छत्तीसगढ़ में अंततः तीसरी ताकतों का सपना टूट गया। हालांकि छत्तीसगढ़ की सामाजिक संरचना तीसरी ताकतों के अनुकूल है बावजूद इसके ये पार्टियां अपनी सीमित मौजूदगी से ज्यादा स्थान नहीं बना पा रहीं हैं। राज्य की राजनीति कांग्रेस और भाजपा के बीच ही सिमटी रही है। लेकिन 2008 के विधानसभा चुनाव बसपा की दमदार मौजूदगी के चलते कुछ समय तक यह भ्रम पैदा करने में सफल रहे कि संभवतः आश्चर्यजनक परिणाम आ सकते हैं। यह माहौल वास्तव में मीडिया का रचा हुआ नहीं था। यह सारा कुछ बसपा की उत्तर प्रदेश में सरकार बनने और उसके मंत्रियों के छत्तीसगढ़ के ताबड़तोड़ दौरों से पैदा हुआ था। इनका बड़बोलापन अब खुलकर सामने आ चुका है। बसपा ने राज्य में खुद को तीसरी ताकत के रूप में प्रचारित किया। उसके नेता दावा करते रहे कि बसपा के सहयोग के बिना कोई सरकार नहीं बन सकती। लेकिन वक्त के साथ उनके दावे खोखले साबित हुए।
उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग की कामयाबी से उत्साहित बसपा के पांव इस बार जमीं पर नहीं थे। उसके दो मंत्रियों लालजी वर्मा और अनंतकुमार मिश्र ने तो राज्य में काफी समय दिया। बसपा ने उप्र की तर्ज पर इस बार छत्तीसगढ़ में अपनी सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाते हुए टिकट बांटे पर यह कवायद बहुत कामयाब नहीं रही। बसपा के पास हालांकि खोने के लिए कुछ भी मौजूद नहीं था और वह अपनी ताकत को वोटों के लिहाज से बढ़ा ले गयी। इस बार (2008) के विधानसभा चुनावों में बसपा को दो सीटें और 6.11 प्रतिशत वोट मिले। 2003 के विधानसभा चुनावों में बसपा को 4.45 प्रतिशत वोट और दो सीटें मिली थीं। बसपा इस बात से संतोष कर सकती है उसकी सीटें भले ही न बढीं हों पर उसके वोट प्रतिशत में वृद्धि हुयी है।
सबसे ज्यादा नुकसान में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी रही जिसे इस बार कांग्रेस से समझौते में तीन सीटें मिली थीं। जबकि यह तीनों सीटें वह हार गयी। उसके प्रदेश अध्यक्ष और चंद्रपुर से विधायक रहे नोबेल वर्मा अपनी परंपरागत सीट पर भाजपा दिग्गज दिलीप सिंह जूदेव के बेटे युद्धवीर सिंह के मुकाबले चुनाव हार गए। उल्लेखनीय है कि कभी नोबेल वर्मा के पिता स्व. भवानीलाल वर्मा ने दिलीप सिंह जूदेव को जांजगीर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हराया था। राकांपा वैसे भी विद्याचरण शुक्ल की कांग्रेस से बगावत के चलते पैदा हुयी पार्टी थी। पिछले विधानसभा चुनाव (2003) में राकांपा को राज्य में 7.02 प्रतिशत वोट मिले थे और एक सीट भी मिली थी। 2003 के चुनावों में राकांपा का नेतृत्व वीसी शुक्ल और अरविंद नेताम जैसे कांग्रेस दिग्गजों के हाथ में था। अब ये दोनों नेता वाया भाजपा , कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। जाहिर तौर पर राकांपा के साथ यही होना था। राकांपा के वोट इस चुनाव में सात प्रतिशत से घटकर मात्र 0.52 प्रतिशत रह गया। यह राकांपा के लिए ऐसा झटका था कि पिछले चुनाव में तीसरी मुख्य पार्टी बनकर उभरी राकांपा कहीं की नहीं रही। कांग्रेस से समझौता भी उसका खाता नहीं खोल सका। भाकपा का भी लगभग यही हाल रहा, वह दंतेवाड़ा सीट छोड़कर कहीं अपनी मौजूदगी भी नहीं जता सकी। उसे राज्य में इस चुनाव में सिर्फ 1.18 प्रतिशत वोट नसीब हुए।
इसके अलावा दूसरे तमाम दल समाजवादी पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, छत्तीसगढ़ विकास पार्टी, भारतीय जनशक्ति पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा जैसी पार्टियां तो अपनी जमानत भी नहीं बचा सकीं। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हीरासिंह मरकाम 1998 में अपनी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में तानाखार से चुनाव जीते थे। किंतु पिछले दो चुनावों से उन्हें लगातार मात मिल रही है। इसी तरह छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने भी 1985 और 1993 के दो विधानसभा चुनावों में डौंडीलोहारा क्षेत्र से सफलता पायी थी, इस दल की तरफ से जनकलाल ठाकुर दो बार विधानसभा पहुंचे थे। तबसे इस पार्टी को भी अपना खाता खुलने का इंतजार है। कुल मिलाकर तीसरी शक्तियों के लिए छत्तीसगढ़ की जमीन बहुत उपजाऊ नहीं कही जा सकती। हां अजूबे यहां जरूर होते रहे हैं वरना छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से जनकलाल ठाकुर, गोंगपा से हीरा सिंह मरकाम या कभी माधवराव सिंधिया द्वारा बनाई गई पार्टी मध्यप्रदेश विकास पार्टी से महेंद्र कर्मा बस्तर लोकसभा का चुनाव न जीतते। आज के हालात में तो कोई चमत्कार ही तीसरी ताकतों की किस्मत खोल सकता है, फिलहाल तो का पूरा मैदान कांग्रेस और भाजपा के बीच ही बंटा हुआ है।
अच्छा विश्लेशण
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने तीसरी शक्ति का सपना साकार होने में समय लगेगा
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