बुधवार, 29 अप्रैल 2009

जिद और जिजीविषा ने दिलाई जगह

जिद और जिजीविषा ने दिलाई जगह

देर से ही सही भारतीय ललित कलाएं विश्व की कला दुनिया में अपनी जगह बना रही हैं। शास्त्रीय संगीत और नृत्य से शुरुआत तो हुई पर अब चित्रकला की दुनिया में भी भारत की पहल को स्वागतभाव से देखा जा रहा है। सतत जिद और जिजीविषा के चलते भारतीय कलाकारों की यह सफलता हमारे गर्व करने का विषय है।

आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास लगभग डेढ़ शताब्दी पुराना है जब मद्रास, कलकत्ता, मुंबई और लाहौर में कला विद्यालय खोले गए। तब की शुरुआत को अपेक्षित गरिमा और गंभीरता मिली राजा रवि वर्मा के काम से। वे सही अर्थों में भारतीय चित्रकला के जन्मदाता कहे जा सकते हैं । केरल के किली मन्नूर नामक एक गांव में 29 अप्रैल, 1848 को जन्में राजा रवि वर्मा के आलोचकों ने भले ही उनकी ‘कैलेंडर आर्टिस्ट’ कहकर आलोचना की हो परंतु पौराणिक कथाओं के आधार पर बने चित्र व पोट्रेट उनकी पहचान बन गए। हेवेल और अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने 19 वीं सदी के आखिरी दशक में गंभीर और उल्लेखनीय काम किया, जिसे, ‘बंगाल स्कूल’ के नाम से भी संबोधित किया गया। बाद में रवीद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल से होती हुई यह पंरपरा मकबूल फिदा हुसैन, सैयद हैदर रजा, नारायण श्रीधर वेन्द्रे, फ्रांसिस न्यूटन सूजा, वी.एस. गायतोंडे, गणेश पाइन, के.जी. सुब्रह्मण्यम, गुलाम मोहम्मद शेख, के. सी. ए. पाणिक्कर, सोमनाथ होर, नागजी पटेल, मनु पारेख, लक्ष्मा गौड़, विकास भट्टाचार्य, मनजीत बावा, रामकिंकर बैज, सतीश गुजराल, जगदीश स्वामीनाथन, रामकुमार और कृष्ण रेड्डी तक पहुँची । जाहिर है, इस दौर में भारतीय कला ने न सिर्फ नए मानक गढ़े, वरन् वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अपना सार्थक हस्तक्षेप भी किया। विदेशों में जहां पहले भारतीय पारंपरिक कला की मांग थी और उनका ही बाजार था। अब गणित उलट रहा है। विदेशी कलाबाजार में भारतीय कलाकारों की जगह बनी है। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय कला के सामने न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में कायम रहने की चुनौती है, वरन अपने लिए बाजार की तलाश भी करनी है। बाजार शब्द से वैसे भी कला-संस्कृति क्षेत्रों के लोग चौंक से उठते हैं । न जाने क्यों यह माना जाने लगा है कि बाजार और सौंदर्यशास्त्र एक दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन देखा जाए तो चित्र बनना और बेचना एक-दूसरे से जुड़े कर्म हैं । इनमें विरोध का कोई रिश्ता नहीं दिखता । लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि इस रिश्ते के चलते क्या कला तो प्रभावित नहीं हो रही ? उसकी स्वाभाविकता एवं मौलिकता तो नष्ट नहीं हो रही, या बाजार के दबाव में कलाकार की सृजनशीलता तो प्रभावित नहीं हो रही ? वैसे भी कलाओं के प्रति आम भारतीय समाज में किसी प्रकार का उत्साह नहीं दिखता । बहुत हद तक समझ का भी अभाव दिखता है। सो प्रायोजित चर्चाओं के अलावा कला के बजाय कलाकारों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में ज्यादा बातें छापी और कहीं जाती हैं। अंग्रेजी अखबार जो प्रायः इस प्रकार के कलागत रूझानों की बात तो करते हैं, किंतु उनमें भी कला की समीक्षा, उसके, रचनाकर्म या विश्व कला परिदृश्य में उस कृति की जगह के बजाय कलाकार के खान-पान की पसंदों उसके दोस्तों-दुश्मनों, प्रेमिकाओं, कपड़ों की समीक्षा ज्यादा रहती है। मकबूल फिदा हुसैन को लेकर ऐसी चर्चाएं प्रायः बाजार को गरमाए रहती हैं। ‘माधुरी प्रसंग’ से लेकर तमाम अभिनेत्रियों के साथ जुड़े हुसैन प्रसंग को इस नजरिए से देखा जा सकता है। आज ऐसे कलाकार कम दिखते हैं जो अपने कलालोक में डूबे रहते हों - प्रचार पाना या प्रचार को प्रायोजित करना एक जरूरी कर्म हो गया है।

कुछ वर्ष पूर्व कलाकार अंजली इला मेमन ने अपने जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में एक स्त्री के धड़ के रूप में बना केक काटा। इससे वे क्या साबित करना चाहती थीं, वे ही जाने, पर ‘प्रचार की भूख’ इससे साफ झांकती है।कला प्रदर्शनियों के उद्घाटन में भी कभी-कभी ऐसे दृश्य दिखते हैं, जैसे कोई पार्टी हो। इन पार्टियों में हाथ में जाम लिए सुंदर कपड़ों में सजे-सधे कला प्रेमियों की पीठ ही दीवार पर टंगी कलाकृतियों की ओर रहती है। इस उत्सव धर्मिता ने नए रूप रचे हैं। पत्र-पत्रिकाओं का रुझान भी कला संबंधी गंभीर लेखन की बजाय हल्के-फुल्के लेखन की ओर है । कुछ कलाकार मानते हैं कि पश्चिम में भारतीय कलाकारों की बढ़ती मांग के पीछे अनिवासी भारतीयों का एक बड़ा वर्ग भी है, जो दर्शक ही नहीं कला का खरीददार भी है । लेकिन सैयद हैदर रजा जैसे कलाकार इस मांग के दूसरे कारण भी बताते रहे हैं, वे मानते हैं कि पश्चिम की ज्यादातक कला इस समय कथ्यविहीन हो गयी है। उनके पास कहने को बहुत कुछ नहीं है । प्रख्यात कवि आलोचक अशोक वाजपेयी के शब्दों में- ‘स्वयं पश्चिम में आधुनिकता थक-छीज गई है और उत्तर आधुनिकता ने पश्चिम को बहुकेंद्रिकता की तलाश के लिए विवश किया है। पश्चिम की नजर फिर इस ओर पड़ी है कि भारत सर्जनात्मकता का एक केंद्र है।’ सही अर्थों में भारतीय कला में भी अपनी जड़ों का अहसास गहरा हुआ है और उसने निरंतर अपनी परंपरा से जुड़कर अपना परिष्कार ही किया है। सो भारतीय समाज में कला की पूछताछ बढ़ी है। ज्यादा सजगता और तैयारी के साथ चीजों को नए नजरिए से देखने का रुझान बढ़ा है। कला का फलक बहुत विस्तृत हुआ है। इतिहास, परंपरा से लेकर मन के झंझावतों की तमाम जिज्ञासाएं कैनवास पर जगह पा रही हैं। बाजारवाद के ताजा दौर ने दुनिया की खिड़किंयां खोली हैं। इसके नकारात्मक प्रभावों से बचकर यदि भारतीय कला अपनी जिद और जिजीविषा को बचाए और बनाए रख सकी तो उसकी रचनात्मकता के प्रति सम्मान बढ़ेगा ही और वह सकारात्मक ढंग से अभिव्यक्ति पा सकेगी।

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

मनमोहन और आडवानीः कितने दूर, कितने पास


लोकसभा का यह चुनाव मुद्दाविहीन है ऐसा बार-बार कहा जा रहा है। यह हवा बनाई जा रही है राजनीति का पतन हो गया है। लोकतंत्र से लोगों की उम्मीदें और आस्था गायब हो रही है। ऐसे करने में मीडिया का एक बड़ा वर्ग बड़े उत्साह से लगा हुआ है। लोकतंत्र के प्रति अनास्था जताकर आखिर हम किनका भला कर रहे हैं। देश में तमाम ऐसी ताकतें हैं जो लोकतंत्र को मजबूत होते देखना नहीं चाहती क्योंकि लोकतंत्र में अंततः कहानी जबाबदेही पर खत्म होती है, प्रभु वर्ग जवाबदेही से ही बचना चाहता है।

बावजूद इसके यह एक ऐसा चुनाव है जो बिना किसी भावनात्मक ज्वार के हो रहा है। खास बात यह है कि प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों को लेकर बहुत उत्साह नहीं देखा जा रहा है। भाजपा और कांग्रेस के दोनों खेमों में चुनावी कवायद, जोड़तोड़ तो तेज है पर सारे हथकंडों के बावजूद आम जनता में दोनों मुख्य दल कोई जादू नहीं जगा पाए हैं। इस अर्थ में मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवानी में कई समानताएं तलाशी जा सकती हैं। प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवार कहीं से करिश्माई नहीं, बल्कि काम करके आगे बढ़े लोग हैं, जिनके पीछे किसी परिवार या खुद का कोई करिश्मा नहीं है। यह संयोग ही है कि दोनों उम्मीदवार अल्पसंख्यक वर्ग से आते हैं और दोनों ही भारत विभाजन के बाद देश में आए हैं। यह देश के लोकतंत्र की ताकत ही है कि जब लोकतंत्र को माफिया व पैसे वालों के द्वारा बंधक बनाए जाने के सुनियोजित षडयंत्र चल रहे हैं तो ऐसे नेता हमारे पास हैं। यह अलग बात है कि मनमोहन सिंह अपने पूरे पांच साल के कार्यकाल में खुद की कोई लाइन नहीं बना पाए और उनपर यह आरोप विरोधी लगातार लगाते रहे वे श्रीमती सोनिया गांधी के इशारे पर काम करते हैं। देखें तो इसमें गलत क्या है। कांग्रेस पार्टी जिस तरह की पार्टी बाद में बन गयी या बना दी उसमें मनमोहन सिंह क्या करते। जाहिर तौर पर वे कांग्रेस पार्टी का स्वाभाविक चयन नहीं हैं। वे सोनिया गांधी द्वारा छोड़ी गयी कुर्सी पर उनके द्वारा नामित उम्मीदवार हैं। मनमोहन सिंह का खुद का कोई जनाधार नहीं, सो उनकी कांग्रेस अध्यक्षा पर निर्भरता बहुत स्वाभाविक है। इसके अलावा सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष हैं, सिद्धांतों की बात करें तो पार्टी अध्यक्ष का सरकार पर नियंत्रण कोई गलत बात नहीं है।

इसी तरह प्रधानमंत्री पद के दूसरे उम्मीदवार लालकृष्ण आडवानी लंबे समय से भारतीय राजनीति का एक अनिवार्य चेहरा बने हुए हैं। अटल-आडवाणी की जोड़ी ने भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ की राजनीति को स्वीकार्य और अपरिहार्य बनाने का जो करिश्मा किया वह अद्बुत है। भारतीय जनता पार्टी के संगठनात्मक विस्तार में आडवानी की भूमिका को सभी जानते हैं। बावजूद इसके वे अटलविहारी वाजपेयी की तरह करिश्माई वक्ता नहीं हैं। वे दृढ़ और आग्रही माने जाते हैं। हालांकि वाजपेयी के बाद वे पार्टी के स्वाभाविक नेता भी हैं। वाजपेयी सरकार में उपप्रधानमंत्री का पद देकर यही संकेत देने की कोशिश भी की गयी थी। वाजपेयी सरीखी लोकप्रियता, वक्रता और स्वीकार्यता आडवानी को कभी नहीं मिली। यही हाल मनमोहन सिंह का है वे एक ऐसी पार्टी के नेता हैं जिसने लंबे समय से गांधी परिवार के साथ रहने की आदत डाल ली है। उस परिवार के बिना पार्टी की बेचारगी समझी जा सकती है। मनमोहन सिंह जैसे नेता जिनकी कोई राजनैतिक पृष्ठभूमि नहीं है कांग्रेस जैसे दल में सिर्फ इसलिए पांच साल प्रधानमंत्री पद पर पूरे कर पा रहे हैं क्योंकि उन्हें श्रीमती सोनिया गांधी का आशीर्वाद प्राप्त है। सोनिया जी ने जिस गरिमा के साथ उन्हें न सिर्फ पद पर स्थापित किया बल्कि सतत उनके साथ खड़ी दिखीं यह उदाहरण भी अभूतपूर्व है। यह सोनिया जी का वरदहस्त है कि मनमोहन सिंह निश्चिंत दिखते हैं तो अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज आंसू बहा रहे हैं। कांग्रेस के मंच पर राहुल गांधी जैसा सर्वस्वीकृत चेहरा मैदान में है किंतु चुनाव में मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट किए गए हैं। इसके साथ भाजपा में भी दूसरी पीढ़ी के नेताओं में सत्ता संघर्ष तेज हो गया है जिस तरह कांग्रेस में मनमोहन के बाद राहुल गांधी कतार में हैं उसी तरह भाजपा में नरेंद्र मोदी का नाम तेजी से उभरा है। अरूण शौरी, वेंकैया नायडू, अरूण जेतली जैसे नेता उनके नाम पर सहमति जता चुके हैं। यह संयोग ही है कि दोनों नेताओं में एक जैसी तमाम समानताएं तलाशी जा रही हैं। यह भी साधारण नहीं है कि इन चुनावों में मीडिया घरानों, सेलिब्रिटीज और बाबा रामदेव जैसे लोगों के व्यापक अभियान के बावजूद वोट प्रतिशत गिर रहा है। शत प्रतिशत मतदान का सारा अभियान फुस्स सा साबित हुआ है, जबकि उप्र, बिहार जैसे राज्यों में सिर्फ 45 प्रतिशत मतदान की खबरें आ रही हैं। यहां यह जानना रोचक हो सकता है कि क्या जादुई नेतृत्व का ना होना इसका एक कारण हो सकता हो या चुनाव में भावनात्मक मुद्दों का अभाव फ्लोटिंग वोट को निकलने से रोकने की वजह बना है। यह भी संभव है कि लोग इन चुनावों या बदलावों से बहुत उम्मीद न रखते हों, इस नाते भी आमजनता में घिर आया नैराश्य या अवसाद भी इसका कारण हो सकता है। कारण जो भी मीडिया और राजनेताओं को इस विषय में सोचना जरूर चाहिए कि नेता मनमोहन हों या आडवानी, मायावती या पवार, लोकतंत्र के प्रति जनमन में घटता भरोसा, नैराश्य अंततः हमारी जड़ों को ही खोखला करेगा। आज जबकि दुनिया के तमाम देश अपनी अराजकता से मुक्ति पाने के लिए लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हैं, ऐसे में हम अपने साठ साल के लोकतंत्र को क्या यूं ही मुरझाने के लिए छोड़ देंगें।

रविवार, 26 अप्रैल 2009

अंधेरों की चीरती शब्दों की रौशनी

हिन्द स्वराज्य की शताब्दी वर्ष पर विशेष-

महात्मा गांधी की मूलतः गुजराती में लिखी पुस्तक हिन्द स्वराज्य एक बार फिर अपने सौ साल पूरे होने पर चर्चा में है। महात्मा गांधी की यह बहुत छोटी सी पुस्तिका कई सवाल उठाती है और अपने समय के सवालों के वाजिब उत्तरों की तलाश भी करती है। सबसे महत्व की बात है कि पुस्तक की शैली। यह किताब प्रश्नोत्तर की शैली में लिखी गयी है। पाठक और संपादक के सवाल-जवाब के माध्यम से पूरी पुस्तक एक ऐसी लेखन शैली का प्रमाण जिसे कोई भी पाठक बेहद रूचि से पढ़ना चाहेगा। यह पूरा संवाद महात्मा गांधी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए लिखा था। 1909 में लिखी गयी यह किताब मूलतः यांत्रिक प्रगति और सभ्यता के पश्चिमी पैमानों पर एक तरह हल्लाबोल है। गांधी इस कल्पित संवाद के माध्यम से एक ऐसी सभ्यता और विकास के ऐसे प्रतीकों की तलाश करते हैं जिनसे आज की विकास की कल्पनाएं बेमानी साबित हो जाती हैं।

गांधी इस मामले में बहुत साफ थे कि सिर्फ अंग्रेजों के देश के चले से भारत को सही स्वराज्य नहीं मिल सकता, वे साफ कहते हैं कि हमें पश्चिमी सभ्यता के मोह से बचना होगा। पश्चिम के शिक्षण और विज्ञान से गांधी अपनी संगति नहीं बिठा पाते। वे भारत की धर्मपारायण संस्कृति में भरोसा जताते हैं और भारतीयों से आत्मशक्ति के उपयोग का आह्लान करते हैं। भारतीय परंपरा के प्रति अपने गहरे अनुराग के चलते वे अंग्रेजों की रेल व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था, न्याय व्यवस्था सब पर सवाल खड़े करते हैं। जो एक व्यापक बहस का विषय हो सकता है। हालांकि उनकी इस पुस्तक की तमाम क्रांतिकारी स्थापनाओं से देश और विदेश के तमाम विद्वान सहमत नहीं हो पाते। स्वयं श्री गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेता को भी इस किताब में कच्चा पन नजर आया। गांधी जी के यंत्रवाद के विरोध को दुनिया के तमाम विचारक सही नहीं मानते। मिडलटन मरी कहते हैं- गांधी जी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं इंसान की बनाई हुयी चीज है। हालांकि जब दिल्ली की एक सभा में उनसे यह पूछा गया कि क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं तो महात्मा गांधी ने अपने इसी विचार को कुछ अलग तरह से व्यक्त किया। महात्मा गांधी ने कहा कि- वैसा मैं कैसे हो सकता हूं, जब मैं यह जानता हूं कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी सी दांत कुरेदनी भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है उसके लिए है।

वे यह भी कहते हैं मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करना नहीं बल्कि उनकी हद बांधने का है। अपनी बात को साफ करते हुए गांधी जी ने कहा कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। कुल मिलाकर गांधी, मनुष्य को पराजित होते नहीं देखना चाहते हैं। वे मनुष्य की मुक्ति के पक्षधर हैं। उन्हें मनुष्य की शर्त पर न मशीनें चाहिए न कारखाने।

महात्मा गांधी की सबसे बड़ी देन यह है कि वे भारतीयता का साथ नहीं छोड़ते, उनकी सोच धर्म पर आधारित समाज रचना को देखने की है। वे भारत की इस असली शक्ति को पहचानने वाले नेता हैं। वे साफ कहते हैं- मुझे धर्म प्यारा है, इसलिए मुझे पहला दुख तो यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं हिंदू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है वह हिंदुस्तान से जा रहा है, हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।

वे धर्म के प्रतीकों और तीर्थ स्थलों को राष्ट्रीय एकता के एक बड़े कारक के रूप में देखते थे। वे कहते हैं- जिन दूरदर्शी पुरूषों ने सेतुबंध रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और हरिद्वार की यात्रा निश्चित की उनका आपकी राय में क्या ख्याल रहा होगा। वे मूर्ख नहीं थे। यह तो आप भी कबूल करेंगें। वे जानते थे कि ईश्वर भजन घर बैठे भी होता है।

