बुधवार, 23 जुलाई 2008

राजनीति और नैतिकता के प्रश्न


राजनीति के मैदान में नैतिकता का प्रश्न कभी इतना अप्रासंगिक नहीं हुआ था। राजनीति खुद को कितना लांछित करना चाहती है इसे देखना एक रोचक अनुभव है। डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे लोकराज लोकलाज से चलता है। आज की राजनीति को देखकर वे क्या कहते यह सोचना भी मौंजू है। वर्तमान राजनीति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अब हमें राजनीति से बहुत नैतिक अपेक्षाएं नहीं पालनी चाहिए।

लोकसभा में विश्वास मत के दौरान जैसे नजारे देखने में आए वे वास्तव में हैरत में डालते हैं। राजनीति का मैदान कभी इतने अविश्वास से भरा नहीं था। पूरी दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र का डंका पीटनेवाले हम वास्तव में कितने बेचारे हैं यह इस दौर की एक कड़वी सच्चाई है। राजनीति की यह बेबसी समझी जा सकती है। हमारी चिंताओं में यदि सत्ता सुख और व्यापार ही हो तो मनमोहन सिंह जैसे साधु स्वभाव के प्रधानमंत्री को भी अमर सिंह के साथ खड़ा होना पड़ सकता है। यह बेचारगी राजनीति की भी है, लोकतंत्र की भी और हम भारत के लोंगों की भी। बाजार में खड़ी हमारी राजनीति के सामने अमरीका की राजी-नाराजगी, महंगाई से बड़े प्रश्न हैं। पूरे चार साल तक कांग्रेस के साथ चिपके रहे वाममोर्चा के नेता यदि चुनाव के वक्त ही समर्थन वापस लेने की कार्रवाई कर रहे हैं तो इसके अर्थ समझे जा सकते हैं। यदि वामपंथियों की इस कार्रवाई से सरकार गिर जाती और मध्यावधि चुनाव होते तो भी वामपंथियों के सामने चुनाव के बाद भी बहुत सीमित विकल्प होते। यह तो तय ही है कि चुनाव जब भी हों कांग्रेस या भाजपा दोनों में से किसी एक को पूर्ण बहुमत मिलना संभव नहीं है। ऐसे में वामपंथी क्या भाजपा की सरकार बनवाएंगें। जाहिर है नहीं। किंतु अपने धुर अमेरीका विरोध के चलते वामपंथियों ने देश को एक चुनाव के मुहाने पर खड़ा कर दिया था। इस सबके बीच सबसे ज्यादा भद पिटी भारतीय जनता पार्टी की जिसके न सिर्फ सात सांसदों ने बगावत कर कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया वरन उसकी नैतिक नारेबाजी की पोल भी खोल दी। भाजपा न तो अपनी पार्टी को एकजुट रख सकी न ही एनडीए की एकता बनी रह सकी। इससे भाजपा और एनडीए दोनों की भद पिटी है। कई बड़े मामलों के आरोपियों को टिकट देने वाले दलों को भी इन आरोपियों ने अच्छा सबक सिखाया है। समाजवादी पार्टी ने कभी फूलपुर के सांसद अतीक अहमद के लिए मायावती से लंबी लड़ाई लड़ी। अतीक, बसपा के एक विधायक की हत्या के आरोपी हैं। अब वही अतीक अहमद , मायावती की मार से ढीले पड़ गए हैं और अविश्वास मामले पर बसपा के साथ खड़े दिखे। वहीं भाजपा को भी अपराधियों को टिकट देने से कभी परहेज नहीं रहा।

भाजपा के एक ऐसे ही सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने भी बगावत कर वोटिंग की। इसका संदेश यह है कि अपराधी सिर्फ संरक्षण पाने के लिए राजनीति में आते हैं। जिसकी ताकत होगी वह उनका आका अपने आप हो जाता है।लगभग यही हाल व्यापारी या उद्योग समूहों के लिए काम करने वाले दलाल किस्म के राजनेताओं का है। वे सत्ता के साथ अनूकूलन में बेहद अभ्यस्त होते हैं। आप उन्हें सत्ता से दूर रख ही नहीं सकते। इस मामले में फायदे में कांग्रेस तो रही है ही दूसरा बड़ा फायदा अमर सिंह एंड कंपनी का हुआ है। इससे अंबानी, अमिताभ,मुलायम और सभी अमर प्रेम से जुड़े बंधुओं को लाभ ही मिलेगा। राजनीति में कोई स्थाई शत्रु या मित्र नहीं होता यह कहावत एक बार फिर अपने जीवंत रूप में सामने दिख रही है। राजनीति में विचारधारा की जगह भी नहीं बची यह बात भी सामने दिख रही है।हां,वामपंथी इस बात पर संतोष जरूर कर सकते हैं कि उनके सांसदों ने उनकी लाज रखी और उनका कुनबा एकजुट रहा। पर इस अकेली बात के लिए उन्हें साधुवाद के अलावा क्या दिया जा सकता है। राजनीत के मैदान में वामपंथी अपनी राह चलने की बातें भले करें पर उनके भी आपसी द्वंद कम नहीं हैं। लोकसभा अध्यक्ष के मामले में उनकी उलटबासियां सबके सामने दिख ही रही हैं। फिर उनके सामने केरल और प.बंगाल के वामपंथियों के झगड़े अलग हैं।

