कमल की कहानीसमग्र ग्राम विकासअमरकंटक से अमरकंटक तकबेयांड कोपेनहेगनयस आई कैनसो कैन वी जैसी पुस्तकों के माध्यम से अपनी बौद्धिक क्षमताओं से लोगों को परिचित कराते हैं। अनछुए और उपेक्षित विषयों पर गहन चिंतन कर वे उसे लोकविमर्श का हिस्सा बना देते थे। आज मध्यप्रदेश में नदी संरक्षण को लेकर जो चिंता सरकार के स्तर पर दिखती है , उसके बीज कहीं न कहीं दवे जी ने ही डाले हैंइसे कहने में संकोच नहीं करना चाहिए। वे नदीपर्यावरणजलवायु परिर्वतन,ग्राम विकास जैसे सवालों पर सोचने वाले राजनेता थे। नर्मदा समग्र संगठन के माध्यम से उनके काम हम सबके सामने हैं। नर्मदा समग्र का जो कार्यालय उन्होंने बनाया उसका नाम भी उन्होंने ‘नदी का घर’ रखा। वे अपने पूरे जीवन में हमें नदियों सेप्रकृति सेपहाड़ों से संवाद का तरीका सिखाते रहे। प्रकृति से संवाद दरअसल उनका एक प्रिय विषय था। दुनिया भर में होने वाली पर्यावरण से संबंधित संगोष्ठियों और सम्मेलनों मे वे भारत’ (इंडिया नहीं) के एक अनिवार्य प्रतिनिधि थे। उनकी वाणी में भारत का आत्मविश्वास और सांस्कृतिक चेतना का निरंतर प्रवाह दिखता था। एक ऐसे समय में जब बाजारवाद  हमारे सिर चढ़कर नाच रहा हैप्रकृत्ति और पर्यावरण के समक्ष रोज संकट बढ़ता जा रहा हैहमारी नदियां और जलश्रोत- मानव रचित संकटों से बदहाल हैंअनिल दवे का हमारे साथ न होना हमें बहुत अकेला कर गया है। कोरोना संकट के बहाने हमें एक बार फिर जड़ों से जुड़ने और प्रकृति के साथ संवाद का अवसर मिला है। इस अवसर को हम न चूकें, यही अनिल जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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