गांधी राष्ट्र को एक पुरातन राष्ट्र मानते थे। ये उन लोगों को एक करारा जबाब भी है जो यह मानते हैं कि भारत तो कभी एक राष्ट्र था ही नहीं और अंग्रेजों ने उसे एकजुट किया। एक व्यवस्था दी। इतिहास को विकृत करने की इस कोशिश पर गांधी जी का गुस्सा साफ नजर आता है। वे हिंद स्वराज्य में लिखते हैं- आपको अंग्रेजों ने सिखाया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक ऱाष्ट्र बनने में आपको सैंकड़ों बरस लगे। जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे। हमारा रहन-सहन भी एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया।

गांधी इस अंग्रेजों की इस कूटनीति पर नाराजगी जताते हुए कहते हैं- दो अंग्रेज जितने एक नहीं है उतने हम हिंदुस्तानी एक थे और एक हैं। एक राष्ट्र-एक जन की भावना को महात्मा गांधी बहुत गंभीरता से पारिभाषित करते हैं। वे हिंदुस्तान की आत्मा को समझकर उसे जगाने के पक्षधर थे। उनकी राय में हिंदुस्तान का आम आदमी देश की सब समस्याओं का समाधान है। उसकी जिजीविषा से ही यह महादेश हर तरह के संकटों से निकलता आया है। गांधी देश की एकता और यहां के निवासियों के आपसी रिश्तों की बेहतरी की कामना भर नहीं करते वे इस पर भरोसा भी करते हैं। गांधी कहते हैं- हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं। उससे वह राष्ट्र मिटनेवाला नहीं है। जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल-मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरों के गुणों का समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है।

महात्मा गांधी की राय में धर्म की ताकत का इस्तेमाल करके ही हिंदुस्तान की शक्ति को जगाया जा सकता है। वे हिंदू और मुसलमानों के बीच फूट डालने की अंग्रेजों की चाल को वे बेहतर तरीके से समझते थे। वे इसीलिए याद दिलाते हैं कि हमारे पुरखे एक हैं, परंपराएं एक हैं। वे लिखते हैं- बहुतेरे हिंदुओं और मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए। धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं।

गांधी बुनियादी तौर पर देश को एक होते देखना चाहते थे वे चाहते थे कि ऐसे सवाल जो देश का तोड़ने का कारण बन सकते हैं उनपर बुनियादी समझ एक होनी चाहिए। शायद इसीलिए सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ वे लगातार बोलते और लिखते रहे वहीं सांप्रदायिक एकता को मजबूत करने के लिए वे ताजिंदगी प्रयास करते रहे। हिंदु-मुस्लिम की एकता उनमें औदार्य भरने के हर जतन उन्होंने किए। हमारी राजनीति की मुख्यधारा के नेता अगर गांधी की इस भावना को समझ पाते तो देश का बंटवारा शायद न होता। इस बंटवारे के विष बीज आज भी इस महादेश को तबाह किए हुए हैं। यहां गांधी की जरूरत समझ में आती है कि वे आखिर हिंदु-मुस्लिम एकता पर इतना जोर क्यों देते रहे। वे संवेदनशील सवालों पर एक समझ बनाना चाहते थे जैसे की गाय की रक्षा का प्रश्न। वे लिखते हैं कि – मैं खुद गाय को पूजता हूं यानि मान देता हूं। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिंदुस्तान का, जो खेती-प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी है यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगें।

हिंद स्वराज्य के शताब्दी वर्ष के बहाने हमें एक अवसर है कि हम उन मुद्दों पर विमर्श करें जिन्होंने इस देश को कई तरह के संकटों से घेर रखा है। राजनीति कितनी भी उदासीन हो जाए उसे अंततः इन सवालों से टकराना ही है। भारतीय राजनीति ने गांधी का रास्ता खारिज कर दिया बावजूद इसके उनकी बताई राह अप्रासंगिक नहीं हो सकती। आज जबकि दुनिया वैश्विक मंदी का शिकार है। हमें देखना होगा कि हम अपने आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे में आम आदमी की जगह कैसे बचा और बना सकते हैं। जिस तरह से सार्वजनिक पूंजी को निजी पूंजी में बदलने का खेल इस देश में चल रहा है उसे गांधी आज हैरत भरी निगाहों से देखते। सार्वजनिक उद्यमों की सरकार द्वारा खरीद बिक्री से अलग आदमी को मजदूर बनाकर उसके नागरिक सम्मान को कुचलने के जो षडयंत्र चल रहे हैं उसे देखकर वे द्रवित होते। गांधी का हिन्द स्वराज्य मनुष्य की मुक्ति की किताब है। यह सरकारों से अलग एक आदमी के जीवन में भी क्रांति ला सकती है। ये राह दिखाती है। सोचने की ऐसी राह जिस पर आगे बढ़कर हम नए रास्ते तलाश सकते हैं। मुक्ति की ये किताब भारत की आत्मा में उतरे हुए शब्दों से बनी है। जिसमें द्वंद हैं, सभ्यता का संघर्ष है किंतु चेतना की एक ऐसी आग है जो हमें और तमाम जिंदगियों को रौशन करती हुयी चलती है। गाँधी की इस किताब की रौशनी में हमें अंधेरों को चीर कर आगे आने की कोशिश तो करनी ही चाहिए।

लोकतंत्र का महापर्व और मीडिया

भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया की समझ और उसका कवरेज बहुत आसान नहीं है। चुनावों में न सिर्फ मीडिया की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है वरन स्वस्थ लोकतंत्र के विकास में यह चुनौतीपूर्ण भी हो जाती है। चुनाव के दौरान मीडिया की विश्वसनीयता भी दांव पर लग जाती है और यह कहना बहुत कठिन है कि वह इसमें कितना खरा उतरता है। भारत जैसे महादेश की विशाल संरचना, विविध भाषाएं, क्षेत्रीय अस्मिताएं, आकांक्षाएं, जाति चेतना, शिक्षा का विविध स्तर जिस तरह सामने आते हैं उसमें कोई संतुलित दृष्टि बना पाना वास्तव में आसान नहीं होता। प्रिंट मीडिया ने तो लंबे अनुभव से इसमें एक परंपरागत कौशल अर्जित कर लिया है लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया को अभी इस क्षेत्र में लंबा मुकाम तय करना है।

भारत जैसे विशाल लोकतंत्र की तमाम खूबियों के बावजूद तमाम बुराइयां भी हैं जो चुनाव के समय ज्यादा प्रकट रूप में सामने आती हैं। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है जाहिर तौर पर मीडिया की जिम्मेदारी भी इस लोकतंत्र के महापर्व में विशेष हो जाती है। किंतु जैसी बातें सुनने में आती हैं मीडिया भी हमारे संसदीय लोकतंत्र बुराइयों से बच नहीं पा रहा है। चुनावी कवरेज में भी पैकेज का खेल शुरू हो गया है जिससे जनतंत्र मजबूत तो नहीं हो रहा है उल्टे मीडिया की विश्वसनीयता पर भी सवालिया निशान उठने लगे हैं। यह बात रेखांकित करने योग्य है कि है कि देश के दो महत्वपूर्ण पत्र समूहों ने चुनावी कवरेज की पवित्रता के लिए संकल्प जताया है। सो सब कुछ बुरा ही है ऐसा सोचना ठीक नहीं किंतु विचार का बिंदु यह है कि हम अपनी चुनावी कवरेज या रिर्पोटिंग की प्रामणिकता और विश्वसनीयता कैसे बचाएं। कई बार मीडिया अपनी तरफ से एजेंडा सेट कर लेता है और जमीनी हकीकत उससे उलट होती है, तब दंभी राजनीति मीडिया को लांछित करने का कोई मौका नहीं छोड़ती। जाहिर तौर पर चुनावी कवरेज को हमें इस स्तर पर ले जाना होगा ताकि कोई राजनीतिक दल मीडिया के आंकलनों का मजाक न बना सके। यहां यह करते हुए हमें अपनी सीमाओं का भी ध्यान रखना होगा कि हम जाने अनजाने किसी के हाथ का खिलौना तो नहीं बन रहे हैं। पत्रकार की राजनीतिक विचारधारा हो सकती है और बहुत संभव है कि वह अपनी राजनितिक विचारधारा को राज करते देखने का भी आकांक्षी भी हो। किंतु उसकी पोलिटिकल लाइन कहीं पार्टी लाइन में तो नहीं बदल रही है, इसे उसे सचेत होकर देखना होगा। अपनी निगहबानी और निगरानी उसे खुद करनी होगी। तभी वह अपने व्यवसाय के प्रति ईमानदार रह पाएगा। यहां सवाल यह भी उठता है कि पत्रकार की व्यक्तिगत ईमानदारी से क्या काम चल जाएगा। मीडिया संस्थानों के प्रबंधकों को भी इसमें योगदान देना होगा। एक तरफ पत्रकार का मिशन तो दूसरी ओर मीडिया प्रबंधकों और संस्थान का एजेंडा जिसे व्यवसाय की आड़ में पत्रकारिता को कलंकित करने की छूट होती है इससे बचना होगा।

चुनाव रिर्पोटिंग दरअसल बच्चों का खेल नहीं है यह एक सावधानी पूर्ण काम है जिसे अनुभव, अध्ययन, प्रदेश की सामाजिक, आर्थिक, जातीय स्थितियों और सामाजिक ताने बाने को समझे बिना नहीं किया जा सकता। जनता की आंख और कान होने का दावा करने वाले मीडिया की जिम्मेवारी है कि वह सही तथ्यों को जनता के सामने रखे और प्रतिनिधि का रिर्पोट कार्ड बिना हील-हुज्जत के लोगों को बताए। सिर्फ जातीय समीकरणों के आधार होने वाली रिर्पोटिंग से आगे बढ़कर मुद्दों को आगे लाने की कोशिश भी मीडिया की एक बड़ी जिम्मेदारी है। आज खबर पहले दिखाने की होड़ जिस दौर में पहुंच गयी है वहां पत्रकार की चिंताएं बहुत बढ़ गयी हैं। रिर्पोटिंग का स्वभाव भी सुविधाओं की गोद में बैठने का होता जा रहा है जबकि जमीन पर उतरे बिना सच्चाई सामने नहीं आती है। प्रायः पत्रकार बहुत अंदर के गांवों और वनवासी क्षेत्रों में नहीं जाते। जिससे वहां चलने वाली हलचलों का पता नहीं चल पाता। इससे तमाम क्षेत्रों की सही तस्वीर सामने नहीं आ पाती। जिन सर्वेक्षणों के चलते मीडिया का विश्वसनीयता सर्वाधिक प्रभावित हो रही है उसे करने वाली कंपनियों की भी विश्वसनीयता दांव पर रहती है। पर प्रायः ये सर्वेक्षण सच के करीब नहीं आ पाते। यह भी सोचने की बात है कि कई बड़ी मीडिया कंपनियां अब राजनीतिक दलों से मिलकर सर्वे के परिणामों में उलटफेर करती हैं। यह सोचना भी बहुत डरावना है कि ऐसे में उस साख का क्या होगा जिसे लेकर मीडिया जनता के बीच आदर पाता है। प्रिंट माध्यम में कई समाचार पत्र बाजार के तमाम दबावों के बावजूद बेहतर काम कर रहे हैं किंतु इलेक्ट्रानिक माध्यमों के सामने चुनौती बड़ी है। उन्हें न सिर्फ नजरिए में बदलाव लाना होगा वरन अपने माध्यम के दैनिक कर्म से अलग चुनावी कवरेज को गंभीर बनाना होगा। बाजार के हाथ का खिलौना हर कोई बनना चाहता है किंतु साख को कायम एक अलग ही बात है। न्यूज चैनलों को सही तस्वीर दिखाने के लिए आगे आना होगा। कैसे कोई वीआईपी इलाका बन जाता है तो कैसे कोई क्षेत्र बहुत पिछड़ा रह जाता है। विकास के साधनों की बंदरबांट और जनप्रतिनिधि की अपने क्षेत्र के बारे में सोच के प्रकटीकरण का चुनाव बेहद उपयुक्त माध्यम हैं। टीवी पर होने वाली बहसें भी कभी कभार छिछली चर्चा में तब्दील हो जाती हैं क्योंकि कई बार खुद एंकर की पकड़ विषय या क्षेत्र पर नहीं होती। अब जबकि चुनाव आयोग लगातार अपनी सक्रियता से चुनावों में कम से कम दिखने वाले कदाचारों को रोकने में तो सक्षम है मीडिया को भी सिर्फ कार्रवाईयों के विवरण के बजाए अपनी सक्रियता दिखानी चाहिए ताकि आर्दश आचार संहिता का पालन राजनीतिक दलों के लिए अनिवार्य हो जाए। चुनावी कवरेज में कई बार बाहर से गए अनुभवी पत्रकार ज्यादा सच्चाईयां सामने ला सकते हैं। छोटे स्थान की अपनी सीमाएं होती हैं वहां नेता, प्रशासन, आपराधिक तत्वों का एक गठबंधन बन जाता है। सो स्थानीय पत्रकार भी कई बार भय के कारण भी सामने नहीं आ पाते ऐसे समय में वरिष्ठ पत्रकारों को कमान संभालनी चाहिए। इसी तरह मीडिया के तमाम संगठनों ने शत प्रतिशत मतदान के लिए प्रयास शुरू किए हैं। अपने जागरूकता फैलाने वाले विज्ञापनों से उन्होंने लोगों में मतदान का प्रतिशत बढ़ाने का प्रयास किए ऐसे रचनात्मक प्रयासों से मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी निभा रहा है। अब जबकि हर साल देश में कहीं न कहीं चुनाव चलते ही रहते हैं हमें अपने लोकतंत्र को सार्थक बनाने के लिए मीडिया के योगदान को एक वैज्ञानिक कर्म में बदल देना चाहिए। जिससे हम चुनावी कवरेज की ऐसी विधि विकसित कर सकें जिसमें आमजन की जागरूकता से राजनीति पर समाज का नैतिक नियंत्रण कायम हो सके। इससे मीडिया जनविश्वास तो हासिल करेगा ही लोकतंत्र को भी मजबूत बनाने में अपनी भूमिका निभा सकेगा।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

राखी, मीडिया और स्वयंवर

राखी सावंत पर एक बार फिर मीडिया फिदा है। वे फिदा करना जानती भी हैं। अब वे एक टीवी चैनल पर शादी रचाने जा रही हैं। राखी फिर खबर बन गई हैं। मीका प्रकरण से आगे बढ़कर प्रेमी को कैमरों के सामने थप्पड़ मारती और उसे अपने पैरों पर नाक रगड़वाती राखी, नृत्य प्रतियोगिता में धमाल मचाती राखी, बिग बास के घर में कभी नाचती कभी रूठती राखी अब फिर एक नए अवतार में हैं। चौदह एपीसोड के इस शो में राखी जीतने वाले से शादी कर लेगीं। जाहिर तौर यह सनसनी वही कर सकती हैं। उन्हें अपनी सीमित क्षमताओं के बावजूद बाजार के मंत्र और उनका इस्तेमाल करना आ गया है। कलंक जब पब्लिसिटी के काम आने लगें तो उदाहरण आम हो जाते हैं।
राखी- मीका चुम्बन प्रसंग की याद करें तो इस प्रकरण पर समाचारों, क्लीपिंग्स के साथ-साथ चैनलों पर छिड़े विमर्शों को देखना एक अलग अनुभव था। शायद यही नए मीडिया की पदावली है और उसका लोकप्रिय विमर्श भी। चुम्बन से चमत्कृत मीडिया के लिए आडटम गर्ल रातोरात स्टार बन जाती हैं। राखी हर चैनल पर मौजूद थीं, अपने मौजूं किंतु शहीदाना स्त्री विमर्श के साथ। यही वह क्षण है जिसने राखी को भारतीय मनोरंजन जगत ही नहीं मीडिया का भी एक अनिवार्य चेहरा बना दिया। वे चुम्बन का एक ऐसा शिकार थीं जो अपनी जंग को नैतिकता का जामा पहना रहा था और खासकर दृश्य मीडिया राखी के दुख में आंसू टपका रहा था। ऐसे प्रसंगों पर तो 24 घंटे के समाचार चैनलों की पौ बारह हो ही जाती है।
आत्मविश्वास से भरी राखी, कभी भावुक, कभी रौद्र रूप लेती राखी का स्त्री विमर्श अदभुत है। चैनलों पर विचारकों के पैनल थे, जनता थी जो हर बात पर ताली बजाने में सिद्धहस्त है। बहस सरगर्म है। इसे लंबा और लंबा खींचने की होड़ जारी रहती है। शायद ऐसे ही दृश्य राखी के स्वयंवर पर भी नजर आएं। इस आयोजन की घोषणा होते ही मीडिया ने राखी के स्वयंवर को लेकर काफी चिंता जताई है और उनके लंबे इंटरव्यू प्रसारित किए हैं। जाहिर तौर पर राखी मीडिया का ऐसा चेहरा बन गयी हैं जो साहसी है और जिसे खुद की मार्केटिंग आती है। राखी-मीका चुम्बन प्रकरण को भी प्रचार पाने का हथकंड़ा बताया गया था। अब स्वयंवर भी उसी परंपरा का विस्तार सरीखा ही है। भारतीय समाज में शादी जैसे प्रसंग पहली बार इस तरह से प्रस्तुत हो रहे हैं। इसके चलते भारतीय समाज का भौंचक होकर इसे देखना लाजिमी है। टीआरपी और बाजार की नजर से भी प्रथम दृष्ट्या यह बिकनेवाला मसाला है। राखी इस कार्यक्रम के प्रोमो में जिस तरह के वक्तव्य दे रही हैं वह भी अद्बभुत हैं। राखी मीडिया के एक लिए चेहरा भर नहीं है वे एक मार्केट उपलब्ध कराती हैं। वे किसी भी आयोजन को अपने तौर-तरीकों और वक्रता से एक पापुलर विमर्श में बदल देती हैं। लड़ती-झगड़ती राखी को सच में कैमरों से प्यार है और कैमरा भी उन्हें इतना ही प्यार करता है। गणपति की पूजा से लेकर वेलेंटाइन डे हर पर्व पर वे मीडिया को मसाला दे सकती हैं। इसलिए यह प्यार गहरा होता जा रहा है और यही उन्हें नायाब बनाता है। वे जो चाहती हैं कहती हैं और अपेक्षित साहस का प्रमाण भी देती हैं। वे एक ऐसी लड़की हैं जो किसी फिल्मी खानदान से इस मायावी दुनिया में नहीं आयी हैं, ना ही वे अंग्रजी माध्यम के स्कूलों की उपज हैं, उनके पास अच्छे अभिनय का भी हुनर नहीं हैं, जाहिर तौर पर उनका संघर्ष बड़ा है। वे अगर इस तरह न होतीं तो आज राखी का नाम हमारी जुबां पर न होता। वे चाहकर भी अपने इस रूप को छोड़ नहीं सकतीं क्योंकि इसी ने उन्हें स्पर्धा में सबसे आगे कर दिया है। वे मूलतः एक डांसर हैं। किंतु उन्होंने अपनी सीमित क्षमताओं को ही अपनी ताकत बना लिया है। वे विवाद रचती हैं कैमरे उन्हें विस्तार देते हैं। यह कहना कठिन है कौन किसका इस्तेमाल कर रहा है। मीडिया और राखी मिलकर जो संसार रचते हैं उससे दोनों की रोजी चलती है। समाज की दोहरी मानसिकता का मीडिया और फिल्म माध्यम इस्तेमाल करते आ रहे हैं और करते रहेंगें। शायद हमारी इसी सोच के मद्देनजर कभी पामेला बोर्डस ने कहा था –यह समाज अभी भी मिट्टी- गारे से बनी झोपड़ी में रहता है। चुम्बन प्रकरण से लेकर आन स्क्रीन स्वयंवर तक का राखी का सफर हमारे समाज और मीडिया दोनों के द्वंद का बयान करता है। तो आइए हम सब राखी के स्वयंवर उत्सव में शामिल हों और उनके साहस पर ताली बजाएं।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

