सोमवार, 29 सितंबर 2014

सार्वजनिक जीवन से शुचिता के निर्वासन का समय

-संजय द्विवेदी


    तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का जेल जाना एक ऐसी सूचना है जो कानून के प्रति आदर बढ़ाती है। यह बात बताती है कि आप कितने भी शक्तिमान हों, कानून की नजर में आ जाने पर आपका बचना मुश्किल है। एक सक्षम प्रशासक, जनप्रिय राजनेता और प्रभावी हस्ती होने के बावजूद जयललिता को जेल जाना पड़ा। उन पर सौ करोड़ रूपए का जुर्माना भी लगाया गया है। कानून की यह ताकत ही किसी भी लोकतंत्र का प्राणतत्व है। झारखंड के मुख्यमंत्री रहे मधु कौडा, शिबू सोरेन, बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव,कांग्रेस नेता रशीद मसूद, सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत राय, संत आशाराम बापू जैसे तमाम उदाहरण हमारे आसपास दिखते हैं, जिसमें कानून ने अपनी शक्ति और निष्पक्षता का अहसास कराया है। ताकतवर लोग आज भले जेल के सीकचों के पीछे दिखते हैं किंतु इससे यह कहा नहीं जा सकता कि ये सिलसिला रूक जाएगा। हमारे राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन की मजबूरियां और वातावरण भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भ्रष्ट आचरण के लिए विवश कर रहा है। ऐसे में हमें उन विचारों की तरफ बढ़ना चाहिए जिससे राजनीति में धन का महत्व कम हो और सेवा के मूल्य स्थापित हों। वर्तमान व्यवस्था में तो राजनेताओं से शुचिता, सादगी की अपेक्षा करना संभव नहीं है।

मदांध आचरण का फलितार्थः
   यह घटना सार्वजनिक जीवन में काम करने वाली हस्तियों के लिए एक संदेश भी है कि सत्ता और प्रभाव के नशे में चूर होकर मदांध आचरण कभी भी आपको आपकी सही जगह पहुंचा सकता है। देर के बावजूद कानून के राज में अंधेर नहीं है। चीजें पुख्ता होकर आपके खिलाफ खड़ी हो ही जाती हैं। कहा भी जाता है कि सत्ता पाए केहि मद नहीं।सत्ता और प्रशासन में बड़े पदों पर बैठे लोग जिस तरह मदांध होकर आचरण करते हैं,कानूनों को अपने हिसाब से बनाते और इस्तेमाल करते हैं उससे बड़ा खतरा खड़ा होता है। जयललिता मुख्यमंत्री के रूप में सरकारी खजाने से मात्र एक रूपए वेतन लेती थीं, किंतु उनका निजी खजाना बढ़ता ही रहा । ऐसी सूचनाएं विस्मित भी करती हैं और ऐसी ईमानदारी को प्रश्नांकित भी करती हैं। एक प्रशासक और लोकप्रिय नेता के रूप में आज भी अपने समर्थकों के लिए वे पूज्य हैं। किंतु निजी ईमानदारी का सवाल आज सबसे बड़ा है। जनता के बीच उनकी छवि उन्हें एक लोकनेता से ईश्वर का अवतार तक बनाती हुयी दिखती है। यह उनके समर्थकों का अधिकार भी है। किंतु यहां यह देखना होगा कि सत्ता का दुरूपयोग करते हुए हमारे राजनेता किस तरह सार्वजनिक धन को निजी संपत्ति में बदलने की प्रतियोगिता में लगे हैं। इस मामले में शशिकला और मुख्यमंत्री के परित्यक्त दत्तक पुत्र को चार साल की कैद और दस-दस करोड़ का जुर्माना लगाया गया है।यह बात बताती है किस तरह मुख्यमंत्री के आसपास रहे लोगों ने भी जमकर पैसे की बंदरबांट की है या जयललिता के पद पर होने का लाभ उठाया है। राजनीतिक क्षेत्र की यह आम कथा है कि लोग पहले नेता पर पैसे लगाते हैं फिर उसके सफल होने पर उसके  प्रभाव का जमकर लाभ उठाते हुए जायज-नाजायज तरीकों से धन का अर्जन करते हैं। देश भर से सार्वजनिक धन, जमीनों, खदानों, दूकानों, मकानों और उद्योगों के लूट की कहानियां आ रही हैं। किंतु सिलसिला रूकने के बजाए तेज हो रहा है।

पैसे की प्रकट पिपासाः
कभी सार्वजनिक जीवन में आने वाले लोग मस्तमौला, बिंदास और साधारण जीवन जीने वाले लोग होते थे। उनके जीवन की सादगी से कार्यकर्ता प्रेरित होते थे और उनसा बनने-दिखने का प्रयास करते थे। महात्मा गांधी ने सादगी को भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में स्थापित किया तो कांग्रेस के विरोधी विचारों के नेता राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय जैसे तमाम लोग भी इसे स्वीकारते दिखे। कांग्रेसी, समाजवादी, साम्यवादी, जनसंध की हर धारा के नायक सादगी और सज्जनता की प्रतिमूर्ति थे। उनके सार्वजनिक और निजी जीवन में सादगी का प्रगटीकरण दिखता है। बहुत बड़े और धनी परिवारों से आए राजनेता भी सादगी में लिपटे होते थे। खद्दर के साधारण कपड़े उनकी पहचान बन जाते थे, सेवा ही उनका काम। राजनीति से यह सादगी आज लुप्त होती दिखती है। नेताओं का वैभव बढ़ने लगा और उनकी संपत्ति भी। सार्वजनिक धन को निजी धन में तब्दील करने की यह स्पर्धा आज चरम पर है। खासकर उदारीकरण के बाद के दौर में राजनीतिक क्षेत्र में विकृति के किस्से आम होने लगे। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और विचारक राजनेता पं.द्वारिका प्रसाद मिश्र कहा करते थे कि जिस व्यक्ति को राजनीति करनी हो उसे व्यापार नहीं करना चाहिए और जिसे व्यापार करना हो उसे राजनीति नहीं करनी चाहिए।किंतु में एक ऐसी पीढ़ी आयी जिसके लिए राजनीति ही एक व्यापार बन गयी। आज सौ-हजार करोड़ जमा करने की प्रतियोगिता में ज्यादातर राजनेता शामिल हैं। उनकी नामी-बेनामी सपत्तियां बढ़ती जा रही हैं, शर्म घटती जा रही है। पैसे बांटकर चुनाव जीतने की स्पर्धा चरम पर है। वोटबैंक इसमें उनका मददगार बनता है।

महंगी होती राजनीतिः

 सार्वजनिक जीवन से यह सादगी और शुचिता के निर्वासन का समय है। महंगी होती राजनीति, महंगे होते चुनाव आज की एक बड़ी चुनौती हैं। किसी पद पर न रहने वाले राजनेता के लिए रोजाना की राजनीति का खर्च भी निकालना कठिन है। बड़ी गाड़ियां, रोजाना के खर्च, खुद को बाजार में बनाए रखने के लिए चमकते फ्लैक्स और अखबारी विज्ञापन की राजनीति कष्टसाध्य है। आज की राजनीति में पैसे का बढ़ता महत्व चिंता में डालता है। राजनीति के शिखरपुरूषों का आज बेदाग रहना कठिन है।पार्टियों के संचालन में लगने वाला खर्च बताता है कि चीजें साधारण नहीं रह गयी हैं।लोकतंत्र की मंडी में राजनीति अब साधारण नहीं है। आप देखें तो राज्यों का नेतृत्व तमाम आरोपों से घिरा है। स्थानीय और छोटी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं पर ऐसे आरोप ज्यादा दिखते हैं। क्या कारण है टिकट से लेकर वोट भी खरीदे और बेचे जाते हैं। राजनीति की यह अवस्था चिंता में डालती है। जब हमारे नायक ही ऐसे होंगें तो वे समाज को क्या प्रेरणा देंगें। वे देश में शुचिता की राजनीति को कैसे स्थापित करेंगें? मधु कौड़ा से लेकर लालू यादव और जयललिता तक एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। सवाल यह भी है कि क्या बिना पैसे के राजनीति की जा सकती है। सवाल यह भी है कि काले पैसे से बनता और सृजित होता लोकतंत्र कैसे वास्तविक जनाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कर सकता है?