कुल मिलाकर देश की राजनीति में नैतिकता के सवाल पर बातचीत बेमानी है चुकी है। राजनीति आज तीव्र व्यवसायीकरण की शिकार है। पैसे की बढ़ती भूख और उद्योग में बदलता राजनीतिक चिंता का एक बड़ा कारण है। कितुं अफसोस यह है कि राजनीति पर नैतिक चिंता करने वाले लोगों में आज राजनीति से जुड़े लोग नहीं हैं। ऐसे में राजनीति की पवित्रता की बात पर कोई भी चर्चा बेहद अकादमिक हो जाती है या अखबारी। राजनीति पर यदि राजनीति से जुड़े लोग ही चर्चा नहीं करेगें तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत घातक होगा। आजादी के छ दशक के बाद हमारा लोकतंत्र कई चुनौतियों के सामने है। जिसमें सबसे बड़ी चुनौती है जनविश्वास को कायम रखना। यदि लोकतंत्र की व्यवस्था से भी लोगों का भरोसा उठ गया तो कौन सी व्यवस्था हमें न्याय दिलाएगी। कहा जाता है लोकतंत्र अपनी तमाम बुराईयों के बावजूद सबसे अच्छी व्यवस्था है। शायद यह इसलिए क्योंकि लोंगों की आवाज इसी व्यवस्था में सुनी जा सकती है। लोग अपनी भावनाओं के प्रकटीकरण के लिए इस व्यवस्था को सबसे अच्छी व्यवस्था मानते हैं। इस विश्वास को बचाए औऱ बनाए रखना हम सबकी जिम्मेदारी है। राजनीति और नैतिकता के सवाल पर गंभीर विमर्श आज की सबसे बड़ी जरूरत है यही हमारे लोकतंत्र और जनविश्वास की बहाली के सबसे आवश्यक है। आज के राजनीतिक परिवेश को देखकर यह कल्पना करना मुशिकल है कि हम आने वाली पीढ़ी को कैसा भविष्य दे पाएंगें। देश जिस तरह चौतरफा आतंक, असुरक्षा, कदाचार, अशिक्षा के जाल में जकड़ता जा रहा उसे देखकर हैरत होती है। जातीय औऱ क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काने के लिए राजनीति लगी ही है। ऐसे कठिन समय में गांधी हमें रास्ता दिखाते हैं। वे हमें लोक से जोड़ते हैं। वे हमें बताते हैं कि किस तरह आज की चुनौतियों की सामना किया जा सकता है। भारत के संकट का कारण ही दरअसल अपने आध्यत्मिक अधिष्ठान के भटक जाने के कारण है। भारतीयता की जड़ें उसी लोक में है जिसे पहली बार गांधी ने पहचाना था। अफसोस कि आज की राजनीति लोक से शक्ति ग्रहण नहीं करती। वह चमत्कारों, मीडिया, पैसे, ताकत से सत्ता पाना चाहती है। वह स्वालंबन में भरोसा नहीं रखती वह विश्व बाजार में अपनी नीलामी के भटकती हुई आत्माएं हैं। इनकी मुक्ति पैसै में है। ये जनता का भरोसा जगाने नहीं तोड़ने वाली राजनीति है। यह भरोसा जगाने वाली नहीं आत्मविश्वास को तोड़ने वाली राजनीति है। जाहिर है ऐसी राजनीति जनता आदर कहां पा सकती है। संघर्ष की पाठशाला से निकला नेतृत्व की जनमन की भावनाओं का संस्पर्श पा सकता है और समर्थन भी। क्या हमारी राजनीति इसके लिए तैयार है।

1 टिप्पणी:

  1. ye dour vastav me mulyon ke avamulyan ka dour hai. dukh is baat ka hai ki iske bavjud iski dhara men bahna pad raha hai. naya sabera ka intzar, intzar hi rah jayega lagta hai. sir, article accha hai.
    yashwant gohil

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