राजेंद्र माथुर होने का मतलब

पुण्यतिथि ( 9 अप्रैल, 1991) पर विशेष

राजेंद्र माथुर यानी हिंदी पत्रकारिता का वह नाम जिसे छोड़कर हम पूरे नहीं हो सकते। उनकी बनाई राह आज उनकी अनुपस्थिति में ज्यादा व्यापक और स्वीकार्य होती जा रही है। वे सच्चे अर्थों में पत्रकार थे और उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को नए मुहावरे, शिल्प, अभिनव प्रयोगों से संवारा। वे इस सदी के एक ऐसे पत्रकार थे, जिसको एक साथ अखबार की स्वीकार्यता,विविधता और जिम्मेदारी का अहसास था। वे सिर्फ संपादक नहीं, विचारों के शिल्पी, कलाकार और इंजीनियर थे।

अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे श्री माथुर जब पत्रकारिता में आए तो उन्होंने विचार की पत्रकारिता की ही राह चुनी। वे खबरों के साथ- साथ विचार को भी महत्वपूर्ण मानते थे। वे घटनाओं के होने की प्रक्रिया के और उनके प्रभावों के सजग व्याख्याता थे। राष्ट्रीय स्तर के पत्र-प्रतिष्ठान से जुड़े होने के बावजूद संपादक पद का रौब-रूतबा उन्हें छू तक नहीं पाया था।

अंग्रेजी में साधिकार लिखने की क्षमता के बावजूद उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को अपना क्षेत्र बनाया। उनकी यह चिंता हमेशा बनी रही कि अखबार लोक से जुड़ें और लोकमंगल के लिए काम करें। वे हिंदी की पत्रकारिता को अंग्रेजी पत्रकारिता से हर दृष्टि से बेहतर देखना चाहते थे। उनकी नजर हमेशा इस बात पर लगी रही कि कैसे हिंदी के पाठकों को एक बेहतर अखबार दिया जा सकता है। उनका संपूर्ण अखबार कैसा होगा, यह वे काफी कुछ नई दुनिया व नवभारत टाइम्स के माध्यम से करते भी नजर आए। परंतु वे संतुष्ट होकर बैठने वाले लोगों में न थे। निरंतर बेहतर संभावनाओं की तलाश में जुटे रहे। वे बराबर इस बात पर जोर देते रहे कि जिला स्तर पर अच्छे अखबार निकलने चाहिए। वे यह भी मानते थे कि हर प्रदेश के दूर-दराज इलाकों तक पहुंचने पर ही कोई अखबार राष्ट्रीय हो सकता है।
अपनी इसी सोच को क्रियान्वित करने के लिए उन्होंने नवभारत टाइम्स के जयपुर, लखनऊ और पटना संस्करण प्रारंभ कराए। यह अलग बात है कि बाद में ये तीनों संस्करण तमाम कारणों से बंद हो गए। माथुर जी मानते थे कि राष्ट्रीय पत्रों के स्थानीय संस्करणों से प्रांतीय पत्रकारिता में निखार आएगा और राष्ट्रीय अखबारों से कुछ सीखने को मिलेगा। पर हुआ उल्टा। प्रांतीय पत्र तो आगे बढ़े और राष्ट्रीय पत्र ही फिसड्डी साबित हुए।

राजेंद्र माथुर व्यवसाय के शिल्प और कौशल से बड़ी गंभीरता से जुड़े थे। वे जब संपूर्ण पत्र की बात करते थे तो उनकी नजर में विचारों और समाचारों की मिश्रित संवेदना से जुड़ा अखबार होता था। ऐसा अखबार जिसके पाठक न सिर्फ सूचनाएं पाएं वरन विचारों की गहराइयों से भी जुड़ें। वे पत्र की विविधता, क्षेत्रीयता एवं भाषायी समझ पर अपनी निजी समझ रखते थे। दिल्ली में बैठकर भी वे मालवांचल के क्षेत्रीय शब्दों का इतना बेहतरीन इस्तेमाल करते थे कि वह सबकी समझ में आ जाता था।
वे सत्ता और पत्रकारिता की दोस्ती नहीं चाहते थे। उनकी यह धारणा हठ के स्तर पर विद्यमान थी। वे बेबाक लिखते थे। उन्हें न तो विवाद पैदा करने का शौक था न ही वे विवादों से डरते थे। अपनी बात को पूरी दृढ़ता से कहना और उसपर डटे रहना उनकी आदत में शुमार था। इसलिए पार्टी लाइन तो दूर उनके लेखन में पोलिटकल लाइन भी तलाशना मुश्किल है। अपनी गलतियों को स्वीकार करना और पूर्व लिखित को साहस के साथ गलत बताना उनके ही वश की बात थी। जहां वे गलत होते स्वीकार लेते थे। आप पूछें कि पहले तो आपने इस विषय पर यह कहा था तो वे कहते अब मेरा यह विचार है। इस सहज वृत्ति को आप अस्थिर सोच या विरोधाभास कह सकते हैं, पर माथुर जी के संदर्भ में यह कहने का साहस नहीं पालना चाहिए। अपने लेखन में बातचीत करते हुए पाठक को विचारों की भूमि पर ले जाते थे। वह उनके भाषायी सम्मोहन में बंधा चला भी जाता था। उनके लेखन से सवालों की कौंध पैदा होती थी।
राजनीति के प्रति संतुलित और संयमित दृष्टिकोण के नाते उन्हें किसी खूंटे में नहीं बांधा जा सकता। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गुजरकर वे किसी भी पक्ष को समाज निर्माण की प्रक्रिया में सहभागी होते देखना चाहते थे। उनके लिए कोई भी अश्पृश्य नहीं था। वह चाहे हिंदूवादी हो या साम्यवादी। वे जातिभेद के, वर्गभेद के लगातार उठते नारों और हुंकारों की भयावहता से परिचित थे। वे बराबर यह समझने की प्रक्रिया में लगे रहे कि सामाजिक न्याय की लड़ाई का रूप ऐसा क्यों हो रहा है। इन अर्थों में वे समाज को बांटने वाली शक्तियों के खिलाफ थे। यही कशमकश उनके लेखन में कहीं उनसे आरक्षण का सर्मथन कराती है तो कहीं थोड़ा विरोध।

वे आम नागरिक की तरह पत्रकारों से भी अपेक्षित जिम्मेदारी निभाने की गारंटी चाहते थे। वे चाहते थे कि शब्द ताकत लोंगों में नहीं, सत्ता में भय पैदा करे। ताकि सत्ता शब्द की हिंसा न कर सके। अपनी पत्रकारिता को उन्होंने लोंगों के संत्रासों से जोड़ा। आज जबकि भाषाई पत्रकारिता कई तरह की चुनौतियों से जूझ रही है राजेंद्र माथुर जैसे संपादक की याद बहुत स्वाभाविक और मामिर्क हो उठती है।

बुधवार, 31 दिसंबर 2008

आखिर क्या चाहते हैं बाबा रामदेव

एक योगगुरू को आखिर हुआ क्या है। वे योग के साथ अब चुनाव में शत प्रतिशत मतदान की बात क्यों करने लगे हैं। वे क्यों चाहते हैं कि लोग स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करें। भारत में अंतिम आदमी तक योग के प्रचार में लगे बाबा रामदेव का आखिर एजेंडा क्या है। यह बड़ा सवाल लोगों को मथ रहा है। क्या योग गुरू बाबा रामदेव ने अब योग से लोगों की बीमारियाँ भगाने के साथ ही ज़हरीले वायरस की तरह देश की जनता को नोच रहे राजनेताओं और भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। जिस तरह बाबा रामदेव अब अपने योग शिविरों से लेकर जन जागरण शिविरों में खुलकर भ्रष्ट और बेईमान अधिकारियों व राजनेताओं पर बरस रहे हैं उससे तो यही लगता है। बाबा ने राष्ट्र भक्ति का एक नया अभियान शुरु कर दिया है।

पिछले दिनों महाराष्ट्र के सांगली में चल रहे अपने योग शिविर के साथ ही उन्होंने लोक जागरण शिविर को संबोधित करते हुए यह सनसनीखेज खुलासा किया कि देश की जनता स्थानीय स्तर पर पंचायत, नगर-निगम से लेकर राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर विभन्न करों के रूप में राज्य व केंद्र सरकारों को हर साल 25 लाख करोड़ रुपया कर के रूप में चुकाती है, मगर देश के सांसदऔर विधायक जिनकी संख्या मात्र 7 से 8 हजार है इस राशि का बड़ा हिस्सा हजम कर जाते हैं, बचा-खुचा हिस्सा भ्रष्ट अधिकारी खा जाते हैं। बाबा ने कहा कि अगर मान भी लिया जाए कि इस राशि में से 15 लाख करोड़ रुपया देश की सेना, सरकारी अधिकारियो के वेतन और अन्य मद में खर्च हो जाता हो तो फिर बाकी बचा 10 लाख करोड़ रुपया तो सीधे भ्रष्टाचारियों की जेब में चला जाता है। उन्होंने कहा कि जिस दिन देश का ये लाखों करोड़ों रुपया इन भ्रष्ट राजनेताओं, मंत्रियों और अधिकारियों की जेब में जाने से बचने लगेगा, देश में खुशहाली और समृध्दि आ जाएगी।

बाबा रामदेव ने कहा कि अब समय आ गया है कि इन भ्रष्ट राजनेताओं और अफसरों को सबक सिखाया जाए। बाबा अब देश भर में ऐसे समर्पित और राष्ट्र भक्त लोगों का संगठन खड़ा करने जा रहे हैं जिनमें सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी, न्यायाधीश, शिक्षक, व्यापारी,वकील और सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल होंगें। ये सभी लोग स्थानीय स्तर पर भ्रष्ट और बेईमान अधिकारियों व राजनेताओं के खिलाफ मोर्चा लेंगे। बाबा रामदेव आज भारत की एक ऐसी हस्ती हैं जिसे समाज के सब वर्गों का समर्थन हासिल है, वे सही अर्थों में भारत की आत्मा से जुड़े़ उन प्रश्नों को उठा रहे हैं जो अरसे से जनमन को मथते रहे हैं। बाबा रामदेव की लोकप्रियता और उनकी प्रामणिकता को संदिग्ध बनाने के लिए पहले भी उनपर हमले किए गए पर वे आरोप निर्विवाद रूप से गलत साबित हुए। अब बाबा के निशाने पर देश की भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था है। जाहिर तौर पर यह कहा जा सकता है कि इस व्यवस्था को ठीक करना बहुत आसान नहीं है। लेकिन क्या यदि कोई संत पहल करके एक कठिन संकल्प को ले रहा है, तो समाज को उसके साथ खड़ा नहीं होना चाहिए।

बाबा रामदेव के द्वारा उठाए जा रहे समाधान वास्तव में महत्वपूर्ण हैं, वे जब देश के नागरिकों में दायित्वबोध भरने के लिए सौ प्रतिशत मतदान की बात कह रहे हैं तो इसके अपने अर्थ हैं। इससे हमारे लोकतंत्र की सफलता और जनता का दोनों सधेगा। वे साफ कह रहे हैं कि हम राजनीति नहीं करेंगें लेकिन भ्रष्ट, अपराधी, कायर लोंगों को सत्ता में आने से रोकेंगें। यह बात समाज के एकजुट होने से संभव है। कहीं न कहीं बाबा रामदेव सोते हुए समाज को सक्रिय बना कर सामाजिक दंड शक्ति के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं। उनका यह संकल्प जनता के सहयोग से ही सफल हो सकता है। बाबा ने दरअसल हमारे लोकतंत्र की विफलता की असल बीमारी पकड़ ली है। शत प्रतिशत मतदान यदि हम संभव कर पाएं तो निश्चय ही हमारी संसद और विधानसभाओं का चेहरा बहुत बदल जाएगा। सही फैसले होंगें और गलत लोग चुनाव जीतकर कम मात्रा में ही पहुचेंगें। दूसरी बात वे स्वदेशी की कर रहे हैं। यह बात भारत की अर्थव्यस्था में नए रंग भर सकती है। इस बात को ही महात्मा गांधी ने पहचाना था। हिंद स्वराज्य लिखकर गांधी ने जिस क्रांति की शुरूआत की हम उस रास्ते को छोड़ आए। आज जब दुनिया मंदी का शिकार है तो यह मान लेना चाहिए कि अर्थव्यवस्था का अमरीकी माडल भी कहीं न कहीं दरक रहा है। साम्यवादी अर्थचिंतन की विद्रूपताएं पहले ही सामने आ चुकी हैं। बाबा भारत की इस शक्ति को पहचानते हैं और उसी को जगाना चाहते हैं। यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आमजन के बीच इस संत ने जो विश्वसनीयता पाई है उसे एक राष्ट्रवादी सोच के साथ जोड़ना बहुत आवश्यक है। समय के मोड़ पर जब हमें हमारी राजनीति पूरी तरह निराश कर चुकी है तब बाबा रामदेव उम्मीद की एक किरण बनकर उभरे हैं। उनका यह अभियान जितना यशस्वी होगा भारत का भविष्य उतना ही उजला होगा। यह भावना भर का सवाल नहीं है सामने आकर अपनी जिम्मेदारी निभाने का भी समय है। भारत जैसे विशाल महादेश को संबोधित करना आसान नहीं है किंतु बाबा रामदेव की आवाज को यदि गंभीरता से लिया जा रहा है तो हमें उनके साथ खड़े होने में संकोच नहीं दिखाना चाहिए। हमारी यह एकजुटता ही भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।

कश्मीरः जनादेश के बाद एक कठिन चुनौती


कश्मीर के चुनाव परिणाम आने शुरू ही हुए थे कि यह लगने लगा कि नेशनल कांफ्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर रही है और इतने में ही डा. फारूक अब्दुल्ला की प्रतिक्रिया आ चुकी थी कि भाजपा का साथ किसी कीमत पर नहीं। जाहिर तौर पर डा. साहब ने तस्वीर का रूख भांप लिया था। जम्मू कश्मीर के चुनाव परिणाम जहां लोकतंत्र के प्रति जनता की आस्था के प्रगटीकरण का प्रतीक हैं वहीं ये परिणाम यह भी कह रहे हैं कि अब हमें आगे बढ़ने की जरूरत है। नेशनल कांफ्रेंस के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बाद यह लगभग तय हो गया है कि कश्मीर में अब कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेस की मिलीजुली सरकार बनने जा रही है। कांग्रेस और पीडीपी की मिलीजुली सरकार में कांग्रेस का अनुभव पीडीपी के साथ बहुत अच्छा नहीं रहा। ऐसे में यह तय है अगली सरकार में फारूख और कांग्रेस साथ खड़े होंगें।
जम्मू और कश्मीर के चुनावों को अन्य राज्यों के परिणामों की तरह निश्चित ही विश्लेषित नहीं किया जाना चाहिए। जिस तरह के परिणाम आए हैं वे अलग तरह की चिंताएं भी जताते हैं। जम्मू-कश्मीर का पूरा इलाका इन परिणामों से बंटा-बंटा नजर आया। जम्मू में जहां भाजपा ने बढ़त पाई वहीं घाटी में पीडीपी को ज्यादा सीटें मिली हैं। यह बात जाहिर करती है किस तरह एक प्रदेश में ही दो तरह के विचार सांस ले रहे हैं। जम्मू कश्मीर इसलिए हमारे राष्ट्र राज्य के लिए एक चुनौती की तरह है। हम लाख कहें पर कहीं न कहीं हम अपने भारतीय होने की संवेदना को यहां चोटिल होता हुए देखते हैं। कश्मीर का भविष्य कुछ भी हो यह हमारे राष्ट्र- राज्य के लिए एक ऐसी परीक्षा की तरह जिसमें सफलता से ही भारत के भविष्य का निर्धारण होगा। कश्मीर एक ऐसी आग में झुलस रहा है, जो कभी मंद नहीं पड़ती । आजादी के पांच दशक बीत जाने के बाद भी लगता है, सूइयां रेकार्ड पर ठहर सी गयी हैं।
यह बात बुरी लगे पर मानिए कि पूरी कश्मीर घाटी में आज भारत की अपनी आवाज कहने और उठाने वाले लोग न्यूनतम हो गए हैं । आप सेना के भरोसे कितना कर सकते हैं, या जितना कर सकते हैं-कमोबेश घाटी उतनी ही देर तक ही आपके पास है। यहां वहां से पलायन कर चुकी हिंदू पंडितों की आबादी के बाद शेष बचे मुस्लिम समुदाय की नीयत पर कोई टिप्पणी किए बिना इतना जरूर जोड़ना है कश्मीर में गहरा आए खतरे के पीछ सिर्फ उपेक्षा व शोषण नहीं है। ‘धर्म’ के जुनून एवं नशे में वहां के युवाओं को भटकाव के रास्ते पर डालने की योजनाबद्ध रणनीति ने भी हालात बदतर किए हैं, पाकिस्तान जैसे देश का पड़ोसी होना इस मामले में बदतरी का कारण बना । मूल ये सब स्थितियां चाहे वे भौगोलिक, आर्थिक व सामाजिक हों, मिलकर कश्मीर का चेहरा बदरंग करती हैं। लेकिन सिर्फ विकास व उपेक्षा को कश्मीर से उठती अलगावादी आवाजों का कारण मानना समस्या को अतिसरलीकृत करके देखना है। बंदूक से समस्याएं नहीं सुलझ सकतीं, विकास नहीं आ सकता, लेकिन ‘इस्लाम का राज’ आ सकता है-समस्या के मूल में अंशतः सही, यह भावना जरूर है। अगर यह बात न होती तो पाकिस्तान के शासकों व दुनिया के जघन्यतम अपराधी लादेन की कश्मीरियों से क्या हमदर्दी थी ? भारत के खिलाफ कश्मीर की युवाशक्ति के हाथ में हथियार देने वाले निश्चय ही एक ‘धार्मिक बंधुत्व भाव व अपनापा’ जोड़कर एक कश्मीरी युवक को अपना बना लेते हैं। वहीं हम जो अनादिकाल से एक सांस्कृतिक परंपरा व भावनात्मक आदान-प्रदान से जुड़े हैं, अचानक कश्मीरियों को उनका शत्रु दिखने लगते हैं। लड़ाई यदि सिर्फ कश्मीर की, उसके विकास की, वहां के नौजवानों को काम दिलाने की थी तो वहां के कश्मीरी पंडित व सिखों का कत्लेआम कर उन्हें कश्मीर छोड़ने पर विवश क्यों किया गया ?
इन हालात में हुए चुनावों को हम लोकतंत्र की एक बड़ी सफलता जरूर मान रहे हैं पर यह सोचना भी जरूरी है कि हमारा राजनीतिक तंत्र और दल क्या कश्मीर की समस्या का समाधान चाहते हैं। क्या अमरनाथ बोर्ड के मामले को नाहक हवा देकर हमारे राजनीतिक दलों ने ही हालात को बदतर नहीं किया। राजनीतिक दल भी अंततः चुनावी लाभ के लिए उन्हीं चरमपंथियों की गोद में जा बैठते हैं जिनके खिलाफ हमारा देश एक अंतहीन लड़ाई लड़ रहा है।आज मुंबई हमलों के बाद भारत पाक के रिश्ते जिस मुकाम पर हैं,यह बात भी चिंता में डालती है। कश्मीर के सवाल सिर्फ शोषण, उपेक्षा, उत्पीड़न और बेरोजगारी के सवाल हैं यह मानना और कहना दोनों वास्तविकता से मुंह चुराना है। राज्य में बनने वाली सरकार इन प्रश्नों पर जूझे और सिर्फ यह बताने के लिए न हों कि दुनिया में हमें यह बताना है कि हम लोकतंत्र में रहते हैं और कश्मीर में हमारे पास एक चुनी हुई सरकार है। इतना कहने और बताने में विश्वमंच पर सफल रहे हैं। कश्मीर की नई सरकार को पुरानी भूलों से सबक लेते हुए प्रदेश के सभी क्षेत्रों के साथ समान व्यवहार रखना होगा। ताकि लद्दाख, लेह या जम्मू की जनता अपने को उपेक्षित महसूस न करे। कश्मीरी पंडितों की घर वापसी या आबादी के संतुलन के पूर्व सैनिकों को समस्याग्रस्त नगरों में बसाना एक समाधान हो सकता है। कश्मीरी युवकों में पाक के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए गैरसरकारी संगठनों को सक्रिय करना चाहिए। उसकी सही तालीम के लिए वहां के युवाओं को देश के विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजना चाहिए ताकि ये युवा शेष भारत से अपना भावनात्मक रिश्ता महसूस कर सकें। ये पढ़कर अपने क्षेत्रों में लौटें तो इनका ‘देश के प्रति राग’ वहां फैले धर्मान्धता के जहर को कुछ कम कर सके। निश्चय ही कश्मीर की समस्या को जादू की छड़ी से हल नहीं किए जा सकता। कम से कम 10 साल की ‘पूर्व और पूर्ण योजना’ बनाकर कश्मीर में सरकार को गंभीरता से लगना होगा। इससे कम पर और वहां जमीनी समर्थन हासिल किए बिना, ‘जेहाद’ के नारे से निपटना असंभव है। हिंसक आतंकवादी संगठन अपना जहर वहां फैलाते रहेंगे-आपकी शांति की अपीलें एके-47 से ठुकरायी जाती रहेंगी।

समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए केंद्र की सरकार चाहे तो कश्मीर का 3 हिस्सों में विभाजन भी हो सकता है। कश्मीर लद्दाख और जम्मू 3 हिस्सों में विभाजन के बाद सारा फोकस ‘कश्मीर’ घाटी के करके वहां उन्हीं विकल्पों पर गौर करना होगा, जो हमें स्थाई शांति का प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकें वरना शांति का सपना, सिर्फ सपना रह जाएगा। जमीन की लड़ाई लड़कर हमें अपनी मजबूती दिखानी होगी होगी तो कश्मीरियों का हृदय जीतकर एक भावनात्मक युद्ध भी लड़ना । यही बात कश्मीर की ‘डल झील’ और उसमें चलते ‘शिकारों’ पर फिर हंसी-खुशी और जिंदगी को लौटा सकती है। हवा से बारुद की गंध को कम कर सकती है और फिजां में खुशबू घोल सकती है। अब जबकि इस चुनाव ने पाक सहित सारी दुनिया को एक संदेश दे दिया है तो हमें भी कश्मीर की वादियों में स्थाई शांति के लिए निर्णायक पहल करनी ही चाहिए। फिलहाल तो कश्मीर की नई बनने जा रही सरकार को और वहां आतंकवाद के खिलाफ लड़कर लोकतंत्र में आस्था जता रही जनता को शुभकामनाओं के अलावा क्या दिया जा सकता है।

नए चेहरों से दमकेगी छत्तीसगढ़ विधानसभा

छत्तीसगढ़ की तीसरी विधानसभा इस बार कई मामलों में अलग होगी। इस बार विधानसभा में जहां चमकते युवा चेहरे होंगें वहीं संसदीय अनुभव से लबरेज पुन्नूलाल मोहले और चंद्रशेखर साहू जैसे नाम भी होंगें। छत्तीसगढ़ की 90 सदस्यीय विधानसभा में इस बार युवा और ताजा चेहरों की भरमार है तो रामपुकार सिंह जैसे नेता भी हैं जो सातवीं बार विधानसभा में पहुंचे हैं। इसी तरह रवींद्र चौबे जिन्हें इस विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया गया है, छठीं बार विधानसभा में पहुंचे हैं। इसी तरह विधानसभा में बृजमोहन अग्रवाल और नंदकुमार पटेल जैसे चेहरे भी हैं जो पांचवी बार विधानसभा में आए हैं। इस बार की विधानसभा में 10 महिलाएं भी होंगी, जबकि पिछली बार यह संख्या आधी थी।

पहली बार विधानसभा पहुंचे सदस्यों में फूलचंद सिंह, दीपक पटेल, भैयालाल राजवाड़े, रविशंकर त्रिपाठी, रामदेव राम, टीएस बाबा, ह्दयराम राठिया, जय सिंह अग्रवाल, पद्मा मनहर, सौरभ सिंह, सरोजा राठौर, दूजराम बौद्ध, लक्ष्मी बधेल, नंदकुमार साहू, रूद्र कुमार, डमरूधर पुजारी, अंबिका मरकाम, लेखराम साहू, मदनलाल साहू, नीलिमा टेकाम, विजय बधेल, डोमनलाल, डा. सियाराम साहू, रामजी भारती, खेदूराम साहू, शिव उसारे, ब्रम्हानंद नेताम, सुमित्रा मार्कोले, संतोष बाफना, भीमा मंडावी, महेश गागड़ा, युद्धवीर सिंह के नाम शामिल हैं। जाहिर तौर पर इस बार की विधानसभा में संसदीय अनुभव और उत्साह का संयोग देखते ही बनेगा। सदन में जहां रमन सिंह, अजीत जोगी, पुन्नूलाल मोहले और चंद्रशेखर साहू जैसे विधायक हैं जो लोकसभा और विधानसभा दोनों जगहों पर अपने संसदीय अनुभव का लोहा मनवा चुके हैं तो लगातार चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचने वाले दिग्गज भी हैं। इस बार की विधानसभा इस मायने में अलग होगी कि पिछले पांच साल इस सदन की अध्यक्षता करने वाले प्रेमप्रकाश पाण्डेय इस बार भिलाई से चुनाव हार गए हैं। इसके चलते उनकी जगह लेंगें धर्मलाल कौशिक जो बिल्हा से चुनाव जीतकर आए हैं। बिल्हा से वे पहले भी एक बार विधायक रह चुके हैं। किंतु 2003 का विधानसभा चुनाव कौशिक हार गए थे। इस बार उनकी जीत के साथ उन्हें विधानसभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित करने का मौका भी मिलेगा। पिछली विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे महेंद्र कर्मा भी इस बार दंतेवाड़ा से चुनाव हार गए हैं। अपने संसदीय अनुभव औऱ आदिवासी समाज में खास पहचान रखने वाले कर्मा बस्तर की कांग्रेसी राजनीति के इस समय सबसे बड़े प्रतीक हैं। सलवा जुडूम आंदोलन के से उनके जुड़ाव से वे देश- विदेश में तो चर्चा का विषय बने किंतु खुद की ही सीट हार गए। जाहिर तौर पर उनकी कमी इसबार बहुत खलेगी। इसी तरह प्रखर विधायक और विधानसभा में कांग्रेस विधायक दल के उपनेता भूपेश बधेल की आवाज भी इस बार सदन में नहीं गूजेंगी। वे अपने पाटन विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हारे हैं जहां से वे लगातार तीन बार चुनाव जीते थे। इसके साथ ही कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष धनेंद्र साहू और कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा भी चुनाव हारे हैं। धनेंद्र साहू जहां अभनपुर से तीन बार चुनाव जीत चुके थे वहीं इस बार वे वहां से चुनाव हार गए। सत्यनारायण शर्मा पांच बार मंदिर हसौद से विधायक रह चुके थे लेकिन उनकी सीट इस बार परिसीमन में विलुप्त हो गयी औऱ उन्हें नई सीट रायपुर ग्रामीण से चुनाव लड़ना पड़ा। सो सत्यनारायण की गैरहाजिरी इस बार विधानसभा में गहरे महसूस की जाएगी। सत्यनारायण अपने सहज हास्यबोध से विधानसभा के वातावरण को हल्का-फुल्का रखते थे। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस विधायक दल के लिए महेंद्र कर्मा, सत्यनारायण शर्मा, भूपेश बधेल, धनेंद्र साहू की कमी एक बड़ा झटका है। ये चारों ऐसे विधायक थे जो अरसे से विधानसभा में थे ही नहीं बल्कि यहां होने वाली चर्चाओं में सक्रिय भूमिका निभाते थे। अपनी अलग छवि और जीवनशैली के लिए जाने जाने वाले आदिवासी नेता गणेशराम भगत, तेजतर्रार मंत्री रहे अजय चंद्राकर भी इस बार भाजपा विधायक दल का हिस्सा नहीं बन पाए। संसदीय कामकाज की समझ के नाते अजय चंद्राकर एक सुलझे हुए विधायक के रूप में सामने आते थे। अपने तेवरों से वे विधानसभा की चर्चाओं को गर्म कर दिया करते थे।

विधानसभा में अपनी पार्टी के अकेले विधायक होने के बावजूद सदन में सक्रिय रहने वाले एनसीपी के प्रदेश अध्यक्ष नोबेल वर्मा की कमी भी नजर आएगी। आदिवासी नेता देवलाल दुग्गा पिछली विधानसभा में अपनी पार्टी की सरकार के खिलाफ भी बोलने से नहीं चूकते थे, सो पार्टी ने उन्हें मोदी फार्मूले का शिकार बनाकर घर बिठा दिया है। अब यह दायित्व अकेले देवजी पटेल को उठाना पड़ेगा।
जो चेहरे इस विधानसभा चुनाव में सर्वाधिक आर्कषण का केंद्र बनकर उभरे हैं, सदन में भी उनकी मौजूदगी रेखांकित की जाएगी। जिनमें सबसे खास नाम है भाजपा दिग्गज दिलीप सिंह जूदेव के बेटे युद्धवीर सिंह का। युवा विधायक युध्दवीर भी अपनी पिता की शैली में ही आगे आ रहे हैं। वे सरकार में संसदीय सचिव का ओहदा भी पा चुके हैं। इसी तरह सतनामी समाज के गुरू परिवार से आने वाले सबसे कम आयु के कांग्रेस विधायक रूद्रसेन गुरू की ओर भी सबकी निगाहें होंगी। रुद्रसेन के पिता विजय गुरू न सिर्फ सतनामी समाज के धर्मगुरू हैं बल्कि मप्र शासन में मंत्री भी रह चुके हैं। सो पारिवारिक विरासत का दारोमदार अब रूद्र पर आ पड़ा है। इसी क्रम में दुर्ग की महापौर सरोज पाण्डेय का नाम का भी बहुत अहम है। दुर्ग से दो बार मेयर का चुनाव जीतनेवाली सरोज नई बनी वैशाली नगर सीट से चुनाव जीत कर आयी हैं। वे भाजपा की राष्ट्रीय मंत्री भी हैं। जाहिर तौर पर सदन में उनकी मौजूदगी भाजपा में आ रही नई पीढ़ी के भविष्य को भी तय करेगी। इसी क्रम में अकलतरा के जमींदार औऱ बहुत प्रभावी राजनीतिक परिवार से चुनाव जीत कर आए सौरभ सिंह पर भी लोगों की निगाहें रहेगीं। सौरभ का परिवार राजनीति में कांग्रेस की राजनीति से जुड़ा रहा है, उनके पिता धीरेंद्र सिंह, चाचा राकेश सिंह कांग्रेस से विधायक रहे हैं, सौरभ ने परिवार में एक नई राह पकड़ी है और त बसपा की सोशल इंजीनियरिंग का उन्हें फायदा भी मिला है। और अब बात बस्तर की न करें तो छत्तीसगढ़ की बात अधूरी रह जाएगी। घोर नक्सली इलाके से जीते दंतेवाड़ा से जीतकर आए भीमा मंडावी और बीजापुर से पहली बार भाजपा का खाता खोलने वाले महेश गागड़ा भी आदिवासी विधायकों में एक खास नाम बन गए हैं। भीमा जहां नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा को चुनाव हराकर आए हैं वहीं गागड़ा ने कांग्रेस दिग्गज राजेंद्र पामभोई को चुनाव हराया है।

ऐसे में राज्य की विधानसभा में इस बार चमकते चेहरे नया रंग भरते दिखेंगें। यह बदलाव राज्य की जनता के लिए कितना मंगलकारी होगा यह तो समय बताएगा किंतु लोंगों की अपेक्षाएं तो यही हैं, उनके ये विधायक जनभावनाओं का भी ख्याल भी रखें। अगर ऐसा हो पाया यह बात छत्तीसगढ़ महतारी के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

मीडियाः ऐसी बैचेनी देखी नहीं कभी


मीडिया की दुनिया में जिस तरह की बेचैनी इन दिनों देखी जा रही है। वैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। यह ऐसा समय है जिसमें उसके परंपरागत मूल्य और जन अपेक्षाएं निभाने की जिम्मेदारी दोनों कसौटी पर हैं। बाजार के दबाव और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच उलझी मीडिया की दुनिया अब नए रास्तों की तलाश में है । तकनीक की क्रांति, मीडिया की बढ़ती ताकत, संचार के साधनों की गति ने इस समूची दुनिया को जहां एक स्वप्नलोक में तब्दील कर दिया है वहीं पाठकों एवं दर्शकों से उसकी रिश्तेदारी को व्याख्यायित करने की आवाजें भी उठने लगी हैं ।


हाल-ए- प्रिंट मीडियाः
सबसे पहले बात करेंगें प्रिंट मीडिया की। वे अखबार जो जनचेतना जगाने के माध्यम थे और देश की आजादी की लड़ाई में उन्हें एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया वे आज ज्यादा पृष्ठ, ज्यादा सामग्री देकर भी अपने पाठक से जीवंत रिश्ता जोड़ने में स्वयं को क्यों असफल पा रहे हैं, यह पत्रकारिता के सामने एक बड़ा सवाल है । क्या बात है कि जहां पहले पाठक को अपने ‘खास’ अखबार की आदत लग जाती थी । वह उसकी भाषा, प्रस्तुति और संदेश से एक भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता था, अब वह आसानी से अपना अखबार बदल लेता है । हिन्दी क्षेत्र में समाचार पत्र विक्रेता मनचाहा अखबार दे देते हैं और अब उसका पाठक किसी खास अखबार की तरफदारी में खड़ा नहीं होता । क्या हिंदी क्षेत्र के अखबार अपनी पहचान खो रहे हैं, क्या उनकी अपनी विशिष्टता का लोप हो रहा है-जाहिर है पाठक को सारे अखबार एक से दिखने लगे हैं। ‘जनसत्ता’ जैसे प्रयोग भी अपनी आभा खो चुके हैं। बात सिर्फ यहीं तक नहीं है, हिन्दी क्षेत्र में पत्रकारिता आज भी ‘मिशन’ और ‘प्रोफेशन’ की अर्थहीन बहस के द्वन्द से उबरकर कोई मानक नहीं गढ़ पा रही है। जबकि बदलती दुनिया के मद्देनजर ऐसी बहसें अप्रांसगिक और बेमानी हो उठी हैं।आज अखबार के प्रकाशन में लगने वाली भारी पूंजी के चलते इसने उद्योग का रूप ले लिया है। ऐसे में उसमें लगने वाला पैसा किस प्रकार मिशनरी संकल्पों का वाहक बन सकता है। यह तंत्र अब सीधा अखबार प्रकाशक के हित लाभ से जुड़ गया है। करोड़ों की पूंजी लगाकर बैठे किसी अखबार मालिक से धर्मादा कार्य की अपेक्षा नहीं पालनी चाहिए। व्यवसायीकरण का यह दौर पत्रकारिता के सामने चुनौती जरूर दिखता है, पर रास्ता इससे ही निकालना होगा। पत्रकारिता का भला-बुरा जो कुछ भी है वह मुख्यतः समाचार पत्र के प्रकाशक की निर्धारित की नई रीति-नीति पर निर्भर करता है। ऐसे में समाचार-विचार के संदर्भ में अखबार मालिक की रीति-नीति को चुनौती भी कैसे दी जा सकती है। समाचार पत्रों का प्रबंधन यदि संपादक की संप्रभुता को अनुकुलित कर रहा है तो आप विवश खड़े देखने के अलावा क्या कर सकते हैं। यह बात भी काफी हद तक काबिले गौर है कि पत्रकार अपनी भूमिका और दायित्वों पर बहस करने के बजाए समाचार पत्र मालिक की भूमिका के बारे में ज्यादा बातें करते हैं।


बदलते रिश्तेःहम देखें तो पता चलता है कि अखबार की घटती स्वीकार्यता एवं संपादक के घटते कद ने मालिकों की सीमाएँ बढ़ा दी हैं । अखबार अगर वैचारिक अधिष्ठान का रास्ता छोड़कर बाजार की हर सड़ी-गली मान्यताओं को स्वीकारते जाएंगे तो यह खतरा तो आना ही था । आज मालिक-संपादक के रिश्तों की तस्वीर बदल चुकी है। आज का रिश्ता प्रतिस्पर्धा और अविश्वास का रिश्ता है। अवमूल्यन दोनों तरफ से हुआ है । हिंदी पत्रकारिता पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि वह आजादी के बाद अपनी धार खो बैठी। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आए अवमूल्यन का असर उस पर भी पड़ा जबकि उसे समाज में चल रहे सार्थक बदलाव के आंदोलनों का साथ देना था। मूल्यों के स्तर पर जो गिरावट आई वह ऐतिहासिक है तो विचार एवं पाठकों के साथ उसके सरोकार में भी कमी आई है। साधन सम्पन्नता एवं एक राजनीतिक एवं आर्थिक शक्ति के रुप में विकसित होने के बावजूद पत्रकारिता का क्षेत्र संवेदनाएं खोता गया,जो उसकी मूल पूंजी थे। उसकी विश्वसनीयता और नैतिक शक्ति भी लगातार घटी है। यही कारण है कि लोग बीबीसी की खबरों पर तो भरोसा करते हैं पर अपने अखबार पर से उन्हें भरोसा कम हुआ है। हिन्दी पत्रकारिता की दुनिया बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी जैसे तमाम यशस्वी पत्रकारों की बनाई जमीन पर खड़ी है, पर इन नामों और इनके आदर्शों को हमने बिसरा दिया । अपने उज्जवल और क्रांतिकारी अतीत से कटकर अंग्रेजी पत्रकारिता की जूठन उठाना और खाना हमारी दिनचर्या बन गई है। हिन्दी में ‘विचार दारिद्रय’ का संकट गहराने के कारण पत्रकारिता में ‘अनुवादी लालों’ की पूछ-परख बढ़ गई है।