प्रधानमंत्री के सपनों की दुनियाः मेक इन इंडिया

-संजय द्विवेदी


   प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मेकइन इंडिया की योजना का शुभारंभ करते हुए एक ऐसे भारत का सपना देखा है, जिसमें रोजगार सृजन की अभूतपूर्व संभावनाएं अर्जित की जा सकती हैं। यह एक ऐसी योजना है जो एक नौजवान देश के हाथों को काम दे सकती है और व्यापार तथा उद्योग के क्षेत्र में देश एक लंबी छलांग लगा सकता है।
  इस अभियान के दो खास उद्देश्य हैं, जिसमें देश के युवाओं को काम उपलब्ध कराना तथा वैश्विक उद्योग जगत का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना है। देश में मैनुफैक्चरिंग यानी विनिर्माण क्षेत्र को एक नई उंचाई की ओर ले जाना इस योजना का लक्ष्य है। इसके नतीजे निश्चित रूप से भारतीय उद्योग को एक नई उर्जा से भर देगें। दुनिया भर के बाजारों में आ रही मंदी के दौर के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था की गति और प्रगति बनी हुयी है। मेकइन इंडिया इसे और प्रखर बनाएगा। भारत की संभावनाओं और उसमें छिपे अवसरों का अभी पूरी तरह प्रगटीकरण नहीं हुआ है। दुनिया में सर्वाधिक युवा आबादी का देश होने के नाते हर तरह के काम कर सकने वाली श्रमशक्ति हमारे पास मौजूद है। इसीलिए हमारे प्रधानमंत्री मेकइन इंडिया के साथ-साथ ही स्किल डेवलेपमेंट यानि कौशल विकास की बात भी कर रहे हैं। तमाम तरह के कौशल से युक्त नौजवान आज अपने सपनों में रंग भर सकता है। जब उसके सामने अवसर होंगें तो वह उन उपलब्ध अवसरों को प्राप्त करते हुए देश की प्रगति में अपना योगदान दे सकता है। एक ठहरी हुए प्रगति के बजाए छलांग लगाकर आगे बढ़ने की भावना इससे बलवती हो सकती है।
    मेकइन इंडिया के चलते देश में कारोबारी माहौल में खासा बदलाव आएगा और दुनिया भर के निवेशक हमारी ओर आकर्षित होंगें। निवेशकों के अनूकूल वातावरण बनाना और उन्हें पल-पल होती कठिनाइयों से निजात दिलाकर उनके काम में सहयोगी माहौल देना भी इस योजना के लक्ष्य हैं। जाहिर तौर पर सरकार ने मेकइन इंडिया को प्रारंभ करने से पहले इस योजना के लक्ष्यों और इसके रास्ते आने वाली कठिनाईयों पर भी सोचा है। चिंतन किया है। यह योजना सिर्फ एक नारा नहीं है, बल्कि नए भारत का नया नजरिया भी है। जिसमें एक विकास दृष्टि तो है ही साथ ही अपने युवाओं को प्रशिक्षित कर एक नया वातावरण देने की तैयारी भी है। प्रधानमंत्री का कारोबारियों से यह वादा करना साधारण नहीं है कि वे उनका पैसा डूबने नहीं देगें। यह धोषणा निश्चय ही कारोबारियों और निवेशकों का हौसला बढ़ाती है। लालफीताशाही को कम करने, कर ढांचे को सरल बनाने की निरंतर कोशिशें बताती है कि केंद्र सरकार अपने सपनों को सच करने की दिशा में प्रयास कर रही है।
   तमाम कठिनाईयों के चलते आज देश के बड़े उद्यमी भी दुनिया के तमाम देशों में निवेश कर रहे हैं। अप्रवासी भारतीय भी जो आज उद्यमिता की दुनिया में बड़ा नाम बना चुके हैं, लालफीता शाही के चलते स्वदेश में निवेश से घबराते हैं। प्रधानमंत्री इस समुदाय की चिंताओं को समझते हुए निरंतर एक सकारात्मक वातावरण बनाने के प्रयास कर रहे हैं। अमरीका में भी भारत वंशियों से संवाद करते हुए उन्होंने यह आह्वान किया कि उनका एक पैर भारत में भी होना चाहिए। यह सिर्फ अपनी जड़ों से जुड़े रहने का आह्वान भर नहीं है बल्कि देश की प्रगति में भारतवंशियों की भागीदारी सुनिश्चित करने की अपील भी है। प्रधानमंत्री स्वयं मानते हैं कि तमाम पुराने पड़ चुके कानून अब अप्रासंगिक हो चुके हैं। अप्रवासी भारतीयों, विदेशी पर्यटकों और निवेशकों को आकर्षित करने वाली नीतियों से ही आने वाला भारत खुशहाल हो सकता है। इसीलिए वे भारतीय की संभावनाओं से पूरी दुनिया को परिचित करवा रहे हैं।
   तमाम देशों में उनका भ्रमण और अन्य नेताओं का भारत आना एक नए तरह के संवाद को जन्म दे रहा है। जिससे एक आत्मविश्वास और भविष्य की ओर देखते भारत का चेहरा सामने आ रहा है। मेकइन इंडिया एक नारा नहीं सरकार और जनता का सामूहिक संकल्प है। देश की चौतरफा प्रगति के सपने देख रहे लोगों और युवाओं को विकास की धारा से जोड़ने और उनकी क्षमताओं का प्रदर्शन भी इसमें जुड़ा है। आज देश में लघु और मध्यम उद्योगों की विकास दर लगभग दस प्रतिशत है। इसमें रोजगार की अपार संभावनाएं छिपी हैं। करीब आठ करोड़ लोग अपनी आजीवका इनसे प्राप्त करते हैं। मेकइन इंडिया के माध्यम से मैनुफैक्चरिंग उद्योगों का खासा विकास हो सकता है और रोजगार सृजन की अपार संभावनाएं पैदा हो सकती हैं।
    मेकइन इंडिया का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा था कि पूरी दुनिया को भारत एक बहुत बड़ा बाजार नजर आता है,लेकिन जब तक यहां के लोगों की क्रय शक्ति नहीं बढ़ेगी, बाजार बन नहीं सकता। प्रधानमंत्री की चिंता में वे लोग हैं जो गरीबी और मुफलिसी में जिंदगी गुजार रहे हैं। उनके जीवन स्तर को उठाना, उनका कौशल विकास कर उन्हें काम में लगाना उनकी चिंता का हिस्सा है। एक समर्थ भारत बनाने के उनके सपनों में सही मायने में अंतिम व्यक्ति का उत्थान ही निहित है। आखिरी आदमी को ताकत दिए बिना हम विश्व शक्ति नहीं बन सकते प्रधानमंत्री इस बात को बार-बार रेखांकित करते हैं। मेकइन इंडिया उसी उजले और समर्थ भारत का एक चेहरा बन सकता है, जिसका सपना हम भारत के लोग देख रहे हैं। सही मायने में यह अभियान, विकास की दिशा में भारत सरकार का एक महत्वाकांक्षी कदम है, जो जनसहभागिता से निश्चित ही अपने लक्ष्यों को हासिल कर सकेगा।



बुधवार, 17 सितंबर 2014

राजनाथ को सराहौं या सराहौं आदित्यनाथ को!






