लोकसभा का यह चुनाव मुद्दाविहीन है ऐसा बार-बार कहा जा रहा है। यह हवा बनाई जा रही है राजनीति का पतन हो गया है। लोकतंत्र से लोगों की उम्मीदें और आस्था गायब हो रही है। ऐसे करने में मीडिया का एक बड़ा वर्ग बड़े उत्साह से लगा हुआ है। लोकतंत्र के प्रति अनास्था जताकर आखिर हम किनका भला कर रहे हैं। देश में तमाम ऐसी ताकतें हैं जो लोकतंत्र को मजबूत होते देखना नहीं चाहती क्योंकि लोकतंत्र में अंततः कहानी जबाबदेही पर खत्म होती है, प्रभु वर्ग जवाबदेही से ही बचना चाहता है।
बावजूद इसके यह एक ऐसा चुनाव है जो बिना किसी भावनात्मक ज्वार के हो रहा है। खास बात यह है कि प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों को लेकर बहुत उत्साह नहीं देखा जा रहा है। भाजपा और कांग्रेस के दोनों खेमों में चुनावी कवायद, जोड़तोड़ तो तेज है पर सारे हथकंडों के बावजूद आम जनता में दोनों मुख्य दल कोई जादू नहीं जगा पाए हैं। इस अर्थ में मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवानी में कई समानताएं तलाशी जा सकती हैं। प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवार कहीं से करिश्माई नहीं, बल्कि काम करके आगे बढ़े लोग हैं, जिनके पीछे किसी परिवार या खुद का कोई करिश्मा नहीं है। यह संयोग ही है कि दोनों उम्मीदवार अल्पसंख्यक वर्ग से आते हैं और दोनों ही भारत विभाजन के बाद देश में आए हैं। यह देश के लोकतंत्र की ताकत ही है कि जब लोकतंत्र को माफिया व पैसे वालों के द्वारा बंधक बनाए जाने के सुनियोजित षडयंत्र चल रहे हैं तो ऐसे नेता हमारे पास हैं। यह अलग बात है कि मनमोहन सिंह अपने पूरे पांच साल के कार्यकाल में खुद की कोई लाइन नहीं बना पाए और उनपर यह आरोप विरोधी लगातार लगाते रहे वे श्रीमती सोनिया गांधी के इशारे पर काम करते हैं। देखें तो इसमें गलत क्या है। कांग्रेस पार्टी जिस तरह की पार्टी बाद में बन गयी या बना दी उसमें मनमोहन सिंह क्या करते। जाहिर तौर पर वे कांग्रेस पार्टी का स्वाभाविक चयन नहीं हैं। वे सोनिया गांधी द्वारा छोड़ी गयी कुर्सी पर उनके द्वारा नामित उम्मीदवार हैं। मनमोहन सिंह का खुद का कोई जनाधार नहीं, सो उनकी कांग्रेस अध्यक्षा पर निर्भरता बहुत स्वाभाविक है। इसके अलावा सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष हैं, सिद्धांतों की बात करें तो पार्टी अध्यक्ष का सरकार पर नियंत्रण कोई गलत बात नहीं है।
इसी तरह प्रधानमंत्री पद के दूसरे उम्मीदवार लालकृष्ण आडवानी लंबे समय से भारतीय राजनीति का एक अनिवार्य चेहरा बने हुए हैं। अटल-आडवाणी की जोड़ी ने भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ की राजनीति को स्वीकार्य और अपरिहार्य बनाने का जो करिश्मा किया वह अद्बुत है। भारतीय जनता पार्टी के संगठनात्मक विस्तार में आडवानी की भूमिका को सभी जानते हैं। बावजूद इसके वे अटलविहारी वाजपेयी की तरह करिश्माई वक्ता नहीं हैं। वे दृढ़ और आग्रही माने जाते हैं। हालांकि वाजपेयी के बाद वे पार्टी के स्वाभाविक नेता भी हैं। वाजपेयी सरकार में उपप्रधानमंत्री का पद देकर यही संकेत देने की कोशिश भी की गयी थी। वाजपेयी सरीखी लोकप्रियता, वक्रता और स्वीकार्यता आडवानी को कभी नहीं मिली। यही हाल मनमोहन सिंह का है वे एक ऐसी पार्टी के नेता हैं जिसने लंबे समय से गांधी परिवार के साथ रहने की आदत डाल ली है। उस परिवार के बिना पार्टी की बेचारगी समझी जा सकती है। मनमोहन सिंह जैसे नेता जिनकी कोई राजनैतिक पृष्ठभूमि नहीं है कांग्रेस जैसे दल में सिर्फ इसलिए पांच साल प्रधानमंत्री पद पर पूरे कर पा रहे हैं क्योंकि उन्हें श्रीमती सोनिया गांधी का आशीर्वाद प्राप्त है। सोनिया जी ने जिस गरिमा के साथ उन्हें न सिर्फ पद पर स्थापित किया बल्कि सतत उनके साथ खड़ी दिखीं यह उदाहरण भी अभूतपूर्व है। यह सोनिया जी का वरदहस्त है कि मनमोहन सिंह निश्चिंत दिखते हैं तो अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज आंसू बहा रहे हैं। कांग्रेस के मंच पर राहुल गांधी जैसा सर्वस्वीकृत चेहरा मैदान में है किंतु चुनाव में मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट किए गए हैं। इसके साथ भाजपा में भी दूसरी पीढ़ी के नेताओं में सत्ता संघर्ष तेज हो गया है जिस तरह कांग्रेस में मनमोहन के बाद राहुल गांधी कतार में हैं उसी तरह भाजपा में नरेंद्र मोदी का नाम तेजी से उभरा है। अरूण शौरी, वेंकैया नायडू, अरूण जेतली जैसे नेता उनके नाम पर सहमति जता चुके हैं। यह संयोग ही है कि दोनों नेताओं में एक जैसी तमाम समानताएं तलाशी जा रही हैं। यह भी साधारण नहीं है कि इन चुनावों में मीडिया घरानों, सेलिब्रिटीज और बाबा रामदेव जैसे लोगों के व्यापक अभियान के बावजूद वोट प्रतिशत गिर रहा है। शत प्रतिशत मतदान का सारा अभियान फुस्स सा साबित हुआ है, जबकि उप्र, बिहार जैसे राज्यों में सिर्फ 45 प्रतिशत मतदान की खबरें आ रही हैं। यहां यह जानना रोचक हो सकता है कि क्या जादुई नेतृत्व का ना होना इसका एक कारण हो सकता हो या चुनाव में भावनात्मक मुद्दों का अभाव फ्लोटिंग वोट को निकलने से रोकने की वजह बना है। यह भी संभव है कि लोग इन चुनावों या बदलावों से बहुत उम्मीद न रखते हों, इस नाते भी आमजनता में घिर आया नैराश्य या अवसाद भी इसका कारण हो सकता है। कारण जो भी मीडिया और राजनेताओं को इस विषय में सोचना जरूर चाहिए कि नेता मनमोहन हों या आडवानी, मायावती या पवार, लोकतंत्र के प्रति जनमन में घटता भरोसा, नैराश्य अंततः हमारी जड़ों को ही खोखला करेगा। आज जबकि दुनिया के तमाम देश अपनी अराजकता से मुक्ति पाने के लिए लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हैं, ऐसे में हम अपने साठ साल के लोकतंत्र को क्या यूं ही मुरझाने के लिए छोड़ देंगें।
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