आजादी के पूर्व हमारी हिन्दी पट्टी की पत्रकारिता सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन से जुड़कर ऊर्जा प्राप्त करती थी। आज वह जनांदोलनों से कटकर मात्र सत्ताधीशों की वाणी एवं सत्ता-संघर्ष का आईना भर रह गई है। ऐसे में अगर अखबारों एवं पाठकों के बीच दूरियां बढ़ रही हैं तो आश्चर्य क्या है ? अगर आप पाठकों एवं उनके सरोकारों की चिंता नहीं करते तो पाठक आपकी चिंता क्यों करेगा ? ऊंचे प्रतिष्ठानों, विशालकाय छपाई मशीनों, विविध रंगों तथा आकर्षक प्रस्तुति के साथ छपने के बावजूद अखबार अपनी आभा क्यों खो रहे हैं, यह सवाल हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है। अकेला आपातकाल का प्रसंग गवाह है कि कितने पत्रकार पेट के बल लेट गए थे। इस दौर में जैसी रीढ़ विहीनता और केंचुए सी गति पत्रकारों ने दिखाई थी उस प्रसंग को हम सब भले भूल जाएं देश कैसे भूल सकता है ? सारे कुछ के बावजूद अखबार कभी सिर्फ उद्योग की भूमिका में नहीं रह सकते । व्यापार के लिए भी नियम और कानून होते हैं व्यापार के नाम पर भी अपने ग्राहक को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता । आजादी के बाद हमारे अखबार सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना से दूर हटे हैं।


कहां हैं हमारे पाठकःस्वतंत्रता मिलने के बाद राजनीतिक नेताओं, अफसरों, माफिया गिरोहों की सांठगांठ से सार्वजनिक धन की लूटपाट एवं बंदरबांट में देश का कबाड़ा हो गया, पर हिंदी के अखबारों की इन प्रसंगों पर कोई जंग या प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिलती । उल्टे ऐसे घृणित समूहों-जमातों के प्रति नरम रूख अपनाने एवं उन्हें सहयोग देने के आरोप पत्रकारों पर जरूर लगे। सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति ऐसी समर्पण भावना ने न सिर्फ हिन्दी क्षेत्र में पत्रों की गरिमा गिराई वरन पूरे व्यवसाय को कलंकित किया। इसी के चलते अखबारों में आम जनता की आवाज के बचाए सत्ता की राजनीति और उसके द्वन्द्व प्रमुखता पाते हैं।अखबारों की बड़ी जिम्मेदारी थी कि वे आम पाठकों के पास तक पहुंचते और उनसे स्वस्थ संवाद विकसित करते । कुछ समाचार पत्रों ने ऐसे प्रयास किए भी किंतु यह हिंदी क्षेत्र की पत्रकारिता की मूल प्रवृत्ति न बन सकी। मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता ने मूलतः शहरी मध्यवर्ग के पाठकों को केन्द्र में रखकर अपना सारा ताना-बाना बुना। इसके चलते अखबार सिर्फ इन्हीं पाठकों के प्रतिनिधि बनकर रह गए और एक बड़ा तबका जो गरीबी, अत्याचार एवं व्यवस्था के दंश को झेल रहा है, अखबारों की नजर से दूर है। ऐसे में अखबारों की संवेदनात्मक ग्रहणशीलता पर सवालिया निशान लगते हैं तो आश्चर्य क्या है ? इस संदर्भ में आप अंग्रेजी अखबारों की तुलना हिन्दी अखबारों से करके प्रसन्न हो सकते हैं और यह निष्कर्ष बड़ी आसानी से निकाल सकते हैं कि हम हिन्दी वाले उनकी तुलना में ज्यादा संवेदनाओं से युक्त हैं। परंतु अंग्रेजी पत्रकारिता ने तो पहले ही बाजार की सत्ता और उसकी महिमा के आगे समर्पण कर दिया है। अंग्रेजी के अपने ‘खास’ पाठक वर्ग के चलते उनकी जिम्मेदारियां अलग हैं। उनके केन्द्र में वैसे भी ‘आम आदमी’ तो नहीं ही है। किन्तु भारत जैसे विविध स्तरों पर बंटे देश में हिंदी अखबारों की जिम्मेदारी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि अगर हम व्यापक पाठक वर्ग की बात करते हैं तो हमारी जिम्मेदारीयां भी अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले बड़ी हैं। वस्तुतः हिंदी अखबारों को अपनी तुलना भाषाई समाचार पत्रों से करनी चाहिए। जो आज स्वीकार्यता के मामले में अपने पाठकों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। यहां अंग्रेजी पत्रों का वैचारिक योगदान जरूर हिंदी पत्रों के लिए प्रेरणा बन सकता है। इस पक्ष पर हिंदी के पत्र कमजोर साबित हुए हैं। हिंदी अखबारों में वैचारिकता एवं बौद्धिकता का स्तर निरंतर गिरा है। अब तो गंभीर समझे जाने वाले हिंदी अखबार भी अश्लील एवं बेहूदा सामग्री परोसने में कोई संकोच नहीं करते और यह सारा कुछ इलेक्ट्रानिक मीडिया के आतंक में हो रहा है। इस आतंक में आत्मविश्वास खोते संपादक एवं उनके अखबार कुछ भी छापने पर आमादा हैं। सनसनी, झूठ और अश्लीलता उन्हें किसी भी चीज से परहेज नहीं है।सत्ता से आलोचनात्मक विमर्श रिश्ता बनाने एवं जनता की आवाज उस तक पहुंचाने के बजाए अखबार उनसे रिश्तेदारियां गाठंने में लगे हैं। प्रायः अखबारों पर उसके पाठकों के बजाय विज्ञापनदाताओं एवं राजनेताओं का नियंत्रण बढ़ाता जा रहा है। खबरपालिका की अंदरूनी समस्याओं को हल करने एवं उनके बीच से रास्ता निकालने के बजाए ‘आत्म-समर्पण’ जैसी स्थितियों को विकल्प माना जा रहा है। ऐसे में पाठक और अखबार के रिश्ते मजबूत हो सकते हैं ? कोई अखबार या उसकी आवाज कैसे पाठकों के दिल में उतर जाएगी ? उत्पाद बन चुका सुबह का अखबार तभी अपनी आभा खोकर शाम तक रद्दी की टोकरी में चला जाता है। अखबार सार्वजनिक सवालों पर बहस का वातावरण बनाने में विफल रहे हैं । भाषा के सवाल पर भी हिंदी अखबार खासे दरिद्र हैं। सहज-सरल भाषा के प्रयोग का नारा पत्रकारों के लिए शब्दों के बचत की प्रेरणा बन गया है। ऐसे में तमाम शब्द अखबारों से गायब हो गए हैं । इसका एक बहुत बड़ा कारण भाषा के प्रति हमारा अल्पज्ञान एवं उसके प्रति लापरवाही है। दूसरा बड़ा कारण हमारा बौद्धिक कहा जाने वाला वर्ग अखबारों से कट सा गया है। उसने अखबारों को बेवजह की चीज माने लिया । हिंदी पत्रकारिता में विचारशीलता के लिए कम हो आई जगह से पाठकों को वैचारिक नेतृत्व मिलना बंद हो गया। इस बौद्धिक नेतृत्व के अभाव ने भी पाठक एवं अखबार के रिश्तों को खासा कमजोर किया । संवेदनाएं कम हुईं, राग घटा एवं शब्दों की महत्ता घटी। बौद्धिकों ने हिंदी क्षेत्र की पत्रकारिता पर दबाव बनाने के बजाए इस क्षेत्र को छोड़ दिया। फलतः आज हमारे पास सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन ‘अज्ञेय’ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, राजेन्द्र माथुर, श्रीकांत वर्मा, प्रभाष जोशी जैसे संपादकों का दौर अतीत की बात बन गयी है।


नए पाठक- नई चिंतांएःयह बात खासी महत्वपूर्ण है कि हिंदी पत्रकारिता का वैचारिक अधिष्ठान एवं श्री गणेश ऐसा है कि वह जनसंघर्षों में ही फल-फूल सकती है। अब रास्ता यही है कि अखबार की पूंजी से घृणा करने के बजाए ऐसे रिश्तों का विकास हो, जिसमें देश का बौद्धिक तबका भी अपना मिथ्याभिमान छोड़कर अखबार की दुनिया का हम सफर बने। क्योंकि तकनीकी चमक-दमक अखबार की प्रस्तुति को बेहतर बना सकती है उसमें प्राण नहीं भर सकती ।हिंदी क्षेत्र में एक नए प्रकार के पाठक वर्ग का उदय हुआ है जो सचेत है और संवाद को तैयार है। वह तमाम सूचनाओं के साथ आत्मिक बदलाव वाला अखबार चाहता है। वह सच के निकट जाना चाहता है। इसलिए चुनौती महत्व की है और यह जंग हिंदी अखबारों को पाठकों के साथ जुड़कर ही जीतनी होगी । क्योंकि लाख नंगेपन से भी अखबार इलेक्ट्रानिक मीडिया का मुकाबला नहीं कर सकता । इसके लिए उसमें एक संवेदना जगानी होगी जो अपने पाठकों से संवाद करे, बतियाए, उन्हें रिक्त न छोड़े। अपने युग की चुनौतियों, बाजार के गणित का विचार करते हुए अखबार खुद को तैयार करें यह समय की मांग है।

उम्मीदें हुयीं पानी-पानीः
इलेक्ट्रानिक मीडिया का विकास बहुत नया है जाहिर तौर पर उसके पैंरों में संस्कारों की बेडि़यां नहीं थीं। उसके पास कोई ऐसा अतीत भारतीय संदर्भ में नहीं था जिसके चलते वह कुलांचे भरने से बाज आता। सो कम समय में उसने जो धमाल मचाया है वह किसी से छिपा नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के विकास के साथ-साथ इंटरनेट, ब्लाग और वेबसाइट की पत्रकारिता का आमतौर पर इस्तेमाल औरत की देह को अनावृत करने में ही हो रहा है। नए आए निजी रेडियो में परंपरागत आकाशवाणी की बेहद सांस्कृतिक शैली की झलक भी नहीं है। ये निजी रेडियो एमएम मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता के ही वाहक होते हैं। रेडियो जाकी नाम के जीव प्रायः बकवास करते हैं, कुछ एफएम पर तो लव गुरू बैठे हुए हैं जो नई पीढ़ी को प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं। कुल मिलाकर औरत की देह इस समय इलेक्ट्रानिक मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है । सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह सभी संचार माध्यमों पर पसरा हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा । यह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और अन्य संचार माध्यमों से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। इस पूरे वातावरण को इलेक्ट्रानिक टीवी चेनलों ने आँधी में बदल दिया है। इंटरनेट ने सही रूप में अपने व्यापक लाभों के बावजूद सबसे ज्यादा फायदा सेक्स कारोबार को पहुँचाया । पूंजी की ताकतें सेक्सुएलिटी को पारदर्शी बनाने में जुटी है। मीडिया इसमें उनका सहयोगी बना है, अश्लीलता और सेक्स के कारोबार को मीडिया किस तरह ग्लोबल बना रहा है इसका उदाहरण विश्व कप फुटबाल बना। मीडिया रिपोर्ट से ही हमें पता चला कि जर्मनी के तमाम वेश्यालय इसके लिए तैयार हैं और दुनिया भर से वेश्याएं वहाँ पहुंच रही है। कुछ विज्ञापन विश्व कप के इस पूरे उत्साह को इस तरह व्यक्त करते है ‘मैच के लिए नहीं, मौज के लिए आइए’ । जाहिर है मीडिया ने हर मामले को ग्लोबल बना दिया है। हमारे ‘गोपन विमर्शों’ को’ओपन’ करने में मीडिया का एक खास रोल है। शायद इसीलिए मीडिया के कंधों पर सवार यह सेक्स कारोबार तेजी से ग्लोबल हो रहा है। महानगरों में लोगों की सेक्स हैबिट्स को लेकर भी मुद्रित माध्यमों में सर्वेक्षण छापने की होड़ है । वे छापते हैं 80 प्रतिशत महिलाएं शादी के पूर्व सेक्स के लिए सहमत हैं । दरअसल यह छापा और बताया जा रहा सबसे बड़ा झूठ है। इस षड़यंत्र में शामिल मीडिया बाजार की बाधाएं हटा रहा है। फिल्मों की जो गंदगी कही जाती थी वह शायद उतना नुकसान न कर पाए जैसा धमाल इन दिनों संचार माध्यम मचा रहे हैं । कामोत्तेजक वातावरण को बनाने और बेचने की यह होड़ कम होती नहीं दिखती । मीडिया का हर माध्यम एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। यह होड़ है नंगई की । उसका विमर्श है-देह ‘जहर’ ‘मर्डर’ ‘कलियुग’ ‘गैगस्टर’ ‘ख्वाहिश’, ‘जिस्म’ जैसी तमाम फिल्मों ने बाज़ार में एक नई हिंदुस्तानी औरत उतार दी है । जिसे देखकर समाज चमत्कृत है। कपड़े उतारने पर आमादा इस स्त्री के दर्शन ने मीडिया प्रबंधकों के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। एड्स की बीमारी ने पूंजी के ताकतों के लक्ष्य संधान को और आसान कर दिया है । अब सवाल रिश्तों की शुचिता का नहीं, विश्वास का नहीं, साथी से वफादारी का नहीं- कंडोम का है। कंडोम ने असुरक्षित यौन के खतरे को एक ऐसे खतरनाक विमर्श में बदल दिया है जहाँ व्यवसायिकता की हदें शुरू हो जाती है।


अस्सी के दशक में दुपट्टे को परचम की तरह लहराती पीढ़ी आयी, फिर नब्बे का दशक बिकनी का आया और अब सारी हदें पार कर चुकी हमारी फिल्मों तथा मीडिया एक ऐसे देहराग में डूबे हैं जहां सेक्स एकतरफा विमर्श और विनिमय पर आमादा है। उसके केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं । भारतीय स्त्री के सौंदर्य पर विश्व का अचानक मुग्ध हो जाना, देश में मिस युनीवर्स, मिस वर्ल्ड की कतार लग जाना-खतरे का संकेतक ही था। हम उस षड़यंत्र को भांप नहीं पाए । अमरीकी बाजार का यह अश्वमेघ, दिग्विजय करता हुआ हमारी अस्मिता का अपहरण कर ले गया । इतिहास की इस घड़ी में हमारे पास साइबर कैफे हैं, जो इलेक्ट्रानिक चकलाघरों में बदल रहे हैं । हमारे बेटे-बेटियों के साइबर फ्रेंड से अश्लील चर्चाओं में मशगूल हैं । कंडोम के रास्ते गुजर कर आता हुआ प्रेम है । अब सुंदरता परिधानों में नहीं नहीं उन्हें उतारने में है। कुछ साल पहले स्त्री को सबके सामने छूते हाथ कांपते थे अब उसे चूमे बिना बात नहीं बनती । कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक पब्लिसिटी के काम आते हैं । लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं । ‘भोगो और मुक्त हो,’ यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे ‘मर्द’ की आंख का आकर्षण बनें यही आज के मीडिया का स्त्री विमर्श है । जीवन शैली अब ‘लाइफ स्टाइल’ में बदल गयी है । बाजारवाद के मुख्य हथियार ‘विज्ञापन’ अब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं । नग्नता ही स्त्री स्वातंत्र्य का पर्याय बन गयी है। मेगा माल्स, ऊँची ऊँची इमारतें, डियाइनर कपड़ों के विशाल शोरूम, रातभर चलने वाली मादक पार्टियां और बल्लियों उछलता नशीला उत्साह । इस पूरे परिदृश्य को अपने नए सौंदर्यबोध से परोसता, उगलता मीडिया एक ऐसी दुनिया रच रहा है जहाँ बज रहा है सिर्फ देहराग, देहराग और देहराग । मीडिया जैसे प्रभावी जनसंचार माध्यम की सारी विधाएं प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और इंटरनेट जब एक सुर से जनांदोलनों और जिंदगी के सवालों से मुंह चुराने में लगे हों तो विकल्प फिर उसी दर्शक और पाठक के पास है। वह अपनी अस्वीकृति से ही इन माध्यमों को दंडित कर सकता है। एक जागरूक समाज ही अपनी राजनीति, प्रशासन और जनमाध्यमों को नियंत्रित कर सकता है। पर क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं। इस द्वंद को भी समझने की जरूरत है कि बकवास करते न्यूज चैनल, घर फोड़ू सीरियल हिट हो जाते हैं और सही खबरों को परोसते चैनल टीआरपी की दौड़ में पीछे छूट जाते हैं। वैचारिक भूख मिटाने और सूचना से भरे पूरे प्रकाशन बंद हो जाते हैं जबकि हल्की रूचियों को तुष्ट करने वाली पत्र- पत्रिकाओं का प्रकाशन लोकप्रियता के शिखर पर है। ये कई सवाल हैं जिनमें इस संकट के प्रश्न और उत्तर दोनों छिपे हैं। यह अकारण नहीं है देश की सर्वाधिक बिकनेवाली पत्रिका को साल में दो बार सेक्स हैबिट्स पर सर्वेक्षण छापने पड़ते हैं। क्या इसके बाद यह कहना जरूरी है कि जैसा समाज होगा वैसी ही राजनीति और वैसा ही उसका मीडिया। जाहिर तौर पर इन बेहद प्रभावशाली माध्यमों के इस्तेमाल की शैली हमने अभी विकसित नहीं की है।