-संजय द्विवेदी
  भारतीय जनता पार्टी में लंबे समय से एक चीज मुझे बहुत चुभती रही है कि आखिर एक ही दल के लोगों को अलग-अलग सुर में बोलने की जरूरत क्या है? क्यों वे एक सा व्यवहार और एक सी वाणी नहीं बोल सकते? माना कि कुछ मुद्दों पर बोल नहीं सकते तो क्या चुप भी नहीं रह सकते? एक जिम्मेदार पार्टी की तरह आचरण क्या बहुत जरूरी नहीं है?
     ऐसे समय में जब देश में एक राजनीतिक शून्य है। कांग्रेस, माकपा, भाकपा और बसपा जैसे राष्ट्रीय दल अपने सबसे बुरे अंजाम तक पहुंच चुके हैं, क्योंकि संसदीय राजनीति में संख्याबल का विशेष महत्व है। भाजपा जैसे दल जिसे देश की जनता ने अभूतपूर्व बहुमत देकर दिल्ली की सत्ता दी है, उसके नायकों का आचरण आज संदेह से परे नहीं है। आचरण व्यक्तिगत शुचिता और पैसे न लेने से ही साबित नहीं होता। वाणी भी उसमें एक बड़ा कारक है। पिछले दिनों में घटी दो घटनाओं ने यह संकेत किए हैं कि अभी भी भाजपा और उसके समविचारी संगठनों को ज्यादा जिम्मेदारी दिखाने की जरूरत है। पहली घटना लव जेहाद पर बनाए गए वातावरण की है, दूसरी छोटी किंतु उल्लेखनीय घटना उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जवाहर लाल कौल के खिलाफ प्रदर्शन से जुड़ी है, जिसके बाद उन्हें आईसीयू में भर्ती कराना पड़ा।
    पहले लव जेहाद का प्रसंग। अपने सौ दिनों के कामकाज को प्रेस से बताते हुए केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि वे नहीं जानते कि लव जेहाद क्या है। माना जा सकता है कि उन्हें नहीं पता कि लव जेहाद क्या है। किंतु उन्हें अपने सांसदों आदित्यनाथ और साक्षी महाराज जैसे लोगों को नियंत्रित करना चाहिए कि पहले वे गृहमंत्री और पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते पता कर लें लव जेहाद क्या है। तब ये संत-सांसद अपने विचार जनता के सामने रखें। आखिर आपने जनता को क्या समझ रखा है? एक तरफ आपके सांसद और कार्यकर्ता लव जेहाद को लेकर जनता के बीच जा रहे हैं तो दूसरी ओर पार्टी और सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों की यह मासूम अदा कि वे इसे जानते ही नहीं चिंता में डालने वाली है। यह बात बताती है कि संगठन में या तो गहरी संवादहीनता है या आजादी जरूरत से ज्यादा है। भाजपा के कुछ समर्थकों को अगर लगता है कि लव जेहाद देश के सामने बहुत बड़ा खतरा है तो पूरी पार्टी और सरकार को तथ्यों के साथ सामने आना चाहिए और ऐसी वृत्ति पर रोक लगाने के लिए कड़े कदम उठाने चाहिए। क्योंकि धोखा और फरेब देकर स्त्रियों के खिलाफ अगर जधन्य अपराध हो रहे हैं जिस पर दल के सांसद और कार्यकर्ता चिंतित हैं तो यह बात उसी दल के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और अब गृहमंत्री की चिंताओं में क्यों नहीं होनी चाहिए? आपको तय करना पड़ेगा कि आखिर इस मामले का आप समाधान चाहते हैं, स्त्री की सुरक्षा चाहते हैं या यह मामला सिर्फ राजनीतिक लाभ और धुव्रीकरण की राजनीति का एक हिस्सा है। केंद्रीय सत्ता में होने के नाते अब, आरोप लगाकर भाग जाने वाला आपका रवैया नहीं चलेगा। दूसरे सामाजिक संगठन लव जेहाद के विषय पर सामने आ रहे हैं यह उनकी आजादी भी है कि वे आएं और प्रश्न करें। किंतु देश का एक जिम्मेदार राजनीतिक दल, केद्रीय गृहमंत्री और उनके सांसदों को किसी विषय पर अलग-अलग बातें करने की आजादी नहीं दी जा सकती। झारखंड के तारा शाहदेव के मामले के बाद अखबारों और टीवी मीडिया में तमाम मामले सामने आए हैं, तमाम पीड़ित महिलाएं सामने आयी हैं। जिससे इस विषय की गंभीरता का पता चलता है। यह साधारण मामला इसलिए भी नहीं है क्योंकि स्वयं सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी इस विषय पर अपनी बात कही। संघ के मुखपत्र पांचजन्य और आर्गनाइजर ने इसी विषय पर अपनी आवरण कथा छापी है। ऐसे में गृहमंत्री का वक्तव्य आश्चर्य में डालता है। ऐसे में सरकार को, भाजपा संगठन को अपना रूख साफ करना चाहिए कि वह इस विषय पर अपनी क्या राय रखते हैं।
  दूसरा विषय कश्मीर से जुड़ा है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने जिस तत्परता से कश्मीर पर आए संकट में आगे बढ़कर मदद के हाथ बढ़ाए,अपनी संवेदना का प्रदर्शन किया। उसकी सारे देश में और सीमापार से भी सराहना मिली। एक राष्ट्रीय नेता की तरह उनका और उनकी सरकार का आचरण निश्चय ही सराहना योग्य है। स्वयं प्रधानमंत्री और उनके दिग्गज मंत्रियों राजनाथ सिंह, स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन, डा. जितेंद्र सिंह ने जिस तरह तुरंत पहुंच कर वहां राहत की व्यवस्थाएं सुनिश्चत कीं, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। यही इस देश की शक्ति है कि वह संकट में एक साथ खड़ा हो जाता है। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार द्वारा पैदा की गयी इसी राष्ट्रीय संवेदना का विस्तार हमें उज्जैन में देखने को मिला, जहां विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.जवाहरलाल कौल की कश्मीरी छात्रों की मदद करने की अपील उन पर भारी पड़ गयी और वे अस्पताल पहुंच गए। यह घोर संवेदनहीनता का मामला है जहां एक कुलपति और विद्वान प्रोफेसर को बजरंग दल और विहिप कार्यकर्ताओं के गुस्से का शिकार होना पड़ा। डा. कौल जेएनयू में प्रोफेसर रहे हैं और जाने-माने विद्वान हैं। वे स्वंय काश्मीरी हैं। उनका यह बयान काश्मीरी होने के नाते नहीं, एक मनुष्य होने के नाते बहुत महत्वपूर्ण था। उन्होंने अपने बयान में कहा था कि विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले काश्मीरी विद्यार्थियों को उनके मकान मालिक बाढ़ आपदा के चलते कुछ महीनों के लिए किराए में रियायत दें और उन्हें तत्काल किराया देने के लिए बाध्य न करें। क्या ऐसा संवेदनशील बयान किसी तरह की आलोचना का कारण बन सकता है। जबकि देश के अनेक हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठन स्वयं काश्मीर के सैलाब पीड़ितों के निरंतर मदद हेतु अभियान चला रहे हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री और संघ परिवार के संगठन राहत के लिए काम कर रहे हैं। भारतीय सेना और सरकारी संसाधन जम्मू-कश्मीर में झोंक रखे हैं। ऐसी मानवीय आपदा के समय ऐसी सूचनाएं आहत करती हैं। उज्जैन की यह घटना समूचे संगठन की समझ पर तो सवाल उठाती ही है, घटना के बाद नेताओं की चुप्पी भी खतरनाक है। क्या एक शिक्षा परिसर में इस प्रकार की गुंडागर्दी की आजादी किसी को दी जानी चाहिए कि वह कुलपति कार्यालय में घुसकर न सिर्फ तोड़ फोड़ करें बल्कि इस अभ्रदता से आहत कुलपति को आईसीयू में भर्ती करना पड़े। सरकार को चाहिए कि ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों के खिलाफ न सिर्फ कड़ी कार्रवाई हो बल्कि उन्हें संगठन से बाहर का रास्ता भी दिखाना चाहिए। एक व्यापक मानवीय त्रासदी पर, जब मनुष्य मात्र को उसके खिलाफ लड़ने के लिए एकजुट होना चाहिए तब ऐसी सूचनाएं बताती हैं कि हमारे राजनीतिक समाज को अभी सांस्कृतिक साक्षरता लेने की जरूरत है। कर्म और वाणी का अंतर ही ऐसी घटनाओं के मूल में है। नरेंद्र मोदी के सपनों का भारत इस रवैये से नहीं बन सकता, तय मानिए।
(लेखक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं, विचार निजी तौर व्यक्त किए गए हैं)

     

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

सांप्रदायिकता से कौन लड़ना चाहता है?

यह सवाल आज फिर मौजूं हो उठा है कि आखिर सांप्रदायिकता से कौन लड़ना चाहता है? देश के तमाम इलाकों में घट रही घटनाएं बताती हैं कि समाज में नैतिकता और समझदारी के बीज अभी और बोने हैं। हिंसा कर रहे समूह, या हिंसक विचारों को फैला रहे गुट आखिर यह हिंसा किसके खिलाफ कर रहे हैं? वे किसके खिलाफ लड़ रहे हैं? मानवता के मूल्यों और धार्मिकता को भूलने से ही ऐसे मामले खड़े होते हैं। कभी देश की राजनीति को दिशा देने वाले उत्तर प्रदेश ने अपना चेहरा इस मामले में सबसे अधिक बदरंग किया है। 
उत्तर प्रदेश में आए दिन हो रही हिंसक वारदातें बता रही हैं कि लोगों में कानून का, प्रशासन का खौफ नहीं रह गया है। दुर्भाग्य यह कि राजसत्ता ही इन वृत्तियों को बढ़ाने में सहायक बन रही है। राजसत्ता का यह चरित्र बताता है कि कैसे समय बदला है और कैसे राजनीति बदल रही है। एक चुनाव से दूसरा चुनाव और एक उपचुनाव से दूसरा उपचुनाव यही आज की राजनीति के लक्ष्य और संधान हैं। इसमें जनता की गोलबंदी जनता के एजेंडे पर नहीं, उसके विरूद्ध की जा रही है। जनता को यह नहीं बताया जा रहा है कि आखिर उसके सपनों की दुनिया कैसे बनेगी, कैसे भारत को एक समर्थ देश के रूप में तब्दील किया जा सकता है? उसे पंथ के नारों पर भड़काकर, उसके धर्म से विलग किया जा रहा है। यह वोट बैंक बनाने की राजनीति इस राष्ट्र की सबसे बड़ी शत्रु है।
बांटो और राज करोः
  अंग्रेजी राज ने हमें कुछ सिखाया हो या न सिखाया हो, बांटना जरूर सिखा दिया है। ‘एक राष्ट्र और एक जन’ के भाव से विलग हम एक राष्ट्र में कितने राष्ट्र बनाना चाहते हैं? देश की आम जनता के मनोभावों को विकृत कर हम उनमें विभेद क्यों भरना चाहते हैं? क्या हमारी कुर्सियों की कीमत इस देश की एकता से बड़ी है? क्या हमारी राजनीति लोगों के लिए नहीं, कुर्सियों के लिए होगी? ऐसे तमाम सवाल हैं जो हमारे समाज को मथ रहे हैं। हम एक परिवार और एक माता के पुत्र हैं, यही भावना हमें बचा सकती है। 
हम भारत के लोग अपनी एकता और अखंडता के लिए जब तक कृतसंकल्पित हैं, तभी तक यह देश सुरक्षित है। यह कैसा समय है कि हमारे नौजवान खून बहाते ईराकी लड़ाकों की मदद के लिए निकल जाते हैं? क्या हमारी मातृभूमि अब खून बहाने वाले हत्यारों को जन्म देगी? हमें सोचना होगा कि आखिर यह जूनुन हमारे समाज को कहां ले जाएगा? गौतम बुद्ध,गांधी और महावीर के देश में यह कैसा जहर पल रहा है। हमने दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाया है। अपने भारतीय दर्शन में सबके लिए जगह दी है। विरोधी विचारों को भी स्वीकारा और अंगीकार किया है। आखिर क्या कारण है कि यह आतंक, हिंसा और तमाम तरह की दुश्चितांएं हमारे देश को ग्रहण लगा रही हैं?
एक राष्ट्र-एक जन का भाव जगाएः
 हमारी आज की राजनीति भले फूट डालने वाली हो, किंतु हमारे नायक हमें जोड़ना सिखाते हैं। महात्मा गांधी, डा. राममनोहर लोहिया से लेकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सिखाए पाठ हमें बताते हैं कि किस तरह हम एक मां के पुत्र हैं। किस रास्ते से हम दुनिया के सामने एक वैकल्पिक और शांतिपूर्ण समाज का दर्शन दे सकते हैं। हमें ये नायक बताते हैं कि हमारी जड़ों और उसकी पहचान से ही हमें यह अवसर मिलेगा कि हम कैसे खुद को एक नई यात्रा पर डाल सकें। दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवदर्शन, इसी की बात करता है। वे भारत राष्ट्र की संकल्पना करते हुए ‘एक राष्ट्र -एक जन’ की बात करते हैं। यह बहुत गहरी बात है। जब हम सब एक मां के बेटे हैं, एक मां के पुत्र हैं। तो हम सब भाई-बहन हैं। हमारे पुरखे, हमारे नायक, हमारी आकांक्षाएं, हमारे सपने समान हैं। अगर हम यह मान लें तो सांप्रदायिकता की समस्या का अंत तुरंत हो जाएगा। किंतु सांप्रदायिक सवालों पर हम चयनित दृष्टिकोण अपनाते हैं। हमें यह मानने में आज भी हिचक है कि सांप्रदायिकता-सांप्रदायिकता है, उसका रंग अलग-अलग नहीं होता। सांप्रदायिकता मुस्लिम हो या हिंदू, वह सांप्रदायिकता है। दंगाईयों को अलग-अलग रंगों से देखने और व्यवहार करने के कारण सत्ता और राजनीति दोनों प्रश्नांकित होते हैं। 
कानून को अगर अपना काम करने दिया जाए और सांप्रदायिकता फैला रहे तत्वों के साथ कड़ाई से निपटा जाए तो ऐसे घटनाएं रोकी जा सकती हैं। इसके साथ ही हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में यह बात भी जोड़ने की जरूरत है जिससे राष्ट्रवाद और भारतीयता के विचारों को बल मिले। सांप्रदायिकता की भावना को प्रचारित करने और युवाओं का गलत इस्तेमाल करने वाली ताकतों को कड़ाई से कुचल दिया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय संकट पर ही नहीं सामान्य दिनों में भी बनें राष्ट्रवादीः
 भारत का संकट यह है कि हम संकट के दिनों में ही राष्ट्रवादी बनते हुए दिखते हैं। जैसे इस समय कश्मीर गहरे संकट में है, तो पूरा देश उस पीड़ा को महसूस करते हुए उसके दर्द में साथ खड़ा है। यही राष्ट्रीय भावना है, कि देश के किसी भी हिस्से में भारत मां के पुत्र दुखी हैं तो वह दुख हमें भी अनुभव होना चाहिए। उदाहरण के लिए केरल के किसी गांव में यह खबर आती है कि चीनी सैनिकों ने हमारे कुछ भारतीय सैनिकों की हत्या की है तो उस गांव में दुख फैल जाता है। लोग अपनी चर्चाओं में दुख व्यक्त करते हैं। सैनिकों के प्रति श्रद्धांजलि देते हैं। जबकि उन सैनिकों में कोई भी न तो उस गांव का, केरल का या वहां रह रही जातियों का है। किंतु समान दुख, वह सब भी अनुभव करते हैं जो एक उत्तर भारतीय करता है। यही राष्ट्रीय भावना है। दरअसल इसे ही पोषित करने की जरूरत है।
  
यह दुखद है कि हमारे नौजवान ईराक की धर्मांध आतंकी हिंसा को पोषित करने के लिए जा रहे हैं। हमें सोचना होगा कि आखिर हमने अपने इन नौजवानों का पालन-पोषण कैसे किया है। कैसे एक भारतीय किसी दूसरे देश की जमीन पर जाकर निर्दोष बच्चों और महिलाओं को कत्ल को अंजाम देने वाले समूहों के साथ खड़ा हो रहा है? बढ़ती सांप्रदायिकता, सांप्रदायिक विचार हमारी युवा शक्ति को रचना के मार्ग से विरत कर रहे हैं। 

इसलिए वे विध्वंश रच रहे हैं। आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न युवा की पूरी जिंदगी तबाह हो जाती है। उसे कुछ भी हासिल नहीं होता। ऐसी अंधसांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने और खड़ा होने का साहस हमारे समाज को विकसित करना होगा। भारत इस समय बेहद कठिन समय से गुजर रहा है, जब उसके सामने एक उजला भविष्य तो है किंतु उसके उजले भविष्य को ग्रहण लगाने वाली ताकतें भी बहुत सक्रिय हैं। हमें यह कोशिशें तेज करनी होगीं कि राष्ट्रविरोधी विचारों, सांप्रदायिक राजनीति करने वालों और भाई-भाई में मतभेद कर अपनी राजनीति करने वालों की पहचान करें। एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए भारत का अपना विचार हमारे साथ है। हम ही हैं जो दुनिया को उसकी विविधताओं-विभिन्नताओं-विशेषताओं के साथ स्वीकार कर सकते हैं। यह जिम्मेदारी हमने आज नहीं ली तो कल बहुत देर हो जाएगी।

शनिवार, 6 सितंबर 2014

शिक्षा, राजनीति और मोदी



-संजय द्विवेदी
  आप चाहें तो नरेंद्र मोदी के शिक्षक दिवस पर हुए संवाद को एक राजनीतिक एजेंडा मान सकते हैं। बावजूद इसके इस घटना ने भारतीय समाज जीवन को एक आत्मीय सुख से भर दिया है। राजनीति के शिखर पर बैठे नरेंद्र मोदी अगर नई पीढ़ी से संवाद बना रहे हैं, शिक्षक दिवस पर अपने व्यस्ततम समय में से कुछ घंटे निकालकर एक सार्थक संवाद कर रहे हैं तो इसकी सिर्फ सराहना ही हो सकती है। इसे आप दिशावाहक,सकारात्मक राजनीतिक प्रयास कह दें, तो भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। दरअसल देश के नेताओं का आचरण और व्यवहार ऐसा ही होना चाहिए। पं. नेहरू के बाद अपनी भावी पौध से संवाद का साहस अगर मोदी ही कर पा रहे हैं तो आप तय मानिए की सालों की दूरियां उन्होंने पलों में पाट दी हैं। वे एक ऐसे भारत के निर्माण के लिए प्रयासरत हैं, जिसका सपना हमारे नेताओं ने देखा था।
    आज जिस तरह राजनीतिक सिर्फ वोटबैंक को संबोधित करती है। जातीय सम्मेलनों में जाती है, विचारधाराओं और दलों की बंधक है। मोदी इसे शिशुओं-किशोरों के बीच ले जा रहे हैं। वे बता रहे हैं कि देश इनसे भी बनता है और देश में ये भी शामिल हैं। जातीय समारोहों और जाति के सम्मेलनों की शोभा बढ़ाती हमारी राजनीति क्यों नई पीढ़ी से अपनी चिंताएं साझा नहीं करना चाहती? क्यों उनसे बातचीत नहीं होनी चाहिए? किंतु मोदी करते हैं और इसके मायने भी समझते हैं। इसीलिए 15 अगस्त पर वे भाषण पढ़ते नहीं, दिल से बोलते हैं। मंच से बुलेट प्रूफ ग्लास हटाकर सीधा संवाद बनाते हैं, मंच से उतरकर बच्चों के बीच जाते हैं। उनसे मिलते हैं। शिक्षक दिवस के औपचारिक शैली के समारोहों से अलग वे एक ऐसा विमर्श खड़ा कर देते हैं, जिससे एक नया भारत बनाने की तैयारी दिखती है। शिक्षा के सामने, परिसरों के सामने खड़े प्रश्न सामने आते हैं। उनके इस एक अभियान से हमारे शिक्षा मंदिरों की लाचारियां, परेशानियां सामने आयी हैं। डिजीटल भारत के प्रधानमंत्री के सपनों को मुंह चिढ़ाते परिसर इसी देश में मीडिया ने दिखाए जहां न टीवी है, न कंप्यूटर है, न ही बिजली। कई जगह उनका भाषण रेडियो से सुना गया। यह साधारण नहीं है कि एक पूरे दिन शिक्षक दिवस पर मोदी के बहाने, हमारी शिक्षा और शिक्षकों की बुरी हालत पर भी बात हुयी। यह विमर्श कुछ नया रच रहा है। गणतंत्र ऐसे ही संवादों बनता है और समाधान भी निकलते हैं। दिवसों की रस्मअदायगी से, यह आगे की राजनीति है। प्रधानमंत्री इसीलिए शिक्षक दिवस पर भाषण नहीं देते, संवाद करते हैं। बच्चों के सवालों के जवाब देते हैं। इससे लोकतंत्र मजबूत होता है। टेक्नालाजी ने इसे संभव किया है, नरेंद्र मोदी उसे प्रयोग में लाते हैं। वे टेक्नालाजी चपल हैं, मीडिया का इस्तेमाल जानते हैं। संवाद की भाषा जानते हैं। संवाद से सार्थक विमर्श रचना भी जानते हैं। कई मामलों में वे एजेंडा सेट करने वाले राजनेता भी हैं। वे लोगों को अपने एजेंडे पर ले आते हैं।
   वे अच्छे दिनों की बात करते हैं, विरोधी कहते हैं अच्छे दिन कब आएगें। वे कहते हैं कि संवाद होगा,विरोधी कहते हैं नहीं होना चाहिए। कुछ कहते हैं, शाम को नहीं, सुबह होना चाहिए। बाकी कहते हैं कि शिक्षक दिवस नहीं, बाल दिवस पर होना चाहिए। बाकी स्कूलों की बदहाली और बेचारगी का बखान कर रहे हैं। किंतु आप देखें तो इस विमर्श में अपने आप शिक्षा की बदहाली और मोदी केंद्र में आ जाते हैं। मोदी का अपना अंदाज है । वे ड्रम बजाएं, या बांसुरी, गीत गुनगुनाएं या गीता भेंट करें। हर जगह उनका संदेश साफ है। जीवन में उन्हें ऐसे ही गढ़ा है। वे हर मूड में खास हैं। हर अदा में खास हैं। वे जापान में हों, नेपाल में, या भूटान में उनका अंदाज सबसे निराला है। मोदी इसीलिए शिक्षक दिवस पर मोदी सर जैसे ही नजर आए।
    टीवी चैनलों पर हो रही बहसों को देखिए। वे कितनी गलीज हैं। विरोध के लिए विरोध, एक नई शैली है। राजनीति का यह बेसुरा पाठ भी हमें चकित करता है। कुछ लोग इस भाषण के चलते एक दिन में आए खर्च को गिन रहे हैं। जबकि डिजीटल भारत में सुना गया यह भाषण सबसे सस्ता है। क्योंकि प्रधानमंत्री ने एक साथ कितनों को संबोधित किया। जनसभाओं, रैलियों और मजमों में होने वाले खर्च की कीमत में यह काफी कम है। किंतु आलोचना का भी अपना एक बाजार है। आलोचकों के अपने सुख हैं। मीडिया संतुलन से चलता है। संतुलन बनाने के लिए आलोचना अनिवार्य है। सवाल यह उठता है कि क्या हर सवाल पर आलोचना जरूरी है। क्या हम राष्ट्रीय सवालों और गैरराजनीतिक विषयों की आलोचना के बिना नहीं रह सकते है? यहां यह सोचना भी जरूरी है कि क्या स्कूलों की बदहाली के लिए 100 दिन पहले प्रधानमंत्री बने मोदी ही जिम्मेदार हैं? अमेठी में बिजली क्या मोदी के अपनी जापान यात्रा के दौरान ड्रम न  बजाने से आ जाएगी? क्या सत्ता में होने और विपक्ष में होने के मूल्य और सिद्धांत अलग-अलग हैं?
     दस साल लगातार केंद्र की सत्ता में रहे नेता जब महंगाई के खिलाफ, भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते हैं, तो यह दृश्य बहुत रोचक हो जाता है। लेकिन लोकतंत्र इससे ही सुंदर और प्रभावी बनता है। इसीलिए यह देश आलोचना का भी आनंद लेता है। मजे लेता है। झूमता है। किंतु सच को भी समझता और स्वीकार करता है। इस देश का नागरिक टीवी बहसों के सच और सत्य को भी जानता है। वह अब पैनलिस्ट के चेहरे भी पहचानता है और मुंह खोलेंगे तो वे क्या बोलेंगें, यह भी जानता है। जिस देश में मीडिया, पैनलिस्ट, पत्रकार और विश्लेषक इतने चिन्हित हो जाएं तो लोकतंत्र की धड़कनों का पता कैसे चलेगा। इसलिए परिणाम उलट आते हैं। चर्चाओं की दिशा कुछ और जनता की दिशा कुछ और होती है। इसी शिक्षक दिवस पर मोदी के संवाद को लेकर मीडिया के विमर्श और जन विमर्श का अध्ययन कीजिए, परिणाम अलग-अलग आएंगें। मीडिया पर पैनलिस्ट कुछ और कह रहे थे, मोदी के संवाद में शामिल बच्चे कुछ और कह रहे थे। अरसे बाद जनता की धड़कनों को समझने वाला नायक सामने आया है, तो ऐसे अजूबे तो घटते ही रहेंगें। शायद इसीलिए मोदी कहते हैं मैं हेडमास्टर नहीं टास्क मास्टर हूं। अपने हर टास्क में 100 में 100 हासिल करते मोदी तो यही साबित करते हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