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

छत्तीसगढ़ः टूटा तीसरी ताकतों का सपना

छत्तीसगढ़ में अंततः तीसरी ताकतों का सपना टूट गया। हालांकि छत्तीसगढ़ की सामाजिक संरचना तीसरी ताकतों के अनुकूल है बावजूद इसके ये पार्टियां अपनी सीमित मौजूदगी से ज्यादा स्थान नहीं बना पा रहीं हैं। राज्य की राजनीति कांग्रेस और भाजपा के बीच ही सिमटी रही है। लेकिन 2008 के विधानसभा चुनाव बसपा की दमदार मौजूदगी के चलते कुछ समय तक यह भ्रम पैदा करने में सफल रहे कि संभवतः आश्चर्यजनक परिणाम आ सकते हैं। यह माहौल वास्तव में मीडिया का रचा हुआ नहीं था। यह सारा कुछ बसपा की उत्तर प्रदेश में सरकार बनने और उसके मंत्रियों के छत्तीसगढ़ के ताबड़तोड़ दौरों से पैदा हुआ था। इनका बड़बोलापन अब खुलकर सामने आ चुका है। बसपा ने राज्य में खुद को तीसरी ताकत के रूप में प्रचारित किया। उसके नेता दावा करते रहे कि बसपा के सहयोग के बिना कोई सरकार नहीं बन सकती। लेकिन वक्त के साथ उनके दावे खोखले साबित हुए।
उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग की कामयाबी से उत्साहित बसपा के पांव इस बार जमीं पर नहीं थे। उसके दो मंत्रियों लालजी वर्मा और अनंतकुमार मिश्र ने तो राज्य में काफी समय दिया। बसपा ने उप्र की तर्ज पर इस बार छत्तीसगढ़ में अपनी सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाते हुए टिकट बांटे पर यह कवायद बहुत कामयाब नहीं रही। बसपा के पास हालांकि खोने के लिए कुछ भी मौजूद नहीं था और वह अपनी ताकत को वोटों के लिहाज से बढ़ा ले गयी। इस बार (2008) के विधानसभा चुनावों में बसपा को दो सीटें और 6.11 प्रतिशत वोट मिले। 2003 के विधानसभा चुनावों में बसपा को 4.45 प्रतिशत वोट और दो सीटें मिली थीं। बसपा इस बात से संतोष कर सकती है उसकी सीटें भले ही न बढीं हों पर उसके वोट प्रतिशत में वृद्धि हुयी है।
सबसे ज्यादा नुकसान में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी रही जिसे इस बार कांग्रेस से समझौते में तीन सीटें मिली थीं। जबकि यह तीनों सीटें वह हार गयी। उसके प्रदेश अध्यक्ष और चंद्रपुर से विधायक रहे नोबेल वर्मा अपनी परंपरागत सीट पर भाजपा दिग्गज दिलीप सिंह जूदेव के बेटे युद्धवीर सिंह के मुकाबले चुनाव हार गए। उल्लेखनीय है कि कभी नोबेल वर्मा के पिता स्व. भवानीलाल वर्मा ने दिलीप सिंह जूदेव को जांजगीर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हराया था। राकांपा वैसे भी विद्याचरण शुक्ल की कांग्रेस से बगावत के चलते पैदा हुयी पार्टी थी। पिछले विधानसभा चुनाव (2003) में राकांपा को राज्य में 7.02 प्रतिशत वोट मिले थे और एक सीट भी मिली थी। 2003 के चुनावों में राकांपा का नेतृत्व वीसी शुक्ल और अरविंद नेताम जैसे कांग्रेस दिग्गजों के हाथ में था। अब ये दोनों नेता वाया भाजपा , कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। जाहिर तौर पर राकांपा के साथ यही होना था। राकांपा के वोट इस चुनाव में सात प्रतिशत से घटकर मात्र 0.52 प्रतिशत रह गया। यह राकांपा के लिए ऐसा झटका था कि पिछले चुनाव में तीसरी मुख्य पार्टी बनकर उभरी राकांपा कहीं की नहीं रही। कांग्रेस से समझौता भी उसका खाता नहीं खोल सका। भाकपा का भी लगभग यही हाल रहा, वह दंतेवाड़ा सीट छोड़कर कहीं अपनी मौजूदगी भी नहीं जता सकी। उसे राज्य में इस चुनाव में सिर्फ 1.18 प्रतिशत वोट नसीब हुए।
इसके अलावा दूसरे तमाम दल समाजवादी पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, छत्तीसगढ़ विकास पार्टी, भारतीय जनशक्ति पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा जैसी पार्टियां तो अपनी जमानत भी नहीं बचा सकीं। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हीरासिंह मरकाम 1998 में अपनी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में तानाखार से चुनाव जीते थे। किंतु पिछले दो चुनावों से उन्हें लगातार मात मिल रही है। इसी तरह छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने भी 1985 और 1993 के दो विधानसभा चुनावों में डौंडीलोहारा क्षेत्र से सफलता पायी थी, इस दल की तरफ से जनकलाल ठाकुर दो बार विधानसभा पहुंचे थे। तबसे इस पार्टी को भी अपना खाता खुलने का इंतजार है। कुल मिलाकर तीसरी शक्तियों के लिए छत्तीसगढ़ की जमीन बहुत उपजाऊ नहीं कही जा सकती। हां अजूबे यहां जरूर होते रहे हैं वरना छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से जनकलाल ठाकुर, गोंगपा से हीरा सिंह मरकाम या कभी माधवराव सिंधिया द्वारा बनाई गई पार्टी मध्यप्रदेश विकास पार्टी से महेंद्र कर्मा बस्तर लोकसभा का चुनाव न जीतते। आज के हालात में तो कोई चमत्कार ही तीसरी ताकतों की किस्मत खोल सकता है, फिलहाल तो का पूरा मैदान कांग्रेस और भाजपा के बीच ही बंटा हुआ है।

जोगी जीते, जोगी हारे

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस में जैसी चिंताएं है वैसी कभी नहीं देखी गईं। यह पहली बार है जब पिछले पांच सालों में श्रीमती सोनिया गांधी ने यह माना है कि उनकी पार्टी राज्य में फैली गुटबाजी के चलते मैदान हार गई। सोनिया का यह बयान सही अर्थों में एक ऐसा बयान है जो राज्य कांग्रेस की दुखती रग को छेड़ गया है। सोनिया गांधी का बयान एक ऐसे समय में आया है जब कांग्रेस के पास हारे को हरिनाम करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। राजनीति के पंडित इसीलिए कहते हैं- कांग्रेस को कोई औऱ नहीं,कांग्रेस खुद को ही हराती है। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में इस बार यह जुमला सच होता नजर आया। कांग्रेस के दिग्गज एक होने का अभिनय जरूर करते नजर आए पर वे जनता को यह भरोसा नहीं दिला पाए कि – हम साथ-साथ हैं। यह ऐसा समय था जिसे कांग्रेस अपने पक्ष में कर सकती थी लेकिन आपसी जंग ने उसे फिलहाल पांच साल के लिए विपक्ष में बैठा दिया है।


पूरे पांच साल कांग्रेस आपसी विवादों से जूझती रही। आलाकमान रोज प्रभारी बदलता रहा, जो आकर एकता का पाठ पढ़ाते रहे किंतु कांग्रेस के चतुरसुजान नेता उस सत्ता की आस में जंग कर कर रहे थे जो उनसे कोसों दूर थी। खेमों की मोर्चेबंदी में माहिर कांग्रेसियों में यह जंग अब भी रूकी नहीं है ,जबकि कांग्रेस एक बार फिर विपक्ष में बैठ चुकी है। बात उपचुनाव के रूप में राज्य में हुए सेमीफायनल की रही हो या फिर फायनल के रूप में हुए विधानसभा चुनावों की, कांग्रेस की आपसी लड़ाई हर जगह नजर आई। शायद इसी का परिणाम था कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष धनेंद्र साहू, कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा, नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा, उपनेता प्रतिपक्ष भूपेश बधेल तक को हार का मुंह देखना पड़ा।
विधानसभा चुनाव-2003 में करारी मात के बाद लोकसभा के चुनावों में भी कांग्रेस राज्य की 11 लोकसभा सीटों में सिर्फ एक पर चुनाव जीत सकी। इसके बाद हुए स्थानीय निकाय, पंचायत, मंडी, सहकारिता के चुनावों में भी उसकी खास उपस्थिति नहीं रही। हां बाद में कोटा उपचुनाव और राजनांदगांव लोकसभा का उपचुनाव जीत कर कांग्रेस को एक मौका जरूर मिला कि वह भाजपा को घेर सकती है। यह सोचने का विषय है कि कांग्रेस के बजाए उपचुनावों की इस पराजय से भाजपा ने सबक लिया। भाजपा ने अपनी चुनावी तैयारियां शुरू कर दीं, संगठन पर ध्यान देना शुरू किया। किंतु कांग्रेस फिर उन्हीं लड़ाइयों में उतर गई। जिसका परिणाम यह हुआ कि प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए चरणदास महंत अपनी कार्यकारिणी तक नहीं बना पाए। बाद में उन्हें पदावनत कर कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया और धनेंद्र साहू अध्यक्ष बनाए गए। ऐसा पहली बार हुआ कि एक छोटे से राज्य में कांग्रेस के तीन अध्यक्ष बना दिए गए। धनेंद्र अध्यक्ष और महंत के साथ सत्यनारायण शर्मा कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए। यह सोशल इंजीनियरिंग भी कांग्रेस को उबार नहीं पाई। ये तीन अध्यक्ष मिलकर भी कार्यकारिणी नहीं बना सके। उपचुनावों में मिली जीत को कांग्रेस की जोगी खेमे की जीत माना गया किंतु इस झटके से भाजपा जाग उठी। अपना किला बचाए रखने के लिए भाजपा ने किलेबंदी शुरु कर दी। आलाकमान ने कांग्रेस की गुटबाजी को देखने के बाद भी आंखें मूंद रखी थीं। आलाकमान ने इस लाइलाज बीमारी को खत्म करने के कोई उपाय नहीं किए।


गुटबाजी का जख्म नासूर में बदलने लगा था। इस बीच मालखरौदा,खैरागढ़ और केशकाल के उपचुनाव जीतकर भाजपा आत्मविश्वास हासिल कर चुकी थी। कांग्रेस का विभाजन एक बार फिर साफ नजर आ गया था। उसके बाद सारे प्रयोग कर कांग्रेस अंततः सामूहिक नेतृत्व में मैदान में उतरी। यह दिखावटी एकता काम नहीं आई। दो रूपए किलो चावल का नारा भी चल नहीं पाया। रमन सिंह के सौम्य चेहरे, चावल और भाजपा की सामूहिक एकता को जनता ने सर माथे बिठाया। कांग्रेस ने नेता न घोषित न करने की बात कही थी लेकिन भाजपा ने जिस तरह अजीत जोगी पर हमला बोलकर उन्हें चुनावी प्रचार के केंद्र में ला दिया उसने अंततः शहरी मध्यवर्ग में जोगी का एक अज्ञात भय पैदा कर दिया। जिससे शहरी इलाकों में भाजपा को रिस्पांस मिला। इसी तरह आदिवासी इलाकों में कांग्रेस के बागियों ने माहौल बिगाड़ा,तो वहीं चावल का जादू भी चलता दिखा। खासकर बस्तर के इलाके से जहां कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया और 12 में 11 सीटें भाजपा को मिलीं ।


चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी नेता भले ही घोषित न किए गए हों, चुनाव अभियान उन्हीं पर केंद्रित था। परिणामों ने भी यह साबित किया कि चुनाव जीते ज्यादातर विधायक जोगी समर्थक ही हैं। जोगी और उनकी पत्नी भी चुनाव जीते। अजीत जोगी अपने क्षेत्र मरवाही से राज्य में सबसे ज्यादा वोटों से जीते। यह एक बात साबित करती है कि कांग्रेस जितनी जीती है वह अजीत जोगी है और जहां हारी है उसके मूल में भी कहीं न कहीं अजीत जोगी ही हैं। यह अकारण नहीं है खुद की सीट भी न जीत सकने वाले कांग्रेसी दिग्गज अपनी हार के लिए जोगी को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। टिकट वितरण में जोगी की जितनी चली उसके परिणाम प्रायः पक्ष में आए हैं। एनसीपी के साथ गठबंधन का जोगी ने विरोध किया था, एनसीपी को गठबंधन मिली तीनों सीटें वह हार गयी है। कुल मिलाकर यह हार और जीत दोनों जोगी की ही मानी जानी चाहिए। निश्चय ही यह कांग्रेस के लिए चिंता का एक बड़ा कारण है। बस्तर का वह इलाका जिसपर कांग्रेस सदैव भरोसा करती आयी है। इस इलाके से भी कांग्रेस को निराशा ही हाथ लगी है। बिलासपुर जिले से पिछली बार कांग्रेस को सात सीटें मिली थीं इस बार उस सिर्फ तीन सीटें मिली हैं। जाहिर तौर पर कांग्रेस इस समय राज्य में एक बड़े संकट से गुजर रही है। नेता प्रतिपक्ष के चयन में भी इच्छा के बावजूद अजीत जोगी नेता नहीं बन सके। इससे कांग्रेस के भीतर का मतभेद एक बार फिर उजागर हुआ है। बावजूद इसके राज्य की राज्य की राजनीति में अजीत जोगी को चुका हुआ मान लेना एक भारी भूल होगी। अब जबकि लोकसभा के चुनाव आने वाले हैं कांग्रेस की चुनौती राज्य से अपनी सीटें बढ़ाने की है किंतु पार्टी में जिस तरह का यादवी युध्द छिड़ा हुआ है उसमें उसकी उम्मीदों पर फिलहाल तो ग्रहण हैं ही।

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

क्यों डूबी कांग्रेस, क्यों जीती भाजपा



छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनावों ने एक बार फिर भाजपा को मुस्कराने का मौका दे दिया है। राज्य की 90 विधानसभा सीटों में 50 पर जीत दर्ज कराकर भाजपा ने एक बार फिर 2003 का इतिहास दुहरा दिया है। 2003 के विधानसभा चुनावों में भी भाजपा को इतनी ही सीटें मिली थीं। ऐसे में जब सत्ताविरोधी रूझानों से देश भर में सरकारें धराशाही हो रहीं हैं औऱ उनके मत प्रतिशत में कमी आ रही है, भाजपा का सीटें कायम रखना और अपने वोट बढ़ाना साधारण बात नहीं है। वहीं कांग्रेस का इस हार को पचा पाना आसान नहीं है। इस चुनाव में उसके दिग्गजों का चुनाव हारना जहां बड़ी घटना है वहीं उसकी गुटबाजी के सवाल को सोनिया गांधी ने भी हार का कारण बता दिया। यह एक ऐसी बात है जिसके लिए कांग्रेस के पास मुंह छिपाने के अलावा कोई चारा नहीं है। भाजपा के पांच सालों का कार्यकाल जैसा भी रहा हो किंतु कांग्रेस एक मजबूत विपक्ष के रूप में कभी नजर नहीं आई।

चुनाव प्रचार के दौरान भी भाजपा जितनी सधी हुयी रणनीति, प्रबंधन और कुशलता से सामने आई कांग्रेस उससे कोसों दूर थी। भाजपा के पास रमन सिंह के रूप में एक ऐसा चेहरा था जो उम्मीदें जगाता दिखता था तो कांग्रेस इस चुनाव में नायक विहीन थी। अजीत जोगी जो सत्ता के सबसे करीब नजर आते थे, शहरी मध्यवर्ग के मन में अज्ञात भय जगाते थे, जिससे भाजपा की राह आसान हुई। भाजपा ने भी पूरे प्रचार अभियान के दौरान जोगी पर ही हमले किए। भाजपा के रविशंकर प्रसाद जैसे नेता भी जोगी पर हमला करने का लोभसंवरण नहीं कर पाए। यह एक ऐसी सच्चाई है जिससे मुंह मोड़ना कठिन है। कांग्रेस के पास दरअसल जोगी को छोड़कर कुछ भी नहीं था। इसलिए देखें तो जोगी ही जीते और जोगी ही हारे। जोगी जहां राज्य में सर्वाधिक मतों से अपने इलाके मरवाही से जीते वहीं उनकी धर्मपत्नी रेणु जोगी भी कोटा से जीतीं। लेकिन जोगी विरोधी सारे दिग्गज जिनके हाथ में कांग्रेस संगठन और विधायक दल की कमान थी चुनाव हार गए। जिनमें कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष धनेंद्र साहू, नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा, उपनेता प्रतिपक्ष भूपेश बधेल, कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा शामिल हैं। इतना ही नहीं दिग्गज कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा के बेटे अऱूण वोरा और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविद नेताम की बेटी डा. प्रीति नेताम भी चुनाव हार गए । यह परिदृश्य कांग्रेस के लिए सदमे से कम नहीं था। सोनिया गांधी ने शायद इन्हीं हालात के मद्देनजर यह कहा कि कांग्रेस गुटबाजी की वजह से हारी। आज हालात यह हैं कि कांग्रेस में सिर फुटौव्वल मची हुयी। लगता तो यही हैं कि कांग्रेस को हाल-फिलहाल संभलने का मौका नहीं मिलेगा।

भाजपा के आला रणनीतिकारों ने कांग्रेस जैसी अनुभवी पार्टी को राज्य में पसीने ला दिए। भाजपा की कुशल रणनीति में ही उसकी कामयाबी छिपी हुयी है। चुनाव के काफी पहले भाजपा के रणनीतिकारों ने राज्य में डेरा डाल दिया था। वहीं कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की ओर से मोर्चे पर लगाए गए नारायण सामी, बीके हरिप्रसाद और इरशाद कुरैशी न तो गुटबाजी पर लगाम लगा पाए न ही कुशल रणनीति बना सके। इसके मुकाबले भाजपा ने साल भर पहले से ही तैयारी शुरू कर दी थी। चुनावी व्युह रचना का जिम्मा उठाया भाजपा दिग्गज सौदान सिंह ने। वे पार्टी के राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री भी हैं। उन्होंने रणनीति के तहत पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद औऱ सांसद धर्मेद्र प्रधान को राज्य की बागडोर सौंप दी। इसके साथ ही डा. रमन सिंह और उनके सहयोगी भी संगठन को अपेक्षित सहयोग करते रहे। टीम वर्क की यह जीत अध्ययन का विषय है। जाहिर तौर पर संगठन को पीछे से आरएसएस की भी मदद मिलती रही। रणनीति की शुरूआत हुयी बूथ मैनेजमेंट से, जिसके लिए मजाक में छत्तीसगढ़ के कांग्रेस विधायक कुलदीप जुनेजा कहते हैं कि भाजपा वालों को बूथ लूटने की ट्रेनिंग दी जाती है। यही बूथ मैनेजमेंट भाजपा की असल ताकत है। बावजूद इसके जहां जनमत ही खिलाफ हो वहां बूथ मैनेजमेंट काम नहीं आते किंतु ये माहौल को बदलने ,जीत-हार के अंतर को कम करने का काम जरूर करते हैं।

पार्टी ने कोटा का विधानसभा चुनाव हार कर जो झटका खाया वह भाजपा के काम आया। कोटा विधानसभा के उपचुनाव में कांग्रेस की डा. रेणु जोगी विजयी हुयी थीं। पर चुनाव एक टर्निंग प्वाइंट था। इसी के बाद रणनीति के तहत दो माह के भीतर राज्य में 20 हजार से ज्यादा शक्तिकेंद्र बनाए गए। प्रत्येक शक्तिकेंद्र पर भाजपा के 15-15 नौजवान तैनात किए जाने लगे। उन्हें बाकायदा प्रशिक्षित किया गया। यह काम आया। लगातार बैठकों से सत्ता विरोधी रूझान और कार्यकर्ताओं का असंतोष संभालने में भाजपा ने सफलता पायी। इस बीच लगातार सर्वेक्षणों से भाजपा ने अपनी रणनीति में लगातार बदलाव किया। वर्तमान विधायकों का टिकट काटना इसी रणनीति का हिस्सा था, जिसे मोदी फार्मूले का नाम दिया गया। यह रणनीति बनी कि चुनाव सकारात्मक मुद्दों पर ही लड़े जाएंगें। बस्तर के लिए खास रणनीति बनी। बस्तर की चुनावी मैराथन में ऐसे लोग मैदान में उतारे गए जो सामाजिक रुप से ज्यादा पहचाने जाते थे। राजनीतिक पहचान पर सामाजिक पहचान भारी पड़ी। चावल का मुद्दा भी इसी पहल से जुड़ा। यह काम भी आया। चुनाव अभियान की कारपोरेट बांबिंग काम आयी। अजीत जोगी निशाने पर रहे। कांग्रेस के न चाहते हुए भी अजीत जोगी सीएम के सबसे बड़े उम्मीदवार के रूप में उभरे। यह भाजपाई रणनीति की सफलता ही थी। यह कारक शहरों में भाजपा की बड़ी सफलता का कारण बना।