रविवार, 31 अगस्त 2014

उच्चशिक्षा का व्यापारीकरण रोकने की जरूरत


-संजय द्विवेदी
  भारतीय समाज में शिक्षा समाज द्वारा पोषित और गुरूजनों द्वारा संचालित रही है। सरकार या राज्य का हस्तक्षेप शिक्षा में कभी नहीं रहा। बदले समय के अनुसार सरकार और राज्य इसे चलाने और पोषित करने लगे। किंतु भावना यही रही कि इसकी स्वायत्ता बनी रहे। शिक्षा का यह बदलता दौर एक नई तरह की समस्याएं लेकर आया है, आज की शिक्षा सरकार से आगे बाजार तक जा पहुंची है। यह शिक्षा समाज के सामाजिक नियंत्रण से मुक्त है और सरकारें भी यहां अपने आपको बेबस पा रही हैं।
   निजी स्कूलों से शुरू ये क्रम अब निजी विश्वविद्यालयों तक फैल गया है। निजी क्षेत्र में शिक्षा का होना बुरा नहीं है किंतु अगर वह समाज में दूरियां बढ़ाने लगे, पैसे का महत्व स्थापित करने लगे और कदाचार को बढ़ाए तो वह बुरी ही है। आजादी के पूर्व और बहुत बाद तक निजी क्षेत्र के तमाम सम्मानित नागरिक, राजनेता और व्यापारी शिक्षा के क्षेत्र के लिए अपना योगदान देते थे। बड़ी-बड़ी संस्थाएं खड़ी करते थे, किंतु सोच में व्यापार नहीं सेवा का भाव होता था। आज जो भी लोग शिक्षा के क्षेत्र में आ रहे हैं वे व्यापार की नियति से आ रहे हैं। उन्हें लगता है कि शिक्षा का क्षेत्र एक बडा लाभ देने वाला क्षेत्र है। व्यापारिक मानसिकता के लोगों की घुसपैठ ने इस पूरे क्षेत्र को गंदा कर दिया है। आज भारत में एक दो नहीं कितने स्तर की शिक्षा है कहा नहीं जा सकता। सरकारी क्षेत्र को व्यापार की और बाजार की ताकतें ध्वस्त करने पर आमादा हैं। राजनीति और प्रशासन इस काम में उनका सहयोगी बना है। नीतियों निजी क्षेत्रों के अनूकूल बनायी जा रही हैं और सरकारी शिक्षा केंद्रों को स्लम में बदल देने की रणनीति अपनायी जा रही है। यह दुखद है कि हमारी सरकारी प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह नष्ट हो चुकी है। माध्यमिक शिक्षा और तकनीकी शिक्षा में भी बाजार के बाजीगर हावी हो चुके हैं और अब नजर उच्च शिक्षा पर है। उच्चशिक्षा में हमारे सरकारी विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम आज भी एक स्तर रखते हैं। उनके बौद्धिक क्षेत्र में योगदान को नकारा नहीं जा सकता। कई विश्वविद्यालय आज भी वैश्विक मानकों पर खरे हैं और बेहतर काम कर रहे हैं। देश की बौद्धिक चेतना और शोधकार्यों को बढ़ाने में उनका एक खास योगदान है। किंतु जाने क्या हुआ है कि सरकारों का अचानक उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत अपने इस विश्वविद्यालयों से मन भर गया। आज वे निजी क्षेत्र को बहुत आशा से निहार रहे हैं। निजी क्षेत्र किस मानसिकता से उच्चशिक्षा के क्षेत्र में आ रहा है, उसके इरादे बहुत साफ हैं। सरकारी विश्वविद्यालयों में अरसे से शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हो रही है। सरकारी कालेज संसाधनों के अभाव में पस्तहाल हैं। दूसरी तरफ नीतियां अपने सरकारी विश्वविद्यालों और कालेजों को ताकतवर बनाने के बजाए निजी क्षेत्र को ताकतवर बनाने की हैं। क्या हम सरकारी उच्चशिक्षा के क्षेत्र को भी सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की तरह जल्दी ही स्लम में नहीं बदल देगें,यह एक बड़ा सवाल है। राजनीतिक घुसपैठ, सब तरह आर्थिक कदाचार, नैतिक पतन के संकट से हमारे विश्वविद्यालय जूझ रहे हैं। उन्हें ताकतवर बनाने के बजाए और बीमार करने वाला इलाज चल रहा है।
शिक्षक लें जिम्मेदारीः
ऐसे कठिन समय में शिक्षकों को आगे आना होगा। अपने कतर्व्य की श्रेष्ठ भूमिका से उन्हें अपने विश्वविद्यालयों और कालेजों को बचाना होगा। अपने प्रयासों से शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ानी होगी ताकि अप्रासंगिक हो रही क्लास रूम टीचिंग के मायने बचे रहें। उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षकों की यह बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपने परिसरों को जीवंत बनाएं और छात्र-अध्यापकों की पुर्नव्याख्या करें। सिर्फ वेतन गिनने और काम के घंटों का हिसाब करने के बजाए वे अपने आपको नई पीढ़ी के निर्माण में झोंक दें। यही एक रास्ता है जो हमें निजी क्षेत्र के चमकीले आकर्षण से बचा सकता है। आज भी व्यक्तिगत योग्यताओं के सवाल पर हमारे विश्वविद्यालय श्रेष्ठतम मानवसंसाधन के केंद्र हैं। किंतु अपने कर्तव्यबोध को जागृत करने और अपना श्रेष्ठ देने की मानसिकता में कमी जरूर आ रही है। ऐसे में हमें देखना होगा कि हम किस अपने लोगों को न्याय दे सकते हैं। संकट यह है कि आज का शिक्षक कक्षा में बैठे छात्र तक भी नहीं पहुंच पा रहा है। उसके उसकी बढ़ती दूरी कई तरह के संकट पैदा कर रही है।
विद्यार्थियों की जीवंत पीढ़ी खड़ी करें शिक्षकः
विश्वविद्यालय परिसरों में राजनीतिक ताकतों का बढ़ता हस्तक्षेप नए तरह के संकट लाता है। शिक्षा की गुणवत्ता इससे प्रभावित हो रही है। इसे बचाना शिक्षकों की ही जिम्मेदारी है। वही अपने छात्रों को न्याय दे सकता है, जीवन के मार्ग दिखा सकता है। आज के समय में युवा और छात्र समुदाय एक गहरे संघर्ष में है। उसके जीवन की चुनौतियों काफी कठिन है। बढ़ती स्पर्धा, निजी क्षेत्रों की कार्यस्थितियां, सामाजिक तनाव और कठिन होती पढ़ाई युवाओं के लिए एक नहीं कई चुनौतियां है। कई तरह की प्राथमिक शिक्षा से गुजर कर आया युवा उच्चशिक्षा में भी भेदभाव का शिकार होता है। भाषा के चलते दूरियां और उपेक्षा है तो स्थानों का भेद भी है। अंग्रेजी के चलते हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों की हीनभावना तो चुनौती है ही। आज के युवा के पास तमाम चमकती हुयी चीजें भी हैं, जो जाहिर है सबकी सब सोना नहीं हैं। उसके संकट हमारे-आपसे बड़े और गहरे हैं। उसके पास ठहरकर सोचने का अवकाश और एकांत भी अनुपस्थित है। मोबाइल और मीडिया के हाहाकारी समय ने उसके स्वतंत्र चिंतन की दुनिया भी छीन ली है। वह सूचनाओं से आक्रांत तो है पर काम की सूचनाएं उससे कोसों दूर हैं। ऐसे कठिन समय में वह एक बेरहम समय से मुकाबला कर रहा है। बताइए उसे इन सवालों के हल कौन बताएगा? जाहिर तौर पर शिक्षा के क्षेत्र को बचाने की जिम्मेदारी आज शिक्षक समुदाय पर है। शिक्षक ही राष्ट्रनिर्माता हैं और इसलिए आज की चुनौतियों से लड़ने तथा अपने विद्यार्थियों को तैयार करने की जिम्मेदारी हमारी ही है। शिक्षक दिवस पर यह संकल्प अध्यापकों व विद्यार्थियों को ही लेना होगा तभी शिक्षा का क्षेत्र नाहक तनावों से बच सकेगा। उम्मीद की जानी कि शिक्षा के व्यापारीकरण के खिलाफ समाज और सरकार भी सर्तक दृष्टि रखेंगी।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

रविवार, 24 अगस्त 2014

इस देश में कौन है हिंदू!



-संजय द्विवेदी
  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत पर इस समय देश की राजनीतिक पार्टियां खासी नाराज हैं। विवाद एक शब्द को लेकर है कि उन्होंने हिंदुस्तान में रहने वालों को हिंदू क्यों कहा। जाहिर तौर पर प्रथम दृष्ट्या यह विवाद सिर्फ शब्दों का मामला नहीं है, यह मामला राजनीति का है और इसकी राजनीतिक व्याख्या का भी है। किंतु हमें यह देखना होगा कि आखिर सरसंघचालक ने क्या कोई नई बात कही है। यह तो वही बात है जो संघ के नेता अपनी स्थापना के साल 1925 से ही कहते आ रहे हैं।
   संघ के लिए हिंदू एक धर्मवाचक प्रयोग नहीं है, वह इसके वृहत्तर सांस्कृतिक अर्थ का ही उपयोग लंबे समय से करता आ रहा है। द्वंद इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि आज संघ का एक पूर्व प्रचारक प्रधानमंत्री के पद पर आसीन है। इसलिए संघ की सामान्य व्यवहार की शब्दावली को भी विवादों में घसीटा जा रहा है। हर देश की एक सांस्कृतिक पहचान और उसके जीवन मूल्य होते हैं। पूजा पद्धति के बदलने से सांस्कृतिक पहचान, जीवन मूल्य और पूर्वज नहीं बदलते। जड़ता नहीं, निरंतर प्रवाह यह भारतीय संस्कृति का उत्स और मूल है। इस भूमि पर रहने वाला,यहां की हवा-पानी में सांस लेने वाला प्रत्येक नागरिक यहां का भूमिपुत्र है। इसे बहुत भावुक होकर ही भारतमाता कहा गया। संभव है कुछ लोगों को भारतमाता का विचार भी पसंद न आए। किंतु घरती और उसके पुत्र, यह एक सांस्कृतिक विचार है। जन्म देने वाली माता के साथ घरती माता और गौ माता यह विचार किसी को अस्वीकार्य हो सकता है,पर यह भारतीय विचार है। इसी तरह संघ की अपनी वैचारिक मान्यताएं हैं। सब इससे सहमत हों या जरूरी नहीं, हिंदू शब्द का इस्तेमाल एक सांस्कृतिक परंपरा, इतिहास के उत्तराधिकारियों के रूप में संघ करता है। इस अर्थ में यह धार्मिक नहीं, एक सांस्कृतिक पद है। तमाम लोगों को इससे आपत्ति भी नहीं रही है। किंतु कुछ को शब्दों के पीछे पड़ने और राजनीति सूंघने का आदत है, वे इसके शिकार भी हैं। मोहन भागवत जो बात कह रहे हैं वह उनके जैसे संघ के करोड़ों समर्थक वर्षों से कह रहे हैं। इस वक्त क्योंकि भाजपा सत्ता में है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं तो यह विचार एक धार्मिक आक्रमण सरीखा दिख रहा है। समस्या यह है कि एक राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी और एक सांस्कृतिक संगठन की सीमाओं को एक कर देखा जा रहा है। दोनों दो कामों के लिए बने और कार्यरत हैं। यहां यह भी समझना होगा भारत का हिंदू राष्ट्र कोई धर्मराज्य नहीं है। यहां सब पंथों को समान रूप से काम करने, अपनी पूजा-उपासना करने की आजादी है। इसलिए मिथ्या भय से वैचारिक आतंक पैदा करने की कोशिशें उचित नहीं कही जा सकती हैं।
  हमें देखना होगा कि क्या भारत जैसा उदार लोकतंत्र पूरी इस्लामिक पट्टी में कहीं मौजूद है। जो दूसरे पंथों से सद्भभाव के साथ रहता हुआ दिखता हो। ईराक के उदाहरण हमारे सामने हैं जहां एक पंथ के पोषित आतंकवाद से पूरा देश तबाह हो चुका है। हिंसा, आतंक के  आधार पर विस्तार करने वाले पंथ या विचार अलग ही होते हैं। उनका काम करने का तरीका दिखता है और आज वे पूरी मानवता के लिए चुनौती हैं। हिंदुत्व का विचार मैं ही के दर्शन को नहीं मानता उसकी सोच है मैं ही नहीं, तू भी । यह एक समन्वयवादी विचार है। जो सबको साथ लेकर चलने और समूची मानवता के कल्याण की बात करता है। सर्वे भवंतु सुखिनः जिसका घोषमंत्र है और वसुधैव कुटुम्बकम् जिसकी प्रेरणा है। जिसके धार्मिक कवि भी कहते हैं- परहित सरिस घरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। ऐसे विचार को अतिवादी कहना और बताना अपराध है। मोहन भागवत इसी भारतीय औदार्य के प्रतिनिधि हैं। वे यह कहना चाह रहे हैं कि उनके लिए भारत की भूमि पर रहने वाला हर नागरिक भारत मां का पुत्र है, उसके अधिकार और कर्तव्य इस घरती के लिए समान हैं। उनकी इस भावना को हिंदू शब्द के आधार पर गलत तरीके से व्याख्यायित करना ठीक नहीं है। आलोचना का,विचार का,विमर्श का स्तर भी क्या है। आप उन्हें हिटलर कह रहे हैं। अपने प्रधानमंत्री को हिटलर कह रहे हैं। इस देश की जनता के अपमान का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। मुस्लिम तुष्टीकरण का मंत्र फेल होने के बावजूद चीजें लौटकर वहीं आ जाती हैं। भागवत के आलोचकों से पूछना चाहिए कि वे उनकी आलोचना क्यों कर रहे हैं। अगर उनका वक्तव्य किसी प्रकार की ताकत नहीं रखता तो उसे नजरंदाज क्यों नहीं करते। किंतु उन्हें पता है भागवत और आरएसएस का भूत दिखाकर शायद वे दो-चार मुस्लिम वोट पा जाएं। आश्चर्य है कि अभी भी आंखों से परदा नहीं हटा है। देश एक नई यात्रा पर निकल पड़ा है और हमारी राजनीति अभी भी उन्हीं मानकों पर खडी राजनीति की रोटियां सेंकना चाहती है।
  क्या हम तटस्थ होकर विषयों का विश्लेषण नहीं कर सकते हैं? क्या हमें देश को जोड़ने के लिए प्रयत्न तेज नहीं करने चाहिए? आखिर हमारी राजनीति और मीडिया का जोर समाज को तोड़ने पर क्यों है? क्यों हम चीजों को संदर्भों से काटकर वातावरण बिगाड़ना चाहते हैं? हमें पता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक हिंदू संगठन है। हमें यह भी पता है कि उसने मुस्लिम समाज से संवाद बनाने के लिए राष्ट्रीय मुस्लिम मंच नामक एक संगठन की स्थापना की है। रिश्तों में जमी बर्फ अब पिधल रही है। मुस्लिम समाज भी अब अलग ढंग से सोच रहा है और बदलते भारत की आकांक्षाओं से साथ खुद को स्थापित कर रहा है। उसकी इन कोशिशों को बढ़ाने और उसका मनोबल बढ़ाने के बजाए राजनीति विभाजनों को गहरा करने के कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहती है। हिंदुस्तान की घरती पर रहने वाले लोगों ने एक साथ अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लडी, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आपातकाल के खिलाफ लड़ाई लड़ी। आरएसएस और जमाते इस्लामी के लोगों ने साथ में मिलकर देश को आपातकाल के काले दिनों से मुक्ति दिलाई। आज उसी आम हिंदुस्तानी ने दस साल के भ्रष्ट शासन से भी मुक्ति दिलाई है। इस बदलाव को गहरे महसूस करने और आम हिंदुस्तानी के सपनों को समझने की जरूरत है। वह एक समर्थ भारत देखना चाहता है। एक वैभवशाली राष्ट्र को देखना चाहता है। काश्मीर से कन्याकुमारी तक सारा हिंदुस्तान इस भूमि के प्रति एक सरीखा भाव रखता है। यह भूमि सबकी साझा है। सबकी मां है। इस विचार से नफरत करने वालों को भी यह भारत मां अपने आंचल में जगह देती है। क्योंकि बेटा बिगड़ जाए तो भी मां की भावनाएं तो बेटे के लिए संवेदना भरी ही होंगीं। मोहन भागवत के बोले एक शब्द पर मत जाईए, उनके भाषण के पूरे संदर्भ को सांस्कृतिक संदर्भ में पढिए तो समस्या दूर हो जाएगी। राजनीतिक और धार्मिक संदर्भ में पढ़िएगा तो समस्या बढ़ जाएगी। किंतु कुछ लोगों को संवाद, सार्थक संवाद और सुसंवाद में नहीं, समस्याओं को बढ़ाने और विवाद को वितंडावाद बनाने में मजा आता है। उन्हें भी इस लोकतंत्र में यह करने की आजादी है। कीजिए ,खूब कीजिए... पर यह मत समझिए कि लोग बहुत नादान हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