भाजपा ने तीन रूपए किलो चावल और 25 पैसे किलो नमक का नारा देकर एक भरोसा कायम किया था। इसके विपरीत कांग्रेस ने भी दबाव में आकर दो रूपए किलो चावल देने की बात कही, भाजपा ने कांग्रेस की इस घोषणा के बाद अंत्योदय कार्डों पर एक रूपया किलो चावल और मुफ्त नमक देने की बात कही। परिणाम बताते हैं जनता ने भाजपा के वायदे को ज्यादा विश्वसनीय माना। ऐसे में भाजपा को बस्तर की 12 सीटों में 11 सीटें मिलीं तो यह साधारण सफलता नहीं है। बस्तर इलाका कभी कांग्रेस का गढ़ माना जाता था, वहां से भाजपा की यह जीत बहुत कुछ कहती है। इसी तरह बड़े राजनीतिक सवालों पर कांग्रेस का भ्रम भी उसे भारी पड़ा, नक्सलवाद और सलवा जुडूम के मुद्दे पर कांग्रेस की खामोशी उसे भारी पड़ी। यहां तक की बीजापुर और दंतेवाड़ा जैसे घुर नक्सल प्रभावित इलाकों से कांग्रेस दिग्गजों के पांव उखड़ गए, जहां भाजपा के नए नवेले युवाओं ने जीत दर्ज कराई। ऐसे में कांग्रेस के लिए यह समय आत्ममंथन का है। उसे अपने संगठनात्मक ढांचे को चुस्त बनाते हुए काम करना होगा। छत्तीसगढ़ का सबक इसलिए भी महत्तवपूर्ण है क्योंकि संयुक्त मध्यप्रदेश में रहते हुए भी कांग्रेस की इस इलाके में कभी इतनी दुर्गति नहीं हुयी। बल्कि इस इलाके से भारी बहुमत लेकर ही मप्र में कांग्रेस सरकार बनाती रही। कांग्रेस के लिए यह इलाका एक चुनौती बनकर सामने है। चुनौती इसलिए भी गहरी है क्योंकि बसपा जैसे दलों की पदचाप भी इन इलाकों में सुनाई देने लगी है।

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

संतुलन साधने की कवायद

छत्तीसगढ़ः नई सरकार, नया मंत्रिमंडल

छत्तीसगढ़ की सरकार की नई सरकार के मंत्रिमंडल ने सोमवार को शपथ ले ली। राज्य में दुबारा सरकार बनाकर लौटी भाजपा के पास जहां रमन सिंह के रूप में एक सौम्य और अनुभवी चेहरा है वहीं उसकी सेना में अब अनुभवी सिपाही भी हैं। रमन सिंह को जोड़कर बने 12 सदस्यीय मंत्रिमंडल में क्षेत्रीय संतुलन, जातीय संतुलन और कार्यक्षमता का बराबर ध्यान रखा गया है। आत्मविश्ववास से भरे-पूरे डा. रमन सिंह ने जब अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के नाम की घोषणा की तो ऐसा नहीं लगा कि यह टीम कहीं से भी कमजोर है।

आदिवासी क्षेत्रों और वोटों के भरोसे सत्ता में आई भाजपा ने इसका ऋण पांच आदिवासी समाज के मंत्री बनाकर चुकाया है। पिछली बार की तरह इस बार भी गृहमंत्री का पद आदिवासी समाज के नेता को ही दिया गया है और मंत्रिमंडल में नंबर दो का दर्जा भी इस समाज के मंत्री हासिल होगा। यह बात राहत देने वाली है कि इस पद पर पार्टी के बुर्जग आदिवासी नेता ननकीराम कंवर को मौका मिला है। जबकि ननकीराम कंवर को पिछली बार जिस कड़वाहट के बाद मंत्री पद छोड़ना पड़ा था उसमें इसे रमन सिंह का बड़ा दिल ही कहा जाएगा कि वे इस अनुभवी नेता को पुनः मुख्यधारा में वापस ले आए। ननकीराम कंवर इस बार भी अपनी परंपरागत सीट रामपुर से चुनाव जीतकर आए हैं। कोरबा जिले से चुनाव जीतने वाले वे अकेले भाजपा विधायक हैं। आदिवासी समाज के अन्य मंत्रियों में रामविचार नेताम, केदार कश्यप, लता उसेंड़ी, विक्रम उसेंडी शामिल हैं। बस्तर संभाग के तीन मंत्रियों को मौका देकर डा. रमन ने इस इलाके पर खास फोकस किया है। इस इलाके की 12 में से 11 सीटों पर भाजपा विधायकों को जीत हासिल हुयी है। इसी तरह सरगुजा इलाके से जीते रामविचार नेताम को फिर मंत्री बनाया गया है। पिछली बार वे मंत्रिमंडल में गृहमंत्री के रूप में शामिल थे।

रायपुर संभाग से भाजपा के चार दिग्गज मंत्रिमंडल में शामिल किए गए हैं। बृजमोहन अग्रवाल, राजेश मूणत, हेमचंद यादव और चंद्रशेखर साहू का नाम इस संभाग से मंत्री बनाए जाने वालों में शामिल हैं। चंद्रशेखर साहू, अभनपुर से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष धनेंद्र साहू को हराकर विधानसभा में पहुंचे हैं। जाहिर तौर पर उनकी इस विजय का पुरस्कार उन्हें मंत्री बनाकर दिया गया है। साहू तीसरी बार विधायक बने हैं और महासमुंद से एक बार लोकसभा के सदस्य भी रह चुके चुके हैं। बिलासपुर संभाग से तीन मंत्रियों को जगह मिली है। जिसमें अमर अग्रवाल, पुन्नूलाल मोहले और ननकीराम कंवर शामिल हैं। अमर पहले भी राज्य शासन में मंत्री थे, मोहले और कंवर को जगह मिली है।

श्री मोहले चार बार से बिलासपुर से सांसद हैं। इस बार बिलासपुर की सीट सामान्य हो गयी है सो मोहले ने मुंगेली क्षेत्र से विधानसभा के लिए किस्मत आजमायी और सफल रहे, जाहिर तौर पर इतने वरिष्ठ सांसद को मंत्री बनाना ही था। इसके चलते पिछली सरकार में मंत्री रहे डा. कृष्णमूर्ति बांधी जरूर मंत्री नहीं बन सके। इसका कारण यह है कि वे भी बिलासपुर के मस्तूरी इलाके से ही चुनाव जीते हैं और सतनामी समाज से ही आते हैं। आयु, अनुभव, जातीय समीकरण हर लिहाज से मोहले उनपर बीस साबित हुए।

सरगुजा संभाग जरूर सिर्फ एक मंत्री पाने की शिकायत कर सकता है। किंतु सभी जिलों को सीमित मंत्री संख्या के नाते प्रतिनिधित्व दे पाना संभव नहीं है। ऐसे में मंत्रिमंडल में कुल 9 जिलों को ही प्रतिनिधित्व मिल सका है और 9 जिलों से कोई मंत्री नहीं बना है। यह एक तरह की मजबूरी है जिसका समाधान नहीं है। सबसे ज्यादा मंत्री रायपुर से बनाए गए हैं जिनकी संख्या तीन है। इसी तरह महिलाओं को भी कोई खास तरजीह नहीं मिली है, भाजपा ने कुल 10 महिलाओं को टिकट दी थी जिसमें 6 जीतकर भी आईं किंतु सिर्फ एक महिला को ही मंत्री बनाया गया है। आदिवासी समाज में भाजपा ने कुल आरक्षित 29 सीटों से ज्यादा 32 सीटों पर आदिवासी खड़े किए थे जिनमें 20 को जीत हासिल हुई और इसीलिए सबसे ज्यादा पांच मंत्री इसी समाज से बनाए गए हैं। अनुसूचित जाति के लिए कुल 9 सीटें आरक्षित हैं जिनमे पांच पर भाजपा के लोग जीते हैं इनमें केवल एक को ही मंत्री (पुन्नूलाल मोहले) बनाया गया है।

मंत्रिमंडल में पहली बार मंत्री बने लोगों में चंद्रशेखर साहू और पुन्नूलाल मोहले शामिल हैं, यह संयोग ही है कि दोनों पूर्व सांसद हैं और कई बार विधायक भी रह चुके हैं। यानि पहली बार मंत्री बने ये दोनों भी संसदीय अनुभव में कमजोर नहीं हैं। एक अदभुत संयोग यह भी है कि डा. रमन सरकार के पिछले कार्यकाल में आरंभिक दिनों में मंत्री रहे दो सहयोगी ननकीराम कंवर और विक्रम उसेंडी फिर मंत्री बनाए गए हैं। इन दोनों को अनेक कारणों से पिछली बार मंत्रिमंडल से बाहर होना पड़ा था। इस पूरे दौर में विधानसभा उपाध्यक्ष बद्रीधर दीवान की एक जातिगत टिप्पणी के अलावा कुछ भी बेसुरा नजर नहीं आया। दीवान का दर्द भी जातिगत कम व्यक्तिगत ज्यादा है। उम्मीद है डा. सिंह उन्हें समझा लेंगें।

कुल मिलाकर रमन सरकार में इस बार अनुभव और उत्साह का संयोग देखने को मिलेगा। पिछली बार जहां पहली बार चुनाव जीते विधायकों के चलते मंत्रियों की अनुभवहीनता आरंभिक दिनों में काफी रेखांकित की गयी थी इस बार वैसा नहीं है। अनुभवी मंत्रियों से सजी रमन सिंह की टीम के पास पाने के लिए पूरा आकाश है, सवाल यह है कि क्या वे इसके लिए तैयार हैं। फिलहाल शपथ ग्रहण के बाद उन सब पर जिम्मेदारियों का एक बड़ा सवाल मुंह बाए खड़ा है, राज्य की 2 करोड़ जनता इस मौके पर अपने मंत्रियों को शुभकामनाओं के सिवा क्या दे सकती है।


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जो बने मंत्री
ननकीराम कंवर, बृजमोहन अग्रवाल, रामविचार नेताम, पुन्नूलाल मोहले, चंद्रशेखर साहू, अमर अग्रवाल, हेमचंद यादव, विक्रम उसेंडी, राजेश मूणत, केदार कश्यप, लता उसेंडी।

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कहां से कितने मंत्री ( मुख्यमंत्री सहित संभाग गणित)
रायपुर संभाग-5, बस्तर संभाग-3, बिलासपुर संभाग-3, सरगुजा-1

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पहली बार बने मंत्री
चंद्रशेखर साहू और पुन्नूलाल मोहले पहली बार मंत्री बने हैं। लेकिन संसदीय अनुभव में दोनो काफी आगे हैं। साहू जहां तीसरी बार विधानसभा पहुंचे है वहीं वे महासमुंद से लोकसभा में भी पहुंच चुके हैं। इसी तरह पुन्नूलाल मोहले पहले विधायक रहे और चार बार बिलासपुर से सांसद रह चुके हैं। यह एक संयोग ही है दोनों पूर्व सांसद हैं। जिन्हें रमन सरकार में मंत्री बनाया गया है।

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हाशिए पर महिलाएं
भाजपा ने राज्य की 90 विधानसभा पर 10 महिला उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें 6 को जीत हासिल हुई है। इसमें मात्र एक को मंत्री बनाया गया है। मंत्री बनने वाली लता उसेंडी पिछली बार भी रमन सरकार में मंत्री रही हैं। उन्हें आदिवासी महिला होने का लाभ मिला है।


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आदिवासियों को मौके ज्यादा
सरकार में आदिवासियों को सबसे ज्यादा पांच मंत्री पद मिले हैं। अनुसूचित जाति को एक, अन्य पिछड़ा वर्ग को दो, वैश्य समाज को तीन पद मिले हैं। इसी तरह ठाकुर समुदाय से डा. रमन सिंह अकेले सरकार में हैं। किसी ब्राम्हण को मंत्री नहीं बनाया गया है। इससे भाजपा विधायक बद्रीधर दीवान ने नाराजगी जताई है। पिछली बार भी किसी ब्राम्हण को मंत्री नहीं बनाया गया था, हां विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद पर जरूर ब्राम्हण समुदाय को जगह मिली थी। जिसमें विधासभा अध्य़क्ष रहे प्रेमप्रकाश पाण्डेय इस बार भिलाई से चुनाव हार गए हैं। भाजपा के तीन जीते ब्राम्हण विधायकों सरोज पाण्डेय, रविशंकर त्रिपाठी और बद्रीधर दीवान में से किसी को भी मंत्री नहीं बनाया गया है।

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई का समय


अब तो देश की राजनीति को शर्म आ ही जानी चाहिए। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में हुई घटनाएं भारतीय राजनीति और शासन पर एक ऐसा तमाचा है जिसकी गूंज काफी दिनों तक सुनाई देगी। आखिर कब जागेंगें हम और कम से कम ऐसे सवालों पर भी एक राय बना सकेंगें। राजनीति जिस तरह आतंकवाद के सवाल पर विभाजित नजर आती है उस पर कोई भी देशवासी सिर्फ शर्मसार हो सकता है। हमारे राजनेताओं को यह सोचना होगा कि आखिर वे अपने छुद्र स्वार्थों के लिए कब तक देश की जनता और हमारे पुलिस-सैन्य बलों की शहादत लेते रहेंगें।


11 सितंबर,2001 को अमरीका में हुए वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद अमरीकी राजनीति के सबक सीखने लायक हैं। अमरीका ने जिस तरह के प्रबंध किए उससे वह तमाम ज्ञात- अज्ञात खतरों से बच सका। जाहिर तौर पर अमरीका को आदर्श मानने वाले हमारे राजनेता किस तरह की राजनीति कर रहे हैं। वे देश की जनता के अमन चैन से क्यों खेल रहे हैं। हमें सोचना होगा कि राजनीति अगर लोंगों को जिंदगी जीने की आजादी भी नहीं दे सकती है तो इस लोकतंत्र के मायने क्या हैं। डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे लोकराज लोकलाज से चलता है। किंतु हमारी राजनीति ने लोकलाज की सारी सीमाएं तोड़ दी हैं। ऐसे में यह कहना बहुत कठिन है कि आने वाले समय में भी हम जनता को कोई राहत दे पाएंगें। राजनीति की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा यह है कि मुंबई धमाकों में हमारे जांबांज पुलिस अफसरों और आम जनता की शहादत उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। शायद बहुत से खतरों से मुकाबिल देश और उसकी नपुंसक राजनीति ने इसी तरह जीने का ढंग सीख लिया है। क्या सरकारें इस घटना से कोई सबक ले पाएंगीं यह एक बड़ा सवाल है। आतंकवाद का यह नंगा नाच जो दिन प्रतिदिन विकराल रूप लेता जा रहा है उससे मुंह मोड़ना एक हमारे राष्ट्र-राज्य की अस्मिता के लिए बहुत चिंता की बात है। इस घटना के बाद तो केंद्र और महाराष्ट्र सरकार के नियंताओं के सिर शर्म से झुक जाने चाहिए। नरसंहार की इस घटना के लिए जितने जिम्मेदार आतंकवादी हैं उतनी ही जिम्मेदार हमारी राजनीति भी है जिसकी कायरता ने आतंकियों के हौसले बढ़ा रखे हैं। वे राजनेता जो सिमी की पैरवी में खड़े हैं, जो लगातार कुछ वोटों की लालच में इस राष्ट्र और राज्य को खतरे के सामने छोड़कर मुस्करा रहे हैं। सच कहें तो वोट बैंक की राजनीति ने हमारी नैतिकता, देशप्रेम और निष्ठा की बलि ले ली है।
हर आतंकी वारदात के बाद एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति शुरू हो जाती है जो हमें समस्या के समाधान के लिए प्रेरित नहीं कर पाती। देश बंटा हुआ नजर आता है। टुकड़ों में बंटा देश इस हालात में किस तरह दुनिया का सामना कर पाएगा। भारत यदि एक आपराधिक राज्य के रूप में, आतंकवादी ताकतों के पनाहगाह के रूप में चिंहित हो गया तो हम विश्व के सामने क्या मुंह लेकर जाएंगें। देश के तमाम हिस्सों में आतंकवादी और अतिवादी आंदोलन पल रहे हैं, लेकिन जब हम अपने महानगरों को नहीं बचा पा रहे हैं तो जंगलों- गांवो में पनप रहे नक्सलवाद या अन्य अतिवादी समूहों का सामना कैसे करेंगें। मुंबई की घटना एक ऐसी मिसाल है जिस पर कोई भी देश सिर्फ शर्मसार हो सकता है। यह हमारे विकृत हो चुके समय की ऐसी बानगी है जिसे हमने स्वयं ही आमंत्रित किया है। यह बात साबित करती है हमने अपनी आजादी और उसकी कीमत को नहीं समझा है। देश के करोंडो़ लोगों की जानमाल हमारे लिए कोई मायने नहीं रखती। आतंकवादी जिस तरह से भारत को बंधक बनाकर कहीं भी किसी तरह की घटना को अंजाम दे रहे हैं वह हमारी कायरता का ही फलित है। देश के लोग जो अपनी बेहतर और सर्वश्रेष्ठ क्षमता का प्रर्दशन करते हुए इसके विकास में अपना योगदान दे रहे हैं उन्हें संरक्षण देने के बजाए हमारी सरकारों ने उनके शांति से जीने के अधिकार को भी संकट में डाल रखा है। इससे देश के सामने चिंता के बादल गहरे हो गए हैं। हमारी राजनीति की यह भीरूता देश पर भारी पड़ रही है। देश की प्रगति और विकास के सपने इसी आतंकवाद के चलते दफन हो रहे हैं। आम हिंदुस्तानी आज खून के आंसू रो रहा है, आतंकवाद की बलि चढ़ रहे लोग हमारे लिए एक ऐसा सवाल हैं जो लगातार हमें रूलाते रहेंगे। लेकिन क्या हमारी बेशर्म, बेबस, कायर और लालची राजनीति इन सवालों से टकराने का साहस रखती है।

बुधवार, 23 जुलाई 2008

राजनीति और नैतिकता के प्रश्न


राजनीति के मैदान में नैतिकता का प्रश्न कभी इतना अप्रासंगिक नहीं हुआ था। राजनीति खुद को कितना लांछित करना चाहती है इसे देखना एक रोचक अनुभव है। डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे लोकराज लोकलाज से चलता है। आज की राजनीति को देखकर वे क्या कहते यह सोचना भी मौंजू है। वर्तमान राजनीति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अब हमें राजनीति से बहुत नैतिक अपेक्षाएं नहीं पालनी चाहिए।

लोकसभा में विश्वास मत के दौरान जैसे नजारे देखने में आए वे वास्तव में हैरत में डालते हैं। राजनीति का मैदान कभी इतने अविश्वास से भरा नहीं था। पूरी दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र का डंका पीटनेवाले हम वास्तव में कितने बेचारे हैं यह इस दौर की एक कड़वी सच्चाई है। राजनीति की यह बेबसी समझी जा सकती है। हमारी चिंताओं में यदि सत्ता सुख और व्यापार ही हो तो मनमोहन सिंह जैसे साधु स्वभाव के प्रधानमंत्री को भी अमर सिंह के साथ खड़ा होना पड़ सकता है। यह बेचारगी राजनीति की भी है, लोकतंत्र की भी और हम भारत के लोंगों की भी। बाजार में खड़ी हमारी राजनीति के सामने अमरीका की राजी-नाराजगी, महंगाई से बड़े प्रश्न हैं। पूरे चार साल तक कांग्रेस के साथ चिपके रहे वाममोर्चा के नेता यदि चुनाव के वक्त ही समर्थन वापस लेने की कार्रवाई कर रहे हैं तो इसके अर्थ समझे जा सकते हैं। यदि वामपंथियों की इस कार्रवाई से सरकार गिर जाती और मध्यावधि चुनाव होते तो भी वामपंथियों के सामने चुनाव के बाद भी बहुत सीमित विकल्प होते। यह तो तय ही है कि चुनाव जब भी हों कांग्रेस या भाजपा दोनों में से किसी एक को पूर्ण बहुमत मिलना संभव नहीं है। ऐसे में वामपंथी क्या भाजपा की सरकार बनवाएंगें। जाहिर है नहीं। किंतु अपने धुर अमेरीका विरोध के चलते वामपंथियों ने देश को एक चुनाव के मुहाने पर खड़ा कर दिया था। इस सबके बीच सबसे ज्यादा भद पिटी भारतीय जनता पार्टी की जिसके न सिर्फ सात सांसदों ने बगावत कर कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया वरन उसकी नैतिक नारेबाजी की पोल भी खोल दी। भाजपा न तो अपनी पार्टी को एकजुट रख सकी न ही एनडीए की एकता बनी रह सकी। इससे भाजपा और एनडीए दोनों की भद पिटी है। कई बड़े मामलों के आरोपियों को टिकट देने वाले दलों को भी इन आरोपियों ने अच्छा सबक सिखाया है। समाजवादी पार्टी ने कभी फूलपुर के सांसद अतीक अहमद के लिए मायावती से लंबी लड़ाई लड़ी। अतीक, बसपा के एक विधायक की हत्या के आरोपी हैं। अब वही अतीक अहमद , मायावती की मार से ढीले पड़ गए हैं और अविश्वास मामले पर बसपा के साथ खड़े दिखे। वहीं भाजपा को भी अपराधियों को टिकट देने से कभी परहेज नहीं रहा।