बुधवार, 20 अगस्त 2014

जब मोदी कुछ कहते हैं


                      


                       -संजय द्विवेदी
  स्वतंत्रता दिवस के मौके पर नरेंद्र मोदी ने जो कुछ कहा उसने समूचे देश को झकझोरकर रख दिया। लालकिले से अरसे के बाद कोई आवाज सुनाई पड़ी जो देश के जन-मन को अपनी सी लगी। वे मनों को छू रहे थे और उन प्रश्नों पर बात कर रहे थे जिन पर सत्ताधीश कुछ कहने से बचते हैं। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में विकास और सुशासन के अलावा चार बातें खासतौर कहीं जिनमें स्त्री सम्मान व सुरक्षा, किसानों की आत्महत्या और सांप्रदायिक हिंसा के साथ माओवादी आतंकवाद का उल्लेख था।
   जाहिर तौर पर किसी भी प्रधानमंत्री और शासक के लिए ये चुनौती भी है और चुभने वाले सवाल भी हैं। स्त्रियों की सुरक्षा का मामला कभी इतनी बड़ी चुनौती के रूप में नहीं देखा गया किंतु ताजा समय में हो रहे सामूहिक बलात्कारों की घटनाओं ने पूरे समाज की नैतिकता और समझदारी पर सवाल खड़े कर दिए हैं, मोदी ने इसीलिए लोगों से पूछा कि वे अपने लड़कों से भी सवाल करें कि आखिर वे कहां से आ रहे हैं या कहां जा रहे हैं। प्रश्नांकित की जा रही लड़कियों और स्वच्छंद युवकों के प्रश्न उन्होंने पालकों के सामने रखे। जाहिर तौर पर हमारी सामाजिक रचना में ये प्रश्न आज फिर से प्रासंगिक हो उठे हैं। बिगड़ता लिंगानुपात प्रधानमंत्री की चिंताओं में था, वे भूणहत्या पर भी सवाल उठाते नजर आए। यह बात बताती है कि मोदी जमाने की हलचलों और उसकी चिंताओं से वाकिफ हैं। वे जानते हैं जनता के असल दर्द क्या हैं। इसीलिए वे किसानों की आत्महत्या के सवाल को लालकिले इतने पुरजोर तरीके से उठाते हैं। देश की इस विकराल समस्या पर मीडिया भी निगाहें उस तरह नहीं जाती जिस तरह जानी चाहिए। किंतु प्रधानमंत्री ने अपने भाषण को इस विषय को शामिल कर यह बता दिया है कि वे समस्याओं पर परदा डालने के अभ्यासी नहीं हैं वरन् समस्याओं से मुठभेड़ कर उनके हल निकालना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी यहीं लोगों को अपना मुरीद बना लेते हैं। वे माओवादियों का भी आह्वान कर रहे हैं कि बंदूकें छोड़ दें और विकास की धारा में साथ आएं। उन्हें गांव की गरीबी और योजना आयोग की सीमाओं का भान है। वे गरीबों के लिए बैंक में खाता खोलने से लेकर उनके बीमा की बात करते हैं। एक शासक की संवेदना का इससे पता चलता है। उनके विरोधी यह कह सकते हैं कि उनके भाषण में कोई नई बात नहीं हैं। किंतु उनके भाषण में एक आत्मविश्वास, आत्मगौरव और देश के नेता होने का भाव है जो अरसे तक प्रधानमंत्री रहे लोगों में नहीं देखा गया।
   वे खुद को प्रधानमंत्री के बजाए जब प्रधानसेवक कहते हैं और सरकारी तंत्र को झकझोरते हुए जाब और सर्विस के अंतर को बताते हैं तो उनका अभिभावकत्व और भी बड़ा हो जाता है। नरेंद्र मोदी सही मायने में भारत के आमजन के आत्मविश्वास, उसकी रचनाशीलता, उसकी उद्यमिता और कर्मठता के प्रतीक हैं। वे अभिजनों के चुनौती हैं जो भारतीय जनमानस को निकम्मा, काहिल, कामचोर और जाहिल मानने की अंग्रेजी मानसिकता से ग्रस्त हैं। वे आम भारतीयों में श्रमदेव और श्रमदेवियों के दर्शन करने वाले प्रधानमंत्री हैं। वे आम भारतीयों में मन से अवसाद की परतें झाड़कर एक आत्मविश्वास भरना चाहते हैं। इसलिए वे भारतीय युवाओं और लघु उद्यमियों को भरोसे से देखते हैं। वे चाहते हैं कि भारत तमाम उन चीजों का स्वयं निर्माण करे जिनका वह आयात करता है। उद्यमिता को बढ़ाने और भारतीय युवाओं की प्रतिभा का सही और सार्थक इस्तेमाल की प्रेरणा भी वे देते हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी एक शासक की तरह नहीं एक मोटीवेटर, प्रेरक वक्ता और बेहतर कम्युनिकेटर की तरह दिखते हैं जो स्वतंत्रता दिवस के मंच का इस्तेमाल एक औपचारिक भाषण के लिए नहीं करता, बल्कि वह एक अलग दृष्टि पेश करता है और रचनाशीलता का आह्वान करता है। सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ उनकी चिंता आज के एक बड़े चिंताजनक सवाल पर हमारी चिंता से साझा करती है। वे भारत को एक होते और अखंड होते देखना चाहते हैं। उन्हें देश की चुनौतियों का पता है। उन्हें पता है उनसे जनता की उम्मीदें विशाल हैं। वे जानते हैं कि उन्हें किसी परिवार से होने के नाते विशेष सुविधा प्राप्त नहीं है। वे जो कुछ हैं तब तक हैं जब तक जनता के प्रिय हैं। नरेंद्र मोदी सही मायने में किसी की कृपा और चयन के नाते दिल्ली में पहुंचे दिल्लीपति नहीं हैं। वे वास्तव में पहले जनता के दिलों में उतरे, फिर पार्टी ने स्वीकारा और फिर दिल्ली पहुंचे हैं।
   वे सही मायने में लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति के प्रतीक हैं। जिसने उन्हें न सिर्फ उन्हें इतना ताकतवर बनाया बल्कि देश की सबसे पुरानी पार्टी को सबसे खराब दिनों में ला दिया। नरेंद्र मोदी इस कठिन उत्तराधिकार को स्वीकारते हुए इसीलिए साहस से भरे हैं। यह उनका अतिविश्वास ही है कि वे लालकिले से बुलेटप्रूफ शीशों के भीतर से खड़े होकर बोलने की लंबी परंपरा को भी तोड़ देते हैं। सुबह उठकर आए बच्चों से उनकी भीड़ में मिलने चले जाते हैं। उनका यह आत्मविश्वास एक आम हिंदुस्तानी  का आत्मविश्वास है। यह भरोसा उन्होंने लोगों के बीच लगातार काम करके हासिल किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनका यह देसीपना बना रहेगा। जब तक यह कायम रहेगा, उनमें माटी की खूशबू और महक बनी रहेगी। जनता भी उनके साथ खड़ी रहेगी तब तक जब तक वे बोलते रहेंगें डायरेक्ट दिल से। क्योंकि जनता बड़ी नहीं सरल और साधारण बाते सुनना चाहती है उनके मुंह से जो, जो जो कह रहे हों उन पर अमल भी कर रहे हों। नरेंद्र मोदी कृति और जीवन से एक लगते हैं इसलिए उनपर भरोसा करने का मन करता है। उम्मीद कीजिए कि यह भरोसा बना रहे।

( लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

ये उन दिनों की बात है...

-संजय द्विवेदी

   
   
         मुंबई में होना सच में एक सपने की तरह था। मुंबई में बिताए तीन साल सचमुच सपनों की तरह रहे और आज भी आंखों में तैरते हैं। उप्र के बस्ती शहर से निकला एक युवक मुंबई जैसे विशालकाय महानगर में अपने होने को लेकर ही अचंभित था। हमें याद हैं वे दिन जब 1997 में मुंबई से एक नए हिंदी अखबार का प्रकाशन प्रारंभ होना था। उन दिनों मैं रायपुर के एक अखबार में काम करता था, जहां समय पर वेतन के भी लाले थे। छत्तीसगढ़ के एक बड़े पत्रकार श्री बबन प्रसाद मिश्र की कृपा और आशीर्वाद से मुझे उस नए अखबार के मुंबई संस्करण में काम करने का अवसर मिला।
इन मुंबईः
जब मैं मुंबई पहुंचा तो यहां भी मेरे कई दोस्त और सहयोगी पहले से ही मौजूद थे। इन दिनों एबीपी न्यूज, दिल्ली में कार्यरत रघुवीर रिछारिया उस समय मुंबई में ही थे। वे स्टेशन पर मुझे लेने आए और संयोग ऐसा बना कि मुंबई के तीन साल हमने साथ-साथ ही गुजारे। यहां जिंदगी में गति तो बढ़ी पर उसने बहुत सारी उन चीजों को देखने और समझने का अवसर दिया, जिसे हम एक छोटे से शहर में रहते हुए महसूस नहीं कर पाते। मुंबई देश का सबसे बड़ा शहर ही नहीं है, वह देश की आर्थिक धड़कनों का भी गवाह है। यहां लहराता हुआ समुद्र, अपने अनंत होने की और आपके अनंत हो सकने की संभावना का प्रतीक है। यह चुनौती देता हुआ दिखता है। समुद्र के किनारे घूमते हुए बिंदास युवा एक नई तरह की दुनिया से रूबरू कराते हैं। तेज भागती जिंदगी, लोकल ट्रेनों के समय के साथ तालमेल बिठाती हुई जिंदगी, फुटपाथ किनारे ग्राहक का इंतजार करती हुई महिलाएं, गेटवे पर अपने वैभव के साथ खड़ा होटल ताज और धारावी की लंबी झुग्गियां मुंबई के ऐसे न जाने कितने चित्र हैं, जो आंखों में आज भी कौंध जाते हैं। सपनों का शहर कहीं जाने वाली इस मुंबई में कितनों के सपने पूरे होते हैं यह तो नहीं पता, पर न जाने कितनों के सपने रोज दफन हो जाते हैं। यह किस्से हमें सुनने को मिलते रहते हैं। लोकल ट्रेन पर सवार भीड़ भरे डिब्बों से गिरकर रोजाना कितने लोग अपनी जिंदगी की सांस खो बैठते हैं इसका रिकार्ड शायद हमारे पास न हो, किंतु शेयर का उठना-गिरना जरूर दलाल स्ट्रीट पर खड़ी एक इमारत में दर्ज होता रहता है। यहां देश के वरिष्ठतम पत्रकार और उन दिनों नवभारत टाइम्स के संपादक विश्वनाथ सचदेव से मुलाकात अब एक ऐसे रिश्ते में बदल गई है, जो उन्हें बार-बार छत्तीसगढ़ और मप्र आने के लिए विवश करती रहती है। विश्वनाथ जी ने पत्रकारिता के अपने लंबे अनुभव और अपने जीवन की सहजता से मुझे बहुत कुछ सिखाया। उनके पास बैठकर मुझे यह हमेशा लगता रहा कि एक बड़ा व्यक्ति किस तरह अपने अनुभवों को अपनी अगली पीढ़ी को स्थानांतरित करता है।
प्यार..दोस्ती और मस्तीः
इस शहर में हमने दोस्तियां की, आवारागर्दी की और मस्ती की। लहराते समुद्र के किनारे हाथ में हाथ डाले कितनी शामें गुजारीं तो वीकली आफ पर कई फिल्में एक साथ देखीं। फिल्में चुनकर नहीं देखीं, जो लगीं थीं, वही देख लीं। ये अजीब सा पागलपन था। पानी में भीगते हुए न जाने कितनी सुबहें और शामें गुजारीं। पहले कोपरखैरणे से, बाद में नालासोपारा से ट्रेन पकड़ कर सीएसटी आना और चर्चगेट होते हुए मरीन ड्राईव की सैर करना। कई बार समय बिताने के लिए जहांगीर आर्ट गैलरी के अबूझ चित्रों को देखना भी इसमें शामिल था। ये दिन आराम के दिन न थे। थकान के दिन न थे। एक खास आयु में किए जाने वाले हर शौक को हम फरमा रहे थे। कल का पता न था, बस मस्ती से जिए जा रहे थे... बिंदास और बेधड़क। हमें हमेशा लगता रहा कि चीजें हमारे अनूकूल हो रही हैं और इस जमाने में हमारा भी नाम होगा। लड़कियां आफिस हो सड़क, हमेशा अच्छी लगती रहीं और हमेशा ये लगता रहा कि ये न होतीं तो दुनिया कितनी बदरंग और बेमतलब  होती। मुंबई में गुजरे तीन साल ऐसी ही धूप-छांव के साल थे। जहां प्यार..दोस्ती और मस्ती का मेल था। शायद इसीलिए मुंबई की सोचता हूं तो एक पंक्ति याद आती है- ये उन दिनों की बात है..जब पागल-पागल फिरते थे।
अखबारी नौकरी और दोस्तों की फौजः
   यहां मेरे संपादक के नाते कार्यरत स्व. श्री भूपेंद्र चतुर्वेदी का स्नेह भी मुझे निरंतर मिला। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी कर्मठता, काम के प्रति उनका निरंतर उत्साह मुझे प्रेरित करता है। उसी दौरान पत्रकारिता से जुड़े सर्वश्री राघवेंद्र नाथ द्विवेदी, मनोज दुबे, कमल भुवनेश, अरविंद सिंह, केसर सिंह बिष्ट, अजय भट्टाचार्य, विमल मिश्र, सुधीर जोशी, विनीत चतुर्वेदी जैसे न जाने कितने दोस्त बने, जो आज भी जुड़े हुए हैं। मुंबई में काम करने के अनेक अवसर मिले। उससे काम में विविधता और आत्मविश्वास की ही वृध्दि हुई। यह अनुभव आपस में इतने घुले-मिले हैं कि जिसने एक पूर्ण पत्रकार बनाने में मदद ही की। मुंबई में रहने के दौरान ही वेब पत्रकारिता का दौर शुरू हुआ, जिसमें अनेक हिंदी वेबसाइट का भी काम प्रारंभ हुआ। वेबदुनिया, रेडिफ डाटकाम, इन्फोइंडिया डाटकाम जैसे अनेक वेबसाइट हिंदी में भी कार्य करती दिखने लगीं। हिंदी जगत के लिए यह एक नया अनुभव था। हमारे अनेक साथी इस नई बयार के साथ होते दिखे, किंतु मैं साहस न जुटा पाया। कमल भुवनेश के बहुत जोर देने पर मैंने इन्फोइंडिया डाटकाम में चार घंटे की पार्टटाइम नौकरी के लिए हामी भरी। जिसके लिए मुझे कंटेन्ट असिस्टेंट का पद दिया गया। वेब पत्रकारिता का अनुभव मेरे लिए एक अच्छा अवसर रहा, जहां मैंने वेब पत्रकारिता को विकास करते हुए देखा। आज वेब पत्रकारिता किस तरह मुख्यधारा की पत्रकारिता से होड़ कर रही है उसके पदचाप हमने सन 2000 में सुन लिए थे।
   मुंबई के वे दिन आज भी याद आते हैं और यह बताते हैं कि एक शहर कैसे अपने साथ इतने सपनों को लिए जी सकता है। मुंबई में होने का अहसास आज भी यादों को हरा-भरा कर देता है। दोस्तों के साथ गुजरा समय बार-बार याद आता है। ये स्मृतियां अनुभवों में बहुत सघन हैं और गुजरे वक्त के साथ बातचीत करती रहती हैं। बहुत से शहरों में रहने, जीने और होने के बाद भी मुंबई में होना एक सुखद अहसास की तरह जिंदा है। दोस्त आज भी उसी जिंदादिली से मिलते हैं, मुंबई में रहने वाले तो युवा बने ही रहते हैं। जिंदगी की जद्दोजहद उन्हें शहर के लायक बना ही लेती है। मुंबई यूं चलती रहे.. बिना ठहरे..बिना रूके। जिंदगी और उसकी धड़कनों की तरह।