भाजपा के एक ऐसे ही सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने भी बगावत कर वोटिंग की। इसका संदेश यह है कि अपराधी सिर्फ संरक्षण पाने के लिए राजनीति में आते हैं। जिसकी ताकत होगी वह उनका आका अपने आप हो जाता है।लगभग यही हाल व्यापारी या उद्योग समूहों के लिए काम करने वाले दलाल किस्म के राजनेताओं का है। वे सत्ता के साथ अनूकूलन में बेहद अभ्यस्त होते हैं। आप उन्हें सत्ता से दूर रख ही नहीं सकते। इस मामले में फायदे में कांग्रेस तो रही है ही दूसरा बड़ा फायदा अमर सिंह एंड कंपनी का हुआ है। इससे अंबानी, अमिताभ,मुलायम और सभी अमर प्रेम से जुड़े बंधुओं को लाभ ही मिलेगा। राजनीति में कोई स्थाई शत्रु या मित्र नहीं होता यह कहावत एक बार फिर अपने जीवंत रूप में सामने दिख रही है। राजनीति में विचारधारा की जगह भी नहीं बची यह बात भी सामने दिख रही है।हां,वामपंथी इस बात पर संतोष जरूर कर सकते हैं कि उनके सांसदों ने उनकी लाज रखी और उनका कुनबा एकजुट रहा। पर इस अकेली बात के लिए उन्हें साधुवाद के अलावा क्या दिया जा सकता है। राजनीत के मैदान में वामपंथी अपनी राह चलने की बातें भले करें पर उनके भी आपसी द्वंद कम नहीं हैं। लोकसभा अध्यक्ष के मामले में उनकी उलटबासियां सबके सामने दिख ही रही हैं। फिर उनके सामने केरल और प.बंगाल के वामपंथियों के झगड़े अलग हैं।

कुल मिलाकर देश की राजनीति में नैतिकता के सवाल पर बातचीत बेमानी है चुकी है। राजनीति आज तीव्र व्यवसायीकरण की शिकार है। पैसे की बढ़ती भूख और उद्योग में बदलता राजनीतिक चिंता का एक बड़ा कारण है। कितुं अफसोस यह है कि राजनीति पर नैतिक चिंता करने वाले लोगों में आज राजनीति से जुड़े लोग नहीं हैं। ऐसे में राजनीति की पवित्रता की बात पर कोई भी चर्चा बेहद अकादमिक हो जाती है या अखबारी। राजनीति पर यदि राजनीति से जुड़े लोग ही चर्चा नहीं करेगें तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत घातक होगा। आजादी के छ दशक के बाद हमारा लोकतंत्र कई चुनौतियों के सामने है। जिसमें सबसे बड़ी चुनौती है जनविश्वास को कायम रखना। यदि लोकतंत्र की व्यवस्था से भी लोगों का भरोसा उठ गया तो कौन सी व्यवस्था हमें न्याय दिलाएगी। कहा जाता है लोकतंत्र अपनी तमाम बुराईयों के बावजूद सबसे अच्छी व्यवस्था है। शायद यह इसलिए क्योंकि लोंगों की आवाज इसी व्यवस्था में सुनी जा सकती है। लोग अपनी भावनाओं के प्रकटीकरण के लिए इस व्यवस्था को सबसे अच्छी व्यवस्था मानते हैं। इस विश्वास को बचाए औऱ बनाए रखना हम सबकी जिम्मेदारी है। राजनीति और नैतिकता के सवाल पर गंभीर विमर्श आज की सबसे बड़ी जरूरत है यही हमारे लोकतंत्र और जनविश्वास की बहाली के सबसे आवश्यक है। आज के राजनीतिक परिवेश को देखकर यह कल्पना करना मुशिकल है कि हम आने वाली पीढ़ी को कैसा भविष्य दे पाएंगें। देश जिस तरह चौतरफा आतंक, असुरक्षा, कदाचार, अशिक्षा के जाल में जकड़ता जा रहा उसे देखकर हैरत होती है। जातीय औऱ क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काने के लिए राजनीति लगी ही है। ऐसे कठिन समय में गांधी हमें रास्ता दिखाते हैं। वे हमें लोक से जोड़ते हैं। वे हमें बताते हैं कि किस तरह आज की चुनौतियों की सामना किया जा सकता है। भारत के संकट का कारण ही दरअसल अपने आध्यत्मिक अधिष्ठान के भटक जाने के कारण है। भारतीयता की जड़ें उसी लोक में है जिसे पहली बार गांधी ने पहचाना था। अफसोस कि आज की राजनीति लोक से शक्ति ग्रहण नहीं करती। वह चमत्कारों, मीडिया, पैसे, ताकत से सत्ता पाना चाहती है। वह स्वालंबन में भरोसा नहीं रखती वह विश्व बाजार में अपनी नीलामी के भटकती हुई आत्माएं हैं। इनकी मुक्ति पैसै में है। ये जनता का भरोसा जगाने नहीं तोड़ने वाली राजनीति है। यह भरोसा जगाने वाली नहीं आत्मविश्वास को तोड़ने वाली राजनीति है। जाहिर है ऐसी राजनीति जनता आदर कहां पा सकती है। संघर्ष की पाठशाला से निकला नेतृत्व की जनमन की भावनाओं का संस्पर्श पा सकता है और समर्थन भी। क्या हमारी राजनीति इसके लिए तैयार है।

मंगलवार, 24 जून 2008

डा. रमन सिंह: सपनों को सच करने की जिम्मेदारी


छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह अगर अपनी सरकार के साढ़े चार साल से अधिक का समय पूरा करने के बावजूद जनप्रिय बने हुए हैं, तो यह सोचना बहुत मौजूं है कि आखिर उनके व्यक्तित्व की ऐसी क्या खूबियां हैं, जिन्होंने उन्हें सत्ता के शिखर पर होने के बावजूद अलोकप्रियता के आसपास भी नहीं जाने दिया। देखा जाए तो डा. रमन सिंह एक मुख्यमंत्री से कहीं ज्यादा मनुष्य हैं। उनका मनुष्य होना उन सारे इंसानी रिश्तों और भावनाओं के साथ होना है, जिसके नाते कोई भी व्यक्ति वामन से विराट हो जाता है। मुख्यमंत्री बनने के पूर्व डा. रमन सिंह के व्यक्तित्व की तमाम खूबियां बहुज्ञात नहीं थीं। शायद उन्हें इन चीजों को प्रगट करने का अवसर भी नहीं मिला। वे कवर्धा में जरूर 'गरीबों के डाक्टर के नाम से जाने जाते रहे किंतु आज वे समूचे छत्तीसगढ़ के प्रिय डाक्टर साहब हैं। उनकी छवि इतनी निर्मल है कि वे बड़ी सहजता के साथ लोगों के साथ अपना रिश्ता बना लेते हैं। राजनेताओं वाले लटकों-झटकों से दूर अपनी सहज मुस्कान से ही वे तमाम किले इस तरह जीतते चले गए कि उनके विरोधी भी सार्वजनिक तौर पर उनकी आलोचना से संकोच करने लगे हैं।

मुख्यमंत्री के रूप में उनके पदभार ग्रहण करने के साथ ही तमाम आशंकाएं उनकी और उनकी सरकार के आसपास तैर रही थीं। डा. रमन सिंह का स्वयं का इतिहास भी किसी बड़ी प्रशासनिक जिम्मेदारी के साथ जुड़ा नहीं रहा। कुछ समय के लिए वे केंद्र की सरकार में मंत्री जरूर रहे किंतु उस दौर में भी उनके कामकाज के बारे में बहुत कुछ सुनाई नहीं पड़ा। साथ ही साथ उनकी पूरी फौज में ज्यादातर सिपाही ऐसे थे, जो पहली बार विधानसभा पहुंचे थे। ऐसे में बहुत अनुभवहीन मंत्रियों को लेकर बनी टीम बहुत आशाएं नहीं जगाती थी। डाक्टर साहब का स्वयं का स्वभाव भी उनके प्रशासनिक कौशल पर सवाल उठाता ही दिखता था। अब साढ़े चार साल के बाद यह लगता है कि वे आकलन और विश्लेषण न सिर्फ बहुत सतही थे, बल्कि रमन सिंह को बहुत ही सरलीकृत करके देखा जा रहा था।

डा. रमन सिंह को जिस काम के लिए याद किया जाएगा, उसमें उनकी पहली उपलब्धि तो यही है कि वे अपनी साधारण क्षमताओं के बावजूद पांच साल अपनी सरकार को चला ले गए। आज के समय में यह उपलब्धि भी साधारण नहीं है और तब जबकि मध्यप्रदेश में इसी भारतीय जनता पार्टी की सरकार को पांच साल में तीन मुख्यमंत्री देने पड़े। दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने संयुक्त मध्यप्रदेश में प्रभावी रहे लगभग सभी भारतीय जनता पार्टी के दिग्गजों को राज्य की राजनीति में लगभग अप्रासंगिक बना दिया। आप इस बात से राहत ले सकते हैं कि भाजपा दिग्गज लखीराम अग्रवाल अपने स्वास्थ्यगत कारणों से राजनीति में निष्क्रिय हैं किंतु यह साधारण नहीं है कि उनके बेटे अमर अग्रवाल को छ: महीने के लिए मंत्रिमंडल से बाहर भी बैठना पड़ा। कभी मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रहे नंदकुमार साय के समर्थक भी यह बताने की स्थिति में नहीं हैं कि सायजी कहां हैं और क्या कर रहे हैं? इसी तरह भाजपा के कई दिग्गजों ने, जिनका नाम उल्लेख आवश्यक नहीं है या तो अपने पंख सिकोड़ लिए हैं अथवा स्वयं को रमन सिंह के साथ ही संबध्द कर लिया है। संगठन और सरकार के बीच इतने अच्छे तालमेल के साथ अपना कार्यकाल पूरा करना डा. रमन सिंह की ऐतिहासिक उपलब्धि ही कही जाएगी। भाजपा संगठन में भी दिल्ली से लेकर रायपुर तक के नेताओं के बीच डा. रमन सिंह न सिर्फ सर्व स्वीकृत नाम हैं, वरन वे सबके प्रिय भी हैं। उनके व्यक्तित्व की सहजता और सहज उपलब्धता ने उनका कवरेज एरिया बहुत बढ़ा दिया है।
डा. रमन सिंह को नक्सलवाद के खिलाफ उनकी प्रतिबध्दता के लिए भी निश्चित रूप से याद किया जाना चाहिए। वे शायद देश के ऐसे पहले राजनेता हैं, जिन्होंने नक्सलवाद के खिलाफ अपनी प्रखर प्रतिबध्दता को जाहिर करते हुए नक्सलवाद को राष्ट्रीय आतंकवाद के समकक्ष खड़ा कर पूरे देश का ध्यान इस समस्या की ओर आकर्षित किया। नक्सलियों को आतंकी की संज्ञा देने के साथ उनके खिलाफ जनमत निर्माण के लिए उनकी पहल को निश्चित रूप से याद किया जाएगा। राज्य के चौतरफा विकास के लिए मुख्यमंत्री के नाते उनकी सक्रियता रेखांकित करने योग्य है। सरकारी तंत्र की तमाम सीमाओं के बावजूद मुख्यमंत्री की नीयत पर शक नहीं किया जा सकता। पहले दिन से ही उनके ध्यान में आखिरी पंक्ति पर खड़े लोग ही हैं। राज्य शासन की ज्यादातर योजनाएं इसी तबके को ध्यान में रखते हुए बनाई गईं। आदिवासियों को गाय-बैल, बकरी देने की बात हो, उन्हें चरण पादुका देने की बात हो, गरीब छात्राओं को साइकिल देने या पच्चीस पैसे में नमक और तीन रुपया किलो चावल सबका लक्ष्य अंत्योदय ही है। इस तरह की तमाम योजनाएं मुख्यमंत्री की दृष्टि और दृष्टिपथ ही साबित करती हैं।

विकास की महती संभावनाओं के साथ आज भी पिछड़ेपन और गरीबी के मिले-जुले चित्र राज्य की सर्वांगीण प्रगति में बाधक से दिखते हैं। अमीर और गरीब के बीच की खाई इतनी गहरी है कि सरकार की अत्यंत सक्रियता के बिना विकास के पथ पर बहुत पीछे छूट गए लोगों को मुख्य धारा से जोड़ पाना संभव नहीं है। भूमि, वन, खनिज और मानव संसाधन की प्रचुरता के बावजूद यह राज्य बेहद चुनौतीपूर्ण है, जहां पर एक तरफ विकास की चौतरफा संभावनाएं दिखती हैं, तो दूसरी तरफ बहुत से घरों में न सिर्फ फाका होता है, बल्कि रोजगार की तलाश में नित्य पलायन हो रहा है। भूख, कुपोषण और महामारी जैसे दृश्य यहां बहुत आम हैं। किसान पिट भी रहा है और पिस भी रहा है। इन चित्रों को जोड़कर जो दृश्य बनता है वह बहुत चिंताजनक है। विकास यात्रा पर निकले मुख्यमंत्री को इन बिंबों की तरफ भी ध्यान देना होगा। सरकारी तंत्र की असहिष्णुता और सीमाओं के बावजूद राजनैतिक तंत्र की सक्रियता और नीयत का पूरे तंत्र पर प्रभाव जरूर पड़ता है। इसके लिए समय और अवसर उपलब्ध कराना राज्य के लोगों की जिम्मेदारी है, तो उस अवसर का सही और सार्थक इस्तेमाल राज्य के नेतृत्व की नैतिकता के साथ जुड़ा प्रश्न है।

एक नवंबर, 2000 को अपना भूगोल रचने वाला यह राज्य आज भी एक 'भागीरथ के इंतजार में है। छत्तीसगढ़ का भौगोलिक क्षेत्रफल 1, 35, 194 वर्गकिलोमीटर है, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्र का 4.1 प्रतिशत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से छत्तीसगढ़ देश के सोलह राज्यों से बड़ा है। यह कई छोटे-छोटे राष्ट्रों से भी विशाल है। छत्तीसगढ़ का क्षेत्रफल पंजाब, हरियाणा और केरल इन तीनों राज्यों के योग से ज्यादा है। जाहिर है इस विशाल भूगोल में बसने वाली जनता छत्तीसगढ़ की सत्ता पर बैठे मुखिया की तरफ बहुत आशा भरी निगाहों से देखती है। इन अर्थों में डा. रमन सिंह के पास एक ऐसी कठिन जिम्मेदारी है, जिसका निर्वहन उन्हें करना ही होगा। इस विशाल भूगोल में सालों साल से रह रही आबादी अपनी व्यापक गरीबी और पिछड़ेपन से मुक्त होने का इंतजार कर रही है। डा. रमन सिंह के सामने यह चुनौती भी है कि वे श्रोष्ठ मानव संसाधन का विकास करते हुए न सिर्फ लोगों को उत्तम शासन उपलब्ध कराएं वरन उत्तम अधोसंरचना का विकास भी करें।

छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधन, खनिज, वन संपदा और जल संसाधन की दृष्टि से जहां बेहद संपन्न है, वहीं यहां अधोसंरचना के विकास के कई अवसर हैं। देश के मध्य में स्थित होने के नाते देश के सभी हिस्सों से यह लगभग समान दूरी पर है। उत्पादन के साधन, भूमि और श्रम सस्ता होने के नाते विकास की यहां अपार संभावनाएं हैं। राज्य में पावर हब के साथ-साथ फसल चक्र परिवर्तन के माध्यम से एग्रीकल्चर हब बनने की भी क्षमता है। औद्योगिक विकास के लिए समूह आधारित उद्योगों का विकास और लघु उद्योगों का बढावा देकर बेहतर परिणाम पाए जा सकते हैं। छत्तीसगढ़ के सामने औद्योगिकीकरण की दिशा में संभावनाओं के साथ कई बाधाएं भी उपस्थित हैं। राज्य के सांसदों को एकजुट होकर केंद्र सरकार पर दबाव बनाकर बहुत तेजी के साथ रेल सुविधाएं बढ़वानी चाहिए। बस्तर का अशांत वातावरण भी एक बड़ी चुनौती है। छत्तीसगढ़ के औद्योगिकीकरण के और इस विकास में आम लोगों को साथ लेकर चलने के लिए कृषि आधारित, वन संपदा आधारित, खनिज संपदा आधारित उद्योगों के साथ-साथ और उदीयमान उद्योगों को महत्व देने की आवश्यकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर सही अर्थों में छत्तीसगढ़ बहुत पीछे है। सरकारी क्षेत्र के अंतर्गत चलने वाली प्राथमिक शिक्षा का बहुत बुरा हाल तो है ही, उच्च शिक्षा की स्थिति भी बेहतर नहीं कही जा सकती। यह एक संकेतक ही है कि राज्य के थोड़े से भी संपन्न लोग अपने बच्चों को इस राज्य के संस्थानों में शिक्षा नहीं दिलाना चाहते। चिकित्सा की सारी सुविधाएं खरीदकर ही उपलब्ध हैं। सरकारी अस्पताल लगभग अपना प्रभाव खो चुके हैं और बहुत मजबूर लोग ही इन अस्पतालों की शरण में आते हैं। राज्य की ये सच्चाइयां मुंह मोड़ने नहीं बल्कि इनके खिलाफ खड़ा होने का अवसर हैं। राज्य गठन के पिछले सात साल, राज्य की संभावनाओं को देखने और खंगालने के नाम पर बीत गए। अब राजसत्ता की जिम्मेदारी है कि वह राज्य के नागरिकाें के मूल प्रश्नों पर भी बातचीत शुरू करे। सरकारी तंत्र को प्रभावी बनाते हुए राज्य के सर्वांगीण विकास की तरफ ध्यान केंद्रित करे।

विरासत में मिली इन तमाम चुनौतियों की तरफ देखना और उनके जायज समाधान खोजना किसी भी राजसत्ता की जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को इतिहास की इस घड़ी में यह अवसर मिला है कि वे इस वृहतर भूगोल को उसकी तमाम समस्याओं के बीच एक नया आयाम दे सकें। सालों साल से न्याय और विकास की प्रतीक्षा में खड़ी 'छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा के हर क्षण का रचनात्मक उपयोग करें। बहुत चुनौतीपूर्ण और कंटकाकीर्ण मार्ग होने के बावजूद उन्हें इन चुनौतियों को स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि सपनों को सच करने की जिम्मेदारी इस राज्य के भूगोल और इतिहास दोनों ने उन्हें दी है। जाहिर है वे इन चुनौतियों से भागना भी नहीं चाहेंगे।